बिस्मार्क 19वीं शताब्दी का महान कूटनीतिज्ञ था। उसने जर्मनी के एकीकरण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उसने 'लौह और रक्त' की नीति का अनुसरण करते हुए डेनमार्क, आस्ट्रिया और फ्रांस को पराजित किया और जर्मनी के एकीकरण का महान् कार्य सम्पादित किया।
बिस्मार्क का प्रारम्भिक जीवन
बिस्मार्क का जन्म 1 अप्रैल, 1815 को ब्रेन्डनवर्ग के जुन्कर परिवार में हुआ था। उसका पिता ब्रेन्डनवर्ग का एक सामन्त था तथा माता एक उच्चाधिकारी की पुत्री थी। उसकी शिक्षा मार्टिजन तथा बर्लिन विश्वविद्यालय में हुई थी, परन्तु उसने कोई विशेष प्रतिभा का परिचय नहीं दिया।
जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क का योगदान |
1847 में उसने प्रशा की राजनीति में प्रवेश
किया तथा प्रशा के संसद का सदस्य बना। 1851 में प्रशा के सम्राट ने उसे फ्रैंकफर्ट
की सभा में प्रशा का प्रतिनिधि नियुक्त किया। फ्रैंकफर्ट की सभा में वह आठ
वर्ष तक प्रशा का प्रतिनिधित्व करता रहा। इन आठ वर्षों में उसने कूटनीतिज्ञ शिक्षा
ग्रहण की और महत्त्वपूर्ण अनुभव प्राप्त किये, जिनके कारण वह एक निपुण राजनीतिज्ञ बन सका। 1859 में उसे
रूस में राजदूत बनाकर भेजा। उसे रूस के राजनीतिज्ञों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित
करने का अवसर मिला। मार्च, 1862 में उसे
पेरिस में राजदूत नियुक्त किया गया, परन्तु वह वहाँ अधिक समय तक नहीं रह सका और 23 सितम्बर, 1862 को उसे बुलाकर प्रशा
का प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया।
बिस्मार्क के सम्मुख एकीकरण में
बाधाएँ
सन् 1862 ई. में
जब बिस्मार्क प्रशा का चांसलर नियुक्त हुआ तब जर्मन देशभक्त जर्मनी के
एकीकरण के लिए बहुत इच्छुक थे। बिस्मार्क भी प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी
का एकीकरण चाहता था, लेकिन वह एक
महान् कूटनीतिज्ञ होने के कारण यह भली-भाँति समझता था कि जर्मनी का एकीकरण करना
इतना सरल नहीं है,
जितना कि साधारण
जनता और आन्दोलनकारी समझते हैं। बिस्मार्क ने अनुभव किया कि प्रशा के
नेतृत्व में जर्मनी के एकीकरण के सम्बन्ध में निम्नलिखित समस्याएँ थीं-
(1) एक शक्तिशाली
सेना का गठन,
(2) अन्य जर्मन
राज्यों को प्रभावित करना, जिससे वे
आस्ट्रिया के प्रभाव से मुक्त हो जाए, विशेषतया दक्षिण जर्मनी के कैथोलिक राज्य, जो कैथोलिक आस्ट्रिया के
प्रभाव में थे।
(3) आस्ट्रिया को
पराजित कर उसे सदैव के लिए जर्मनी से निकाल देना,
(4) फ्रांस को
पराजित करना क्योंकि यह जर्मन एकीकरण के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा था।
बिस्मार्क की नीति तथा उद्देश्य
बिस्मार्क की मान्यता थी कि सैनिक
दृष्टि से प्रशा को शक्तिशाली बनाकर ही जर्मनी का एकीकरण पूरा किया जा सकता है।
अतः उसने अपने सम्राट विलियम प्रथम को सुझाव दिया कि वह सैनिक संगठन जारी
रखें और संसद के विरोध की तनिक भी परवाह न करें, अतः वह निम्न सदन की अवहेलना करके केवल उच्च सदन में बजट
पास करता रहा और सेना के सुधारों के लिए आवश्यक धनराशि प्राप्त करता रहा। उसने
अपनी नीति का प्रतिपादन करते हुए कहा, "हमारे समय की महान् समस्याएँ भाषणों और बहुमत के प्रस्तावों
द्वारा नहीं, अपितु 'लौह और रक्त' की नीति के द्वारा ही
सुलझ सकती हैं। इस प्रकार बिस्मार्क का निश्चित मत था कि सैनिक शक्ति के बल पर ही
जर्मनी का एकीकरण सम्भव था। अत: बिस्मार्क ने कुछ समय में प्रशा में एक विशाल और
सुसज्जित सेना का निर्माण कर दिया और अन्त में 'लौह एवं रक्त' की नीति का अनुसरण करते हुए उसने केवल 6 वर्षों में (1864
से 1870 ई.) तक सम्पूर्ण जर्मनी का एकीकरण कर दिया।
उद्देश्य एवं
कार्यक्रम- बिस्मार्क के दो
प्रमुख उद्देश्य थे-
(1) प्रशा के
नेतृत्त्व में जर्मनी का एकीकरण करना।
(2) जर्मनी संघ
से आस्ट्रिया को निष्कासित करना तथा आस्ट्रिया को पराजित करने के लिए यूरोप के
बड़े देशों का समर्थन प्राप्त करना।
प्रो. बी.एन.
