इतिहास लेखन की चक्रीय पद्धति
इतिहास मानव द्वारा सृजित उत्थान, विकास तथा पतन की घटनाओं का विवरण है। मानव स्वयं समाज की रचना करता है। समाज की अच्छी तथा बुरी स्थिति के लिये वह स्वयं जिम्मेदार है। मनुष्य ही समाज की वर्तमानकालिक स्थिति को अच्छी दिशा में ले जा सकता है। प्राचीन संस्कृतियों में प्राय: यह अवधारणा पाई जाती है कि मानव इतिहास एक पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अग्रसर होता रहता है। इसका लक्ष्य निश्चित है तथा लक्ष्य विशेष की प्राप्ति तक इसको विकास प्रक्रिया आगे बढ़ती जाती है। इस प्रकार की अवधारणा से स्पष्ट है कि मानव इतिहास के विगत अतीत तथा भविष्य के विषय में प्राय: एक परिकल्पना निश्चित रहती है।
इतिहास के विषय में युग चक्रवादी
सिद्धान्त के विषय में अलग-अलग विद्वानों ने भिन्न-भिन्न विचार प्रस्तुत किए
हैं। अलग-अलग देशवासियों ने युग चक्र को मानते हुए इतिहास के विषय में
विभिन्न सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं। इसमें कुछ सिद्धान्त धार्मिक दृष्टिकोण पर
आधारित हैं तो कुछ धातु युग से विकास की ओर जाने की प्रक्रिया पर निर्भर हैं।
युगचक्रवादी चिन्तन-
भारतीय परम्परा
भारतीय चिन्तन का मुख्य आधार धार्मिक
है। भारतीय सभ्यता को ब्राह्मण, बौद्ध तथा
जैन धर्म की चिन्तना के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। काल विभाजन के प्रसंग में युगचक्रवादी
विचार इन तीनों में ही समान रूप से दिखाई देते हैं। बौद्ध धर्मावलम्बियों
तथा जैन धर्मावलम्बियों ने इस सिद्धान्त में कुछ नवीन संशोधन किए हैं। ब्राह्मण
विचारधारा में युग सिद्धान्त का प्रारम्भ अत्यन्त प्राचीन काल से ही दिखाई
दे रहा है।
भारत में समय-समय पर संसार की
उत्पत्ति तथा विनाश की परिकल्पना अत्यन्त प्राचीन है तथा अथर्ववेद में इसका
अस्तित्व स्पष्ट प्रमाणित होता है- कृत, त्रेता,
द्वापर तथा कलियुग। 'कृत' चार बिन्दुओं से अंकित पक्ष है तथा यह भाग्यशाली एवं उत्तम है। त्रेता
में तीन बिन्दुओं का अंकन है तथा द्वापर में दो बिन्दुओं का अंकन है। कलि
में एक अंक का पासा है। ये चारों युगजए में फेंके जाने वाले पासे के समान है।
इतिहास की युगचक्रवादी व्याख्या
ऐतरेय ब्राह्मण में ये चारों नरक
युगों के लिये प्रयुक्त हुए हैं। कृत युग मानव इतिहास में स्वर्णिम युग रहा
है। जिसमें मानव सभी रूपों में सम्पन्न, सुखी तथा
पारस्परिक सौहार्द्र से सम्पन्न था। कलियुग ठीक इसके विपरीत है, इसमें द्वेष-ईर्ष्या, झगड़ा तथा अनैतिकता का
विस्तार दिखाई देता है। जहाँ व्यक्ति का प्रश्न है, प्रत्येक
युग में उसकी मुक्ति की संभावनाएँ रहती हैं। अनुवर्ती युग में मोक्ष प्राप्ति के साधन भी सरलत्तर
होते जा रहे हैं। इस प्रकार व्यक्ति के लिये निरन्तर क्षीण-मानवता का सिद्धान्त
किसी भी प्रकार की निराशा को जन्म देने वाला नहीं है। ये चारों युग मिलकर एक महायुग
