Heade ads

फ्रांसीसी क्रान्ति 1848 ई. कारण व परिणाम

1848 ई. की क्रान्ति का मुख्य कारण लुई फिलिप की आन्तरिक और बाह्य नीतियाँ थीं, जिनके कारण फ्रांस में उसका शासन अलोकप्रिय हो गया। 1848 ई. में फ्रांस में जो क्रान्ति हुई, वह केवल फ्रांस तक ही सीमित नहीं रही, वरन् इस क्रान्ति की चपेट में सम्पूर्ण यूरोप आ गया। इस प्रकार क्रान्ति को नष्ट कर पुरातन व्यवस्था को लादने का मैटरनिख का स्वप्न चकनाचूर हो गया और हर जगह नवीन शासन की स्थापना हुई।

1848 france kranti karan aur parinam hindi me
फ्रांसीसी क्रान्ति 1848 ई. कारण व परिणाम


1848 ई. में यूरोप में एक-दो नहीं, वरन् छोटी-बड़ी सत्रह क्रान्तियाँ हुई। इसीलिए यूरोप के इतिहास में 1848 ई. का वर्ष क्रान्तियों का वर्ष माना जाता है।

सन् 1848 ई. की क्रान्ति के कारण

1. धनी मध्यम वर्ग की प्रधानता-

लुई फिलिप की सरकार धनी मध्यम वर्ग की पोषक थी। मत का आधार धन होने के कारण प्रतिनिधि सभा में मध्यम वर्ग के लोगों की प्रधानता थी। अत: लुई को अपना शासन चलाने के लिए मध्यम वर्ग के लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था। मध्यम वर्ग के लोग अपने हितों को ध्यान में रखते हुए ही कानून बनाया करते थे। इन्हें जन-साधारण के हितों की तनिक भी चिन्ता नहीं थी। अत: लुई फिलिप की नीति से किसानों, मजदूरों एवं दस्तकारों को कोई लाभ नहीं पहुँचा। लुई ब्लौं नामक समाजवादी नेता ने ठीक ही कहा था कि "लुई फिलिप की सरकार धनी लोगों की, धनी लोगों के द्वारा और धनी लोगों के लिए है।" अत: इस कारण जन-साधारण में तीव्र असन्तोष फैला हुआ था।

2. लुई फिलिप और विभिन्न राजनीतिक दल-

सिंहासन प्राप्त करने पर भी लुई फिलिप की स्थिति निर्बल थी। प्रतिनिधि सभा के 430 सदस्यों में से केवल 219 सदस्यों ने ही उसके पक्ष में मतदान किया था। अतः उसने सभी राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त करने के लिए मध्यम मार्गी नीति अपनाई, परन्तु वह अपनी दुर्बल और स्वार्थ पूर्ण नीति के कारण किसी भी राजनीतिक दल का पूर्ण समर्थन प्राप्त नहीं कर सका। गणतन्त्रवादी यह देखकर बड़े क्षुब्ध थे कि फिलिप का शासन क्रमश: स्वच्छन्द प्रशासन बनता जा रहा है। राजसत्तावादियों की दृष्टि में वह एक अपहरणकर्ता था, क्योंकि वे चार्ल्स दशम् के पौत्र को सिंहासन पर बैठाना चाहते थे। इसी प्रकार बोनापार्टिस्ट दल वाले नेपोलियन के किसी सम्बन्धी को फ्रांस का सम्राट बनाना चाहते थे। अत: इन सभी राजनीतिक दलों को लुई फिलिप से असन्तोष था। वे इसी ताक में थे कि अवसर मिलने पर उसका शासन उलट दिया जाए।

3. लुई फिलिप की आन्तरिक नीति-

लुई फिलिप की आन्तरिक नीति दुर्बल और स्वार्थपूर्ण थी। उसने केवल सेठ, साहूकारों, पूँजीपतियों और उद्योगपतियों को प्रोत्साहन दिया और उनके हितों की पूर्ति के लिए अनेक कानून बनाये। परन्तु उसने श्रमिकों, किसानों, कारीगरों आदि लोगों के लिए कोई प्रभावशाली कदम नहीं उठाये परिणामस्वरूप जन-साधारण में लुई फिलिप की सरकार के प्रति अश्रद्धा तथा असन्तोष की भावना उत्पन्न हुई।