मेहता का कथन है, "बिस्मार्क का उद्देश्य था-प्रशा के
द्वारा और उसी के हित के लिए जर्मन एकता का निर्माण। जिस प्रकार संयुक्त इटली में
सार्डीनिया का पृथक् अस्तित्व नहीं रहा था, वह पूर्णतया इटली में विलीन हो गया था उसी प्रकार वह प्रशा
को जर्मनी में विलीन नहीं करना चाहता था। काबूर तो पहले इटली का था और बाद
में सार्डीनिया का, परन्तु बिस्मार्क
पहले और अन्त में तथा सदैव प्रशा का ही बना रहा। वह कहा करता था कि हम प्रशा के
हैं और सदा प्रशा के ही रहेंगे। उसे अपनी सफलता द्वारा अपने विरोधियों को मुँह
बन्द कर सकने का पूरा विश्वास था। उसका कार्यक्रम भी उसके मस्तिष्क में स्पष्ट
था-प्रशा की सैनिक-शक्ति को अजेय एवं अद्वितीय बनाकर उसकी सहायता में प्रशा का
विस्तार करना और आस्ट्रिया को युद्ध में पराजित करके जर्मन-संघ से बाहर निकालकर
समस्त जर्मन राज्यों को प्रशा के नेतृत्व में नवीन रूप से संगठित करना तथा जर्मनी
को यूरोप में प्रमुख शक्ति बनाना।”
यद्यपि बिस्मार्क
को अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा, परन्तु उसने दृढ़ निश्चय
और साहस के साथ समस्त कठिनाईयों का मुकाबला किया। उसने लौह और रक्त की नीति का
अनुसरण करते हुए निम्नलिखित तीन बड़े युद्ध किये-
डेनमार्क से युद्ध 1864 ई.
श्लेसविंग और हालस्टीन के
प्रदेश डेनमार्क और जर्मनी के बीच स्थित थे। यद्यपि इन दोनों प्रदेशों में जर्मन
लोगों की आबादी अधिक थी, परन्तु इन
प्रदेशों पर डेनमार्क का शासन स्थापित था, डेनमार्क इन दोनों प्रदेशों को अपने राज्य में सम्मिलित कर
लेना चाहता था,
परन्तु जर्मन लोग
इन प्रदेशों को जर्मनी का अंग बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। 1852 की लन्दन-सन्धि के
अनुसार यह निश्चय किया गया कि डेनमार्क का शासक इन दोनों प्रदेशों पर शासन तो करता
रहेगा, परन्तु वह इन्हें
डेनमार्क के राज्य में सम्मिलित नहीं करेगा, परन्तु 1863 में डेनमार्क के शासक क्रिश्चियन नवम ने
इस समझौते का उल्लंघन करते हुए श्लेसविंग और हालस्टीन को डेनमार्क के राज्य में
सम्मिलित कर लिया।
क्रिश्चियन नवम की इस
कार्यवाही से जर्मनी के सभी भागों में डेनमार्क के विरुद्ध बड़ा आक्रोश
उत्पन्न हुआ। बिस्मार्क ने इस अवसर से लाभ उठाकर श्लेसविंग और हालस्टीन पर
अधिकार करने का निश्चय कर लिया। इसके अतिरिक्त वह आस्ट्रिया से झगड़ा मोल लेना
चाहता था ताकि आगे चलकर आस्ट्रिया को युद्ध में घसीटा जा सके।
अतः बिस्मार्क
ने आस्ट्रिया को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और दोनों देशों ने मिलकर 1864 में डेनमार्क
को बड़ी सरलता से पराजित कर दिया। विवश होकर डेनमार्क को आस्ट्रिया और प्रशा के
साथ वियना की सन्धि करनी पड़ी। जिसके अनुसार डेनमार्क ने श्लेसविंग तथा हालस्टीन
के प्रदेश आस्ट्रिया और प्रशा को सौंप दिये।
गेस्टाइन की सन्धि
(1865 ई.)-
श्लेसविंग और हालस्टीन को
डेनमार्क से प्राप्त कर लेने के पश्चात् आस्ट्रिया और प्रशा में इस बात पर तीव्र
