राजस्थान के दुर्ग स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएँ
राजस्थान, जिसे भारत की वीरभूमि कहा जाता है, अपने शानदार किलों (दुर्गों) और अद्वितीय स्थापत्य कला के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। चित्तौड़गढ़, कुम्भलगढ़, रणथम्भौर और आमेर जैसे ऐतिहासिक किले न केवल वास्तुकला की दृष्टि से अद्भुत हैं, बल्कि ये राजस्थान की राजनीतिक, सांस्कृतिक और सैन्य विरासत को भी दर्शाते हैं। इस पोस्ट में हम जानेंगे कि राजस्थान के किलों का निर्माण कैसे हुआ, उनकी प्रमुख स्थापत्य विशेषताएँ क्या थीं और इन दुर्गों का इतिहास में क्या महत्त्व रहा। अगर आप राजस्थान के दुर्गों का इतिहास, उनकी रचना शैली, और प्राचीन भारत के सैन्य वास्तुशिल्प में रुचि रखते हैं, तो यह लेख आपके लिए बेहद उपयोगी साबित होगा।
डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार "यदि हम
राजस्थान राज्य के एक भाग से दूसरे भाग में पदयात्रा करें, तो हमें लगभग 10 मील के
बाद कोई न कोई किला अवश्य मिल जायेगा।" मण्डन के अनुसार किले राज्य के
अनिवार्य अंग थे। अत: राजस्थान के राजाओं तथा सामन्तों द्वारा अनेक किले बनवाये
गए। मेवाड़ के महाराणा कुम्भा तथा मारवाड़ के शासक मालदेव के समय में अनेक किलों
का निर्माण किया गया। केवल मेवाड़-राज्य में ही 84 दुर्ग हैं जिनमें से 32 दुर्गों
का निर्माण महाराणा कुम्भा ने करवाया था।
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राजस्थान के प्रसिद्ध दुर्ग: स्थापत्य कला की विशेषताएं |
(1) दुर्गों के प्रकार-
'शुक्रनीति सार' के अनुसार दुर्गों के 9
प्रकार बताए गए हैं-
क्र.स. | नाम | परिभाषा |
---|---|---|
1 | एरण दुर्ग | खाई, कांटों तथा पत्थरों से जिसके मार्ग दुर्गम बने हों, उसे एरण दुर्ग कहते हैं। |
2 | पारिख दुर्ग | पारिख दुर्ग वह है जो चारों ओर बहुत बड़ी खाई से घिरा हो। |
3 | पारिध दुर्ग | पारिध दुर्ग वह है जो चारों ओर ईंट, पत्थर तथा मिट्टी से बनी बड़ी-बड़ी परकोटों से घिरा हो। |
4 | वन दुर्ग | जो बहुत बड़े-बड़े कांटेदार वृक्षों के समूह से चारों ओर घिरा हुआ हो, उसे वन दुर्ग कहते हैं। |
5 | धन्वन दुर्ग | जो चारों ओर बहुत दूर तक मरुभूमि से घिरा हुआ हो, उसे धन्वन दुर्ग कहते हैं। |
6 | जल दुर्ग | जो चारों ओर विस्तृत जल-राशि से घिरा हुआ हो, उसे जल दुर्ग कहते हैं। |
7 | गिरिदुर्ग | जो किसी एकान्त पहाड़ी पर जल प्रयन्ध के साथ बना हो, उसे गिरि दुर्ग कहते हैं। |
8 | सैन्य दुर्ग | जो व्यूह रचना में चतुर वीरों से व्याप्त होने से अभेद्य हो, उसे सैन्य दुर्ग कहते हैं। |
9 | सहाय दुर्ग | जिस दुर्ग में शूर एवं सदा अनुकूल रहने वाले बान्धव लोग रहते हों, उसे सहाय दुर्ग कहते हैं। |
उपर्युक्त सभी दुर्गों में सैन्य दुर्ग सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। गिरिदुर्गों
में चित्तौड़, कुम्भलगढ़, रणथम्भौर, सिवाणा, जालौर, अजमेर का तारागढ़, जोधपुर का मेहरानगढ़, आमेर का जयगढ़ आदि
उल्लेखनीय हैं। जल दुर्ग की कोटि में गागरोन का दुर्ग आता है।
कौटिल्य ने दुर्गों की चार कोटियों का उल्लेख किया है।
कौटिल्य का कहना है कि राजा को अपने शत्रुओं से सुरक्षा के लिए अपने राज्य की सीमाओं
पर दुर्गों का निर्माण करवाना चाहिए।
क्र.स. | नाम | परिभाषा |
---|---|---|
