Heade ads

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

प्राचीन भारत का इतिहास भारत के लिए गौरव का विषय है। प्राचीन भारतीय इतिहास से तात्पर्य प्रारंभ से 1200 ई. तक के काल के भारतीय इतिहास से है। इस काल के प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण के लिए जिन तथ्यों और स्रोतों का उपयोग किया जाता है। उन्हें प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत कहते है। विद्वानों का मानना है कि, प्राचीन भारत के इतिहास की क्रमबद्ध जानकारी प्राप्त करने के लिए प्रामाणिक स्रोत नहीं मिलते है, इसी कारण कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों का मानना है कि, प्राचीन काल में भारतीयों में इतिहास लेखन के प्रति रूचि तथा इतिहास बुद्धि का अभाव था।

ग्यारहवीं सदी का पर्यटक विद्वान अलबरूनी भी लिखता है कि, 'हिन्दू घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम की ओर अधिक ध्यान नहीं देते थे।' प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आर. सी. मजूमदार भी कहते है कि, 'इतिहास लेखन के प्रति भारतीयों की विमुखता भारतीय संस्कृति का भारी दोष हैं।' किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत प्रचूर मात्रा में पुरातात्विक साक्ष्यों के रूप में उपलब्ध है।

डॉ. आर. एस. त्रिपाठी का मानना है कि, 'प्राचीन भारतीय साहित्य बहुत विस्तृत एवं समृद्ध होने पर भी इतिहास की सामग्री की दृष्टि से अत्यन्त निराशाजनक है। इसका कारण सम्भवतः ऐतिहासिक मेधा (इतिहास लेखन बुद्धि) की कमी रही होगी।' इस बारे में ए. एल. बाशम का कहना है कि, 'भारत का प्राचीन इतिहास पहेलियों के समान है जिनके बहुत से पन्ने खो गये हैं।'

इतिहास अतीत का अध्ययन हैं। इतिहास में अतीत की घटनाओं का कालक्रमानुसार अध्ययन किया जाता है। अतीत का पुनर्निर्माण विभिन्न तथ्यों को एकत्रित करके किया जाता हैं। तथ्य अनेक कई प्रकार के होते हैं, यही तथ्य इतिहास के स्रोत होते है, जो कि प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतों के रूप में मिलते हैं। प्राथमिक स्रोतों में मूल स्रोत आते है, जैसे अभिलेख, मुद्राएँ, स्मारक भवन, मूर्तियाँ तथा पुरावशेष एवं मूल रचनाएँ जैसे वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि सामग्री आती है। द्वितीयक स्रोतों के अंतर्गत प्रकाशित, अप्रकाशित प्रलेख या समस्त लिखित सामग्री आती है।

prachin bharatiya itihas ke sahityik strot, puratatvik strot, sahityik strot, Source literature
प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

प्राचीन भारत के इतिहास के जानने के स्रोतों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है-

1. पुरातात्विक स्रोत 2. साहित्यिक स्रोत 3. विदेशी लेखकों एवं यात्रियों के विवरण।

पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Source )-

पुरातत्व उन भौतिक वस्तुओं का अध्ययन करता है, जिनका निर्माण और उपयोग मनुष्य ने किया है। अतः वे समस्त भौतिक वस्तुएँ जो अतीत में मनुष्य द्वारा निर्मित एवं उपयोग की गयी है, वे सभी वस्तुएँ पुरातत्व के अंतर्गत आती है, पुरातात्विक स्रोत कहलाती है। विद्वान पुरातात्विक स्रोतों को बहुत अधिक प्रामाणिक मानते हैं, क्योंकि पुरातात्विक स्रोतों में लेखक कोई गड़बड़ी नहीं कर सकता हैं।

पुरातात्विक स्रोत सामग्री को 6 भागों में बाँटा जा सकता है- (1) अभिलेख (2) सिक्के (3) स्मारक (4) मुहरें (5) कलाकृतियाँ (6) मिट्टी के बर्तन, उपकरण, आभूषण आदि।

1. अभिलेख (Record )-

अभिलेख वह लेख होते है, जो किसी पत्थर (चट्टान), धातु, लकड़ी या हड्डी पर खोदकर लिखें होते हैं। प्राचीन अभिलेख अनेक जैसे, स्तम्भों, शिलाओं, गुहाओं, मूर्तियों , प्रकारों, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पर मिलते हैं। अभिलेखों के अध्ययन को 'पुरालेखशास्त्र' कहा जाता है। कतिपय विद्वान प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोतों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक स्त्रोत अभिलेखों को मानते हैं। देश में सर्वाधिक अभिलेख मैसूर (कर्नाटक) में सरंक्षित है। प्रसिद्ध इतिहासकार फ्लीट का मानना है कि, ‘प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान अभिलेखों के धैर्यपूर्ण अध्ययन से प्राप्त होता हैं।'

अभिलेखों एवं शिलालेखों से संबंधित शासकों के जीवन चरित्र, साम्राज्य-विस्तार, धर्म, शासन प्रबंध, कला तथा राजनीतिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती हैं। अभिलेखों एवं शिलालेखों से भाषा के विकास की भी जानकारी प्राप्त होती है। मौर्यकाल और ई. पू. तृतीय शताब्दी के अधिकतर अभिलेखों में प्राकृत भाषा का प्रयोग मिलता है, वहीं दूसरी शताब्दी ई. से गुप्त-गुप्तोत्तर काल अधिकतर अभिलेखों में संस्कृत में भाषा का प्रयोग मिलता है। साथ ही, यह बात भी उल्लेखनीय हैं कि, अभिलेखों में नौवीं-दशवीं शताब्दी ई. से स्थानीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग किया जाने लगा था। इसके साथ ही, यह बात भी उल्लेखनीय हैं कि, गुप्तकाल से पहले के अधिकतर अभिलेखों में ब्राह्मणेत्तर धर्मों का तथा गुप्त एवं गुप्तेत्तर काल के अधिकतर अभिलेखों ब्राह्मण धर्म का उल्लेख मिलता है।

पुराविदों का मानना है कि, भारत में अब तक मिला सबसे प्राचीन अभिलेख पाँचवीं शताब्दी ई. पू. का पिप्रावा कलश (जिला बस्ती) लेख हैं। इसके साथ ही, अजमेर से प्राप्त बडली अभिलेख' अशोक के काल से पहले का माना जाता है।

