निर्वाचन आयोग की संरचना एवं संगठन
भारतीय संविधान के 15वें भाग के एक पृथक् अध्याय में अनुच्छेद 324 से 329 तक में संसद, राज्यों के विधानमण्डल एवं राष्ट्रपति व उप-राष्ट्रपति के निर्वाचन सम्बन्धी प्रावधानों का उल्लेख किया गया है। अनुच्छेद 324 में निर्वाचन आयोग की स्थापना की व्यवस्था है। निर्वाचन आयोग देश में निर्वाचनों का निर्देशन, अधीक्षण एवं नियन्त्रण करेगा। इस आयोग को यह दायित्व सौंपा गया है कि वह भारतीय संविधान के अधीन संसद और प्रत्येक राज्य के विधानमण्डल के लिए तथा राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के पद के निर्वाचनों का निर्देशन, अधीक्षण एवं नियन्त्रण करेगा। संविधान के अनुच्छेद 324(2) में यह भी व्यवस्था है कि निर्वाचन आयोग में एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त और उतने निर्वाचन आयुक्त होंगे जितने कि राष्ट्रपति समय-समय पर निश्चित करे। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी।
आयोग की वर्तमान संगठन संरचना
वर्तमान में निर्वाचन आयोग में एक मुख्य निर्वाचन
आयुक्त और दो निर्वाचन आयुक्त कार्यरत हैं। एकमात्र कार्यरत उपनिर्वाचन
आयुक्त जो आयोग का वरिष्ठतम प्रशासनिक अधिकारी है प्रायः भारतीय
प्रशासनिक सेवा अथवा केन्द्रीय सचिवालय की सलैक्शन ग्रेड अथवा
केन्द्रीय सेवा के प्रथम श्रेणी के अधिकारियों में से डेपुटेशन पर लिया जाता है।
डेपुटेशन 5 वर्ष के लिए होता है जिसे कितनी भी अवधि तक बढ़ाया जा सकता है। यह राजपत्रित
पद है जिसे भारत होता है जिसे कितनी भी अवधि तक बढ़ाया जा सकता है। यह राजपत्रित
पद है जिसे भारत सरकार में संयुक्त सचिव के स्तर का माना जाता है।
आयोग के सचिवालय के
कार्यों के संचालन हेतु तीन सचिव कार्यरत हैं। ये सचिव प्रायः आयोग के अधीनस्थ
पदों पर कार्यरत अधिकारियों में से मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर राष्ट्रपति
द्वारा नियुक्त किये जाते हैं। यद्यपि इन्हें डेपुटेशन पर भी लेने का प्रावधान है
लेकिन कार्यरत अधिकारियों के अभुनव का लाभ प्राप्त करने की दृष्टि से आयोग
में से ही उन्हें लाया जा रहा है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त द्वारा लोक प्रतिनिधित्व
अधिनियम 1951 के अनुच्छेद 19 (क) के प्रावधानों की सीमा में रहते हुए सचिवों के
मध्य आयोग के कार्यों का विभाजन तथा प्रत्यायोजन कर दिया जाता है। निर्दिष्ट
मामलों में वे अन्तिम निर्णय लेने में भी सक्षम होते हैं। आयोग के सचिव का पद भारत
सरकार में उप-सचिव के स्तर का माना जाता है।
भारत में निर्वाचन आयोग का गठन, कार्य व शक्तियाँ |
निर्वाचन आयोग में में सात पद अवर सचिव
के भी स्वीकृत हैं। ये आयोग के प्रशासनिक कार्यों में अधिकारियों की सहायता करते
हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा चुनावों के आयोजन के पश्चात् प्रतिवेदन तैयार करने और
तत्सम्बन्धी सांख्यिकी का विश्लेषण करने के लिए एक अनुसन्धान अधिकारी होता है।
इसके अतिरिक्त आयोग के सचिवालय में 17 अनुभाग अधिकारी, 45
सहायक, 5 स्टेनोग्राफर,
3 अनुसन्धान सहायक,7 हिन्दी अनुवादक, 1
पुस्तकालयाध्यक्ष,
