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इतिहास का अन्य विषयों से क्या सम्बन्ध है ?

इतिहास का विषय-क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। प्रो. ब्यूरी का कथन है कि "इतिहास में न केवल राजनीति, अपितु धर्म, कला, शासन, कानून व परम्पराओं के साथ ही व्यक्ति और समाज की बौद्धिक, मौलिक और भावनात्मक क्रियाओं का अध्ययन होता है। इसलिए इसका सम्बन्ध अन्य विषयों से होना स्वयंसिद्ध है।" आधुनिक समय में इतिहास का अध्ययन केवल राजनीतिक इतिहास के अध्ययन तक सीमित ही नहीं, अपितु मनुष्य जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बद्ध है। वास्तव में इतिहास मनुष्य के समस्त संगठित सामाजिक समूहों के सभी पहलुओं का अध्ययन करता है।

गैरोन्स्की ने लिखा है कि "इतिहास विगत मानवीय समाज का मानवतावादी एवं व्याख्यात्मक अध्ययन है जिसका उद्देश्य वर्तमान के बारे में अन्तर्दृष्टि प्राप्त करना तथा भविष्य को प्रभावित करने की आशा है।" इस प्रकार मानव समाज के अध्ययन की दृष्टि से इतिहास का समस्त समाज विज्ञानों से घनिष्ठतया सम्बद्ध है।

इतिहास का अन्य विषयों से क्या सम्बन्ध है ?
इतिहास का अन्य विषयों से सम्बन्ध

इतिहास का निम्नलिखित विषयों से घनिष्ठ सम्बन्ध है-

1. इतिहास और भूगोल-

इतिहास का भूगोल से घनिष्ठ सम्बन्ध है। भौगोलिक ज्ञान के बिना इतिहास का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। भौगोलिक ज्ञान के अभाव में राजनय एवं सैन्य इतिहास और राष्ट्रीय इतिहास का अध्ययन असम्भव है। प्रागैतिहासिक काल की जानकारी के लिए भूगोल का ज्ञान आवश्यक है, क्योंकि इसके बिना कोई विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।

इतिहासकार जिन भू-दस्तावेजों का प्रयोग करके इतिहास लिखता है, उसका सम्बन्ध सीधा भूगोल से होता है। भू-संरचना एवं टेपोग्रैफी के अभाव में ऐतिहासिक संभ्यताओं के चरण की समुचित जानकारी नहीं मिल सकती। यद्यपि भू-संरचना का अध्ययन भूगोल का विषय है, परन्तु इसका अतिनिकट सम्बन्ध इतिहास-ज्ञान से है।

किसी भी देश की सभ्यता एवं संस्कृति को वहाँ के पर्यावरण ने काफी कुछ प्रभावित किया है। ऐतिहासिक घटनाओं के स्थानीयकरण, दूरी, दिशा, साम्राज्य-सीमाएँ, अभियान-मार्ग तथा प्राकृतिक स्थितियों आदि की जानकारी हमें भूगोल से ही मिलती है। इसके ज्ञान से ऐतिहासिक घटनाओं के कार्य-कारण सम्बन्ध आदि तथा तत्कालीन सामाजिक व आर्थिक स्थिति आदि बहुत कुछ विषयों से हम भूगोल द्वारा अवगत हो सकते हैं। भौगोलिक उपकरणों यथा मानचित्र, ग्लोब, रेखाचित्र, चित्र, एटलस आदि की सहायता से ऐतिहासिक तथ्यों का स्थानीयकरण हो सकता है और इतिहास का सही ज्ञान मिल सकता है। इन भौगोलिक उपकरणों के द्वारा अतीत के अस्पष्ट एवं अमूर्त तथ्यों की कल्पना एवं अनुमान से इतिहास को सजीव किया जा सकता है।

बुद्ध प्रकाश के अनुसार ऐतिहासिक स्थलों के पर्यटन एवं वहाँ के सूक्ष्म भौगोलिक ज्ञान से इतिहास के अतीत को पकड़ा जा सकता है। निःसन्देह इतिहास और भूगोल का अतिनिकट सम्बन्ध है। राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण में भूगोल का हाथ होता है, जबकि इतिहास में राष्ट्रीय चरित्र मुख्य तथ्य है। देश की सभ्यता वहाँ की जलवायु से भी प्रभावित होती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इतिहास का भूगोल से बहुत अधिक सम्बन्ध है।