अशोक के अभिलेख भारत में पढ़े जाने वाले सबसे प्राचीन अभिलेख है। अशोक के लेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरामाइक एवं ग्रीक, लिपि में मिलते हैं। साथ ही, अशोक के केवल चार अभिलेखों, मास्की (कर्नाटक), निठूर, उदेगोलम और गुज्जरी (जिला दतिया, म. प्र.) में अशोक का नाम मिलता है। अशोक के अभिलेखों में शिलालेख, स्तम्भलेख, गुहालेख सम्मिलित है। अशोक के चौदह बड़े शिलालेख, पंद्रह लघु शिलालेख, सात स्तम्भलेख, छः लघु स्तम्भलेख तथा चार गुहालेख प्राप्त है। अशोक के स्तम्भ लेखों से धर्म-प्रचार के लिए किए गए उसके प्रयासों एवं प्रजा की भलाई के लिए किये गये अशोक के कार्यों के बारे में जानकारी मिलती है। अशोक के शिलालेखों से उसके शासन तथा उसके नैतिक सिद्धान्तों की जानकारी मिलती है। इनसे अशोक के धर्म, उसके साम्राज्य-विस्तार, शासन-व्यवस्था आदि पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

देश में अशोक के अतिरिक्त अनेक शासकों अभिलेख प्राप्त है, जिनसे उनके व्यक्तिगत शासन एवं वंश की विविध जानकारी मिलती हैं, इनमें प्रमुख रूप से पुष्यमित्र शुंग का अयोध्या अभिलेख, कलिंगराज खारखेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेख, रूद्रदामा का गिरनार अभिलेख, समुद्रगुप्त की प्रयाग -प्रशस्ति', चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली स्तम्भ लेख, स्कंद गुप्त का भितरी एवं जूनागढ़ लेख, भोज-प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति, हर्षवर्धन के मधुवन, बाँसखेड़ा एवं सोनीपत अभिलेख, पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, बंगाल के पाल शासकों में धर्मपाल का खालिमपुर तथा देवपाल का मुंगेर अभिलेख तथा सेन शासक विजय सेन का देवपाड़ा अभिलेख, परमार शासकों में भोज परमार (1010 - 1055 ई.) की 'उदयपुर प्रशस्ति, राष्ट्रकूटों के बारे में गोविन्द तृतीय के राधनपुर, वनिदिन्दोरी तथा अमोघवर्ष प्रथम के संजन दानपत्रों से विशेष जानकारी मिलती हैं।

अभिलेखों के विशेष महत्व के बारे में यह कहा जा सकता है कि, सातवाहन इतिहास तो उनके अभिलेखों के आधार पर लिखा गया है। दक्षिण भारत के पल्लव, चालुक्य, राष्ट्रकूट, पांडय और चोल वंशों का इतिहास लिखने में इन शासकों के अभिलेखों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

कुछ विदेशी अभिलेखों से भी प्राचीन भारत के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। इनमें एशिया माइनर के बोगजकोई-पर्सिपोलिस तथा नक्शे रुस्तम आदि के अभिलेख प्रमुख हैं। इनसे प्राचीन भारत के विदेशी सम्बन्धों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

गुहालेख वे लेख है, जो गुफाओं में उत्कीर्ण है। अशोक के बराबर तथा दशरथ के नागार्जुनी गुहालेख एवं सातवाहनों के नासिक, नानाघाट और काले आदि गुहालेखों में इतिहास सामग्री का भंडार भरा पड़ा है। इसके अतिरिक्त अनेक अभिलेख मूर्तियों पर, मंदिरों एवं स्तूपों के प्राकारों पर, मिट्टी एवं धातु के पात्रों पर, ताँबे की चादरों पर (अधिकतर भूमि-अनुदान-पत्र), मुद्राओं एवं सीलों पर मिलते है, जिनमें महत्वपूर्ण इतिहास सामग्री उपलब्ध है।

अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्त्व-

(1) अभिलेखों से तत्कालीन भारत को राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थितियों के बारे में जानकारी मिलती है। अत: अभिलेख भारतीय इतिहास के विश्वसनीय स्रोत हैं।

(2) इन अभिलेखों से तत्कालीन राजाओं के चरित्र और व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है।

(3) इन अभिलेखों से तत्कालीन राजाओं के राज्यों की सीमाओं की जानकारी मिलती है।

(4) ये अभिलेख अशोक, समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त,खारवेल, पुलकेशिन द्वितीय, रुद्रदामन आदि के शासनकाल की अनेक घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं।

(5) अशोक तथा अन्य राजाओं के अभिलेखों से उनकी शासन-व्यवस्था के बारे में जानकारी मिलती है।

(6) कुछ अभिलेखों में राजाओं की वंशावली दी गई है।

(7) अभिलेखों से तिथिक्रम निश्चित करने में सहायता मिलती है।

(8) कुछ अभिलेखों से प्राचीन भारत के विदेशी सम्बन्धों के बारे में जानकारी मिलती है।

2. सिक्के अथवा मुद्राएँ (Coins)-

मुद्राएँ जारी करना किसी भी शासक की स्वतंत्र सत्ता का प्रतीक होता था। भारत में सबसे प्राचीन मुद्राएँ 'आहत' मुद्राएँ है, जो लगभग पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में प्रचलित थीं। मुद्राओं के अध्ययन को 'न्यूमिस्मेटिक्स' (मुद्राशास्त्र) कहा जाता है। प्राचीन भारत में मुद्राएँ ताँबें, चाँदी, सोने, सीसे, पोटीन, मिट्टी की मिलती है। पुरातात्विक सामग्री में मुद्राओं का ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि 206 ई० पू०-300 ई० तक का भारतीय इतिहास मुखतः मुद्राओं की सहायता से ही लिख गया है। इसके साथ ही, हिन्द-यूनानी शासकों का तो सम्पूर्ण इतिहास मुद्राओं के द्वारा ही लिखा गया है। शक- क्षत्रप, इण्डो-बैक्ट्रियव तथा इण्डो-पर्शियन के इतिहास जानने के एकमात्र साधन सिक्के ही हैं।

मुद्राओं के अध्ययन से अनेक प्रकार की सूचनाएँ मिलती है, जो प्राचीन भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्रोत है। मुद्राओं से किसी भी शासक या साम्राज्य की आर्थिक स्थिति का पता चलता है। सोने की मुद्रा का किसी भी साम्राज्य में प्रचलन मजबूत आर्थिक स्थिति का प्रतीक होता माना जा सकता और यह भी स्पष्ट है कि, आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर ही क्रमशः चाँदी व ताँबे अथवा मिश्रित धातु के सिक्कों का प्रचलन किया जाता होगा। किसी भी राज्य की समृद्धि व सम्पन्नता के स्तर को निर्धारित करने में सिक्के से बहुत बड़ी मदद मिलती है। जैसे कि प्रारम्भिक गुप्त शासकों के सोने के सिक्के उनके शासनकाल की सम्पन्नता बताते हैं, जबकि स्कन्दगुप्त के समय में सम्मिलित स्वर्ण के सिक्के बिगड़ी हुई आर्थिक स्थिति की जानकारी देते हैं। सिक्कों के माध्यम से समकालीन काल को भी जानकारी मिलती है। इसी प्रकार किसी शासक के बहुसंख्यक सिक्के उसके शासन की स्थिरता सूचित करते हैं तो किसी शासक के अल्पसंख्यक सिक्के उसके अल्पकालीन व संकटपूर्ण शासन की जानकारी देते हैं।

