सिन्धु घाटी सभ्यता
के प्रमुख स्थल
सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus
Valley Civilization) की कला, संस्कृति व पतन के बारे में
विस्तार से आप पिछली पोस्ट में पढ़ चुके है। इस पोस्ट में सिन्धु घाटी सभ्यता (Indus Valley Civilization) के प्रमुख स्थलों कालीबंगा, हड़प्पा, मोहन-जो-दड़ो (मृतको का टीला), धोलावीरा, चान्हुदड़ो, लोथल, कोटदीजी, दैमाबाद, भिरड़ाना, बालाकोट, रोजदी, मांडा, आलमगीरपुर, रंगपुर, राखी गढ़ी, अलीमुराद, देसलपुर, संघोल, मीताथल, कुंतासी, सूर कोटड़ा, बनवाली, सुत्कांगेडोर, रोपड़, अलाहदिनों तथा कुणाल आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है, जो परीक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
सिन्धु सभ्यता के लगभग एक हजार से अधिक स्थलों में से कुछ प्रमुख नगरों की प्रमुख विशेषताओं का परिचय आपको दिया जा रहा है-
1. हड़प्पा-
हड़प्पा स्थल पाकिस्तान के मोंटगोमरी
(वर्तमान नाम शाहीवाल) में रावी नदी के बाएँ तट पर स्थित है।
इसकी खोज सन् 1921
में दया राम साहनी के द्वारा की गई।
इसका उत्खनन प्रथम
बार माधोस्वरूप द्वारा 1926 में किया गया तथा दूसरी बार मार्टिन
विलर के द्वारा 20 साल बाद 1946 में किया गया।
ऋग्वेद में हड़प्पा को हरियूपिया कहा गया है।
यहाँ से स्त्री के
गर्भ से निकलते हुए पौधे की मृणमूर्ति प्राप्त हुई है जिसे हड़प्पा वासियों
ने उर्वरा देवी या पृथ्वी देवी कहा है।
यहाँ नरकबंद प्रस्तर
मूर्तियां (बिना धड़ की मूर्ति) मिली है तथा यहाँ कांस्य का दर्पण मिला है।
यहाँ से मानव के साथ
बकरे के शवाधान के साक्ष्य मिले हैं।
सर्वाधिक अभिलेखयुक्त
मोहरें हड़प्पा से मिली हैं, जो तीन प्रकार की है वर्गाकार, वृत्ताकार और आयताकार।
मोहरें स्टैटाईड (सेलखड़ी या चीनी मिट्टी) से निर्मित मिली है।
गढ़ी के
दक्षिण-पश्चिम में स्थित कब्रिस्तान इंगित करता है कि एक विदेशी समूह ने
हड़प्पा को नष्ट किया था।
यह नगर दो भागों में
विभाजित था- पूर्वी टीला (नगर टीला), पश्चिमी टीला (दुर्ग
टीला)।
पश्चिमी टीला (दुर्ग टीला)-
हड़प्पा के अन्नागार
की कतारें उल्लेखनीय हैं यहां से 6-6 की पंक्तियों में दो धान्य कोठार
मिले है, जहाँ से गेहूँ व जौ के साक्ष्य मिलते है।
हड़प्पा के दुर्ग
टीले में मजदूरों हेतु बैरक बने हुए मिले है, साथ ही यहाँ से श्रमिक आवास
के साक्ष्य भी मिलते है।
दुर्ग टीले में प्रशासनिक
भवन के साक्ष्य मिलते है जिससे यह पता चलता है कि प्रशासनिक वर्ग दुर्ग टीले में
निवास करता था।
सम्पूर्ण सभ्यता में
हड़प्पा से प्राप्त अन्नागार दूसरी सबसे बड़ी इमारत थी।
(लोथल का गोदीवाड़ा
सबसे बड़ी सार्वजनिक इमारत था वहीं हड़प्पा से प्राप्त अन्नागार दूसरी सबसे बड़ी
इमारत थी। तीसरी सबसे बड़ी सार्वजनिक इमारत मोहन जोदड़ो का स्नानागार था।)
पूर्वी टीला (नगर
टीला)-
नगर टीले का मुख्य
प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में बना होने के कारण इसे पूर्वी टीला कहा
जाता था जबकि नगर टीले की मुख्य सड़कें उत्तर से दक्षिण दिशा की तरफ थी यह सड़कें
मूलतः मिट्टी से बनी हुई होती थीं तथा इनकी चौड़ाई 10 मीटर थी।
नगर की सड़कें एक
दूसरे को समकोण पर काटती थी जिसे ऑक्सफोर्ड सर्कस पद्धति
या ग्रिड पैटर्न कहा जाता था। नगर के घरों के दरवाजे एक दूसरे के
आमने सामने गलियों में खुलते थे।
नगर टीले के सामने
ईंटों का एक वर्गाकार चबूतरा मिला है जो कि महिलाओं हेतु वहाँ बैठकर धान
साफ करने के प्रयोग में लिया जाता था।
नगर टीले के दक्षिण भाग में दो प्रकार के कब्रिस्तान मिलते हैं (1) R-37 कब्रिस्तान (2) कब्रिस्तान-H।
दुर्ग टीले के पास
में स्थित नदी के पेटे से कुछ नावों के साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं।