1 सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष, 3 पुस्तकालय सहायक, 29
वरिष्ठ लिपिक,43 कनिष्ठ लिपिक तथा विभिन्न प्रकार के लगभग 58 चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी
कार्यरत हैं।
निर्वाचन आयोग के कार्य, शक्तियाँ एवं भूमिका
भारत के निर्वाचन आयोग के कार्यों एवं शक्तियों को
निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-
1. निर्वाचन नामावली
तैयार करना-
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 में यह व्यवस्था की गई है
कि निर्वाचन नामावली निर्वाचन आयोग के निर्देशन में तैयार होगी। अतः निर्वाचन
आयोग निर्वाचन नामावली तैयार करवाता है। यद्यपि निर्वाचन नामावली तैयार
कराने का वास्तविक कार्य राज्य के निर्वाचन तन्त्र द्वारा उनके जिला निर्वाचन
अधिकारियों की देखरेख में सम्पन्न होते हैं लेकिन इस प्रक्रिया पर निर्वाचन आयोग
अपना पूर्ण नियन्त्रण रखता है ताकि निष्पक्ष, निर्विवाद, भेदभाव
रहित निर्वाचक नामावली तैयार की जा सके।
2. निर्वाचन
क्षेत्रों में सीटों का आरक्षण–
यद्यपि परिसीमन आयोग ही संविधान की व्यवस्थाओं के
अनुरूप अनुसूचित जातियों,
जनजातियों एवं एंग्लो-इंडियन के लिए संसद व विधान सभाओं में
सीटों के आरक्षण का दायित्व निभाता है; किन्तु इस प्रकार से सीटों के
आरक्षण के कार्य में निर्वाचन आयोग की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
3. निर्वाचन
क्षेत्रों का परिसीमन-
चुनावों से पूर्व निर्वाचन क्षेत्रों
का निर्धारण अथवा परिसीमन करना होता है। यह कार्य मुख्य निर्वाचन आयुक्त की
सहायता से सम्पन्न होता है। परिसीमन आयोग अधिनियम, 1952 में यह प्रावधान है कि दस वर्ष बाद होने वाली प्रत्येक जनगणना
के उपरानत निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन किया जाना चाहिए। मुख्य चुनाव आयुक्त इस
परिसीमन आयोग का अध्यक्ष होता है और उसके अलावा इनमें दो सर्वोच्च न्यायालय अथवा
उच्च न्यायालयों के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश होते हैं।
इस आयोग की सहायता के लिए प्रत्येक राज्य से 2 से लेकर 7 तक
सहायक सदस्यों का प्रावधान है। ये सहायक सदस्य सम्बद्ध राज्य से लोकसभा या
राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों में से चुने जाते हैं। यह आयोग जनता
के सुझावों एवं आपत्तियों की सुनवायी के उपरान्त ही परिसीमन या सीमांकन आदेश की
घोषणा करता है। इस आदेश के विरुद्ध देश के किसी भी न्यायालय में अपील नहीं
की जा सकती है। इस प्रकार निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के कार्य में निर्वाचन
आयोग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
4. चुनाव करवाना–
संविधान के अनुच्छेद 324 के अन्तर्गत
यह व्यवस्था की गई है कि संसद और प्रत्येक राज्य के विधानमण्डलों के
चुनावों का संचालन और राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के पदों
के चुनाव का अधीक्षण,
निर्देशन और नियन्त्रण निर्वाचन आयोग में निहित किया गया
है। इन चुनावों को सम्पन्न कराने के लिए निर्वाचन आयोग निम्नलिखित कार्यों को
सम्पन्न करता है-
(i)