4. लुई फिलिप की दुर्बल विदेश नीति-

गृह नीति की भाँति लुई फिलिप की विदेश नीति असफल रही। वह अपने कार्य-कलापों में फ्रांस के गौरव में कोई वृद्धि नहीं कर सका। उसे बेल्जियम, स्पेन, पूर्वी समस्या आदि के मामलों में नीचा देखना पड़ा, जिसके फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में फ्रांस की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा। लुई फिलिप ने इटली और पोलैण्ड के क्रान्तिकारियों को निरंकुश शासकों के विरुद्ध संघर्ष में किसी प्रकार की सहायता नहीं दी। परिणास्वरूप उदारवादियों की दृष्टि में लुई फिलिप की प्रतिष्ठा गिर गई। अत: लुई फिलिप की निर्बल विदेश नीति भी उसके लिए विनाशकारी सिद्ध हुई।

5. समाजवाद का उदय-

व्यावसायिक क्रान्ति हो जाने के कारण देश में अनेक कल-कारखाने स्थापित हो गए। औद्योगीकरण के कारण पूँजीपति दिन-प्रतिदिन और अधिक धनी होते जा रहे थे और मजदूर दिन-प्रतिदन निर्धन होते जा रहे थे। लुई फिलिप की सरकार पूँजीपतियों की पोषक थी अतः उसने मजदूरों की दशा में सुधार करने के लिए कोई कानून नहीं बनाये। परिणामस्वरूप समाजवादी नेताओं- सेन्ट साइमन, लुई ब्लाँ आदि ने मजदूरों की दयनीय दशा के लिए लुई फिलिप की सरकार को दोषी ठहराया और घोषणा की कि "प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति को काम पाने का अधिकार है और राज्य का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक नागरिक को काम दे।"

इन विचारों का मजदूरों पर बहुत प्रभाव पड़ा और समाजवादी विचारधारा से उनमें एक नई चेतना जागृत हुई और वे लुई फिलिप के शासन को उलटने के लिए गुप्त समितियों को संगठित करने लगे। मेरियट का कथन है कि "समाजवादी सिद्धान्त ने सन् 1848 ई. की क्रान्ति को प्रेरक शक्ति प्रदान की और लुई फिलिप की सरकार के पतन का कारण बना।"

6. लुई फिलिप की दमनकारी नीति-

लुई फिलिप की ग्रह एवं वैदेशिक नीति की असफलता के कारण सर्वत्र असन्तोष व्याप्त था। लुई फिलिप के प्रतिक्रियावादी प्रधानमन्त्री गिजो ने भ्रष्ट उपायों द्वारा प्रतिनिधि सभा में अपना बहुमत बना रखा था। निरन्तर विरोध को बढ़ते हुए देखकर लुई फिलिप की सरकार ने गणतन्त्रीय सभाओं और समितियों को गैर कानूनी घोषित कर दिया तथा प्रेस और समाचार-पत्रों पर कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया। सरकारी नियमों को भंग करने वालों को दण्ड देने के लिए विशेष न्यायालयों की स्थापना की गई। लुई फिलिप की इस दमनकारी नीति ने जन साधारण की क्रोधाग्नि को भड़का दिया।

1848 की क्रान्ति और लुई फिलिप का पतन-

उपर्युक्त कारणों से फ्रांस की जनता में तीव्र असन्तोष था। 22 फरवरी, 1848 पेरिस में एक विशाल सुधार सहभोज का आयोजन किया गया। 23 फरवरी को पेरिस की उत्तेजित भीड़ ने सम्राट के विरुद्ध उग्र प्रदर्शन किया और प्रतिक्रियावादी प्रधानमन्त्री गिजो को बर्खास्त कर दिया, परन्तु जनता ने प्रदर्शन जारी रखा। 24 फरवरी को लुई फिलिप भयभीत होकर फ्राँस छोड़कर इंग्लैण्ड भाग गया। इस प्रकार 1848 की क्रान्ति के फलस्वरूप लुई फिलिप के शासन का अन्त हो गया।