2. मोहन-जो-दड़ो (मृतकों का टीला)-
मोहन-जो-दड़ो वर्तमान पाकिस्तान के लरकाना (सिंध प्रांत) में सिंधु नदी के दाएँ
तट पर स्थित है।
इसकी खोज राखालदास
बनर्जी द्वारा 1922 मे की गई। खोज और खुदाई के काम को काशानाथ नारायण
ने आगे बढ़ाया, जिसके बाद खुदाई से प्राप्त अवशेषों के आधार पर इसकी खोज की गई।
पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई
से मिले कुछ अवशेषों के आधार पर मोहन-जो-दड़ो का सिंधु घाटी सभ्यता का सबसे
प्राचीनतम एवं विकसित नगर होने का पता चला था।
खोज के दौरान यह पता
लगा कि कई हजार साल पहले बसा मोहन-जो-दड़ो योजनाबद्ध तरीके से बनाया गया था, जहां लोग बेहद सभ्य, स्वस्थ एवं स्वस्थ
तरीके से जीवन यापन करते थे।
सिन्धु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल |
इसका नगर-विन्यास समकोणीय
संरचना पर आधारित है। गढ़ी एक टीले पर स्थित है जिसके नीचे नगर विस्तृत है।
नगर की मुख्य सड़कें
33 फीट तक चौड़ी हैं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई नगर को आयताकार
खण्डों में विभाजित करती हैं। इस प्रकार की योजना प्रणाली समकालीन मिस्र या
मेसोपोटामिया में अज्ञात थीं।
नगर में सुनियोजित
गलियों की व्यवस्था मिलती है। सड़कों तथा भवनों में पकी ईंटों से निर्मित उत्कृष्ट
भूमिगत जल निकास व्यवस्था मिलती है।
खुदाई से प्राप्त
सभी एक सी साइज की ईंटों से यह पता लगाया था कि उस समय के लोगों को आज की तरह
मापना, जोड़ना, घटाना, सब आता था एवं एक ही
वजन और साइज की ईंटे थीं।
यहां भवन निर्माण
में निश्चित माप की ईंटों का प्रयोग किया गया है लेकिन पत्थर के भवन का कोई चिह्न
नहीं मिलता है। अधिकतर भवनों में दो या अधिक मंजिल मिलती हैं किन्तु सामान्यतः
योजना एक सी ही है- एक वर्गाकार आंगन उसके चारों ओर कमरे, प्रवेश-द्वार पिछले हिस्से से,
सड़क की ओर खिड़कियों का ना होना, भवन में
स्नानागार तथा कूऐं का प्रावधान होना।
मोहन-जो-दड़ो में दो
कमरे के भवन भी मिले हैं ये संभवतः समाज के गरीब वर्ग से संबंधित थे।
मोहन-जो-दड़ो की एक
यह भी एक अन्य विशेषता थी कि लोगों को गणित का ज्ञान भी था।
मोहन-जो-दड़ो का
मुख्य आकर्षण यहाँ का सबसे बड़ा स्थल सार्वजनिक स्नानागार है जिसे मार्शल
महोदय ने तत्कालीन विश्व का आश्चर्यजनक निर्माण कहा है तथा इससे
विराट वस्तुओं की संज्ञा दी है। इसे ग्रेट बाथ भी कहा जाता है। यह विभिन्न
धार्मिक व अवसरों पर सार्वजनिक रूप से प्रयोग में लिया जाता था इस
स्नानागार में उतरने हेतु उत्तरी व दक्षिणी कोने में सीढ़ियां बनी हुई थी।
वृहत स्नानागार के
समीप ही एक विशाल अन्नागार मिला है जो उस समय का प्रमुख भण्डारगृह
रहा होगा।
अन्नागार के पास ही
एकल कक्षों की बैरक प्रकार कतारें मिलती हैं, ये संभवतः दासों के आवास रहे होंगे।
खुदाई से पता चला है
कि मोहन-जो-दड़ो कम से कम सात बार बाढ़ से क्षतिग्रस्त और पुनर्निमित हुआ
था तथा यहाँ से नौ बार बसकर उजड़ने वाले शहर के साक्ष्य मिले हैं।
यहां से कांस्य
औजारों के विभिन्न प्रकार प्राप्त हुए हैं और छोटे आकार की ग्यारह प्रस्तर
प्रतिमाएं भी मिली हैं।
मोहन-जो-दड़ो से प्राप्त एक मोहर पर ध्यान में लीन चार मुख वाले देवता का अंकन
मिलता है जिसके चारों तरफ वृषभ, हाथी, गैंडा, भैंसा व दो हिरण मिलते हैं इस मोहर के ऊपरी भाग
पर एक मछली का अंकन भी मिलता है। इस प्रकार इसके चारों तरफ कुल सात जीव दिखाई पड़ते
हैं इसे पशुपतिनाथ कहा गया। मार्शल महोदय ने इसे अध्यात्म शिव
की संज्ञा दी है।
यहां से संदिग्ध
स्तर से घोड़े के प्रमाण भी मिले हैं। सैंधव सभ्यता में घोड़े के साक्ष्य मोहन-जो-दड़ो
व सुरकोटड़ा से प्राप्त हुए हैं लेकिन यह खुदाई के अंतिम चरणों में मिले
