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वैदिक साहित्य (Vedic literature)

वैदिक साहित्य

आर्यों ने जिस धार्मिक साहित्य की रचना की थी, उन्हें वैदिक साहित्य नाम से जाना जाता है।

वैदिक साहित्य का तात्पर्य उस विपुल ग्रन्थ राशि से है, जिसके अन्तर्गत वैदिक संहिताएँ, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् और वेदांग परिगणित किये जाते हैं। इनमें वैदिक संहिताएं प्राचीनतम मानी जाती हैं। वैदिक संहिताओं में चारों वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद की गणना की जाती है। ऋग्वेद को अब तक प्राप्य मंत्रों का प्राचीनतम संग्रह माना गया है तथा शेष तीन वेदों- यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के मंत्र किञ्चित् बाद में संग्रहीत किए गए थे।

वैदिक साहित्य को 'श्रुति' कहा जाता है, क्योंकि (सृष्टि/नियम)कर्ता ब्रह्मा ने विराटपुरुष भगवान् की वेदध्वनि को सुनकर ही प्राप्त किया है। अन्य ऋषियों ने भी इस साहित्य को श्रवण परम्परा से ही ग्रहण किया था तथा आगे की पीढ़ियों में भी ये श्रवण परम्परा द्वारा ही स्थान्तरित किये गए। इस परम्परा को श्रुति परम्परा भी कहा जाता है तथा श्रुति परम्परा पर आधारित होने के कारण ही इसे श्रुति साहित्य भी कहा जाता है।

वैदिक साहित्य का काल

इस विषय के विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है कि वेदों की रचना कब हुई और उनमें किस काल की सभ्यता का वर्णन मिलता है। भारतीय वेदों को अपौरुषेय (किसी पुरुष द्वारा न बनाया हुआ) मानते हैं अतः नित्य होने से उनके काल-निर्धारण का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु पश्चिमी विद्वान इन्हें ऋषियों की रचना मानते हैं और इसके काल के सम्बन्ध में उन्होंने अनेक कल्पनाएँ की हैं।

उनमें पहली कल्पना मैक्समूलर की है। उन्होंने वैदिक साहित्य का काल 1200 ई. पू. से 600 ई. पू. माना है।

दूसरी कल्पना जर्मन विद्वान मारिज विण्टरनित्ज की है। उसने वैदिक साहित्य के आरम्भ होने का काल 2500-2000 ई. पू. तक माना।

तिलक और अल याकुबी ने वैदिक साहित्य में वर्णित नक्षत्रों की स्थिति के आधार पर इस साहित्य का आरम्भ काल 4500 ई.पू. माना।

श्री अविनाशचन्द्र दास तथा पावगी ने ऋग्वेद में वर्णित भूगर्भ-विषयक साक्षी द्वारा ऋग्वेद को कई लाख वर्ष पूर्व का ठहराया है।

वैदिक साहित्य का वर्गीकरण

वैदिक साहित्य निम्न भागों में बँटा है- (1) संहिता, (2) ब्राह्मण, (3) आरण्यक, (4) उपनिषद् (5) वेदांग और (6) सूत्र-साहित्य।

वैदिक संहिताएँ-

संहिता का अर्थ है संग्रह। संहिताओं में विभिन्न देवताओं के स्तुतिपरक मंत्रों का संकलन है। संहिता विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ है। संहिताओं में चार वेद आते हैं- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद।

इनमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन है तथा अथर्ववेद नवीनतम। ऋग्वेद में भारतीय संस्कृति, धर्म-दर्शन,ज्ञान-विज्ञान, इतिहास एवं काव्य की विविध सामग्री उपलब्ध है। चारों वेदों में ऋग्वेद सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है जबकि यजुर्वेद धार्मिक दृष्टि से, सामवेद संगीत की दृष्टि से एवं अथर्ववेद लौकिक दृष्टि से विशेष महत्व रखता है।

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वैदिक साहित्य

'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् धातु व घञ प्रत्यय से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान' है। ऋषियों द्वारा अर्जित किये गये समस्त ज्ञान के संग्रहभूत ग्रन्थों को भी 'वेद' ही कहते हैं। अतः वेद शब्द वैदिक ग्रन्थों में प्रतिपादित ज्ञान का वाचक होने के साथ साथ ही सम्पूर्ण अनंत वैदिक वाङमयता का भी बोधक है।

प्राचीन परम्परा के अनुसार वेद नित्य और अपौरुषेय हैं। उनकी कभी मनुष्य द्वारा रचना नहीं हुई। सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने इनका प्रकाश अग्नि, वायु आदित्य और अंगिरा नामक ऋषियों को दिया। प्रत्येक वैदिक मन्त्र का देवता और ऋषि होता है। मन्त्र में जिसकी स्तुति की जाय वह उस मन्त्र का देवता है और जिसने मन्त्र के अर्थ का सर्वप्रथम प्रदर्शन किया हो वह उसका ऋषि है। पाश्चात्य विद्वान ऋषियों को ही वेद-मन्त्रों का रचयिता मानते हैं।

वैदिक संहिताओं के अनेक शाखाओं का उल्लेख साहित्य में प्राप्त होता है, जिनमें अधिकांश अप्राप्त हैं। पतञ्जलि के महाभाष्य में ऋग्वेद की 21 शाखाओं, यजुर्वेद कुी 101 शाखाओं, सामवेद की 1000 शाखाओं और अथर्ववेद की 9 शाखाओं का उल्लेख किया गया है।

