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बीकानेर के राजा रायसिंह की मुगल दरवार में सेवाएँ

बीकानेर के राजा रायसिंह की मुगल दरवार में सेवाएँ

भूमिका-

जब राव कल्याण मल ने अपने पुत्र रायसिंह के साथ नागौर में मुगल सम्राट अकबर से भेंट को थी तब मानव गुणों के पारखी अकबर ने रायसिंह के व्यक्तित्व और इसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर इसे जोधपुर का प्रशासक नियुक्त करने का निश्चय किया था। रायसिंह 1572 ई. में मुगल दरबार में उपस्थित हुए तथा 1574 ई. में राव कल्याणमल की मृत्यु के पश्चात् बीकानेर के राजा बने।

रायसिंह की मुगल सेवाएँ

महाराजा रायसिंह द्वारा की गई मुगल सेवाओं का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

1. जोधपुर के प्रशासक के रूप में-

रायसिंह को 1572 ई. में जोधपुर का शासक नियुक्त किया गया। इस कार्य से अकबर की कूटनीतिक प्रतिभा का परिचय मिलता है। रायसिंह की नियुक्ति से अकबर के अनेक उद्देश्य सिद्ध हो सकते थे। गुजरात के उपद्रवों और सिरोही के देवड़ों का दमन करने हेतु अकबर राठौडों की शक्ति का उपयोग करना चाहता था। इसके अलावा राठौड़ों की परस्पर फूट को बनाये रखने के लिए और रायसिंह को आत्मसंतोष की तुष्टि हेतु भी रायसिंह को जोधपुर का शासक नियुक्त करना अकबर ने उपयुक्त समझा था। इस पद पर रहते हुए रायसिंह ने प्रशासनिक प्रतिभा का परिचय दिया और राव मालदेव के समर्थक राठौड़ों का कठोरतापूर्वक दमन किया।

2. रायसिंह द्वारा मिर्जा बन्धुओं का दमन-

रायसिंह ने मिर्जा बन्धुओं के दमन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। सन् 1573 ई. में स्वयं अकबर विद्रोही हुसैन मिर्जा के उपद्रव का दमन करने के लिए फतेहपुर सीकरी से चलकर गुजरात पहुँचा। रायसिंह भी इस सैनिक अभियान में शामिल हो गया। 1573 ई. में मुगल सेना के साथ युद्ध करते हुए विद्रोही मिर्जा बन्दी बना लिया गया। रायसिंह ने उसे बन्दी बनाने में उल्लेखनीय वीरता का प्रदर्शन किया।

3. रायसिंह द्वारा चन्द्रसेन का पीछा करना-

जब अकबर को समाचार मिला कि चन्द्रसेन ने दक्षिणी मेवाड़ में पर्याप्त शक्ति संगठित कर ली है तो उसने सन् 1574 ई. में चन्द्रसेन के विरुद्ध सैनिक अभियान हेतु रायसिंह की नियुक्ति की। रायसिंह ने सर्वप्रथम चन्द्रसेन के समर्थकों को नष्ट करने का निश्चय किया। चन्द्रसेन के प्रमुख समर्थक कल्ला के विरुद्ध प्रबल अभियान छेड़ा गया, परिणामस्वरूप कल्ला को सोजत छोड़कर गोरम की दुर्गम पहाड़ियों में भागना पड़ा और अन्त में उसे मुगलों की अधीनता मानने के लिए विवश होना पड़ा। इसके बाद रायसिंह ने चन्द्रसेन के प्रसिद्ध दुर्ग सिवाना पर अधिकार करने का प्रयास किया और 1576 ई. में सिवाना के दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

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रायसिंह की मुगल दरवार में सेवाएँ

4. रायसिंह द्वारा देवड़ा सुरताण के विरुद्ध अभियान-

सन् 1570 ई. में सिरोही के सुरताण देवड़ा और जालौर के ताज खाँ का दमन करने के लिए रायसिंह की नियुक्ति की गई। रायसिंह के सैनिक अभियान के फलस्वरूप दोनों विद्रोहियों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। रायसिंह ने सुरताण देवड़ा को मुगल दरबार में उपस्थित किया परन्तु जब सुरताण बिना सम्राट की आज्ञा के सिरोही लौट आया तो अकबर ने पुनः उसका दमन करने के लिए रायसिंह को ससैन्य भेजा। रायसिंह ने सुरताण को चारों ओर से घेर लिया और आबू पर अधिकार कर लिया तथा सुरताण को पुनः मुगल दरबार में हाजिर होने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार देवड़ा सुरताण को मुगल साम्राज्य के अधीन लाने में रायसिंह ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।