मतभेद हो गया कि इन दोनों प्रदेशों पर किसका अधिकार और उनकी व्यवस्था किस प्रकार
की जाए। काफी वाद-विवाद के पश्चात् 14 अगस्त, 1865 ई. को दोनों देशों में एक समझौता हुआ. जिसे 'गेस्टाइन का समझौता' कहते हैं। इस समझौते के
अनुसार निम्नलिखित शर्ते तय की गई-
(1) श्लेसविंग पर
प्रशा का अधिकार मान लिया।
(2) हालस्टीन पर
आस्ट्रिया का अधिकार स्वीकार कर लिया गया।
(3) लाएकवर्ग
प्रशा को बेच दिया गया।
(4) आस्ट्रिया ने
श्लेसविंग और हालस्टीन के मसले को जर्मन-संसद में न ले जाने का वचन दिया।
गेस्टाइन के समझौते से प्रशा को
लाभ हुआ और आस्ट्रिया के हितों को हानि पहुँची। केटलबी के अनुसार, "गेस्टाइन का समझौता
बिस्मार्क की महान् कूटनीतिक विजय थी।" बिस्मार्क ने दूरदर्शिता का
परिचय देते हुए आस्ट्रिया को हालस्टीन का प्रदेश दिला दिया जो उससे बहुत
दूर था और चारों ओर से प्रशा के राज्य से घिरा हुआ था। इसके अतिरिक्त इस समझौते के
द्वारा बिस्मार्क को आस्ट्रिया से युद्ध करने का अवसर भी प्राप्त हो गया
था। उसने ठीक ही कहा था, "हमने गेस्टाइन के
समझौते के द्वारा दरार को कागज से ढक दिया है।
आस्ट्रिया और प्रशा का युद्ध 1866
ई.
गेस्टाइन के समझौते के पश्चात्
आस्ट्रिया और प्रशा के सम्बन्ध बिगड़ते गये और 10 मास बाद ही दोनों के बीच युद्ध
आरम्भ हो गया। बिस्मार्क जर्मनी के एकीकरण के मार्ग में आस्ट्रिया को अपना
कट्टर शत्रु मानता था। अतः वह आस्ट्रिया को जर्मनी से निकालकर प्रशा के नेतृत्त्व
में जर्मनी का एकीकरण करना चाहता था परन्तु आस्ट्रिया से युद्ध प्रारम्भ करने से
पूर्व वह अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में आस्ट्रिया को एकाकी और मित्रहीन कर देना
चाहता था। अतः बिस्मार्क ने कूटनीति द्वारा आस्ट्रिया को मित्रहीन बनाने के लिए
निम्नलिखित कार्य किये-
1. रूस-
1863 में रूसी
एकतन्त्रवाद के विरुद्ध अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए पौलेण्ड ने
विद्रोह कर दिया। इस अवसर पर बिस्मार्क ने रूस का साथ देते हुए घोषणा की कि
“पौलेण्ड के विरुद्ध प्रशा
रूस के साथ कन्धा मिलाकर खड़ा होगा। अत: रूस ने कठोर सैनिक कार्यवाही करके पोलैण्ड
के विद्रोह को कुचल दिया। इससे रूस और प्रशा में घनिष्ठता
हुई।"
2. फ्रांस-
1866 में
बिस्मार्क ने बिआरिज नामक स्थान पर फ्रांस के सम्राट नेपोलियन तृतीय
से भेंट की और उससे एक समझौता किया कि यदि फ्रांस प्रशा और आस्ट्रिया के युद्ध में
तटस्थ रहेगा तो उसे राइन नदी का तटीय प्रदेश दे दिया जायेगा। फ्रांस ने
स्वीकार कर लिया कि वह श्लेसविंग और हालस्टीन पर प्रशा के अधिकार को मान्यता देगा
और वेनेशिया आस्ट्रिया से लेकर इटली को दे दिया जायेगा।
3. इटली-
इस समय इटली
के देशभक्त भी आस्ट्रिया को पराजित करके इटली के एकीकरण का प्रयास कर रहे थे। अतः
ऐसी परिस्थिति में इटली के साथ व्यापारिक सन्धि और तत्पश्चात् अप्रैल, 1866 में एक सामरिक सन्धि