इसी प्रकार स्कन्द पुराण और बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में भी वेदों की अनेक शाखाओं का उल्लेख मिलता है। दिव्यावदान में ऋग्वेद की 20 शाखाओं का उल्लेख है। वैदिक संहिताओं का विभिन्न शाखाओं में विभाजन का मूल कारण संभव विभिन्न ऋषि-कुलों में वेदों का अध्ययन था। श्रुति परम्परा से अध्ययन के कारण कालान्तर में मूल पाठों में परिवर्तन होता गया, जो अस्वाभाविक नहीं था। इसी लिए वेदों का जब संकलन हुआ तो पाठ भेद के कारण अनेक शाखाएँ प्रकाश में आयी। वर्तमान में प्राप्त वैदिक संहिताओं का विवरण इस प्रकार है

1. ऋग्वेद-

ऋग्वेद प्राचीनतम वेद है। इसकी रचना ई०पू० 1500 से ई०पू० 1000 माना जाता है। महाभाष्य में ऋग्वेद की 21 शाखाओं का उल्लेख है, जिनमें पाँच शाखाएँ शाकल, वाष्कल, शांखायन, आश्वलायन और माण्डूकेय प्रमुख हैं। वर्तमान में प्रचलित ऋग्वेद शाकल शाखा का है यद्यपि वाष्कल शाखा का ऋग्वेद भी उपलब्ध है, किन्तु उसे शाकल शाखा की अपेक्षा कम मान्यता प्राप्त है। शाकल शाखा का नामकरण आचार्य देवमित्र शाकल्य पर किया गया है। वर्तमान में ऋग्वेद संहिता का यही सबसे प्रमाणिक पाठ स्वीकार किया गया है। आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकेय शाखा की संहिताएँ तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु उनके ब्राह्मण, आरण्यक, और सूत्र साहित्य प्राप्त होते हैं।

ऋग्वेद का विभाजन मण्डलों में, मण्डल का विभाजन अनुवाकों में, अनुवाक का विभाजन सूक्तों में एवं सूक्त का विभाजन मंत्रों (ऋचाओं) में किया गया है। ऋग्वेद में 10 मण्डल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त (बाल खिल्य के 11 सूक्त को जोड़ने पर) एवं 10,627 (निश्चित ज्ञात नहीं) मंत्र (ऋचाएँ) हैं। इसके अतिरिक्त ऋग्वेद का एक अन्य विभाजन भी मिलता है। इसके अनुसार ऋग्वेद आठ अष्टकों में विभाजित हैं। प्रत्येक अष्टक में आठ अध्याय हैं और अध्यायों को विविध वर्गों में विभाजित किया गया है।

ऋग्वेद में कुल वर्गों की संख्या 2024 हैं और मन्त्रों की संख्या 10,627 हैं। वेद के प्रत्येक सूक्त में ऋषि देवता (जिसकी स्तुति रहती है.) छन्द और विनियोग (उद्देश्य) का उल्लेख होता है। सूक्तों के वर्ण्य विषय भिन्न-भिन्न हैं जैसे-स्तुति, यज्ञ विधान, प्रार्थना, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान और लोक विधान आदि। ऋग्वेद के प्रमुख ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्र, अत्रि, वामदेव, भारद्वाज, वशिष्ट, वैवस्वत मनु शिवि, औशीनर, प्रतर्दन, मधुच्छन्दा. देवापि आदि हैं। ऋग्वेद के अधिकांश मंत्रों की रचना ऋषियों ने की है लेकिन कुछ मंत्रों की रचना ऋषिकाओं (स्त्रियों) ने की है जिनके नाम हैं- लोपामुद्रा, अपाला, रोमशा, घोषा आदि।

ऋग्वेद के 10 मंडलो में से 2 से लेकर 8 तक प्राचीनतम मण्डल हैं वहीं प्रथम और 10वां मण्डल सबसे नवीनतम माना जाता है। ऋग्वेद के 1से एवं 10वें मण्डल को क्षेपक माना जाता है । इन मण्डलों को विषय-वस्तु एवं भाषा के आधार पर सबसे बाद की रचना माना जाता है। इनमें भी 10वाँ मण्डल सबसे बाद की रचना माना जाता है। ऋग्वेद के प्रत्येक मण्डल किसी न किसी ऋषि से संबंधित है अर्थात मंडलों की रचना संबंधित ऋषि ने की है।

ऋग्वेद में कुल 14 छन्दों का प्रयोग किया गया है। इनमें से सात मुख्य छंद हैं-गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप/अनुष्टुभ, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप/त्रिष्टुभ व जगती। सात गौण छंद हैं अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, अष्टि, अत्यष्टि, धृति व अतिधृति।

अक्षरों के अनुसार मुख्य छंदों का क्रम है- गायत्री (24 अक्षर), उष्णिक (28 अक्षर), अनुष्टुप (32 अक्षर), बृहती (36 अक्षर), पंक्ति (40 अक्षर), त्रिष्टुप (44 अक्षर) व जगती(48 अक्षर)। ध्यातव्य है कि इन छंदों की अक्षर-संख्या में क्रमशः 44 अक्षरों की वृद्धि होती जाती है। प्रयोग के अनुसार मुख्य छंदों का क्रम है- त्रिष्टुप (ऋग्वेद के 4253 मंत्रों में प्रयोग जोकि ऋग्वेद का लगभग 40% है), गायत्री (ऋग्वेद के 2450 मंत्रों में प्रयोग जोकि ऋग्वेद का लगभग 23% है), जगती (ऋग्वेद के 1346 मंत्रों में प्रयोग जोकि ऋग्वेद का लगभग 13% है), अनुष्टुप (855 मंत्रों में प्रयोग), पंक्ति (498 मंत्रों में प्रयोग), बृहती (371 मंत्रों के प्रयोग) व उष्णिक (341 मंत्रों में प्रयोग)।

