बीसवीं सदी का विश्व
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण
1919 में पेरिस सम्मेलन में शान्ति सम्मेलन के उपरान्त पूर्ण विश्वास हो गया था कि उन्होंने विश्व को भावी शान्ति के लिये सुरक्षित बना दिया है। लेकिन 1931 से ही कुछ ऐसी घटनाओं का चक्र आरम्भ हुआ जिनसे यूरोप का शान्ति का वातावरण बदलने लगा। राष्ट्र संघ की स्थापना तथा सामूहिक सुरक्षा प्रणाली के कारण विश्व में शान्ति की आशा बलवती अवश्य हुई थी, किन्तु इटली, जर्मनी व जापान के प्रति राष्ट्र संघ व इंग्लैण्ड और फ्रांस द्वारा अपनायी गयी तुष्टिकरण की नीति ने उस शक्ति की आशा को शीघ्र ही धूमिल बना दिया। हिटलर ने तो सत्ता में आते ही इस प्रकार के कार्य करना आरम्भ कर दिये जिनसे की यूरोप का वातावरण दिनोंदिन अशान्त होता ही चला गया। इसका परिणाम यह निकला कि हिटलर ने 1 सितम्बर, 1939 को पौलेण्ड पर आक्रमण कर दिया। 3 सितम्बर को जब इंग्लैण्ड व फ्रांस ने जर्मनी की इस आक्रामक कार्यवाही के विरुद्ध युद्ध की घोषण कर दी तो विश्व में द्वितीय विश्व युद्ध का श्रीगणेश हो गया।
इस प्रकार
द्वितीय विश्व युद्ध के प्रमुख कारणों का वर्णन निम्नलिखित है-
1. वर्साय की सन्धि-
प्रथम विश्व
युद्ध के पश्चात्
जर्मनी पर वर्साय की सन्धि थोपी गई। विजेता राष्ट्रों ने प्रतिशोध की भावना
से प्रेरित होकर जर्मनी को आर्थिक, सैनिक तथा राजनीतिक दृष्टि से पंगु बनाने का प्रयास किया।
डेंजिंग को जर्मनी से पृथक् कर दिया गया। सार का कोयले का उत्पादन-क्षेत्र भी उससे
छीन लिया गया। इसके अतिरिक्त मित्र राष्ट्रों ने उसकी सैनिक शक्ति सीमित कर दिया
और सैनिक दृष्टि से भी उसको पंगु बना दिया गया।
ई.एच. कार का कथन है कि, "जर्मनी का जिस
कठोरतापूर्वक और सम्पूर्ण रूप से नि:शस्त्रीकरण किया गया, उतना और किसी देश का कभी
नहीं किया गया था।" मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी पर क्षतिपूर्ति की इतनी भारी
राशि लादी जिसका भुगतान करना जर्मनी के लिए सम्भव नहीं था। चर्चिल के
अनुसार,
"सन्धि की आर्थिक
धारायें अहितकर एवं मूर्खतापूर्ण थीं। उससे सम्बन्धित लेन-देन को इतिहास में
पागलपन की संज्ञा प्रदान की जायेगी। उन्होंने सैन्यवादी अभिशाप तथा आर्थिक संकट की
उत्पत्ति में सहायता पहुँचाई।"
अत: जर्मन लोग
वर्साय की सन्धि को अत्यन्त अपमानजनक, अन्यायपूर्ण तथा अत्यन्त कठोर मानते थे। उनमें इस अपमानजनक
सन्धि के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। जर्मनी जैसा स्वाभिमानी देश इस प्रकार की कठोर
एवं अपमानजनक सन्धि को दीर्घकाल तक सहन नहीं कर सकता था। अत: जर्मन लोग इस सन्धि
को निरस्त कराने के लिए कटिबद्ध थे। 1933 में हिटलर ने सत्तारूढ़ होते ही
वर्साय की सन्धि की धज्जियाँ उड़ाना शुरू कर दिया। इंग्लैण्ड और फ्रांस के आपसी
मतभेदों के कारण हिटलर को वर्साय की सन्धि का उल्लंघन करने का अवसर मिल
गया। 1935 में हिटलर ने जर्मनी में सैनिक सेवा को अनिवार्य कर वर्साय की सैनिक
धाराओं का उल्लंघन किया। 1936 में उसने राइनलैण्ड में जर्मन सेना भेजकर पुन:
