इतिहास-दर्शन का अर्थ
कालिंगवुड के अनुसार वाल्तेयर को इतिहास-दर्शन का जनक कहा जा सकता है। परन्तु प्रो. वाल्श ने इतिहास-दर्शन के अन्वेषण का श्रेय इटालियन दार्शनिक विको को दिया है। वाल्तेयर के इतिहास-दर्शन का अभिप्राय इतिहास का विश्लेषणात्मक अथवा वैज्ञानिक अध्ययन है। सभी दार्शनिक इस तथ्य से सहमत हैं कि भौतिक विज्ञान का दार्शनिक लक्ष्य प्रकृति के वैज्ञानिक ज्ञान के सम्बन्ध में कुछ नियमों का प्रतिपादन होता है। परन्तु इस प्रकार की अवधारणा इतिहास-दर्शन के विषय में नहीं है। इतिहास में विषय की गूढ़ता के कारण मतैक्यता का स्पष्ट अभाव दिखाई देता है।
इतिहास नेयार्थ
हैं। नेयार्थ का अर्थ है ऐसी अभ्यर्थना जो अपनी मूल्यवत्ता के कारण
नेय, वहनीय अथवा धारणीय होती
है। अभ्यर्थना से हमारा तात्पर्य अन्वेष्पार्थ से है। अन्वेष्य
स्वभावतः मूल्यवान होता है, परिणामत: नेय
भी है। नेयता अतीत और वर्तमान का भविष्य के लिए धारण करना है और अन्वेष्यता
भविष्य का वर्तमान में धारण है। ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं और यह सापेक्षता काल
के ऐतिहासिक होने के लिए अनिवार्य है। अतीत भविष्य के लिए और भविष्य अतीत में धारण
किये हुए बिना काल केवल प्रतिबिम्बित वर्तमान होता है। प्रतिबिम्बित
वर्तमान के अर्थ में कालिकता जीव-धर्म है जो उसे अजीव से पृथक् करता है, किन्तु अर्थानुपुष्ट
कालिकता मनुष्य की विशेषता है।
इतिहास-दर्शन की अवधारणा |
इस प्रकार कुछ
लोग इतिहास-दर्शन का अर्थ यों स्पष्ट करते हैं- "इतिहास यथार्थ है एवं
अन्वेष्यार्थ भी। नेयता एवं अनवेष्यता की अनिवार्यता एवं परस्पर सापेक्षता ही
इतिहास-दर्शन है,
यद्यपि कुछ लोग
इसे ऐतिहासिक विचारों से प्रादुर्भूत मानते हैं।"
वाल्तेयर के इतिहास-दर्शन का
अभिप्राय इतिहास का वैज्ञानिक अथवा विश्लेषणात्मक अध्ययन है। वाल्तेयर के
अनुसार इतिहास-दर्शन इतिहास-चिन्तन की एक विधि है, जिसमें इतिहासकार अतीत की
घटनाओं की पुनरावृत्ति की अपेक्षा स्वयं के विषय में चिन्तन करता है। कालिंगवुड
के अनुसार इतिहास-दर्शन अतीत और इतिहासकार के मस्तिष्क का पारस्परिक सामंजस्य है।
इतिहास-दर्शन से हीगेल
का अभिप्राय विश्व-इतिहास से है। काम्टे जैसे सापेक्षवादी वैज्ञानिक
इतिहासकारों का अभिप्राय अतीत की घटनाओं के माध्यम से इतिहास में सामान्य नियमों
का प्रतिपादन करना है। इन दार्शनिक इतिहासकारों को अवधारणा के अनुसार इतिहास-
दर्शन का उद्देश्य स्वयं का चिन्तन, विश्व इतिहास तथा इतिहास के सामान्य नियमों से है। इसे
इतिहास-दर्शन की संज्ञा दी जा सकती है।
कालिंगवुड ने स्पष्ट लिखा है कि
इतिहास-दर्शन के सम्बन्ध में उसका विचार अन्य दार्शनिकों से भिन्न है। उसके अनुसार
