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राजपूताना में मराठा प्रवेश के कारण एवं परिणाम

राजपूताना में मराठों के हस्तक्षेप के कारण एवं प्रभाव

पेशवा बाजीराव प्रथम एक पराक्रमी तथा महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने मुगल साम्राज्य की दुर्बलता का लाभ उठाकर उत्तरी भारत में मराठों की प्रभुता स्थापित करने का निश्चय कर लिया। 1728 में मराठों ने मालवा आक्रमण किया और वहाँ से मुगल गवर्नर गिरधर बहादुर को बुरी तरह से पराजित किया। वह मराठों से लड़ता हुआ मारा गया। 1731 ई. में मराठों ने मालवा के प्रमुख नगरों को खूब लूटा। सवाई जयसिंह भी मालवा में, मराठों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने में असमर्थ रहे। 1735 तक मालवा मराठों के प्रभुत्व में चला गया।

डॉ. यदुनाथ सरकार का कथन है कि मालवा में प्रवेश करने पर मराठों को राजस्थान पर आक्रमण करने के लिए एक आसान रास्ता मिल गया। शीघ्र ही मराठों को राजपूत-नरेशों की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया। जब जयपुर-नरेश सवाई जयसिंह ने बुद्धसिंह को हटाकर दलेलसिंह को बूंदी की गद्दी पर बिठा दिया तो बुद्धसिंह की रानी ने मराठा सरदार होल्कर को अपनी सहायता के लिए आमन्त्रित किया। परिणामस्वरूप मराठों की सहायता से बुद्धसिंह पुनः बूंदी की गद्दी पर बैठ गया। इसके बाद तो राजपूत नरेशों के राजपूत-राज्यों के आन्तरिक झगड़ा में मराठों के सहयोग की मांग बढ़ती ही गई। मारवाड़ के राजा अभयसिंह की मृत्यु हो जाने पर मारवाड़ को गद्दी के लिए उसके पुत्र रामसिंह और उसके भाई बख्तसिंह के मध्य संघर्ष छिड़ गया। मराठों को सहायता से बख्तसिंह ने जोधपुर का सिंहासन प्राप्त कर लिया। इसके पश्चात् भी मारवाड़ की गद्दी के लिए 1773 ई. तक संघर्ष चलता रहा और मराठों का हस्तक्षेप मारवाड़ में निरन्तर बढ़ता ही रहा। जयपुर नरेश सवाई जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् मराठों ने जयपुर राज्य से भारी धन-राशि प्राप्त करने के लिए जयपुर राज्य पर बार-बार धावे बोले।

इस प्रकार राजपूत नरेश अपनी आन्तरिक कलह के कारण मरानों को मध्यस्थता के लिए आमत्रित करते थे। मध्यस्थता करने के बदले मराठे इन राजपूत नरेशों से धन तो वसूल करते ही थे साथ ही उनके राज्यों की राजनीति में भी हस्तक्षेप करते थे तथा अपनी प्रभुता स्थापित करते थे राजस्थान के राज्यों में शासक निर्माता बन गए। राजपूत नरेश पूर्णत: उन पर आश्रित हो गये।

राजपूताना में मराठों के हस्तक्षेप के क्या कारण थे? इसके परिणामों पर भी विचार कीजिए।
राजपूताना में मराठा हस्तक्षेप के कारण

जदुनाथ सरकार लिखते हैं, "गृह-युद्धों के कारण दुर्थन और दरिद्र राजपूताने में मराठों ऊच्च स्थान प्राप्त हो गया। अब मराठे निःसहाय राजपूताने को प्रतिवर्ष लूटने लगे।"

राजस्थान में मराठों के प्रवेश के कारण

(1) मराठों की विस्तारवादी नीति-

पेशवा बाजीराव प्रथम (1720-17404) एक पाकमी तथा महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने मुगल साम्राज्य की दुर्बलता का साथ उठाकर सम्पूर्ण उत्तरी भारत में मराठा शक्ति का प्रसार करने का निश्चय कर लिया। उसने मालवा, गुजरात तथा बुन्देलखण्ड में मराठों की प्रभुता स्थापित कर दी। मालवा पर अधिकार करने पर मराठों का राजस्थान में प्रवेश करने का मार्ग भी प्रशस्त हो गया।