वर्साय की सन्धि का उल्लंघन किया। 1938 में उसने आस्ट्रिया को हड़प लिया। कुछ समय
पश्चात् उसने चेकोस्लोवाकिया पर भी अधिकार कर लिया। 1 सितम्बर, 1939 को उसने पोलैण्ड पर
आक्रमण करके द्वितीय विश्व युद्ध का सूत्रपात कर दिया।
प्रो. लैंगसम के अनुसार, वर्साय की सन्धि में भावी संघर्ष के बीज
निहित थे। मार्शल फौच ने ठीक ही कहा था कि, "यह शान्ति-सन्धि नहीं है, यह केवल 20 वर्ष के लिए
युद्ध-विराम है।" अत: अनेक इतिहासकार वर्साय की सन्धि को द्वितीय विश्व युद्ध
के लिए उत्तरदायी मानते हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के कारण |
2. यूरोप में अधिनायकवादी
शक्तियों का उत्कर्ष-
प्रथम विश्व
युद्ध के बाद यूरोप
में अधिनायकवादी शक्तियों का उदय हुआ। इटली में फासिस्टवाद तथा
जर्मनी में नाजीवाद का उदय हुआ। 1922 में इटली में फासिस्ट दल के नेता मुसोलिनी
के हाथों में सत्ता आ गई और शीघ्र ही वहाँ अपनी तानाशाही सत्ता स्थापित कर ली। वह
घोर साम्राज्यवादी व्यक्ति था। वह अफ्रीका में इटली के औपनिवेशिक साम्राज्य का
विस्तार करने के लिए भी कटिबद्ध था। वह विश्व-शान्ति तथा राष्ट्रसंघ से घृणा करता
था तथा युद्ध को मनुष्य के लिए अनिवार्य मानता था। वह कहा करता था कि, "जिस प्रकार महिला के लिए
मातृत्व धारण करना आवश्यक है, उसी प्रकार युद्ध
भी मनुष्य के लिए अनिवार्य है।" उसने एबीसीनिया पर आक्रमण किया तथा 1936 में
सम्पूर्ण एबीसीनिया पर इटली का अधिकार हो गया।
जर्मनी में नाजी
दल का उत्कर्ष हुआ तथा 1933 में हिटलर जर्मनी का तानाशाह बन गया। उसका
उद्देश्य वर्साय की सन्धि को निरस्त करके अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जर्मनी की
प्रतिष्ठा को पुन: स्थापित करना था। वह समस्त जर्मन भाषा-भाषी लोगों को वृहत्
जर्मनी में सम्मिलित करना चाहता था। 1935 में उसने जर्मनी में सैनिक सेवा अनिवार्य
कर दी तथा 1936 में राइन प्रदेश के विसैन्यीकृत क्षेत्र में जर्मन सेनाएँ भेजकर
वर्साय की सन्धि की सैनिक धाराओं का उल्लंघन किया। स्पेन के गृह युद्ध में उसने
जनरल फ्रेंको को सैनिक सहायता दी जिसके फलस्वरूप जनरल फ्रेंको विजयी हुआ तथा स्पेन
में उसकी तानाशाही सरकार स्थापित हो गई। 1938 में हिटलर ने आस्ट्रिया को हड़प
लिया। इसके बाद उसकी साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ बढ़ती गईं तथा 1939 में सम्पूर्ण
चेकोस्लोवाकिया पर भी जर्मनी का अधिकार हो गया।
अन्त में 1
सितम्बर, 1939 को पोलैण्ड पर
आक्रमण करके हिटलर ने द्वितीय महायुद्ध का सूत्रपात कर दिया। जापान
में सैनिकवादी नेताओं का उत्कर्ष हुआ। जापान ने राष्ट्रसंघ की अवहेलना करते हुए
मन्चूरिया पर अधिकार कर लिया। 1937 में जापान में चीन के विरुद्ध अघोषित युद्ध
छेड़ दिया तथा चीन के अनेक नगरों पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार तानाशाही शक्तियों
की गतिविधियों ने द्वितीय महायुद्ध को अवश्यम्भावी बना दिया।
3. विश्व का दो
गुटों में विभाजन-
द्वितीय विश्व
युद्ध के पूर्व विश्व