की जिसके अनुसार यह तय किया गया कि यदि प्रशा आस्ट्रिया के विरुद्ध तीन मास के
भीतर युद्ध की घोषणा कर दे तो इटली भी आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर
देगा और इसके बदले में बिस्मार्क इटली को वेनेशिया दिला देगा। अपनी स्थिति सुदृढ़
कर लेने के पश्चात् बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के साथ युद्ध करने का निश्चय कर
लिया। जब आस्ट्रिया ने आगस्टन वर्ग के ड्यूक के अधिकार का प्रश्न फिर से उठाया तो
बिस्मार्क ने उसे गेस्टीन के समझौते के विरुद्ध बताया और आस्ट्रिया की निन्दा की।
अन्त में एक जून, 1866 को आस्ट्रियां ने
जर्मनी की राज्य परिषद् को आमंत्रित किया और श्लेसविंग तथा हालस्टीन के सम्बन्ध
में निर्णय लेने के लिए कहा। बिस्मार्क ने इसे गेस्टीन के समझौते का
उल्लंघन बताया और 6 जून, 1866 को प्रशा की
सेनाओं ने हालस्टीन पर अधिकार कर लिया। इस पर 11 जून, 1866 को आस्ट्रिया ने
जर्मन राज्य-परिषद् में यह प्रस्ताव पास करवा लिया कि प्रशा के विरुद्ध संघीय
सेनाएँ भेजी जायें, परन्तु बिस्मार्क
ने इसे अवैधानिक मानते हुए जर्मन परिसंघ को समाप्त करने की घोषणा करदी और
आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
सात सप्ताह का
युद्ध-
आस्ट्रिया और प्रशा के बीच सात
सप्ताह (16 जून, 1866 से 3 जुलाई, 1866) तक चलता रहा। 3
जुलाई, 1866 को सेडोवा के
युद्ध में प्रशा की सेनाओं ने आस्ट्रिया की सेनाओं को बुरी तरह पराजित किया। प्रशा
की इस गौरवपूर्ण सफलता का श्रेय उसके सेनापति मोल्तके को दिया जाता है। पराजित
आस्ट्रिया को 23 अगस्त, 1866 को प्राग
की सन्धि करनी पड़ी।
प्राग की संन्धि-
प्राग की सन्धि की प्रमुख शर्ते
निम्नलिखित थीं-
1. प्रशा को
श्लेसविंग, हालस्टीन, हेनोवर, हेस-कासेल, नसाज और फ्रेंकफर्ट के स्वतन्त्र
नगर प्राप्त हुए।
2. इटली को
वेनेशिया दे दिया गया।
3. आस्ट्रिया को
30 लाख पौण्ड युद्ध का हर्जाना देना पड़ा।
4. पुराना
जर्मन-संघ तोड़ दिया गया तथा उसके स्थान पर उत्तरी जर्मन परिसंघ बनाया गया जिसका
अध्यक्ष प्रशा था। इस नये संघ में आस्ट्रिया को कोई स्थान नहीं दिया था।
5. दक्षिणी
जर्मनों के राज्य स्वतन्त्र रहे।
आस्ट्रिया-प्रशा युद्ध के परिणाम-
1. दीर्घकाल के
पश्चात् आस्ट्रिया जर्मन-संघ से निकाल दिया गया।
2. इस युद्ध के
पश्चात् प्रशा यूरोप की एक महान् सैनिक शक्ति बन गया।
3. इस युद्ध के
पश्चात् जर्मनी के उत्तर राज्यों का एकीकरण पूरा हो गया।
4. इससे इटली के
एकीकरण में सहायता मिली। वेनेशिया इटली को दिला दिया और रोम को छोड़कर इटली के
एकीकरण का कार्य लगभग पूरा हो गया।
5. इस युद्ध ने
नेपोलियन तृतीय की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचाया फ्रांस प्रशा को भय और सन्देह
की दृष्टि से देखने लगा।
6. बिस्मार्क की
प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। उसकी सैनिकवाद की नीति को प्रोत्साहन मिला।
प्रो. बी.एन.