ऋग्वेद में नदियाँ-

ऋग्वेद में कुल 25 नदियों के वर्णन मिलते हैं जिसमे सबसे अधिक महत्वपूर्ण सिन्धु नदी व सबसे पवित्र सरस्वती नदी को माना जाता है। इन नदियों के प्राचीन नाम आधुनिक नाम से भिन्न थे। ऋग्वेद में नदियों को उनके प्राचीन नामो में वर्णित किया गया है ये नदियाँ व उनके आधुनिक नाम निम्न हैं-

प्राचीन नाम आधुनिक नाम
1. वितस्ता झेलम
2. विपाशा व्यास
3. परुष्णी रावी
4. दृषद्वती घग्घर(चौतांग नदी)
5. क्रुमु कुर्रम
6. कुभा काबुल
7. सदानीरा गंडक
8. अस्किनी चिनाब
9. शतुद्री सतलज
10. मरूद्वृधा कमरुवर्मन
11. गोमल गोमती
12. सिन्धु सिंध
13. सरस्वती घग्घर
14. सुषोमा सोहन
15. सुवास्तु स्वात

ऋग्वेद में उल्लेखित शब्दों की बारम्बारता-

ऋग्वेद में कुछ महत्वपूर्ण शब्द कई बार वर्णित किये गए हैं। जो कि परीक्षा दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। ये निम्न हैं-

शब्द- उल्लेख- शब्द-- उल्लेख--
पिता 335 बार वर्ण 23 बार
जन 275 बार सेना 20 बार
इन्द्र 250 बार ब्राम्हण 15 बार
माता 234 बार ग्राम 13 बार
अश्व 215 बार बृहस्पति 11 बार
अग्नि 200 बार राष्ट्र 10 बार
गौ(गाय) 176 बार क्षत्रिय 9 बार
विश 170 बार समिति 9 बार
सोम देवता 144 बार सभा 8 बार
विद्थ 122 बार यमुना 3 बार
विष्णु 100 बार रुद्र 3 बार
गण 46 बार वैश्य 1 बार
ब्रज गोशाला 45 बार शूद्र 1 बार
नदी 33 बार गंगा 1 बार
वरुण 30 बार राजा 1 बार
कृषि 24 बार पृथ्वी 1 बार

2. सामवेद-

इसमें यज्ञ के अवसर पर देवताओं को स्तुति के रूप में किए जाने वाले मन्त्रों का संग्रह है। यज्ञ के अवसर पर जिस देवता के लिए यज्ञ किया जाता था, उसे बुलाने के लिए उद्गाता उचित स्वर में उस देवता का स्तुति-मन्त्र गाता था। इस गायन को साम कहते थे। प्रायः ऋचाएँ ही गाई जाती थीं। अतः समस्त सामवेद में ऋचाएँ ही हैं। इनकी संख्या 1,875 है। इनमें से केवल 75 ही नई हैं, बाकी सब ऋग्वेद से ली गईं हैं। भारतीय संगीत का मूल सामवेद में उपलब्ध होता है।

सामवेद की तीन शाखाएँ कौथम, राणायनीय और जैमिनीय शाखाएँ मिलती है। पतंजलि के महाभाष्य और पुराणों में सामवेद की एक हजार शाखाओं का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में सामवेद की एक हजार अस्सी (1080) शाखाओं का उल्लेख प्राप्त हैं, किन्तु इन भाषाओं में अधिकांश के नाम तक नहीं प्राप्त होते हैं।

सामवेद की कौमुथीय, राणायनीय और जैमिनीय शाखाओं के अलावा जिन अन्य शाखाओं के नाम साहित्य में मिलते हैं, उनमें सात्यमुग्राः, मैगेया; शार्दूलाः, वार्षगण्या:, गौतमाः, भाल्लविनः, कालबलिनः, शाट्यायनिनः , रौरुकिणः, कापेयाः, माषशदाव्य:, करद्विषः, शाण्डिल्याः एवं ताण्ड्याः उल्लेखनीय हैं, किन्तु इन शाखाओं की संहिताएँ प्राप्त नहीं होती है।

सामवेद का सहस्त्र शाखाओं में विभाजन पाठभेद पर आधारित माना जाता है। सामवेद की उपलब्ध शाखाओं में कौथुम शाखा अधिक प्रचलित है। सामवेद के दो विभाजन मिलते हैं- पूर्वार्चिक एवं उत्तरार्चिक। सामवेद के इन दोनों भागों में मन्त्रों की संख्या 1869 है किन्तु इन मन्त्रों में अनेक मन्त्र दो बार प्रयोग किये गये हैं। ऐसे मन्त्रों को अलग करने पर सामवेद में मन्त्र संख्या 1549 ही होती है, उनमें भी 1474 मन्त्र ऋग्वेद से लिए गये हैं, इस प्रकार सामवेद के मूल मन्त्रों की संख्या मात्र 75 है।

सामवेद में ऋग्वेद के ऐसे मंत्रों को संकलित किया गया है, जिनका सस्वर पाठ किया जा सकता है। सामवेद की कौथुम शाखा और राणायनीय शाखा में कोई विशेष अन्तर नहीं हैं। दोनों में मन्त्रों की संख्या समान है, किन्तु दोनों में कुछ उच्चारण भेद मिलता है। सामवेद की जैमिनीय शाखा में कौथुम शाखा की अपेक्षा मंत्रों की संख्या कम है। जैमिनीय शाखा के पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक भागों में मन्त्र संख्या 1687 है, जो कौथुम शाखा से 182 कम है। सामवेद की इन उपलभ्य शाखाओं में भी यत्र-तत्र पाठभेद पाये गये हैं। जिसका कारण विभिन्न ऋषि कुलों में प्रचलित परम्पराएं मानी जा सकती हैं।