इतिहास-दर्शन अतीत और इतिहासकार के मस्तिष्क का पारस्परिक सामंजस्य है। अतीत के
परिवेश में इतिहासकार की मानसिक प्रक्रिया अथवा चिन्तन को इतिहास-दर्शन कहा जा
सकता है। अन्य शब्दों में, अतीतकालीन घटना
के सम्बन्ध में इतिहासकार की मानसिक गवेषणा तथा घटना के विषय में उसका निष्कर्ष
इतिहास-दर्शन होता है।
डॉ. झारखण्डे
चौबे का कथन है कि
"इतिहास संस्कृति या व्यक्ति द्वारा अपनी प्रतिभा के उत्कीर्णन की प्रक्रिया
की संज्ञा है। परिणामत: इतिहास-दर्शन इस उत्कीर्णन की प्रक्रिया को अपनी ओर
उन्मुक्त करना मात्र है। उत्कीर्णन नेयार्थ का आत्मान्वेषण अनिवार्यत:
आत्मनिरीक्षण को पूर्वकल्पित करता है। इस प्रकार इतिहास को इतिहास-दर्शन कहना उचित
प्रतीत होता है। इतिहास तथा इतिहास-दर्शन का परस्पर अभिन्न सम्बन्ध है।"
डॉ.
गोविन्दचन्द्र पाण्डेय के अनुसार, "इतिहास-दर्शन घटनाओं में एक घटना मात्र को देखता है जबकि
दर्शन इतिहास के प्रामाण्य अर्थ और वास्तविकता को निश्चित करने का दावा करता है।
इतिहास की प्रामाणिकता का प्रश्न नहीं उठता। उसके लिए महत्त्वपूर्ण प्रश्न
सामर्थ्य है। जो सफल होता है, उसी का इतिहास
होता है। इतिहास में ईसा मसीह का महत्त्व ईसाई धर्म की विजय से है। मार्क्स
का महत्त्व लेनिन और स्टालिन के कारण है। अन्यथा ईसा के नाम का पता नहीं होता और
मार्क्स का पता केवल सामाजिक विज्ञान तक ही सीमित रहता । परिणामस्वरूप
इतिहास-दर्शन का अभिप्राय अतीतकालीन घटना में निहित मानसिक प्रक्रिया अथवा विचार
को वर्तमान और भविष्य में प्रतिरोपित करना मात्र होता है।"
प्रो. वाल्श के अनुसार ज्ञान के
सिद्धान्त के रूप में इतिहास-दर्शन एक प्रकार का ज्ञान है। इतिहास-दार्शनिकों का
प्रमुख कार्य वैज्ञानिक विश्लेषण के माध्यम से ऐतिहासिक घटना को बोधगम्य बनाना है।
सिद्धान्त की मान्यता यह है कि ऐतिहासिक ज्ञान की प्रक्रिया प्रामाणिक उपादानों की
प्रक्रिया है। वह कल्पनामात्र न होकर निश्चित प्रमाणानुसन्धान है, उसका सार अनुभवमूलक सम्भावना
है और अन्तर्दृष्टि परख या विवेक बुद्धि के द्वारा निर्णयन है। इतिहास- ज्ञान न
विशेष विषयक प्रत्यक्ष है और न सामान्य विषयक अनुमान, उसे विशेष विषयक निर्णय
कहा जा सकता है।
कालिंगवुड ने इस तर्क को स्वीकार
किया है कि इतिहास को मानसिक प्रक्रिया स्वीकार करने का यह तात्पर्य नहीं है कि
इतिहास मनोविज्ञान है। ऐतिहासिक ज्ञान एक चिन्तन की प्रक्रिया है। दार्शनिक
ज्ञान पर आधारित प्रक्रिया का अध्ययन करता है। इतिहास विचार की एक प्रमुख शाखा है।
ऐतिहासिक ज्ञान की अपनी विशेषताएँ होती हैं। प्रकृति-विज्ञान तथा धर्मशास्त्र की
भाँति इतिहास में विचार प्रधान होता है। इसलिए कालिंगवुड ने सभी इतिहास को विचार
का इतिहास माना है।
डॉ.