हैं अतः सिंधु सभ्यता के लोग घोड़े से परिचित नहीं थे।
कपास की खेती की अवशेष यहाँ से
मिले हैं, मोहनजोदड़ो से बुना हुआ सूत का टुकड़ा तथा कपड़े की छाप अनेक
वस्तुओं में मिली है। सर्वप्रथम कपास की खेती करने का श्रेय यूनानियों को
जाता है जिसे उन्होंने सिंडन नाम दिया।
मोहन-जो-दड़ो से
अन्य प्राप्त अवशेषों में कांसे की नृत्यरत नारी की मूर्ति, मंगोलियन पुजारी का
सिर, हाथी का कपाल खंड, गले हुए तांबे के ढेर तथा महा विद्यालय भवन के साक्ष्य
मिले है।
मोहन-जो-दड़ो से
किसी भी प्रकार के कब्रिस्तान के साक्ष्य नहीं मिलते हैं क्योंकि यह शवों
को जलाने की परंपरा थी।
मोहन-जो-दड़ो में असुरक्षा के कुछ चिह्न मिलते हैं जिनमें विभिन्न
स्थानों में आभूषणों का दबाया जाना, एक स्थान में
कटे हुए मुंडों का प्राप्त होना और नये प्रकार के हथियारों का मिलना शामिल हैं, यहां बाद के काल के आधे दर्जन से अधिक अस्थिपंजर इंगित करते हैं कि
मोहन-जो-दड़ो में संभवतः आक्रमण हुआ था। झुंड में पड़े अस्थिपंजर तथा कूऐं की
सीढ़ियों में पड़ी एक स्त्री का अस्थिपंजर स्पष्ट करता है कि इन मौतों के पीछे आक्रमणकारी
थे।
मोहनजोदड़ो को कुछ
खोजकर्ताओं के द्वारा महाभारत काल से भी जोड़ा गया है। और इस नगर की तबाही
का कारण गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा द्वारा छोड़ा
गया ब्रह्मास्त्र भी बताया गया है।
ऐसा कहा जाता है कि
जब अश्वत्थामा ने पिता की मौत की खबर सुनकर गुस्से में पांडवों का विनाश
करने के लिए ब्रह्मास्त्र छोड़ने की योजना बनाई तब अर्जुन ने उसका पीछा
किया, जिनके भय से अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ही ब्रह्मास्त्र
छोड़ दिया, जिसके बाद इस वार को रोकने के लिए अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र
छोड़ा। जिसकी वजह से सिंधु घाटी सभ्यता एवं महा विकसित मोहनजोदड़ो
नगर का विनाश हो गया।
दरअसल, इस ब्रह्मास्त्र
को आधुनिक युग में बनाए गए न्यूक्लियर बम की तरह बताया जाता है।
इसलिए इसको तबाही की मुख्य वजहों में से एक माना जाता है।
3. कालीबंगा (कालीबंगन)-
कालीबंगां शब्द का
शाब्दिक अर्थ काली चूडियाँ है, यह राजस्थान के हनुमानगढ़ में प्राचीन सरस्वती घग्गर
नदी पर स्थित है।
इसकी खोज 1951 से
1953 में अमलानंद घोष के द्वारा की गई। (माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की
कक्षा 12 की पुस्तक में 1951 ईं. में खोज करना बताया गया है)
कालीबंगां का उत्खनन
1961 से 1963 में बी. बी. लाल व बी.के. थाप्पर द्वारा किया गया तथा श्री एम. डी. खरे, के एम. श्रीवास्तव व एस पी. जैन द्वारा भी उत्खनन किया गया ।
डाँ. दशरथ शर्मा के अनुसार कालीबंगा को
सामरिक व पुरातात्विक महत्व की दृष्टि से सिंधु घाटी सभ्यता की तीसरी
राजधानी कहा जा सकता है ।
कालीबंगा सिन्धु
सभ्यता का एक प्रमुख नगर था, नगरीय जीवन की सभी सुविधाएं यहां मिलती हैं अनेक भवनों में
अपने कूऐं थे। कालीबंगा एकमात्र ऐसा स्थल था जहाँ के प्रत्येक तीसरे घर से कुएं के
साक्ष्य मिले हैं।
कालीबंगा में सड़को
की चौड़ाई 7.2 मीटर तथा गलियों की चौड़ाई 1.8 मीटर थी। कालीबंगा में भवनों
के द्वार सड़को पर न खुलकर गलियों मे खुलते थे।
कालीबंगां में कच्ची
ईंटों से निर्मित मकान के साक्ष्य मिले हैं अत इसे दीनहीन की बस्ती
कहा जाता है। यहाँ से अलंकृत ईंटें व फर्स के साक्ष्य भी
मिलते हैं।
कालीबंगा में सभी
प्रकार की ईंटों का अनुपात 4:2:1 है।
कालीबंगा के अलावा
हड़प्पा सभ्यता के अन्य नगरों में निचला नगर रक्षा प्राचीर से नहीं
घिरा, इसलिए कालीबंगा को दोहरे परकोटे की सभ्यता
कहा गया।
कालीबंगां से भी खोपड़ी
की शल्य चिकित्सा के साक्ष्य मिलते हैं।