की कल्पना करते हैं। एक महायुग कल्प बनाते हैं। कल्प सृष्टि के उदय
से होकर प्रलय तक सृष्टि के विनाश का सम्पूर्ण समय होता है।
बौद्ध भी इन चारों युगों में
विश्वास करते हैं। उन्होंने भी चारों युगों के ये ही नाम दिए हैं। परन्तु बौद्ध
चिन्तना के अनुसार इन युगों की व्यवस्था थोड़ी भिन्नता लिए हुए है। चार युगों को एक
साथ रखने पर ये आठ युगों को एक इकाई मानते हैं। जिसे अन्तरकम्प या अन्तरकल्प
कहते हैं। ये युग कलि से प्रारम्भ होते हैं तथा कृत तक जाते हैं ।
तत्पश्चात् उलटे-क्रम में चलते हुए पुनः ये कलियुग तक आ जाते हैं। बीस
अन्तर कल्प मिलकर "असंख्येयकल्प का निर्माण करते हैं और चार असंख्येयकल्प"
मिलकर एक कल्प बनाते हैं।
जैन धर्म में काल की कल्पना बारह
आरों वाले एक चक्र के रूप में की गई है, जो दो अर्थ भागों
में विभक्त है। ऊपर की ओर जाने वाले अर्द्धभाग को "उत्सर्पिणी"
तथा नीचे की ओर जाने वाले अर्द्ध भाग को "अवसर्पिणी" की संज्ञा
प्रदान की गई है। एक अनवरत क्रम में उपसर्पिणी तथा अवसर्पिणियाँ एक
दूसरे के पश्चात् आती जाती रहती हैं।
इस प्रकार युगों का सिद्धान्त सामान्य रूप से
सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन द्वारा स्वीकार किया गया है। युगों का सिद्धान्त अवतारवाद
के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है।
यूनानी, रोमन
चिन्तन- धातु युग की कल्पना
युग चक्रीय सिद्धान्त में
यूनानियों तथा रोमनवासियों ने विशेष रुचि दिखाई। उस समय के विद्वान
इस विषय पर दीर्घकालीन चर्चा किया करते थे। इनकी चर्चा के परिणामस्वरूप अनेक सिद्धान्तों
का उदय हुआ। प्रत्येक सिद्धान्त इन दो में से किसी एक वर्ग में आता
है।
(क) मनुष्य अपनी पूर्ववर्ती अवस्था से उठकर
विकास किया है।
(ख) उसका पतन हुआ है।
वैसे तो इतिहास चिन्तन में दोनों ही
सिद्धान्तों का महत्त्व रहा है तथापि दूसरा सिद्धान्त सभी कालों में
सर्वमान्य रहा है।
यूनानी, रोमन चिन्तना में युग
सिद्धान्त के प्रसंग में हेसियोड का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
हेसिपोड (Hasiyoud) में चार युगों की कल्पना की है।
पहला युग स्वर्णयुग (Golden Age)। इस युग के मनुष्य
उस समय रह रहे थे, जिस समय स्वर्ग में क्रोनोस का
शासन चल रहा था। स्वयं मनुष्य देवताओं के सदृश्य कर्म करते थे। पृथ्वी स्वयं ही
उन्हें श्रेयस्कर वस्तुएँ प्रदान करती थीं। मनुष्य की इस पीढ़ी को समाप्ति के
उपरान्त रजतयुग (Silver Age) के मनुष्य आए। इस युग
में पूर्वोत्तर युग की अपेक्षा कई दृष्टियों से होनतर थे। अन्त में अपनी ही
गलतियों एवं मूर्खता के कारण विनाश को प्राप्त हुए। ये लोग देवताओं की पूजा नहीं
करते थे तथा परस्पर मारकाट व विद्वेष में रहते थे। इसके पश्चात् कांस्य युग
(Bronge Age) आता है। इस युग के मनुष्य शक्तिशाली परन्तु
दयाभाव से शून्य थे। उनके घर तथा शस्त्र कांसे के होते थे, क्योंकि उन्हें लोहे का ज्ञान नहीं था। ये भी पारस्परिक कलह और मारकाट से