सामवेद के मंत्रों का प्रयोग यज्ञ में देवताओं के आह्वान के लिए उचित स्वर के साथ उद्गाता द्वारा किया जाता था। इसलिए साम-मंत्रों का पाठ नहीं अपितु गान किया जाता था। सोम यज्ञ के समय उद्गाता ब्राम्हण इन मंत्रों को गाठ थे। सामवेद जे अध्ययन से यह पता चलता है कि आर्य संगीत प्रिय थे। सामवेद के मंत्रों के गान में लय तथा स्वर का विशेष विधान है। सामवेद के गान चार प्रकार के हैं-

ग्राम गान (ग्राम या सार्वजनिक स्थलों पर गाये जाने वाले गान),

आरण्य गान (अरण्य या वनों में गाये जाने वाले गाना),

उह गान (ग्राम गान का परिवर्तित एवं परिवर्द्धित रूप) एवं

उह्य गान (आरण्य गान का परिवर्तित एवं परिवर्द्धित रूप)। इस प्रकार सामवेद का महत्व संगीत की दृष्टि से बहुत अधिक है। साम गायन संगीत शास्त्र की आधारशिला मानी जाती है। इससे ज्ञात होता है कि भारतीय संगीत का उद्भव किन स्रोतों से हुआ। इस वेद को भारतीय संगीत का जनक कहा जाता है।

3. यजुर्वेद-

इसमें यज्ञ-विषयक मन्त्रों का संग्रह है। इनका प्रयोग यज्ञ के समय अध्वर्यु नामक पुरोहित किया करता था। यजुर्वेद में 40 अध्याय हैं। तथा 1975 मन्त्र निहित है। पाश्चात्य विद्वान इसे ऋग्वेद से काफी समय बाद का मानते हैं।

जटिल कर्मकाण्ड में उपयोगी होने के कारण यजुर्वेद अन्य सभी वेदों की अपेक्षा अधिक लोकप्रिय है। यजुष का अर्थ होता है 'यज्ञ'। यज्ञ के अवसर पर जिन मन्त्रों के द्वारा देवताओं का यजन किया जाता था उसे यजुर्वेद के अन्तर्गत संकलित किया गया है।

यजुर्वेद के दो प्रमुख रूप/शाखा मिलते हैं। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेदशुक्ल यजुर्वेद पद्यात्मक है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में गद्य और पद्य दोनों का मिश्रण है। कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ साथ उनकी व्याख्या भी मिलती है।

1. शुक्ल यजुर्वेद-

शुक्ल यजुर्वेद की प्रमुख संहिता वाजसनेयी संहिता है। वाजसनेयी संहिता की दो शाखाएं: काण्व और माध्यन्दिनीय प्राप्त होती हैं। काण्व शाखा के शुक्ल यजुर्वेद में चालीस अध्याय और 2086 मन्त्र संकलित हैं, जबकि माध्यन्दिनीय शाखा में चालीस अध्याय और 1975 मन्त्र ही संकलित हैं।

कुछ लोग शुक्ल यजुर्वेद को ही मौलिक यजुर्वेद मानते हैं क्योंकि इसमें केवल मंत्रों का संग्रह है जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रों के साथ-साथ ब्राह्मण ग्रंथ के विषयों को भी शामिल कर लिया गया है। शुक्ल यजुर्वेद की प्रसिद्ध शाखा है वाजसनेयी संहिता। इसी कारण कभी-कभी शुक्ल यजुर्वेद को वाजसनेयी संहिता भी कह दिया जाता है।

शुक्ल यजुर्वेद में विविध यज्ञों से संबद्ध मंत्र संकलित हैं। इन यज्ञों में राजसूय, अश्वमेध, वाजपेय, अग्निष्टोम (अग्निहोत्र), सोम यज्ञ, सौत्रामणि, चातुर्मास, दर्श यज्ञ (अमावस्या के दिन किया जानेवाला यज्ञ), पूर्णमास यज्ञा (पूर्णिमा के दिन किया जाने वाला यज्ञ) आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त इसमें रुद्र, शिव, इन्द्र, पितरों की प्रार्थना आदि से संबद्ध मंत्र मिलते हैं।

शुक्ल यजुर्वेद की अन्य शाखाओं का उल्लेख साहित्य में मिलता है, ये जाबाल, बौधेय, शापेय, कापोल, पौण्ड्रवत्स, बैजवाप, पराशर और कात्यायन आदि हैं।

2. कृष्ण यजुर्वेद-

कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखायें प्राप्त होती हैं, जो काठक संहिता, कपिष्ठल संहिता, मैत्रेयी संहिता और तैत्तिरीय संहिता के नाम से जानी जाती हैं। कृष्ण यजुर्वेद की प्रसिद्ध शाखा है तैत्तिरीय संहिता। इसी कारण कभी-कभी कृष्ण यजुर्वेद को तैत्तिरीय संहिता भी कह दिया जाता है। इसमें मंत्रों (पद्यात्मक) के साथ-साथ ब्राह्मण ग्रंथ (गद्यात्मक) के अनुकूल बातों जैसे यज्ञ प्रक्रिया आदि का मिश्रण मिलता है। इसी मिश्रण के कारण इसे कृष्ण यजुर्वेद कहा जाता है। इसमें शुक्ल यजुर्वेद के समान ही राजसूय, अश्वमेध, वाजपेय आदि यज्ञों का विशद विवेचन है।

पतञ्जलि के महाभाष्य में यजुर्वेद के जिन एक सौ एक(101) शाखाओं का उल्लेख किया गया है, उनमें पन्द्रह (15) शाखाएँ शुक्ल यजुर्वेद की हैं और शेष 86 शाखाएँ कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित हैं। कृष्ण यजुर्वेद की 86 शाखाओं में मात्र चार शाखाएँ काठक कपिष्टल, मैत्रेयी और तैत्तिरीय ही प्राप्त होती हैं ।