कालीबंगां से तीन
प्रकार के शवादान के साक्ष्य मिलते हैं आंशिक शवादान, पूर्ण शवादान, और दाह
संस्कार।
विश्व के प्रथम
भूकंप के साक्ष्य भी कालीबंगां से मिलते हैं
बेलनाकार मोहरों के साक्ष्य
भी मिलते हैं। (बेलनाकार मोहरों के साक्ष्य विश्व की सबसे प्राचीनता सभ्यता
माने जाने वाले स्थल मेसोपोटामिया से भी मिलते हैं, अतः ऐसा माना जा सकता है कि कालीबंगा व मेसोपोटामिया के बीच व्यापारिक संबंध
रहे होंगे।)
यहाँ से ऊंट के साक्ष्य व जुते हुए खेत व लकड़ी के
हल के साक्ष्य मिले हैं। कालीबंगन का पूर्व-हड़प्पीय चरण, हड़प्पाकाल के विपरीत राजस्थान में खेत की जुताई को
दर्शाता है।
कालीबंगा मे खेत के दो पाड़े थे, कम दूरी चना, अधिक दूरी सरसों बोई जाती थी।
कुत्ता कालीबंगा सभ्यता का प्रमुख
पालतु जानवर था।
कालीबंगन में गढ़ी
तथा निचला नगर दोनों ही प्राचीरयुक्त हैं। गढ़ी में स्थित एक प्लेटफॉर्म
में मिट्टी के गढ्ढे या अग्निवेदी (हवन वैदिका) की कतारें हैं जिनमें राख
तथा कोयला भरा है जबकि दूसरे प्लेटफॉर्म में पकी मिट्टी की ईंटों से निर्मित गढ्ढे
में हड्डियां मिलती हैं। ये उदाहरण सिन्धु सभ्यता में अग्निपूजा तथा बलिप्रथा
की ओर संकेत करते हैं।
कालीबंगा में मुख्यत
घग्घर नदी के बायें तट पर दो टीले मिले है प्रथम पश्चिमी
टीला तथा द्वितीय पूर्वी टीला ।
प्रथम पश्चिमी टीला-
जो अपेक्षाकृत छोटा लेकिन ऊँचा है। पश्चिमी टीले के निम्न स्तरों में प्राक् हड़प्पा
संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए है। इन्हीं प्राक् हड़प्पाकालीन ऊपरी स्तरों में
हड़प्पाकालीन संस्कृति के पुरावशेष प्राप्त हुए है। जिनमें दुर्ग या गढी के अवशेष
प्रमुख है।
द्वितीय पूर्वी टीला-
जो अपेक्षाकृत कम ऊँचाई तथा विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है। इस टीले से प्रस्तर
धातुकाल या हड़प्पाकाल के अवशेष मिलते है।
कार्बन 14 पद्धति
के आधार पर प्राक् हड़प्पाकालीन बस्ती का तिथिक्रम 2400 ई पू निर्धारित हुआ है।
कालीबंगा से अवतल चक्की/सालन
पत्थर/सिलबट्टे मिले है, जो अनाज पीसने या मिलाने के
काम आता था। (इस प्रकार का पत्थर सर्वप्रथम अरनेस्ट मैके ने हड़प्पा से खोजा था)
डी पी. अग्रवाल व रफीक मुगल ने घग्घर/हकरा
नदी क्षेत्र का सूखना कालीबंगा का नष्ट होने का कारण था ।
एस. आर. राव ने कालीबंगा के नष्ट होने
का कारण बाढ को माना है। के. यू. आर. केनेडी ने कालीबंगा के नष्ट
होने को प्राकृतिक आपदा या महामारी फैलना बताया है ।
राज्य सरकार द्वारा कालीबंगा में प्राप्त पुरावशेषों के संरक्षण हेतु यहाँ एक संग्रहालय
की स्थापना 1983 (आर्कियो लॉजिकल सर्वे आँफ इंडिया के अनुसार) में की गई व 1985-86
में यह सुचारू रूप से कार्य करने लगा।
4. धोलावीरा-
धोलावीरा की खोज 1967 से 1968 में जगपति
जोशी के द्वारा की गई यह गुजरात के कच्छ जिले के मचाऊ तालुका में मानसर एवं मानहर
नदियों के मध्य अवस्थित था।
इसका विस्तृत उत्खनन
1990-91 में रवीन्द्रसिंह बिस्ट ने किया।
यह स्थल अपनी
अद्भुत् नगर योजना, दुर्भेद्य प्राचीर तथा अतिविशिष्ट जलप्रबंधन व्यवस्था के
कारण सिन्धु सभ्यता का एक अनूठा नगर या सबसे सुंदर नगर था।
धोलावीरा नगर तीन
मुख्य भागों में विभाजित था, जिनमें दुर्गभाग
(140×300 मी.) मध्यम नगर (360×250 मी.) तथा निचला
भाग (300×300 मी.) हैं।
मध्यम नगर केवल धोलावीरा
में ही पाया गया है, यह संभवतः प्रशासनिक अधिकारियों एवं महत्त्वपूर्ण
नागरिकों के लिए प्रयुक्त किया जाता था।
दुर्ग भाग में अतिविशिष्ट
लोगों के निवास रहे होंगे, जबकि निचला नगर आम जनों के लिए रहा होगा,
तीनों भाग एक नगर आयताकार प्राचीर के भीतर सुरक्षित थे।
इस बड़ी प्राचीर के