5. रायसिंह द्वारा काबुल के विद्रोहियों का दमन-

काबुल में हाकिम मिर्जा ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अत: अकबर ने 1581 ई. में मानसिंह के नेतृत्व में हाकिम मिर्जा का दमन करने के लिए एक बड़ी सेना भेजी। इसके पश्चात् मानसिंह की सेना को सहायता देने के लिए रायसिंह के नेतृत्व में एक सैनिक जत्था भेजा। हाकिम मिर्जा परास्त हो गया और उसने अकबर से अपने गुनाहों की माफी माँग ली। इस अभियान में रायसिंह ने अपने साहस और शौर्य का परिचय देकर बादशाह का कृपापात्र बन गया।

6. बलूचियों के विद्रोह का दमन-

सन् 1585 ई. में बलूचियों ने मुगलों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अत: अकबर ने बलूचियों के विद्रोह का दमन करने के लिए रायसिंह के नेतृत्व में एक सैनिक दल भेजा। रायसिंह ने बलूचियों को पराजित करके अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। अकबर रायसिंह की सैन्य प्रतिभा से खुश होकर उन्हें भटनेर का के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अत: अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को मिर्जा बेग के विद्रोह का परगना जागीर के रूप में दिया।

7. थट्टा के विरुद्ध अभियान-

1591 ई. में थट्टा के शासक मिर्जा जानी बेग ने मुगलों का दमन करने के लिए भेजा परन्तु जब अब्दुर्रहीम ने अकबर से अतिरिक्त सैन्य शक्ति की मांग की तो अकबर ने रायसिंह को खानखाना की सहायता के लिए थद्रा भेजा। खानखाना ने रायसिंह की सहायता से मिर्जा जानी बेग को पराजित कर दिया। जानी बेग ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा धट्टा का दुर्ग भी मुगलों को सौंप दिया।

8. रायसिंह की दक्षिण में नियुक्ति-

1593 ई. में अकबर ने शाहजादे मुराद को अहमदनगर को विजय के लिए नियुक्त किया और मुराद की सहायता के लिए रायसिंह को भेजा। रायसिंह ने अहमदनगर के शासक बुरहान-उल-मुल्क को अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। इससे प्रसन्न होकर अकबर ने उसे जूनागढ़ का प्रदेश जागीर में दे दिया।

9. अकबर के अन्तिम वर्ष और रायसिंह-

1601 ई. में नासिक में विद्रोह हो गया। अकबर ने रायसिंह को नासिक पहुँचकर अबुल फजल की सहायता करने का आदेश दिया। 1603 ई. में उसे राजकुमार सलीम के साथ मेवाड़ के अभियान पर भेजा गया। रायसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर अकबर ने 1604 ई. में शम्साबाद और नुरपुर की जागीरें प्रदान की।

10. रायसिंह और जहाँगीर-

सन् 1605 ई. में अकबर की मृत्यु के पश्चात् सलीम जहाँगीर के नाम से हिन्दुस्तान का बादशाह बना। जहाँगीर रायसिंह को अपना विश्वासपात्र सहयोगी मानता था। अत: उसने सिंहासनारूढ़ होते ही रायसिंह को आगरा बुलाया और उसके मनसब में वृद्धि करते हुए पाँच हजार का मनसबदार बना लिया। जब 1606 ई. में जहाँगीर अपने पुत्र खुसरो के विद्रोह के दमन के लिए रवाना हुआ तो उसने राजधानी की सुरक्षा का भार रायसिंह को ही सौंपा था। 1608 ई. में रायसिंह को दक्षिण का सूबेदार बनाकर भेजा गया। जहाँ 1612 ई. में बुराहनपुर में उसका देहान्त हो गया।

