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द्वन्द्वात्मक इतिहास की अवधारणा

हीगेल की द्वन्द्वात्मक इतिहास की अवधारणा

हीगेल के अनुसार इतिहास विचारों का क्रम तथा बुद्धि की क्रिया है। मूलत: इसका स्वरूप तार्किक है। इतिहास एक तर्क है जिसमें सामयिकता रहती है। हीगेल के अनुसार इतिहास के विचारात्रित विकास का क्रम द्वन्द्वात्मक होता है। यह विकास निषेध या विरोध के कारण सम्भव होता है। निषेध या विरोध शक्ति है, जीवन है, प्राण है, गति है, बुद्धि है, विकास है।

विचार का विकास तीन रूपों में होता है- (1) वाद, (2) प्रतिवाद तथा (3) सम्वाद। हीगेल के अनुसार तार्किक प्रक्रिया के द्वन्द्वात्मक और विरोधात्मक होने के कारण वाद, प्रतिवाद तथा सम्वाद का उद्भव होता है। इनमें एक विरोध स्थिति को जन्म देती है और उन दोनों के संघर्षों से एक नवीन समन्वित स्थिति का जन्म होता है। हीगेल के इस सिद्धान्त को 'द्वन्द्वात्मक' कहते हैं।

इस प्रकार हीगेल के अनुसार इतिहास की प्रक्रिया एक तर्कसंगत द्वन्द्वात्मकता के क्रम का अनुसरण करते हुए विकास की प्रक्रिया है। वाद इतिहास की एक विशेष अवधि में समाज द्वारा स्वीकृत विचार है और इसके विरोधी विचार को प्रतिवाद कहते हैं। दोनों में संघर्ष के फलस्वरूप उत्पन्न तीसरे विचार को समन्वय कहते हैं। यह समन्वय कालान्तर में वाद और पुनः प्रतिवाद बन जता है और यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि एक आदर्श विचार नहीं मिल जाता। यही हीगेल की आदर्शवादी द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है।

डॉ. परमानन्द सिंह लिखते हैं "हीगेल ने अपने ऐतिहासिक प्रक्रिया सिद्धान्त में यह विचार प्रस्तुत किया है कि संसार और उसके नियम स्थिर नहीं, अपितु प्रगतिशील हैं और संसार की यह प्रगति कुछ निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित होती है। मानव का मस्तिष्क जिस तरह अस्पष्ट से स्पष्ट विचारों की ओर बढ़ता है, उसी तरह मानव-समाज भी विरोधी तत्त्वों और विचारों के संघर्ष से आगे की ओर बढ़ता है और इस प्रकार समाज गतिशील और परिवर्तनशील रहता है। सामाजिक प्रगति की यही विधि हीगेल की द्वन्द्वात्मक पद्धति है जो उसके वाद, प्रतिवाद और समन्वय के विचारों पर निर्भर करती है।"

हीगेल के अनुसार प्राकृतिक जगत् को, जिसका मानव जगत् एक अंग कहा जा सकता है, हम सबसे अच्छी प्रकार दैनिक आत्मा तथा बुद्धि की अभिव्यक्ति के रूप में समझ सकते हैं जो कि निरपेक्ष विचार के रूप में अपने-आपको पूर्ण रूप से जानने का प्रयास कर रहा है। मानव-सभ्यता की प्रत्येक अवस्था और प्रत्येक राष्ट्रीय संस्कृति इसी विश्व-आत्मा को एक अपूर्ण और पर्याप्त अभिव्यक्ति है,एक आन्तरिक आवश्यकता के कारण यह अपने विरोधी को जन्म देती है। विश्व आत्मा तब तक सन्तुष्ट नहीं हो सकती, जब तक कि उसकी अभिव्यक्ति में न सुलझे हुए विरोध पाये जाते हैं, इसलिए इसका आन्तरिक तर्क एक उच्च सतर पर उसके सामंजस्य की ओर ले जाता है। मानव-इतिहास संघर्ष और निषेधीकरण के बीच में से विकसित होता है, जब तक कि विश्व आत्मा एक निरपेक्ष विचार के रूप में पूर्ण आत्म-चेतना प्राप्त न कर ले, जिसमें समस्त विरोधी दूर हो जाते हैं।