1 | औदक दुर्ग | पानी के मध्य स्थित दुर्ग अथवा चारों ओर जलयुक्त नहर के मध्य स्थित दुर्ग। |
2 | पर्वत दुर्ग अथवा गिरिदुर्ग | ऊँची पहाड़ी पर स्थित दुर्ग। |
3 | धन्वन दुर्ग | रेगिस्तान में निर्मित दुर्ग। |
4 | वन दुर्ग | वन्य प्रदेश में स्थित दुर्ग। |
(2) मुस्लिम प्रभाव से दुर्ग स्थापत्य कला में परिवर्तन-
मध्यकाल में भारत में मुस्लिम सत्ता स्थापित होने के बाद दुर्ग स्थापत्य
कला में परिवर्तन आया। अब ऊंची और चौड़ी पहाड़ियों पर दुर्गों का निर्माण किया
जाने लगा, जहाँ कृषि तथा सिंचाई के साधन उपलब्ध थे। यदि ऐसी पहाड़ियों
पर प्राचीन दुर्ग बने हुए थे, तो उन्हें फिर से नवीन रूप दिया गया। चित्तौड़, कुम्भलगढ़, माण्डलगढ़, आबू आदि प्राचीन दुर्गों
में मध्ययुगीन युद्ध शैली को ध्यान में रखकर परिवर्तन किये गए।
महाराणा कुम्भा ने चित्तौड़ के दुर्ग के प्राचीरों, द्वारों की श्रृंखला तथा
बुजों को अधिक सुदृढ़ बनाया। कुम्भलगढ़ के किले के भीतर ऊँचे भाग का प्रयोग
राजमहलों के लिए, नीचे भाग का प्रयोग जलाशयों के लिए तथा समतल भाग को खेती
के लिए रखा गया। जोधपुर के दुर्ग में जलाशय न होने के कारण विशाल टांके बनवाये गए
ताकि वर्षा का पानी उनमें एकत्रित हो सके। रसद आदि के लिए बड़े-बड़े कोठे बनवाए
गए। जालौर, रणथम्भौर, नागौर के दुर्गों में भी कई प्रकार के परिवर्तन किये गए।
(3) सामरिक महत्त्व के स्थानों पर किलों का निर्माण-
अधिकांशतः किलों का निर्माण सामरिक महत्त्व के स्थानों पर कराया
गया जो मुख्य रूप से विस्तृत राजमार्गों पर बने हुए हैं। पहाड़ों, दरौं, घाटियों और रास्तों को
दुर्गों से आच्छादित कर दिया गया ताकि आक्रमणकारियों से अन्त:स्थित प्रदेश की
रक्षा की जा सके। राजनीतिक तथा व्यापारिक कारणों से भी इन मार्गों
की सुरक्षा आवश्यक थी। अतः जालौर, सांचौर, सिवाना, मण्डौर और जोधपुर के किले दुर्गम स्थलों पर बने हुए हैं।
(4) किलों की सुरक्षा व्यवस्था-
अधिकांश किले ऊँची पहाड़ी एवं चौड़ी दीवारों से सुरक्षित कर दिए जाते थे। बुों
से युक्त इस चारदीवारी में 3-4 फुट की दूरी पर छेद रखे जाते थे ताकि किले के सैनिक अपने
को सुरक्षित रखते हुए नीचे के शत्रु-सैनिकों पर आसानी से आक्रमण कर सकें।
प्राचीरों के ये छिद्र दो प्रकार के होते थे। ऊपर बने छिद्रों से दुर्ग में स्थित सैनिक
दूर से आते हुए शत्रु सैनिकों पर प्रहार करते थे जबकि नीचे के छिद्रों से प्राचीर
के निकट आ जाने पर शत्रु-सैनिकों पर प्रहार किया जाता था। दुर्ग में प्रवेश करने
के लिए कई दरवाजे होते थे। आक्रमण के समय इन दरवाजों को बंद कर दिया जाता था।
दुर्ग में गुप्त द्वार भी बनाए जाते थे जिनका संकटकाल में प्रयोग किया जाता
था। राजस्थान के रेतीले इलाके में जहाँ पहाड़ियाँ भी दिखाई नहीं देती थीं, वहाँ किले मैदान में ही
बनाए जाते थे और उन्हें ऊंची दीवारों के साथ-साथ चारों ओर गहरी खाइयाँ खोद कर
सुरक्षित कर दिया जाता था। रेगिस्तानी किलों में बीकानेर का किला सर्वाधिक सुन्दर
और सुदृढ़ है।
(5) दुर्गों में महलों, मन्दिरों, अन्न भण्डारों, शस्त्रागारों, आवास गृहों की व्यवस्था-
दुर्गों में राजप्रासाद, मन्दिर, बावड़ियाँ, तालाब, अन्न भण्डार, शस्त्रागार, सैनिकों तथा जन-साधारण के
आवास-गृह, बाजार, बाग-बगीचे आदि बने हुए थे। प्रायः सभी दुर्गों में सुदृढ़ प्राचीर, विशाल परकोटे, अभेद्य बुर्ज, दुर्ग के चारों ओर गहरी