दो गुटों में विभाजित हो गया। एक ओर इंग्लैण्ड, फ्रांस अमेरिका आदि थे जो प्रजातन्त्रीय विचारधारा के
समर्थक थे। ये देश प्रथम महायुद्ध के पश्चात् की व्यवस्थाओं को बनाये रखना चाहते
थे। दूसरी ओर जर्मनी, इटली, जापान जैसे राष्ट्र थे जो
एकतन्त्रीय विचारधारा के समर्थक थे। ये देश पेरिस शान्ति व्यवस्था के विरोधी थे
तथा सैन्य-शक्ति के बल पर अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति के समर्थक थे। ये
विस्तारवादी नीति के प्रबल समर्थक थे तथा अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार
करना चाहते थे। अतः इन दोनों विचारधाराओं में संघर्ष होना अनिवार्य था। मुसोलिनी
का कथन था कि,
"इन दो
विचारधाराओं में समझौता होना असम्भव है। इस संघर्ष के कारण या तो हम ही रहेंगे या वे
ही रहेंगे।"
4. निःशस्त्रीकरण के
प्रयासों की विफलता-
शस्त्रीकरण की होड़ प्रथम विश्व
युद्ध के लिए भी उत्तरदायी थी। अतः प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् विश्व के प्रमुख
राजनीतिज्ञों ने शस्त्रीकरण की होड़ को समाप्त करने पर बल दिया। 1932 में जिनेवा
में एक निःशस्त्रीकरण सम्मेलन आयोजित किया गया परन्तु प्रारम्भ से ही जर्मनी तथा
फ्रांस के मतभेदों के कारण नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों को सफलता नहीं मिल सकी।
फ्रांस अपनी सुरक्षा के प्रति अधिक चिन्तित था, अत: उसने नि:शस्त्रीकरण को कभी महत्त्व नहीं दिया। जर्मनी
का कहना था कि जर्मनी की भाँति अन्य देशों पर भी नि:शस्त्रीकरण का सिद्धान्त लागू
किया जाना चाहिए। जब जर्मनी की माँग पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो 1933 में हिटलर
ने नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन से पृथक् होने की घोषणा कर दी। इसके बाद हिटलर ने
जर्मनी का पुनः शस्त्रीकरण करना शुरू कर दिया।
1935 में हिटलर
ने जर्मनी में सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी और अस्त्र-शस्त्रों की वृद्धि पर
अत्यधिक बल दिया। अन्य देश भी अपनी सैन्य-शक्ति में वृद्धि करने लगे। प्रतिवर्ष
उनका सैन्य-बजट बढ़ने लगा। फ्रांस ने अपनी उत्तरी-पूर्वी सीमा पर जर्मनी के नीचे
किलों की एक श्रृंखला बनाई जिसे 'मेजिनो लाइन' कहा जाता था। दूसरी ओर
जर्मनी ने भी अपनी सीमा पर किलेबन्दी की जिसे 'सीग फ्री 5 लाइन' कहा जाता था। इस प्रकार
शस्त्रीकरण की दौड़ चरम सीमा पर पहुँच गई। चारों ओर ऐसा वातावरण बन गया कि निकट
भविष्य में युद्ध अनिवार्य दिखाई देने लगा। शस्त्रीकरण की होड़ के कारण भय तथा
सन्देह की भावनाएँ उत्पन्न हुईं तथा यूरोप एक ऐसा बारूद का भण्डार बन गया जिसमें
किसी भी चिंगारी से भयंकर विस्फोट हो सकता था।
5. उग्र राष्ट्रवाद-
उग्र राष्ट्रवाद भी द्वितीय विश्व
युद्ध का एक प्रमुख कारण था। जर्मनी, इटली, जापान आदि देशों
में उग्र राष्ट्रवाद का प्रभाव बहुत अधिक था। ये देश अपनी जाति, संस्कृति एवं सभ्यता को
ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे। हिटलर ने जर्मन जाति को सर्वश्रेष्ठ जाति बतलाया तथा
