राजस्थान
की स्थापत्य कला: एक ऐतिहासिक विरासत
राजस्थान के स्थापत्य का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना मानव का इतिहास। राजस्थान की स्थापत्य कला का विशेष महत्त्व है। राजस्थान को इस कला को न केवल राजकीय संरक्षण प्राप्त था, बल्कि इसे जनप्रिय बनने का भी अवसर मिला। राजस्थान में स्थापत्य के अद्भुत नमूने गाँवों, नगरों, मंदिरों, दुर्गों, समाधियों और जलाशयों के रूप में देखे जा सकते हैं।
(1) नगर निर्माण-
7वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक राजस्थान का स्थापत्य एक नए राजनीतिक ढाँचे के अनुकूल ढला
हुआ प्रतीत होता है। इस युग की वास्तुकला में शक्ति विकास तथा जातीय संगठन
की भावना दिखाई देती है। इस युग में नागदा, चाटसू, चोरवा आदि कस्बों को घाटियों और जंगलों से आच्छादित स्थानों में बसाया गया
तथा इनमें वे सभी साधन जुटाए गए जो युद्धकालीन स्थिति में उपयोगी सिद्ध हो सकते
थे। नगरों को परकोटों तथा खाइयों से सुरक्षित रखने तथा राजमहलों, सुन्दर भवनों, मन्दिरों आदि से सुशोभित करने पर बल
दिया गया। सड़कों को नालियों, चौपड़ों तथा गलियों से सम्बद्ध
किया जाता था।
राजस्थान की स्थापत्य कला: दुर्ग, मंदिर, जलाशय और राजप्रासादों का ऐतिहासिक विकास
आमेर नगर एक विशेष परिस्थिति के अनुकूल बनाया
गया था। दोनों ओर की पहाड़ियों की ढाल में हवेलियाँ तथा ऊँचे-ऊँचे भवन बनाए गये
तथा नीचे के समतल भाग में पानी के कुण्ड, मन्दिर, सड़कें
बाजार आदि बनाए गये। ऊँची पहाड़ी पर राजभवन बनाए गए। जब आमेर के कछवाहा
नरेशों के मुगलों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो गए तो जयपुर का नगर खुले
मैदानी भाग में बसाया गया और उसकी सुरक्षा सुदृढ़ परकोटे से की गई।
नाहरगढ़ को सैनिक शक्ति से सुसज्जित कर मैदानी भाग को
चौकसी का प्रबन्ध किया गया। जगह-जगह जलाशय, फव्वारे, चौड़ी
सड़कें, चौपड़ें आदि बनाई गई और इनके निर्माण में मुगल तथा
राजपूत स्थापत्य शैली का समावेश किया गया।
(2) दुर्ग निर्माण-
राजस्थान में दुर्गों का अत्यधिक महत्त्व रहा है। राजस्थान
में दुर्गों की बहुलता है चाहे राजा हो या सामन्त वह दुर्गों को अनिवार्य मानता
था। राजस्थान में सामन्तों और राजाओं ने अनेक दुर्गों का निर्माण करवाया।
मुगल कालीन, गुप्तकालीन तथा परिवर्तित युग
के दुर्गों के सुदृढ़ प्राचीरों, इमारतों, सुदृढ़ द्वारों और गोल बुर्जों के दर्शन होते हैं। इसके अतिरिक्त उस समय
मन्दिरों तथा जलाशयों को प्रधानता दी जाती थी।
13वीं सदी के बाद दुर्ग निर्माण कला की
परम्परा में एक नया मोड़ आता है। अब ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ दुर्ग निर्माण में प्रयोग
में लाई जाने लगीं। चित्तौड़, आबू, कुम्भलगढ़,
माण्डलगढ़ आदि स्थानों पर प्राचीन दुर्ग बने हुए थे उन्हें मुगल
युगीन युद्ध-शैली के अनुरूप बनाया गया। महाराणा कुम्भा ने चित्तौड़,
