इतिहास की अवधारणा
इतिहास इति+ह+आस शब्दों से बना है जिसका अर्थ है कि निश्चित रूप से ऐसा हुआ। इतिहास में अतीत की संरचना इतिहासकार करता है जिसकी विषय, काल एवं विचारगत अपनी अवधारणा बन जाती है। यदि इतिहास का तात्पर्य खोज अथवा अनुसन्धान से है, तो इसका यह भी अर्थ होता है कि प्रत्येक युग में इतिहासकार सामाजिक आवश्यकता के अनुसार ऐतिहासिक तथ्यों की खोज करता है तथा सामाजिक रुचि के अनुसार इतिहास की प्रस्तुति करता है।
क्रोचे ने सभी इतिहास को समसमायिक कहा है। उसका तात्पर्य यह है कि इतिहासकार अपने युग के दृष्टिकोण तथा अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से अतीत की घटनाओं को देखता है। यह कहा जा सकता है कि निरन्तर परिवर्तित समाज की आवश्यकता के अनुरूप इतिहास अवधारणा में परिवर्तित होता रहा है।
इतिहास की अवधारणा |
इतिहास की विविध अवधारणाओं का विवेचन
निम्नानुसार है-
1. इतिहास की भारतीय अवधारणा
-
कुछ पाश्चात्य विद्वानों का विचार है कि
भारतवासियों
में ऐतिहासिक
दृष्टिकोण का अभाव था। घटनाओं के प्रस्तुतीकरण में उन्हें तिथिक्रम का ज्ञान नहीं था। तथ्यों के
कल्पित तथा पौराणिक कथाओं के परिवेश में रखने की प्रवृत्ति ने इस मान्यता को आधार प्रदान किया है। लोएस
डिकिंसन ने लिखा है कि हिन्दू इतिहासकार नहीं थे। डॉ. हीरानन्द शास्त्री का कथन है कि प्राचीन
भारतीयों ने इतिहास के प्रति विशेष ध्यान नहीं दिया,
क्योंकि वे अतीत
तथा वर्तमान भौतिक जीवन की अपेक्षा आगामी जीवन में रुचि रखते थे।
डॉ.
गोविन्द चन्द्र
पाण्डेय ने इसका खण्डन करते हुए लिखा है कि भारतीयों ने वर्तमान जीवन को कभी भी नगण्य नहीं माना है। यदि इतिहास कर्म – प्रधान रहा है, तो भारतवर्ष सदैव महापुरुषों की कर्मभूमि रहा है। डॉ.झारखण्डे चौबे ने लिखा है कि प्राचीनकाल से वर्तमान तक भारतीयों में इतिहास की अवधारणा रही है। परिणामस्वरूप समय तथा समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप भारतीय इतिहासकारों ने ऐतिहासिक ग्रन्थों का सम्पादन
किया है। इतिहास की अवधारणा के प्रति
विशेष चेतना का
प्रमाण इससे बढ़कर क्या हो सकता है।
(क)
युग चक्र-
भारतीय अवधारणा के अनुसार इतिहास एक निरन्तर
चलायमान युग-चक्र है । मानव- जीवन, उसका सुख-दुःख
इसी चक्र द्वारा
नियन्त्रित होता है। प्रत्येक चक्र चार युग में विभक्त होता है। ब्रह्मा द्वारा युग चक्र की सृष्टि होती है।
·
कृत्य- भारतीय अवधारणा के अनुसार कृत मानव जीवन का स्वर्ण युग है। यह सुख सम्बन्धी सभी साधनों तथा उपकरणों से युक्त
है।
·
त्रेता- यह युग चक्र का द्वितीय चरण है। इसमें कृत की अपेक्षा
मानवीय गुणों तथा सुखमय जीवन के साधनों तथा
उपकरणों में अभाव का आभास होने लगता है।
·
द्वापर- यह युग चक्र का तृतीय चरण है। इस युग में मानवीय दुख का
प्रारम्भ होता है। समाज की निरन्तर
बिगड़ती हुई स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक नियमों
का प्रतिपादन किया जाता है।