वर्साय की सन्धि को निरस्त कराने के लिए जर्मन लोगों को प्रेरित किया। उसने जर्मन
भाषा-भाषी राज्यों को जर्मन-साम्राज्य के अधीन संगठित करने का दृढ़ निश्चय किया।
1938 में उसने आस्ट्रिया को हड़प लिया और चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग कर
सुडेटनलैण्ड को जर्मन- साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। मार्च, 1939 में उसने सम्पूर्ण
चेकोस्लोवाकिया पर अधिकार कर लिया।
इटली में भी उग्र राष्ट्रवाद
का प्रभाव अत्यधिक था। मुसोलिनी प्राचीन रोम की भाँति इटली के गौरव को चरम
सीमा पर पहुँचाना चाहता था। वह इटली की गिनती विश्व की महान् शक्तियों में करवाना
चाहता था। उसने भूमध्यसागर में इटली का प्रभुत्व स्थापित करने तथा अफ्रीका में
इटली के साम्राज्य का विस्तार करने का निश्चय कर लिया। इसी कारण जापान में भी उग्र
राष्ट्रवाद का बोलबाला था। जापान के उग्र सैनिकवादी नेता मन्चूरिया, मंगोलिया तथा चीन पर
अधिकार कर लेना चाहते थे। अत: उग्र राष्ट्रवाद की भावना के कारण अन्तर्राष्ट्रीयता
की भावना को आघात पहुँचा तथा शस्त्रीकरण और साम्राज्यवाद की भावना को प्रोत्साहन
मिला।
6. आर्थिक संकट-
1929 की विश्वव्यापी
आर्थिक मन्दी भी द्वितीय विश्व युद्ध के लिए उत्तरदायी थी। आर्थिक संकट का
जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा। इससे जर्मन लोगों की आर्थिक दशा
बड़ी शोचनीय हो गई। आर्थिक संकट के कारण जर्मनी में नाजीदल की शक्ति में वृद्धि
हुई तथा हिटलर का उत्कर्ष हुआ। आर्थिक संकट के कारण जापान की आर्थिक दशा भी शोचनीय
हो गई। उसका विदेशी व्यापार घटकर लगभग आधा रह गया। इस आर्थिक संकट के कारण जापान
में सैन्यवाद का प्रभाव बढ़ा। आर्थिक मन्दी से परेशान होकर जापान ने मन्चूरिया पर
आक्रमण करके उस पर आधिपत्य स्थापित कर लिया जिससे राष्ट्रसंघ की प्रतिष्ठा को
प्रबल आघात पहुँचा। इटली ने भी आर्थिक संकट से परेशान होकर अफ्रीका में
साम्राज्य-विस्तार की योजना बनाई तथा 1935 में एबीसीनिया पर आक्रमण करके उस पर
अधिकार कर लिया।
7. साम्राज्यवादी
भावना का प्रसार-
अनेक देशों में साम्राज्यवादी
भावना प्रबल बनी हुई थी। जर्मनी, इटली, जापान आदि देश
साम्राज्यवादी नीति के प्रबल पोषक थे। मुसोलिनी तथा हिटलर दोनों ही घोर
साम्राज्यवादी व्यक्ति थे। दोनों ही साम्राज्य-विस्तार के लिए प्रयत्नशील थे तथा
इसके लिए वे युद्ध को अनिवार्य मानते थे। वे भी कच्चा माल प्राप्त करने के लिए तथा
अपना तैयार माल खपाने के लिए नई-नई मण्डियाँ चाहते थे। जापान ने साम्राज्यवादी
नीति अपनाते हुए 1931 में मन्चूरिया पर आक्रमण किया तथा 1932 तक सम्पूर्ण
मन्चूरिया पर अधिकार कर लिया। 1935 में इटली ने एबीसीनिया पर आक्रमण किया और 1936
में सम्पूर्ण एबीसीनिया पर इटली का अधिकार हो गया। इसके अतिरिक्त 8 अप्रेल, 1939 को इटली ने
अल्बानिया पर भी अधिकार कर लिया। हिटलर भी पीछे नहीं रहा। 1938 में उसने आस्ट्रिया
को हड़प लिया। मार्च, 1939 में
सम्पूर्ण चेकोस्लोवाकिया पर जर्मनी का अधिकार हो गया। इस प्रकार इटली, जर्मनी तथा जापान की