अंतर्गत भी अनेक छोटे-बड़े क्षेत्र स्वतंत्र रूप से मजबूत एवं दुर्भेद्य प्राचीरों
से सुरक्षित किये गए थे, इन प्राचीर युक्त क्षेत्रों में जाने के लिए भव्य एवं
विशाल प्रवेशद्वार बने थे।
धोलावीरा नगर के दुर्ग
भाग एवं मध्यम भाग के मध्य अवस्थित 283×47 मीटर की एक भव्य
इमारत के अवशेष मिले हैं, इसे स्टेडियम बताया गया है, इसके चारों ओर
दर्शकों के बैठने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं।
सैन्धव सभ्यता में प्रथम ऐसा स्थल
जहाँ से बांध या नहर के साक्ष्य उपलब्ध होते हैं।
धोलावीरा से सिन्धु लिपि के सफ़ेद
खड़िया मिट्टी के बने दस बड़े अक्षरों में लिखे एक बड़े अभिलेख पट्ट
की छाप मिली है, यह संभवतः विश्व के प्रथम सूचना पट्ट का प्रमाण है।
धोलावीरा, राखीगढ़ी भारत में खोजे गए सबसे बड़े
दो नगर है जो कि संभवतः भारत में राजधानी के रूप में रहे होंगे।
भारतीय उपमहाद्वीप में खोजे गए
सबसे बड़े नगर क्रमश मोहन-जो-दड़ो, हड़प्पा, गनेडीवाल, धोलावीरा तथा
राखीगढ़ी है। भारत में खोजे गए सबसे बड़े नगर धोलावीरा राखीगढ़ी और कालीबंगां है।
क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़े नगर
क्रमश गनेडीवाल, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, धोलावीरा और राखीगढ़ी
है।
यहाँ 16 विभिन्न
आकार-प्रकार के जलाशय मिले हैं, जो एक अनूठी जल संग्रहण
व्यवस्था का चित्र प्रस्तुत करते हैं, इनमें दो का उल्लेख समीचीन होगा-
एक बड़ा जलाशय
दुर्ग भाग के पूर्वी क्षेत्र में बना हुआ है. यह लगभग 70x24x7.50 मीटर हैं, कुशल
पाषाण कारीगरी से इसका तटबंधन किया गया है तथा इसके उत्तरी भाग में नीचे
उतरने के लिए पाषाण की निर्मित 31 सीढ़ियाँ बनी हैं।
दूसरा जलाशय
95 x 11.42 x 4 मीटर का है तथा यह दुर्ग
भाग के दक्षिण में स्थित है, संभवतः इन टंकियों से पानी वितरण के लिए लम्बी
नालियाँ बनी हुई थीं, महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन्हें शिलाओं को काटकर
बनाया गया है, इस तरह के रॉक कट आर्ट का यह संभवतः प्राचीनतम
उदाहरण है।
5. चान्हुदड़ो-
यह नगर मोहन-जो-दड़ो
से 80 मील दूर दक्षिण में स्थित है, यहां गढ़ी नहीं मिली है।
चान्हुदड़ो की खोज 1931 में एन.जी.
मजुमदार द्वारा की गई, इसका उत्खनन 1935 में अर्नेस्ट मैके
के द्वारा किया गया।
यह सिंधु सभ्यता का औद्योगिक
नगर था जहाँ से मनके बनाने के कारखाने के साक्ष्य मिलते हैं। चान्हुदड़ो
मनके बनाने वालों की कला का केन्द्र था यहां सोने, चांदी, तांबे, स्टेटाइट तथा शैल के मनके बनाये जाते थे जिनका उपयोग सिन्धु
नागरिक तो करते ही थे संभवतः ये व्यापार की भी महत्वपूर्ण सामग्री थे।
चान्हुदड़ो से लिपिस्टक
के साक्ष्य, हाथी के खिलौने, पीतल की इक्का गाड़ी व
बेलगाड़ी के साक्ष्य भी मिलते हैं। मोर की आकृति वाले मृणभाण्ड भी चान्हुदड़ो
की विशेषता रही है।
चान्हुदड़ो के उत्खनन
से एक छोटी दवात मिली है जिसे पुराविदों ने स्याहीदान से समीकृत
किया है।
यहाँ से किसी भी
प्रकार के दुर्ग के साक्ष्य नहीं मिले हैं।
बिल्ली के पीछे
भागते हुए कुत्ते के पदचिन्ह के साक्ष्य मिले हैं।
सम्पूर्ण सभ्यता में
एक भाग ऐसा स्थल हैं जहाँ से झुंकर (ग्रामीण) व झांगर (नगरीय) संस्कृति
के अवशेष प्राप्त होते हैं।
पुरातात्विक प्रमाणों से पता चलता है
कि चान्हुदड़ो में दो बार भीषण बाढ़ आयी थी जिसने नगर को काफी क्षति
पहुचायी थी।
6. लोथल-
लोथल की खोज श्री
रंगनाथ राव द्वारा 1956 में की गई यह गुजरात में भोगवा नदी के
तट पर स्थित था। लोथल नामक नगर गुजरात में कैम्बे की खाड़ी के समीप स्थित
है।
यहाँ से चावल
के प्रथम साक्ष्य से मिलते हैं। धान भी केवल रंगपुर और लोथल में ही मिला है अतः