निर्वाचन मण्डल की सूची बनाना,
(ii)
चुनाव की अधिसूचना जारी करना,
(iii)
नाम निर्देशन से लेकर चुनाव परिणामों की घोषणा करने तक की
सभी प्रक्रियाओं का संचालन करना।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950
और 1951 तथा निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण नियम, 1961 आदि समस्त प्रचलित कानूनों
का पालन सुनिश्चित करना भी आयोग का मुख्य कार्य है।
5. निर्वाचन विवादों
का हल-
निर्वाचन आयोग संसद तथा विधानमण्डल
आदि के चुनावों में उठे विवादों का निर्णय भी करता है।
6. सामान्य कानून
बनाना-
निर्वाचन आयोग निर्वाचन के लिए सामान्य कानून बनाने
का भी कार्य करता है।
7. राजनीतिक दलों को
आरक्षित चुनाव-चिह्न प्रदान करना-
निर्वाचन आयोग का एक महत्त्वपूर्ण
कार्य मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को आरक्षित चुनाव-चिह्न प्रदान करना भी है।
यदि चुनाव-चिह्न के प्रश्न पर दो राजनीतिक दलों के बीच कोई विवाद उत्पन्न हो जाये
तो उस स्थिति में आयोग से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निष्पक्ष और न्यायिक
ढंग से विवाद को सुलझायेगा। इस सम्बन्ध में निर्वाचन आयोग के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च
न्यायालय में अपील की जा सकती है।
8. विभिन्न राजनीतिक
दलों को मान्यता प्रदान करना-
निर्वाचन आयोग का एक महत्त्वपूर्ण
कार्य विभिन्न राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय एवं राज्यीय दलों के रूप
में मान्यता प्रदान करना है। निर्वाचन आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को
मान्यता प्रदान किये जाने के आधार में समय-समय पर परिवर्तन किये जाते रहे हैं।
9. राज्य-स्तरीय तन्त्र
का निर्देशन एवं नियन्त्रण करना-
चुनाव प्रक्रिया सम्बन्धी सभी कार्य राज्यस्तरीय निर्वाचन
विभाग और जिलास्तरीय निर्वाचन तन्त्र तथा निर्वाचन रजिस्ट्रीकरण अधिकारी द्वारा
सम्पादित किये जाते हैं। भारत का निर्वाचन आयोग इन प्रक्रियाओं के निष्पक्ष
निर्वाह के लिए राज्य सरकारों के निर्वाचन तन्त्र को व्यापक निर्देश जारी करता है, कठिनाई
के समय उन्हें आवश्यक निर्देश, सहायता और मार्गदर्शन उपलब्ध कराता है।
राज्य निर्वाचन तन्त्र का मुख्य पदाधिकारी (मुख्य निर्वाचन अधिकारी) निर्वाचन
आयोग के निर्देशन एवं नियन्त्रण में कार्य करता है। इस अधिकारी की नियुक्ति
भी निर्वाचन आयोग द्वारा ही की जाती है तथा उसके गोपनीय प्रतिवेदन भी अंशत:
निर्वाचन आयोग द्वारा भरे जाने लगे हैं। जिला निर्वाचन अधिकारियों की
नियुक्ति भी निर्वाचन आयोग ही करता है।
10. सदस्यों की
अयोग्यता के मामलों में परामर्श देना–
निर्वाचन आयोग संसद तथा राज्यों के
विधान-मण्डलों के सदस्यों की उनके चुनाव के बाद की अयोग्यताओं के प्रश्न पर
राष्ट्रपति और राज्यपालों को परामर्श देने का कार्य करता है। संविधान में इस
सम्बन्ध में यह व्यवस्था है कि सदस्यों की अयोग्यता के मामलों में आयोग का परामर्श
ही राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के लिए बाध्यकारी होगा जिसे न्यायालय
में चुनौती भी नहीं दी जा सकती है।
11. कर्मचारियों की