गोविन्दचन्द्र पाण्डेय के अनुसार "ऐतिहासिक ज्ञान के दो स्तर होते हैं-
तथ्यात्मक तथा सत्यात्मक। तथ्य से तात्पर्य किसी वास्तविक घटना के अभिधायक वाक्य
के अर्थ से है। सत्य से अभिप्राय मूल्य सहित अर्थ अथवा मानवीय सार्थकता से है।
तथ्य का निर्णय प्रमाणमूलक उपादान से है।" दार्शनिक के लिए इतिहास और दर्शन
का सम्बन्ध एक समस्या के रूप में होता है और यह समस्या इतिहास के क्षेत्र में न
होकर दर्शन के क्षेत्र में हुआ करती है।
इतिहास को यथार्थ
के बढ़ते हुए आत्मप्रकाश के रूप में समझा गया है और इस अर्थ में दर्शन से
अभिन्न माना गया है। आत्माभिव्यक्ति के रूप में इतिहास समाज की एक अभिव्यक्ति है।
इसे सम्पूर्ण मानवता की अभिव्यक्ति समझ लेना एक भारी भूल है, क्योंकि मानवता का एक
समाज नहीं होता है। काल, भौगोलिक
परिस्थितियों के कारण समाज के स्वरूप में विभिन्नता का होना अनिवार्य है। प्रत्येक
युग, स्थान तथा समाज विशेष की
अभिव्यक्ति दर्शानिक करते हैं। इसलिए कालिंगवुड ने इतिहास-दर्शन को मूल्य
सम्पृक्त स्वीकार किया है।
परिवर्तित समाज
के इतिहासकार तथा दार्शनिक समसामयिक दृष्टिकोण से ऐतिहासिक तथ्यों को समसामयिक
सामाजिक मूल्यों के अनुसार देखते हैं। टी.एम. नाक्स का कथन है कि 'इतिहास की गतिशीलता के
साथ इतिहास-दर्शन का स्वरूप भी निरन्तर परिवर्तनशील होता है।" डॉ.
गोविन्दचन्द्र पाण्डेय के अनुसार, "इतिहास-दर्शन अनिवार्यतः चेतना की इतिहास रूपी प्रक्रिया की
एक अवस्था है। इतिहास में अतीत अनुचिन्तन है। इस प्रकार इतिहास-दर्शन किसी विशेष
समाज अथवा ऐतिहासिक युग के चित्त की क्रियात्मक छवि होता है।"
समयानुसार इतिहास
निरन्तर बदलता रहता है। इसलिए इतिहास-दर्शन को भी बदलना होगा। सभी पदार्थों का
इतिहास होता है। इसलिए दर्शन का इतिहास भी होता है। इतिहास और दर्शन के तादात्म्य
का कारण बताते हुए क्रोचे ने लिखा है कि दार्शनिक के प्रकथन, लक्षण या संस्थान का
आविर्भाव एक निश्चित व्यक्ति के मन में देशकाल के एक निश्चित बिन्दु पर और निश्चित
परिस्थितियों के अधीन है। प्रकृति ऐतिहासिक है, क्योंकि प्रकृति विज्ञान ऐतिहासिक परिस्थितियों के अधीन है।
इस प्रकार दर्शन भी ऐतिहासिक है. क्योंकि दार्शनिक चिन्तन ऐतिहासिक परिस्थितियों
के अधीन है।
कालिंगवुड ने लिखा है कि “विधियुक्त ऐतिहासिक शोध
के माध्यम से किसी समस्या के अध्ययन को इतिहास-दर्शन की संज्ञा दी जा सकती है।
ऐतिहासिक गवेषणा इतिहास-दर्शन का मूल तत्त्व है। दर्शन का अभिप्राय सार्वभौमिक
सत्य का अन्वेषण है। इतिहास-दर्शन ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का अन्वेषण करता
