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राजस्थान में 1857 की क्रांति के कारण और परिणाम

1857 के विद्रोह में राजस्थान की भूमिका

राजस्थान के अधिकांश शासकों ने ब्रिटिश सरकार की अधीनता स्वीकार कर ली थी, परन्तु अंग्रेजों की आन्तरिक हस्तक्षेप की नीति के कारण राजस्थान के शासकों में असन्तोष व्याप्त था। सामन्तों में भी ब्रिटिश-विरोधी भावना व्याप्त थी क्योंकि ब्रिटिश सरकार सामन्तों को शक्ति एवं प्रभाव को नष्ट करने के लिये प्रयत्नशील थी।

अंग्रेजों को आर्थिक नीति एवं दमनकारी नीति के कारण जन-साधारण में भी असन्तोष फैला हुआ था। इस प्रकार 1857 की क्रान्ति के प्रारम्भ होने के समय राजस्थान में सभी वर्गों में अंग्रेज-विरोधी भावना व्याप्त थी।

राजस्थान में 1857 के विद्रोह के प्रमुख कारण

राजस्थान में 1857 के विद्रोह के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

1. शासकों में असन्तोष-

ब्रिटिश सरकार की आन्तरिक हस्तक्षेप की नीति के कारण राजस्थान के शासकों में असन्तोष व्याप्त था। जोधपुर के महाराजा मानसिंह में अंग्रेज-विरोधी भावना थी। इसी कारण उसने अंग्रेज-विरोधी मराठा सरदार अप्पा जी भौंसले तथा सिन्ध के अमीरों को मारवाड़ में शरण दी और 1831 में विलियम बैंटिंक द्वारा आयोजित समारोह में अजमेर दराबर में उपस्थित नहीं हुआ। जब 1839 में ब्रिटिश रेजीडेन्ट सदरलैण्ड ने मारवाड़ पर आक्रमण कर जोधपुर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया, तो इससे मारवाड़-राज्य की जनता में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार ब्रिटिश सरकार ने डूंगरपुर के शासक जसवन्तसिंह को गद्दी से हटाकर राज्य के बाहर वृन्दावन भेज दिया जिससे राजस्थान के शासकों एवं सामान्य जनता में ब्रिटिश विरोधी भावना उत्पन्न हुई।

1835 में जयपुर में कप्तान ब्लैक की हत्या कर दी गई। यह घटना जयपुर राज्य में ब्रिटिश विरोधी भावना की प्रतीक थी। ब्रिटिश सरकार की पक्षपातपूर्ण नीति से कोटा का शासक किशोरसिंह भी अंग्रेजों से नाराज थौ। अंग्रेजों ने कोटा के महाराव किशोरसिंह के फौजदार झाला जालिमसिंह का पक्ष लिया जिससे महाराव बड़ा नाराज हुआ। जब उसने जालिमसिंह के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही की तो अंग्रेजों ने जालिमसिंह की सहायता के लिए एक सेना भेजी। इससे कोटा का महाराव भी अंग्रेजों से नाराज हो गया। इसी प्रकार अंग्रेजों ने पक्षपातपूर्ण नीति अपनाते हुए दुर्जनसाल की बजाय बलवन्तसिंह को भरपुर का शासक घोषित कर दिया। उन्होंने दुर्जनसाल को बन्दी बनाकर इलाहाबाद भेज दिया। दुर्जनसाल भरतपुर राज्य में लोकप्रिय था और जाटों का उसे पूर्ण समर्थन प्राप्त था। अत: अंग्रेजों की पक्षपातपूर्ण एवं अन्यायपूर्ण नीति से भरतपुर राज्य में भी ब्रिटिश विरोधी भावना व्याप्त थी।

2. सामन्तों की प्रतिष्टा तथा प्रभाव को नष्ट करना-

ब्रिटिश सरकार को स्वार्थपूर्ण नीति से भी सामन्त वर्ग में असन्तोष व्याप्त था। ब्रिटिश सरकार सामन्तों को महत्त्वहीन बनाये रखने के लिये प्रयत्नशील थी। वह उनकी सैनिक शक्ति को नष्ट कर उन्हें करदाता बना देने के पक्ष में धी। सामन्तों ने इसे अपनी प्राचीन परम्परा प्रतिष्ठा पर घातक प्रहार माना। अत: सामन्तों में भी ब्रिटिश विरोधी भावना व्याप्त थी।