नहर, दुर्ग के भीतर शस्त्रागार, जलाशय अथवा पानी के टाँके, अन्न भण्डार, गुप्त प्रवेश द्वार तथा
सुरंग, राज- प्रासाद तथा सैनिकों के आवासगृह बने हुए थे।
(6) प्राचीरों, विशाल बुर्जों, सुदृढ़
दीवारों तथा द्वारों की व्यवस्था-
चित्तौड़गढ़ दुर्ग की सुदृढ़ सुरक्षा दीवार इसका परकोटा बनाती है।
दीवार की सुरक्षा के लिए मुख्य मार्ग तथा सात द्वार बने हुए हैं। घुमावदार
प्राचीरें, उन्नत और विशाल बुर्जों तथा विशाल पर्वत की घाटी के कारण संकरा
मार्ग चित्तौड़ के दुर्ग की स्थापत्य की विशेषताएँ हैं।
चित्तौड़ का दुर्ग चारों ओर से सुदृढ़ दीवारों से घिरा हुआ है तथा उसकी
सुरक्षा के लिए मुख्य मार्ग तथा सात द्वार बने हुए हैं। इसी प्रकार कुम्भलगढ़
के पहाड़ों के ढाल पर परकोटा बना हुआ है जिसमें बुर्जे तथा मोर्चे बने हुए हैं। इस
दुर्ग के भी सात द्वार हैं। दुर्ग के चारों ओर सुदृढ़ प्राचीर बना हुआ है। प्राचीर
की दीवारें इस प्रकार बनाई गई थीं कि सीढ़ियों आदि से चढ़ना कठिन है। किले की
दीवार इतनी चौड़ी है कि चार घुड़सवार एक साथ इस पर चल सकते हैं।
(7) दुर्गों के अन्दर बने हुए भवन-
प्रायः सभी दुर्गों के अन्दर राजप्रासाद, मन्दिर,जलाशय, शस्त्रागार, अन्नागार, आवास-गृह आदि बने हुए
हैं। चित्तौड़, कुम्भलगढ़, रणथम्भौर आदि दुर्गों में राजप्रासाद बने हुए हैं। चित्तौड़
में महाराणा कुम्भा के महल, राजकुमारों के महल आदि
दर्शनीय हैं। इन राजमहलों में तत्कालीन स्थापत्य कला की विशेषताएं पाई जाती हैं।
परन्तु कुम्भलगढ़ के दुर्ग में महाराणा कुम्भा ने अपने निवास के लिए
साधारण महलों का निर्माण करवाया। आमेर के महल स्थापत्य कला के उत्कृष्ट
नमूने हैं जो स्थानीय शिल्प के आधार पर बनाकर मुगल अलंकरण से सुशोभित हैं।
चित्तौड़ के दुर्ग में कुम्भश्याम का मन्दिर, त्रिभुवन नारायण का
मन्दिर, अद्भुतजी का मन्दिर, नीलकण्ठ और अन्नपूर्णा के
मन्दिर आदि बने हुए हैं। चित्तौड़ के दुर्ग में कीर्तिस्तम्भ भी बना हुआ
है। यहाँ जयमल की हवेली, पद्मिनी और रतनसिंह के महल भी दर्शनीय हैं।
कुम्भलगढ़ के दुर्ग में नीलकण्ठ महादेव का मन्दिर बना हुआ है जो स्थापत्य कला की दृष्टि
से महत्त्वपूर्ण है। यहाँ यज्ञवेदी भी बनी हुई है जो दुमंजिली इमारत है। यहाँ
महाराणा कुम्भा ने कुम्भ स्वामी का मन्दिर भी बनवाया था। इस दुर्ग में कुँवर
पृथ्वीराज का स्मारक भी बना हुआ है। कुम्भलगढ़ के दुर्ग के अन्दर एक और गढ़
सबसे ऊँचे भाग पर स्थित है, जिसे कटारगढ़ कहा जाता है। कुम्भलगढ़ के दुर्ग में
निचले वाले भाग में छोटे-छोटे जलाशय भी बने हुए हैं जिनका उपयोग स्थानीय खेती के
लिए किया जाता था। इस भाग में मामादेव का कुण्ड भी है। रणथम्भौर के दुर्ग में
गणेशजी का मन्दिर बना हुआ है जो बहुत प्रसिद्ध है। यहाँ एक शिव-मन्दिर भी बना हुआ
है। इस दुर्ग में एक जलकुण्ड भी है जिसमें वर्षपर्यन्त स्वच्छ ठण्डा जल रहता है।
इस दुर्ग में सामन्तों को हवेलियाँ तथा बादल महल, हम्मीर कचहरी, जोगी महल आदि भी बने हुए
हैं।
निष्कर्ष:
हमें उम्मीद है कि "राजस्थान के दुर्ग स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएँ"
पर आधारित यह जानकारी आपको ज्ञानवर्धक और रोचक लगी होगी। यदि यह लेख आपके लिए
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