प्रमाणित होता है कि कम से कम 1800 ईसा पूर्व से चावल का प्रयोग करते थे।
बाजरे के प्रथम साक्ष्य व चक्की
के दो पाट के साक्ष्य मिले हैं।
यह एक औद्योगिक नगर
था जहाँ से मनके बनाने के कारखाने के साक्ष्य भी मिलते हैं। लोथल भी मनके
बनाने वालों का केन्द्र था, यहां
सोने, चांदी, तांबे, स्टेटाइट ,शैल आदि के बनाये जाते थे।
बाट माप तोल पैमाना व हाथी दांत
का पैमाना भी मिलता है।
लोथल सिन्धु सभ्यता
का एकमात्र नगर है जहां हमें बन्दरगाह या गोदीबाड़ा मिला है। इस
बन्दरगाह की प्राप्ति से सिन्धु नागरिकों की सामुद्रिक गतिविधियों एवं विदेशी
व्यापार की पुष्टि होती है। लोथल से गोदीबाड़ा अर्थात डाक मार्ग के
कई साक्ष्य मिलते हैं जहाँ से चार नावों के साक्ष्य भी मिले हैं।
लोथल के समुंदर की देवी का नाम सिकोतरी
माता था।
लोथल सिन्धु सभ्यता से
तीन युगल समाधियाँ प्राप्त हुई है।
कोए के साक्ष्य व पंचतंत्र
में वर्णित चालाक लोमड़ी के साक्ष्य भी लोथल से प्राप्त होते हैं।
हवनकुंड या अग्निकुंड के
साक्ष्य लोथल से मिले हैं।
लोथल के एक संदिग्ध
स्तर से घोड़े की मृण्मूर्ति के प्रमाण भी मिले हैं। लोथल से हमें कालीबंगा
की भांति अग्निपूजा के संकेत भी मिले हैं।
7. सूर कोटड़ा-
गुजरात में अहमदाबाद से
लगभग 270 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम कच्छ के रण में स्थित है, सूर
कोटड़ा की खोज 1960 में जगपति जोशी द्वारा की गई।
यहाँ पर एक बहुत
बड़ा टीला था।
यहाँ पर किये गये उत्खनन
में एक दुर्ग बना मिला, जो कच्ची ईंटों और मिट्टी
का बना था। सुरकोटदा के दुर्ग को पीली कुटी हुई मिट्टी से निर्मित चबूतरे पर बनाया
गया था।
यहां की गढ़ी तथा
निचला नगर दोनों ही कालीबंगन की भांति प्राचीर से घिरे हुए हैं। नगरीय जीवन
की सुविधाएं यहां भी दिखाई देती हैं।
उत्खननकर्ताओं ने
यहां से घोड़े के अस्थि-अवशेष प्राप्त किये हैं। हांलाकि हम जानते
हैं कि घोड़ा सिन्धु नागरिकों को अज्ञात था पुराविदों का मानना है कि कि यह एक
अपवाद था और यह किस तरह यहां आया इस बात में अटकलें हैं।
यहाँ से तराजू
के दो पलड़े भी प्राप्त हुए हैं।
सूर कोटड़ा से सिंधु
सभ्यता के विनाश के साक्ष्य मिलते हैं।
यहाँ पर एक क़ब्र
बड़े आकार की शिला से ढंकी हुई मिली है। यह क़ब्र अभी तक ज्ञात सैंधव
शव-विसर्जन परम्परा में सर्वथा नवीन प्रकार की है।
दुर्गीकृत क्षेत्र
के दक्षिण पश्चिम से प्राप्त क़ब्रिस्तान से कलश शवाधान का उदाहरण
प्राप्त हुआ है।
8. बनवाली (बनावली)-
हरियाणा में स्थित इस स्थल की खोज रविंदर
सिंह विष्ट के द्वारा 1973 में की गई जो कि प्राचीन सरस्वती
नदी के किनारे स्थित था।
बनवाली में भी
कालीबंगा, कोटदीजी
और हड़प्पा की भांति ही दो सांस्कृतिक चरण- पूर्व हड़प्पीय और हड़प्पीय मिलते हैं।
यहां से पर्याप्त
मात्रा में जौ की प्राप्ति हुई है तथा सरसों के प्रमाण भी मिले हैं
तथा तिल व सरसों की ढेर के साक्ष्य प्राप्त हुए है।
इसके अलावा तांबे के
बाणाग्र और मिट्टी के बर्तन के साक्ष्य प्राप्त हुए है।
यहाँ से मात्तृ
देवी की मृण्मूर्तियां कुछ मुहरें जिन पर मातृ देवी का अंकन
मिलता है।
जहाँ संपूर्ण सैंधव
सभ्यता में नाली व्यवस्था इसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी वही बनवाली में नाली
व्यवस्था का अभाव मिलता है।
9. सुत्कांगेडोर-
सुत्कांगेडोर सिंधु घाटी सभ्यता का सबसे पश्चिमी ज्ञात पुरातात्विक
स्थल है। यह पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में ईरानी सीमा के निकट ग्वादर
के पास मकरान तट पर कराची से लगभग 480 किमी दूर पश्चिम में (दाश्क नदी के
किनारे) स्थित है।
सुत्कांगेडोर की खोज 1875 में मेजर एडवर्ड मॉकलर ने की थी, जिन्होंने छोटे पैमाने पर उत्खनन किया था। 1927