अंग्रेजों ने सामन्तों के अनेक विशेषाधिकार समाप्त कर दिये। लगभग सभी देशी राज्यों में कुछ प्रमुख सरदारों को शरण देने का अधिकार प्राप्त था। परन्तु ब्रिटिश सरकार ने हस्तक्षेप कर सामन्तों के इस परम्परागत अधिकार को समाप्त करवा दिया। मेवाड़ में नये राणा के सिंहासनारोहण के लिए सलूम्बर के रावत से सहमति प्राप्त करनी पड़ती थी, परन्तु मेवाड़ पर ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित होने के बाद सलूम्बर के रावत के इस अधिकार की अवहेलना की जाने लगी। डूंगरपुर, अलवर, भरतपुर तथा करौली के उत्तराधिकार के मामले में वहाँ के सामन्तों की सलाह की उपेक्षा की गई। ब्रिटिश सरकार ने अपने मनमाने ढंग से निर्णय लिया और उसे कार्यान्वित किया।

राजस्थान में 1857 की क्रांति के कारण और परिणाम, 1857 के विद्रोह में राजस्थान की भूमिका की विवेचना कीजिए
राजस्थान में 1857 की क्रांति के कारण और परिणाम

जागीरों के निवासी अपने सामन्त की स्वीकृति प्राप्त किये बिना किसी अन्य क्षेत्र में जाकर स्थायी रूप से निवास नहीं कर सकते थे। ब्रिटिश सरकार के दबाव डालने पर शासकों ने सामन्तों के इस विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया। अब जागीर के अनेक बड़े व्यापारी तथा साहूकार बाहर ब्रिटिश शासित क्षेत्र में जाकर बसने लगे। इससे सामन्तों को प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा और उन्हें आर्थिक क्षति भी उठानी पड़ी। सामन्तों को व्यापारियों से राहदारी, दाना-पानी इत्यादि शुल्क वसूल करने का अधिकार था। परन्तु ब्रिटिश सरकार के दबाव डालने पर शासकों ने सामन्तों के इस अधिकार को भी समाप्त कर दिया। इस कारण भी सामन्तों में तीव्र आक्रोश व्याप्त धा।

3. जन-साधारण में असन्तोष-

राजस्थान की आम जनता में भी ब्रिटिश-विरोधी भावना व्याप्त थी। यद्यपि डूंगरसिंह तथा जवाहरसिंह डाकू थे, परन्तु वे अपने जीवन-काल में ही अत्यधिक लोकप्रिय हो गये थे। वे ब्रिटिश छावनियों पर धावा बोलते थे तथा सरकारी खजाना लूट लेते थे और गरीबों को सहायता करते थे। जब डूंगरसिंह को गिरफ्तार कर अजमेर ले जाया गया, तो रास्ते में जनता ने डूंगरसिंह पर पुष्प वर्षा कर उसका अभिवादन किया। जब डूंगरसिंह को मृत्युदण्ड दिया गया तो जनता के विरोध पर ब्रिटिश सरकार को अपना निर्णय बदलना पड़ा और डूंगरसिंह को जोधपुर में नजरबन्द कर दिया गया।

