क्रीमिया युद्ध से पूर्व टर्की की
स्थिति
सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक टर्की का साम्राज्य बहुत शक्तिशाली बना रहा। यह साम्राज्य तीनों महाद्वीपों- एशिया, यूरोप एवं अफ्रीका में फैला हुआ था, परन्तु 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में इस साम्राज्य का पतन होने लगा। 1804 में सर्बिया के देशभक्तों ने टर्की के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और 1830 में टर्की के सुल्तान को सर्बिया के आन्तरिक मामलों में स्वतन्त्रता प्रदान करनी पड़ी। इस प्रकार यूनानियों ने टर्की साम्राज्य से स्वतन्त्र होने के लिए 1831 में विद्रोह कर दिया। अन्त में 1820 की एड्रवानोपल की संधि के अनुसार यूनान की स्वतन्त्रता स्वीकार कर ली गई।
जब 1831 में मिस्र
के शासक मेहमत अली ने टर्की के सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तो
टर्की के सुल्तान ने योरोपीय राज्यों से सहायता माँगी, किन्तु रूस को
छोड़कर अन्य कोई राज्य सहायता के लिए तैयार नहीं था। अतः सुल्तान को विवश होकर रूस
की सहायता स्वीकार करनी पड़ी। इस सैनिक सहायता के बदले में 1833 में टर्की को रूस
के साथ अंकियार स्केलेसी की संधि करनी पड़ी, उसके अनुसार रूस के युद्धपोतों को बिना किसी रोक-टोक के डर्डीनजली
जलडमरू मध्यों में आने-जाने की सुविधा दी गई, परन्तु युद्ध के समय ये जलडमरू मध्य अन्य राज्यों के
युद्धपोतों के लिए बन्द रखने का निश्चय किया गया, परन्तु इंग्लैण्ड ने अंकियार स्केलेसी की संधि का
विरोध किया।
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क्रीमिया युद्ध कारण तथा परिणाम |
1840 में लन्दन
में रूस, आस्ट्रिया, प्रशा और इंग्लैण्ड ने एक
संधि की, जिसके अनुसार मेहमत अली
को मिस्र का आनुवांशिक पाशा स्वीकार कर लिया गया। 1841 में लन्दन
में दूसरी सन्धि की गई जिसमें इंग्लैण्ड, रूस, आस्ट्रिया, प्रशा और फ्रांस सम्मिलित
थे। इसके अनुसार यह निर्णय किया गया कि डार्डिनजली और बासफोरस में
किसी राज्य के युद्धपोत प्रवेश नहीं कर सकेंगे।
1841 से 1852 तक टर्की
साम्राज्य में शांति बनी रहीं और टर्की के सुल्तान को अपने साम्राज्य की दशा
सुधारने का पर्याप्त अवसर मिला, परन्तु रूढ़िवादी
मौलवियों और उलेमाओं के कारण सुधारवादी योजनाएँ सफल नहीं हो सकी और शासनतन्त्र
शिथिल और भ्रष्टाचारपूर्ण बना रहा, अत: टर्की साम्राज्य में रहने वाले ईसाईयों में तीव असन्तोष
बना रहा। 1854 में पूर्वी समस्या से सम्बन्धित क्रीमिया युद्ध शुरू हो गया।
क्रीमिया युद्ध के कारण
1854 ई. मे पेलेस्टाईन
के पवित्र स्थानों के सम्बन्ध को लेकर क्रीमिया युद्ध हुआ। झगड़े का कारण
यह था कि टर्की के सुल्तान ने इन पवित्र स्थानों की सुरक्षा का दायित्व लैटिन
मान्कस को दे दिया था और 1740 तक ये स्थान उन्हीं के संरक्षण में रहे। लेकिन
कालान्तर में उन्होंने इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया, इसलिए इन पवित्र स्थानों के संरक्षण का दायित्व लैटिन
