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शीत युद्ध के कारण और प्रभाव

बीसवीं सदी का विश्व

शीत युद्ध की उत्पत्ति

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में दो ही महाशक्तियाँ संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस रह गई थीं। महायुद्ध में उन्होंने सम्मिलित रूप से तानाशाही शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष किया था किन्तु महायुद्ध की समाप्ति के बाद 1945 में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के मध्य कटुता, वैमनस्य, तनाव और मनमुटाव में अनवरत वृद्धि होती चली गई क्योंकि दोनों ही महाशक्तियाँ युद्ध में प्राप्त लाभ को बनाये रखने और अपने प्रभाव में विस्तार की आकांक्षी थीं। इस आकांक्षा की पूर्ति के मार्ग में एक शक्ति दूसरी के लिए बाधक थी और दोनों ही शक्तियाँ इन बाधाओं को हटाना चाहती थी। अत: उन्होंने राजनीतिक प्रचार का मार्ग अपनाया जिसे शीतयुद्ध कहते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए एक-दूसरे को राजनीतिक, कूटनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आवश्यक होने पर सैनिक मोर्चे पर भी पराजित करने में लग गये जिससे सम्पूर्ण विश्व में एक प्रकार का भय, अविश्वास और तनाव का वातावरण बन गया और पुनः युद्ध की सी स्थितियाँ बन गयी। यह युग 'सशस्त्र शान्ति' का युग था।

शीत युद्ध का अर्थ

द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के मध्य शत्रुता और तनावपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की अभिव्यक्ति के लिए 'शीतयुद्ध' शब्द का प्रयोग किया जाता है।

फ्लेमिंग ने शीत युद्ध का वर्णन करते हुए इसे एक ऐसा युद्ध बताया है जो "युद्ध स्थल में नहीं लड़ा जाता, परन्तु मानवों के मस्तिष्कों में होता है, एक (व्यक्ति) अन्य के मस्तिष्कों को नियंत्रित करने का प्रयास करता है।"

इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए यदि हम शीतयुद्ध को परिभाषित करें तो कहना पड़ेगा कि शीतयुद्ध दो राष्ट्रों के मध्य तनाव की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें दोनों पक्ष शान्तिपूर्ण राजनयिक सम्बन्ध रखते हुए भी परस्पर शत्रु भाव रखते हैं तथा शस्त्र युद्ध के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों से एक-दूसरे की शक्ति को दुर्बल करने तथा स्वयं को शक्तिशाली बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसमें युद्ध की परिस्थितियाँ और तनाव बना रहता है। इसमें रणक्षेत्र में वास्तविक युद्ध तो नहीं होता, किन्तु दोनों पक्षों के राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक आदि सभी सम्बन्धों में शत्रुतायुक्त तनाव की स्थिति रहती है। यह एक ऐसा युद्ध है जिसका रणक्षेत्र न होकर कागज के गोलों, पत्र, पत्रिकाओं, रेडियों और प्रचार माध्यमों से लड़ा जाने वाला वाक् युद्ध है जिसमें प्रचार द्वारा विरोधी गुट के विचारों, संस्थाओं और कार्यों की आलोचना करके उसका मनोबल क्षीण करने का प्रयास किया जाता है तथा तार्किक रूप से स्वयं की श्रेष्ठता, शक्ति और न्यायप्रियता का दावा किया जाता है । इस दृष्टि से यह एक प्रचारात्मक युद्ध है जिसमें एक महाशक्ति दूसरे के विरुद्ध घृणित प्रचार का आश्रय लेती है। वस्तुत: शीतयुद्ध वास्तविक युद्ध के विध्वंसकारी दुष्परिणामों से बचते हुए युद्ध से प्राप्त होने वाले सभी उद्देश्यों को प्राप्त करने का नवीन शस्त्र है।