· कलियुग- युग चुक्र का यह अन्तिम भाग है। इसमें मानवीय जीवन दुःख तथा निराशा की चरम सीमा पर पहुँच जाता है।
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(ख)
अवतारवाद-
यह युग चक्र निरन्तर चलता रहता है। जब धर्म
की अवनति तथा अधर्म का प्रसार होने
लगता है तो मानव जाति के उद्धार के लिए ईश्वर का अवतार होता है। अवतारवाद भारतीय इतिहास की अवधारणा है। भगवान राम
तथा कृष्ण का जन्म इस अवधारणा
की पुष्टि करता
है। प्रत्येक युग तथा समाज में इतिहास का निर्माण कुछ ही लोगों द्वारा होता है। ऐसे लोगों को जननायक कहा जाता है। प्राचीन काल से
आधुनिक युग तक जननायकों ने समाज का नेतृत्व करके इतिहास
का निर्माण किया। यदि अवतारवाद के सिद्धान्त को धर्म से पृथक् कर दें, तो विभिन्न अवतारों को
महान् व्यक्तियों के रूप में समझा जा सकता है। गीता तथा रामचरितमानस में अवतारवाद के सिद्धान्त की झलक मिलती है। इस अवधारणा के
अनुसार मानव-इतिहास में जब कभी
नैतिक अथवा सामाजिक अव्यवस्था के परिणामस्वरूप मानव- जाति के दुखों में वृद्धि हुई है, तब साधुओं की रक्षा तथा दुष्टजनों के विनाश के लिए जननायक के रूप में ईश्वर का अवतार हुआ है।
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लेखन की अवधारणा : ई. एच. कार
अवतार का निश्चित ऐतिहासिक प्रयोजन होता है।
अवतारी महापुरुष समसामयिक सामाजिक व्यवस्था से
स्वतन्त्र नहीं होते। यह परम सत्ता काल के द्वारा नियन्त्रित होती है। किसी विशेष युग में अवतार का निर्धारण
सामाजिक आवश्यकता तथा अनिवार्यता की पूर्ति होता है। अवतार के इस सिद्धान्त ने भारतीयों के मस्तिष्क में एक
भाग्यवादी प्रवृत्ति को जन्म दिया है।
(ग)
कर्म को
प्रधानता-
भारतीय इतिहास की अवधारणा में कर्म को
प्रधानता दी गई है। कर्म-सिद्धान्त का अर्थ
है कि मनुष्य जैसा कर्म करता है,
उसके अनुसार
वर्तमान में फल प्राप्त करता है। कर्मफल का.यह सिद्धान्त
इतिहास में कारण-कार्य के सम्बन्ध की पुष्टि करता है। भारत में सामाजिक वर्गीकरण का आधार भी कर्म रहा है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्णों का विभाजन कर्म के आधार पर हुआ है। भारतीय अतीत की चिन्ता
नहीं करता है। उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य भावी
इतिहास का निर्माण होता है।
वर्तमान में कर्म का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त
करना तथा आवागमन से मुक्ति
प्राप्त करना है । ऐतिहासिक योजना का एकमात्र उद्देश्य जीवन, मृत्यु अथवा संसार से मुक्ति
प्राप्त करना है। इतिहास इस उद्देश्य की प्राप्ति में सतत् क्रियाशील है। मोक्ष प्राप्ति इसका अन्तिम उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति
के पश्चात् मानव-इतिहास का अन्त हो
जाता है। कर्म को ही मानव-इतिहास का कारक माना गया है। भक्ति
आन्दोलन के समाज-सुधारक सन्तों ने भी ज्ञान मार्ग
को अस्वीकार करके कर्म तथा भक्ति को मोक्ष का साधन स्वीकार किया है। मोक्ष से मानव-इतिहास का अन्त होता है।
2.