रायसिंह का मूल्यांकन

रायसिंह के जीवन की प्रमुख उपलब्धियाँ उसकी मृत्यु-पर्यन्त मुगल सेवा थी। वे अपने जीवन के आरम्भ काल में ही 1570 ई. में मुगल सेवा में चले गये थे और 1612 ई. तक मुगल सेवा में रहे। इस दीर्घकाल में इन्हें दो मुगल सम्राटों की सेवा करने का अवसर मिला-सम्राट अकबरजहाँगीर। अपनी वीरोचित और स्वामिभक्ति के गुणों के कारण वह दोनों ही मुगल सम्राटों का विश्वासपात्र बना रहा। अकबर के शासनकाल में वह एक वीर सेनापति के रूप में रहा और उस काल में उसने कई लड़ाइयाँ लड़ीं। अपनी वीरता और सच्ची सेवा से वह मुगल दरबार में सदैव सम्मानित रहा। अपनी पुत्री का विवाह शहजादा सलीम से करके उसने मुगलों से सम्बन्ध और भी सुदृढ़ बना लिये। मुगलों से सम्बन्ध सुदृढ़ कर उसने अपने बीकानेर राज्य को तो सुदृढ़ एवं सुरक्षित बनाया ही, पर साथ ही उसे विस्तृत भी किया। सम्राट अकबर से उसे हिसार, द्रोणपुर, भटनेर, नागौर, शमशाबाद तथा जूनागढ़ जागीर में मिले। इस प्रकार मुगल सेवा करके रायसिंह ने अपने साम्राज्य को विशाल एवं सुदृढ़ बना लिया था।

वीर होने के साथ-साथ रायसिंह एक कुशल प्रशासक भी था। उसने अकबर की सेवा में रहते हुए अपनी प्रशासनिक दक्षता का परिचय दिया। रायसिंह साहित्य अनुरागी शासक था। वह स्वयं कवि और कवियों को अपने दरबार में आश्रय प्रदान करने वाला शासक था। मुंशी देवी प्रसाद की मान्यता है कि रायसिंह महोत्व तथा ज्योतिष रत्नाकार ग्रन्थ स्वयं रायसिंह ने लिखे थे।

रायसिंह एक उदार शासक थे। उन्होंने अपनी प्रजा को विभिन्न प्रकार की सविधाएँ देकर उदारता का परिचय दिया। ख्यात लेखकों ने उनकी दानशीलता की भूरि-भूरि प्रशंसा की और ख्यातों के आधार पर ही मुंशी देवी प्रसाद ने उन्हें राजपूतों का कर्ण बताया है। विवाह के उत्सवों व अन्य पर्वो पर वे दिल खोलकर दान देते थे।

रायसिंह का चरित्र-चित्रण करते हुए डॉ. शर्मा एवं व्यास ने लिखा है कि "रायसिंह अकबर के वीर, कार्यकुशल और नीति निपुण योद्धाओं में से एक थे। अत: थोड़े ही समय में वह अकबर का कृपापात्र बन गया और अकबर ने उसे अपना चार हजारी मनसबदार बना दिया। वास्तव में आमेर को छोड़कर रायसिंह ही एकमात्र हिन्दू नरेश था, जिसे इतना ऊँचा मनसब दिया गया। फिर जहाँगीर के गद्दी पर बैठने पर इसका मनसब पाँच हजारी हो गया।

रायसिंह ने मुगल सम्राट की ओर से लगभग सभी महत्त्वपूर्ण युद्धों में भाग लिया था। बंगाल से काबुल तथा कश्मीर से अहमदनगर एवं गुजरात तक को लड़ाइयों में रायसिंह ने न केवल अपने अपूर्व साहस का परिचय दिया अपितु एक कुशल योद्धा होने का भी प्रमाण दिया। रायसिंह ने मुगल साम्राज्य को पूर्ण स्वामिभक्ति से सेवा की और इसलिए वह साम्राज्य का वफादार मित्र समझा जाता था। रायसिंह के इन्हीं गुणों के कारण उसे चार प्रान्तों को सूबेदारी दी गई।"

डॉ. रघुवीर सिंह लिखते हैं, "रायसिंह ने पूरे 41 वर्ष तक मुगल साम्राज्य की राजभक्तिपूर्ण सेवा को थी। अकबर का उस पर पूर्ण विश्वास था और साम्राज्य का एक चतुर सेनापति होने के कारण उसे प्रत्येक महत्त्वपूर्ण अभियान पर भेजा जाता था। अकबर के शासनकाल में उसका मनसब बढ़ते-बढ़ते चार हजार हो गया था, जिसे बढ़ाकर जहाँगीर ने पाँच हजार कर दिया था।"

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