2. इतिहास और राजनीतिशास्त्र-

इतिहास और राजनीतिशास्त्र का भी अतिनिकट सम्बन्ध है। इतिहास के अध्ययन में राजनीतिक इतिहास का अध्ययन विशेष महत्त्व रखता है। जब राजा और प्रजा का इतिहास ही सब कुछ था, तब राजाओं की राजनीति ही मुख्य थी और उसी का नाम ही इतिहास था। परन्तु अब राजनीतिशास्त्र तथा इतिहास दोनों दो भिन्न विषय माने जाते हैं। इतिहास तत्कालीन राजनीति की कहानी बतलाता है, जबकि राजनीतिशास्त्र में सामान्य एवं विशेष के भेद से शासन विधियों को बतलाया गया होता है। प्रारम्भ में इतिहास और राजनीतिशास्त्र का एक साथ ही अध्ययन किया जाता है। आज इतिहास के स्वतन्त्र अध्ययन में राजनीतिक संस्थाओं, नीतियों, साम्राज्य विस्तार आदि का अध्ययन राजनीतिक इतिहास में किया जाता है। वास्तव में राज्य संस्थाएँ राजनीतिक इतिहास के अध्ययन की मुख्य विषयवस्तु रही है। राउज ने लिखा है कि "राजनीति इतिहास का मेरुदण्ड है।"

इसी प्रकार विशिष्ट राजनीतिक व्यक्तित्व इतिहास-अध्ययन के मुख्य विषय बनते हैं। ऐसे राजनीतिक व्यक्ति इतिहास को प्रभावित करते हैं और इतिहास की धारा को बदल देते हैं जैसे चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, अकबर, महात्मा गाँधी आदि। प्रत्येक युग का जननायक तत्कालीन घटनाओं को सुनियन्त्रित कर राज्य-संस्था के माध्यम से अपनी उच्च अभिलाषाओं को व्यक्त करता है।

राउज ने लिखा है कि इतिहास में राजनीति का इतिहास सबसे मनोरंजक विषय है क्योंकि राजनीतिक इतिहास से ही हम किसी देश अथवा समाज की सभ्यता के इतिहास का अनुमान लगा सकते हैं।" शेकअली का कथन है कि अब राजनीतिक इतिहास के क्षेत्र में परिवर्तन आ रहा है। तदनुसार पहले जैसे किसी भी राजनीतिक व्यक्तित्व की व्यक्तिगत भूमिका के स्थान पर जनसामान्य की भूमिका को महत्त्व दिया जा रहा है, जिसे हम सूक्ष्म इतिहास भी कहते है।

3. इतिहास और धर्मशास्त्र-

धर्म एवं धर्मशास्त्र का इतिहास से अटूट सम्बन्ध है। भारतीय संस्कृति में धर्म को विशेष स्थान प्राप्त है। पुरुषार्थ-चतुष्ट्य में धर्म को प्रथम स्थान पर रखा गया है। धर्म को विश्व-इतिहास का रोचक विषय माना गया है। कहीं पर धर्म इतिहास का तो कहीं पर इतिहास धर्म का भावना-प्रेरित विषय हुआ करते हैं। गिबन, ह्यूम, मैकाले, मैकलैण्ड आदि ने धर्म को अपना प्रमुख अध्ययन-क्षेत्र मानकर इतिहास लिखा है। विश्व के विभिन्न धर्मों जैसे जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म, हिन्दू धर्म और इनसे प्रादुर्भूत धर्मों का विभिन्न युगों में अपना-अपना इतिहास रहा है। इनकी जानकारी हमें इतिहास से प्राप्त होती है।

यूरोप में पुनर्जागरण तथा धर्म सुधार का कार्य धार्मिक इतिहास लेखन की दृष्टि से स्वर्ण-काल कहा जाता है। दूसरी ओर धार्मिक विषयों का विवरण प्रोटेस्टेन्ट तथा कैथोलिक इतिहासकारों ने दिया है। भारत में वैष्णव, शैव, शाक्त धर्म तथा अन्य सम्प्रदायों का जो इतिहास लिखा गया है, वह भी धर्म और इतिहास के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को ही बतलाता है।