कृष्ण यजुर्वेद के इन चार शाखाओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तैत्तिरीय संहिता है, क्योंकि इस संहिता के ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् और सूत्र साहित्य मिलते हैं। काठक और मैत्रेयी संहिताओं में लगभग समानता हैं, इनमें अन्तर बहुत कम है। कपिष्ठल संहिता खण्डित अवस्था में प्राप्त है। शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद में प्रमुख अन्तर यह माना जाता है कि शुक्ल यजुर्वेद में मूल मन्त्र हो संग्रहित हैं, जबकि कृष्ण यजुर्वेद में मूल मन्त्रों के साथ ब्राह्मण भी संकलित किये गये हैं। यजुर्वेद के विभिन्न शाखाओं में वाजसनेयी संहिता का विशेष महत्त्व है, कतिपय विद्वान इसे ही मूल यजुर्वेद मानते हैं।

4. अथर्ववेद-

अथर्ववेद का यज्ञों से बहुत कम सम्बन्ध है। इसमें आयुर्वेद सम्बन्धी सामग्री अधिक है। इसका प्रतिपाद्य विषय विभिन्न प्रकार की ओषधियाँ, ज्वर, पीलिया, सर्पदंश, विष-प्रभाव को दूर करने के मन्त्र सूर्य की स्वास्थ्य-शक्ति, रोगोत्पादक कीटाणुओ के शमन अदि का वर्णन है। इस वेद में यज्ञ करने के लाभ को तथा यज्ञ से पर्यावरण की रक्षा का भी वर्णन है। इसमें 20 काण्ड, 34 प्रपाठक, 111 अनुवाक, 731 सूक्त तथा 5,977 मन्त्र हैं, इनमें 1200 के लगभग मन्त्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। ऊपर कहे गए चारों संहिताएं पहले एक ही जगह थे। वेदव्यास जी ने यज्ञ सिद्धि के लिए चार भागों में विभाजन किया था।

पतञ्जलि ने महाभाष्य में अथर्ववेद की नौ शाखाओं का उल्लेख किया है, जिनमें पिप्पलाट, शौनक मौद जाजल, देवदर्श, चारण विद्या. स्त्रीद, जलद और ब्रह्मवद संहिताएँ है। इन संहिताओं में शौनक और पिप्पलाद संहिता ही उपलब्ध हैं। अथर्ववेद की शौनक संहिता अधिक प्रामाणिक मानी जाती है, इसमें 20 काण्ड, 731 सूक्त और 5987 मंत्र संग्रहीत हैं। इन मन्त्रों में कुछ मन्त्र ऋग्वेद से ग्रहण किये गये हैं। इनमें से 1200 मंत्र (लगभग 20%) ऋग्वेद (के 1ले, 8वें एवं 10वें मण्डल) से लिये गये हैं। अथर्ववेद को उसके रचयिताओं के नाम पर अथर्वांगीरस वेद कहा जाता है।

इस शाखा का ब्राह्मण गोपथ है। पिप्पलाद शाखा के अथर्ववेद में ब्राह्मण भाग को अधिकता है अथर्ववेद के भी विभिन्न शाखाओं में विभाजन का मुख्य कारण पाठभेद माना जाता है।

अथर्ववेद का वर्ण्य विषय अन्य वेदों से भिन्न है। इस वेद में आर्य और अनार्य संस्कृति के सम्मिश्रण का संकेत मिलता है। अथर्ववेद में ब्रह्मज्ञान, राजनीति, धर्म, समाज, औषधि प्रयोग, शत्रु दमन, रोग निवारण, भूत प्रेत, जादू टोना, अंधविश्वास और अभिचार क्रियाओं आदि का वर्णन किया गया है। लौकिक दृष्टि से तात्कालिक सभ्यता और संस्कृति से संबद्ध प्रामाणिक और व्यापक सामग्री अथर्ववेद में मिलती है।

अथर्ववेद के विचारपरक कल्याणकारी (लाभ पहुंचाने वाले) मंत्रों, से-राज्य-प्राप्ति, कष्ट-निवारण आदि के रचयिता ऋषि अथर्व हैं। अथर्ववेद के अभिचारपरक/अकल्याणकारी (हानि पहुँचाने वाले) मंत्रों, से-मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि के रचयिता ऋषि अंगिरा हैं।

अथर्व' का अर्थ है पवित्र जादू या पवित्र विद्या तथा अंगिरा' का अर्थ है अपवित्र जादू या अपवित्र विद्या।

अथर्ववेद में जादू-विद्या, आयुर्विज्ञान, राजशास्त्र धर्म, दर्शन आदि पक्षों का व्यापक निरूपण मिलता है, जैसे कि-

1. आयुर्विज्ञान की दृष्टि से अथर्ववेद में रोगों के निवारण, विष-नाशक, कृमियों के नाश तथा विभिन्न वृक्षों की उपयोगिता, जड़ी-बूटी का प्रयोग आदि का निरूपण है।

2. जादू-विद्या की दृष्टि से अथर्ववेद में राज्य प्राप्ति, कष्ट निवारण, मारण-मोहन-उच्चाटन-वशीकरण आदि निरूपित है।

3. धर्म की दृष्टि से अथर्ववेद में अग्नि, इन्द्र, सूर्य, उषा, विष्णु आदि देवताओं की स्तुतियाँ, चार आश्रम आदि मिलते हैं।

4. राजशास्त्र की दृष्टि से अथर्ववेद में राष्ट्र, देश-रक्षा, राज कर्तव्य, प्रजा के समान अधिकार, मित्र राष्ट्र, सैन्य शासन, राजा का निर्वाचन, सभा-समिति संसद, दण्ड-विधान, अस्त्र-शस्त्र आदि बातें मिलती हैं। इसलिए कभी-कभी अथर्ववेद को 'क्षत्र-वेद' भी कहा जाता है।