ब्रिटिश सरकार की दोषपूर्ण नीतियों से भी आम जनता ने असन्तोष व्याप्त था। ब्रिटिश सरकार का समर्थन प्राप्त कर ईसाई धर्म प्रचारक राजस्थान की गरीब, अशिक्षित एवं भोली-भाली जनता को ईसाई बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। ईसाई धर्म के प्रचारकों को सरकार की ओर से सुविधाएँ दी जाती थीं। ईसाई धर्म प्रचारकों को ब्रिटिश सरकार द्वारा दिये गये प्रोत्साहन से आम जनता में असन्तोष था। इसके अतिरिक्त जब ब्रिटिश सरकार के दबाव से सती प्रथा, कन्या-वध, त्याग, डाकन प्रथा आदि परम्परागत प्रथाओं को समाप्त करने का प्रयास किया गया, तो जनता में ब्रिटिश विरोधी भावना उत्पन्न हुई। राजस्थान में रूढ़िवादी जनता पसन्द नहीं करती थी कि ब्रिटिश सरकार उनके सामाजिक जीवन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करे। राजस्थान में पाश्चात्य पद्धति से शिक्षा देने की व्यवस्था से भी आम जनता में असन्तोष था।

4. आर्थिक कारण-

ब्रिटिश सरकार की स्वार्थपूर्ण आर्थिक नीति के कारण राजस्थान को कृषि, उद्योग-धन्धे तथा व्यापार चौपट हो गये थ। ब्रिटिश सरकार ने राजस्थान के नमक उत्पादन पर तथा उसके मूल्य पर कड़ा नियन्त्रण रखने के लिए अनेक कदम उठाये जिससे यहाँ के नमक उद्योग को प्रबल आघात पहुँचा। इसी प्रकार सरकार द्वारा अफीम के व्यापार पर नियन्त्रण स्थापित किये जाने से पश्चिमी राजस्थान पर घातक प्रभाव पड़ा। राजाओं की सेनाओं से सैनिकों को निकाले जाने के कारण हजारों लोग बेरोजगार हो गये थे। इस कारण भी जनता में तीव्र आक्रोश व्याप्त था।

5. साहित्यकारों का योगदान-

तत्कालीन साहित्यकारों ने भी लोगों में ब्रिटिश विरोधी भावनाओं को प्रोत्साहित किया। सलूम्बर के रावत केसरीसिंह तथा कोठारिया के रावत जोधासिंह ने ब्रिटिश सत्ता का विरोध किया। समकालीन चारण कवियों ने इन सामन्तों की प्रशंसा में अनेक गीत लिखे। जोधपुर का शासक मानसिंह अंग्रेजों का प्रबल विरोधी था। समकालीन कवियों ने मानसिंह की प्रशंसा में भी अनेक गीतों की रचना की। अंग्रेजी छावनियों तथा सरकारी खजानों को लूटने वाले डूंगरसिंह तथा जवाहरसिंह की प्रशंसा में भी अनेक गीत लिखे गये।

तत्कालीन साहित्यकारों में राष्ट्रीयता तथा देशप्रेम की भावना प्रबल रूप से विद्यमान थी। वे ऐसे लोगों का प्रतिनिधित्व करते थे जो ब्रिटिश शासन से सन्तुष्ट नहीं थे। सूर्यमल्ल मिश्रण अंग्रेजों का प्रबल विरोधी था। उसने राजस्थान के शासकों तथा सामन्तों को प्रेरित करते हुए लिखा था कि "वे संगठित होकर ब्रिटिश शासन की समाप्ति के लिए प्रयास करें। इसी में सबका हित निहित है।" जोधपुर के दरबारी कवि बांकीदास ने अपनी रचनाओं में उन राजपूत नरेशों की कड़ी आलोचना की है, जिन्होंने अंग्रेजों को दासता स्वीकार कर ली थी।

6. राजस्थान में ब्रिटिश-विरोधी भावना-

क्रान्ति का सूत्रपात होने के पूर्व सम्पूर्ण राजस्थान में ब्रिटिश विरोधी भावना व्याप्त थी। अंग्रेजों को पक्षपातपूर्ण एवं अन्यायपूर्ण नीतियों के कारण शासकों, सामन्तों, सैनिकों एवं जनसाधारण में अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र असन्तोष व्याप्त था। अलवर, भरतपुर, जोधपुर, डूंगरपुर, जयपुर आदि के शासकों में ब्रिटिश-विरोधी भावना व्याप्त थी। अंग्रेजी कम्पनी द्वारा राजपूत-राज्यों के आन्तरिक प्रशासन में हस्तक्षेप किया जा रहा था। जिससे शासकों में घोर असन्तोष था। अंग्रेजी सरकार सामन्तों को शक्तिहीन, महत्त्वहीन तथा प्रभावहीन बनाने के लिये प्रयत्नशील थी। अतः सामन्तवर्ग भी अंग्रेजों से असन्तुष्ट था। ब्रिटिश सरकार ने सभी रियासतों में अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों के साथ सैनिक छात्रवृत्तियों का जाल बिछाकर शासकों एवं सामन्तों पर कठोर नियन्त्रण स्थापित कर लिया था। अंग्रेजों की दमनकारी नीति से जनसाधारण में भी असन्तोष था।