टायनबी ने सभ्यताओं के सम्पर्क से उच्च धर्मों का जन्म होना स्वीकार किया है। उनके विचार से इतिहास में महत्ता तब आती है, जब पतन और विघटन आता है जो मनुष्य की सच्ची आवश्यकताओं को पूरा करने वाले महान् धर्मों को जन्म देता है। हीगेल ने भी धर्म को विशेष महत्त्व दिया है, परन्तु कार्ल मार्क्स ने धर्म-निरपेक्षता पर बल दिया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि धर्म और इतिहास में घनिष्ठ सम्बन्ध है। बनर्जी के अनुसार "धर्म के अध्ययन के पश्चात् इतिहास से अधिक उपयोगी अध्ययन का कोई विषय नहीं है।"

4. इतिहास और समाजशास्त्र-

इतिहास प्राय: किसी न किसी समाज का होता है। दूसरी ओर यदि समाज न होता, तो इतिहास का निर्माण नहीं होता। इस प्रकार इतिहास तथा समाजशास्त्र का घनिष्ठ सम्बन्ध है।

काम्टे के अनुसार, "इतिहास सामाजिक भौतिकशास्त्र है, इसके अन्तर्गत मानवीय व्यवहार के सामान्य नियमों का अध्ययन होता है।"

टायनबी के अनुसार सामाजिक अणु तत्त्वों ने ही इतिहास का निर्माण किया है। समाज को इतिहास की आधारशिला कहा गया है।

राउज ने सामाजिक इतिहास को विशिष्ट माना है।

रेनियर के अनुसार सामाजिक इतिहास आर्थिक इतिहास की पृष्ठभूमि और राजनीतिक इतिहास की कसौटी है।

शेकअली ने लिखा है कि "समाजशास्त्र का विकास सामाजिक इतिहास के परिवेश में हुआ है और सामाजिक विकास तथा परिवर्तन की गतियों का अध्ययन समाजशास्त्र के माध्यम से प्रारम्भ हुआ है।" सामाजिक इतिहास रोचक तो है, परन्तु उसकी निरन्तरता, मन्द गति और परिवर्तन की अत्यन्त जटिल समस्याएँ हैं।

समाज में परिवर्तन होने पर राजनीति में परिवर्तन होते हैं। रामानन्द, कबीर, नानक आदि समाज सुधारकों और राजा राममोहन राय, दयानन्द सरस्वती, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी आदि सामाजिक-राजनीतिक व्यक्तियों के कार्य उक्त दोनों ही शास्त्रों से सम्बद्ध हैं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों को भी स्पष्ट करते हैं। डार्विन लिखते हैं कि समाज के क्रमिक विकास के सिद्धान्त ने इतिहास के विषय में भी तत्कालीन विचार को परिवर्तित कर दिया और इतिहास के विषय में भी यह धारणा बनी कि इतिहास समाज के गतिशील विकास की एक ऐसी कहानी है जिनका प्रत्येक अंग एक-दूसरे से सम्बद्ध है, अर्थात् इतिहास को पृथक्-पृथक् भागों में बाँटा जाना भूल है।

डॉ. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय के अनुसार मनुष्य का अध्ययन समाजशास्त्र और इतिहास दोनों करते हैं, अत: दोनों एक-दूसरे का अति व्यापन करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। समाजशास्त्र अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में विस्तृत होता है। अब समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी इतिहास का अध्ययन होने लगा है। समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर इतिहासकार सामाजिक संगठन की सामग्री संयोजित करते हैं और उनके आधार पर ऐतिहासिक कालों की विवेचना करते हैं। इस प्रकार समाजशास्त्र इतिहास के लिए उपयोगी सिद्धान्त हो रहा है। डॉ. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय के अनुसार, "समाजशास्त्र की विश्लेषण-विधि बहुत कुछ इतिहास के लिए उपयुक्त सिद्ध हुई है।" अत: दोनों विषय एक-दूसरे के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