हीगेल के अनुसार विकास का नियम नकारीकरण (Negation) का नकारीकरण है। इसके अनुसार 'वाद', 'प्रतिवाद' तथा 'सम्वाद' विकास की अवस्थाएँ हैं। अपने आन्तरिक विरोधों के कारण 'वाद' भंग हो जाता है और अपने प्रतिवाद' को जन्म देता है। इस प्रकार 'प्रतिवाद' उसका नकारीकरण कर देती है। परन्तु प्रतिवाद' जो कि 'वाद' के विरोधों को दूर करने का प्रयास करती है, स्वयं इसी कारण भंग हो जाती है और उसके स्थान पर सम्वाद' की स्थापना हो जाती है जिसमें 'वाद' और 'प्रतिवाद' दोनों के मान्य तत्त्व सम्मिलित रहते हैं। इस प्रकार सम्वाद' को नकारीकरण का नकारीकरण कहा जा सकता है। फिर 'सम्वाद' भी 'वाद' बन जाता है और अपने प्रतिवाद' को जन्म देता है और इस प्रकार यह प्रक्रिया चलती रहती है।

ऐतिहासिक तथा सामाजिक परिवर्तन के प्रति इस नवीन दृष्टिकोण के कारण हीगेल इस परिणाम पर पहुंचा कि इतिहास घटनाओं की श्रृंखला-मात्र नहीं है, बल्कि वह विकास की एक क्रिया है और विरोध उसका मुख्य प्रेरक सिद्धान्त है।

हीगेल को द्वन्द्वात्मक प्रवृत्ति प्रयोजन एक ऐसा तार्किक साधन प्रदान करना था जिसके द्वारा इतिहास को आवश्यकता का ज्ञान हो जाए। प्रत्येक राष्ट्र के इतिहास में एक राष्ट्रीय मनोवृत्ति विकास का विवरण रहता है। यह राष्ट्रीय मनोवृत्ति उसकी संस्कृति के सभी पक्षों में व्यक्त होती है। इतिहास के इस दृष्टिकोण के विरुद्ध होगेल ने दूसरा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जो ज्ञान-युग के दृष्टिकोण के निकट था। तदनुसार दर्शन, धर्म और संस्थाएं त्यावहारिक प्रयोजनों के लिए आविष्कृत की गई संस्थाएं हैं।

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की मार्क्सवाद की विशेषता के रूप में विवेचना, हीगल के द्वंद्वात्मक सिद्धांत की व्याख्या
द्वन्द्वात्मक इतिहास की अवधारणा

डॉ. गोविन्द चन्द पाण्डेय लिखते हैं कि "इतिहास को विचाराश्रित विकास मानने के साथ-साथ होगेल का यह कहना था कि इस विकास का क्रम द्वन्द्वात्मक होता है। हीगेल के इतिहास दर्शन को द्वन्द्वात्मक आदर्शवाद कहा जाता है। विचारों के जो आत्मबोध द्वारा प्रगति कार्यक्रम है, वैसा ही क्रम हीगेल इतिहास में देखना चाहते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इतिहास में भी संस्थाओं और विचारधाराओं की अपूर्णता और एकाग्रता उनके संघर्ष, अतिक्रमण और समन्वय का कारण बनती है और बहुधा परिस्थितियाँ विपरीत अवस्था में बदल जाती हैं। तो भी इतिहास में द्वन्द्वात्मकता को यदि एक प्रकार की पारस्परिक सापेक्षता या प्रतीत्यसमुत्पाद' कहें तब तो यह ठोक लगता है, किन्तु ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मकता में नितान्त तर्क सारूप्य समझना एक भ्रान्ति है।"