मुद्राओं पर अंकित तिथि से किसी भी शासक या साम्राज्य की कालक्रम की जानकारी मिलती है, जिससे कालक्रम निर्धारण में मद्द मिलती है। मुद्राएँ नई जानकारी को भी सामने लाती करती है, गुप्त-शासक रामगुप्त और काच के बारे में जानकारी का स्रोत मुद्राएँ ही है।

मुद्राओं से किसी भी शासक या साम्राज्य की विजय की जानकारी मिलती है। जोगलथम्बी मुद्राभाण्ड नहपान पर शातकर्णि की विजय और चंद्रगुप्त की चाँदी की मुद्राएँ शकों पर विजय की जानकारी देती हैं। मुद्राओं से साम्राज्य की सीमा की भी जानकारी मिलती है। किसी स्थान विशेष से यदि बड़ी संख्या में मुद्राएँ मिलें तो यह अनुमान लगाया जाता है कि यह इस साम्राज्य के राज्य का हिस्सा हो सकता है।

मुद्राओं से शासकों की व्यक्तिगत रूचियों की भी जानकारी मिलती है। जैसे कि समुद्र गुप्त की कुछ मुद्राओं पर 'अश्व मेध पराक्रम' लिखा है। इससे उसके द्वारा किये गये अश्व मेध यज्ञ की पुष्टि होती है। उसकी कुछ मुद्राओं पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। इससे संगीत के प्रति उसकी रुचि की जानकारी होती है। मुद्राओं के पृष्ठ भाग पर मुख्यतः देवता की आकृति अंकित मिलती है, शासक की धार्मिक रूचि और साम्राज्य की धार्मिक नीति स्पष्ट होती है। मुद्राओं से तत्कालीन कला की भी जानकारी मिलती है। मुद्राओं पर उत्कीर्ण चित्रों, संगीत वाद्यों तथा मुद्राओं की बनावट से तात्कालिक कला के बारे में जानकारी मिलती है।

मुद्राओं से तत्कालीन कला की भी जानकारी मिलती है। मुद्राओं किसी भी शासक या साम्राज्य के विदेशी संबंधों की जानकारी मिलती है। विदेशों में भारतीय मुद्राओं एवं विदेशी मुद्राओं का भारत में मिलना यह जानकारी देता है कि, दोनों देशों में संबंध थे। मुद्राओं किसी भी शासक या साम्राज्य के व्यापार एवं वाणिज्य की भी जानकारी मिलती है। दूसरे देशों में किसी शासक की मुद्राओं का मिलना, यह दर्शाता है कि, उस शासक या साम्राज्य का व्यापार यहाँ तक चलता था। इसके साथ ही, शासकों से अनुमति लेकर व्यापारियों और स्वर्णकारों की श्रेणियों (व्यापारिक संघों) ने भी अपनी मुद्राएँ चलायी थीं। इससे व्यापार एवं वाणिज्य के उन्नत होने का पता चलता हैं।

सिक्कों का ऐतिहासिक महत्त्व-

(1) साम्राज्य की सीमाओं का निर्धारण- सिक्कों से विभिन्न शासकों के साम्राज्य की सीमाएँ निर्धारित करने में सहायता मिलती है।

(2) धार्मिक स्थिति का ज्ञान- सिक्कों पर उत्कीर्ण विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों से तत्कालीन धर्म के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

(3) तिथि निर्धारण में सहायक- सिक्कों पर तिथि से हमें इतिहास की उलझी हुई तिथियों के समाधान में सहायता मिलती है।

(4) विदेशी शासकों के विषय में जानकारी- हिन्द-वैक्ट्रियन तथा हिन्द-यूनानी शासकों ने लगभग 300 वर्षों तक भारत के उत्तरी-पश्चिमी भागों पर शासन किया था। इस बात की जानकारी हमें सिक्कों से ही प्राप्त होती है।

(5) शासकों की व्यक्तिगत रुचियों की जानकारी- सिक्कों पर अंकित चित्रों से राजाओं की व्यक्तिगत रुचियों पर भी प्रकाश पड़ता है। समुद्रगुप्त के कुछ सिक्कों पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है इससे ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त संगीत-प्रेमी था।

(6) शासकों के धार्मिक विश्वासों की जानकारी- सिक्के राजाओं के धार्मिक विश्वासों पर भी प्रकाश डालते हैं। समुद्रगुस के सिक्कों से पता चलता है कि वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था।

(7) आर्थिक स्थिति पर प्रकाश- सिक्कों से तत्कालीन आर्थिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। सोने, चाँदी तथा ताँबे के सिक्के आर्थिक स्थिति की सुदृढ़ता अथवा दुर्बलता के परिचायक हैं। स्कन्दगुप्त के समय में मिश्रित स्वर्ण के सिक्के प्रचलित थे, जिससे ज्ञात होता है कि उसके शासन काल में आर्थिक स्थिति बिगड़ रही थी।

(8) कला पर प्रकाश- सिक्कों पर उत्कीर्ण चित्रों वसंगीत वाद्यों से तत्कालीन कलाएवं संगीत पर प्रकाश पड़ता है।

(9) नवीन तथ्यों की जानकारी- सिक्कों से नवीन तथ्यों की जानकारी भी होती है। गुप्त-सम्राट रामगुप्त के विषय में जानने का एक प्रमुख स्रोत सिक्के ही हैं।

(10) विदेशों में व्यापारिक सम्बन्ध- भारत में प्राप्त होने वाले रोमन सिक्कों से ज्ञात होता है कि भारत और रोमन साम्राज्य के बीच व्यापारिक सम्बन्ध थे।

3. स्मारक (Memorial )-

स्मारक से तात्पर्य, प्राचीन भवन, मृतक स्मृति भवन और क्षत्रिय, धार्मिक भवन आदि आते है। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, तक्षशिला, नालंदा, रोपड़, हस्तिनापुर, बनावली आदि के स्मारकों से तत्कालीन वास्तुकला नगर नियोजन, सामाजिक स्थिति, धार्मिक स्थिति एवं साँस्कृतिक स्थिति का ज्ञान होता है। स्तूप, चैत्य, विहार, गुफाओं एवं मंदिरों से तत्कालीन धार्मिक एवं साँस्कृतिक स्थिति का ज्ञान होता है। स्मारकों से कला के विकास, काल निर्धारण, कला में प्रयुक्त सामग्री, स्तूप, चैत्य, विहार एवं मंदिरों में चित्रित और अंकित मूर्तियों की वेशभूषा, अलंकरणों एवं अंकनों से तत्कालीन सामाजिक स्थिति, धार्मिक स्थिति एवं साँस्कृतिक स्थिति का ज्ञान तो होता ही है, साथ ही वैचारिक धारणा का भी पता चलता है।