विनष्ट हुए। इसके पश्चात् लौह युग (Iron Age) आता
है। प्रारम्भ में वीर पुरुष हुए भी जो पूर्ववर्ती लोगों की तुलना में अच्छे तथा
बहादुर होते थे। वर्तमानकालिक लौह युग में श्रम तथा दुःख से विमुक्ति नहीं है तथा
दैविक शक्ति हमारे ऊपर और अधिक भार डालेंगी।
हेसियोड द्वारा चार युगों का वर्णन
प्रस्तुत किया गया। लौह युग में वीर पुरुषों के अस्तित्व में आने के
कारण, यह मान्यता बलवती होती है कि प्रत्येक काल
में, युग का प्रतिनिधित्व एक विशिष्ट प्रकार की जाति द्वारा
होता है। कालान्तर में युगों का यह सिद्धान्त समाज के चक्रात्मक (Cyclical)
विकास के सिद्धान्त के साथ जुड़ गया।
युगों के चक्रात्मक विकास का सिद्धान्त इस मान्यता
पर आधारित था कि, जिस प्रकार प्रकृति में दिन-रात, ऋतु-परिवर्तन आदि चक्रवात बदलते रहते हैं, उसी
प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में भी चक्रात्मक प्रक्रिया चलती रहती है। बेबीलोनिया
की सभ्यता में विश्व वर्ष (World Year) का यह
सिद्धान्त पहले से ही ज्ञात था। इसे यूनानी सभ्यता में सबसे पहले हेरेक्लिटस
के चिन्ता में प्रकट होता है। अनुवर्ती दार्शनिकों ने इस पर चिन्तन किया। इस
सिद्धान्त पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चर्चा प्लेटो के परिसंवादों में ज्ञात
होती है। इस सिद्धान्त के अनुसार-सम्पूर्ण मानव अनुभवों (Human Experience
and knowledge) का मापन दो विश्व वर्षों द्वारा होता है। प्रथम
में विश्व आगे की ओर बढ़ता है, दूसरे में पीछे की ओर चलते
हुए पुनः अपने प्रारम्भिक बिन्दु पर आ जाता है। इसी प्रकार युगों का एक के पश्चात्
दूसरे के आने का यह क्रम ब्रह्माण्ड की स्थिति तक चलता रहेगा। जो सिद्धान्त
सम्पूर्ण पर लागू होता है, वही इसके प्रत्येक तथा सभी खण्डों
पर लागू होगा। मनुष्य के युग ब्रह्माण्ड की कल्पना इस चक्रीय विकास प्रक्रिया
से घनिष्ठ रूपेण सम्बद्ध है। सुदूर अतीत का स्वर्णिम युग एक समय पुनः
लौटेगा। यह आशामय परिकल्पना सुखद है।
द्वितीय शताब्दी ई. पूर्व
रहस्यवादिता के पुनरुज्जीवन में यूनानी रोमन-चिन्तन के युग चक्रवादी सिद्धान्त
में एक नया आयाम और जोड़ा गया। इसके अन्तर्गत भविष्य की सकारात्मक
परिकल्पना की गई यानी अच्छे भविष्य की भविष्यवाणी की जाने लगी। लेखक इसे देव
प्रेरित भविष्य कथन के रूप में प्रस्तुत करता है जिसकी सत्यता वर्तमानकालिक घटनाओं
में पहले से ही देखी जा सकती है। यूनानी- रोमी चक्रवादी सिद्धान्त संशोधन
के साथ चलता रहता है।
ईसाई परम्परा में
युग सिद्धान्त
ईसाई परम्परा में चक्रवादी युग
सिद्धान्त उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुआ। किन्तु ईसाई चिन्तन में
युग सिद्धान्त का प्रतिपादन भिन्न रूप में किया गया। इससे पूर्व की
कृतियों में स्वर्णिम युग को सुदूर अतीत में रखा गया तथा परवर्ती
युगों को पतन तथा विनाशोन्मुख इतिहास के रूप में उपकल्पित किया गया।
ईसाई धर्म ने जीजस (Jesus)