नियुक्ति-
देश में निर्वाचन की निष्पक्ष व्यवस्था करने व निर्वाचन को
सम्पन्न करने के लिए आयोग राष्ट्रपति या राज्य से आवश्यक कर्मचारियों की नियुक्ति
के लिए प्रार्थना कर सकता है।
12. चुनाव भाषणों की
व्यवस्था करना-
निर्वाचन आयोग राजनीतिक दलों को आकाशवाणी व दूरदर्शन
पर चुनाव भाषणों की सुविधा उपलब्ध कराने का कार्य करता है।
13. आचार संहिता का
निर्माण-
निर्वाचन आयोग देश में स्वतन्त्र, निष्पक्ष
चुनाव कराने के लिए राजनीतिक दलों, सरकार, चुनाव
लड़ने वाले उम्मीदवारों,
चुनाव कराने वाले कर्मचारियों और निर्वाचन से सम्बन्धित सभी
पक्षों के लिए समय-समय पर एक आदर्श आचार संहिता का निर्माण करता है। इस आचार
संहिता का पालन करना सभी पक्षकारों का नैतिक उत्तरदायित्व होता है।
निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष बनाने से सम्बन्धित प्रावधान
निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता को बनाये रखने की दृष्टि से
निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं-
1. संवैधानिक स्थिति-
निर्वाचन आयोग की व्यवस्था संविधान
में ही की गई है। भारतीय संविधान सभा ने स्वतंत्र निर्वाचन के महत्त्व को
स्वीकार करते हुए भारतीय संविधान के भाग 15 (अनुच्छेद 324 से 329) में
निर्वाचन से सम्बन्धित सम्पूर्ण व्यवस्था की है।
2. मुख्य निर्वाचन
आयुक्त हेतु पर्याप्त वेतन तथा भत्ते आदि अन्य सुविधाएँ-
निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र तथा
निष्पक्ष बनाने की दृष्टि से मुख्य निर्वाचन आयुक्त के पद को न केवल संवैधानिक
आधार प्रदान किया है बल्कि उसके लिए पर्याप्त वेतन, भत्ते तथा अन्य
सुविधाओं की व्यवस्था की गई है ताकि वह अपना कार्य स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता से
कर सके। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य आयुक्तों का वेतन भारत की संचित
निधि में से दिया जाता है। अक्टूबर, 1993 से मुख्य निर्वाचन
आयुक्तों को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के बराबर वेतन
तथा भत्ते देने की व्यवस्था की गई है।
3. निश्चित कार्यकाल
तथा सेवा शर्ते-
निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता तथा
निष्पक्षता हेतु एक अन्य व्यवस्था उसके निश्चित कार्यकाल तथा सेवा-शर्तों के रूप
में की गई है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति
द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति इनको नियुक्त करते समय संसद द्वारा पारित
कानूनों का ध्यान रखता है। वर्तमान में मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन
आयुक्तों का कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु जो भी पहले हो, तब
तक होगा।
संसद द्वारा बनाये गये कानूनों के
अन्तर्गत निर्वाचन आयुक्तों की सेवा-शर्ते आदि राष्ट्रपति नियम द्वारा निर्धारित
करता है। इन निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के पश्चात् उनके कार्यकाल, वेतन
तथा अन्य सेवा-शर्तों में उनके हितों के विरुद्ध कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकेगा।
4. पदच्युति की जटिल