शीत युद्ध की प्रकृति

शीतयुद्ध की प्रकृति कूटनीतिक युद्ध के समान है। शीतयुद्ध में दोनों पक्ष शान्तिकालीन कूटनीतिक सम्बन्ध बनाये रखते हुए भी परस्पर शत्रु भाव रखते हैं और सशस्त्र युद्ध के अतिरिक्त अन्य सभी उपायों से एक-दूसरे की स्थिति और शक्ति को कमजोर करने का प्रयास करते हैं। शीतयुद्ध में प्रत्येक पक्ष अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए अपनी विचारधारा की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हैं तथा दूसरे देशों को अपने प्रभाव में लाने के लिए आर्थिक सहायता, जासूसी, सैनिक हस्तक्षेप, शस्त्रीकरण, शस्त्र आपूर्ति, सैनिक गुटबन्दी तथा प्रादेशिक संगठनों के निर्माण आदि का आश्रय लेते हैं। प्रधानतः शीतयुद्ध'उष्णशान्ति' प्रकृति का होता है जिसमें न तो पूर्ण रूप से शान्ति रहती है और न ही वास्तविक युद्ध होता है वरन् शान्ति और युद्ध के बीच की स्थिति बनी रहती है। वस्तुत: शीतयुद्ध दो महाशक्तियों द्वारा युद्ध का बहिष्कार या त्याग नहीं वरन् दोनों के मध्य प्रत्यक्ष संघर्ष की अनुपस्थिति है। शीतयुद्ध के काल में तीसरी दुनिया में अनेक संघर्ष हुए जिनमें अप्रत्यक्ष रूप से महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।

शीत युद्ध के कारण

द्वितीय विश्व युद्धकालीन लाभों को बनाये रखने और अपने प्रभाव के विस्तार की आकांक्षा के चलते संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस की उग्र नीति के कारण युद्धकालीन मित्र युद्धोपरान्त एक-दूसरे के शत्रु बन गये और यही स्थिति शीतयुद्ध का कारण बनी। शीतयुद्ध के निम्नलिखित कारण हैं-

1. दोनों पक्षों में संदेह व अविश्वास की भावना-

रूस की साम्यवादी क्रान्ति की सफलता के पश्चात् पश्चिमी राष्ट्र रूस को अविश्वास व संदेह की दृष्टि से देखने लगे थे। रूस भी शान्त नहीं बैठा था। उसने भी सम्यवाद के प्रसार के लिए प्रयास आरम्भ कर दिए थे। उसका प्रभाव क्षेत्र द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् पर्याप्त बढ़ गया था। अत: पश्चिम के देश रूस को संदेह तथा अविश्वास की दृष्टि से देखने लगे थे। रूस की पूँजीवादी विरोधी नीतियाँ पश्चिम के देशों के लिए एक चुनौती बन गयी थीं। अतः उन्होंने रूस की घेराबंदी करनी प्रारम्भ कर दी।

2. सैद्धान्तिक मतभेद-

रूस और अमेरिका के विचार व सिद्धान्त एक-दूसरे के पूर्णतया विरोधी थे। अमेरिका एक पूँजीवादी लोकतंत्रात्मक देश है जबकि रूस साम्यवादी तथा एक दलीय वाला देश है। इस प्रकार के सैद्धान्तिक मतभेद ने दोनों के बीच एक तनाव उत्पन्न कर दिया जो आज भी उसकी विदेश नीति को प्रभावित कर रहा है।

3. रूसी क्रान्ति के समय पश्चिमी देशों का हस्तक्षेप-

ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि जब 1917 में रूस में सशस्त्र साम्यवादी क्रान्ति प्रारम्भ हुई थी उस समय ही पश्चिम देशों ने तथा अमेरिका ने इस क्रान्ति को कुचलने की हर प्रकार से कोशिश की थी। परन्तु पश्चिम की पूँजीवादी शक्तियों को रूसी क्रान्ति को कुचलने में सफलता नहीं मिली परन्तु रूसी जनता पश्चिम के इन पूँजीवादी देशों से घृणा अवश्य करने लगी।