यूनानी-रोमन इतिहास की आवधारणा-
यूनानी-रोमन इतिहास की अवधारणा में हमें दो
प्रकार के विचार मिलते हैं-
·
मानव-समाज निरन्तर पतन का इतिहास है। अन्त में इसका नष्ट
होना प्रायः निश्चित है।
·
मानव-इतिहास अकुशल से कुशल की ओर विकासमान है। यह निरन्तर अत्यधिक न्याय, सुविधा तथा सुख की ओर बढ़
रहा है।
हेसियड का युग चक्र सिद्धान्त-
यूनानी-रोमन इतिहास की अवधारणा में हेसियड का
युग चक्र सिद्धान्त अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। उसने निम्नलिखित चार युगों की
कल्पना की है-
1. स्वर्ण युग- इस युग में क्रोनोस का
स्वर्ग में शासन था। मनुष्य स्वयं देवताओं के साथ कार्य करता था। पृथ्वी उन्हें
सभी वस्तुएँ प्रदान करती थी।
2. रजत युग- इस युग में मनुष्य हीनतर
अवस्था में पहुँच गया। धीरे-धीरे वह विनाश की ओर अग्रसर होता जा रहा है।
3. कांस्य युग- मानवीय गुणों में
उत्तरोत्तर ह्रास इस युग की विशेषता है। पारस्परिक मारकाट, कलह तथा संघर्ष इस युग की
विशेषता रही है।
4. लौह युग- इस युग के वीर पुरुष अपने
पूर्वजों की तुलना में अधिक वीर और न्यायप्रिय थे। परन्तु वे श्रम तथा दुःख से
मुक्त न थे।
इस अवधारणा के अनुसार सम्पूर्ण ब्राह्मण्ड
में परिवर्तन की चक्रात्मक प्रक्रिया चलती रहती है।
कालिंगवुड ने हेसियड की युग
चक्रवादी अवधारणा की कटु आलोचना की है और इसे अनैतिहासिक अवधारणा की
संज्ञा दी है। यूनानी अवधारणा के अनुसार इतिहास मात्र धर्म पर आधारित कथा नहीं, अपितु एक शोध है जिसका
उद्देश्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करना है। इस अवधारणा का स्वरूप
धार्मिक नहीं,
बल्कि मानववादी
है, क्योंकि इतिहास का
सम्बन्ध मानवीय क्रियाओं से है।
हेरोडोट्स की इतिहास-अवधारणा मानववादी
थी। कालिंगवुड ने लिखा है कि हेरोडोट्स के इतिहास-लेखन का एकमात्र उद्देश्य भावी
पीढ़ी के लिए अतीत के मानवीय कार्यों को
सुरक्षित रखना था। हेरोडोट्स ने प्राकृतिक नियमों को इतिहास में प्रधानता दी है। उसने इतिहास में
मानवीय कार्यों को स्वीकार किया है। मानवीय कार्यों पर प्रकृति, भौगोलिक तथा वातावरण का प्रभाव
पड़ता है। हेरोडोटस ने इतिहास के जनक के रूप में सर्वप्रथम इतिहास
को वैज्ञानिक
स्वरूप प्रदान किया।
कालिंगवुड के अनुसार हेरोडोट्स
इतिहास का जन्मदाता हो सकता है, परन्तु मनोवैज्ञानिक इतिहास का जनक
थ्यूसिडिडीज था। हेरोडोट्स की रुचि जहाँ घटनाओं में है, वहीं थ्यूसिडिडीज
की रुचि नियमों
के प्रतिपादन में है। रोमन इतिहासकार पोलिबियस ने भी इतिहास के चक्रवादी
स्वरूप को मान्यता प्रदान की
है।
3. धार्मिक अवधारणा-
1. पारसी अवधारणा-
पारसी धर्म के प्रवर्तक जरथुस्त्र के
अनुसार इतिहास का तात्पर्य सद् तथा असद् के बीच
निरन्तर संघर्ष है। अन्त में सद् की विजय इतिहास का चरम लक्ष्य है। यही सामाजिक आवश्यकता है।
पारसी अवधारणा के अनुसार धर्म द्वारा प्रेरित विश्व निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसरित होता
रहेगा।
2. यहूदी अवधारणा-
यहूदी अवधारणा के अनुसार इतिहास अतीत की
घटनाओं का प्रस्तुतीकरण
मात्र नहीं है,
अपितु इतिहास
ईश्वरीय इच्छा की अभिव्यक्ति है। उनकी अवधारणा के अनुसार पहले सम्पूर्ण इजारइली
यहूदी,
उसके पश्चात्
सम्पूर्ण मानव-जाति का कल्याण इतिहास का परम लक्ष्य है।
