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नेमियरवाद क्या है?

नेमियरवाद

अधिकांश विद्वान इस धारणा से सहमत हैं कि इतिहास को भी विभिन्न विषयों में से एक स्वतंत्र विषय के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। कुछ इतिहासकार साधारण शोध प्रणाली के माध्यम से कम से कम के सम्बन्ध में अधिक जानने की इच्छा रखते हैं।

डॉ. गोविन्द पाण्डे द्वारा सम्पादित ग्रन्थ में उल्लेख मिलता है कि, "यूनानी इतिहास लेखन के समय से ही इतिहासकार कल्पित मान्यताओं को तोड़ने, उच्च आदर्शों की पृष्ठभूमि में साधारण सांसारिक कारणों को खोजने, महान पुरुषों में दोष देखने और अच्छी योजनाओं की असफलताओं को बताने में विशेष आनन्द का अनुभव करते रहे हैं। बीसवीं शताब्दी तक उसके अतीत को वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने के नाम पर यह सब होता रहा है।"

अंग्रेजी इतिहासकार सर लेविल नेमियर ने विशिष्ट को महत्त्व देने के जिस सिद्धान्त का उल्लेख किया, उसके कारण वह प्रथम विश्वयुद्ध के समय परवर्ती ब्रिटेन के शैक्षिक क्षितिज पर अत्यधिक चमकने वाला एक महत्त्वपूर्ण इतिहासकार बनकर अवतरित हुआ। उसकी उपलब्धियों और अनउदारतावाद का सिद्धान्त इतिहास में नेमियरवाद के नाम से जाना जाता है।

विशिष्ट के महत्त्व के सिद्धान्त का अन्य विद्वान सरलता से उपहास कर सकते हैं परन्तु यह सिद्धान्त पूरी तरह से महत्त्वहीन नहीं कहा जा सकता। इसी विचारधारा के मानने वाले प्रथम श्रेणी के कुछ इतिहासकारों ने अतीत को प्रस्तुत करने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका को अदा किया है। परन्तु इस विचारधारा के सर्वाधिक प्रभावपूर्ण और महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नेमियर थे।

सर लेविल नेमियर जन्म 1888 ई. में हुआ था। उसने विभिन्न पदों पर कार्य किया। 1931 ई. में उसने मेनचेस्टर विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर के पद पर कार्य करना प्रारम्भ किया और कई महत्त्वपूर्ण कृतियाँ लिखी।

नेमियर एक सच्चा रूढ़िवादी (कंजरवेटिव) था उसमें उदारता की भावना नहीं थी जैसी कि अन्य रूढ़िवादी लोगों में पायी जाती है। नेमियर के समान अन्य कोई रूढ़िवादी विगत वर्षों में नहीं हुआ था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय तक अंग्रेज इतिहासकारों के लिए यह मानना असम्भव था कि इस समय में होने वाले ऐतिहासिक परिवर्तन को अच्छा स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई और विकल्प प्रस्तुत करे परन्तु 1920 ई. के पश्चात् कंजरवेटिव विचारधारा के मानने वालों ने ऐतिहासिक परिवर्तन को भविष्य के प्रति आशंका के रूप में देखना प्रारम्भ किया।

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नेमियरवाद क्या है?

इस सन्दर्भ में यह भी वर्णन मिलता है कि, "एक्टन के उदारतावाद की तरह नेमियर का अनुदारतावाद भी इसलिए सबल और पूर्ण था कि इसकी जड़ें महाद्वीपीय पृष्ठभूमि में थीं।" फिशर और टॉयनबी की तरह नेमियर की जड़ें भी 19वीं शताब्दी के उदारवाद में नहीं थीं और न ही उसे इसका कोई गहरा पछतावा ही था परन्तु प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् होने वाले शान्ति प्रयासों की असफलता ओर व्यर्थता ने उदारवाद का खोखलापन प्रकट कर दिया था। इसकी प्रतिक्रिया का रूप या तो समाजवाद और या अनुदारतावाद के रूप में प्रकट हो सकता था।

सर लेविल नेमियर का उदय अनुदारवादी इतिहासकार के रूप में हुआ था। नेमियर की मान्यता थी कि, "उस समय सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर संसद द्वारा लिये जाने वाले निर्णयों का आधार कोई सिद्धान्त अथवा मान्यता न होकर संसद सदस्यों की आर्थिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि तथा उनके अन्य संसद सदस्यों के साथ सम्बन्ध थे।" नेमियर इंग्लैण्ड के इतिहास के उस अन्तिम युग की ओर वापस हुआ जिसमें एक स्थिर और व्यवस्थित समाज के अन्तर्गत शासक वर्ग पद और शक्ति प्राप्ति हेतु विवेकपूर्ण कार्य में संलग्न था।' उस पर एक विद्वान ने यह आरोप लगाया था कि जिस प्रकार डार्विन ने विश्व में से बुद्धि को निकाल फेंका था उसी प्रकार सर नेमियर ने इतिहास को विवेकहीन बना दिया था।