1848 की क्रान्ति का प्रभाव

फ्रांस की क्रान्ति का प्रभाव केवल फ्राँस तक ही सीमित नहीं रहा, वरन् इस क्रान्ति ने यूरोप के अधिकांश देशों को भी प्रभावित किया। जिस प्रकार तालाब में एक कंकर फैंकने से उसकी समस्त लहरें समस्त तालाब में फैल जाती हैं, उसी प्रकार 1848 की क्रान्ति की लहरें समस्त यूरोप में फैल गईं। प्रो. एलीसन फिलिप्स का कथन है कि "फ्रांस की क्रान्ति की ज्वाला मानों एक संकेत थी, जिसे पाकर क्रान्तिकारी आन्दोलन एक साथ भड़क उठे।" 1848 को क्रान्ति का यूरोप के देशों पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा-

फ्राँस-

1848 की क्रान्ति के फलस्वरूप फ्रांस में राजतन्त्र की समाप्ति हुई और द्वितीय गणतन्त्र की घोषणा की गई। इसी क्रान्ति के फलस्वरूप नेपोलियन तृतीय का उत्कर्ष सम्भव हुआ।

आस्ट्रिया-

1848 की क्रान्ति का प्रभाव आस्ट्रिया पर भी पड़ा। 13 मार्च, 1848 को विद्यार्थियों और मजदूरों ने वियना में एक विशाल जुलूस निकाला। क्रान्तिकारियों ने मेटरनिख के महल को घेर लिया और उससे त्याग-पत्र की माँग करने लगे। परिणामस्वरूप मेटरनिख को त्याग-पत्र देकर इंग्लैण्ड भागना पड़ा। मेटरनिख के पतन के बाद आस्ट्रिया के सम्राट ने जनता को उदार-संविधान देने का वचन दिया, परन्तु क्रान्तिकारी इससे सन्तुष्ट नहीं हुए और सम्राट के विरुद्ध प्रदर्शन करने लगे। इससे सम्राट भी भयभीत होकर आस्ट्रिया छोड़कर भाग निकला।

हंगरी-

हंगरी आस्ट्रिया के अधीन था। फ्रांसीसी क्रान्ति से प्रभावित होकर हंगरी के देश-भक्तों ने डीक और कोस्सुथ के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। विवश होकर आस्ट्रिया के सम्राट ने हंगरी को स्वायत्त शासन दे दिया। परन्तु हंगरी में बसने वाली गैर-हंगेरियन जातियों को इससे कोई लाभ नहीं हुआ। उनको मन्त्रिमण्डल में भी शामिल नहीं किया गया। इससे उन जातियों में बहुत असन्तोष हुआ और उन्होंने स्थान-स्थान पर विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिये। आस्ट्रिया ने इस स्थिति का लाभ उठाया और रूस की सहायता से क्रान्तिकारियों को पराजित कर दिया। क्रान्तिकारी नेता कोस्सुथ को जान बचाने के लिए टर्की भागना पड़ा। इस प्रकार हंगरी में भी क्रान्ति का दमन कर दिया गया।

बोहेमिया-

बोहेमिया भी आस्ट्रिया के अधीन था। क्रान्ति का प्रभाव यहाँ पर भी पड़ा। यहाँ के चेक नेताओं ने आस्ट्रिया के सम्राट से कुछ सुविधाएँ प्राप्त कर ली, परन्तु बोहेमिया में बसने वाले जर्मन लोगों ने इसका विरोध किया। अभी दोनों पक्ष में तनातनी चल ही रही थी कि क्रान्तिकारियों ने आस्ट्रिया के सेनापति विण्डिसग्रेटस के महल पर आक्रमण कर दिया। इस पर सेना ने क्रान्तिकारियों का दमन करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी। भारी बम वर्षा के फलस्वरूप क्रान्तिकारियों को आत्म-समर्पण करना पड़ा। इस प्रकार सेना की सहायता से बोहेमिया की क्रान्ति का भी दमन कर दिया गया।