5. इतिहास और अर्थशास्त्र-

टिल्य के इस विचार "अर्थ एव प्रधानम् इति कौटिल्यः" से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि संसार में अर्थहीन कुछ भी नहीं है। अर्थ से सारा जगत् जुड़ा हुआ है। जीवन की समस्त गतिविधियाँ अर्थ से जुड़ी हुई हैं और इतिहास मानव- जीवन का लेखा-जोखा है। ऐसी स्थिति में अर्थ इतिहास से घनिष्ठता के साथ जुड़ा हुआ है। जीवन में आर्थिक संसाधन, उत्पादन, उपभोग एवं वितरण के साथ विविध प्रकार के उद्योग-धन्धों, व्यापार एवं वाणिज्य के साथ सारी बैंकिंग व्यवस्था आर्थिक इतिहास से सम्बन्ध रखती है।

इस प्रकार अर्थशास्त्रइतिहास एक-दूसरे से काफी निकट सम्बन्ध रखते हैं। समाज और अर्थ का धनिष्ठ सम्बन्ध है। अर्थ ही समाज को गतिशील करता है। समाज की वर्ग संरचना बहुत कुछ अर्थ पर ही निर्भर है। इतिहास के क्षेत्र में आर्थिक विचारों के इतिहास का अपना महत्त्व है। ऐतिहासिक अर्थव्यवस्थाओं का अध्ययन हमारे आर्थिक नियोजन के काम आने लगता है। कोंदोरसे, कॉम्टे, बर्कले, मार्क्स, गाँधी, लोहिया, पं. नेहरू आदि के आर्थिक विचारों ने इतिहास को प्रभावित किया है। आर्थिक इतिहास के बिना इतिहास का ज्ञान अपूर्ण है। जान सीले ने लिखा है कि "अर्थशास्त्र बिना इतिहास के नींवरहित है, इतिहास बिना अर्थशास्त्र के बलहीन है।"

6. इतिहास और मानवशास्त्र-

सामाजिक विषयों का वर्गीकरण करके गहन अध्ययन के लिए जिन विषयों का चयन हुआ, उनमें मानवशास्त्र भी एक है। मानवशास्त्र इतिहास- अध्ययन की ही एक शाखा है। दूसरे शब्दों में, मानवशास्त्र ही इतिहास की प्रमुख अध्ययन-वस्तु है। अन्तर केवल इतना ही है कि इतिहास में सभी प्रकार के मानव-समाज का अध्ययन किया जाता है जबकि मानवशास्त्र में मुख्यतः आदर्श मानव का अध्ययन ही महत्त्वपूर्ण माना जाता है। मनुष्य मूलत: ऐतिहासिक जीव है। इससे स्पष्ट होता है कि इतिहास में मानवशास्त्र समाहित होता है।

दूसरी बात यह भी है कि ऐतिहासिक वास्तविकता व्यक्ति तथा व्यक्तियों द्वारा निर्मित विश्व के बीच की अन्त:क्रिया है। अर्थात् ऐतिहासिक विश्व मस्तिष्क-प्रभावित अथवा मस्तिष्क-निर्मित विश्व है। अत: वह सब कुछ इतिहास की विषय-वस्तु है जिसे मनुष्य ने किया है। ऐसी स्थिति में मनुष्य अथवा मानवशास्त्र के इतिहास से सम्बद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं रह जाती।

7. इतिहास और नीतिशास्त्र-

नीतिशास्त्र में सदाचार के नियमों का अध्ययन होता है। इतिहास में जितने भी सदाचरण हुए हैं, उन्हें नीतिशास्त्र ने नीतिसंगत और दुराचरणों को अनीतिपूर्ण घोषित किया है जिसके आधार पर हम यह समझ पाते हैं कि किस नैतिकतापूर्ण इतिहास का अध्ययन हमें करना है और किस इतिहास को अंगीकृत करना है और किसको घृणा की दृष्टि से देखना है। दूसरे शब्दों में, यदि नीतिशास्त्र न होता, तो हमें सभी अच्छे-बुरे इतिहासों को एक ही दृष्टि से देखना पड़ता। इतिहासकार ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों पर अपने युग के नैतिक सिद्धान्तों के विषय में जानकर ही अतीत की घटनाओं या पात्रों के विषय में कोई निर्णय देता है। यह ठीक ही कहा गया है कि एक इतिहासकार नीतिशास्त्र के सिद्धान्तों की उपेक्षा कभी नहीं कर सकता।