शासक ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में मानव-कल्याण के लिए कार्य करता है। यहूदी अवधारणा
के अनुसार सार्वभौमिक
प्रगति ही इतिहास का चरम लक्ष्य है।
3. इस्लामी अवधारणा-
इस्लामी अवधारणा के अनुसार इतिहास प्रकाश की
ज्योति तथा अन्धकार की
गहनता के बीच निरन्तर संघर्ष है। अल्लाह अपनी इच्छा से मनुष्य की सृष्टि
करता है और
मनुष्य का कर्त्तव्य उसके प्रति आत्मसमर्पण करना है। काल का प्रारम्भ, स्वर्ग और पृथ्वी का निर्माण, स्त्री-पुरुष की सृष्टि, ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध
आचरण करने वाले को दण्ड, पतन के युग का
आगमन, इतिहास की प्रक्रियाओं के
रूप में प्रस्फुटित होता है। इस्लामी चेतना का उदय आठवीं सदी के
प्रारम्भ में हुआ। इसके बाद ईरान के अब्बासी वंश ने इस्लाम की ऐतिहासिक चेतना को एक
नवीन शक्ति प्रदान की। इस्लामी इतिहासकारों ने विश्व भ्रातृत्ववाद तथा विश्व इतिहास की
कल्पना की।
इब्नखल्दून ने इस्लामी इतिहास की
अवधारणा को एक नवीन दिशा प्रदान की। टायनबी
के अनुसार इब्नखल्दून
का इतिहास-दर्शन उच्च कोटि का है, अभी तक किसी भी देश तथा किसी भी व्यक्ति ने इस प्रकार
की कल्पना तक नहीं की थी। इब्नखल्दून ऐतिहासिक तथ्यों तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों की
विवेचना करने वाले प्रथम इतिहासकार माने जाते हैं। उन्होंने न केवल इतिहास को वैज्ञानिकता
प्रदान की, बल्कि उसके सम्बन्ध में
कुछ मौलिक सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया। उनका
सबसे बड़ा योगदान इतिहास-विज्ञान की विश्लेषणात्मक व्याख्या है। इसे उन्होंने संस्कृति का
विज्ञान कहा है।
इब्नखल्दून ने समाज तथा राज्य की
व्याख्या की है। उनके अनुसार जलवायु तथा भौगोलिक परिस्थितियों का प्रभाव
समाज पर पड़ता है। इब्नखल्दून इस्लामी जगत के निराले विचारक माने जाते हैं। समाज की
सामाजिकता उनके नवीन विचार की आधारशिला थी। उनके विचार की मौलिकता प्रशंसनीय है। वे
पहले इतिहासकार थे जिन्होंने विश्व-इतिहास की कल्पना की थी।
4. ईसाई अवधारणा-
ईसाई विचारकों की दृष्टि में सम्पूर्ण जगत्
ईश्वर की लीला है। इतिहास एक नाटक है। ईश्वर
इतिहास में प्रधान है। सामाजिक एकता के रूप में मानव कल्याण उसका प्रमुख उद्देश्य है।
अतीतकालीन इतिहास का उद्देश्य ईसाई धर्म की स्थापना तथा वर्तमान एवं भावी इतिहास का
उद्देश्य सम्पूर्ण विश्व में ईसाई धर्म का प्रचार एवं प्रसार है।
ईसाई इतिहास अवधारणा के अनुसार इतिहास
विश्वव्यापी, देवप्रधान, चमत्कारपूर्ण तथा युगपरक है। इतिहास में
ईश्वर की एक योजना क्रियाशील है जिसका संदेश ईसा के आगमन द्वारा प्राप्त हुआ। इतिहास की
घटनाएँ प्रवृत्तिमूलक सिद्ध होती हैं, व्यक्ति तथा व्यक्तिगत इच्छा की इतिहास में कोई भूमिका
नहीं होती है। वह ईश्वरीय इच्छा का निमित्त मात्र होती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ईसाई इतिहास
में आलोचना पद्धति का विकास सम्पन्न न हो सका, क्योंकि ईसाई इतिहास में विश्वास ही
प्रधान है। ईसाई इतिहास की विशेषता न्याय, सौन्दर्य तथा सत्य है।
4. आधुनिक काल
में इतिहास की अवधारणा-
यूरोप के इतिहास में पुनर्जागरण काल
को मध्य युग तथा
आधुनिक युग को संक्रान्तिकाल कहा गया है। पुनर्जागरण काल में मध्य