(2) शाहू की दयनीय आर्थिक अवस्था-

1707 ई. में जब शाहू महाराष्ट्र का शासक बना था तो उस समय वह साधनहीन था। उसकी आर्थिक अवस्था शोचनीय थी। उस समय दक्षिण भारत आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं था। अतः शाहू ने अपने पेशवा बाजीराव को मालवा तथा गुजरात जैसे धन-सम्पन्न प्रदेशों से 'चौथ' 'सरदेशमुखी' वसूल करने के आदेश दिए। जब मराठा सरदारों की आर्थिक दशा में विशेष सुधार नहीं हुआ तो उसने पेशवा को राजस्थान की ओर बढ़ने के भी आदेश दिए।

(3) मराठों की स्वभाव से धन लूटने की मनोवृत्ति-

शिवाजी ने अपनी सैन्य शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए जो लूट की परम्परा चलाई, वह उनकी मृत्यु के बाद परम्परागत ही बन गई। मराठों ने अपने राजस्व का प्रमुख साधन लूट के धन को बना लिया। अत: जब मराठों को गुजरात व मालवा में चौथ व सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार मिल गया तो उन्हें लूटने के लिए अब राजस्थान ही शेष रह गया था। अत: राजस्थान के धन को लूटने की लालसा से भी मराठे राजस्थान में अपना प्रवेश चाहते थे।

(4) बाजीराव प्रथम की महत्त्वाकांक्षा-

1720 ई. में बाजीराव प्रथम पेशवा बना। यह एक वीर योद्धा और कुशल सेनानायक था। वह मुगलों की दुर्बलता का लाभ उठाकर सम्पूर्ण में उत्तरी भारत पर मराठों का प्रभुत्व स्थापित कर देना चाहता था। अतः उसने मालवा, गुजरात तथा बुन्देलखण्ड को जीता और राजस्थान में भी मराठा शक्ति का प्रसार करने का निश्चय कर लिया। इसी उद्देश्य की सफलता के लिए उसने अपनी माता राधाबाई को 1753 ई. में जयपुर भेजा बाजीराव स्वयं भी 1736 ई. में जयपुर पहुंचा और जयपुर नरेश सवाई जयसिंह से भेंट की। इसके पश्चात् उसने मेवाड़ पहुँचकर वहाँ के महाराणा जयसिंह से भारी धनराशि प्राप्त की।

(5) मुगल साम्राज्य की दुर्बलता-

औरंगजेब की 1707 ई. में मृत्यु हो गई और उसके पश्चात् मुगल साम्राज्य पतनोन्मुख होता चला गया। दुर्बल और अयोग्य सागटों के कारण मुगल साम्राज्य की शक्ति तथा प्रतिष्ठा लुप्त होती चली गई। केन्द्रीय शक्ति को दुर्बलता के कारण अनेक प्रान्त स्वतन्त्र हो गए और मुगल दरबार दलबन्दी का शिकार बन गया। इस स्थिति में दुर्बल भुगल सम्राट राजस्थान के राजपूत नरेशों पर अपना प्रभावशाली नियन्त्रण नहीं रख सके। अत: राजपूत नरेश अनुशासनहीन हो गये और आपस में लड़ने-झगड़ने लगे। अब राजपूत राजघराने घर कलह के केन्द्र बन गए। परिणामस्वरूप शक्तिशाली मराठों ने राजपूताने के राजाओं की दुर्बलता का लाभ उठाया और वे राजस्थान में आकर राजपूत-नरेशों के झगड़ों में मध्यस्थता करने लगे।

(6) मुगल दरबार की दलबन्दी-

मुगल सम्राटों की दलबन्दी के कारण दरबार में दलबन्दी को प्रोत्साहन मिला। अब मुगल सम्राट अपने अमीरों की सहायता पर निर्भर रहने लगे। इसी कारण जयपुर नरेश सवाई जयसिंह तथा मारवाड़ नरेश अजीत सिंह मुगल दरबार के प्रभावशाली सामन्त बन गये। जब मुगल सम्राट फर्रुखसियर के समय में अजीत सिंह का प्रभाव बढ़ने लगा तो सवाई जयसिंह इसे सहन नहीं कर सके और उन्होंने मराठों को राजस्थान में प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहन दिया।

(7) राजपूत नरेशों की सैनिक दुर्बलता-

राजपूत नरेशों की सैन्य शक्ति की दुर्बलता के कारण भी मराठों को राजस्थान में प्रवेश करने का अवसर मिला। राजपूत नरेशों के पास युद्ध करने को न पर्याप्त सैनिक ही होते थे और न पर्याप्त युद्ध सामग्री होती थी। उनकी आर्थिक स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं थी कि वे एक शक्तिशाली और विशाल सेना की व्यवस्था कर सके। मराठे राजपूत नरेशों को इस दुर्बलता से भली-भाँति परिचित थे। अत: उन्होंने निर्भीक होकर राजस्थान की राजनीति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया।