हीगेल के पूर्व इतिहास और राजनीति के नियमों को नैतिक-विज्ञान के अधार पर समझा जाता था और उन नियमों को स्थायी और अपरिवर्तनशील माना जाता था। नैतिक नियम जो नीतिशास्त्र के विषय हैं, सभी कालों में एकसे प्रभावी नहीं रहते। परन्तु इतिहास सदा सत्य का उद्घाटन करता है। वस्तुत: नीतिशास्त्र तथा इतिहास दोनों ही परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं।

टायनबी ने लिखा है कि नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में ही तथ्यों का अन्वेषण किया जाना उचित है। ई.एच.कार का कथन है कि इतिहास के ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे व्याख्या होती है और ऐतिहासिक व्याख्या में नैतिक निर्णय संयुक्त रहते हैं। इतिहासकार के नैतिक निर्णय का इतिहास में अपना महत्त्व है।

8. इतिहास और मनोविज्ञान-

इतिहास का मनोविज्ञान से भी निकट का सम्बन्ध है। व्यक्ति और समाज इतिहास के विषय हैं, जबकि इनकी प्रवृत्तियाँ मनोविज्ञान का विषय हैं। उन प्रवृत्तियों एवं कार्यवाहियों का विश्लेषण करते समय इतिहासकार मनोवैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि की सहायता लेता है।

प्रो. मार्विक ने लिखा है कि "ऐतिहासिक समस्याओं के बौद्धिक विश्लेषण के लिए कुछ परिस्थितियों में सामाजिक मनोविज्ञान आवश्यक है।" इतिहास के निर्णयों पर स्वयं इतिहासकार के व्यक्तिगत जीवन और वहाँ के वातावरण का प्रभाव पड़ता है और ये दोनों ही मनोविज्ञान की परिधि में आते हैं। पहले युद्ध के कारणों पर ध्यान दिया जाता था, परिणामों पर ध्यान नहीं दिया जाता था, परन्तु अब मनोविज्ञान के प्रभाव में आने पर परिणामों पर गम्भीरता से विचार करके ही युद्ध की रूपरेखा तैयार की जाती है।

इतिहासकार व्यक्ति एवं व्यक्ति समूहों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करता है। समूह-मनोविज्ञान को समझकर ही इतिहासकार विभिन्न क्रान्तियों में जनता के योगदान का निश्चय कर सकता है। प्रो. वार्न ने लिखा है कि "इतिहास मनोविज्ञान को पर्याप्त सामग्री प्रदान करता है। मानव-सभ्यता का आदिकाल से आज तक का इतिहास मनोविज्ञान की विषय-सामग्री है। मनोवैज्ञानिक मानव की प्रवृत्तियों और कार्यवाहियों का अध्ययन करता है। ऐसा करके वह इतिहास के लिए विविध परिस्थितियों में आचरण प्रतिमानों को प्रस्तुत करता है।" इसी तरह इतिहास भी मनोविज्ञान से-प्रवृत्तियों, कार्यवाहियों एवं आस्थाओं का अध्ययन करता है।

9. इतिहास और राजनयिक शास्त्र-

राजनयिक शास्त्र पहले राजनीति शास्त्र के ही अन्तर्गत था। सूक्ष्म अध्ययन की दृष्टि से उसे कूटनीतिशास्त्र के रूप में राजनीति शास्त्र से अलग करके देखा जाने लगा है। इतिहास का अवलोकन करने पर हम पायेंगे कि उच्च-स्तरीय राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत कूटनीति को भी शासन का एक आवश्यक अंग माना जाता था जिसे अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विदेश नीति का महत्त्वपूर्ण भाग बना दिया गया है। वर्तमान समय में ही नहीं, मानव-प्राचीनकाल में भी जिस देश को जितनी अच्छी कूटनीति व्यवस्था थी या है, वह देश उतना हो प्रगतिशील बना हुआ है।