दुर्ग को प्राचीर द्वारों की श्रृंखला तथा बुर्जों से अधिक सुदृढ़
बनाया। कुम्भलगढ़ के किलों को पहाड़ियों से घिरे हुए स्थान से सुरक्षित
बनाया गया। जोधपुर के दुर्ग पर प्राकृतिक जलाशय न होने के कारण टंकियाँ बनाई गई,
जिसमें वर्षों का पानी इकट्ठा कर लिया जाता था और रसद आदि के संग्रह
के लिये कोठे भी बनाए गए। इस प्रकार नागौर के दुर्ग को सुदृढ़ता पर ध्यान दिया
गया। बीकानेर, जालौर और रणथम्भौर के दुर्ग अपनी सुदृढ़ता
के लिए विख्यात रहे हैं।
(3) राजप्रासादों का निर्माण-
राजस्थान के स्थापत्य में राजमहल का एक विशिष्ट रूप दिखाई
देता है । मेनाल, नागदा, आमेर आदि में
बने राजप्रासाद पूर्व मुगलकालीन राजस्थान की स्थापत्य कला के प्रतीक हैं। 16वीं शताब्दी के उदयपुर, जोधपुर, कोटा, बीकानेर, बूदा, आमेर के राजमहलों में बड़ी सभ्यता दिखाई देती है। मुगलों के पूर्व
राजप्रासादों को अधिक सादा बनाया जाता था। परन्तु मुगलों के सम्पर्क में आने के
बाद राजपूत नरेशों ने राजप्रासादों को अधिक भव्य तथा रोचक बनाना शुरू कर दिया।
इसमें फव्वारे, छोटे बाग, पतले खम्भे
तथा उन पर बेल बूटी का काम तथा उन पर संगमरमर का प्रयोग होने लगा।
उदयपुर के अमर सिंह के कर्ण महल, जगमन्दिर,
जोधपुर दुर्ग में स्थित फूल महल, आमेर व जयपुर
के दीवाने खास व दीवाने आम, बीकानेर के रंग महल, कर्णमहल, शीशमहल व अनूप महल आदि में राजपूत स्थापत्य
को प्रधानता होते हुए भी सजावट में मुगल शैली अपनाई गई है। 17वीं शताब्दी में जयपुर, कोटा, बूंदी
और जैसलमेर के महलों में मुगल शैली की प्रधानता दिखाई गई है। सामन्तों की हवेली
में भी अलंकार उपलव्य होता है।
(4) मन्दिरों का निर्माण-
राजस्थान के शिल्पियों ने मन्दिरों के निर्माण में भी
अपनी निपुणता का परिचय दिया और स्थापत्य के विकास में योगदान दिया। प्राचीन
युग में मन्दिरों में चित्तौड़ का सूर्य मन्दिर तथा बड़ौली के शिव
मन्दिर बड़े महत्त्व के हैं। 7वीं शताब्दी से लेकर 13वीं शताब्दी तक की स्थापत्य कला में शक्ति, विकास और
जातीय संगठन की भावना दिखाई देती है।
इस युग के मन्दिरों में शौर्य की भावना के दर्शन होते हैं ।
चित्तौड़ के सूर्य मन्दिर, आम्बानेरी के हर्षमाता के मन्दिर, किराड़
के मन्दिर आदि में इसी भावना के दर्शन होते हैं। यदि कृष्ण का अंकन गौओं के
साथ किया गया है तो वहाँ कृष्ण द्वारा पूतना वध भी दिखाया गया है। परन्तु
शौर्य और शक्ति के साथ-साथ नारियों के अंकन में नृत्य, शृंगार-क्रीड़ा,
प्रेम आदि की अभिव्यक्ति भी सुन्दर ढंग से की गई है।
जैन धर्म से सम्बन्धित मन्दिरों में आबू में देलवाड़ा
का मन्दिर स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है। इसी प्रकार औसियाँ, बाड़ौली,
नागदा आदि के मन्दिर उल्लेखनीय हैं। 14वीं
शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी के मध्य निर्मित मन्दिरों में
युद्धोपयोगी साधनों को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। इस युग में बनने वाले