मान्कस के हाथों से निकलकर ग्रीक मान्कस के हाथों में चला गया। यह मामूली
झगड़ा था जिसे बातचीत के द्वारा सुलझाया जा सकता था लेकिन यह साधारण झगड़ा ही
अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ा बन गया। युद्ध के कारण इस युद्ध की पृष्ठभूमि में अनेक
देशों के परस्पर विरोधी हित कार्य कर रहे थे। महारानी विक्टोरिया ने इस युद्ध का
कारण जार सम्राट निकोलस प्रथम की स्वार्थपरता बतलाया था। किंग्सले महोदय ने इसका
कारण नेपोलियन तृतीय की महत्त्वाकांक्षा बतलाया। इन दोनों मतों में आशिंक
सत्यता है परन्तु फिर भी इनमें से किसी एक को अथवा दोनों को उत्तरदायी नहीं ठहराया
जा सकता है।
क्रीमिया युद्ध
के सम्बन्ध में विभिन्न राष्ट्रों का दृष्टिकोण निम्न था-
1. रूस का दृष्टिकोण-
(i) रूस भी युद्ध
चहता था। वह पीटर महान् के समय से ही ग्रीक कैथोलिकों के संरक्षण का भार चाहता था।
(ii) रूस बास्फोरस एवं डार्डेनेलीज
पर अधिकार प्राप्त करना चाहता था। रूकेलेसी की सन्धि के अनुसार उसने यह
अधिकार प्राप्त भी कर लिये परन्तु 1841 की लन्दन सन्धि के अनुसार रूस को उक्त
सुविधाओं से वंचित कर दिया गया।
(ii) रूस, तुर्की साम्राज्य का
विघटन चाहता था। रूस ने ब्रिटेन को यह भी आश्वासन दिया कि उसे काले सागर में जो भी
अधिकार प्राप्त होंगे उसके बदले में वह ब्रिटेन को मिस्र तथा तुर्की में
अधिकार देने को तैयार है।
2. पवित्र
तीर्थस्थानों की समस्या-
तुर्की साम्राज्य के अन्तर्गत फिलीस्तीन
में स्थित जेरूसलम के पवित्र तीर्थस्थानों में शताब्दियों से यूनानी
संन्यासी और कैथोलिक संन्यासी रहते थे। तुर्की के प्रसिद्ध सम्राट सुलेमान
ने पवित्र तीर्थस्थानों के स्रक्षण एवं देखभाल का काम कैथोलिक संन्यासियों को
सौंपा गया था और फ्रांस को रोमन ईसाईयों का संरक्षक मान लिया गया था, परन्तु 1789 के पश्चात्
फ्रांस ने पवित्र स्थानों के मामलों में रुचि लेना बन्द कर दिया और कैथोलिक
संन्यासी भी अपने कर्तव्यों की अवहेलना करने लगे, परिणामस्वरूप पवित्र स्थानों पर यूनानी संन्यासियों का अधिकार
हो गया। रूस यूनानी संन्यासियों का संरक्षक माना जाता था।
1850 में फ्रांस
राष्ट्रपति लुई नेपोलियन ने अनुरोध किया कि फ्रांस को रोमन निवासियों का
संरक्षक माना जाए,
परन्तु रूस
ने इसका घोर विरोध किया और यूनानी संन्यासियों के अधिकारों को यथावत बनाये रखने के
लिए टर्की के सुल्तान पर दबाव डाला। जब टर्की सुल्लान ने फ्रांस की माँग
स्वीकार कर ली तो रूस बड़ा नाराज हुआ। मार्च, 1853 में जार निकोलस ने प्रिन्स मेनशिका नामक
दूत को टर्की भेजा। उसने टर्की सुल्तान से मांग की कि टर्की साम्राज्य के समस्त
यूनानी चर्च के मानने वाले ईसाईयों पर रूस का संरक्षण स्वीकार किया जाए, परन्तु टकी के सुल्तान ने
रूस की माँग को मानने से इन्कार कर दिया जिससे रूस और टर्की के बीच
शत्रुता बढ़ती चली गई।
3. फ्रांस का रूस विरोध दृष्टिकोण-
(i) 1840 की लन्दन सन्धि के