5. दर्शन की दृष्टि से अथर्ववेद में विराट ब्रह्म, उच्छिष्ट ब्रह्म, माया, ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, पुनर्जन्म, स्वर्ग नरक आदि का विवेचन मिलता है। ये विचार बाद में उपनिषदों में विकसित हुए।

6. इसके अतिरिक्त अथर्ववेद में विविध विषयक बातें मिलती हैं, जैसेपशुपालन, वर्षा, अतिथि सत्कार, स्त्री-कर्म आदि।

समग्रतः जहाँ अन्य वेदों में धर्म केन्द्रित विषयों का विस्तार मिलता है वहाँ अथर्ववेद में धर्मेत्तर विषयक सामग्री भरे पड़े हैं।

वेदों की शाखाएँ-

प्राचीन काल में वेदों की रक्षा गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा होती थी। इनका लिखित एवं निश्चित स्वरूप न होने से वेदों के स्वरूप में कुछ भेद आने लगा और इनकी शाखाओं का विकास हुआ।

ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ थीं- शैशिरीयशाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकेय। इनमें अब पहली शाखा ही उपलब्ध होती है। यह शाखा आदित्य सम्प्रदायिका है।

शुक्ल यजुर्वेद की दो प्रधान शाखाएँ हैं - माध्यंदिन और काण्व। पहली उत्तरी भारत में मिलती है और दूसरी महाराष्ट्र में। इनमें अधिक भेद नहीं है। कृष्ण यजुर्वेद की आजकल चार शाखाएँ मिलती हैं - तैत्तिरीय मैत्रायणी, काठक (या कठ) तथा कापिष्ठल संहिता। इनमें दूसरी-तीसरी पहली से मिलती हैं, क्रम में थोड़ा ही अन्तर है। चौथी शाखा आधी ही मिली है। यह वेद ब्रह्म सम्प्रदायिका है।

सामवेद की दो शाखाएँ थीं- कौथुम और राणायनीय। इसमें कौथुम का केवल सातवाँ प्रपाठक मिलता है। यह शाखा भी आदित्य सम्प्रदायका है।

अथर्ववेद की दो शाखाएँ उपलब्ध हैं- पिप्पलाद और शौनक। वर्तमान समय में शौनक शाखा ही पूर्णरुप में प्राप्त होती है, यह शाखा आदित्य सम्प्रदायिका है।

वेद ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद्
ऋग्वेद ऐतरेय, कोषीतिकी ऐतरेय, कोषीतिकी ऐतरेय, कोषीतिकी
यजुर्वेद शतपथ, तैतिरिय वृहदारण्यक, तैतिरिय वृहदा, ईश, कठोपनिषद, मैत्रायणी, तैतिरिय, कपिष्ठल
सामवेद पँचविश, षडविश, जैमिनी छान्दोग्य, जैमिनी छान्दोग्य, जैमिनी, कैन
अथर्ववेद गोपत - मुण्डक, माण्डुक्य, प्रश्न

ब्राह्मण-ग्रन्थ-

चारों वेदों के संस्कृत भाषा में प्राचीन समय में जो अनुवाद थे मन्त्रब्राह्मणयोः वेदनामधेयम्' के अनुसार वे ब्राह्मण ग्रंथ कहे जाते हैं। चार मुख्य ब्राह्मण ग्रंथ हैं- ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ | वेद संहिताओं के बाद ब्राह्मण-ग्रन्थों का निर्माण हुआ माना जाता है। इनमें यज्ञों के कर्मकाण्ड का विस्तृत वर्णन है, साथ ही शब्दों की व्युत्पत्तियाँ तथा प्राचीन राजाओं और ऋषियों की कथाएँ तथा सृष्टि-सम्बन्धी विचार हैं। प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्मण हैं।

ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं - (1) ऐतरेय ब्राह्मण और (2) कौषीतकी। ऐतरेय में 40 अध्याय और आठ पंचिकाएँ हैं, इसमें अग्निष्टोम, गवामयन, द्वादशाह आदि सोमयागों, अग्निहोत्र तथा राज्याभिषेक का विस्तृत ऐतरेय ब्राह्मण-जैसा ही है। इनसे तत्कालीन इतिहास पर काफी प्रकाश पड़ता है। ऐतरेय में शुनःशेप की प्रसिद्ध कथा है। कौषीतकी से प्रतीत होता है कि उत्तर भारत में भाषा के सम्यक् अध्ययन पर बहुत बल दिया जाता था।

शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि इसमें सौ अध्याय हैं। ऋग्वेद के बाद प्राचीन इतिहास की सबसे अधिक जानकारी इसी से मिलती है। इसमें यज्ञों के विस्तृत वर्णन के साथ अनेक प्राचीन आख्यानों, व्युत्पत्तियों तथा सामाजिक बातों का वर्णन है। इसके समय में कुरु-पांचाल आर्य संस्कृति का केन्द्र था, इसमें पुरूरवा और उर्वशी की प्रणय-गाथा, च्यवन ऋषि तथा महा प्रलय का आख्यान, जनमेजय, शकुन्तला और भरत का उल्लेख है।

सामवेद के अनेक ब्राह्मणों में से पंचविंश या ताण्ड्य ही महत्त्वपूर्ण है। अथर्ववेद का ब्राह्मण गोपथ के नाम से प्रसिद्ध है।

आरण्यक-

ब्राह्मणों के अन्त में कुछ ऐसे अध्याय मिलते हैं जो गाँवों या नगरों में नहीं पढ़े जाते थे। इनका अध्ययन-अध्यापन गाँवों से दूर (अरण्यों/वनों) में होता था, अतः इन्हें आरण्यक कहते हैं। गृहस्थाश्रम में यज्ञविधि का निर्देश करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थ उपयोगी थे और उसके बाद वानप्रस्थ आश्रम में संन्यासी आर्य यज्ञ के रहस्यों और दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन करने वाले आरण्यकों का अध्ययन करते थे। उपनिषदों का इन्हीं आरण्यकों से विकास हुआ। आरण्यको का मुख्य विषय आध्यात्मिक तथा दार्शनिक चिंतन है।