मेहता का कथन है, “प्राग की सन्धि से प्रशा, आस्ट्रिया, जर्मनी के इतिहास में एक
नया अध्याय आरम्भ हुआ उसके फलस्वरूप प्रशा का राज्य राइन नदी से वाल्टिक
सागर तक पहुंच गया। जो नये प्रदेश प्रशा में शामिल हुए उनका क्षेत्रफल 25000
वर्गमील था और जनसंख्या 50 लाख। जनसंख्या तथा क्षेत्रफल दोनों की दृष्टि से प्रशा
का विस्तार हो गया। इसके अतिरिक्त उसे कील का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह भी
प्राप्त हुआ। इससे यूरोप में सत्ता का ऐतिहासिक सन्तुलन बदल गया।"
प्रशा में बिस्मार्क
की विजय-
अपनी विजय से बिस्मार्क
ने न केवल अपने बाहरी शत्रुओं को ही परास्त किया बल्कि भीतरी शत्रुओं को भी परास्त
कर दिया। जिस सेना के विस्तार का उदारवादी लोग विरोध कर रहे थे उसने शत्रुओं को
परास्त करके पितृभूमि का गौरव बढ़ाया था और बिस्मार्क ने सैनिकवाद का
औचित्य प्रमाणित कर दिया था। विजयोल्लास में तथा राष्ट्रीय उत्कर्ष से प्रभावित
होकर अधिकतर उदारवादी लोग अपना उदारवाद भूलकर बिस्मार्क के भक्त बन गये। केवल
थोड़े से उग्रवादी लोग ही उसके, विरोधी बने रहे।
उदारवाद का पक्ष निर्वल पड़ गया और उसका स्थान जर्मन राष्ट्रीयता ने ले लिया। अब
वे लोक स्वशासन की माँग को तिलांजलि देकर समस्त जर्मनी के एकीकरण तथा
जर्मनी में प्रशा के नेतृत्त्व के समर्थक बन गये।
आस्ट्रिया का
बहिष्कार तथा उत्तर में प्रशा का प्राधान्य-
1866 के सेडोवा
के फलस्वरूप जर्मनी से आस्ट्रिया का बहिष्कार हो गया, मेन नदी के उत्तर में प्रशा
का प्राधान्य स्थापित हो गया और मध्य यूरोप में प्रशा सबसे शक्तिशाली राज्य बन
गया। बिस्मार्क की सबसे बड़ी विजय उसकी जर्मन नीति में ही हुई थी। उसने
स्वयं उत्तरी जर्मनी परिसंघ के लिए एक संविधान बनाया और फरवरी, 1867 में परिसंघ के समस्त
22 राज्यों के प्रतिनिधियों की सभा ने उसे स्वीकार किया। प्रशा का राजा परिसंघ का
वंशानुपात राष्ट्रपति नियुक्त हुआ जिसकी सहायता के लिए एक संघीय प्रधानमंत्री की
व्यवस्था की गई। समस्त महत्त्वपूर्ण मामलों में वास्तविक शक्ति प्रशा के राजा के
हाथों में थी। विदेश नीति का निर्धारण, सेना का नियंत्रण, युद्ध एवं सन्धि का निर्णय राष्ट्रपति के हाथों में था। इस
प्रकार समस्त उत्तरी जर्मनी पर प्रशा का प्राधान्य स्थापित हो गया।
फ्रांस से युद्ध 1870 ई.