मन्दिर, स्तूप, स्मारक आदि तत्कालीन धर्म, सामाजिक जीवन, कला आदि पर प्रकाश डालते हैं। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई से सिन्धुघाटी की सभ्यता के विषय में जानकारी मिलती है। पाटलिपुत्र की खुदाई से मौर्यों के बारे में काफी जानकारी प्राप्त होती है। झाँसी के देवगढ़ के मन्दिर तथा भीतरी गाँव के मन्दिर गुप्तकालीन स्थापत्य कला पर प्रकाश डालते हैं। अजन्ता की गुफाओं की चित्रकारी से ज्ञात होता है कि गुप्त-काल में चित्रकला का स्तर बहुत उन्नत था। मूर्तियों और चित्रों से भिन्न-भिन्न कालों की वेश-भूषा, धार्मिक तथा सामाजिक मान्यताओं पर प्रकाश पड़ता है।

विदेशी स्मारकों से भी भारतीय इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। कम्बोडिया का अंगकोरबाट मंदिर, जावा का बोरोबुदुर मंदिर तथा मलाया व वाली द्वीप से प्राप्त अनेक प्रतिमा, बोर्नियों में मकरान से प्राप्त विष्णु की मूर्ति से ज्ञात होता है कि, वहाँ पर भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रसार था तथा भारतीय धर्म और संस्कृति के बारे में ये महत्वपूर्ण सूचनाएँ देते है।

4. मुहरें (Mohar)-

मुहरें भी प्राचीन भारतीय इतिहास के मुख्य स्त्रोतों में आती हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता से लगभग 2000 से भी अधिक मुहरें मिली हैं, जिनसे तत्कालीन जलवायु, पशु जगत्, भाषा, धर्म आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है। सिन्धु क्षेत्र से प्राप्त अधिकांश मुहरों पर किसी न किसी पशु की आकृति है। एक मुहर पर पशुपति शिव की मूर्ति उत्कीर्ण है। इससे ज्ञात होता है कि सैन्धव लोग शिव की पूजा करते थे। बसाढ़ (बैशाली) से 274 मुहरों से चौथी शताब्दी ई. में एक व्यापारिक श्रेणी की जानकारी मिलती है। मुहरें तत्कालीन आर्थिक एवं प्रशासनिक कार्य व्यवहार की जानकारी देती है।

5. कलाकृतियाँ (Artefacts)-

प्राचीन काल की अनेक मूर्तियाँ भारत के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुई हैं जिनसे तत्कालीन कला, धर्म, संस्कृति, वेशभूषा आभूषणों आदि के बारे में जानकारी मिलती है। अजन्ता एवं बाघ की गुफाओं से निर्मित भित्ति-चित्रों से समकालीन कला एवं संस्कृति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।

भारतीय इतिहास की सर्वप्रथम मूर्ति बेलन घाटी से बनी हड्डी की मातृदेवी की मूर्ति मिली है, जो उच्च पुरापाषाण कालीन (लगभग 35000 ई. पू.) है। सिन्धु घाटी से पत्थर, टेराकोट एवं धातु की मूतियाँ प्राप्त हुई हैं। कुषाण कालीन मूतियों से गांधार कला पर विशेष प्रकाश पड़ता है। गुप्तकालीन मूतियाँ अपने काल की कलात्मकता का बखान करती है। मौर्यकालीन लोक कला की यक्षयक्षणियाँ विशेष उल्लेखनीय है। चन्देल शासकों के काल की खजुराहों की मूर्तियाँ तत्कालीन सामाजिक विचारधारा को प्रकट करती हैं। ये मूर्तियाँ कला एवं संस्कृति के विकास की जानकारी देने के साथ ही, प्राचीन भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण स्रोत भी है।

(6) मिट्टी के बर्तन, उपकरण, आभूषण-

भारत के विभिन्न क्षेत्रों से खुदाई में मिट्टी के बर्तन, पाषाण एवं धातु उपकरण, आभूषण आदि प्राप्त हुए हैं। इनके अध्ययन से उस युग की कला पर प्रकाश पड़ता है।

साहित्यिक स्रोत (Literary Source)-

साहित्यिक स्रोत, वे स्रोत है, जो साहित्य अर्थात् पुस्तकों के माध्यम से प्राप्त होती है। यह साहित्य धार्मिक, लौकिक एवं विदेशी लेखकों की लेखनी से प्राप्त है। प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोतों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- (1) धार्मिक साहित्य तथा (2) ऐतिहासिक एवं समसामयिक साहित्य।

1. धार्मिक साहित्य-

प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य से हमें तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है। धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण साहित्य, बौद्ध साहित्य तथा जैन साहित्य को सम्मिलित किया जा सकता है।

(अ) धार्मिक ग्रन्थ (ब्राह्मण साहित्य)-

ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक साहित्य प्रमुख है। वैदिक साहित्य भारतीय विद्वानों की अद्भुत सृजनशीलता का परिचायक है। वैदिक साहित्य का सृजन लगभग 1500 - 200 ई० पू० के मध्य किया गया। वैदिक साहित्य के अंतर्गत वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद, आरण्यक और सूत्र साहित्य आता हैं।

वेद- भारतीय साहित्य की प्राचीनतम कृति वेद हैं। वेद संख्या में चार हैं - ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद। ऋग्वेद में हमें भारत के आर्यों के प्रसार, उनके आन्तरिक एवं बाह्य संघर्ष के बारे में जानकारी मिलती है। वेदों से हमें प्राचीन आर्यों की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है।

ऋग्वेद- सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद है। ऋग्वेद की रचना 1500 - 1000 ई. पू. के मध्य हुई। ऋग्वेद में 10 मण्डल, 1028 सूक्त तथा 10,580 ऋचाएँ हैं। ऋग्वेद के 2-9 तक के मंडल प्राचीन तथा 1 और 10 वाँ मण्डल नवीन हैं। ऋग्वेद से प्राचीन आर्यों के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक जीवन की विस्तृत जानकारी मिलती है।

सामवेद- सामवेद ऐसा वेद है, जिसके मंत्र यज्ञों में देवताओं की स्तुति करते हुए गाये जाते थे। यह ग्रंथ तत्कालीन भारत की गायन विद्या का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता हैं। सामवेद में 1549 ऋचाएँ हैं। सामवेद 75 ऋचाएँ ही मौलिक है, शेष ऋग्वेद से ली गई हैं।