साम्राज्यवादी गतिविधियों ने सारे संसार को द्वितीय विश्व युद्ध की ओर धकेल दिया।
8. राष्ट्रसंघ की
असफलता-
प्रथम विश्व
युद्ध के पश्चात् आपसी
झगड़ों का शान्तिपूर्ण तरीकों से निपटारा करने, भावी युद्धों को रोकने तथा विश्व शान्ति को बनाये रखने के
लिए राष्ट्रसंघ की स्थापना की गई थी। परन्तु राष्ट्रसंघ अपने उद्देश्यों की
पूर्ति करने में असफल रहा। राष्ट्रसंघ साम्राज्यवादी शक्तियों की आक्रामक
गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगा सका। अतः शक्तिशाली राष्ट्र राष्ट्रसंघ की अवहेलना
करते रहे तथा अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति करते रहे। राष्ट्रसंघ
की सफलता बहुत कुछ इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के संयुक्त प्रयासों पर निर्भर थी। परन्तु
दुर्भाग्य से इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के बीच तीव्र मतभेद थे। इसलिए वे इटली, जर्मनी तथा जापान की
आक्रामक कार्यवाहियों का प्रभावशाली ढंग से प्रतिरोध नहीं कर सके। 1931 में जापान
ने मन्चूरिया पर आक्रमण किया, परन्तु
राष्ट्रसंघ जापान के विरुद्ध कठोर कार्यवाही नहीं कर सका। इससे राष्ट्रसंघ की
दुर्बलता प्रकट हो गई। 1935 में इटली ने एबीसीनिया पर आक्रमण किया परन्तु
राष्ट्रसंघ इटली के आक्रमण से एबीसीनिया की रक्षा नहीं कर सका। 1936 में सम्पूर्ण
एबीसीनिया पर इटली का अधिकार हो गया। इससे राष्ट्रसंघ की प्रतिष्ठा को प्रबल आघात
पहुँचा और छोटे राष्ट्रों का राष्ट्रसंघ एवं सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त में कोई
विश्वास नहीं रहा। इस घटना से साम्राज्यवादी शक्तियों के हौंसले बढ़ गये तथा
उन्होंने अपनी आक्रामक गतिविधियाँ तेज कर दी।
1936 में हिटलर
ने राइनलैण्ड में जर्मन सेनाओं को भेजकर वर्साय की सन्धि का उल्लंघन किया तो भी
राष्ट्रसंघ ने हिटलर के विरुद्ध कोई कठोर कदम नहीं उठाया। 1936 में स्पेन में
गृह-युद्ध छिड़ गया। हिटलर तथा मुसोलिनी ने जनरल फ्रेंको की हर सम्भव सैनिक सहायता
की जिसके फलस्वरूप जनरल फ्रेंको विजयी हुआ तथा उसने स्पेन में अपनी तानाशाही सरकार
स्थापित कर ली। इस अवसर पर भी राष्ट्रसंघ निष्क्रिय बना रहा था वह स्पेन की
गणतन्त्रवादी सरकार की रक्षा नहीं कर सका। 1938 में जर्मनी ने आस्ट्रिया को हड़प
लिया तथा मार्च,
1939 में
सम्पूर्ण चेकोस्लोवाकिया पर अधिकार कर लिया। परन्तु इन दोनों अवसरों पर भी
राष्ट्रसंघ मूकदर्शक बना रहा। राष्ट्रसंघ की असफलता ने द्वितीय विश्व युद्ध को
अवश्यम्भावी बना दिया।
9. स्पेन का
गृह-युद्ध-
जुलाई, 1936 में स्पेन में गृह-युद्ध
छिड़ गया। एक ओर जनरल फ्रेंको था जिसका समर्थन प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ कर रही
थीं तथा दूसरी ओर स्पेन की उदार गणतन्त्रवादी सरकार थी। हिटलर तथा मुसोलिनी
ने जनरल फ्रेंको को हर सम्भव सैनिक सहायता दी। दूसरी ओर सोवियत संघ ने स्पेन की गणतन्त्रवादी
सरकार को सैनिक सहायता प्रदान की। इस प्रकार स्पेन का गृह-युद्ध केवल स्पेन तक ही
नहीं रहा, अपितु इसमें यूरोप के देश