(8) आन्तरिक कलह-

राजपूत राजघरानों में अत्यधिक कलह व्याप्त था। राजा की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी गद्दी प्राप्ति के लिए आपस में लड़ने-झगड़ने लग जाते थे। बूँदी, जोधपुर, जयपुर आदि इस प्रकार के संघर्ष के प्रमुख केन्द्र स्थल बने हुए थे। इन संघर्षों के कारण ही मराठों को राजस्थान की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर मिला।

मराठा आक्रमण के प्रभाव

(1) बूंदी राज्य पर प्रभाव-

1730 ई. में जयपुर-नरेश सवाई जयसिंह ने बुद्धसिंह को हटाकर दलेलसिंह को बूँदी की गद्दी पर बिठा दिया। इस पर बुद्धसिंह की रानी ने मराठों से सहायता मांगी। 1734 ई. में मराठों ने बूंदी पर आक्रमण किया और बुद्धसिंह के पुत्र उम्मेदसिंह को बूँदी को गद्दी पर बिठा दिया। परन्तु मराठों के वापिस लौटते ही सवाई जयसिंह के सैनिकों ने बूंदी पर आक्रमण करके दलेलसिंह को पुनः गद्दी पर बिठा दिया। 1743 ई. में सवाई जयसिंह की मृत्यु हो गई तथा उसकी मृत्यु के पश्चात् उम्मेदसिंह ने बूंदी की गद्दी प्राप्त करने के प्रयास शुरू कर दिए। इस बार कोटा-नरेश दुर्जनशाल ने भी उम्मेदसिंह की सहायता की 11744 ई. में उसने बूंदी पर पुनः अधिकार कर लिया परन्तु कुछ समय पश्चात् ही जयपुर नरेश ईश्वरीसिंह ने मराठों को सहायता से बूंदी पर अधिकार कर लिया और उम्मेदसिंह को पुन: गद्दी से वंचित कर दिया। इस पराजय से भी उम्मेदसिंह निराश नहीं हुआ। 1748 ई. में बगरु के युद्ध में ईश्वरीसिंह की पराजय हुई और उसे उम्मेदसिंह को बूंदी का राजा स्वीकार करना पड़ा। 23 अक्टूबर, 1748 को उम्मेदसिंह बूंदी के सिंहासन पर बैठा।

यद्यपि उम्मेदसिंह बूंदी का सिंहासन प्राप्त करने में तो सफल हुआ परन्तु लम्बे समय से चले आ रहे संघर्ष के कारण बूँदी की आर्थिक अवस्था दयनीय हो गई। उम्मेदसिंह को मराठों से चले आ रहे संघर्ष के कारण बूँदी की आर्थिक अवस्था दयनीय हो गई। उम्मेदसिंह को मराठों से सहायता प्राप्त करने के बदले में उन्हें 10 लाख रुपये देने का वचन देना पड़ा। उसे बूँदी, नैनवा तथा दूसरे स्थानों की चौथ भी उन्हें देनी पड़ी। इस प्रकार बूंदी के इस दीर्घकालीन संघर्ष में राजस्थान के नरेशों को धन-जन को काफी हानि उठानी पड़ी।

(2) जोधपुर का प्रभाव-

1749 ई. में जोधपुर नरेश अभयसिंह की मृत्यु हो गई और उसकी मृत्यु के पश्चात् रामसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। परन्तु अभयसिंह का भाई बख्तसिंह भी जोधपुर की गद्दी प्राप्त करने के लिए लालायित था। अत: नवम्बर, 1750 ई. बख्तसिंह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र विजयसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। रामसिंह ने मराठों की सहायता प्राप्त करने का प्रयास जारी रखा। जून, 1754 में रघुनाथ राव ने जयप्पा सिन्धिया को रामसिंह की सहायता के लिए विजयसिंह के विरुद्ध भेजा। 15 सितम्बर, 1754 को मेड़ता के निकट विजयसिंह ने मराठों का वीरतापूर्वक मुकाबला किया। परन्तु अन्त में उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। वह नागौर के दुर्ग में चला गया। मराठों ने अजमेर तथा जालौर पर अधिकार कर लिया। यद्यपि 25 जुलाई, 1755 को जयप्पा सिन्धिया को विजयसिंह ने धोखे से मरवा डाला परन्तु जयप्पा के भाई दत्ताजी ने नागौर के दुर्ग की घेराबन्दी जारी रखी। अन्त में 1756 में विजयसिंह को मराठों से सन्धि करनी पड़ी जिसके अनुसार उसे अजमेर का प्रदेश मराठों को सौंपना पड़ा। युद्ध के हर्जाने के रूप में 50 लाख रुपये देने का वचन देना पड़ा। इसके अतिरिक्त जालौर का नगर तथा आधार मारवाड़ रामसिंह को देना पड़ा। मराठों के लौट जाने के पश्चात् विजयसिंह ने रामसिंह को दिए गए परगनों को वापस लेने का प्रयास किया परन्तु मराठों के दबाव के कारण उसे सफलता नहीं मिली। परन्तु 1722 में रामसिंह की मृत्यु के पश्चात् उसे इस कार्य में सफलता मिल गई।