यजुर्वेद- यजुः का अर्थ है, यज्ञ। इस वेद में अनेक प्रकार की यज्ञ-विधियों का वर्णन किया गया हैं। इसीलिए इसे 'यजुर्वेद' कहा गया। यजुर्वेद में यज्ञों को करने की विधियाँ बतायी गयी है।

अथर्ववेद- इस वेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी, इसीलिए इसे 'अथर्ववेद' कहते हैं। इसकी रचना लगभग 800 ई. पू. में हुई। 'अथर्ववेदमें 20 मण्डल, 731 सूक्त तथा 5849 ऋचाएँ हैं। 'अथर्ववेद' में 1200 ऋचाएँ ऋग्वेद से ली गई हैं। 'अथर्ववेद' से उत्तर वैदिक कालीन भारत की पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन की विस्तृत जानकारी मिलती है।

ब्राह्मण ग्रन्थ- ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हमारे ऋषियों ने वैदिक मंत्रों के अर्थ बताने के लिए की गयी थी, ताकि यज्ञों को संपन्न करने में कठिनाई नहीं आये। ब्राह्मण ग्रंथ यज्ञों के मंत्रों का अर्थ बताते हुए उनके अनुष्ठान की विधि बताते हैं। प्रत्येक ब्राह्मण ग्रंथ एक संहिता (वेद) से संबंधित है। जैसे, ऋग्वेद से ऐतरेय और कौषीतकी ब्राह्मण, सामवेद से ताण्डस, जैमनीय ब्राह्मण, यजुर्वेद से शतपथ ब्राह्मण, अथर्ववेद से गोपथ ब्राह्मण संबंधित हैं। इन ब्राह्मण ग्रंथों से तत्कालीन लोगों की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है।

आरण्यक- आरण्यक शब्द की उत्पत्ति अरण्य' से हुई है, जिसका अर्थ वनहोता है। आरण्यक ऐसे ग्रंथों को कहा जाता है, जिनका अध्ययन वन में किया जा सके अर्थात ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्त में जो अध्याय हैं, उन्हें आरण्यक कहते हैं। आरण्यक ग्रंथों में हमारे ऋषियों ने महान् ज्ञान प्रधान विचारधारा का सृजन किया है। इनमें यज्ञों के रहस्यों तथा दार्शनिक तत्वों का विवेचन मिलता है। आरण्यक ग्रंथ सात बताये गये है- ऐतरेय, शांखायन् तैत्तरीय, मैत्रायणी, याध्यन्दिन एवं तल्वकार आरण्यक।

उपनिषद्- 'उप' का अर्थ समीप' तथा 'निषद्' का अर्थ बैठना होता हैं अर्थात् वह रहस्य विद्या जिसका ज्ञान गुरू के समीप बैठकर किया जाता था, उसे 'उपनिषद्' कहा जाता था। उपनिषद् भारतीय दर्शन के मूल आधार हैं। इनमें जीव, आत्मा ब्रह्म, मोक्ष प्राप्ति, कर्मवाद, पुनर्जन्म आदि के सिद्धान्तों का विवेचन मिलता है। इनसे आर्यों के सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। उपनिषदों में भारत की महान् दार्शनिक ज्ञान की संपदा निहित है। अधिकांश विद्वान उपनिषदों की संख्या 108 बताते हैं। इनमें बारह उपनिषद प्रमुख है, ईशावस्य, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक, ऐतरेय, तैत्तरीय, श्वेताश्वर, छान्दोग्य, वृहदारण्यक, कौशीतकी। उपनिषदों का रचना काल 800 - 500 ई. पू. माना गया है।

वेदांग- वेदांग साहित्य से तत्कालीन समाज और धर्म के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है। वेदांग की रचना वेदों के अर्थ और विषय को समझने के लिए की गई थी, इसलिए इन्हें 'वेदांग' कहते हैं। छ: वेदांग शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छंद, ज्योतिष है।

सूत्र साहित्य- सूत्र साहित्य के तीन भाग हैं (1) कल्पसूत्र (2) गृहसूत्र तथा (3) धर्म सूत्र। कल्पसूत्र में वैदिक यज्ञों सम्बन्धी विवरण दिया हुआ है। गृह सूत्र में गृहस्थ सम्बन्धी संस्कारों का वर्णन है। धर्म सूत्र में सामाजिक, राजनीतिक तथा वैधानिक अवस्थाओं का वर्णन किया गया है।

स्मृतियाँ- स्मृतियाँ वैदिक आर्यों के कानून संबंधी ग्रंथ है। वैदिक आर्यों के दैनिक जीवन के विषय में नियम व उपनियम आदि का वर्णन है। मनु एवं याज्ञवल्क्य स्मृति प्रमुख है। नारद, पारासर आदि स्मृतियाँ भी वैदिक आर्यों के सामजिक एवं धार्मिक पक्ष को प्रकट कर रही है। स्मृतियों से तत्कालीन सामाजिक संगठन, सिद्धान्तों, नियमों, प्रथाओं एवं रीति-रिवाजों आदि के बारे में जानकारी मिलती है। इनमें वर्णाश्रम धर्म तथा राजा के कर्तव्य आदि के विषय में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

महाकाव्य- महाकाव्यों के अंर्तगत रामायण और महाभारत आते हैं। रामायण के रचयिता बाल्मीकी हैं इसमें सातकाण्ड है। बाल्मीकि रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे जो बढ़कर 12000 और अन्ततः 24000 श्लोक हो गए। वास्तव में रामायण को आर्यो की अनार्यों पर विजय का प्रतीक मान सकते हैं। इस महाकाव्य में आर्य संस्कृति के सूदूर दक्षिण और श्रीलंका तक प्रसार का वर्णन मिलता है तथा तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। महर्षि व्यास कृत महाभारत मूलरूप से भरत वंश के दो वंशजों कौरव और पाण्डवों के युद्ध का वर्णन है। महाभारत में एक लाख श्लोक है। इसीलिए इसे 'शतसाहस्री संहिता' कहते है।

पुराण- पुराण का शाब्दिक अर्थ प्राचीन है। पुराण प्राचीन धर्म, संस्कृति एवं राजवंशो के बारे में विस्तृत सूचना देते है। पुराणों की संख्या 18 है, जिनमें ब्रह्म, मत्स्य, विष्णु, भागवत, मार्कण्डेय, गरूड़, शिव, अग्नि और ब्रह्माण्ड पुराण ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। पुराणों का वर्तमान रूप सम्भवतः तीसरी और चौथी शताब्दी ई. में आया। पुराणों की संख्या 18 हैं जिनमें मत्स्य, भागवत, विष्णु, वायु, गरुड़ एवं अग्नि पुराण प्रमुख हैं। पुराणों में प्राचीन भारत के इतिहास, धर्म, आख्यान, विज्ञान, राजनीतिक स्थिति आदि का विस्तृत विवरण मिलता है। इनसे हमें प्राचीन काल से लेकर गुप्तकाल तक के इतिहास से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं के विषय में जानकारी मिलती है।