समय जो फ्रांस का अपमान हुआ था वह उसका बदला लेना चहता था।
(ii) नेपोलियन तृतीय
सिंहासन कैथोलिकों एवं सैनिकों के समर्थन पर आधारित था। अत: वह इन दोनों को
सन्तुष्ट करना चाहता था।
(ii) नेपोलियन तृतीय का किसी
वीरता के काम से फ्रांसीसी जनता को चकाचौंध कर देना चाहता था।
(iv) नेपोलियन ने कैथोलिकों की
सहानुभूति प्राप्त करने के लिए पैलेस्टाइन के येरुशलम के पवित्र स्थानों को
फ्रांस के संरक्षण में घोषित किया। परन्तु 1774 की सन्धि के अनुसार रूस इन पवित्र
स्थानों को अपने संरक्षण में मानता था।
4. इंग्लैण्ड का दृष्टिकोण-
(i) इग्लैण्ड यह
नहीं चाहता था कि पूर्वी समस्या का हल किसी एक देश के हाथ हो उसकी यह इच्छा थी कि
इस समस्या का समाधान यूरोप के प्रमुख देशों द्वारा हो।
(ii) इंग्लैण्ड, तुर्की साम्राज्य का
विघटन नहीं चाहता था। अत: वह प्रत्येक आवश्यकता के समय तुर्की की सहायता
करता था।
(iii) इस युद्ध का बहुत कुछ उत्तरदायित्व
ब्रिटेन के कुस्तुन्तुनिया में स्थित राजदूत लार्ड स्ट्रैफर्ड डी. रेडक्लिफ
पर भी है। वह व्यकिगत रूप से रूस के सम्राट का विरोधी था।
5. तुर्कों में उग्र
राष्ट्रीयता-
प्रो. अगाथा रेम के अनुसार क्रीमिया युद्ध
का मूल कारण यह था कि उस समय तुर्की में राष्ट्रीयता की भावना ने उग्र रूप
धारण कर लिया। तुर्की के राष्ट्रवादी सैनिक अधिकारियों की दृष्टि में रूस की
माँगें न केवल अपमानजनक थी वरन् तुर्की के साम्राज्य की सुदृढ़ता के लिए घातक भी
थी। अत: वे इन मांगों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे और रूस का
सशस्त्र विरोध करने को तैयार थे।
6. तुर्की साम्राज्य
में रूसी सेनाओं का प्रवेश-
जब टर्की
के सुल्तान नें रूस की माँगों को अस्वीकृत कर दिया तो रूस बड़ा क्रोधित
हुआ। 21 जुलाई,
1853 को रूसी
सेनाओं की सैनिक कार्यवाही से स्थिति अत्यन्त जटिल हो गई। इंग्लैण्ड और फ्रांस ने
रूस की आक्रामक नीति का घोर विरोध किया और ऐसी कार्यवाही का विरोध करने के लिए
परस्पर विचार-विमर्श करना शुरू कर दिया।
7. वियना नोट-
जुलाई, 1853 में इंग्लैण्ड, फ्रांस, आस्ट्रिया और प्रशा ने
रूस और टर्की के विचार को हल करने के लिए वियना में एक सम्मेलन किया। चारों
राज्यों के प्रतिनिधियों ने मिलकर एक नोट तैयार किया जिसे 'वियना नोट' कहते हैं। इस नोट के
अनुसार यह कहा गया था कि, “पवित्र स्थानों
का संरक्षण आवश्यक है।" यह संरक्षण किसके द्वारा होगा, यह स्पष्ट नहीं था। रूस
के सम्राट निकोलस ने समझा कि यह संरक्षण रूस करेगा। टर्की के
सुल्तान ने समझा कि संरक्षण का कार्य तुर्की करेगा। रूस ने इस नोट को
स्वीकार कर लिया,
परन्तु ब्रिटिश
राजदूत रेडक्लिफ के प्रोत्साहन से टर्की के सुल्तान ने नोट को अस्वीकार कर
दिया। इससे रूस और टर्की का विवाद बढ़ता ही गया।
टर्की द्वारा युद्ध घोषणा
5 अक्टूबर, 1853 को टर्की ने
रूस से यह माँग की कि वह वालेशिया तथा मोल्डेविया के प्रदेशों को 12
दिन के अन्दर खाली कर दें, परन्तु रूस