युग के ईश्वरपरक
दृष्टिकोण के स्थान पर मानवपरक विचार का उत्थान होने लगा। नियति पर मनुष्य का नियमन तथा सन्तुलन
स्थापित किया जाने लगा। अब इतिहास में ईश्वरीय इच्छा को कारण न मानकर मानवीय इच्छा की
प्रबलता को स्वीकार किया गया।
पुनर्जागरणकालीन इतिहासकारों ने
ईसाई-सम्प्रदाय के वृत्तान्तों के स्थान पर उदीयमान नगरों तथा राज्यों का
इतिहास लिखना प्रारम्भ किया, क्योंकि इनका
सम्बन्ध मानवीय प्रक्रिया के साथ जुड़ा हुआ था। अब
अध्यवसायी मानव समाज का सर्वांगीण अनुसन्धान ही इतिहास का लक्ष्य बन गया।
डॉ. झारखण्डे चौबे लिखते हैं कि "पुनर्जागरणकालीन
इतिहास-अवधारणा प्रवृत्तिमूलक बन गई।
इसका स्वरूप व्याख्यापरक न होकर घटना-प्रधान हो गया। विश्वव्यापी
दृष्टिकोण का
महत्त्व उत्तरोत्तर क्षीण होता गया और उसका स्थान क्षेत्रीय तथा प्रादेशिक इतिहास
ने ग्रहण किया।
इतिहास धर्म-प्रधान न होकर राजनियमित होने लगा। पुनरुत्थानकालीन मानववाद
आधुनिक युग में
बुद्धिवादी, इतिवृत्तात्मक, विद्वतापूर्ण तथा
दर्शन-प्रधान रूप में पल्लवित हुआ। मानसिक क्षितिज विस्तृत हुआ। मध्ययुगीन आदर्शों
की नीरसता तथा तपश्चर्या की शुष्कता के स्थान पर मानव जीवन की
रागात्मक सरसता और उसकी बहुमुखी प्रगति का उल्लास इतिहास और संस्कृति को नयी
प्रेरणा तथा स्फूर्ति से अभिसिंचित करने लगे। मनुष्य की जीवन-लीला के
प्रति नूतन
अभिरुचि उमड़ पड़ी।"
5. बुद्धिवादी
युग में इतिहास की अवधारणा-
17वीं-18वीं शताब्दी में विज्ञान का प्रभाव दिखाई देने लगा।
राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा
अर्थव्यवस्था की प्रक्रिया को यान्त्रिक समझा जाने लगा। मान्टेस्क्यू
ने सर्वप्रथम राजनीतिक संस्थाओं की उत्पत्ति तथा विकास के अध्ययन में आलोचनात्मक शक्ति तथा
नियम-निर्माण का परिचय दिया। वाल्तेयर को इतिहास-दर्शन का
जन्मदाता माना जाता है। उन्होंने
वैज्ञानिक तथा आलोचनात्मक पद्धति का प्रयोग इतिहास के अध्ययन में अनिवार्य
बताया। उन्होंने उच्च आदर्शों को अतीत की समाधि से निकालकर भविष्य के गर्भ में आरोपित किया।
लैसेन ने लिखा है कि इतिहास को वैज्ञानिक अवधारणा का एकमात्र श्रेय वाल्तेयर को
है। रूसो ने मानव स्वतन्त्रता पर बल दिया।
विको ने इतिहास-अध्ययन को आवश्यक
बताया है। उनके अनुसार इतिहास मानव की चेष्टा तथा चिन्तन का फल
है। इसका स्वरूप समाज और संस्थाओं के निर्माण से परिपूर्ण है। इसमें समानता तथा
निरन्तरता की प्रवृत्ति होती है।
विको ने तीन युगों की कल्पना की-
(1) देवयुग (2) वीरयुग तथा
(3) मानव युग।
इस प्रकार उन्होंने इतिहास-अवधारणा को एक
नवीन स्वरूप प्रदान
किया। उन्हें तुलनात्मक तथा वैज्ञानिक इतिहास-दर्शन का प्रवर्तक कहा जा सकता है।
कांट
के अनुसार ऐतिहासिक परिवर्तनों का अन्वेषण ही वास्तविक दर्शन है। ऐतिहासिक परिवर्तन सतत् प्रक्रिया
है जो सभ्यता तथा स्वतन्त्रता की ओर अग्रसर है। कांट के अनुसार विश्व की प्रक्रिया नियमबद्ध
है। इतिहास दूर दृश्य जगत् से अन्तर्जगत् की ओर अग्रसरित होने की प्रक्रिया है। इसी को
उन्होंने मानव स्वतन्त्रता की प्रगति कहा है। उन्होंने इतिहास को इतिहास की बुद्धिमत्ता की प्रगति
तथा उन्नति कहा है।
कांट के इतिहास-दर्शन की चार विशेषताएँ हैं-