उपनिषद्-

उपनिषदों में मानव-जीवन और विश्व के गूढ़तम प्रश्नों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया है। ये भारतीय अध्यात्म-शास्त्र के देदीप्यमान रत्न हैं। इनका मुख्य विषय ब्रह्म-विद्या का प्रतिपादन है। वैदिक साहित्य में इनका स्थान सबसे अन्त में होने से ये वेदान्त भी कहलाते हैं। इनमें जीव और ब्रह्म की एकता के प्रतिपादन द्वारा ऊँची-से-ऊँची दार्शनिक उड़ाने ली गई है। भारतीय ऋषियों ने गम्भीरतम चिन्तन से जिन आध्यात्मिक तत्त्वों का साक्षात्कार किया, उपनिषद उनका अमूल्य कोष हैं। इनमें अनेक शतकों की तत्त्व-चिन्ता का परिणाम है।

मुक्तिकोपनिषद् चारों वेदों से सम्बद्ध 108 उपनिषद् गिनाये गए हैं, किन्तु 11 उपनिषद् ही अधिक प्रसिद्ध हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर इनमें छान्दोग्य और बृहदारण्यक अधिक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। वैदिक साहित्य का यह सिद्धान्त देखा जाता है प्रत्येक मन्त्रभागमे एक और ब्राह्मणभागमे एक उपनिषद उपदिष्ट थे। अब प्राय लुप्त हो गए। अब भी यह सिद्धान्त शुक्ल यजुर्वेद मे बचा है ईशावास्योनिषद् मन्त्रोपनिषद् है और बृहदारण्यकोपनिषद् ब्राह्मणोपनिषद् है।

वेदांग-

काफी समय बीतने के बाद वैदिक साहित्य जटिल एवं कठिन प्रतीत होने लगा। उस समय वेद के अर्थ तथा विषयों का स्पष्टीकरण करने के लिए अनेक सूत्र-ग्रन्थ लिखे जाने लगे। इसलिए इन्हें वेदांग कहा गया। वेदांग छः हैं- शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त, कल्प और ज्योतिष।

पहले चार वेदांग, मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और अर्थ समझने के लिए तथा अन्तिम दो वेदांग धार्मिक कर्मकाण्ड और यज्ञों का समय जानने के लिए आवश्यक हैं। व्याकरण को वेद का मुख कहा जाता है, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को श्रोत्र, कल्प को हाथ, शिक्षा को नासिका तथा छन्द को दोनों पैर

1. शिक्षा- उन ग्रन्थों को शिक्षा कहते हैं, जिनकी सहायता से वेद-मन्त्रों के उच्चारण का शुद्ध ज्ञान होता था। वेद-पाठ में स्वरों का विशेष महत्त्व था। इनकी शिक्षा के लिए पृथक् वेदांग बनाया गया। इसमें वर्णों के उच्चारण के अनेक नियम दिये गए हैं। संसार में उच्चारण-शास्त्र की वैज्ञानिक विवेचना करने वाले पहले ग्रन्थ यही हैं। ये वेदों की विभिन्न शाखाओं से सम्बन्ध रखते हैं और प्रातिशाख्य कहलाते हैं। ऋग्वेद अथर्ववेद, वाजसेनीय व तैत्तिरीय संहिता के प्रातिशाख्य मिलते हैं। बाद में इसके आधार पर शिक्षा-ग्रन्थ लिखे गए। इनमें शुक्ल यजुर्वेद की याज्ञवल्क्य-शिक्षा, सामवेद की नारद शिक्षा और पाणिनि की पाणिनीय शिक्षा मुख्य हैं

2. छन्द- वैदिक मन्त्र छन्दोवद्ध हैं। छन्दों का बिना ठीक ज्ञान प्राप्त किये, वेद- मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण नहीं हो सकता। अतः छन्दों की विस्तृत विवेचना आवश्यक समझी गई। शौनक मुनि के ऋक्प्रातिशाख्य में, शांखायन श्रौतसूत्र में तथा सामवेद से सम्बद्ध निदान सूत्र में इस शास्त्र का व्यवस्थित वर्णन है। किन्तु इस वेदांग का एकमात्र स्वतन्त्र ग्रन्थ पिंगलाचार्य-प्रणीत छन्द सूत्र है। इसमें वैदिक और लौकिक दोनों प्रकार के छन्दों का

3. व्याकरण- इस अंग का उद्देश्य सन्धि, शब्द-रूप, धातु-रूप तथा इनकी निर्माण-पद्धति का ज्ञान कराना था। इस समय व्याकरण का सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ पाणिनी का अष्टाध्यायी है; किन्तु व्याकरण का विचार ब्राह्मण-ग्रन्थों के समय से शुरू हो गया था। पाणिनी से पहले गार्ग्य, स्फोटायन, भारद्वाज आदि व्याकरण के अनेक महान आचार्य हो चुके थे। इन सबके ग्रन्थ अब लुप्त हो चुके हैं।

4. निरुक्त- इसमें वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति दिखाई जाती थी। प्राचीन काल में वेद के कठिन शब्दों की क्रमबद्ध तालिका और कोश निघंटु कहलाते थे और इनकी व्याख्या निरुक्त में होती थी। आजकल केवल यास्काचार्य का निरुक्त ही उपलब्ध होता है। इसका समय 800 ई. पू. के लगभग है।