7. चर्बी लगे कारतूसों का विरोध-

1856 में भारतीय सेना में पुरानी बन्दूकों के स्थान पर ब्रिटिश सरकार ने एनफील्ड राइफलों का प्रयोग प्रारम्भ किया। इन राइफलों में कारतूसों को डालने के लिए उनकी टोपी को मुंह से खोला जाता था।सैनिकों में यह अफवाह फैली हुई थी कि कारतूसों को चिकना करने के लिए गाय और सुअर की चर्बी का प्रयोग किया जा रहा था। भारतीय सैनिकों ने महसूस किया कि उन्हें धर्म-भ्रष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। अतः उन्होंने उन कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया।

29 मार्च, 1857 को 34वीं रेजीमेन्ट के सैनिक मंगल पाण्डेय नामक एक सैनिक ने एक अंग्रेज अधिकारी को गोली मार दी। इस पर मंगल पाण्डेय को बन्दी बना लिया गया और 8 अप्रैल, 1957 को उसे फांसी दे दी गई। 10 मई, 1857 को मेरठ के सैनिकों ने भी विद्रोह कर दिया और उन्होंने अनेक अंग्रेज अधिकारियों एवं सैनिकों की हत्या कर दी। उन्होंने दिल्ली पहुंचकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। शीघ्र ही देश के अन्य भागों में भी क्रान्ति की ज्वाला फैल गई और राजस्थान भी इससे अछूता नहीं रहा।

राजस्थान में 1857 के विद्रोह के परिणाम

राजस्थान में 1857 के विद्रोह के परिणाम निम्नलिखित थे-

(1) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन की समाप्ति-

ब्रिटिश संसद ने 1858 ई. में एक अधिनियम पारित कर भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया और उनके स्थान पर ब्रिटिश ताज के नाम पर ब्रिटिश संसद के शासन की घोषणा की गई। अब भारत के शासन की बागडोर इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया ने अपने हाथ में ले ली।

(2) राजस्थान के नरेशों को आश्वासन-

1 नवम्बर, 1858 को महारानी विक्टोरिया की ओर से एक घोषणा की गई जिसमें राजस्थान तथा अन्य सभी नरेशों को आश्वासन दिया गया कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ जो सन्धियाँ और समझौते हुए हैं, वे ब्रिटिश सत्ता को स्वीकार हैं। उन सन्धियों और समझौतों का पूर्णतया पालन किया जायेगा। यह भी घोषित किया गया कि हम अपने साम्राज्य की सीमा का विस्तार करने के पक्ष में नहीं हैं। इस घोषणा-पत्र में राजस्थान के नरेशों को आश्वस्त किया गया कि उनकी रियासतें ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित नहीं की जायेंगी। उनके अधिकारों, प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा का सम्मान किया जायेगा।

(3) देशी नरेशों के शासन को चिरस्थायी बनाये रखने का निश्चय-

ब्रिटिश सरकार ने देशी नरेशों के शासन को चिरस्थायी बनाये रखने का निश्चय किया। इस नीति के अन्तर्गत 1862 ई. में राजस्थान के समस्त शासकों को सनदें प्रदान की गई जिनके द्वारा उन्हें गोद लेने का अधिकार दिया गया, परन्तु इसके साथ शर्त यह भी थी कि वे ब्रिटिश ताज के प्रति भक्ति व पूर्ण निष्ठा बनाये रखेंगे तथा सरकार के साथ की गई सन्धियों का पूर्णतया पालन करेंगे। इसका दुष्परिणाम यह निकाल कि राज्सथान के नरेश आन्तरिक रूप से कमजोर होने गये। वे अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली मात्र रह गये।

