जर्मनी में नाजीवाद (Nazism in Germany)
नाजीवाद का उदय दो विश्व युद्धों के मध्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है, जिसने इस अवधि में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न किये। इसका प्रणेता हिटलर था। नाजीवाद बीसवीं सदी के विवेक, बुद्धि तथा तर्क के विरुद्ध कटु विद्रोह का प्रतीक था। यह व्यक्तिवादी, जनतन्त्र, उदारवाद, साम्यवाद व अन्तर्राष्ट्रीय या विश्व बन्धुत्व के विरुद्ध था। प्रथम विश्व युद्ध में वह जर्मनी की पराजय का कारण वह राजनीतिक नेताओं की कायरता तथा यहूदियों का विश्वासघात बताता था। उसने पराजय का बदला लेने का संकल्प लिया। म्यूनिख में आकर उसने राजनीति में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया तथा वह जर्मनी के राष्ट्रीय समाजवादी श्रमिक दल का सदस्य बन गया। 30 जनवरी, 1936 ई. को हिटलर जर्मनी के चांसलर के पद पर नियुक्त किया गया। वह इस पद से सन्तुष्ट नहीं था। 14 अगस्त, 1934 में राष्ट्रपति हिन्डेनबर्ग की मृत्यु हो गयी। इससे लाभ उठाकर हिटलर ने राष्ट्रपति पद और चांसलर पद को संयुक्त कर समस्त शासन की सत्ता पर अपना अधिकार स्थापित किया। उसके हाथ में इतनी शक्ति आ गयी जो कभी होहन्जोलर्न वंश के हाथ में भी नहीं थी।
नाजीवाद के उत्कर्ष के कारण
1. वर्साय की सन्धि-
जर्मनी के नागरिक वर्साय की
सन्धि को अत्यन्त कठोर, अन्यायपूर्ण एवं
अपमानजनक मानते थे। मित्र राष्ट्रों ने वर्साय की सन्धि के माध्यम से जर्मनी को
सैनिक, आर्थिक और राजनीतिक
दृष्टि से बिल्कुल पंगु बनाने का भरसक प्रयास किया जिसके परिणामस्वरूप जर्मन लोगों
में तीव्र आक्रोश था। वर्साय की सन्धि की अपमानजनक शर्तों ने जर्मन लोगों की
राष्ट्रीय भावना को प्रबल आघात पहुँचाया था। वे वर्साय की सन्धि के कलंक को धोने
के लिए और इसे निरस्त कराने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने के लिए तैयार
थे। हिटलर ने इस स्थिति का लाभ उठाया और वर्साय की सन्धि को निरस्त कराने का
आश्वासन दिया। उसने अपनी पुस्तक 'मीन केम्फ' (मेरा संघर्ष) में लिखा था कि, "वर्साय की सन्धि द्वारा 6 करोड़ व्यक्तियों के दिमागों में
लज्जा और घृणा के इतने भाव भर दिये जायें कि समस्त राष्ट्र ज्वालाओं का अग्नि-सागर
बन जाये तथा उससे यही जयघोष निकले कि हम पुनः हथियार उठायेंगे।" इस प्रकार
नाजीदल के "वर्साय की सन्धि का अन्त हो", "हम पुनः हथियार
उठायेंगे" आदि के नारों ने लाखों जर्मन लोगों का समर्थन प्राप्त कर लिया।
जर्मनी में नाजीवाद का उदय |
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प्राय: यह कहा
जाता है कि नाजीदल के उत्कर्ष में वर्साय की सन्धि का प्रमुख योगदान था। परन्तु
अनेक इतिहासकार इसे सही नहीं मानते। लिप्सन का कथन है कि, "हिटलर के सत्तारूढ़ होने
का वास्तविक कारण वर्साय की सन्धि नहीं थी।" गैथोर्न हार्डी के अनुसार, "हिटलर को वर्साय की सन्धि
के अन्यायों की उपज बताना सर्वथा भ्रान्तिपूर्ण है।" हिटलर का उत्कर्ष
वर्साय की सन्धि के 14 वर्ष बाद हुआ था। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि जर्मन
लोग वर्साय की अपमानजनक सन्धि को कभी भुला नहीं सके। यह सन्धि जर्मन के देशभक्तों
के दिलों में काँटे की भाँति चुभती थी। अतः जब हिटलर ने इस सन्धि को निरस्त कराने