में ऑरेल स्टीन ने अपने गेड्रोसिया दौरे के हिस्से के रूप में
क्षेत्र का दौरा किया, और आगे की
खुदाई की।
अक्टूबर 1960 में, सुत्कांगेडोर को अपने मकरान सर्वेक्षण के एक हिस्से के रूप में जॉर्ज
एफ. डेल्स द्वारा अधिक बड़े पैमाने पर खुदाई की गई थी, जो बिना पुआल के पत्थर और मिट्टी की ईंटों से बनी संरचनाओं को उजागर
करते थे।
यहाँ से परिपक्व हड़प्पा काल का साक्ष्य मिला है।
यहाँ से मनुष्य की अस्थि, राख से भरा
बर्तन, ताँबे की कुल्हाड़ी और मिट्टी से बनी चूड़ियाँ
प्राप्त हुई हैं।
10. कोटदीजी-
पाकिस्तान के सिंध प्रांत में खैरपुर से लगभग 24 किलोमीटर
दक्षिण में, यह मोहनजोदाड़ो के सामने सिंधु के पूर्वी तट पर
है।यह मोहनजोदडो से 50 कि.मी. पूर्व में स्थित है।
पाकिस्तान विभाग के पुरातत्व विभाग ने 1955 और 1957 में कोटदीजी में खुदाई की, (एफ.ए. खान ने कराई)
अवशेषों में उच्च भूमि और बाहरी क्षेत्र पर दो भागों का गढ़ क्षेत्र शामिल है।
यह स्थल रोहड़ी पहाड़ियों के तल पर स्थित है जहाँ एक किला (कोट दीजी का
किला) 1790 के आसपास ऊपरी सिंध के तालपुर
वंश के शासक मीर सुह्रब द्वारा बनाया गया था, जिन्होंने 1783 से 1830 ई. तक शासन किया था।
एक तंग संकरी पहाड़ी के रिज पर बना यह किला अच्छी तरह से
संरक्षित है।
11. दैमाबाद-
दैमाबाद गोदावरी नदी की सहायक प्रवरा नदी के तट पर स्थित एक
निर्जन गाँव तथा पुरातत्व स्थल है, जो कि भारत के महाराष्ट्र राज्य के अहमदनगर ज़िले में है।
यह स्थान बी॰ पी॰ बोपर्दिकर द्वारा खोजा गया था।
इस स्थान की भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा तीन बार खुदाई की जा चुकी है।
पहली खुदाई 1958-59 में एम॰ एन॰ देशपांडे के नेतृत्व में हुई। दूसरी खुदाई एस॰
आर॰ राव के नेतृत्व में 1974-75 में हुई। अंतिम खुदाई एस॰ ए॰ सली के
नेतृत्व में 1976-79 में हुई।
दैमाबाद में हुई खोजों से सिन्धु घाटी सभ्यता के दक्खन के पठार तक विस्तार का
निष्कर्ष निकाला गया।
दैमाबाद बहुत से कांस्य के सामानों के लिये प्रसिद्ध है।
12. भिरड़ाना-
भिरड़ाना भारत के उत्तरी राज्य हरियाणा के फतेहाबाद जिले का एक
छोटा सा गाँव है।
भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के दिसम्बर 2014 के शोध से
पता चला है कि यह सिंधु घाटी सभ्यता का अब तक खोजा गया सबसे प्राचीन नगर है जिसकी
स्थापना 4540 ईसा पूर्व में हुई थी।
2003-2004 में किए गए उत्खनन में इस नगर की खोज हुई थी।
मोहन जोदड़ो की कांस्य की नर्तकी की नक़ल जो बर्तन पर
उकेरी गयी थी यहाँ से प्राप्त हुई थी।
नवपाषाण युग में भिरड़ाना एक छोटा सा ग्राम था, ताम्र पाषाण युग में यहाँ नगर व्यवस्था आई, कांस्य युग के आते आते यह
राखीगढ़ी, मोहनजोदड़ो, सुमेर आदि अपने सभी समकालीन महानगरो की तरह एक समृद्ध
महानगर बना।
13. बालाकोट-
बालाकोट पाकिस्तान के उत्तरी भाग में ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा प्रान्त के मानसेहरा
ज़िले की काग़ान घाटी में कुनहार नदी (नैनसुख नदी) के किनारे स्थित
एक शहर है।
इसकी खोज वर्ष 1979 में डेल्स के द्वारा की गई।
बालाकोट सिन्धु घाटी की सभ्यता का एक महत्वपूर्ण स्थान है जहाँ खुदाई में ढाई
हजार ईसा पूर्व की निर्मित एक भट्ठी मिली है जिसमें सम्भवतः सिरैमिक
वस्तुओं का निर्मान होता था।
यह 2005 कश्मीर भूकम्प में पूरी तरह ध्वस्त हो गया था और फिर इसका सउदी
अरब की सहायक संस्थानों की मदद लेकर नवनिर्माण करा गया।
14. रोजदी-
रोजदी वर्तमान में गुजरात के राजकोट जिले में स्थित है, इस स्थान का उत्खनन 1982 से 1995 के बीच 7 बार
किया गया।
रोजदी में कच्ची ईंट के चबूतरें, नालियों सहित बिल्लौर, गोमेद पत्थर से
बने बाट व पक्की मिट्टी के मनके प्राप्त हुए हैं।