ने टर्की की माँग को अस्वीकार कर दिया। ब्रिटिश राजदूत रेडक्लिफ के
प्रोत्साहन पर 23 अक्टूबर, 1853 को टर्की ने
रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
साइनोप का
हत्याकाण्ड-
जब तुर्की
ने डेन्यूब नदी पर रूसी जहाजी बेड़े पर आक्रमण कर दिया तो रूस के जहाजी बेड़े ने
साइनोप की खाड़ी में स्थित तुर्की के जहाजी बेड़े को नष्ट कर दिया और तुर्कों का
नरसंहार किया,
इस घटना को साइनोप
का हत्याकाण्ड कहा गया है। इस घटना के पश्चात् इंग्लैण्ड और फ्रांस ने रूस का
विरोध करने का निश्चय कर लिया।
4 जनवरी, 1854 को इंग्लैण्ड
तथा फ्रांस के जहाजी बेड़े काले सागर में प्रविष्ट हुए। उन्होंने रूस को
चेतावनी दी कि यदि उसने अपनी सेनाएँ वालेशिया तथा मोल्डेनिया से नहीं हटायी तो वे
भी युद्ध में कूद पड़ेंगे। जब रूस ने इस चेतावनी को अस्वीकार कर दिया तो 28 मार्च, 1854 को इंग्लैण्ड और
फ्रांस ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। अब एक ओर तो इंग्लैण्ड, फ्रांस और टर्की और दूसरी
ओर अकेला रूस।
युद्ध की घटनाएँ-
मार्च, 1854 के अन्त में रूसी
सेनाओं ने डेन्यूब नदी को पार करके सिलिस्ट्रिया पर घेरा डाला किन्तु
तुर्कों के प्रबल विरोध के कारण उसे अधिक सफलता नहीं मिली। इंग्लैण्ड तथा फ्रांस
के दबाव डालने पर रूस ने मोल्डेविया तथा वालेशिया के प्रदेश खाली कर दिए परन्तु मित्र
राष्ट्र इससे सन्तुष्ट नहीं हुए। वे रूस को नीचा दिखाना चाहते थे। जुलाई, 1854 में मित्र राष्ट्रों
ने युद्ध को समाप्त करने के लिए चार मांगें रखीं, परन्तु रूस ने इन्हें अस्वीकृत कर दिया। अतः 14
सितम्बर, 1854 को मित्र राष्ट्र की
सेनाएँ लार्ड रगनल तथा सेण्ट. अर्नोय के अधीन आगे बढ़ीं। एल्मा और बेल्कालावा के
युद्धों में मित्र राष्ट्रों की विजय हुई। 5 नवम्बर, 1854 को रूसी सेनाओं ने इन्करमैन पर आक्रमण करके
मित्र राष्ट्रों के घेरे को तोड़ना चाहा, परन्तु सफल नहीं हो सके।
मार्च, 1855 में रूसी सम्राट
निकोलस की मृत्यु हो गई, परन्तु रूसी
सेनाओं ने युद्ध जारी रखा। मित्र राष्ट्रों ने शीघ्र ही मालाकाफ पर अधिकार
कर लिया जिससे सेवास्टपोल की रक्षा करना असम्भव हो गया। अतः 9 सितम्बर, 1855 को रूसियों ने अपने
गोलाबारूद के भण्डारों में आग लगा दी और वास्टपोल के दुर्ग को छोड़कर पीछे हट गये।
इस प्रकार 349 दिन के घेरे के बाद मित्र राष्ट्रों ने सेवास्टपोल पर अधिकार कर
लिया। अन्त में रूसी मित्र राष्ट्रों से संधि के लिए तैयार हो गया।
पेरिस की सन्धि-
25 फरवरी, 1856 को इंग्लैण्ड, फ्रांस, रूस, आस्ट्रिया, टर्की और सार्जीनिया के
प्रतिनिधि संधि की शतों पर विचार करने के लिए पेरिस में एकत्रित हुए। 30
मार्च, 1856 को सभी देशों ने
संधि पर हस्ताक्षर कर दिये।
संधि की प्रमुख धाराएँ-
(1) तुर्की
यूरोप की संयुक्त व्यवस्था में सम्मिलित कर लिया गया एवं सभी राज्यों ने उसकी
स्वतन्त्रता एवं प्रादेशिक अखण्डता को सुरक्षित रखने का वचन दिया।
(2) तुर्की के