(ब) बौद्ध धर्म-ग्रन्थ-

बौद्ध साहित्य प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत है। बौद्ध साहित्य से धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं साँस्कृतिक पहलुओं पर व्यापक जानकारी प्राप्त होती है। बौद्ध साहित्य की प्रमुख रचनाएँ है-

त्रिपिटक- त्रिपिटक तीन हैं-(1) विनयपिटक, (2) सुत्तपिटक तथा (3) अभिधम्म पिटक्क। इन ग्रन्थों से हमें तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। विनय पिटक में बौद्ध भिक्षुओं-भिक्षुणियों के आचरण संबंधित नियमों का वर्णन मिलता हैं। सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेशों का सार संग्रहित हैं। अभिधम्मपिटक में महात्मा बुद्ध के उपदेशों की दार्षनिक रूप में व्याख्या हैं। तीनों पिटक पाली' भाषा में लिखे गये है।

जातक कथा- जातक कथाओं में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों का विवरण है। संख्या में 550 जातक कथाएँ उपलब्ध है। ये जातक 500-200 ई. पू. की धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर बहुमूल्य प्रकाश डालती हैं।

मिलिन्दपन्हो- इस ग्रन्थ में यूनानी शासक मिनाण्डर तथा बौद्धभिक्षु नागसेन के बीच हुए वार्तालाप का विवरण दिया हुआ है। इससे तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है।

महावंश एवं दीपवंश- महावंश एवं दीपवंश श्रीलंका की रचनाएँ है। ये पाली भाषा में लिखे हुए ग्रन्थ हैं। किन्तु इनसे मौर्यकालीन राजनीतिक एवं साँस्कृतिक पहलुओं पर व्यापक जानकारी प्रदान करती है। इनके साथ ही, महावंश एवं दीपवंश श्रीलंका के राजवंशों पर व्यापक जानकारी प्रदान करती है। ये चौथी या पाँचवी शताब्दी ई. की रचना है।

ललितविस्तर- इसमें महायान समुदाय की विचारधारा के अनुसार बुद्ध के जीवन की कथा का वर्णन है। गान्धार कला एवं जावा के बोरोबुदुर के मंदिर (इण्डोनेशिया) की अनेक स्थापत्य कृतियाँ ललितविस्तर पर आधारित है।

दिव्यावदान- दिव्यावदान मौर्य कालीन राजनीतिक पहलुओं पर व्यापक जानकारी प्रदान करती है। इसने अशोक के उत्तराधिकारियों का उल्लेख करते हुए, पुष्य मित्र शुंग तक का वर्णन किया है।

महावस्तु- इस ग्रन्थ में महात्मा बुद्ध का जीवन-वृत्त दिया हुआ है।

बुद्धचरित एवं सौन्दरानन्द– अश्वघोष की रचनाएँ 'बुद्धचरित एवं सौन्दरानन्द', तत्कालीन धर्म और राजनीति पर व्यापक जानकारी प्रदान करती है। बुद्ध चरित्र में महात्मा बुद्ध की जीवनी तथा बौद्ध सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है।

(स) जैन ग्रन्थ-

जैन साहित्य प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत है। जैन साहित्य से धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं साँस्कृतिक पहलुओं पर व्यापक जानकारी प्राप्त होती है। जैन साहित्य में आगम साहित्य का स्थान सर्वोपरि है, इसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छंदसूत्र, नन्दिसूत्र, अनुयोगद्वार और मूल सूत्र सम्मिलित हैं। वस्तुतः इसकी रचना 400 ई. पू. से 600 ई. के मध्य हुई। जिनको वर्तमान रूप 512 -13 ई. की बल्लभी में आयोजित संगीति में दिया गया। आगम साहित्य जैन धर्म से संबंधित सूचनाओं के महत्वपूर्ण स्रोत है। जैन-ग्रन्थों में भद्रबाहु चरित, परिशिष्ट पर्वन, पुण्याश्रव कथाकोप, लोक-विभाग, आवश्यक सूत्र आदि प्रमुख हैं। जैन ग्रन्थ तत्कालीन भारत के राजतन्त्रों एवं गणराज्यों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं।

आचारांग सूत्र- आचारांग सूत्र में जैन भिक्षुओं के आचरण और नियमों का वर्णन है।

भगवती सूत्र- महावीर स्वामी के जीवन के विषय में तथा छठी शताब्दी ई. पू. के उत्तर भारत के महाजनपदों का महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विवरण देता है।

औपपातिक सूत्र और आवश्यक सूत्र औपपातिक सूत्र और आवश्यक सूत्र में अजातशत्रु के धार्मिक विचारों का विवरण मिलता हैं।

भद्रबाहु चरित्र- भद्रबाहु चरित्र में चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल की घटनाओं का वर्णन मिलता है। 'भद्रबाहु चरित्र' नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध जैन विद्वान् भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की घटनाओं पर काफी प्रकाश पड़ता है।

परिशिष्ट पर्वन- "परिशिष्ट पर्वन" का ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्त्व है। इसके रचयिता हेमचन्द्र थे। इस ग्रन्थ से महावीर स्वामी के समय से लेकर मौर्य-काल तक के इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है।

टीकाएँ- जैन धर्म ग्रंथों के टीकाकारों की टीकाएँ धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इनमें हरिभद्र सूरि (705 -77 ई०), शीलांक (832 ई. के लगभग), नेमिचन्द्र सूरि (11वीं शताब्दी), अभयदेव सूरि (11वीं शताब्दी), और मलयगिरि (13 वीं शताब्दी) की टीकाएँ अधिक महत्वपूर्ण है। ये टीकाएँ धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक तथा राजनीति पर प्रकाश डालती हैं।

2. ऐतिहासिक एवं समसामयिक ग्रन्थ-

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में लौकिक, समसामयिक तथा ऐतिहासिक साहित्यिक ग्रंथ प्रचूर मात्रा में स्रोत सामग्री उपलब्ध कराते है। ये ग्रंथ तत्कालीन जन-जीवन, भौतिक संस्कृति, प्रशासन एवं राजनीति पर व्यापक जानकारी देते है।

अर्थशास्त्र- चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा लिखित अर्थशास्त्र मौर्यकालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं राजव्यवस्था का यथोचित ज्ञान करता हैं।

मुद्राराक्षस- विशाखदत्त द्वारा लिखित इस नाटक से चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा नंद वंश के विनाश के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