(1) इतिहास सार्वजनिक और विश्वजनीन प्रक्रिया
है।
(2) इसमें प्रगति की एक योजना निहित है।
(3) इसकी मौलिक प्रवृत्ति, बौद्धिकता तथा नैतिकता का
विकास है।
(4) यह विकास अज्ञान, स्वार्थ और वासना आदि पर
निर्भर तामसिक वृत्ति की क्रीड़ा का परिणाम है।
6. रोमांतिक युग
में इतिहास की अवधारणा-
बुद्धिवादी युग में इतिहास-चिन्तन की अवधारणा तर्क-प्रधान रही
है, परन्तु.रोमांतिक युग में
इतिहास-चिन्तन का आधार भावना तथा कल्पना थी। तत्कालीन
दार्शनिकों एवं विचारकों ने जीवन और जगत के आन्तरिक रहस्य को भावना और कल्पना के
माध्यम से समझाने का प्रयास किया। इस दृष्टिकोण को रोमांतिक अवधारणा कहते हैं। इस युग
के विचारकों ने इतिहास को समष्टि-प्रधान माना है, व्यक्ति- प्रधान नहीं। मनुष्य
इतिहास का कर्ता नहीं है, बल्कि उपकरण और
उपज होता है।
हर्डर रोमान्तिक युग के महान् दार्शनिक
एवं विचारक थे। उनके अनुसार मानव-इतिहास तथा प्रकृति दोनों कालमय, गतिशील तथा जीवित हैं।
उन्होंने इतिहास में व्यक्ति की प्रधानता को स्वीकार किया है। उनके
अनुसार राष्ट्रों के स्वरूप तथा इतिहास में विभिन्नता का कारण भौगोलिक परिस्थितियों में
विभिन्नता है।
कालिंगवुड के अनुसार इतिहास को दार्शनिक
स्वरूप प्रदान करने का एकमात्र श्रेय हीगेल को है। हीगेल ने इतिहास-दर्शन
का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार इतिहास घटनाओं का संकलन तथा अन्वेषण
नहीं, उनमें निहित कार्यकरण
प्रक्रिया की गवेषणा है। विश्व-इतिहास की मूल प्रवृत्ति
मानव-स्वतन्त्रता का विकास है। उन्होंने इतिहास-प्रक्रिया में विचार के तीन स्वरूप-वाद, प्रतिवाद और साम्यवाद के
सिद्धान्त को स्पष्ट किया। इन नियमों के आवरण में इतिहास-दर्शन का लक्ष्य
राष्ट्र के विकास-क्रम की गवेषणा है। हीगेल के अनुसार प्रकृति तथा इतिहास में अन्तर है।
प्रकृति की प्रक्रिया चक्रात्मक है। इसके विपरीत इतिहास चक्रवत् नहीं है, इसका स्वरूप रेखावत् है।
प्रत्येक युग की ऐतिहासिक घटनाएँ चेतना द्वारा प्रभावित होती हैं। इतिहास विचारों का क्रम
और देवी बुद्धि की क्रिया है। प्रत्येक ऐतिहासिक तर्क में सामयिकता रहती है। इसका स्वरूप
द्वन्द्वात्मक तथा विरोधात्मक है।
7. उन्नीसवीं सदी
में इतिहास की अवधारणा –
आधुनिक युग में इतिहास-चिन्तन तथा लेखन की विशेषता
धर्मनिरपेक्ष,
द्वेषरहित, उपदेशात्मक तथा दार्शनिक
विचारों से पूर्ण है। धर्म तथा भावप्रधान विचारों का
परित्याग करके मानवीय प्रक्रिया का सूक्षम विवेचन इतिहासकारों का उद्देश्य बन गया। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक
परिस्थितियों की समीक्षा होने लगी। राजनीतिक इतिहास के स्थान
पर सांस्कृतिक अध्ययन इतिहास की विषयवस्तु बन गया। अब इतिहास के वस्तुनिष्ठ
स्वरूप पर बल दिया जाने लगा। आधुनिक इतिहास-अवधारणा का विकास इन्हीं
परिस्थितियों का परिणाम है।
उन्नीसवीं तथा बीसवीं सदी में इतिहास को
विज्ञान मान लिया गया। प्रो. ब्यूरी के अनुसार, "इतिहास
विज्ञान है, न कम और न अधिक।"
इतिहास परीक्षण,
विवेचन और
अनुसन्धान का विषय समझा गया।
इस दृष्टिकोण से इतिहास का इतिवृत्तात्मक तथा प्रवृत्तिमूलक अध्ययन किया गया। थामस बकल ने इस युग
की उच्च शाखाओं से सम्पृक्त इतिहासकार समाज का सर्वांगीण चित्र प्रस्तुत करें।