है।" प्रत्येक युग का दार्शनिक इतिहासकार सामाजिक मूल्यों के सन्दर्भ में
उन्हीं तथ्यों को प्रकाश में लाता है जो समाज के लिए कल्याणकारी सिद्ध हो सकें।
परिणामस्वरूप इतिहास-दर्शन में सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का
अन्वेषण होता है। इसका प्रमुख उद्देश्य तथ्य एवं सत्य का यथार्थ निरूपण है।
कालिंगवुड ने एक अन्यत्र स्थान पर
लिखा है कि "इतिहास-दर्शन ऐतिहासिक घटनाओं का चिन्तनमात्र नहीं है और न यह
भविष्य की घटनाओं को बतलाने के लिए ऐतिहासिक सामान्यीकरण करने का प्रयास है।
इतिहास-दर्शन ऐतिहासिक चिन्तन है और ऐतिहासिक ज्ञान की व्याख्या करने का एक प्रयास
है।"
कालिंगवुड ने इतिहास-दर्शन को
मूल्य सम्पृक्त स्वीकार किया है। उसने लिखा है कि प्रत्येक दार्शनिक का अपना दर्शन
होता है। वह आत्माभिव्यक्ति के रूप में समाज की अभिव्यक्ति इतिहास के रूप में करता
है। उनके इतिहास-दर्शन का सम्बन्ध न तो अपने आप में अतीत से होता है और न ही अपने
अतीत के विषय से इतिहासकार के विचारों से, बल्कि उसका सम्बन्ध इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों से
होता है। ऐतिहासिक गवेषणा दर्शन-इतिहास का मूल तत्त्व है। इसे ज्ञान पर आधारित एक
विशेष प्रकार की गवेषणा भी कहा जा सकता है। इसका प्रमुख उद्देश्य तथ्य एवं सत्य का
यथार्थ निरूपण है। कालिंगवुड के अनुसार प्रत्येक दार्शनिक अपने ढंग से काल
और परिस्थितियों के सन्दर्भ में घटना-विशेष पर चिन्तन करता है तथा समाधान ढूँढता
है। टी.एम. नाक्स के अनुसार दर्शन को समसामयिक विज्ञान, इतिहास, मनोविज्ञान तथा शरीर
विज्ञान का अध्ययन माना जा सकता है।
रिकर्ट, डिल्थे, क्रोचे तथा बोसांके ने
स्वीकार किया है कि इतिहास एक ज्ञान है तो इसका स्वरूप दार्शनिक होना चाहिए। इतिहास-दर्शन
की अपनी उपादेयता है। इतिहास हमें स्वयं को समझने में सहायता प्रदान करता है।
ऐतिहासिक अध्ययन वस्तुतः आत्म-गवेषणा की प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक
आत्मबोध से मनुष्य अपने वर्तमानकालिक जीवन को सुचारु रूप से नियन्त्रित कर सकता
है। वर्तमान अतीत से सर्वथा भिन्न नहीं है, क्योंकि अतीत का भार जाने अथवा अनजाने में सदैव हमारे साथ
रहता है। इतिहास-दर्शन एक आत्मशासित शिक्षण है जिसकी ज्ञानमीमांसीय समस्याएँ हैं।
उपर्युक्त विवेचन
से यह स्पष्ट होता है कि अनेक विद्वानों ने अपने-अपने समय में देश, काल और परिस्थितियों को
ध्यान में रखते हुए इतिहास-दर्शन की जो भी परिभाषाएँ दी हैं, वे उनके समयों में तो
मान्य रहीं, परन्तु बाद में ज्ञान के
विकास के साथ ही विद्वानों ने उनको मानने से इनकार कर दिया और अपनी एक नई परिभाषा