सुल्तान ने वचन दिया कि वह ईसाई प्रजा के साथ उदारता का व्यवहार करेगा तथा
उनकी दशा सुधारने का प्रयास करेगा।
(3) काले सागर
का तटस्थीकरण कर दिया। सभी राज्यों के व्यापारी जहाजों को काले सागर में आने जाने
का अधिकार दिया गया, किन्तु किसी भी
राष्ट्र के युद्धपोतों को काले सागर में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। काले सागर के
तट पर रूस अथवा तुर्की किसी को भी शस्त्रागार स्थापित करने की मनाही करदी गयी।
(4) मोल्डेविया
तथा वालेशिया पर रूस का संरक्षण समाप्त हो गया। दक्षिणी बेसराबिया का भाग
रूस से लेकर मोल्डेविया में सम्मिलित कर दिया। इन दोनों प्रदेशों पर तुर्की की
प्रभुता बनी रही,
किन्तु सभी
राज्यों ने उनके विशेषाधिकारों की गारन्टी दी।
(5) योरोपीय
राज्यों ने सर्बिया की स्वतन्त्रता की गारंटी दी।
(6) कार्स
का प्रदेश टर्की को लौटा दिया गया।
(7) क्रीमिया
रूस को लौटा दिया गया।
(8) डेन्यूब
नदी में सभी राज्यों को समान रूप से व्यवहार करने का अधिकार दिया गया।
उपसंधियाँ-
(1) 6 यूरोपीय
राज्यों तुर्कों के बीच एक उपसंधि द्वारा यह तय किया गया था कि डार्डनेजील
तथा बास्फोरस के जलडमरू मध्य में किसी भी राज्य के युद्धपोत उस समय तक
प्रवेश नहीं कर सकेंगे तब तक कि तुर्की युद्ध में संलग्न न हो जाये
(2) दूसरी उपसंधि तुर्की और रूस
के बीच हुई जिसमें दोनों राज्यों ने काले सागर में अपने तटों की रक्षा के लिए
आवश्य 5 छोटे जंगी जहाजों की संख्या निर्धारित की।
(3) तीसरी उपसंधि
इंग्लैण्ड और रूस के बीच हुई और उसका सम्बन्ध बाल्टिक सागर में
स्थित आलैण्ड द्वीपों से था।
पेरिस का
घोषणा-पत्र-
पेरिस सम्मेलन में भाग लेने वाले
राष्ट्रों ने पेरिस के घोषणा पत्र को भी -वीकार किया और पेरिस की संधि परिशिष्ट के
रूप में जोड़ा गया। इस घोषणा द्वारा समुद्रों में शत्रुपोत लुण्डन बन्द कर दिया
गया। इसके साथ ही समुद्री युद्ध के समय तटस्थ राज्यों के अधिकारों के विषय में कुछ
स्थायी नियम स्वीकार किये गये। एक तटस्थ जहाज पर लदा हुआ शत्रु देश का माल उस समय
तक जब्त नहीं किया जा सकता जब तक कि वह 'युद्ध के लिए निषिद्ध माल' की श्रेणी में आता हो।
शत्रु राज्य के जहाजों पर लदे हुए तटस्थ राष्ट्र के सामान को जब्त नहीं किया जा
सकता था, अवरोध उसी समय लाये जा
सकते थे, जबकि उसको कार्यान्वित
करने के लिए पर्याप्त नाविक शक्ति हो।
क्रीमिया युद्ध के परिणाम
क्रीमिया युद्ध यूरोप के इतिहास की
महत्त्वपूर्ण घटना है। डेविड टामसन के अनुसार, "आधुनिक यूरोप के
विकास में क्रीमिया का युद्ध एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है।" लार्ड
क्रोमर का कथन है, "यदि
क्रीमिया का युद्ध न होता और उसके बाद लार्ड बीकन्स फील्ड उस नीति का
अनुसरण नहीं करते तो बाल्कन राज्य कभी भी स्वतन्त्र नहीं हो सकते थे और
कुस्तुन्तुनिया पर रूस का अधिकार हो जाता।"
केटलबी का कथन है, "क्रीमियन युद्ध ने रूस की
शक्ति पर रोक लगा दी तथा अपमान किया। इसने टर्की को कुछ समय के लिए बड़ी शक्तियों