के आगमन को नवीन आशा तथा सुखद भविष्य के रूप में प्रस्तुत किया है। इजरायल
के पैगम्बरों ने निकट भविष्य में मसीहा के जन्म की भविष्यवाणी की
थी। यह मसीहा पृथ्वी पर विशुद्ध धर्म तथा शान्ति व सुख की स्थापना करने वाला होगा।
सेन्ट आगस्टिन पहला व्यक्ति था, जिसने मनुष्य के इतिहास में सात अवस्थाओं का उल्लेख किया है। आने वाले
विद्वानों ने इस व्यवस्था को स्वीकार किया। स्पेनवासी पादरी पालस आरोसियस (418 ईस्वी), सेन्ट आगस्टिन
का बड़ा प्रशंसक था। उसने अपनी पुस्तक हिस्तोरिया को उसने सेन्ट आगिस्टन
को समर्पित किया। उसने अपनी पुस्तक को सात खण्डों में विभाजित किया जा मानव इतिहास
के सात गुणों के परिचायक हैं। रोम के इतिहास का उसके ऊपर अधिक प्रभाव पड़ा था। रोम
की स्थापना, गाल जाति द्वारा रोम की विजय, अलेक्जेन्डर की मृत्यु, कार्थेज का पतन, दास युद्ध, सीजर आगस्टस का शासन काल, जिसके साथ जीसस के जन्म वृत्तान्त को भी आगस्टिन अपनी
पुस्तक में लिखता है।
मध्ययुगीन इतिहास ईसाई लेखकों ने युग
सिद्धान्त पर काफी चिन्तन किया। इसके पहले इतिहास प्रक्रिया को दैवी
परियोजना के अनुसार कल्पित किया गया। ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही इतिहास
स्वयं अपने आप को व्यवस्थित कर लेता है। मनुष्य द्वारा इसमें किसी भी प्रकार के
परिवर्तन की संभावना नहीं है। यदि मनुष्य कुछ परिवर्तन का प्रयास भी करता है तो
उसका प्रयास निरर्थक ही माना जाता है। इस प्रकार मध्ययुगीन इतिहास लेखन का
कार्य, दैवी परियोजना को खोजना तथा इसके प्रयोजन
को ठीक-ठीक समझना था।
मध्ययुगीन युग विभाजन के एक प्रतिनिधि
सिद्धान्त के रूप में पलोरिस के जोए किम (12वीं
शताब्दी) के सिद्धान्त को लिया जा सकता है। उसने इतिहास को तीन युगों में विभक्त
किया। उसके अनुसार प्रथम युग-पिता का अथवा ईश्वर (Father) का शासन काल अर्थात् पूर्व ईसाई युग, द्वितीय पुत्र
का (Son) का शासन काल अर्थात् ईसाई युग, तृतीय पवित्र (Holy Soul) आत्मा का शासन काल,
अर्थात् वह युग जो भविष्य में आने वाला है।
मध्ययुगीन इतिहास लेखन की यह विशेषता
रही है कि उसने भावी युग के प्रति अपने विचार प्रस्तुत किये। लेकिन भविष्य की चर्चा
का आधार क्या है? यह विद्वानों के लिये चिन्तनीय है। भावी
कथन के सम्बन्ध में उनका कहना है कि इस विषय में उन्हें श्रुतिप्रकाश (Revelation)
से ज्ञात हुआ है। इस श्रुति प्रकाश से यह भी ज्ञात
होता है कि ईश्वर ने क्या किया है और भविष्य में क्या करने वाला है। इस प्रकार
इतिहास लक्ष्य ईश्वर द्वारा पूर्व नियोजित था।
युग सिद्धान्त
आधुनिक विश्लेषण
17 वीं शताब्दी से इतिहासकारों ने चक्रवादी
युग सिद्धान्त पर उत्साह से चिन्तन किया। उस समय में बोसुए
से लेकर आधुनिक युग में स्पेंग्लर तथा टायनबी तक विद्वानों ने युग
सिद्धान्त पर विचार किया। बोसुए सेन्ट आगस्टिन द्वारा
प्रतिपादित सात युगों को स्वीकार करता है। उसके अनुसार प्रथम युग का समय