4. रूस की सरकार को प्रारम्भ में मान्यता न देना-

1917 की क्रान्ति के पश्चात् पर्याप्त काल तक पश्चिमी शक्तियों ने रूस की बोल्शेविक सरकार को मान्यता नहीं दी थी। अमेरिका ने तो 1993 में रूस को मान्यता प्रदान की तथा 1934 में उसे राष्ट्र संघ की सदस्यता प्राप्त हो सकी।

5. ब्रिटेन तथा फ्रांस की तुष्टिकरण की नीति-

ब्रिटेन व फ्रांस ने जर्मनी के प्रति जो तुष्टिकरण की नीति अपनायी थी रूस ने उसका विरोध किया था। पश्चिमी देशों का यह भ्रम था कि जर्मनी को संतुष्ट करके उसे रूस के विरुद्ध किया जा सकता है।

6. रूस द्वारा याल्टा समझौतों की अवहेलना करना-

फरवरी, 1945 में याल्टा सम्मेलन हुआ जिसमें अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट, चर्चिल तथा स्टालिन ने परस्पर कुछ समझौते किए थे जैसे पोलैण्ड व स्वतंत्र निर्वाचन द्वारा अस्थायी सरकार की स्थापना, बाह्य मंगोलिया में यथास्थिति बनाए रखना आदि। रूस ने याल्टा समझौते के पालन का आश्वासन तो दिया परन्तु उनका पालन नहीं किया। रूस ने पोलैण्ड में साम्यवादी दल को हर प्रकार की सहायता दी और लोकतंत्रीय दल को समाप्त करने का प्रयास किया। रूस की इन कार्यवाहियों से पश्चिम के देश उस पर संदेह करने लगे।

7. रूस द्वारा बाल्कन राज्यों में हस्तक्षेप-

1994 में रूसी सेना बाल्कन प्रदेश में प्रवेश कर गयी। ब्रिटेन को भय था कि कहीं इस क्षेत्र पर रूस अपना अधिकार न जमा लें, अतः इस संबंध में स्टालिन ने एक समझौता किया जिसके अनुसार रुमानिया तथा बुल्गारिया पर रूस का तथा यूनान पर ब्रिटेन का अधिकार स्वीकार किया गया। हँगरी और युगोस्लाविया पर दोनों का अधिकार माना गया। परन्तु युद्ध के पश्चात् ही रूस ने सम्पूर्ण बाल्कन प्रदेश में साम्यवादी सरकारों की स्थापना करा दी।

8. टर्की और यूनान पर रूस का प्रभाव-

रूस ने टर्की और यूनान पर अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने का प्रयास किया तथा वहाँ के साम्यवादी दलों को सहायता दी। अमेरिका ने साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए 1947 में ट्रूमैन सिद्धान्त (True man Doctrine) के अन्तर्गत दोनों देशों को आर्थिक सहायता दी।

9. शान्ति समझौतों के प्रश्न पर मतभेद-

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् रूस तथा पश्चिमी शक्तियों के मध्य शान्ति संधियों के संबंध में गंभीर मतभेद उत्पन्न हो गए। इटली के साथ होने वाली संधि के विषय में रूस का पश्चिमी शक्तियों से अनेक समस्याओं पर मतभेद था। रूस इटली के भूतपूर्व उपनिवेश लीबिया पर अपना संरक्षण चाहता था। परन्तु पश्चिमी देश इस पर तैयार नहीं थे।

10. पश्चिमी देशों की फासिस्ट देशों से साँठ-गाँठ-

रूस का अमेरिका पर यह आरोप था कि उसने इटली तथा फ्रांस के फासिस्ट तत्वों से सम्पर्क किया है। परन्तु पश्चिमी देश इस पर तैयार नहीं थे। रूस ने पश्चिमी देशों बुल्गारिया व रुमानिया की सरकारों को मान्यता देने के लिए कहा परन्तु पश्चिमी देशों ने इस मांग को ठुकरा दिया।