(3) जयपुर राज्य पर प्रभाव-

1743 ई. में सवाई जयसिंह की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के साथ ही जयपुर के सिंहासन के लिए उत्तराधिकारी संघर्ष शुरू हो गया।

सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र ईश्वरीसिंह जयपुर का शासक बना। इस पर जयसिंह के एक अन्य पुत्र माधोसिंह ने जयपुर राज्य के आधे हिस्से की माँग की जिसे ईश्वरीसिंह ने अस्वीकार कर दिया। माधोसिंह ने अपने मामा मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह की सलाह पर मराठा सरदार होल्कर से सैनिक सहायता प्राप्त कर ली और इसके लिए 20 लाख रुपये देने का आश्वासन दिया। उधर ईश्वरीसिंह ने रानोजी सिन्धिया का समर्थन प्राप्त कर लिया। 1748 में पेशवा के प्रयासों से दोनों भाइयों में समझौता हो गया। ईश्वरीसिंह ने अपने भाई माधोसिंह को जयपुर राज्य के चार जिले देना स्वीकार कर लिया परन्तु पेशवा के लौटते ही ईश्वरीसिंह ने माधोसिंह को चार जिले देना अस्वीकार कर दिया। इस पर माधोसिंह ने मराठों की सहायता से ईश्वरीसिंह का विरोध किया। 1 अगस्त, 1748 को बगरु नामक स्थान पर दोनों पक्षों के मध्य युद्ध शुरू हुआ। इस युद्ध में ईश्वरीसिंह पराजित हुआ। उसे होल्कर को एक बड़ी राशि देने का वचन देना पड़ा। 1750 में होल्कर ईश्वरीसिंह से रुपया वसूल करने आया। ईश्वरीसिंह मराठों की मांगों को पूरा करने में असमर्थ था। अतः उसने आत्महत्या कर ली।

2 जनवरी, 1751 को माधोसिंह होल्कर की सहायता से जयपुर की गद्दी पर बैठ गया। माधोसिंह ने मराठों को 10 लाख रुपया भेंट में दिया परन्तु मराठे इससे सन्तुष्ट नहीं हुए और उन्होंने जयपुर राज्य का 1/3 अथवा 1/4 भाग की मांग की। माधोसिंह इससे बड़ा क्रुद्ध हुआ और उसने मराठों के सेनानायकों को समाप्त करके उनसे मुक्ति पाने का षड्यन्त्र रचना शुरू किया। 10 जनवरी, 1751 को जव चार हजार मराठा सैनिकों ने जयपुर नगर में प्रवेश किया तो माधोसिंह के सैनिकों ने, इन मराठा सैनिकों पर अचानक धावा बोल दिया और उनका कत्ले-आम शुरू कर दिया। केवल 70 मराठा सैनिक अपने प्राण बचाकर भागने में सफल हुए। इस घटना से माधोसिंह और मराठों के बीच शत्रुता अपनी चरम सीमा पर जा पहुंची।

मल्हार राव होल्कर बकाया धन वसूल करने के लिए अक्टूबर, 1759 में जयपुर पहुँच गया। माधोसिंह ने मराठों का वीरतापूर्वक मुकाबला किया।2 जनवरी, 1760 को होल्कर को घेरा उठाकर भीषण पराजय का सामना करना पड़ा। कुछ समय पश्चात् मराठों ने पुनः जयपुर राज्य पर धावे बोलने शुरू कर दिये। 1787 में सिन्धिया और जयपुर नरेश प्रतापसिंह की सेनाओं के बीच तूंगा के समीप घमासान युद्ध हुआ जिसमें मराठों की पराजय हुई। 1790 में सिन्धिया ने राज्य पर आक्रमण किया और प्रतापसिंह को पराजित किया।