विस्तार आदम से नोआ तक है तथा यह सृष्टि का प्रारम्भिक काल
कहलाता है। द्वितीय युग नोआ से लेकर अब्राहम
के समय तक माना गया है। इस काल में जलप्लावन की घटना घटी तथा मनुष्य पहली
बार दण्डित हुआ। इसी समय से साम्राज्यवादी लिप्सा बढ़ी तथा रक्तरंजित
युद्धों का प्रारम्भ हुआ।
अब्राहम से लेकर मोजेज तक के
काल को तीसरा युग माना जाता है। इसमें ओल्ड टेस्टामेन्ट
(Old Testament) का प्रारम्भ हुआ। चौथा युग मोजेज
से लेकर जेरूसलम में सोलोमन द्वारा मन्दिर निर्माण तक माना जाता है।
पाँचवाँ युग बेबीलोन को दासता तक चलता है। छठा युग साइरस
से जीसस तक चलता है। सातवाँ युग जीसस से लेकर अपने समय तक
चलता है। बोसुए के काल विभाजन से यह स्पष्ट होता है कि उसकी दृष्टि अतीत की
ओर थी, तथा उसने भविष्य के विषय में कोई कल्पना नहीं की,
जिसमें सुख व शान्तिमय जीवन की परिकल्पना हो, जबकि
क्राइस्ट द्वारा सभी शत्रु पराजित हो जायेंगे और सभी मनुष्य पृथ्वी पर
ईश्वर का साक्षात्कार कर सकेंगे।
विको एवं हर्डर के
विस्तार
विको 18वीं शताब्दी में हुआ था। वह स्वयं एक कुशल एवं प्रसिद्ध इतिहासकार
था। उसने ऐतिहासिक विधि के सिद्धान्तों के निर्माण करने का प्रयास किया। विको के
अनुसार ऐतिहासिक प्रक्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें रहते
हुए मनुष्य अपनी भाषा, प्रथाओं, विधि
तथा प्रशासन इत्यादि से सम्बद्ध संस्थाओं की रचना करता है। इस प्रकार इतिहास मानव
समाजों तथा इनको संस्थाओं के विकास की कथा है। मानव समाज की सम्पूर्ण संरचना स्वयं
मनुष्य द्वारा रची गई है
प्रत्येक हीरोइक युग के पश्चात् 'क्लासिक युग' आता है जिसमें कल्पना के स्थान पर विवेक को, गाथा काव्य के ऊपर गद्य साहित्य की तथा कृषि के ऊपर उद्योग
को प्रभुता होती है तथा नैतिकता का आधार युद्ध न होकर शान्ति होता है । इस
युग के पश्चात् पतन का युग आता है। इस युग में विवेक तो होता है परन्तु सृजनात्मकता
का ह्रास होता है। विको इस चक्रात्मक विकास में इतिहास का पुनरावर्तन मात्र
नहीं मानता। यह एक वृत्त न होकर सर्पिल आकार का है। विको की धारणा
यूनानी रोमन युग चक्रवादी सिद्धान्त से भिन्न है।
हर्डर एक दार्शनिक इतिहासकार था।
उसने युग चक्रवाद पर मनुष्य के जीवन से सम्बन्धित अवस्थाओं पर विचार
किया। उसके अनुसार मानव जीवन भौतिक विश्व में अपने परिवेश के साथ घनिष्ठ रूप से
सम्बद्ध है। इस भौतिक ब्रह्माण्ड का सामान्य स्वरूप एक जीवी
का है जो इस प्रकार नियोजित है कि यह अपने अन्दर उच्च स्तर के जीवी को
विकसित करता है। भौतिक ब्रह्माण्ड एक योनि के समान है जिसमें किसी
क्षेत्रविशेष में सौर मण्डल का जन्म होता है, पुनः सौरमण्डल वह योनि है जिसमें पृथ्वी का जन्म होता है। जोकि
अन्य सभी ग्रहों की अपेक्षा मनुष्य का उपयुक्त कार्य क्षेत्र बनती है। पृथ्वी को
इस भौतिक संरचना के अन्तर्गत विभिन्न खनिज पदार्थ, विशिष्ट
भौगोलिक प्रायद्वीप इत्यादि का जन्म होता है, जिसमें सबसे