की संयुक्त संरक्षणता में नया जीवन दिया। नेपोलियन तृतीय की बहुत प्रसिद्धि हुई।
इंग्लैण्ड पर राष्ट्रीय ऋण बहुत बढ़ गया और आस्ट्रिया को आने वाले समय के लिए एक
शत्रु (रूस) मिला। इस युद्ध के अप्रत्यक्ष परिणाम तो और भी अधिक थे। क्रीमिया के
कीचड़ से नये इटली का निर्माण हुआ तथा नये जर्मनी का भी उदय हुआ।
रूस का पुनर्गठन हुआ तथा रूसी विस्तार को नई दिशा मिली। यूरोप में उसके विस्तार पर
रूकावट लगने से उसने एशिया की ओर विस्तार करना शुरू कर दिया। बाल्कन पुनर्गठन की
ओर नया आन्दोलन चला। यूरोप की नई जिम्मेदारियों को संभालना पड़ा। वियना के
स्थान पर जिस भव्य भवन का निर्माण किया गया, उसकी नींव हिल गई।"
क्रीमिया युद्ध
के निम्नलिखित परिणाम हुए-
1. धन-जन की अपार
हानि-
यह युद्ध बड़ा विनाशकारी
सिद्ध हुआ। युद्ध में दोनों के लगभग 5 लाख सैनिक मारे गये । इसके अतिरिक्त युद्ध
में भाग लेने वाले अनेक राज्यों की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा।
तुर्की की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई और उसका राष्ट्रीय कर्ज बढ़ता चला गया।
इंग्लैण्ड पर राष्ट्रीय ऋण लगभग 420 लाख पौण्ड बढ़ गया।
2. तुर्की पर
प्रभाव-
तुर्की के साम्राज्य को इस
युद्ध के कारण नवजीवन मिला। यूरोपीय राज्यों ने उसकी स्वतन्त्रता एवं प्रादेशिक
अखण्डता को सुरक्षित रखने की गारण्टी दी। कुछ समय के लिए टर्की का विघटन
रुक गया।
3. रूस पर प्रभाव-
क्रीमिया के युद्ध में पराजित
होने के कारण रूस को अनेक अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपमानित होना पड़ा। उसे
तुर्की साम्राज्य में प्राप्त अनेक विशेषाधिकारों से वंचित होना पड़ा। काले सागर
को तटस्थ बना दिये जाने से उसकी शक्ति को प्रबल आघात पहुंचा। इसके अतिरिक्त रूस की
आन्तरिक और विदेश नीति में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस युद्ध के दौरान
आस्ट्रिया ने रूस के साथ जो शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया उससे रूस और आस्ट्रिया की
मैत्री भी समाप्त हो गई। इसके पश्चात् रूस ने कई वर्षों तक यूरोप की राजनीति में
सक्रिय भाग नहीं लिया। क्रीमिया के युद्ध की हार ने रूस के निरंकुश
शासनतन्त्र की दुर्बलता और अयोग्यता प्रकट कर दी। अत: रूस में चारों ओर
सुधारों की माँग होने लगी। फलतः जार एलेक्जेण्डर द्वितीय को शासन में अनेक
सुधार करने पड़े।
4. इंग्लैण्ड पर
प्रभाव-
इस युद्ध में इंग्लैण्ड
के 32 हजार सैनिक मारे गये, 8 करोड़ पौण्ड
खर्च हुए, परन्तु इसके बदले में न
तो एक इंच भूमि मिली और न युद्ध के हर्जाने के रूप में एक पैसा मिला, परन्तु इंग्लैण्ड ने जिस
उद्देश्य से यह युद्ध प्रारम्भ किया था, वह पूरा हो गया। उसके कारण तुर्की साम्राज्य की स्वतन्त्रता
और अखण्डता की रक्षा हो गई तथा तुर्की में रूस की बढ़ती हुई महत्त्वाकांक्षा पर
अंकुश लग गया।
ब्रिटेन की आन्तरिक नीति पर भी