हीगेल ने द्वन्द्वात्मक पद्धति के द्वारा समाज और राज्य के विकास का अध्ययन किया था। हीगेल के अनुसार चेतन मस्तिष्क की समस्त गतिविधियाँ द्वन्द्वात्मक होती हैं। यथार्थ सत्य केवल आत्मता से ही प्राप्त किया जा सकता है। आत्मा का जो बाह्य रूप है, वह भौतिक है जिसका प्रतिनिधित्व राज्य करता है।

हीगेल के अनुसार यूनानी राज्य मूल रूप या वाद थे। इनके विपरीत धर्म राज्य के प्रतिवाद बन गये और इनका समन्वित रूप राष्ट्र के रूप में मिलता है। कला, धर्म और दर्शन में भी इस प्रकार मूल रूप, विपरीत रूप और समन्वित रूप प्राप्त होते हैं। सेबाइन का कथन है कि हीगेल के दर्शन का मुख्य उद्देश्य यह था कि वह द्वन्द्वात्मक पद्धति के माध्यम से विश्व सभ्यता के विकास में प्रत्येक राज्य की देन का मूल्यांकन प्रस्तुत करे।

हीगेल ने द्वन्द्वात्मक पद्धति के द्वारा समाज और सामाजिक संस्थाओं के विकास को समझाने का प्रयास किया है। उसने परिवार को सामाजिक विकास का प्रारम्भिक रूप और राज्य को इस विकास का सर्वोच्च रूप माना है। परिवार का प्रतिवाद समाज है और राज्य में परिवार तथा समाज दोनों का समन्वय है। राज्य के अन्तर्गत भी मनुष्य जीवन के लिए संघर्ष करता है, परन्तु यह संघर्ष सृजनात्मक होता है और इसके कारण उसकी शक्तियों का विकास होता है। हीगेल ने द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त को शासन-प्रणालियों पर भी लागू किया है। इसके अनुसार निरंकुश तन्त्र वाद है, इसका प्रतिवाद प्रजातन्त्र है और दोनों के समन्वय के परिणामस्वरूप सांविधानिक राजतन्त्र का उदय होता है।

कार्ल मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद

कार्ल माक्र्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद संबंधी विचार हीगेल के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विचार पर आधारित है। यह समाज की एक नई विश्लेषण पद्धति और इतिहास की ओर नई दृष्टि है। द्वन्द्ववादी भौतिकवाद वह आधार है जिसके ऊपर मार्क्स के विचार का सारा ढांचा खड़ा हुआ है। समस्त साम्यवादी उसे स्वीकार करते हैं। वे इसे प्रत्येक समस्या के ऊपर लागू करते हैं।

हीगेल के अनुसार समाज गतिमान और परिवर्तनशील है और विश्वात्मा या सक्ष्म आम तत्स्य उसका नियामक है। हीगेल बुद्धिवादी था और आध्यात्मिक आदर्श उसके चिन्तन का मुख्य लक्ष्य था। उसके अनुसार कोई सत्यया निष्ठा या समाज व्यवस्था परमार्थक नहीं रहती। प्रत्येक सत्य, प्रत्येक अवस्था अपने अन्दर के विरोध को प्रकट होने से असत्य लगने लगती है और नवीन उद्भावनाओं को जन्म देती है। हीगेल ने द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया के तीन सोपानों का उल्लेख किया है। ये हैं (1) वाद (2) प्रतिवाद तथा (3) साम्यवाद। इनको अस्तित्व में होना, अस्तित्व में न होना और अस्तित्व में आना भी कहा जा सकता है।

इस क्रम को मार्क्स ने भी स्वीकार किया है। द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया विकास का एक क्रम है, जो निरन्तर चलता रहता है। हीगेल यह मानता है कि इतिहास घटनाओं की एक श्रृंखलामात्र नहीं है, वरन् विकास की एक प्रक्रिया है और विरोध उसका मुख्य प्रेरक तत्त्व है। इस प्रकार द्वन्द्वात्मकता का अर्थ है कि जगत् में प्रत्येक वस्तु तथा प्रत्येक ज्ञान एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है, जो अपने आन्तरिक विरोधों के संघर्ष से रूपान्तरित होकर विकास का अंग बनता है।