नीतिसार- कामन्दक द्वारा लिखित इस ग्रन्थ से गुप्त कालीन राज्यतंत्र पर प्रकाश पड़ता हैं।

मालविकाग्निमित्र- इसकी रचना कालिदास ने की थी। इसमें पुष्यमित्र शुंग तथा यूनानियों के बीच हुए युद्ध का वर्णन है।

हर्ष चरित- इसकी रचना बाणभट्ट ने की थी। इसमें हर्षवर्धन के जीवन-चरित्र तथा विजयों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

अष्टाध्यायी- पाणिनी की अष्टाध्यायी से मौर्यकाल से पहले के भारत की राजनीतिक, सामाजिक धार्मिक दशा की जानकारी मिलती है।

महाभाष्य- इस ग्रन्थ की रचना पतंजलि ने की थी। इस महाभाष्य से शुंग - वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है, इससे यूनानियों के द्वारा साकेत तथा मध्यामिका के आक्रमण पर प्रकाश पड़ता है।

गार्गी संहिता- इसमें भारत पर यूनानियों के आक्रमण का उल्लेख है।

राजतरंगिणी- इस ग्रन्थ का रचयिता कल्हण था। इस ग्रन्थ में प्राचीनकाल से लेकर 12वीं शताब्दी तक का कश्मीर का इतिहास दिया हुआ है। इस ग्रन्थ से कश्मीर के अतिरिक्त भारत के अन्य भागों की घटनाओं के बारे में भी जानकारी मिलती है।

वृहत्कथामंजरी- क्षेमेन्द्र द्वारा लिखित वृहत्कथामंजरी से मौर्यकाल की घटनाओं के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

गौड़वाहो- इसका रचयिता वाक्पतिराज था। इस ग्रन्थ में कन्नौज-नरेश यशोवर्मन की विजयों का वर्णन है।

नवसाहसांक चरित- इस ग्रन्थ का रचयिता परमगुप्त परिमल (परिमलगुप्त) था। इस ग्रन्थ से परमार वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

विक्रमांकदेव चरित- इस ग्रन्थ का रचयिता विल्हण था। इससे कल्याणी के चालुका वंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है।

कुमारपाल चरित्र- इस ग्रन्थ का रचयिता जयसिंह था। इसमें अन्हिलवाड़ा के शासक कुमारपाल की उपलब्धियों का वर्णन है।

पृथ्वीराज विजय- जयानक के इस ग्रंथ से पृथ्वीराज चौहान की उपलब्धियों की जानकारी मिलती हैं।

पृथ्वीराज रासो- इस ग्रन्थ की रचना चन्दवरदाई ने की थी। इस ग्रन्थ से पृथ्वीराज चौहान की उपलब्धियों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

प्रियदर्शिका, नागानन्द तथा रत्नावली- इन ग्रन्थों का रचयिता हर्षवर्धन था । ग्रन्थों से हर्षवर्धन के शासनकाल के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

विदेशी लेखकों एवं यात्रियों के विवरण (Description of foreign Writers and Travellers)-

भारतीय इतिहास के अनुशीलन से विदित है कि प्राचीन काल से ही विभिन्न प्रयोजनों से प्रेरित होकर भारत भूमि के भ्रमण हेतु अनेक विदेशी यात्री आये, जिनमें से कई विदेशी आक्रान्ताओं के साथ, कई विदेशी राजदूतों के रुप में, कई व्यापारी के रुप में, कई पर्यटक के रुप में तथा कई अपनी ज्ञान पिपासा को मिटाने भारत यात्रा पर आये और उन्होंने अपने अनुभव एवं संस्मरणों को लिपिबद्ध किया, जो कि भारतीय इतिहास पर व्यापक प्रकाश डालते है।

(अ) यूनानी लेख-

यूनानी लेखकों ने प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक साहित्यिक स्रोत सामग्री उपलब्ध करायी है। यूनानी लेखकों के लेखन से भारतीय इतिहास की तिथि निर्धारण में बहुत सहयोग मिला है।

हेरोडोटस (पाँचवी शताब्दी ई. पू.)- इतिहास का पिता यूनानी विद्वान हेरोडोटस ने 476 ई. पू. के लगभग अपने ग्रंथ 'हिस्टोरिका' में भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र तथा पारसिक साम्राज्य के भारत में अधिकार, व्यापारिक संबंधों आदि के बारे में सूचना दी है।

निआर्कस (327-26 ई. पू.)- यह सिकन्दर के जहाजी बेड़े का कप्तान था। स्ट्रैबो और एरियन की पुस्तकों में निआर्कस के लेखों की जानकारी संग्रहित है। इसके ग्रन्थों से हमें सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

एरिस्टीब्यूलस तथा ओनोसिक्रिटस (327-26 ई. पू.)- सिकंदर के साथ भारत आए इस यूनानी विद्वान ने 'हिस्ट्री ऑफ द वार' में भारत का विवरण दिया। एरियन और प्लूटार्क की पुस्तकों में एरिस्टीब्यूलस के लेखों की जानकारी संग्रहित है। इनके ग्रन्थों से भी सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है।

स्काईलैक्स (छठी शताब्दी ई. पू.)- स्काईलैक्स यह पर्शिया (ईरान) नरेश दारा प्रथम (डेरियस प्रथम) का यूनानी सेनापति था। भारत के बारे में स्काईलैक्स की जानकारी सिन्धु - घाटी तक सीमित है।

मेगस्थनीज (305-297 ई. पू.)- मेगस्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस के राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था। जो चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में 9 वर्ष रहा। उसने 'इण्डिका' नामक ग्रन्थ की रचना की जो दुर्भाग्यवश उपलब्ध नहीं है। परन्तु अन्य ग्रन्थों में इसके उद्धरण मिलते हैं। 'इण्डिका' से चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन-व्यवस्था तथा तत्कालीन सामाजिक अवस्था के बारे में काफी जानकारी प्राप्त होती है।

डीमेकस या डाइमेकस (298-273 ई. पू.)- सीरिया नरेश अंतिओकस - प्रथम का राजदूत, बिन्दुसार के दरबार में कई बार आया। स्ट्रैबो के लेखों में डीमेकस या डाइमेकस द्वारा दी गयी सूचना मिलती है।

डायोनिसियस (284-262 ई. पू.)- मिस्र नरेश टॉलमी फिलाडेल्फस का राजदूत, मौर्य सम्राट बिन्दुसार के दरबार में आया था। स्ट्रैबो आदि परिवर्ती यूनानी लेखकों ने तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक दशाओं पर इसके उद्धरणों का प्रयोग किया हैं।

स्ट्रैबो (ईसा की प्रथम शताब्दी)- यूनानी यात्री स्ट्रैबो ने अनेक देशों की यात्रा की जिसमें सम्भवतः भारत भी सम्मिलित था ने अपने ग्रंथ 'ज्योग्रॉफी' में मौर्यकालीन इतिहास पर प्रकाश डाला है।