इटली-

इटली में पर्याप्त समय में सुधारवादी आन्दोलन चल रहा था। 1848 की क्रान्ति के समाचार से प्रोत्साहित होकर इटली के देश-भक्तों ने विद्रोह कर दिया। सर्वप्रथम मिलान में विद्रोह की अग्नि प्रज्ज्वलित हुई। मिलान की जनता ने पाँच दिन के सत् प्रयत्न से आस्ट्रिया की सेना को अपने यहाँ से निकालने में सफलता प्राप्त की। इसी प्रकार वेनिस, परमा तथा मोडेना में भी विद्रोह हो गया। सार्डीनिया के शासक चार्ल्स एलबर्ट ने 23 मार्च, 1848 को आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

जर्मनी-

फ्रांस की 1848 की क्रान्ति का जर्मनी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। वादेन, हेस, डार्मिस्टाट में उदारवादियों की माँगें स्वीकृत की गयीं। बेवरिया के शासक मैक्समिलियन द्वितीय ने विधान को उदार बनाने का वचन दिया। जर्मनी के अन्य राज्यों-हेस केसल, बुटमवर्ग, हनोवर, सेक्सनी आदि में उदार मन्त्रिमण्डलों की नियुक्ति की गई और वहाँ वैधानिक शासन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के सिद्धान्तों को मान्यता दी गई। 15 मार्च, 1848 को प्रशा में क्रान्तिकारियों ने प्रदर्शन किया और वैधानिक शासन की मांग की। क्रान्तिकारियों ने सम्राट फ्रेडरिक विलियम चतुर्थ के राजप्रासाद पर आक्रमण कर दिया। फलतः सेना ने गोली चला दी, जिसमें 200 से अधिक क्रान्तिकारी मारे गये, इससे जनता बहुत अधिक उत्तेजित हो गई और सम्राट को विवश होकर क्रान्तिकारियों की मांगों को स्वीकार करना पड़ा।

हालैण्ड-

फ्रांस की 1848 की क्रान्ति के फलस्वरूप हालैण्ड में भी क्रान्ति हो गई। अत: विवश होकर वहाँ के राजा विलियम द्वितीय को जनता को एक उदार संविधान देना पड़ा, जिसके अनुसार दो सदनों की संसद की व्यवस्था की गई। जनता को धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की गई। जनता को भाषण तथा लेखन की भी स्वतन्त्रता प्रदान की गई।

स्विट्जरलैण्ड-

यद्यपि स्विट्जरलैण्ड में लोकतन्त्रात्मक शासन स्थापित था, परन्तु वास्तविक शक्ति धनवान कुलीनों के हाथों में थी। प्रशासन में जन-साधारण को कोई स्थान प्राप्त न था। कैथोलिक लोगों ने अपना प्रतिक्रियावादी संघ स्थापित कर लिया था। अतः स्विट्जरलैण्ड के देश-भक्तों ने फ्रांसीसी क्रान्ति से प्रभावित होकर धनी कुलीनों और कैथोलिक संघ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। फलतः देशभक्तों की विजय हुई और स्विट्जरलैण्ड में उदार विधान को स्थापना की गई।

इंग्लैण्ड-

इंग्लैण्ड भी कुछ अंशों में 1848 की क्रान्ति से प्रभावित हुआ। सन् 1832 ई. के सुधार अधिनियम से इंग्लैण्ड के निम्न वर्ग के लोगों को राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं हुए। इसी कारण सन् 1838-39 ई. में वहाँ चार्टिस्ट आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। उन्होंने 6 मांग रखी। परन्तु उनकी मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। 1848 को फ्रांसीसी क्रान्ति से प्रोत्साहित होकर चार्टिस्ट लोगों ने एक विशाल चार्टर तैयार कराया और उस पर लगभग 50 लाख लोगों के हस्ताक्षर कराये। चार्टिस्टों का प्रार्थना पत्र पार्लियामेन्ट के सामने प्रस्तुत किया गया, परन्तु बहुत से हस्ताक्षर जाली पाये जाने से चार्टिस्टों की बदनामी हुई तथा उनका आन्दोलन असफल हुआ। फिर भी सरकार को यह ज्ञात हो गया कि शासन सुधार की आवश्यकता है।