1866 की सन्धि के
पश्चात फ्रांस और प्रशा के सम्बन्ध निरन्तर बिगड़ते चले गये और अन्त
में 1870 में दोनों देश युद्ध में कूद पड़े। इस युद्ध के लिए निम्नलिखित कारण
उत्तरदायी थे-
(1) दक्षिण जर्मन
राज्यों पर फ्रांस का प्रभाव-
1865 सेडोवा के
युद्ध में आस्ट्रिया की पराजय के फलस्वरूप प्रशा के नेतृत्त्व में उत्तरी जर्मन
संघ का निर्माण हो चुका था। अब केवल दक्षिणी जर्मनी चार रियासतों को जर्मन संघ
में मिलाना बाकी रह गया था। ये चारों राज्य फ्रांस के प्रभाव में थे। अतः बिस्मार्क
जर्मनी के एकीकरण के लिए फ्रांस के साथ युद्ध करना आवश्यक मानता था।
(2) सेडोवा के युद्ध
में आस्ट्रिया की पराजय से निराशा-
सेडोवा के युद्ध में आस्ट्रिया
की पराजय से नेपोलियन तृतीय और फ्रांस की जनता अत्यधिक निराश हुई थी। फ्रांस
के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ थीयस ने कहा था, "सेडोवा में जो कुछ हुआ है, वह फ्रांस के लिए अत्यन्त ही चिन्ताजनक विषय है। पिछली चार
शताब्दियों में फ्रांस के लिए इतनी घोर विपत्ति की घटना नहीं हुई थी। सेडोवा
में आस्ट्रिया की नहीं, अपितु फ्रांस की
पराजय हुई है।" फ्रांस की सीमा पर शक्तिशाली जर्मन के उत्कर्ष से फ्रांस की
सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो गया था। अतः फ्रांसीसी जनता सेडोवा की पराजय का
प्रतिशोध लेने के लिए अपनी सरकार को उत्तेजित करने लगी।
(3) बिस्मार्क की
नीति से असन्तोष-
जब नेपोलियन
तृतीय ने सेडोवा के युद्ध में तटस्थ रहने के लिए बिस्मार्क से अपनी तटस्थता का
मूल्य मांगा तो बिस्मार्क अपने वचनों में मुकर गया और फ्रांस को राइन नदी
का तटीय प्रदेश देने से इन्कार कर दिया। इससे नेपोलियन तृतीय बिस्मार्क से
बड़ा नाराज हुआ। इसके अतिरिक्त हालैण्ड का राजा लक्समबर्ग का प्रदेश फ्रांस
को बेचने को तैयार हो गया था, परन्तु बिस्मार्क
द्वारा भड़काये जाने से हालैण्ड के राजा ने लक्समबर्ग फ्रांस को
हस्तान्तरित करने से इन्कार कर दिया। बिस्मार्क की इस कार्यवाही से फ्रांस
की जनता में तीव्र आक्रोश व्याप्त था।
(4) नेपोलियन तृतीय
की विदेश नीति की असफलता-
फ्रांस के सम्राट नेपोलियन
तृतीय को वैदेशिक क्षेत्र में अनेक असफलताओं का सामना करना पड़ा। उसे पोलैण्ड, मैक्सिको और सेडोवा के
युद्ध में घोर असफलताओं का मुंह देखना पड़ा। अतः वह अपने खोये हुए गौरव को पुनः
प्राप्त करने के लिए प्रशा को एक बार पराजित करना चाहता था।
(5) स्पेन के
उत्तराधिकार की समस्या-
स्पेन के उत्तराधिकार की
समस्या ने दोनों राज्यों के सम्बन्धों को और अधिक बिगाड़ दिया। 1865 में स्पेन की
क्रांति हुई जिसके फलस्वरूप रानी इजाबेला द्वितीय को सिंहासन छोड़कर भागना
पड़ा। बिस्मार्क ने अपनी कूटनीति से स्पेन के नेताओं को इस बात पर सहमत कर
लिया कि वे शासक विलियम प्रथम के एक सम्बन्धी राजकुमार लियोपाल्ड को
स्पेन के सिंहासन पर बिठा देंगे, परन्तु फ्रांस ने
इसका घोर विरोध किया क्योंकि फ्रांस को भय था कि वे लियोपाल्ड के राजा होते
ही स्पेन पर प्रशा का प्रभाव स्थापित हो जायेमा, प्रशा की शक्ति में वृद्धि होगी और फ्रांस की सुरक्षा खतरे
में पड़ जायेगी। अत: फ्रांस के विरोध करने के कारण लियोपाल्ड ने स्पेन की