11. अमेरिका द्वारा अणुबल के रहस्य को गुप्त रखना-

द्वितीय विश्व युद्ध के समय रूस ने अमेरिका व पश्चिमी देशों का साथ हृदय से दिया था। परन्तु अमेरिका ने अणु बम के आविष्कार को गुप्त रखा जबकि ब्रिटेन और कनाडा को इस रहस्य की जानकारी थी। यह युद्धकालीन मित्रता के नियमों के विरुद्ध थी। स्टालिन ने इसे अमेरिका का बहुत बड़ा विश्वासघात माना। अमेरिका ने जापान पर अणु बम गिराकर यह सिद्ध करना चाहा कि उन्हें रूसियों की सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है। अतः रूस को अपनी सुरक्षा की चिन्ता होने लगी। उसने भी चार वर्ष के अन्दर अणु बम बनाकर पश्चिम की शक्तियों को आश्चर्य में डाल दिया।

12. पश्चिमी देशों द्वारा प्राचीन व्यवस्था को स्थापित करने के प्रयास-

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् पूर्वी यूरोप पर रूस का प्रभुत्व स्थापित हो चुका था तथा इसे पश्चिम के देशों द्वारा मान्यता प्रदान कर दी गयी थी। परन्तु पश्चिम के देश इन देशों में नवनिर्वाचन कराकर लोकतंत्र की स्थापना करवाने के पक्ष में थे। उधर इटली के युद्ध में पराजित होने से पूर्व ही ब्रिटेन व अमेरिका ने इन्ली के फासिस्ट दलों में साम्यवाद के प्रभाव को कम करने के लिए सहयोग स्थापित करना आरम्भ कर दिया था। यूगोस्लाविया साम्यवादी प्रभाव में था परन्तु ब्रिटेन और अमेरिका वहाँ राजतंत्र की स्थापना करना चाहते थे।

13. बर्लिन की घेराबंदी-

रूस ने 4 जून, 1948 को लंदन में सम्पन्न 'लंदन प्रोटोकॉल' का उल्लंघन करते हुए बर्लिन की घेराबंदी कर दी तथा पश्चिमी बर्लिन एवं पश्चिमी जर्मनी के मध्य समस्त यातायात रोक दिया। पश्चिमी देशों तथा सुरक्षा परिषद् ने रूस की इस कार्यवाही की घोर निन्दा की।

14. पश्चिमी देशों द्वारा रूस विरोधी नीति को अपनाना-

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अमेरिका और ब्रिटेन ने रूस के विरुद्ध योजनाबद्ध ढंग से शीत युद्ध आरम्भ कर दिया। ब्रिटिश मंत्री ने कहा था कि "हमें तानाशाही के एक स्वरूप के स्थान पर उसके दूसरे स्वरूप के संस्थापन को रोकना चाहिए।"

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शीत युद्ध के कारण और प्रभाव


शीतयुद्ध के प्रभाव

(1) शीत-युद्ध ने विश्व को दो गुटों में विभाजित कर दिया- प्रथम अमेरिकी गुट तथा द्वितीय रूसी गुट। इस गुटबंदी ने अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने के बजाय उलझाने का ही प्रयास किया।

(2) शीत-युद्ध ने विश्व में सैनिक गुटबंदी को भी प्रोत्साहन दिया। नाटो, सीटो, सैण्टो तथा वारसा पेक्ट इसके उदाहरण हैं।

(3) सैनिक गुटबंदी ने नि:शस्त्रीकरण की समस्या को जटिल कर दिया।

(4) शीत-युद्ध ने राष्ट्रों में शस्त्रीकरण की प्रवृत्ति को जन्म दिया। अपार धनराशि शस्त्र निर्माण में व्यय होने लगी।

(5) शीत-युद्ध ने भविष्य में आणविक युद्ध की संभावनाओं को भी जन्म दिया है। आणविक शस्त्रों के निर्माण की होड़ में विश्व शान्ति को विनाश के कगार पर खड़ा कर दिया है।

(6) शीत-युद्ध में संयुक्त राष्ट्र संघ को पूर्णतया पंगु बना दिया है। यहाँ एक गुट दूसरे गुट के प्रस्तावों का आँख मीचकर विरोध करता है। किसी समस्या का न्यायपूर्ण हल निकालने की अपेक्षा गुट हित पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