भी कूद पड़े। इंग्लैण्ड तथा फ्रांस ने अहस्तक्षेप की नीति अपनाई जो जनरल फ्रेंको
के लिए लाभदायक सिद्ध हुई। अन्त में मार्च, 1939 में जनरल फ्रेंको की विजय हुई तथा स्पेन में उसने अपनी
तानाशाही सरकार की स्थापना की। जनरल फ्रेंको की विजय से फासिस्टवादी तथा
साम्राज्यवादी शक्तियों को प्रोत्साहन मिला।
इस घटना से
राष्ट्रसंघ की दुर्बलता भी प्रकट हो गई। स्पेन के गृह-युद्ध के फलस्वरूप इटली तथा
जर्मनी में घनिष्ठता बढ़ गई तथा 1937 में रोम-बर्लिन-टोक्यो धुरी का
निर्माण हुआ। अब इटली तथा जर्मनी की आक्रामक गतिविधियाँ तेज हो गईं। इटली ने
फ्रांस से ट्यूनिस, कोर्सिका, नीस, सेवाय आदि प्रदेश वापिस
लेने के लिए माँग करना शुरू कर दिया। 8 अप्रेल, 1939 को इटली ने अल्बानिया पर अधिकार कर लिया। जर्मनी ने
आस्ट्रिया तथा चेकोस्लोवाकिया पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार स्पेन के गृह-युद्ध ने
द्वितीय विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।
10. अल्पसंख्यक
जातियों का असन्तोष-
पेरिस
शान्ति-सन्धियों से अल्पसंख्यक जातियों में तीव्र आक्रोश था। आस्ट्रिया के
जर्मनों को जर्मनी से पृथक् रखा गया तथा पोलैण्ड को समुद्र तक पहुँचने का मार्ग
देने के लिए पूर्वी प्रशा को शेष जर्मनी से अलग कर दिया गया। यद्यपि आत्म-निर्णय
के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया गया था, परन्तु अनेक कारणों से उस सिद्धान्त को सभी जगह लागू करना
सम्भव नहीं था। परिणामस्वरूप अनेक स्थानों पर एक-दूसरे की विरोधी अल्पसंख्यक
जातियाँ एक ही शासन के अन्तर्गत रह गईं और उनमें भयंकर असन्तोष फैल गया।
डॉ. एम.एल. शर्मा का कथन है कि, "हिटलर ने इस असन्तोष का लाभ
उठाया। उसने पश्चिमी शक्तियों से सौदेबाजी की और अल्पसंख्यकों पर कुशासन के बहाने
की आड़ में आस्ट्रिया तथा सुडेटन प्रदेश पर बलपूर्वक कब्जा कर लिया तथा पोलैण्ड पर
हमला बोल दिया।"
11. मित्र राष्ट्रों
के मतभेद तथा तुष्टिकरण की नीति-
प्रथम विश्व
युद्ध के पश्चात्
पेरिस शान्ति-सन्धियों द्वारा स्थापित व्यवस्थाओं को बनाये रखने का भार मुख्यत:
फ्रांस और ब्रिटेन पर आ पड़ा। परन्तु युद्धोत्तर काल की प्रमुख समस्याओं—क्षतिपूर्ति की समस्या, राष्ट्रसंघ और सामूहिक
सुरक्षा, नि:शस्त्रीकरण की समस्या
तथा जर्मनी के प्रति नीति को लेकर इंग्लैण्ड तथा फ्रांस में तीव्र मतभेद उत्पन्न
हो गए। फ्रांस जर्मनी के प्रति कठोर नीति अपनाना चाहता था, परन्तु ब्रिटेन उसके साथ
सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने के पक्ष में था। वह अपने व्यापार की वृद्धि के लिए
जर्मनी का औद्योगिक पुनर्निर्माण करना आवश्यक समझता था। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश
राजनीतिज्ञ यूरोप में शक्ति सन्तुलन बनाये रखना चाहते थे।
प्रथम विश्व
युद्ध के पश्चात्
यूरोप में फ्रांस की बढ़ती हुई शक्ति को नियन्त्रित रखने तथा पूर्वी एवं मध्य
यूरोप के साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए वे जर्मनी को शक्तिशाली बनाना चाहते