प्रक्रिया-
भारत में निर्वाचन आयोग की
स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता के लिए एक अन्य व्यवस्था मुख्य निर्वाचन आयुक्त की
पदच्युति की महाभियोग की जटिल प्रक्रिया रखी गई है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त
को संसद द्वारा महाभियोग की पद्धति से ही और केवल उसी तरह पदच्युत किया जा
सकता है जिस तरह उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को पदच्युत किया जाता
है। संसद के दोनों सदनों द्वारा पृथक्-पृथक् अपने कुल सदस्यों के बहुमत तथा
अनुपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव
पारित करके राष्ट्रपति को भेजा जाता है। राष्ट्रपति मुख्य निर्वाचन आयुक्त के पदच्युति
आदेश जारी करता है। यह महाभियोग प्रस्ताव एक ही सत्र में स्वीकार होना
चाहिए।
निर्वाचन आयोग की रचना एवं कार्य-पद्धति में त्रुटियाँ
निर्वाचन आयोग को स्वतन्त्र और निष्पक्ष बनाने का पूरा
प्रयत्न किया गया है,
लेकिन फिर भी उसमें निम्नलिखित कुछ त्रुटियाँ पाई जाती हैं-
1. निर्वाचन
आयुक्तों की योग्यता, संख्या आदि के सम्बनध में निश्चितता का अभाव-
निर्वाचन आयुक्तों और प्रादेशिक आयुक्तों की संख्या, योग्यताओं
और सेवा-शर्तों के सम्बन्ध में भी संविधान शान्त है। यह विषय राष्ट्रपति के
'प्रसाद' पर ही छोड़ दिया गया।
2. निर्वाचन आयुक्त की
नियुक्ति में राजनीतिक प्रभाव-
निर्वाचन आयुक्त के कार्यकाल और उसकी योग्यताओं के सम्बन्ध
में संविधान शांत है। इन्हें राष्ट्रपति पर छोड़ दिया गया है जिसका
वास्तविक अर्थ है मन्त्रिमण्डल। इस तरह मन्त्रिमण्डल निर्वाचन आयुक्त की
नियुक्ति के समय राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित हो सकता है।
3. अनर्हताओं
(अयोग्यताओं) के मामले में अनिश्चय-
भारतीय संविधान इस प्रश्न पर भी
शान्त है कि क्या निर्वाचन आयोग या उसका अध्यक्ष किसी संसद या विधानसभा सदस्य की
अनर्हताओं को रद्द कर सकता है।
4. सचिवालय स्टाफ की
नियुक्ति में स्वतन्त्रता नहीं-
निर्वाचन आयोग को निष्पक्ष और स्वतन्त्र निर्वाचन के
संचालन का उत्तरदायित्व तो प्रदान किया गया है, परन्तु उसे अपने सचिवालय
स्टाफ की नियुक्ति की स्वतन्त्रता नहीं दी गई। फलतः इसकी सरकार पर निर्भरता बढ़
जाती है।
5. मुख्य चुनाव
आयुक्त का स्तर उच्चतम न्यायालय के समान नहीं-
मुख्य चुनाव आयुक्त का स्तर सभी सन्दर्भो में उच्चतम
न्यायालय के समान नहीं है। मुख्य चुनाव आयुक्त का वेतन और प्रशासनिक व्यय अन्य
ऐसे ही सांविधानिक निकायों की भाँति भारत की संचित निधि पर भारित नहीं है। ये सब
परिस्थितियाँ मुख्य निर्वाचन आयुक्त के पद स्तर को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश
की तुलना में कमजोर बनाती हैं।
6. परामर्श व्यवस्था-
राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा
राजनीतिक दल-बदल की स्थिति में मुख्य निर्वाचन आयुक्त से परामर्श की व्यवस्था भी
खतरे से खाली नहीं क्योंकि यह व्यवस्था भी उसे दलों की राजनीति में डाल
सकती है।
7. कार्यपालिका की कार्मिक-वित्तीय
सहायता पर निर्भर-
निर्वाचन आयोग को चुनाव कराने के