प्लिनी (77-78 ई.)- ईसा की प्रथम शताब्दी में भारत का भ्रमण करने वाले इस यूनानी लेखकने अपनी पुस्तक 'नेचुरल हिस्ट्री' (प्राकृतिक इतिहास) में भारत और रोम के समृद्ध व्यापार का वर्णन किया है। वह लिखता है कि भारत के साथ व्यापार में रोम का स्वर्ण भण्डार कम होता जा रहा है।''

पेरिप्लस का अज्ञात लेखक (लगभग 80-115 ई.)- 'पेरीप्लस ऑफ द इरिथ्रयन सीका अज्ञात यूनानी लेखक, जो प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी के मध्य हिन्द महासागर की यात्रा पर निकला था। उसके ग्रंथ में भारत के बन्दरगाहों, भारत, रोम, चीन आदि के व्यापार का वर्णन मिलता है।

टॉलमी (दूसरी शताब्दी ई.)- प्रसिद्ध रोमन भूगोलवेत्ता टॉलमी यद्यपि भारत नहीं आया था तथापि उसकी 'ज्योग्रॉफी' में भारत विषयक महत्वपूर्ण भौगोलिक विवरण मिलता है।

एरियन (दूसरी शताब्दी ई.)- यूनानी लेखक एरियन ने 'इण्डिकाऔर सिकन्दर का आक्रमणमें सिकंदर के समकालीन लेखकों और मेंगस्थनीज के विवरणों पर भारत का इतिहास लिखा।

कर्टियस- कर्टियस के ग्रन्थ से सिकन्दर के आक्रमण के विषय में काफी जानकारी प्राप्त होती है।

केसिअस- केसिअस के ग्रन्थों से भी भारत के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

एरियन- एरियन ने 'सिकन्दर का आक्रमण' नामक ग्रन्थ की रचना की। यह भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

(ब) चीनी लेख-

चीनी लेखकों ने प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक साहित्यिक स्रोत सामग्री उपलब्ध करायी है। चीनी लेखकों में बहुत सारे लेखकों ने धार्मिक ज्ञान पिपासा को मिटाने भारत यात्रा की तथा भारत भूमि के भ्रमण किया। चीनी लेखकों ने धार्मिक ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद करके धार्मिक भारतीय ज्ञान को चिरस्थायी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। चीनी लेखकों का विवरण भारतीय इतिहास लेखन में बहुत महत्व रखता है।

सुमाचीन- सूमाचीन चीन का प्रथम इतिहासकार था, ‘चीनी इतिहास का जन्मदातासुमाचीन ने ई. पू. प्रथम शताब्दी में लिखें इतिहास ग्रंथ में भारतवर्ष के संबंध में उल्लेख किया हैं।

फाह्यान (399-414 ई.)- फाहियान एक चीनी यात्री था जो 399 ई. में चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में भारत आया और 15 16 वर्षों तक भारत में रहा उसके विवरण से चन्द्रगुप्त द्वितीय की शासन व्यवस्था और तत्कालीन सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

ह्वेनसांग (629-643 ई.)- ह्वेसांग एक चीनी यात्री था। जो सम्राट हर्षवर्द्धन के काल में 629 ई. में आया और 13 वर्षो तक भारत भ्रमण किया। उसके विवरण से हर्षवर्धन के शासन काल की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। ह्वेनसांग ने अपने ग्रन्थ 'सी.यू. की' में हर्ष की विजयों, शासन व्यवस्था, उसकी दान-वृत्ति आदि का विस्तार से वर्णन किया है।

इत्सिंग (675-695 ई.)- यह चीनी बौद्ध यात्री कई वर्षों तक नालन्दा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय में अध्ययनरत् रहा। इसने भारत और मलाया द्वीपों में प्रचलित बौद्ध धर्म का विवरण अपने ग्रंथ में किया है।

ह्यली- ह्यली ने 'ह्वेनसांग की जीवनी' नामक ग्रन्थ की रचना की। इससे भारतवर्ष के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

(स) तिब्बती लेख-

तिब्बती विद्वान् तारानाथ ने कंग्यूर तथा तंग्यूर' नामक दो ग्रन्थों की रचना की। इनसे भी प्राचीन भारतीय इतिहास की कुछ घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है।

(द) मुसलमान (अरबी) यात्रियों के लेख-

अरबी लेखकों ने प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोत के रूप में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक साहित्यिक स्त्रोत सामग्री उपलब्ध करायी है। अरबी लेखकों में बहुत सारे लेखक आक्रणकारियों के भारत यात्रा पर आये और बहुत से बाद में भारत में ही वश गये। अरबी लेखकों का विवरण प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन में बहुत महत्व रखता है।

सुलेमान (नवीं शताब्दी ई.)- इस अरबी यात्री ने फारस की खाड़ी से होकर भारत व चीन की यात्राएँ की थी। इसने अपने यात्रा वृत्तान्त में राष्ट्रकूट, पालवंश एवं प्रतिहार जैसे राजपूत राज्यों का वर्णन किया है।

इब्ने खुर्दादब (नवीं शताब्दी ई.)- इस अरबी यात्री ने अपने ग्रन्थ 'किताबुल-मसालक-वल-मामलिकमें तत्कालीन भारत की राजनीतिक एवं सामाजिक दशा का विस्तार से वर्णन किया है।

अलबिला दुरी (नवीं शताब्दी ई.)- इस अरबी यात्री ने अपने ग्रन्थ 'फुतूहल-बुल्दानमें भारत पर अरब आक्रमण एवं उसके प्रभाव का वर्णन किया है।

अलबरुनी (1000-1030 ई.)- यह महमूद गजनवी के साथ भारत आया था। तहकीके- हिन्द' में तत्कालीन भारत के विषय में व्यापक जानकारी दी है। अलबरुनी का सभी अरबी लेखकों में सबसे महत्वपूर्ण एवं विश्वसनीय है।

अल इदरीसी (ग्यारहवीं शताब्दी ई.)- यह अरब यात्री अपने भारत भ्रमण वृतान्त नुज्हजुल-मुश्ताकमें राष्ट्रकूट, चोल, चालुक्य राज्यों तथा भारत के चीन एवं फारस के साथ व्यापारिक संबंधों पर महत्वपूर्ण जानकारी देता है।

इस प्रकार प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोत प्रचूर मात्रा में पुरातात्विक एवं साहित्यिक स्रोतों के रूप में उपलब्ध है। जो प्राचीन भारतीय इतिहास के लेखन में उपयोगी सिद्ध हुए है।

आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

Back To - प्राचीन भारत का इतिहास

Post a Comment

0 Comments