तथा जर्मनी को खोये हुए गौरव को पुनः स्थापित करने का वचन, दिया, तो नाजीदल को लाखों जर्मन
लोगों का समर्थन मिल गया। अत: वर्साय की सन्धि को हिटलर अथवा नाजीदल के उत्कर्ष का
एक सहायक कारण माना जा सकता है।
2. वाइमर गणतन्त्र
के प्रति असन्तोष-
जर्मन लोगों में वाइमर
गणतन्त्र के प्रति तीव्र असन्तोष था। जर्मन लोग गणतन्त्रीय सरकार से इस कारण नाराज
थे कि उसने वर्साय की अपमानजनक सन्धि पर हस्ताक्षर किये थे। गणतन्त्रीय सरकार
जर्मनी की अनेक आन्तरिक एवं बाह्य समस्याओं का समाधान भी नहीं कर सकी। डेंजिंग, पोलिश गलियारा, अपर साइलेशिया और
आस्ट्रिया के जर्मन प्रदेश जर्मनी से अलग थे। उसके छीने हुए उपनिवेशन भी उसे वापिस
नहीं किये गये थे। उसे अन्य राष्ट्रों की भाँति अपनी इच्छानुसार थल, जल और वायु सेना रखने का
अधिकार भी नहीं था। वाइमर गणतन्त्रीय सरकार इन समस्याओं का समाधान करने में असफल
रही जिससे जर्मन लोगों में तीव्र असन्तोष फैला हुआ था।
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इसके अतिरिक्त
जर्मनी में अनेक राजनीतिक दल थे जो अपना अधिकांश समय पारस्परिक झगड़ों में नष्ट
करते थे। इन अनेक दलों के कारण गणराज्य में सुदृढ़ एवं सुव्यवस्थित शासन की
स्थापना नहीं हो सकी। अत: अधिकांश जर्मन लोगों का प्रजातन्त्रीय प्रणाली से
विश्वास उठ गया। अत: जर्मन लोग ऐसे शक्तिशाली नेतृत्व की आकांक्षा करने लगे जो देश
में शान्ति और व्यवस्था स्थापित कर सके, आन्तरिक एवं बाह्य समस्याओं का समाधान कर सके और जर्मनी के
खोए हुए गौरव को पुनः स्थापित कर सके। हिटलर ही ऐसा व्यक्ति था, जो जर्मन लोगों की
आकांक्षाओं को पूरा कर सकता था। अत: जब हिटलर ने जर्मन लोगों की मांगों को पूरा
करने का आश्वासन दिया, तो लाखों लोग
नाजीदल की ओर आकृष्ट हुए और हिटलर को समर्थन देने को तैयार हो गये।
3. साम्यवाद का भय-
1917 की रूसी क्रान्ति का यूरोप के कई देशों पर प्रभाव पड़ा। जर्मनी में भी साम्यवाद का प्रभाव तीव्र गति से बढ़ रहा था। 1932 के चुनाव में साम्यवादियों ने जर्मन लोकसभा में 100 स्थान प्राप्त कर लिए थे। जर्मनी के पूँजीपति तथा उद्योगपति साम्यवाद के बढ़ते हुए प्रभाव से चिन्तित थे। ये लोग साम्यवाद से घृणा करते थे और उसका उन्मूलन करना चाहते थे। अत: उन्होंने भी नाजीदल का समर्थन करने का निश्चय कर लिया।
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हिटलर ने साम्यवाद को जर्मनी
के लिए घातक बताया तथा स्पष्ट रूप से यह घोषित किया कि उसके दल का उद्देश्य
साम्यवाद से देश की रक्षा करना । उसने सामान्य जनता में भी साम्यवाद का हौवा खड़ा
कर दिया और कहा कि समाज का अन्तर्राष्ट्रीयता का सिद्धान्त जर्मन राष्ट्रीयता के
लिए सबसे अधिक खतरनाक है और यदि नाजीदल सत्तारूढ़ नहीं हुआ, तो साम्यवादी शक्तिशाली
बनकर राज्य पर अपना अधिकार कर लेंगे और जर्मन लोगों के राष्ट्रीय मनसूबे चकनाचूर
हो जायेंगे। हिटलर की इन बातों का जर्मन लोगों पर काफी प्रभाव पड़ा और उन्होंने
नाजीदल का समर्थन करना शुरू कर दिया। जर्मनी के प्रमुख उद्योगपति फ्रित्स थइसन तथा
एमिल किडार्फ ने नाजीदल को पर्याप्त धन दिया जिससे हिटलर नाजीदल की गतिविधियों का
विस्तार कर सका और उसे अधिक प्रभावशाली बना सका।
4. संसदात्मक
शासन-प्रणाली में अरुचि-
जर्मन जनता में प्रजातान्त्रिक
संसदात्मक शासन-प्रणाली में कोई रुचि नहीं थी। वाइमर सरकार के संविधान के अन्तर्गत