इतिहास हमें कूटनीति की प्राचीन विधियों के सातत्य से नवीन विधियों के सृजन में सहायक होता है। कूटनीति से इतिहास भरा पड़ा है जिसका उपयोग वर्तमान समय में भी हो रहा है। इस तरह से ये दो स्वतन्त्र विषय आज पृथक्-पृथक् करके अध्ययन किये जाते हैं, तो भी एक-दूसरे के पूरक दिखाई पड़ते हैं। 19वीं शताब्दी के बाद से राजनयिक शास्त्र को पृथक् करके उसमें विदेश-नीति, राष्ट्रों के आपसी लेन-देन की सन्धियों, समझौता-पत्रों को अध्ययन का विषय बना दिय गया है। कौटिल्य अर्थशास्त्र की चाणक्य नीति, शुक्रनीतिसार आदि राजनयिक शास्त्र के प्राचीन उदाहरण भी इसके महत्त्व को बतलाते हैं। वर्तमान समय में संयुक्त राष्ट्र संघ; अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष, क्षेत्रीय संगठनों आदि का निर्माण इसी नीति के अन्तर्गत हुआ है। आने वाले युगों के लिए यह भी एक प्रकार से इतिहास बन जायेगा और दोनों के सम्बन्ध को प्रकाशित करेगा।

10. इतिहास और सैन्य-विज्ञान-

राजनयिक शास्त्र की भाँति सैन्य-विज्ञान भी पहले राजनीति शास्त्र का एक अंग था। आज सैन्य-विज्ञान का स्वतन्त्र विषय के रूप में अध्ययन होने लगा है। इतिहास में अनेक युद्ध हुए हैं। उनमें प्रयुक्त अस्त्र-शस्त्रों को कलाओं, युद्ध-विधियों, युद्ध की सफलता-असफलता के कारणों आदि के आधार पर वर्तमान समय में बहुत कुछ सीखने-समझने का अवसर मिलता है। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि इतिहास-वर्णित सैन्य-व्यवस्था हमारी वर्तमान सैनिक व्यवस्था के लिए सहायक होती है। यदि इतिहास न होता, तो हम अपनी पिछली सैन्य-प्रणाली के विषय में कुछ भी न जान पाते और तब वर्तमान सैन्य-व्यवस्था के विषय में उतना अच्छा कार्य नहीं कर पाते।

यदि सैनिकशास्त्र के आधार पर इतिहास की विवेचना करें, तो हम पायेंगे कि वे सैनिक कारण ही मुख्य रूप से रहे हैं जिनके आधार पर राज्यों के उत्थान-पतन होते रहे हैं। सैनिक शास्त्र ने मानव-इतिहास को बहुत पहले से प्रभावित कर रखा है। आज तो सामरिक हथियारों की प्रतिस्पर्धा ने विश्व-इतिहास को क्षण भर में परिवर्तित कर डालने की क्षमता एकत्र कर रखी है। यही कारण है कि आज कुछ विद्वान सैनिक इतिहास-लेखन की दिशा में भी लेखनी उठा रहे हैं और सैनिक शास्त्रों का विकास और प्रयोग का भी विकासात्मक इतिहास लिखा जा रहा है।

11. इतिहास और विधिशास्त्र-

कानून पहले राज्य अथवा राजशास्त्र का ही एक अंग था, किन्तु अब उसके बढ़ते हुए स्वरूपों को देखकर क्षेत्र एवं विषय के अन्तर से विविध प्रकार का अवलोकन करके वह एक स्वतन्त्र विषय के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया है। कानूनों के निर्माण में इतिहास की प्राचीन कानून व्यवस्था से अत्यधिक सहयोग लिया गया है। यदि देखा जाए, तो हमें कानून का इतिहास भी लिखा मिल जाता है। वर्तमान विधिशास्त्र को मनुस्मृति, काणेकृत धर्मशास्त्र का इतिहास, रामायण, महाभारत आदि के राज्यादेश, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा नियमों आदि से बहुत कुछ सहायता मिली है। आज तो यह एक व्यावसायिक विषय माना जाने लगा है और इसके प्राचीन इतिहास की आधुनिक काल से तुलना करने में हमें आज के विधिशास्त्र का क्षेत्र बहुत विस्तृत दिखाई पड़ता है।

संविधान भी आजकल अध्ययन का एक स्वतंत्र विषय बन गया है, किन्तु सामान्य प्रकार से देखें तो यह विधिशास्त्र के बहुत अधिक समीप है। पहले के नियम अपने-अपने क्षेत्र विशेष के लिए वर्तमान जैसे संविधान ही हुआ करते थे जिनका प्रयोग इतिहास में बहुत होता था। क्लार्क ने भी इतिहास में संवैधानिक नियमों को महत्त्वपूर्ण स्थान देने का अनुरोध किया है, क्योंकि संवैधानिक शास्त्र ही इतिहास का मूल केन्द्र-बिन्दु होता है। संवैधानिक इतिहास के क्षेत्र को विकसित करने में हैलम, कार्निवाल, लेविस आर्सकीन, मेटलैण्ड आदि विद्वानों का महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा है। इस तरह दोनों एक-दूसरे के लिए आवश्यक होते हुए भी पृथक्-पृथक् हैं। राजनीतिक इतिहास का विषय विषयनिष्ठ और संवैधानिक इतिहास का वस्तुनिष्ठ होता है। 20वीं सदी में दोनों के अन्तर को स्पष्ट तौर पर स्वीकार कर लिया गया है।