कार्ल मार्क्स एक भौतिकवादी विचारक था। अत: उसने हीगेल के आदर्शवाद की उपेक्षा करते हुए द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का समन्वय किया उसने सोचा कि वह द्वन्द्ववाद में अपने विश्वास और भौतिकवाद को हीगेल की विश्व आत्मा को एक आर्थिक शक्ति मानकर संयुक्त कर सकता है। इस उपाय से उसने न केवल उस महान् शक्ति को खोज निकाला जो कि मानवता को नकारीकरण से नकारीकरण तक संचालित करती रहती है, बल्कि उसने हीगेल के द्वन्द्वात्मक को भी ठीक उलटा कर दिया। इसके परिणामस्वरूप द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का प्रादुर्भाव हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य समाजवादी की अपरिहार्यता को सिद्ध करना है। द्वन्द्वात्मक में विश्वास के कारण मार्क्स इस परिणाम पर पहुँचा कि समाजवाद का भवन केवल पूँजीवाद की भस्म पर ही बन सकता है।

मार्क्स के अनुसार विचार नहीं, वरन् भौतिक पदार्थ जगत् का आधार है। इस प्रकार मार्क्स का भौतिकवाद द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है जो प्रकृति और समाज को अन्तर्द्वन्द्व के कारण परिणामी मानता है । सेबाइन ने लिखा है कि "हीगेल के विचारों में द्वन्द्वात्मक चिनतन शीर्षासन कर रहा था। मार्क्स ने आदर्शवादी भ्रानितयाँ दूर करके उसे प्राकतिक स्थिति में पैरों के बल खड़ा किया।" इस बात को स्वयं मार्क्स ने भी अपने ग्रन्थ दास केपिटल' की भूमिका में स्वीकार किया है कि उसका अपना द्वन्द्ववाद हीगेल से न केवल भिन्न है, वरन् उसका ठीक उलटा है।

कार्ल मार्क्स को धारणा थी कि पूँजीवाद अपने अन्दर अपनेपन के बीच इसी प्रकार रखता है जिस प्रकार कि हीगेल को अस्तित्व' की 'वाद' अपने अन्दर अपनी प्रतिवाद अस्तित्वहीन' को रखती है। पूँजीपति वर्ग तथा उसके शत्रु सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष से पूर्ण समाजवादी अथवा साम्यवादी समाज का जन्म होगा जिसमें न कोई वर्ग होगा और न कोई बाध्यकारी और दमनकारी राज्य होगा। इस प्रकार श्रमजीवी-वर्ग को अन्तिम विजय और पूँजीवादी व्यवस्था के विनाश में मार्क्स के अटल विश्वास का मूल उसके द्वन्द्ववादी भौतिकवाद में था। हीगेल की इस धारणा के आधार पर कि संघर्ष अथवा विरोध के बिना कोई उन्नति नहीं हो सकती, मार्क्स ने अपने द्वन्द्ववाद के भवन का निर्माण किया जो कि हीगेल से बहुत भिन्न है।

मार्क्स के अनुसार इतिहास के विकास में मानवता जिन इकाइयों में संगठित हो जाती है, वे आर्थिक वर्ग होते हैं, राज्य नहीं। मार्क्स के अनुसार द्वन्द्ववाद को भौतिकवाद की वाद, प्रतिवाद तथा साम्यवाद आर्थिक वर्ग हैं, विचार नहीं। जिस लक्ष्य की ओर मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद बढ़ रहा है, एक ऐसे समाज की स्थापना है, जिनमें न कोई वर्गभेद होगा, न कोई शोषण। यह अन्तिम सम्वाद है, जिसमें से प्रतिवाद का जन्म नहीं होगा। वर्गहीन समाज की स्थापना के साथ वर्ग-संघर्ष की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया रुक जाती है।