पहले वनस्पति जीवन का आविर्भाव होता है। पशुजीवन वनस्पति जीवन का ही विकसित रूप
है। इसका विकसित रूप मानव के आविर्भाव में देखा जा सकता है तो यदि इसे यह कहा जाए
कि मानव ही पशु जीवन का विकसित रूप है तो इसमें कोई अत्युक्ति नहीं है।
हर्डर प्रकृति की विकास
प्रक्रिया को किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख मानता है जिसमें विकास को प्रत्येक
अवस्था प्रकृति द्वारा इस प्रकार नियोजित है ताकि वह आगामी अवस्था का मार्ग
प्रशस्त कर सके। कोई भी अवस्था स्वयं में लक्ष्य नहीं है किन्तु मनुष्य के
आविर्भाव में यह प्रक्रिया अपनी परिणति को पहुंचती है। मानव अपने स्वभाव
तथा आध्यात्मिक शक्तियों के सहयोग से अपनी भावी प्रगति की ओर उन्मुख होता है।
मनुष्य दो विश्वों के बीच कड़ी के रूप में होता है, प्रथम
भौतिक जगत व दूसरा आध्यात्मिक जगत। यूरोपीय क्षेत्र में विशुद्ध अर्थों में
ऐतिहासिक प्रगति हुई। उसके अनुसार चीन, अमेरिका तथा
भारत में ऐतिहासिक प्रगति नहीं हुई।
स्पेंग्लर तथा
टॉयनबी की युगचक्रवादी परिकल्पना
ओसवाल्ड स्पेंग्लर तथा आरनोल्ड
टॉयनबी दो अन्य आधुनिक विचारक हैं, जिन्होंने
इतिहास की युग चक्रवादी व्याख्या प्रस्तुत की है। स्पेंग्लर के
अनुसार, इतिहास उन विविध पृथक् इकाइयों का अनुक्रम है,
जिन्हें कि हम संस्कृति कहते हैं। प्रत्येक संस्कृति का अपना
विशिष्ट स्वभव होता है, जिसकी अभिव्यक्ति उसके विकास में
देखी जा सकती है। साथ ही प्रत्येक संस्कृति को एक निश्चित आयु होती है।
व्यक्ति के समान संस्कृति भी परिपक्व होने के बाद मृत्यु को प्राप्त होती है। उसके
अनुसार प्रत्येक संस्कृति एक जैव इकाई के समान है। उसमें भी उसी के समान
अनेक जीवन रूप देखे जा सकते हैं। प्रत्येक संस्कृति का प्रारम्भ समाजों की बर्बरता
से होता है। इसके बाद विविध राजनीतिक संस्थाओं तथा कला एवं विज्ञान का विकास होता
है जो पहले साधारण सा होता है, धीरे-धीरे विशिष्टता को
प्राप्त होता है। बाद में संस्कृति का विकृत रूप जाता है जो उसे पतन की ओर ले जाता
है। इस प्रकार की व्यवस्था में युग चक्र निश्चित है तथा प्रत्येक
युग की अवधि भी निश्चित है। वर्तमान के आधार पर भावी जीवन के आधार पर भी हम कुछ
निश्चय कर सकते हैं।
टॉयनबी एक दार्शनिक धर्मदूत है, परन्तु उन्होंने इतिहास का चिन्तन करते हुए एक प्रसिद्ध पुस्तक "स्टेडी
ऑफ हिस्ट्री" (A study of History) का लेखन किया।
यह पुस्तकं बीस वर्ष बाद प्रकाशित हुई। उन्होंने इतिहास के सम्बन्ध में जो
व्याख्यायें प्रस्तुत की, वह भी इतिहासकारों द्वारा
सर्वमान्य नहीं हैं। अन्य इतिहासकारों का कहना है कि टॉयनबी ने अपनी
व्याख्या को न्यायसंगत बनाने के लिये ऐतिहासिक तथ्यों को मनमाने ढंग से विकृत करके
प्रस्तुत किया है।
टॉयनबी के इतिहास विषयक चिन्तन का
प्रमुख सिद्धान्त यह है कि इतिहास की विषयवस्तु मानव जाति की कुछ विशिष्ट