शासन-प्रणाली जिस ढंग से कार्य कर रही थी, उससे अधिकांश जर्मन लोग असन्तुष्ट थे। जर्मन जनता यह देखकर
बड़ी क्षुब्ध थी कि तत्कालीन राजनीतिज्ञ केवल थोथी बातें करते थे तथा झूठे आश्वासन
दिया करते थे। अत: जर्मन एक ऐसे शक्तिशाली व्यक्ति को जर्मनी के भाग्य-विधाता के
रूप में देखना चाहते थे जो देश की आन्तरिक एवं बाह्य समस्याओं का समाधान कर सके और
जर्मनी के खोए हुए गौरव को पुनः स्थापित कर सके।
वाइमन संविधान के अन्तर्गत पूर्ण बहुमत
के बिना कोई भी दल मन्त्रिमण्डल नहीं बना सकता था। अत: विभिन्न दलों को मिला-जुला
मन्त्रिमण्डल बनाना पड़ता था। इस प्रकार के मिले- जुले मन्त्रिमण्डल थोड़े समय तक
ही सत्तारूढ़ रह पाते थे। 1930 के पश्चात् तो किसी भी मन्त्रिमण्डल को लोकसभा का
विश्वास प्राप्त नहीं हो सका था और राष्ट्रपति के अध्यादेशों के द्वारा ही शासन
चलाया जाता था। अतः नाजीदल ने संसदीय शासनतन्त्र की असफलता का पूरा लाभ उठाया और
यह जोर-शोर से प्रचार करना शुरू कर दिया कि देश में संसदीय प्रणाली पूर्ण रूप से
असफल हो चुकी है। इस स्थिति में जर्मन लोगों को यह विश्वास हो गया कि कोई
शक्तिशाली व्यक्ति ही देश में सुदृढ़ और सुव्यवस्थित शासन की स्थापना कर सकता है।
ऐसा व्यक्ति हिटलर ही था।
5. 1930 की आर्थिक
मन्दी-
1930 के आर्थिक
संकट का जर्मनी पर
घातक प्रभाव पड़ा। इसके फलस्वरूप देश की आर्थिक अवस्था शोचनीय हो गई। इस आर्थिक
संकट ने जर्मनी के मध्यम वर्ग तथा निम्न वर्ग के लोगों को बर्बाद कर दिया। कृषकों
की दशा भी शोचनीय थी। लैंगसम के अनुसार 1931 में कृषकों पर लगभग तीन अरब
डॉलर ऋण था। नाजीदल ने कृषकों को ऋण से मुक्ति दिलाने का आश्वासन दिया जिससे
कृषक-वर्ग भी नाजीदल की ओर आकर्षित हुआ। शूमाँ के अनुसार, “आर्थिक संकट ने 60 लाख
व्यक्तियों को बेरोजगार बना दिया तथा उनके दिवालियापन और निर्धनता को
बढ़ाया।" हिटलर ने बेरोजगार लोगों को रोजगार देने का आश्वासन दिया जिससे
बेरोजगार लोग भी नाजीवाद के समर्थक बन गये।
हिटलर ने जर्मन लोगों की
दुर्दशा के लिए तत्कालीन गणतन्त्रीय सरकार को दोषी ठहराया। नाजीदल ने जर्मन लोगों
पर यह छाप छोड़ी कि नाजीदल ही उनकी आर्थिक कठिनाइयों का निवारण कर सकता है। इस
प्रकार इस आर्थिक संकट ने नाजीदल की लोकप्रियता को बढ़ा दिया। 1932 के चुनाव में
लोकसभा में नाजीदल को 608 स्थानों में 230 स्थान प्राप्त हुए। गैथोर्न हार्डी का
कथन है कि,
"हिटलर के उत्कर्ष
का प्रमुख कारण वर्साय की अपमानजनक सन्धि नहीं, अपितु आर्थिक संकट से उत्पन्न निराशा तथा उसके राजनीतिक
नेतृत्व के गुण थे।"
6. जर्मन जनता की
सैनिक मनोवृत्ति-
हिटलर और नाजीदल के
उत्कर्ष का एक अन्य कारण स्वयं जर्मन जाति की परम्परा थी। जर्मन जाति शुरू से ही सैनिक
मनोवृत्ति तथा वीर पूजा की भावना से प्रेरित रही है। फ्रेडरिक महान्, बिस्मार्क तथा विलियम
द्वितीय कैसर की सैनिकवादी नीतियों के कारण ही जर्मन लोग उनकी राष्ट्रनायक के रूप
में प्रतिष्ठा करते रहे हैं। अत: जब हिटलर के रूप में जर्मन लोगों को एक वीर नायक
मिल गया, तो जर्मन लोगों का हिटलर
के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था।
7. नवयुवकों,
सैनिकों एवं
नौकरशाही का समर्थन-
नाजीदल के
उत्कर्ष का एक कारण यह भी था कि उसे जर्मन नवयुवकों, सैनिकों तथा नौकरशाही का पर्याप्त समर्थन प्राप्त हुआ।
विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्रों को रोजगार नहीं मिल पा रहा था और वे अपनी
दशा सुधारने की आशा छोड़ बैठे थे। अत: उनमें तीव्र आक्रोश था। लैंगसम का
कथन है कि "वर्तमान व्यवस्था के विध्वंस में ही उन्हें अपना उद्धार दिखाई
देता था, अत: ये नाजीदल के समर्थक
बन गये।" इसके अतिरिक्त नाजीदल को सैनिकों एवं नौकरशाही का समर्थन प्राप्त
हुआ। हिटलर के उग्र राष्ट्रवादी कार्यक्रम तथा उसकी पुन: शस्त्रीकरण की माँग से
सैनिक वर्ग नाजीदल की ओर आकृष्ट हुआ। नौकरशाही ने भी नाजीदल को समर्थन दिया, क्योंकि उनकी गणतन्त्रीय
शासन-प्रणाली के प्रति आस्था नहीं थी।
8. हिटलर की
यहूदी-विरोधी नीति-
जर्मनी में
यहूदियों का काफी प्रभाव था। बड़े-बड़े उद्योगपति तथा पूँजीपति यहूदी लोग ही थे।
ये लोग अनेक उच्च पदों पर भी नियुक्त थे। ये लोग जर्मन लोगों का शोषण करते थे। अत:
जर्मन लोगों में यहूदियों के प्रति तीव्र आक्रोश था। जर्मनी का मध्यम वर्ग तथा
बेकार लोग कट्टर यहूदी-विरोधी थे, क्योंकि उनकी
धारणा बन गई थी कि प्रथम महायुद्ध में जर्मनी की पराजय के लिए यहूदी लोग ही
उत्तरदायी थे। हिटलर एक चतुर राजनीतिज्ञ था। उसने जर्मन लोगों की यहूदी-विरोधी
भावना का लाभ उठाया और यहूदियों के उन्मूलन पर बल दिया।
9. हिटलर का
व्यक्तित्व-
नाजीदल के
उत्कर्ष का एक प्रमुख कारण हिटलर का कुशल नेतृत्व था। उसमें जन-नायक होने के सभी
गुण थे। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ था तथा उसमें जनता की मनोभावनाओं तथा मनोविज्ञान को
समझने की अद्भुत क्षमता थी। हिटलर एक कुशल वक्ता था। उसने अपने प्रभावशाली भाषणों
के जादू से जर्मन लोगों का दिल जीत लिया और उन्हें अपना समर्थक बना लिया।
10. आकर्षक नाजी
कार्यक्रम-
नाजीदल का कार्यक्रम जर्मन जनता की इच्छाओं, परम्पराओं तथा विचारधाराओं के अनुकूल था। जर्मन लोग जिन बातों को चिरकाल से सोचते, मानते और चाहते थे, उन्हें हिटलर ने खुल्लम-खुल्ला कहना शुरू किया और उन्हें पूरा करने का वचन दिया। जर्मन लोग वर्साय की सन्धि को अपमानजनक मानते थे। अत: हिटलर ने नाजीदल के कार्यक्रम के अन्तर्गत वर्साय की सन्धि को निरस्त कराने का वचन दिया। जर्मन-जनता की प्रजातन्त्रीय शासन-व्यवस्था में आस्था नहीं थी। अत: हिटलर ने प्रजातन्त्रीय शासन-प्रणाली की कटु आलोचना की और उसे मूल्, पागलों तथा कायरों की व्यवस्था बतलाया। हिटलर के उग्र राष्ट्रवाद के सिद्धान्त से भी नवयुवक, सैनिक तथा राष्ट्रवादी बड़े प्रभावित हुए।
इस प्रकार नाजी-कार्यक्रम में वर्साय की सन्धि को निरस्त कराना, जर्मनी के खोए हुए प्रदेशों को पुनः प्राप्त करना, साम्यवादियों का दमन, बेरोजगारों को रोजगार देना, मजदूरों को पूँजीपतियों के शोषण से बचाना, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जर्मनी के गौरव में वृद्धि करना आदि पर बल दिया गया था। हिटलर के इस कार्यक्रम ने जर्मनी के सभी वर्गों के लोगों को सन्तुष्ट कर दिया। डॉ. एम.एल. शर्मा का कथन है कि, "हिटलर का उग्र राष्ट्रीयता के विचारों से ओत-प्रोत कार्यक्रम सहज ही जर्मन जनता में लोकप्रिय हो गया। जर्मनी ने हिटलर को अपने देश के उद्धारक नेता के रूप में ग्रहण किया और उसे बिस्मार्क एवं कैसर के समान समझते हुए उसका अन्धानुकरण करने में अपना कल्याण समझा।"
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