सेबाइन ने लिखा है कि हीगेल के इतिहास के सिद्धान्त में चालक शक्ति एवं स्वयं विकसित होने वाला आध्यात्मिक सिद्धान्त था जो कि अपने आपको क्रमशः ऐतिहासिक राष्ट्रों में मूर्तिमान करता थी। मार्क्स के सिद्धान्त में यह एक स्वयं विकसित होने वाली उत्पादन प्रणाली थी, जो कि अपने आपको सामाजिक वर्गों और आर्थिक विवरण की आधारभूत व्यवस्थाओं में मूर्तिमान करती थी। हीगेल के लिए ऐतिहासिक विकास का यंत्र राष्ट्रों के मध्य युद्ध था, मार्क्स के लिए यह क्रान्तिकारी वर्ग संघर्ष था। दोनों ही व्यक्ति इतिहास के प्रवाह को तार्किक दृष्टि से आवश्यक समझते थे और उसे एक पूर्व-निश्चित लक्ष्य की ओर ले जाने वाली अवस्थाओं की एक व्यवस्था मानते थे।

मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) मार्क्स के अनुसार प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ परस्पर जुड़ा हुआ है और एक-दूसरे पर निर्भर है, वह अचानक एकत्रित की गई वस्तुओं का संग्रह नहीं है।

(2) जगत् के भौतिक पदार्थ गतिहीन नहीं, वरन् गतिशील हैं। संसार में धूलकण से लेकर सूर्य पिण्ड तक सभी पदार्थों में परिवर्तन होता रहता है और ये परिवर्तन प्रकृति में नित्य-प्रति द्वन्द्व के कारण होते हैं। इन्हीं परिवर्तनों के कारण प्रगति होती है। इस क्रम में नये पदार्थों का निर्माण और पुराने पदार्थों का विकास होता है। मार्क्स के इस द्वन्द्ववाद से विश्व के जैविक अध्ययन के साथ-साथ जीवन की गतिशीलता का भी अध्ययन होता है।

(3) जगत् में यह परिवर्तन मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार के होते हैं।

(4) जगत् की प्रत्येक वस्तु में आन्तरिक अन्तर्विरोध निहित रहता है, जिसें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्ष होते हैं और जिनके मध्य में निरन्तर द्वन्द्व या संघर्ष चलता रहता है। इससे पुराने तत्त्व मिटते रहते हैं और नये तत्त्व उत्पन्न होते रहते हैं। इस द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के माध्यम से मार्क्स ने यह प्रमाणित करना चाहा है कि किस प्रकार पूँजीवाद के बाद समाजवादी समाज की रचना होगी।

जी.डी.एच. कौल ने लिखा है कि मार्क्स के द्वन्द्ववाद की मान्यता है कि "इतिहास के प्रत्येक युग में उत्पादन की शक्तियों से मनुष्यों में एक विशेष प्रकार के आर्थिक संबंध पैदा होते हैं। संबंधों के परिणामस्वरूप मनुष्य आर्थिक वर्गों में बँटे रहते हैं। प्राचीन यूनान में स्वतन्त्र नागरिक एवं दास, रोम में पेट्रीशियन तथा प्लीबियन, मध्ययुग में भूमिपति एवं दास-किसान तथा वर्तमान युग में पूँजीपति और मजदूर वर्ग इसके उदाहरण हैं। इन दो विरोधी वर्गों के मध्य संघर्ष के परिणामस्वरूप मानव इतिहास आगे बढ़ता है।"

मार्क्स के अनुसार दो वर्गों के बीच वाद और प्रतिवाद की प्रक्रिया सम्पन्न होती है तथा साम्यवाद के रूप में नया वर्ग जन्म लेता है। इतिहास का विकास एक के बाद दूसरी मंजिल से होकर गुजरा है तथा प्रत्येक युग में एक विशेष प्रकार को उत्पादन की व्यवस्था रही है। यह प्रक्रिया द्वन्द्वात्मक है तथा इसके पीछे प्रभावशाली आर्थिक शक्तियाँ रहती हैं जो कि वास्तविक हैं तथा विचारात्मक संबंध केवल दिखावटी या ऊपरी होते हैं।

मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के द्वारा क्रान्ति का समर्थन किया है। उसके अनुसार मात्रात्मक परिवर्तन धीरे-धीरे होते हैं, परन्तु गुणात्मक परिवर्तन तीव्र गति से होते हैं। इनके लिए क्रान्ति उचित है और न्यायसंगत है। मार्क्स ने द्वन्द्ववाद के द्वारा वर्ग-संघर्ष को अनिवार्य बताया है। आन्तरिक विरोध संघर्ष का कारण एवं विकास का मूलमन्त्र है। मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का लक्ष्य ऐसे समाज की स्थापना करना है, जिसमें न कोई वर्गभेद होगा और न कोई शोषण। यह अन्तिम सम्वाद होगा, जिससे कोई प्रतिवाद जन्म न लेगा। इस प्रकार वर्गहीन समाज की स्थापना होगी और वर्ग संघर्ष की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया रुक जायेगी।

यदि हीगेल ने इतिहास का प्रारूप दर्शन में पाया था, तो मार्क्स ने उसकी कुंजी आर्थिक परिवर्तनों में ढूँढी है। प्रत्येक अवस्था में एक अन्तर्द्वन्द्व रहता है। एक वर्ग उत्पादन में परिश्रम करता है, दूसरा साधन सम्पन्नता के कारण अतिरिक्त फल का उपभोग करता है। सभी ऐतिहासिक समाज इस श्रमिक और पूंजीपति वर्ग के द्वैत को अपने अन्तर्गत लिए होने के कारण साधनों के विकसित होने पर संघर्ष और क्रान्ति से नष्ट हुए हैं। अब तक के सभी समाजों का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। उत्पीड़क तथा उत्पीड़ित सदा एक विरोधी स्थिति में रहे हैं और निरन्तर कभी छिपा और कभी प्रकट युद्ध करते रहते हैं जिसका अन्त कभी समाज के क्रान्तिकारी पुनर्गठन से हुआ, कभी दोनों वर्गों के समान विनाश से हुआ।

इस प्रकार द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का निरूपण वर्ग-संघर्ष के इतिहास में परिणत होता है इस इतिहास का अन्तिम चरण पूँजीवाद की उत्पत्ति है। पूँजीवाद अन्तर्द्वन्द्व से ग्रसित है और एक क्रान्ति के द्वारा साम्यवाद की भूमिका बनेगा। इसका अन्त भी क्रान्ति के द्वारा होगा। मार्क्स का विश्वास था कि एक समय ऐसा आयेगा, जब सम्पूर्ण विश्व में एक साम्यवादी व्यवस्था रह जायेगी तथा श्रमिकों के शासन की स्थापना होगी।

डॉ. परमानन्द सिंह लिखते हैं कि "मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद समाज की एक नई विश्लेषण-पद्धति इतिहास की ओर नई दृष्टि है। यह हीगेल के द्वन्द्वात्मक पद्धति की स्वीकृति है। अन्तर केवल इतना ही है कि हीगेल एक आदर्श विचार को संसार का अटल सत्य स्वीकार करता था, परन्तु कार्ल मार्क्स ने इस विचार को प्रतिक्रियावादी कहा था। मार्क्स जगत् की प्रत्येक वस्तु को भौतिकवादी दृष्टिकोण से देखते हैं और यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि प्रकृति में प्रत्येक वस्तु द्वन्द्वरत है, भौतिक जगत् में यह द्वन्द्व निरन्तर चलता रहता है। इस प्रकार द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का निरूपण वर्ग-संघर्ष में परिणत होता है। इस इतिहास का अन्तिम चरण पूँजीवाद को उत्पत्ति है। इसका भी क्रान्ति द्वारा होगा और तब सम्पूर्ण विश्व में साम्यवादी अर्थव्यवस्था आ जायेगी।"

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