गद्दी पर बैठने से इन्कार कर दिया।
नेपोलियन तृतीय ने प्रशा
से मांग की कि वह भविष्य में कभी भी स्पेन की गद्दी पर होहेंजोलर्न वंश के
किसी व्यक्ति को नहीं बिठायेगा। इस सम्बन्ध में फ्रांसीसी राजदूत बेनेडिटी
ने प्रशा के सम्राट विलियम प्रथम से एम्प में बातचीत की, परन्तु विलियम प्रथम ने
फ्रांस की मांग को अपनी वार्ता का सारांश तार द्वारा बिस्मार्क के पास भेज
दिया। यह तार एक्स-तार'
कहलाता है।
बिस्मार्क ने इस तार की भाषा को इस
प्रकार प्रकाशित करवाया जिससे फ्रांस की जनता को यह आभास हुआ कि उसके सम्राट का
अपमान किया गया। इसी प्रकार प्रशा के लोगों को यह आभास हुआ कि फ्रांस ने उनके
सम्राट का अपमान किया। अत: अपनी प्रजा को सन्तुष्ट करने के लिए नेपोलियन तृतीय
ने 15 जुलाई, 1870 को प्रशा के विरुद्ध
युद्ध की घोषणा कर दी।
प्रशा की सेनाओं
का मनोबल बहुत ऊँचा था। फ्रांसीसी सेनाओं को वर्थ और ग्रेवलोत की
लड़ाईयों में पराजय का मुंह देखना पड़ा। अन्त में 1 सितम्बर, 1870 को सिडान के युद्ध
में नेपोलियन तृतीय की निर्णायक पराजय हुई और उसे 83 हजार सैनिकों के साथ
बन्दी बना लिया। 18 जनवरी, 1871 को वर्साई
के राजप्रासाद में बिस्मार्क ने एक भव्य दरबार का आयोजन किया और वहाँ विलियम प्रथम
को जर्मन-साम्राज्य का सम्राट घोषित किया गया।
फ्रैंकफर्ट की
सन्धि-
10 मई, 1871 को पराजित फ्रांस
को जर्मनी के साथ फ्रैंकफर्ट की सन्धि करनी पड़ी, जिसकी मुख्य शर्ते निम्नलिखित थीं-
1. फ्रांस को
स्ट्रासबर्ग सहित अल्लास तथा लोरेन के प्रदेश जर्मनी को देने पड़े।
2. फ्रांस पर 10
करोड़ पौण्ड युद्ध का जुर्माना लादा गया।
3. फ्रांस
हर्जाने की राशि को तीन वर्ष की अवधि में चुका देगा। क्षतिपूर्ति होने तक जर्मन
सेना का फ्रांस में रहना ही निश्चित हुआ।
जर्मन साम्राज्य की स्थापना
सीडान के युद्ध ने यहाँ फ्रांसीसी
साम्राज्य को नष्ट किया, वहाँ उसने
जर्मन-साम्राज्य का निर्माण किया। सन्धि पर अन्तिम स्वीकृति होने से पहले ही बिस्मार्क
जर्मन राष्ट्र के एकीकरण महायज्ञ की पूर्णाहूति कर चुका था। 18 जनवरी, 1871 को बर्साई के
राजप्रासाद के शशि भवन में जर्मन की एकता तथा प्रशा के राजा विलियम प्रथम
के प्रथम सम्राट के पद पर आसीन होने की घोषणा की गई। तीन महीने के बाद 16 अप्रैल, 1871 को नये संविधान की
घोषणा हुई जिसके अनुसार उत्तर जर्मनी परिसंघ का विस्तार किया गया। उसमें
जर्मन आस्ट्रिया को छोड़कर दक्षिण जर्मन के समस्त राज्य बेवरिया, बुर्टेमवर्ग, बादेन तथा हेस का मेन नदी
के दक्षिण में स्थित भाग शामिल हो गये और परिसंघ ने संघीय साम्राज्य का रूप धारण कर
लिया, संसार के इतिहास में बहुत
कम घटनाएँ ऐसी हुई हैं, जिनके तात्कालिक
परिणाम इतने महत्त्वपूर्ण हुए हों, जितने सीडान की रणभूमि में फ्रांस की पराजय के हुए।
इस युद्ध ने जर्मन साम्राज्य की दृष्टि करके यूरोप का शक्ति-संतुलन बिगाड़ दिया। इस
प्रकार 18 जनवरी,
1871 को जर्मनी
के एकीकरण का कार्य पूरा हुआ और जर्मन साम्राज्य की स्थापना हुई।
आशा हैं कि हमारे
द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो
इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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