(4) निष्ठावान व वफादार राजाओं तथा सामन्तों को पुरस्कृत करना-

1857 के विद्रोह के समय राजस्थान के जिन शासकों तथा सामन्तों ने ब्रिटिश सरकार की सहायता की थी, उन्हें खिलअत, उपहार, भूमि आदि देकर सम्मानित किया गया। बीकानेर, जैसलमेर, मेवाड़ आदि के राजाओं को खिलअतें प्रदान की गई। हाड़ौती के जिन सामन्तों ने अंग्रेजों की निष्ठापूर्वक सेवा की थी, उन्हें भी पुरस्कृत किया गया।

(5) सामन्त-वर्ग को शक्तिहीन एवं प्रभावहीन करना-

1857 के विद्रोह में सामन्त वर्ग ने ब्रिटिश सरकार का प्रबल विरोध किया था। अत: विद्रोह के साथ ब्रिटिश सरकार ने सामन्त वर्ग को शक्तिहीन एवं प्रभावहीन बनाने का निश्चय किया। जिन्होने 1857 का विरोध किया था, उन्हें दण्डित किया गया तथा उनकी जागीरें जब्त कर ली गई तथा उनसे जुर्माने के रूप में बहुत बड़ी धनराशि वसूल की गई। सामन्तों को सैनिक सेवा के बदले नकद धनराशि देने के लिए बाध्य किया गया जिसके परिणामस्वरूप सामन्तों के लिए बड़े-बड़े सैनिक दस्ते रखना कठिन हो गया और विवश होकर उन्हें अपने सैनिक दस्ते भंग करने पड़े। सामन्तों ने जनता की भांति न्यायालय शुल्क लिया जाने लगा तथा सामन्तों के न्यायिक अधिकार भी कम कर दिये गये। सामन्तों को व्यापारी वर्ग से राहदारी, दाना-पानी आदि शुल्क वसूल करने का निषेध कर दिया गया। इस प्रकार सामान्य जनता पर सामन्तों का नियन्त्रण एवं प्रभाव कम होता गया।

(6) ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति-

विद्रोह की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी नीति अपनाई और जनता पर भीषण अत्याचार किये। सूर्यमल्ल मिश्रण ने 'वीर-सतसई' में लिखा है कि अनेक व्यक्तियों को फाँसी दी गई, बहुतों को गोली का शिकार बनाया गया, बहुत-सी स्त्रियों के सतीत्व को नष्ट किया गया तथा व्यापारियों को लूटा गया। अंग्रेज सैनिकों ने अनेक स्थानों पर लोगों पर अमानवीय अत्याचार किये।

(7) राजस्थान में ब्रिटिश प्रभाव में वृद्धि-

1857 के विद्रोह के पश्चात् राजस्थान में ब्रिटिश प्रभाव में तीव्र गति से वृद्धि हुई। पहले राजस्थान के शासकों के सिक्कों पर मुगल-सम्राट का नाम अंकित रहता था।, अब उन पर महारानी विक्टोरिया का नाम लिखा जाने लगा। अब राजस्थान के शासक पाश्चात्य सभ्यता के रंग में रंगने लगे तथा राजपूत राज्यों में पाश्चात्यकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई।

(8) पाश्चात्य सभ्यता का प्रसार-

ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनाई गई नीति से प्रभावित होकर राजस्थान के नरेश तथा सामन्त पाश्चात्य सभ्यता की ओर आकर्षित होने लगे। अंग्रेजी साम्राज्य की सेवा कर उनसे प्रशंसा तथा आदर प्राप्त करने में ही राजस्थान के नरेश एवं सामन्त गौरव का अनुभव करने लगे। वे पाश्चात्य सभ्यता को उत्कृष्ट समझकर उसका गुणगान करने लगे और अपनी सभ्यता तथा संस्कृति के प्रति उदासीन हो गये।

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