इकाइयाँ है जिन्हे टॉयनबी एक समाज के रुप मानता है इन विभिन्न
समाजों को सभ्यताएँ भी कह सकते है, जो मानव जाति के इतिहास समय-समय पर
विकसित हई और विनष्ट भी हई। सभ्यता ही (Civilizations) उनके अनुसार इतिहास अध्ययन की इकाई है। उन्होंने अतीत और
वर्तमान काल की इक्कीस सभ्यताओं को छाँट निकाला है। उन्होंने विभिन्न सभ्यताओं
का तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। प्रत्येक समाज या तो आदिम होता है या सभ्य। अधिक
समाज प्रारम्भ में असभ्य जीवन में ही आते हैं। असभ्य (आदि) समाजों
की संख्या कम होती है, क्योंकि या तो वे सभ्य बन जाते हैं या
सभ्य लोगों द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं। प्रत्येक सभ्यता स्वत: एक पर्याप्त इकाई
होती है। वही धीरे धीरे विशेष का प्रतिनिधित्व करती है। यदि कोई सभ्यता अपने में
परिवर्तन करती है तो वह नई सभ्यता बन जाती है।
टॉयनबी ने अन्य परिकल्पनात्मक
दार्शनिकों की भांति अपने ढंग से इतिहास की स्वरगति को पहचानने का प्रयास किया है।
इतिहास के सम्बन्ध में उसका व्यक्तिगत दर्शन है। उन्होंने विश्व की
संस्कृतियों का अध्ययन करके इतिहास के गूढ रहस्यों पर प्रकाश डाला है। उनके
इतिहास दर्शन का मुख्य विषय धर्म तथा संस्कृति रहा है।
सृजन ही सांस्कृतिक इतिहास की मूल
प्रक्रिया है। टॉयनबी ने सृजन को आत्माभिव्यक्ति स्वीकार किया है।
सांस्कृतिक परम्परा मूल्यों के उन्मेष, उनके
अनुचिन्तनात्मक परामर्श, उनके सम्प्रेषण तथा तदुपयोगी
संकेतों की रचना, उनकी साधना के लिये अपेक्षित संस्थाओं के
निर्माण आदि से बनती और बढ़ती है। इस प्रक्रिया में प्रतिभावान महापुरुष ही पथप्रदर्शक
और तीर्थकर बनते हैं। समाज व संस्कृति के संश्लेषण से ऐतिहासिक प्रक्रिया सम्पन
होती है।
इस प्रकार इतिहास के चक्रवादी सिद्धान्त
को विभिन्न विद्वानों ने अपने स्तर पर स्पष्ट किया है। परन्तु यह तथ्य सर्वमान्य
है कि इतिहास की प्रक्रिया चक्रवत् बदलती रहती है।
युग चक्रवादी दृष्टिकोण के
अनुसार इतिहास प्रगति नहीं है, अपितु निरन्तर परिवर्तन
तथा पतन का इतिहास है। मानव इतिहास का प्रारम्भ सृष्टि के साथ होता है और सृष्टि
के अन्त में मानव इतिहास का अन्त हो जाता है। इस प्रकार इतिहास क्रमशः पतन का ही
इतिहास है। युगचक्रवादी अवधारणा के अनुसार धर्म की अवनति पतन की
परिस्थितियों के परिणामस्वरूप ही ईश्वर का अवतार ऐतिहासिक प्रगति को गति तथा शक्ति
प्रदान करने के लिए ही होता है। भारतीय दर्शन (गीता) में कहा गया है-
यदा यदा हि
धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं
सृजाम्यहम्॥
परित्रायाय
साधूनां, विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म
संस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे॥
आशा है कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई
होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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