हमें दी। यही क्रम आज तक चला आ रहा है। किन्तु इतिहास-दर्शन की कोई सर्वमान्य
परिभाषा आज तक प्राप्त नहीं हो पाई है।
प्रो. वाल्श ने उचित ही लिखा है कि
इतिहास-दर्शन हमारी बुद्धि की उपज है और वह एक प्रकार का ज्ञान है, तो कोई अत्युक्ति न
होगी।शेक अली के अनुसार इतिहास-दर्शन मानवीय आत्मा के सन्तुष्टिकरण का प्रयास है।
वह हमारे आनन्दमय तथा सुखमय जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है।
इतिहास-दर्शन का उद्देश्य
सामान्य अर्थ में
हम कह सकते हैं कि इतिहास-दर्शन का उद्देश्य यही है कि हम सब इतिहास विषय का
आधुनिक तार्किक और वैज्ञानिक विधि से अध्ययन कर सकें और उसमें गूढ
तत्त्वों को ढूंढने का प्रयास कर सकें। इसीलिए इतिहास-दर्शन में अन्वेषण, गवेषणा आदि को विशेष
महत्त्व दिया जाता है। परन्तु यह उद्देश्य समय-विशेष में बदला हुआ मिलता है, सदैव समान ही नहीं
प्राप्त होता है। इसे कुछ विद्वानों के कथनों से भी समझाया जा सकता है।
सापेक्षवादी
वैज्ञानिक इतिहासकारों के अनुसार इतिहास-दर्शन का उद्देश्य था-स्वयं का चिन्तन, विश्व-इतिहास का ज्ञान
तथा इतिहास के सामान्य नियमों का परिचय करना-कराना। कालिंगवुड कहते हैं कि काम्टे
जैसे सापेक्षवादी दार्शनिक वैज्ञानिक इतिहासकारों की अवधारणा के अनुसार
इतिहास-दर्शन का उद्देश्य सर्वथा उक्त जैसा ही है। प्रत्यक्षवादी इसका उद्देश्य
इतिहास का सम्पूर्ण अध्ययन मानते हैं। इतिहास के उद्देश्य के विषय में हर्डर
कहता है कि पूर्णता की स्थिति प्राप्त करनी है जहाँ मानव स्वस्थ सम्पन है। हीगल
के अनुसार इतिहास-दर्शन का लक्ष्य राष्ट्र के विकास क्रम की गवेषणा करना है।
इतिहास-दर्शन की
अपनी उपादेयता होती है। यह एक आत्मशासित शिक्षण है। जिसकी अपनी ज्ञानमीमांसीय
समस्याएँ हैं। मानवीय क्रियाओं में अन्तर्निहित विचारों को प्रतिबिम्बित करना ही
इतिहास-दर्शन का उद्देश्य है। इसका मुख्य उद्देश्य तथ्य एवं सत्य का निरूपण है
जिससे मानव-कल्याण हो सके।
इसकी दो प्रमुख
विशेषताएँ होती हैं- सम्पूर्ण मानवीय क्रिया-कल्पना तथा वर्तमान में उसकी
पुनर्रचना। प्रथम भाग का सम्बन्ध घटना की वास्तविकता से है तथा दूसरे का सम्बन्ध
उस घटना के विषय में वैज्ञानिक चिन्तन होता है। प्रो. ब्राड ने लिखा है कि
प्रथम परिकल्पनात्मक है तथा दूसरा विश्लेषणात्मक। दोनों साधनों का लक्ष्य
इतिहास-दर्शन के माध्यम से सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का प्रस्तुतीकरण है। इन्हीं दोनों विशेषताओं को हम
इतिहास-दर्शन के स्वरूप एवं प्रकार निर्धारण में प्रयोग में लाते हैं।
आशा हैं कि हमारे
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