लिए कार्मिक-वित्तीय सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। यद्यपि चुनाव कराने के लिए
आयोग को राज्य सरकार की सहमति लेनी होती है जिसमें अनेक बार राज्य सरकारें अकाल, सूखा
आदि विभिन्न बहाने बनाकर इसमें विलम्ब करती हैं।
8. अनुशासनात्मक
कार्यवाही करने का अधिकार नहीं-
निर्वाचन आयोग को उसके निर्देशन में
कार्य करने वाले उन कर्मचारियों पर, जो केन्द्रीय सरकार या राज्य
सरकार से लिये जाते हैं,
कोई गलती करने पर अनुशासनात्मक कार्यवाही करने का
अधिकार भी प्राप्त नहीं होता है। इसके लिए उसे सम्बन्धित सरकार पर निर्भर रहना
पड़ता है।
निर्वाचन आयोग की आलोचनाएँ
निर्वाचन आयोग की समय-समय पर निम्नलिखित आलोचनाएँ की जाती
रही हैं-
1. निर्वाचन आयोग
में आयुक्त' का एकल पद-
भारत में निर्वाचन आयोग में
लम्बे समय तक आयुक्त का एक ही पद रहा है। अब जाकर 1 अक्टूबर, 1993
को राष्ट्रपति ने दो और निर्वाचन आयुक्त नियुक्त कर निर्वाचन आयोग
को बहुसदस्यीय बना दिया है। अतः अन्तिम रूप से एक ही व्यक्ति द्वारा इतने लम्बे
समय तक इन कार्यों को किये जाने पर पक्षपात और शक्ति के दुरुपयोग की आशंका रहती
है।
2. प्रशासनिक सेवा
के अधिकारियों की चुनाव आयुक्तों के पद पर नियुक्ति-
आलोचकों के अनुसार चुनाव आयुक्तों के पद पर सामान्यतः
भारतीय सिविल सेवा के अधिकारियों की ही नियुक्ति की जाती है। इसमें भी उन
अधिकारियों को नियुक्त किया जाता है, जिन्हें शासक दल निष्ठावान
मानता है। अतः ऐसे अधिकारी जिन्होंने सत्तारूढ़ दल के मातहत के रूप में कार्य किया
है चुनाव आयुक्त की निष्पक्ष भूमिका कैसे अदा कर सकते हैं, एक
विचारणीय प्रश्न है।
3. कागजी अधिकार–
वर्तमान में चुनावी भ्रष्टाचार पर यदि पूर्ण रूप से अंकुश
लगाना है तो आयोग को केवल कागजी अधिकार नहीं सौंपे जायें वरन् आयोग को संसद में कानून
बनाकर नियन्त्रण एवं महालेखापरीक्षक सरीखी हैसियत दिये जाने की जरूरत है।
4. निर्वाचन आयोग
सत्तारूढ़ दल एवं सरकार के इशारे पर कार्य करता है-
सैद्धान्तिक रूप से तो यह कहा
जाता है कि भारत में निर्वाचन का समय व तिथियाँ निर्वाचन आयोग द्वारा घोषित की
जाती हैं। लेकिन यथार्थ में वह सत्तारूढ़ दल की इच्छा एवं सुविधा को ध्यान में
रखकर कार्य करता है।
5. निर्वाचन सम्पन्न
कराने के लिए राज्य सरकार के कर्मचारियों पर निर्भरता-
निर्वाचन आयोग के पास निर्वाचन कार्यों के लिए स्वतन्त्र
कर्मचारी तन्त्र नहीं है। उसे राज्य सरकार के कर्मचारियों पर निर्भर रहना पड़ता
है। ये कर्मचारी आयोग के प्रति उतने समर्पित नहीं होते और कई बार निष्पक्ष
आचरण नहीं करते।
6. चुनाव धांधलियों
को रोक पाने में असमर्थ-
वर्तमान में चुनाव आयोग चुनाव में धांधलियों को रोक पाने में अपने आपको असहाय पाता है। चुनाव में आजकल बाहुबल और हिंसा, मतदान स्थलों पर कब्जा करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। यद्यपि चुनाव आयोग ने इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने का प्रयास किया है फिर भी इस ओर और अधिक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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