कार्ल मार्क्स इतिहास-दर्शन के महान्
विचारक थे। उन्होंने आर्थिक विकास को इतिहास की अवधारणा का आधार माना
है। उनके अनुसार सामाजिक परिवर्तन का मूल कारण आर्थिक विकास होता है। उनका कहना
है कि विचार, संस्था, राजनीति, धर्म तथा संस्कृति को
आर्थिक कारण प्रभावित
करते हैं। मार्क्स का विश्वास था कि ऐतिहासिक प्रगति का मूल कारण प्राचीन तथा नवीन सामाजिक संगठन
के बीच संघर्ष होता है। वाद तथा प्रतिवाद के द्वन्द्व के परिणामस्वरूप साम्यवाद का उदय होता है।
साम्यवाद ही इतिहास का मानववाद है। साम्यवाद से ही नवीन इतिहास का प्रारम्भ तथा
प्राचीन प्रथा का अन्त होता है। उनके अनुसार वर्ग-संघर्ष इतिहास की शक्ति है।
मार्क्सवाद के अनुसार प्राकृतिक
शक्तियों पर मनुष्य की विजय इतिहास का विकसित स्वरूप है। मार्क्स के
अनुसार सामाजिक परिवर्तन की तीन अवस्थाएँ हैं- दास प्रथा, सामन्तशाही
प्रथा तथा
पूँजीवाद। सभी
महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन उत्पादन की प्रक्रियाओं से आरम्भ होते हैं। इसी को ऐतिहासिक
भौतिकवाद का सिद्धान्त कहा जाता है।
रांके ने 19वीं शताब्दी में इतिहास की
अवधारणा को नवीन वैज्ञानिक विधाओं से अलंकृत किया है। वे प्रथम
इतिहासकार हैं जिन्होंने अपने व्यक्तित्व में लूथरवादी दया, जानफित्से का आदर्शवाद तथा हर्डर
और गेटे का इतिहास-दर्शन समाहित किया है। सर्वप्रथम रांके
ने ऐतिहासिक स्रोतों की यथार्थता को आलोचनात्मक विधि से निश्चित करने पर बल दिया था। उसके
वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक शोध का उद्देश्य घटनाओं का यथार्थ प्रस्तुतीकरण था। मौलिक
सामग्री के आधार पर ऐतिहासिक भ्रान्तियों का निवारण करना उसका एकमात्र उद्देश्य रहा है।
रांके का स्वभाव धार्मिक तथा रूमानी था। उसका कहना था कि इतिहास में ईश्वर निवास करता है, जीवित रहता है और उसे
देखा जा सकता है। विचारों में दैवी शक्तियों का आभास होता है और
विचारों की अन्तःप्रक्रिया में इतिहास का रहस्य छिपा हुआ है।
ऐतिहासिक अध्ययन की वैज्ञानिकता, विश्लेषणात्मक तथा
आलोचनात्मक आधारशिला निर्मित करने का एकमात्र
श्रेय रांके को है। उसका उद्देश्य तथ्यों की यथार्थता के आधार पर इतिहास का प्रस्तुतीकरण
है। उसकी रचनाओं में एक ओर वैज्ञानिकता है तो दूसरी ओर कलात्मकता है। वस्तुनिष्ठा के आधार पर उसने इतिहास को पूर्ण रूप से विज्ञान स्वीकार किया। वस्तुनिष्ठा की दृष्टि से उसकी इतिहास की रचनाएँ उच्च आदर्शों की पूर्ति करती हैं।
रांके
को
'आधुनिक इतिहास
का जनक' तथा 'आधुनिक इतिहास का कोलम्बस' कहा जाता है।
8.बीसवीं सदी में
इतिहास की अवधारणा -
बीसवीं सदी में इतिहास की अवधारणा दीर्घकालीन प्रयास एवं सतत् चिन्तन
का परिणाम है। इस युग में इतिहास की अवधारणा का उद्देश्य संकुचित राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, क्षेत्रीयता की भावना आदि का परित्याग कर विश्व भ्रातृत्ववाद को इतिहास
में सार्वभौम स्वरूप प्रदान करना था। अब इतिहास सम्पूर्ण मानव समाज के कल्याण के
लिए हो गया था।
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की अवधारणा
यह भी जानें- इतिहास
में प्रगति की अवधारणा
यह भी जानें- द्वन्द्वात्मक इतिहास की अवधारणा
इस युग के प्रसिद्ध इतिहासकार एच.जी.