(7) शीत-युद्ध ने विश्व में भय, आतंक तथा राष्ट्रों में परस्पर अविश्वास की भावना का विकास किया है। सदा यह भय बना रहता है कि कब विश्व तीसरे विश्व युद्ध की आग में जलने लग जाए।

(8) शीत युद्ध के कारण ही तीसरी दुनिया के विकासशील देशों की भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी, अशिक्षा, आर्थिक पिछड़ापन, राजनीतिक अस्थिरता आदि अनेक महत्त्वपूर्ण समस्याओं का उचित निदान यथासंभव नहीं हो सका, क्योंकि महाशक्तियों का दृष्टिकोण मुख्यतः शक्ति की राजनीति तक ही सीमित रहा।

(9) शीत युद्ध के कारण सुरक्षा परिषद् को लकवा मार गया और महाशक्तियाँ वीटो शक्ति का बेहिचक प्रयोग करती रहती थीं।

शीतयुद्ध के विभिन्न चरण/विकास

प्रथम चरण (1917-1945)-

1917 में रूस में साम्यवादी क्रान्ति हुई और इसी वर्ष विश्व का प्रथम साम्यवादी देश अस्तित्व में आया। परन्तु पश्चिमी राष्ट्र रूस में साम्यवाद की स्थापना से क्षुब्ध थे। अंत में 1924 में ब्रिटेन तथा 1933 में अमेरिका द्वारा सोवियत संघ की सरकार को मान्यता दी गई। इस युग में शीतयुद्ध को जन्म देने वाली घटनाएँ थीं-

(1) अप्रेल 1942 से, जून 1944 तक द्वितीय मोर्चे का स्थगन

(2) 29 मार्च, 1944 से फरवरी, 1945 तक रूसी सेनाओं द्वारा पूर्वी यूरोप पर अधिकार,

(3) 6 अगस्त, 1945 को अमेरिका द्वारा हिरोशिमा और 9 अगस्त को नागासाकी पर अणुबम गिराना।

द्वितीय चरण (1946-1953 ई.)-

(1) चर्चिल का फुल्टन भाषण- 5 मार्च, 1946 को अपने फुल्टन भाषण में चर्चिल ने सोवियत रूस के 'लौह आवरण' के छा जाने पर चिंता प्रकट की थी। उसने यह घोषणा की कि "स्वतंत्रता की दीपशिखा को प्रज्वलित रखने एवं ईसाई सभ्यता की सुरक्षा के लिए एक आंग्ल-अमरीकी गठबंधन की आवश्यकता है।" चर्चिल के फुल्टन भाषण ने शीतयुद्ध का सूत्रपात किया।

(2) ट्रूमैन सिद्धान्त- 12 मार्च, 1947 को अमरीकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने घोषणा की कि अमेरिका साम्यवाद के प्रसार को रोकेगा। यूनान, ईराक, तुर्की आदि देशों को साम्यवादी गुट में जाने से बचाने के लिए ट्रूमैन ने इन देशों को आर्थिक सहायता देने की घोषणा की।

(3) मार्शल योजना- अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रूमैन ने मार्शल योजना के माध्यम से पश्चिमी यूरोपीय देशों को आर्थिक सहायता देने का निश्चय किया। इस योजना का मुख्य उद्देश्य पश्चिमी यूरोपीय देशों को साम्यवादी खेमे में जाने से रोकना और साम्यवादी प्रभाव को नष्ट करना था।

(4) बर्लिन की नाकेबंदी- मार्च 1948 में रूस ने बर्लिन की नाकेबंदी कर दी। परिणामस्वरूप रूस इस नाकेबंदी में असफल रहा और मई 1949 में नाकेबंदी समाप्त कर दी।

(5) नाटो का गठन- 4 अप्रेल 1949 को अमेरिका के नेतृत्व में नाटो संगठन का निर्माण किया। इसका उद्देश्य पश्चिमी यूरोप में सोवियत संघ तथा साम्यवाद के प्रसार पर अंकुश लगाना था। इससे शीतयुद्ध में वृद्धि हुई।