इतिहास में क्रमबद्धता आवश्यक है जो अतीत के इतिहास में दिखायी नहीं देती और इसके अभाव के कारण किसी काल विशेष अथवा क्षेत्र विशेष के इतिहास लेखन हेतु विभिन्न विवरणों को एकत्रित करना अत्यन्त कठिन है। नेमियर इस समस्या के समाधान के अनुसन्धान परियोजना के गठन की राय देता है जिसके अन्तर्गत कई विद्वान सामूहिक रूप से कार्य कर सकते हैं परन्तु आधुनिक विषयों की अध्ययन सामग्री की अधिकता के कारण यह पद्धति भी अधिक सफल प्रतीत नहीं होती।

डॉ. गोविन्दचन्द्र पाण्डेय द्वारा सम्पादित ग्रन्थ 'इतिहास-स्वरूप एक सिद्धान्त' में वर्णन मिलता है, "विशिष्ट के इस महत्त्व को इतिहास का प्रमुख कार्य क्षेत्र समझना, मूल्य अथवा मान्यताओं की उपेक्षा करना तथा किसी प्रणाली विशेष को श्रेष्ठता के स्तर तक विकसित करके उससे सन्तुष्ट हो जाना, इतिहासवाद का सतत् उल्लंघन है।"

नेमियर ने यद्यपि सभी खतरों से रहित एक युग का सुन्दर चित्र तो प्रस्तुत किया किन्तु अधिक समय तक इनसे बचे रहना असम्भव था। नेमियर ने अपने लेखन में महान् आधुनिक अंग्रेजी, फ्रांसीसी और रूसी क्रान्ति में से किसी के सन्दर्भ में कोई वर्णन नहीं किया है परन्तु उसने 1848 ई. की यूरोप की क्रान्ति का सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत किया है।

ई. एच. कार ने लिखा है कि, "इस असफल क्रान्ति ने यूरोप में बढ़ती हुई उदारतावाद की ऊँची आशाओं पर पानी फेर दिया था और सैन्यबल के सामने विचारों के खोखलेपन को प्रदर्शित कर दिया था। इसने यह भी प्रकट किया कि संगीनों के सामने प्रजातन्त्रवादी कितना बेचारा लगता है।" वास्तव में राजनीति की उठक-पटक में विचारों की घुसपैठ और भी खतरनाक होती है। इस अपमानजनक असफलता को नेमियर ने 'बुद्धिजीवियों की क्रान्ति' के नाम सम्बोधित किया है।

नि:स्सन्देह नेमियर ने इतिहास दर्शन के क्षेत्र में कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं दियाहै परन्तु उसने अपने कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित एक लेख के द्वारा अपनी स्वाभाविक स्पष्टता और तीक्ष्णता से इस सन्दर्भ में अपना मत व्यक्त किया है। उसने स्पष्ट लिखा है, “राजनीतिक' उपदेशों तथा विचारधाराओं से मनुष्य अपने मस्तिष्क के स्वतन्त्र संचालन को जितना ही कम बाधित करे, उतना ही उसके चिन्तन के लिए आवश्यक है।"

अपनी पुस्तक 'पर्सनेलटीज एण्ड पावर्स' में नेमियर अपने ऊपर लगाये आरोप कि उसने इतिहास से विवेक निकाल दिया है, का कोई विरोध प्रस्तुत न करते हुए आगे लिखता है, “कुछ राजनीतिक दार्शनिक शिकायत करते हैं कि आजकल इस देश में सामान्य राजनीति पर तर्क-वितर्क की कमी दिखायी देती है और इसे वे 'थकी हारी चुप्पी' का नाम देते हैं; विपक्षी दल कार्यक्रमों और आदर्शों को भुलाकर ठोस समस्याओं का व्यवहारिक समाधान ढूँढ़ रहे हैं किन्तु मुझे यह दृष्टिकोण बढ़ी हुई राष्ट्रीय परिपक्वता का ही सूचक लगता है। मैं कामना करता हूँ कि यह स्थिति राजनीतिक दर्शन द्वारा बिना विशृंखल हुए काफी दिनों तक चलती रहे।

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