वेल्स ने अपनी रचनाओं में मानव कल्याण, मानव प्रगति तथा विश्व भ्रातृत्ववाद को यथोचित स्थान दिया । वे आशावादी थे तथा उनकी सार्वभौमिक मानव – कल्याण में आस्था थी । उनके इतिहास दर्शन के विषय में रटजेल ने लिखा है कि "सम्पूर्ण मानव जाति का इतिहास-दर्शन इस विश्वास से समाहित होता है कि सभी एक हैं। आदि से अन्त तक समान
नियम पर आधारित हैं।" एच.जी.वेल्स का उद्देश्य मानव जाति
का सर्वांगीण चित्रण
प्रस्तुत करना है। यह उनका इतिहास-दर्शन नहीं, बल्कि सार्वभौम इतिहास है। उन्होंने अपनी रचनाओं में
प्रमुख तीन तत्त्वों का उल्लेख किया है- विज्ञान, सत्कर्म तथा मानववाद। उन्होंने इतिहास में धर्म
एवं नैतिकता की भावना को मान्यता देते हुए भी सामाजिक तथा सार्वभौमिक विश्व भ्रातृतत्ववाद को
अपनाया और इतिहास के वैज्ञानिक स्वरूप में अपनी आस्था व्यक्त की।
टायनबी ने सार्वभौमिक राज्य की कल्पना
करते हुए भी यह स्वीकार किया कि इतिहास की विषय-वस्तु ऐतिहासिक
घटनाएँ, राज्य तथा समुदाय नहीं
हैं, अपितु समाज है। विश्व की
26 सभ्यताओं के
विश्लेषणात्मक प्रस्तुतीकरण के माध्यम से उन्होंने एक नवीन इतिहास-धारणा का प्रतिपादन किया।
टायनबी ने चुनौती तथा प्रतिक्रिया के
आधार पर संस्कृतियों का अध्ययन किया है। चुनौती से समस्या की उत्पत्ति
होती है तथा प्रतिक्रिया उसका समाधान प्रस्तुत करती है। उनके अनुसार चुनौती सामाजिक समस्या है, जबकि प्रतिक्रिया समस्या
का समाधान है। चुनौती प्रश्न है तथा प्रतिक्रिया उत्तर है।
चुनौतियों का सफल उत्तर देने की प्रवृत्ति ही विकास है। सभ्यता का विकास सर्जनात्मक व्यक्तियों और
वर्गों का कार्य है और ये सर्जनात्मक व्यक्ति वर्ग के निर्गमन तथा प्रत्यागमन की
प्रवृत्तियों द्वारा कार्य करते हैं।
टायनबी की दृष्टि से इतिहास की महान्
घटनाएँ साम्राज्य का उत्थान और नवीन अन्वेषण का अध्ययन नहीं, अपितु महान् धर्मों का
उदय तथा उत्थान हैं। अनेक आलोचकों ने टायनबी की इतिहास-अवधारणा की कटु
आलोचना की है,
परन्तु इस आलोचना
के बावजूद आधुनिक युग के महान् इतिहासकारों में
उनका स्थान अद्वितीय है। समस्त विश्व का एकीकरण, धर्मों का समन्वय तथा आर्थिक विषमताओं का निराकरण उनकी
इतिहास-अवधारणा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं।
यह भी जानें- इतिहास-दर्शन का वर्गीकरण
व स्वरूप
समीक्षा-
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि
प्राचीनकाल से बीसवीं सदी तक इतिहास-अवधारणा का स्वरूप
एकसमान नहीं रहा है। काल तथा परिस्थितियों में परिवर्तन के परिणामस्वरूप इतिहास की
अवधारणा में भी परिवर्तन होता रहा है।
प्राचीनकाल में इतिहास अतृप्त ज्ञान-पिपासा
को तृप्त करने का एक साधन था, मध्य युग में इतिहास धार्मिक भावनाओं से प्रभावित था। पुनर्जागरण काल में मानववादी तथा बुद्धिवादी इतिहासकारों ने रूढ़िवादी दृष्टिकोण की आलोचना की। बुद्धिवादी युग के इतिहासकारों ने तथ्यों को मान्यता दी। 19 वीं सदी में कांट, हर्डर, हीगेल तथा कार्ल
मार्क्स ने इतिहास-अवधारणा को नवीन स्वरूप प्रदान करते हुए इतिहास-अवधारणा को मानववादी सिद्ध किया। बीसवीं सदी में इतिहासकारों ने विश्व भ्रातृत्ववाद तथा सार्वभौमिकता पर बल दिया। उन्होंने इतिहास-अवधारणा को सार्वभौमिक स्वरूप
प्रदान किया। इस प्रकार इतिहास की अवधारणा विभिन्न युगों में काल तथा परिस्थितियों
का परिणाम रही है।
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