क्रीमिया युद्ध का प्रभाव पड़ा। युद्ध का खर्च पूरा करने के लिए अतिरिक्त कर लगाये
गये और राष्ट्रीय कर्ज में 4 करोड़ 20 लाख पौण्ड की वृद्धि हो गई। अतिरिक्त आर्थिक
बोझ के कारण ग्लैडस्टन की सुधार योजनाएँ कार्यान्वित नहीं की जा सकीं।
5. फ्रांस पर
प्रभाव-
पेरिस की संधि फ्रांस सम्राट नेपोलियन
तृतीय की व्यक्तिगत विजय थी। उसकी विजय के कारण यूरोप में फ्रांस की प्रतिष्ठा
बढ़ी और पेरिस कुछ समय के लिए यूरोपीय राजनीति का केन्द्र बन गया। फ्रांस
के राष्ट्रीय गौरव की भावना को भी सन्तोष मिला।
6. इटली पर प्रभाव-
क्रीमिया के
युद्ध में सार्डीनिया-पीडमांट के प्रधानमंत्री काबूर ने मित्र राष्ट्र की
ओर से भाग लिया और अपने 15 हजार से भी अधिक सैनिक रूस के विरुद्ध भेजे। अत: पेरिस
सम्मेलन में काबूर को आमंत्रित किया गया जहाँ इंग्लैण्ड और फ्रांस ने उसे
इटली के एकीकरण में यथाशक्ति सहायता देने का आश्वासन दिया। अतः यह ठीक कहा गया है
कि "क्रीमिया के दल-दल में
इटली रूपी कमल का उदय हुआ।"
7. जर्मनी पर
प्रभाव-
जर्मनी एकीकरण में भी क्रीमिया
का युद्ध अप्रत्यक्ष रूप से सहायक सिद्ध हुआ। युद्ध काल में प्रशा की तटस्थता और
सहानुभूतिपूर्ण नीति के कारण रूस का झुकाव प्रशा की ओर हो गया। अत: 1866 में
आस्ट्रिया की पराजय के फलस्वरूप उत्तरी जर्मन संघ का निर्माण हुआ और जर्मनी के
एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हो गया। सीमैन का कथन है, "क्रीमिया के युद्ध से बिस्मार्क
और काबूर को बहुत लाभ हुआ अन्यथा न इटली राज्य बनता और न ही जर्मनी का
साम्राज्य।"
8. आस्ट्रिया पर
प्रभाव-
युद्धकाल में आस्ट्रिया
ने रूस विरोधी दृष्टिकोण अपनाया था। अतः रूस और आस्ट्रिया के बीच शत्रुता बढ़ गई।
9. वियना व्यवस्था
का अन्त-
इस युद्ध ने वियना
में की गई यूरोपीय व्यवस्था (1815) का अन्त कर दिया। इस युद्ध में मेटरनिख युग
की भी समाप्ति कर दी। सीमैन के अनुसार मेटरनिख ने यूरोप में जो
व्यवस्था की थी,
वह इस युग के
पश्चात् छिन्न-भिन्न हो गई।
प्रो. बी.एन.
मेहता का कथन है कि, "क्रीमिया का युद्ध
सामान्य अर्थ में यूरोपीय इतिहास में एक युगान्तकारी युद्ध था। रूस में तो इससे
प्रतिक्रिया के युग का अन्त और सुधार युग का आरम्भ हुआ ही, यूरोप में अन्यत्र भी इस
युद्ध के बाद नये युग का आरम्भ हुआ। वास्तव में प्रतिक्रिया के युग का अन्त पेरिस
की संधि (1856) के साथ माना जाना चाहिए, क्योंकि इसी प्रतिक्रिया के प्रधान समर्थकों में फूट
उत्पन्न हुई और उसके फलस्वरूप इटली तथा जर्मनी दोनों जगहों से आस्ट्रिया का
बहिष्कार सम्भव हो सका, राष्ट्रीयता एवं
उदारवाद को सफलता प्राप्त हो सकी और वियना की प्रतिक्रियावादी व्यवस्था समाप्त हो
सकी। इसके बाद ही बाल्कन प्रायद्वीप में राष्ट्रीयता ने जोर पकड़ा और पेरिस
की संधि के बाद 6 वर्ष के अन्दर ही मोल्डेविया तथा बालेशिया के प्रदेशों ने
संयुक्त होकर रूमानिया का निर्माण कर लिया।"
क्रीमिया युद्ध 19वीं शताब्दी का
अर्थहीन युद्ध?