मन्दिरों को भी किले के रूप में बनाया जाता था।
कुम्भलगढ़ के नीलकण्ठ के मन्दिर, एकलिंगजी
के मन्दिर, रणकपुर के मन्दिर के चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवारें,
सुदृढ़ द्वार, बुर्ज आदि बनाकर दुर्ग
स्थापत्य-कला का सहारा लिया गया है। मन्दिरों में नृत्य, गान
व राग-रंग के अंकन भी प्रचीर मात्रा में मिलते हैं। कुम्भाकालीन मन्दिरों के
स्थापत्य में कृष्ण-लीला सम्बन्धी लक्षण बहुत मिलते हैं।
चित्तौड़ के कीर्ति-स्तम्भ में अनेक
देवी-देवताओं तथा जन-जीवन से सम्बन्धित मूर्तियाँ अंकित हैं। पौराणिक देवताओं के
सम्बन्ध में समुचित जानकारी के लिए कीर्तिस्तम्भ एक अच्छा साधन है।
मुगलों से सम्पर्क स्थापित होने के बाद राजस्थान के
मन्दिरों के स्थापत्य में एक नया मोड़ आया। बीकानेर के दुर्ग में देवी के मन्दिर
के खम्भे मुगल-राजपूत शैली के हैं। यह मन्दिर बीकानेर महाराजा रायसिंह
के समय में बना था। जिन राज्यों पर मुगल-प्रभाव अधिक दिखाई देता है।
नाथद्वारा के श्रीनाथजी का मन्दिर, उदयपुर
के जगदीश मन्दिर में हिन्दू स्थापत्य की प्रधानता दिखाई देती है। परन्तु जोधपुर के
घनश्यामजी के मन्दिर तथा जयपुर के जगत शिरोमणि के मन्दिर में अलंकरण तथा बाहरी
ढांचे में मुगल शैली का प्रभाव दिखाई देता है।
17वीं तथा 18वीं
शताब्दी में वैष्णव धर्म से सम्बन्धित मन्दिर बड़ी संख्या में बने। इनके मन्दिर
नाथद्वारा, कांकरोली, डूंगरपुर,
कोटा, जयपुर आदि स्थानों पर बनाए गए।
(5) स्मारक निर्माण-
राजस्थान में स्मारकों का निर्माण भी बड़ी संख्या में होता
रहा है। ऐसे स्मारक स्तम्भ 13वीं शताब्दी से 17वीं
शताब्दी तक बहुत मिले हैं। मुगलों से सम्पर्क होने के पश्चात् छतरियाँ बनाने का
प्रचलन हो गया, जिसमें मुगल शैली को प्रधानता दी जाने लगी। मध्यकालीन
छतरियों में बीकानेर के बीकाजी की छतरी और रायसिंह की छतरी,
जोधपुर में मालदेव की छतरी तथा अजीतसिंह की छतरी,
उदयपुर में अमरसिंह तथा कर्णसिंह की छतरियाँ विशेष
उल्लेखनीय हैं।
(6) जलाशय का निर्माण-
प्राचीन ग्रन्थों में प्रत्येक गांव या नगर में जलाशय होना आवश्यक
बताया गया है। आमेर की बस्ती के पास जलाशयों का उल्लेख मिलता है। बून्दी के
लिए फूल सागर, जेटसागर तथा जोधपुर के लिए रानीसर अभयसागर, गुलाबसागर आदि बड़े उपयोगी रहे हैं।
राजस्थान के दक्षिण-पश्चिमी भाग में अनेक विशाल जलाशयों का
निर्माण करवाया गया। जहाँ दो पहाड़ियों को रोक कर बाँध बना दिया जाता था और बाँध
को तालाब तक जोड़ दिया जाता था। ऐसे बाँधों में पिछोला, राजसमंद आदि उल्लेखनीय हैं। 17वीं शताब्दी में उदयपुर के महाराणा
राजसिंह के काल में निर्मित राजसमंद का बाँध जलाशय निर्माण कला का उत्कृष्ट
उदाहरण है।
आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी।
यदि जानकारी आपको पसन्द आई हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
0 Comments