थे। वे साम्यवाद को अपना प्रबल शत्रु मानते थे तथा उसके प्रसार को रोकने के लिए
नाजीवाद से समझौता करना लाभप्रद मानते थे। 1935 के पश्चात् ब्रिटेन की तुष्टिकरण
की नीति का यही मुख्य कारण था।
हिटलर तथा मुसोलिनी ने
ब्रिटेन तथा फ्रांस की तुष्टिकरण की नीति से पूरा लाभ उठाया। 1935 में मुसोलिनी ने
एबीसीनिया पर आक्रमण किया तथा 1936 में सम्पूर्ण एबीसीनिया को इटली-साम्राज्य में
सम्मिलित कर लिया गया। ब्रिटेन तथा फ्रांस की तुष्टिकरण की नीति के कारण ही इटली
एबीसीनिया पर अधिकार करने में सफल हुआ।
मार्च, 1938 में हिटलर ने
आस्ट्रिया को हड़प लिया परन्तु ब्रिटेन तथा फ्रांस ने हिटलर की कार्यवाही का विरोध
नहीं किया। इसके पश्चात् ब्रिटेन तथा फ्रांस की तुष्टिकरण की नीति का लाभ उठाते
हुए हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग कर सुडेटनलैण्ड पर अधिकार कर लिया।
म्यूनिख समझौता हिटलर की आतंक की नीति की सबसे बड़ी विजय थी तथा ब्रिटेन की
तुष्टिकरण की नीति की चरम सीमा थी। इससे हिटलर की विस्तारवादी लिप्सा और भी बढ़
गई। जब हिटलर ने मार्च, 1939 में
सम्पूर्ण चेकोस्लोवाकिया पर भी अधिकार कर लिया, तो ब्रिटेन तथा फ्रांस को अपनी तुष्टिकरण की नीति की विफलता
स्वीकार करनी पड़ी और वे भी युद्ध की तैयारी में जुट गये।
द्वितीय विश्व
युद्ध की समाप्ति के बाद
सोवियत रूस ने 'फाल्सी फायर्स ऑफ
हिस्ट्री' नामक एक पुस्तिका
प्रकाशित की थी जिसमें कहा गया था कि, "ब्रिटेन तथा फ्रांस के नेताओं ने सामूहिक सुरक्षा का
परित्याग करके तुष्टिकरण की नीति अपनाई जो जर्मनी की आक्रामक योजनाओं के लागू करने
में सहायक सिद्ध हुई। ब्रिटेन और फ्रांस के सत्तारूढ़ दलों की यही नीति तथा जर्मनी
की आक्रामक गतिविधियों को रोकने की बजाय उसकी माँगों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति
ही द्वितीय विश्व युद्ध के लिए उत्तरदायी थी।"
12. तात्कालिक कारण:
जर्मनी द्वारा पोलैण्ड पर आक्रमण-
चेकोस्लोवाकिया पर अधिकार करने के बाद हिटलर
की विस्तारवादी आकांक्षा और बढ़ गई और उसने पोलैण्ड पर भी अधिकार करने का
निश्चय कर लिया। जब उसने पोलैण्ड से डेंजिग का बन्दरगाह माँगा तो पोलैण्ड ने हिटलर
की इस माँग को ठुकरा दिया। इस पर हिटलर ने 1 सितम्बर, 1939 को पोलैण्ड पर
आक्रमण कर दिया। इंग्लैण्ड ने हिटलर को पोलैण्ड से जर्मन सेनाएँ हटाने की
चेतावनी दी परन्तु हिटलर ने इस चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसे आशा थी
कि ब्रिटेन तथा फ्रांस तुष्टिकरण की नीति अपनाते हुए इस बार भी उसकी कार्यवाही का
विरोध नहीं करेंगे। परन्तु हिटलर की यह धारणा गलत निकली और 3 सितम्बर, 1939 को इंग्लैण्ड तथा
फ्रांस ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार द्वितीय विश्व
युद्ध प्रारम्भ हो गया।
धुरी राष्ट्रों का उत्तरदायित्व
अनेक इतिहासकारों
ने धुरी राष्ट्रों को द्वितीय विश्व युद्ध के लिए उत्तरदायी माना है
। जर्मन लोग वर्साय की सॅन्धि से बड़े क्षुब्ध थे तथा इसे निरस्त कराने के लिए
अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने के लिए तैयार थे। 1933 में हिटलर ने
सत्तारूढ़ होते ही वर्साय की सन्धि की धज्जियाँ उड़ाना शुरू कर दिया। वह जर्मनी के
साम्राज्य-विस्तार के लिए कटिबद्ध था और इसके लिए युद्ध को अनिवार्य मानता था।
राइनलैण्ड में जर्मन सेनाएँ भेजना, स्पेन के गृह-युद्ध में हस्तक्षेप करना, रोम-बर्लिन-टोक्यो धुरी
का निर्माण करना,
आस्ट्रिया को
हड़पना, चेकोस्लोवाकिया का अंग-
भंग करना तथा 1939 में पोलैण्ड से डेंजिग की माँग करना तथा उसके लिए सैनिक तैयारी
करना आदि से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह युद्ध करने को तैयार था। इस प्रकार हिटलर
की विदेश-नीति द्वितीय महायुद्ध के लिए उत्तरदायी थी।
ब्रिटेन तथा
फ्रांस ने तुष्टिकरण की नीति के द्वारा उसे सन्तुष्ट करने का विफल प्रयास
किया जिससे उसकी विस्तारवादी लिप्सा बढ़ती गई और उसकी यह धारणा बन गई कि इंग्लैण्ड
तथा फ्रांस अपनी दुर्बलता के कारण जर्मनी के विरुद्ध युद्ध करने का साहस नहीं
करेंगे। जब हिटलर ने 1 सितम्बर, 1939 को पोलैण्ड पर आक्रमण किया तो ब्रिटेन तथा फ्रांस ने
तुष्टिकरण की नीति का परित्याग कर हिटलर की साम्राज्यवादी नीति का प्रतिरोध करने
का निश्चय कर लिया। ऐसी स्थिति में युद्ध अवश्यम्भावी हो गया था। अत: ब्रिटेन तथा
फ्रांस ने 3 सितम्बर, 1939 को जर्मनी
के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जिसके फलस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध शुरू
हो गया।
इसी प्रकार इटली
तथा जापान भी द्वितीय विश्व युद्ध के लिए उत्तरदायी थे। ये दोनों राज्य
पेरिस शान्ति-सन्धियों द्वारा स्थापित व्यवस्था से असन्तुष्ट थे। जापान ने
साम्राज्यवादी नीति अपनाते हुए मन्चूरिया पर अधिकार कर लिया। 1937 में उसने चीन के
विरुद्ध अघोषित युद्ध शुरू कर दिया और उसके अनेक नगरों पर अधिकार कर लिया। इटली ने
भी विस्तारवादी नीति अपनाते हुए एबीसीनिया और अल्बानिया पर अधिकार कर लिया। ये
दोनों राष्ट्र राष्ट्रसंघ की अवहेलना करते हुए अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की
पूर्ति में जुटे रहे।
डॉ. .एम.एल.
शर्मा का कथन है कि, "जर्मनी की भाँति ही अन्य
धुरी राष्ट्र इटली और जापान में उग्रतम राष्ट्रवाद ने द्वितीय महायुद्ध का मार्ग
प्रशस्त कर दिया। मुसोलिनी युद्ध का पुजारी था और युद्ध में ही सम्पूर्ण
मानव-शक्तियों के चरमोत्कर्ष का दर्शन करता था। जापान, इटली तथा जर्मनी में से
कोई भी देश उपनिवेश छीनने के किसी भी अवसर से वंचित नहीं रहना चाहता था। इसलिए यदि
जापान ने मन्चूरिया पर आक्रमण किया तो इटली ने एबीसीनिया के साथ बलात्कार किया और
म्यूनिख दुर्घटना के बाद तो हिटलर दुनिया के धन के उचित वितरण पर बल देने लगा। इन
तीनों राष्ट्रों के सैनिक राष्ट्रवाद ने अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एक संकट
उत्पन्न कर दिया और अन्तर्राष्ट्रीयतावाद को पीछे धकेल दिया। इन सब घटनाओं की चरम
परिणति द्वितीय महायुद्ध के रूप में हुई।"
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