(6) चीन में साम्यवादी क्रान्ति- 1 अक्टूबर, 1949 को चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना हुई। साम्यवादी चीन में संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् तथा महासभा में अपना स्थान पाने की माँग की, परन्तु अमेरिका तथा पश्चिमी देशों ने इसका विरोध किया और इस विरोध के कारण साम्यवादी चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश नहीं मिला।

(7) कोरिया युद्ध- 1950 में साम्यवादी उत्तरी कोरिया ने दक्षिणी कोरिया पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि यह युद्ध 1953 में बंद हो गया था, परन्तु दोनों गुटों के बीच शीतयुद्ध जारी रहा।

(8) अमेरिका द्वारा जापान के साथ संधि करना- 5 सितंबर, 1951 को अमेरिका तथा उसके सहयोगी देश जापान के साथ एक शान्ति संधि कर ली।

तृतीय चरण (1953-1958)-

(1) सोवियत संघ द्वारा आणविक परीक्षण- अगस्त, 1953 ई. में सोवियत संघ द्वारा प्रथम आणविक परीक्षण किया गया। परमाणु अस्त्रों के निर्माण ने शीतयुद्ध को तीव्र कर दिया।

(2) हिन्द-चीन की समस्या- फ्रांसीसी साम्राज्य के विरुद्ध हिन्द-चीन की जनता ने विद्रोह कर दिया। हिन्द-चीन के प्रश्न को लेकर सोवियत संघ तथा अमेरिका में तनाव बना रहा जिसने शीतयुद्ध को और अधिक उग्र बना दिया।

(3) सीटो तथा वारसा पैक्ट- 1954 में दक्षिण-पूर्वी एशिया में साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए अमेरिका के नेतृत्व में सीटो का गठन किया। मूल उद्देश्य-कम्बोडिया, वियतनाम तथा लाओस को साम्यवादी गुट में जाने से रोका जाय। इसी प्रकार पश्चिमी एशिया में साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए 1955 में बगदाद पैक्ट का निर्माण किया। दूसरी ओर सोवियत संघ तथा उसके साथी देशों ने 14 मई 1955 को वारसा पैक्ट का निर्माण किया। इसका उद्देश्य अमेरिका तथा उसके सहयोगियों के आक्रमणों से साम्यवादी देशों को सुरक्षा प्रदान करना था।

(4) हंगरी में सोवियत संघ का हस्तक्षेप- 1956 में हंगरी में इमरेनेगी के नेतृत्व में वहाँ की सरकार ने सोवियत संघ की तानाशाही के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। परन्तु सोवियत संघ ने 'हंगरी में सेना भेजकर विद्रोह को कुचल दिया।

(5) स्वेज-युद्ध- 1956 में इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा इजराइल ने मिलकर मिस्र पर आक्रमण कर दिया। सोवियत संघ ने धमकी दी कि यदि युद्ध समाप्त नहीं किया, तो परमाणु शस्त्रों का प्रयोग शुरू करेगा। फलस्वरूप युद्ध बंद कर दिया गया। यद्यपि 1956 में स्वेज-युद्ध समाप्त हो गया, परन्तु रूस तथा पश्चिमी देशे में शीतयुद्ध चलता रहा।

(6) आइजनहावर का सिद्धान्त- जून, 1957 में 'आइजहावर सिद्धान्त लागू किया।' इसमें राष्ट्रपति को यह अधिकार दे दिया कि वह मध्यपूर्व में साम्यवाद के प्रभाव को रोकने के लिए अमरीकी शस्त्र सेनाओं का प्रयोग कर सकता है।

चतुर्थ चरण (1959-1962)-

(1) यू-2 विमान काण्ड- 1 मई, 1960 को अमेरिका का एक जासूसी विमान यू-2 सोवियत रूस की सीमा में जासूसी करते पकड़ा गया विमान चालक ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। सोवियत संघ ने इस घटना की कटु आलोचना की और अमेरिका को शान्ति भंग करने वाला देश बताया।