5. ज्योतिष- वैदिक युग में यह धारणा थी कि वेदों का उद्देश्य यज्ञों का प्रतिपादन है। यज्ञ उचित काल और मुहूर्त में किये जाने से ही फलदायक होते हैं। अतः काल-ज्ञान के लिए ज्योतिष का ज्ञान अत्यावश्यक माना गया। इस प्रकार ज्योतिष के ज्ञाता को यज्ञवेत्ता जाना गया। इस प्रकार ज्योतिष शास्त्रका विकास हुआ। यह वेद का अंग समझा जाने लगा। इसका प्राचीनतम ग्रन्थ लगधमुनि-रचित वेदांग ज्योतिष पंचसंवत्सरमयं इत्यादि ४४ श्लोकात्मक है। नेपाल में इस ग्रन्थ के आधार पर बना वैदिक तिथिपत्रम् व्यवहार में लाया गया है।

6. कल्प- कल्प, वेद के छह अंगों (वेदांगों) में से वह अंग है जो कर्मकाण्डों का विवरण देता है। अनेक वैदिक ऐतिहासिकों के मत से कल्पग्रंथ या कल्पसूत्र छः वेदांगों में प्राचीनतम और वैदिक साहित्य के अधिक निकट हैं। वेदांगों में कल्प का विशिष्ट महत्त्व है क्योंकि जन्म, उपनयन, विवाह, अंत्येष्टि और यज्ञ जैसे विषय इसमें विहित हैं।

सूत्र-साहित्य-

वैदिक साहित्य के विशाल एवं जटिल होने पर कर्मकाण्ड से सम्बद्ध सिद्धान्तों को एक नवीन रूप दिया गया। कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ-प्रतिपादन करने वाले छोटे-छोटे वाक्यों में सब महत्त्वपूर्ण विधि-विधान प्रकट किये जाने लगे। इन सारगर्भित वाक्यों को सूत्र कहा जाता था। कर्मकाण्ड-सम्बन्धी सूत्र-साहित्य को चार भागों में बाँटा गया- (1) श्रौत सूत्र (2) गृह्य सूत्र (3) धर्म सूत्र और (4) शुल्ब सूत्र। पहले में वैदिक यज्ञ सम्बन्धी कर्मकाण्ड का वर्णन है। दूसरे में गृहस्थ के दैनिक यज्ञों का, तीसरे में सामाजिक नियमों का और चौथे में यज्ञ-वेदियों के निर्माण का।

1. श्रौत सूत्र- श्रौत का अर्थ है श्रुति (वेद) से सम्बद्ध यज्ञ याग। अतः श्रौत सूत्रों में तीन प्रकार की अग्नियों के आधान अग्निहोत्र, दर्श पौर्णमास, चातुर्मास्यादि साधारण यज्ञों तथा अग्निष्टोम आदि सोमयागों का वर्णन है। ये भारत की प्राचीन यज्ञ-पद्धति पर बहुत प्रकाश डालते हैं। ऋग्वेद के दो श्रौत सूत्र हैं-शांखायन और आश्वलायन। शुक्ल यजुर्वेद का एक-कात्यायन, कृष्ण यजुर्वेद के छः सूत्र हैं-आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, बौधायन, भारद्वाज, मानव, वैखानस। सामवेद के लाट्यायन, द्राह्यायण और आर्षेय नामक तीन सूत्र हैं। अथर्ववेद का एक ही वैतान सूत्र है।

2. गृह्य सूत्र- इनमें उन विचारों तथा जन्म से मरणपर्यन्त किये जाने वाले संस्कारों का वर्णन है, जिनका अनुष्ठान प्रत्येक हिन्दू-गृहस्थ के लिए आवश्यक समझा जाता था। उपनयन और विवाह-संस्कार का विस्तार से वर्णन है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से प्राचीन भारतीय समाज के घरेलू आचार-विचार का तथा विभिन्न प्रान्तों के रीति-रिवाज का परिचय पूर्ण रूप से हो जाता है। ऋग्वेद के गृह्य सूत्र शांखायन और आश्वलायन हैं। शुक्ल यजुर्वेद का पारस्कर, कृष्ण यजुर्वेद के आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, बौधायन, Bharadvaj , वराह,मानव, काठक और वैखानस, सामवेद के गोभिल तथा खादिर और अथर्ववेद का कौशिक। इनमें गोभिलको प्राचीनतम माना जाता है।

3. धर्मसूत्र- धर्मसूत्रों में सामाजिक जीवन के नियमों का विस्तार से प्रतिपादन है। वर्णाश्रम-धर्म की विवेचना करते हुए ब्रह्मचारी, गृहस्थ व राजा के कर्त्तव्यों, विवाह के भेदों, दाय की व्यवस्था, निषिद्ध भोजन, शुद्धि, प्रायश्चित्त आदि का विशेष वर्णन है। इन्हीं धर्मसूत्रों से आगे चलकर स्मृतियों की उत्पत्ति हुई, जिनकी व्यवस्थाएँ हिन्दू-समाज में आज तक माननीय समझी जाती हैं। वेद से सम्बद्ध केवल तीन धर्मसूत्र ही अब तक उपलब्ध हो सके हैं-आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी व बौधायन। ये कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध हैं। शुक्लयजुर्वेदका शंखलिखित धर्मसूत्र होनेकी बात सुना है। अन्य धर्मसूत्रों में सामवेदसे सम्बद्ध गौतमधर्मसूत्र और ऋग्वेदसे सम्बद्ध वसिष्ठधर्मसूत्र उल्लेखनीय हैं।

4. शुल्ब सूत्र- इनका सम्बन्ध श्रौतसूत्रों से है। शुल्ब का अर्थ है मापने का डोरा। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है। ये भारतीय ज्यामिति के प्राचीनतम स्रोतग्रन्थ हैं।

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