1848 की क्रान्ति के परिणाम

(1) 1848 को क्रान्तियाँ अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल रहीं क्योंकि राष्ट्रीयता और उदारवाद को दोनों प्रतिक्रियावादियों के सम्मुख पराजित होना पड़ा। क्रान्तिकारी आन्दोलन निर्ममतापूर्वक कुचल दिये गए।

(2) यूरोप के अधिकांश देशों में प्राचीन व्यवस्था पुनः स्थापित कर दी गई। आस्ट्रिया, हंगरी, इटली, बोहेमिया आदि राज्यों में निरकुंश और प्रतिक्रियावादी शासन पुनः स्थापित कर दिया गया। हेजन ने लिखा है कि "1848 को क्रान्तियों के स्थायी परिणाम बहुत थोड़े थे, क्योंकि प्रत्येक राज्य को शासन व्यवस्था फिर से प्राचीन परम्परा के गर्त में जा गिरी" हार्नशा के अनुसार "इटली में क्रान्ति की असफलता दुखद और जर्मनी में हास्यास्पद थी।"

(3) क्रान्ति को सर्वथा निष्फल कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि क्रान्तिकाल में किए गए कुछ परिवर्तन एवं सुधार उसी प्रकार बने रहे। आस्ट्रिया के साम्राज्य में कृषि दासता, जिसे क्रान्ति के समय समाप्त कर दिया गया था पुनः जीवित नहीं की गई। इसी प्रकार सार्डीनिया, स्विट्जरलैण्ड, हालैण्ड और डेनमार्क में क्रान्ति के फलस्वरूप स्थापित वैधानिक शासन कुछ अंशों में बना रहा।

(4) क्रान्तियों की विफलता के बाद भी राष्ट्रीयता की भावना का दमन नहीं किया जा सका। इटली और जर्मनी के राष्ट्रवादियों ने अपने आन्दोलन जारी रखे और सन् 1870-71 ई. में उनके प्रयासों को सफलता प्राप्त हुई अर्थात् इटली और जर्मनी का एकीकरण पूर्ण हुआ।

(5) 1848 को क्रान्ति के फलस्वरूप सामाजिक जीवन में भी कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। क्रान्तिकाल में अनेक राज्यों में सामन्तवाद को समाप्त कर दिया गया और प्रतिक्रियावादियों की विजय के बाद भी उसे पुनः जीवित नहीं किया जा सका। सामन्तवाद की समाप्ति से साधारण कृषक को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई।

(6) 1848 की क्रान्ति से पुरानी राजनीतिक एवं सामाजिक मान्यता भी बदल गयी। क्रान्तिकारियों ने राजाओं की प्रभुसत्ता के स्थान पर लोकप्रिय प्रभुसत्ता राज्यों के स्थान पर राष्ट्रों और आनुवांशिकता के स्थान पर बौद्धिकता को स्थापित करने का प्रयत्न किया। अब प्रत्येक परम्परागत अधिकार को चुनौती दी जाने लगी, सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर कसा जाने लगा।

(7) 1848 की क्रान्ति के फलस्वरूप जन-समूह के युग का प्रारम्भ हुआ। राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक अन्यायों के विरुद्ध जनता ने किसी नेता की प्रतीक्षा किये बिना स्वयं आन्दोलन करना प्रारम्भ कर दिया। प्रो. टेलर के अनुसार 1848 में जिस युग का प्रारम्भ हुआ, वह जन युग था।"

1848 का वर्ष चमत्कारों का वर्ष

सन् 1848 ई.का वर्ष यूरोप के लिए चमत्कारों का वर्ष था। इस वर्ष यूरोप के लिये विभिन्न राज्यों में सत्रह क्रान्तियाँ हुई, जिनके फलस्वरूप यूरोप में ऐसे परिवर्तन हुए जिनकी संसार को कोई आशा नहीं थी। निम्नलिखित घटनाओं के आधार पर सन् 1848 ई. का वर्ष चमत्कारों का वर्ष कहा जा सकता है-