 (4) मेवाड़ राज्य पर प्रभाव-

1735 ई. में पेशवा बाजीराव उदयपुर पहुंचा और मेवाड़ के महाराणा को पहली बार मराठों की चौथ देना स्वीकार करना पड़ा। 1761 में राजसिंह को मृत्यु के पश्चात् उसका चाचा अडसी मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। परन्तु मेवाड़ के सरदार राजसिंह के पुत्र रतनसिंह को गद्दी पर बिठाना चाहते थे। महाराणा अडसी ने मराठों को 20 लाख रुपये देने का वचन दिया। दूसरी ओर रतनसिंह के समर्थकों ने महादाजी सिन्धिया को 50 लाख रुपया देने का आश्वासन दिया। इस पर 14 दिसम्बर, 1768 को सिन्धिया ने उदयपुर पर आक्रमण करने के लिए उज्जैन से प्रस्थान किया। यद्यपि महाराणा अड़सी ने सिन्धिया की सेना का मुकाबला किया परन्तु उसे पराजित होकर वापस लौटना पड़ा। 1769 में सिन्धिया ने उदयपुर नगर को घेर लिया। इस पर महाराणा अड़सी को सिन्धिया से एक सन्धी करनी पड़ी जिसके अनुसार उसने सिन्धिया को 60 लाख रुपये देना स्वीकार कर लिया। मराठों के इस हस्तक्षेप के बाद तो मेवाड़ में मराठों को निरन्तर लूटमार आरम्भ हो गई।

(5) राजपूत नरेशों की आर्थिक स्थिति का दयनीय होना-

निरन्तर मराठा आक्रमणों के कारण राजस्थान के राजपूत-नरेशों की आर्थिक स्थिति शोचनीय होती चली गई। उन्हें मराठों से पिण्ड छुड़ाने के लिए भारी धन-राशि देनी पड़ती थी परन्तु मराठों को धन-लिप्सा निरन्तर बढ़ती चली गई। वे अपनी माँगे बढ़ाते रहते थे और राजपूत-नरेशों से अधिक से अधिक धन वसूल करने का प्रयास करते थे। परिणामस्वरूप राजपूत नरेशों की आर्थिक स्थिति दयनीय होती चली गई।

(6) राजपूत नरेशों की शासन व्यवस्था का अस्त-व्यस्त होना-

एक ओर तो राजपूत-नरेश गृह-कलह के शिकार बने हुए थे, तो दूसरी ओर उन्हें मराठों के हस्तक्षेप का निरन्तर सामना करना पड़ा। उनका अधिकांश समय मराठा आक्रमणों को टालने में ही व्यतीत होता था। मराठों के लगातार धावों और हस्तक्षेप के कारण राजपूत नरेशों की शासन व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। उनके राज्यों में अशान्ति और अव्यवस्था फैल गई। राजपूत नरेश मराठों के हस्तक्षेप के कारण व्यस्त रहते थे तथा जनता की भलाई की ओर ध्यान नहीं दे पाते थे।

(7) राजस्थान पर मराठों का प्रभुत्व-

मराठों ने राजपूत-नरेशों की दुर्बलता का लाभ उठाया और उन्होंने अनेक राज्यों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। धीरे-धीरे अधिकांश राजपूत राज्यों पर मराठों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। वे शासन निर्माता बन गये। राजपूत-नरेश मराठों की कठपुतली मात्र बन गए और उनके इशारों पर नाचने लगे।

(8) राजपूत और मराठों के बीच शत्रुता में वृद्धि-

मराठों की निरन्तर विजयों से राजपूतों के आत्म-गौरव तथा प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचा जिससे राजपूतों में उनके प्रति तीव्र कटुता उत्पन्न हुई। मराठों कठोर व्यवहार के कारण जयपुर नरेश ईश्वरीसिंह को आत्महत्या करनी पड़ी थी। अतः राजपूत नरेश मराठों को नीचा दिखाने के लिए उचित-अनुचित उपायों का सहारा लेने लगे। अनेक राजपूत नरेशों ने मराठों के शत्रु अहमदशाह अब्दाली से सम्पर्क स्थापित किया और उसे सहायता देने का आश्वासन दिया।

अत: जब 1761 ई. में मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ तो राजस्थान के राजपूत-नरेशों ने मराठों की सहायता नहीं की, जिसके फलस्वरूप मराठों को भीषण पराजय का सामना करना पड़ा।

(9) राजपूत नरेशों का प्रभाव-

मराठों के निरन्तर आक्रमणों ने राजपूत-नरेशों को दुर्बल और असहाय बना दिया। वे अपने आत्म-गौरव तथा स्वाभिमान को खो बैठे। मराठा आक्रमणों से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए वे अंग्रेजों की ओर उन्मुख होते चले गए। परिणामस्वरूप राजपूत-नरेशों का स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त होता चला गया और वे अंग्रेजों की अधीनता में चले गए।

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