रोजदी में पाए गए मृदभांड अधिकतर पक्की मिटटी के बने हैं, इनमे सिन्धु घटी सभ्यता की चित्रात्मक लिपि में
चित्र अंकित किये गए हैं।
रोजदी ने उत्खनन कार्य 1982 से 1995 में बीच
गुजरात पुरातत्व विभाग और अमेरिका की पेन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय
द्वारा किया गया था।
15. मांडा-
मांडा एक गाँव है और जम्मू और कश्मीर के भारतीय केंद्र शासित प्रदेश में एक
पुरातात्विक स्थल है।
इसकी खुदाई भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा 1976-77 के दौरान जे.पी. जोशी
द्वारा की गई थी।
मांडा, जम्मू से 28
किमी उत्तर पश्चिम में पीर पंजाल रेंज की तलहटी में चिनाब नदी के
दाहिने किनारे पर स्थित है।
इसे सिंधु घाटी सभ्यता का सबसे उत्तरी स्थल माना जाता है।
16. आलमगीरपुर-
हिण्डन नदी के किनारे यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित है।
इसकी खुदाई यज्ञदत्त शर्मा ने 1958 में कराई।
यह हड़प्पा सभ्यता के अन्तिम चरण को रेखांकित करता है।
यह सभ्यता का सबसे पूर्वी स्थल है। इस स्थल को परसाराम-खीरा भी
कहा जाता था।
17. रंगपुर-
यह गुजरात के काठियावाड़ जिले में मादर नदी के समीप स्थित
है।
इसकी खुदाई 1953-54 में रंगनाथ राव के अन्तर्गत करायी गई।
यहाँ से उत्तर हड़प्पा संस्कृति का साक्ष्य मिलता है।
यहाँ धान की भूसी का साक्ष्य मिला है तथा यहाँ कच्ची
ईंटों का दुर्ग भी मिला है।
18. राखी गढ़ी-
इसकी खोज रफीक
मुगल के द्वारा की गई जो कि हरियाणा में स्थित था।
यहाँ से मात्तृ
देवी अंकित एक लघु मुद्रा प्राप्त होती है।
इसका व्यापक रूप से
उत्खनन 1997 से 1998 में अमरेंद्रनाथ के द्वारा किया गया।
19. अलीमुराद-
यह सिंध प्रांत में स्थित है।
यहाँ बैल की लघु मृण्मूर्ति मिली है।
यहाँ से भी कांसे की कुल्हाड़ी प्राप्त हुई है।
20. सोत्काकोह-
सोत्काकोह पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में पसनी शहर के पास लगभग 15
मील उत्तर में मकरान तट पर एक हड़प्पा स्थल है।
यह पहली बार 1960 में अमेरिकी पुरातत्वविद् जॉर्ज एफ. डेल्स द्वारा
सर्वेक्षण किया गया था, जबकि मकरान तट
के साथ-साथ वनस्पतियों की खोज की गई थी।
21. देसलपुर-
गुजरात के भुज ज़िले में स्थित ‘देसलपुर’ की खोज ‘पी.पी. पाण्ड्या’ और ‘एक. के. ढाके’ द्वारा किया गया। उत्खनन के. वी. सुन्दराजन द्वारा 1964 में किया गया।
इस नगर के मध्य में विशाल दीवारों वाला एक भवन था जिसमें छज्जे वाले कमरे थे
जो किसी महत्त्वपूर्ण भवन को चिह्नित करता है।
22. संघोल-
संघोल भारत के पंजाब राज्य में फतेहगढ़ साहिब जिले में स्थित है।
संघोल में ताम्बे की दो छेनियाँ और वृत्ताकार अग्नि कुंड
पाए गए हैं।
23. मीताथल-
मीताथल हरियाणा के भिवानी जिले में स्थित है। इस स्थान का उत्खनन 1968
में सूरजभान ने किया था।
मीताथल से ताम्बे की कुल्हाड़ी और चांदी के आभूषण की प्राप्ति
हुई है।
24. कुंतासी-
कुंतासी गुजरात के मोरबी जिले में फुल्की नदी के किनारे पर स्थित
है। यह लगभग 2 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है।
कुंतासी से चित्रित मृदभांड की प्राप्ति हुई है।
25. रोपड़-
रोपड़ सतलज
नदी के किनारे स्थित हैं इस स्थल की खोज यज्ञदत्त शर्मा द्वारा 1953 में व उत्खनन
1956 में किया गया।
यहाँ से मानव
के साथ कुत्ते के शवाधान के साक्ष्य मिलते हैं।
26. अलाहदिनों-
सिंधु नदी और अरब सागर के संगम से 16 कि.मी. उत्तर पूर्व में
स्थित है।
इसकी खुदाई फेयर सर्विस ने करायी।
27. कुणाल-
हाल में यह स्थल प्रकाश में आया है, यह हरियाणा में स्थित है।
यह एक मात्र ऐसा स्थल है, जहाँ से चाँदी
के दो मुकुट मिले हैं।
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