(2) पेरिस शिखर सम्मेलन की असफलता- 16 मई, 1960 को पेरिस में एक शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें सोवियत संघ, अमेरिका, ब्रिटेन तथा फ्रांस के शासनाध्यक्ष सम्मिलित हुए। सोवियत प्रधानमंत्री खुश्चेव ने यू-2 विमान काण्ड का मामला उठाया, अमेरिका की कटु आलोचना की और अमेरिका से इस कृत्य के लिए क्षमा माँगने को कहा और दूसरे सम्मेलन में खुश्चेव ने भाग नहीं लिया और कार्यवाही बंद करनी पड़ी। इसके कारण संबंध और बिगड़ गए।

(3) 1961 का बर्लिन दीवार संकट- 1961 में सोवियत संध ने बर्लिन के पश्चिमी क्षेत्र को सोवियत अधिकार वाले क्षेत्र से अलग करने के लिए बर्लिन की दीवार का निर्माण करवाया, जिसका अमेरिका ने कड़ा विरोध किया।

(4) क्यूबा की नाकेबंदी- 1962 में सोवियत संघ ने अपने सैनिक अड्डे स्थापित किए और इन अड्डों पर राकेट प्रक्षेपास्त्र रखे जाने लगे। इस पर अमरिकी राष्ट्रपति कैनेडी ने क्यूबा की नाकेबंदी कर दी। इससे दोनों के बीच युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई । शीतयुद्ध के इतिहास में क्यूबा का संकष्ट तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन सकता था।

पंचम चरण (1963-1979)-

(1) शीतयुद्ध में शिथिलता- 5 अगस्त, 1963 को अमेरिका, ब्रिटेन तथा सोवियत संघ ने आणविक परीक्षणों की आंशिक रोक संधि पर हस्ताक्षर कर दिए।

(2) अरब-इजराइल युद्ध- 1967 में अरबों तथा इजराइल के बीच युद्ध छिड़ गया सोवियत संघ ने अरबों का समर्थन किया।

(3) मास्को-बोन समझौता- 1970 में सोवियत संघ तथा पश्चिमी जर्मनी में एक समझौता हुआ, जिसके द्वारा रूस और पश्चिमी जर्मनी ने शक्ति प्रयोग का परित्याग करने का निश्चय किया।

(4) बर्लिन समझौता- अगस्त, 1971 में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ के प्रतिनिधियों के बीच पश्चिम बर्लिन के बारे में एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार तय किया गया कि पश्चिमी बर्लिन में लोग पूर्वी बर्लिन जा सकेंगे।

(5) द्वितीय यूरोपीय सुरक्षा सम्मेलन- 1974 के ब्लाडी वोस्टक शिखर सम्मेलन अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा तनाव कम करने के प्रयत्नों का परिणाम था। अमेरिकी राष्ट्रपति फोर्ड तथा सोवियत संघ के प्रधानमंत्री ब्रेझनेव ने सामरिक अस्त्र परिसीमन समझौते की रूपरेखा तैयार की।

छठा चरण (1980-89 ई.)-

(1) अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप- 1979 के अंत में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में सैनिक हस्तक्षेप किया, तो अमेरिका ने सोवियत संघ की कटु आलोचना की।

(2) अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन की आक्रामक नीति- 1981 में रोनाल्ड रीगन अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उनके सत्तारूढ़ होने से शीतयुद्ध में तीव्रता आई।

(3) सोवियत संघ द्वारा दक्षिण कोरिया के विमान को मार गिराना- 1983 में सोवियत संघ ने दक्षिणी कोरिया के विमान को मार गिराया। अमेरिका ने सोवियत संघ की इस कार्यवाही की कटु आलोचना की।

(4) अमेरिका का स्टारवार कार्यक्रम- 1986 में अमेरिका ने स्टारवार कार्यक्रम शुरू किया।

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