कुछ इतिहासकारों
के अनुसार क्रीमिया का युद्ध 19वीं शताब्दी का सबसे व्यर्थ
(अर्थहीन) युद्ध था। सर राबर्ट रोमियर का कथन है, "क्रीमिया का युद्ध आधुनिक
युग का अत्यन्त व्यर्थ युद्ध था।” विद्वानों के
अनुसार यह युद्ध निम्नलिखित कारणों से न्यायसंगत नहीं था-
(1) इस युद्ध का
उद्देश्य रूस की शक्ति को समाप्त करना था, परन्तु बहुत शीघ ही पेरिस की संधि को तोड़ दिया गया।
इससे यूरोप को स्थायी शांति प्राप्त नहीं हुई। आगामी 20 वर्षों में ही पेरिस की
संधि की धाराएँ भंग हो गई। रूस ने 1870-71 में काले सागर सम्बन्धी धाराओं का
उल्लंघन करते हुए काले सागर में अपने युद्धपोत उतार दिये। 1878 में बेसराबिया पर
भी रूस का अधिकार मान लिया गया। इस प्रकार क्रीमिया युद्ध के बावजूद भी पूर्वी
समस्या हल नहीं हुई।
(2) क्रीमिया
युद्ध में अपार जन-धन की हानि हुई। इसके बावजूद भी युद्ध से कोई विशेष लाभ नहीं
हुआ। तुर्की साम्राज्य की दशा में कोई सुधार न हो सका और न ही उसका विघटन
रोका जा सका।
(3) टर्की
के सुल्तान ने अपनी ईसाई प्रजा की दशा सुधारने के लिए प्रयत्न नहीं किया, जिससे साम्राज्य के
ईसाईयों का असन्तोष बढ़ता गया।
(4) 1857 में सर्बिया
ने तुर्की सेनाओं को अपने किलों से निकाल दिया और प्राय: अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता
प्राप्त कर ली। इससे तुर्की साम्राज्य का और भी अधिक विघटन हुआ।
(5) फ्रांस
को भी युद्ध में धन-जन की अपार क्षति उठानी पड़ी, परन्तु उसे भी कुछ न मिला। वह ईसाई प्रजा एवं धार्मिक
स्थानों पर अपने संरक्षण के अधिकारों को प्राप्त हुआ। न कर सका।
(6) धार्मिक
स्थानों की संरक्षणता के प्रश्न को लेकर इतना भयंकर युद्ध लड़ना तथा भारी नर-संहार
करना एक भयंकर भूल थी।
(7) स्पेनसर
वालपोल के अनुसार इस युद्ध में 6 लाख लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा।
इसके बावजूद भी इस युद्ध से कोई विशेष लाभ न हुआ बल्कि इसने पाँच अन्य युद्धों को
जन्म दिया- (1) 1859 का
फ्रांसीसी-आस्ट्रिया युद्ध, (2) 1864 का डेनिस
युद्ध, (3) 1866 का
आस्ट्रिया-प्रशा युद्ध, (4) 1870 का
फ्रांसीसी-प्रशा युद्ध, 6) 1877 का
रूसी-तुर्की युद्ध।
(8) पेरिस की
संधि की धाराएँ चिरस्थायी न हो सकी। 1859 में मोल्डेविया और वालेरिया का
एकीकरण हो गया। 1870 में बल्गारिया व रूस ने काले सागर पर जहाजी बेड़ा रखना और
दुर्गीकरण करना आरम्भ कर दिया।
(9) इस प्रकार क्रीमिया
का युद्ध आधुनिक समय का सबसे बेकार युद्ध था। मेरियट के अनुसार, "यदि यह युद्ध एक
बड़ी गलती न था तो एक अपराध अवश्य था। इससे बचना चाहिए था तथा बचा भी जा सकता
था।" सेटनवार्ट्स के अनुसार, "यदि जनता के अज्ञानपूर्ण आग्रह से कोई युद्ध हुआ तो
वह क्रीमिया का युद्ध था।" थीयर्स के अनुसार, "वह युद्ध कुछ अभागे
साधुओं को पूजा-गृह की चाबी दिलाने के लिए लड़ा गया था।" केटलबी के अनुसार, "क्रीमियन युद्ध
घटना के रूप में मामूली स्वरूप में अगौरवपूर्ण तथा उद्देश्य की पूर्ति की दृष्टि
से व्यर्थ था।"
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