12. इतिहास और सांख्यिकी-

सांख्यिकी द्वारा अल्पकाल में ही जोड़-बाकी करके संख्या या अंक का निर्धारण कर दिया जाता है। इतिहास में सांख्यिकी का प्रयोग प्रारम्भ होने से अब इतिहासकारों ने अनुमानित संख्या के स्थान पर निश्चित संख्या लिखना प्रारम्भ कर दिया है। कम्प्यूटर के प्रयोग से यह और भी सरल हो गया है।

प्रो. लारेन्स स्टोन के अनुसार, "सांख्यिकी माप से अनिश्चितता दूर हो जाती है तथा सार रह जाता है, असार हट जाता है। इसके अभाव में सामाजिक तथ्यों का सामान्यीकरण गलत हो सकता है।"

13. इतिहास और सामाजिक विज्ञान-

सामाजिक विज्ञान में वे सभी विषय आते हैं जिनका सम्बन्ध सामान्यत: समाज से होता है। इतिहास को इस आशय से सामाजिक विज्ञान का ही एक अंग माना जाना चाहिए। सामाजिक विज्ञान प्राकृतिक विज्ञान के अनुकरण में प्रत्यक्ष विधियों के सामान्य नियम निकालना चाहता है जिनके विशय में सम्भावना है कि वे कभी इतिहास की सहायक सामग्री बन सकते हैं। सामाजिक विज्ञान में केवल अर्थशास्त्र ही कुछ विशेष महत्त्व स्थापित कर पाया है। यदि वास्तविक समाज विज्ञान सम्भव है तो वह ऐतिहासिक ही होगा। ऐतिहासिक सामाजिक विज्ञान का मूल स्रोत है- राजनीति। अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र इसकी प्रस्फुटित शाखाएँ हैं।

लेबनित्स और उसके बाद के प्रयासों से इतिहास भी सामाजिक विज्ञान की श्रेणी में आ सका है। सामाजिक विज्ञानों का गठन 19वीं सदी में हुआ जिसमें कार्ल मार्क्स का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र का अभी भी नये-नये विषयों की खोज करके विस्तार किया जा रहा है। इतिहास का सम्बन्ध सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत आने वाले प्रायः सभी विषयों से किसी न किसी प्रकार से अवश्य है।

डिल्थे ने भी इतिहास को सामाजिक विज्ञान बनाने का प्रयास किया। उसने प्राकृतिक विज्ञान और मानवीय विज्ञान में अन्तर स्पष्ट किया। उनके अनुसार ज्ञान के दो मार्ग हैंप्रकृति के ज्ञान के लिए विज्ञान और मानव सम्बन्धी ज्ञान के लिए इतिहास। डिल्थे का कहना है कि इतिहास ही इस प्रकार के ज्ञान का एकमात्र स्रोत है क्योंकि मनुष्य एक जीवन-प्रक्रिया के बीच में स्थित है, वह स्थिर नहीं है और साथ ही इतिहासकार भी समान रूप से जीवन-प्रक्रिया के बीच में स्थित है। मनुष्य मुख्यतः ऐतिहासिक जीव है। इतिहास और अन्य शास्त्र इतिहास का शिक्षा शास्त्र एवं सांस्कृतिक विज्ञान से भी अटूट सम्बन्ध है। स्पेंगलर, टायनबी आदि ने तो संस्कृतियों के अध्ययन के साथ ही विश्व-इतिहास के विषय में लेखनी उठायी थी। शिक्षा के क्षेत्र में भी प्राचीन पद्धतियों द्वारा इतिहास हमारी नयी शिक्षा नीति के लिए योगदान है। शिक्षा और संस्कृतियों का इतिहास नवीन जिज्ञासा का समाधान है।

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