1. लुई फिलिप के शासन का अन्त-

लुई फिलिप फ्रांस का अत्यन्त शक्तिशाली सम्राट था और उसका सहयोगी गिजो अत्यन्त प्रभावशाली राजनीतिज्ञ था परन्तु 1848 की क्रान्ति के फलस्वरूप लुई फिलिप को सिंहासन त्यागकर इंग्लैण्ड भागना पड़ा। इसके पश्चात् फ्रांस में एक और आश्चर्यजनक घटना घटी। फ्रांस में राजतन्त्र की समाप्ति कर दी गई और द्वितीय गणतन्त्र की घोषणा की गई।

2. मेटरनिख का पतन-

आस्ट्रिया के चान्सलर मेटरनिख का समस्त यूरोप में दबदबा स्थापित था। सन् 1815 से 1848 ई. तक उसने आस्ट्रिया की राजनीति को ही नहीं अपितु समस्त यूरोपियन राजनीति को अत्यधिक प्रभावित किया था, परन्तु सन् 1848 ई. में आस्ट्रिया को राजधानी वियना में जो क्रान्ति हुई, उसके सम्मुख इस लौहपुरुष को भी नतमस्तक होना पड़ा। यह एक बड़ी आश्चर्यजनक घटना थी और मेटरनिख के पतन का सम्पूर्ण यूरोप पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा।

3. विभिन्न देशों में आश्चर्यजनक क्रान्तियाँ-

सन् 1848 ई. का वर्ष यूरोप के इतिहास में क्रान्ति का वर्ष था। सन् 1848 ई. में यूरोप के विभिन्न राज्यों में 17 क्रान्तियाँ हुई। इटली, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, बोहेमिया, स्विट्जरलैण्ड, हालैण्ड, इंग्लैण्ड आदि राज्यों में क्रान्ति की लहर दौड़ गई। इस प्रकार की आश्चर्यजनक घटना संसार में पहले कभी नहीं हुई थी।

4. पोप का रोमन से पलायन-

रोम का पोप पायस नवम् बहुत उदार था, परन्तु उसने आस्ट्रिया के विरुद्ध चलने वाले युद्ध के बीच में ही सेनाओं को बुलाकर राष्ट्रवादियों को नाराज कर दिया था। अतः क्रान्तिकारियों ने मेजिनी के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और पोप को रोम से भगाकर वहाँ गणतन्त्रीय सरकार स्थापित की। यह एक चमत्कारपूर्ण घटना थी, परन्तु कुछ समय पश्चात् जब लुई नेपोलियन फ्रांस में सत्तारूढ़ हुआ तो उसने पोप को गद्दी पर बिठाने के लिए फ्रांसीसी सेनाएँ भेजीं। यह बड़े आश्चर्य की बात थी कि फ्रांस की गणतन्त्रीय सरकार ने रोम में गणतन्त्र को नष्ट करने के लिए अपनी सेनाएँ भेजी और पोप के निरंकुश राज्य की पुनर्स्थापना में सहायता दी। लुई नेपोलियन के इस कार्य ने समस्त विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया, क्योंकि उदारवादियों को लुई नेपोलियन से इस तरह की बिल्कुल आशा नहीं थी।

5. नवीन उदारशासन की स्थापना-

सन् 1848 ई. तक समस्त यूरोप में प्रतिक्रियावाद और अनुदारवाद का बोलबाला था और निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी शासन के विरुद्ध विद्रोह करने का किसी को भी साहस नहीं होता था। परन्तु सन् 1848 ई. की क्रान्ति के फलस्वरूप राष्ट्रवादियों और उदारवादियों में चेतना की लहर आयी और साधन-हीन देशभक्तों ने आस्ट्रिया, इटली, जर्मनी, हालैण्ड, स्विट्जरलैण्ड में निरंकुश शासन की जड़ें उखाड़ फेंकी तथा उदार शासन की स्थापना की, परन्तु क्रान्तिकारियों की यह सफलता भी क्षणिक सिद्ध हुई। प्रतिक्रियावादी शक्तियों ने पुनः संगठित होकर क्रान्तिकारियों को पराजित कर दिया और वहाँ पुनः निरंकुश शासन स्थापित कर दिया।

अत: उपर्युक्त आधारों पर सन् 1848 ई. का वर्ष चमत्कारों का वर्ष कहा जा सकता है।

आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

Post a Comment

0 Comments