राजस्थान की दुर्ग स्थापत्य
कला: किले एवं स्मारक
राजस्थान अपने भव्य और प्राचीन किलों के लिए जाना जाता है, जो इतिहास, वीरता और स्थापत्य कला का अद्भुत संगम हैं। इस पोस्ट में हम आपको राजस्थान के चार प्रमुख किलों- चित्तौड़गढ़, आमेर, रणथंभौर और कुम्भलगढ़ के बारे में विस्तार से बताएंगे। ये किले न केवल राजस्थान के गौरवशाली इतिहास की पहचान हैं, बल्कि देश-विदेश के सैलानियों के लिए प्रमुख पर्यटन स्थल भी हैं। अगर आप राजस्थान के ऐतिहासिक किलों की खोज में हैं और इन किलों की खूबसूरती और इतिहास के बारे जानना चाहते हैं, तो यह पोस्ट आपके लिए है।
चित्तौड़गढ़ दुर्ग:
राजस्थान का सबसे विशाल और ऐतिहासिक किला
1. घुमावदार
प्राचीरें, उन्नत विशाल बुर्जे-
चित्तौड़गढ़ रेलवे स्टेशन के निकट एक
500 फुट की ऊँची
पहाड़ी पर चित्तौड़ या दुर्ग स्थित है। यह गढ़ समुद्र के धरातल से 1850 फुट ऊंचा, लगभग तीन मील लम्बा और
आधा मील चौड़ा है। गोली चलाने के लिए बने छिद्रों वाली सुदृढ़ सुरक्षा दीवार
इसका परकोटा बनाती है। दीवार की ऊँचाई 400-500 फुट तक है। दीवार को सुरक्षा के लिए
मुख्य मार्ग तथा सात द्वार बने हुए हैं। महाराणा कुम्भा ने ऊबड़-खाबड़
मार्ग को साफ करवा कर किले तक पहुँचने का रास्ता बनवाया था। इस दुर्ग पसी मन्दिर, महल आदि के अवशेष मिले हैं।
यहाँ पानी के कुण्ड, तालाब, बावड़ियाँ और झरने हमेशा पानी से भरे रहते हैं। इतिहासकार कनिंघम
के अनुसार, "दुष्काल के समय में भी किले पर पानी की कमी नहीं रहती थी।"
![]() |
राजस्थान की दुर्ग स्थापत्य कला |
2. सुदृढ़
दीवारें तथा सात द्वार-
चित्तौड़गढ़ का दुर्ग चारों ओर से
सुदृढ़ दीवारों से घिरा हुआ है और उसकी सुरक्षा के लिए मुख्य मार्ग तथा सात द्वार
बने हुए थे। प्रथम द्वार पांडनपोल कहलाता है। थोड़ी दूर
चलने पर भैरवपोल आता है जहाँ जयमल और फत्ता की छतरियाँ बनी
हुई हैं। इन छतरियों से आगे बढ़ने पर गणेशपोल, लक्ष्मणपोल और जोड़नपोल आते
हैं। कुछ आगे चलने पर रामपोल आता है। रामपोल के अन्दर प्रवेश करते
ही वीर शिरोमणि पत्ता का स्मारक दिखाई देता है जिसने अकबर
से लोहा लेते हुए वीर गति प्राप्त की थी।
इस स्मारक के दायीं
ओर जाने वाली सड़क पर तुलजा माता का मन्दिर आता है। इसके अतिरिक्त
राणा प्रताप के स्वामिभक्त मन्त्री भामाशाह को हवेली तथा अन्य महलों
के भी दर्शन होते हैं। नवलख भण्डार के निकट श्रृंगार चंवरी का मन्दिर बना
हुआ है। यहाँ के आगे बढ़ने पर त्रिपोलिया नामक द्वार मिलता है जहाँ से
पुराना राजमहल का चौक, महाराणा कुम्भा के महल, राजकुमार के प्रासाद आदि
दर्शनीय हैं। कुम्भा के राजमहलों में गवाक्ष, खम्भे, दालान की छत को रोकने की
विधि, राजमहलो को जोड़ने वाले संकरे मार्ग, छोटे दालान आदि में उस
समय के स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएँ दिखाई देती हैं।
3. मन्दिर स्थापत्य
तथा मूर्तिकला सम्बन्धी विशेषताएँ-
राजभवन के आगे कुम्भाश्याम का मन्दिर आता है
जिसका जीर्णोद्धार महाराणा कुम्भा ने करवाया था। गोमुख कुण्ड के निकट त्रिभुवन नारायण का मन्दिर आता है जिसका
जीर्णोद्धार महाराणा मोकल ने करवाया था। 13वों शताब्दी के जन-जीव की
झांकी और मूर्तिकला के अध्ययन के लिये यह मन्दिर उल्लेखनीय है।
4. कीर्ति
स्तम्भ-
कीर्ति स्तम्भ चित्तौड़ दुर्ग का
स्थापत्य और उत्कीर्ण कला का श्रेष्ठ उदाहरण है। इस स्तम्भ के
निर्माण के विषय में विभिन्न मत प्रकट किये गये हैं। परम्परा के अनुसार यह
मान्यता प्रचलित है कि महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को परास्त करने की
खुशी के उपलक्ष में बनवाया था।
डॉ. उपेन्द्रनाथ
डे के अनुसार
कीर्ति स्तम्भ का निर्माण महमूद की पराजय के सन्दर्भ में नहीं करवाया गया था।
विदेशी विद्वान हर्मनगूज के अनुसार इसे समिधेश्वर की
अर्चना के निमित्त बनवाया गया था, परन्तु कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति तथा अन्य साधनों से स्पष्ट है
कि महाराणा कुम्भा ने अपने इष्टदेव विष्णु के निमित्त इसे बनवाया था।
डॉ. गोपीनाथ
शर्मा का कथन है कि
"मोहम्मद के परास्त होने की घटना की मान्यता जो इस स्तम्भ के निर्माण के साथ
चली आती है यकायक ठुकरायी नहीं जा सकती, क्योंकि सुल्तान को महाराणा के
द्वारा हराना ऐतिहासिक सत्य है।"
कीर्ति स्तम्भ 12 फुट ऊँचे और 42 फुट चौड़े चबूतरे पर स्थित है। इसकी चौड़ाई 30 फुट
और लम्बाई 122 फुट है। इस पर 9 मंजिलें
खड़ी की गई हैं। इतने विशाल कीर्ति स्तम्भ के निर्माण में कई वर्ष लग गये क्योंकि
सं. 1499 से लेकर सं. 1517 ई. तक इसमें
अनेक छोटे-छोटे शिलालेख लगे हुए हैं। वास्तव में यही एकमात्र स्तम्भ है जो भीतर और
बाहर मूर्तियों से लदा पड़ा है। इसे हिन्दू देवी- देवताओं से सुसज्जित
संग्रहालय भी कहा जाता है।
इसके नीचे के द्वार
से प्रवेश करते ही जनार्दन की मूर्ति मिलती है और पार्श्व की ताकों में
रुद्र, ब्रह्म
की मूर्तियाँ हैं। आगे चलने पर अर्द्धनारीश्वर, हरिहर पितामह,
अग्नि, वरुण, भैरव आदि
की मूर्तियाँ दिखाई देती हैं। देवियों की मूर्तियों में रेवती, पार्वती, सरस्वती, उमा,
महालक्ष्मी, काली आदि उल्लेखनीय हैं।
डॉ. ओझा का कथन है कि “यदि हम कीर्ति-स्तम्भ को हिन्दू
देवी-देवताओं से सजाया हुआ एक व्यवस्थित संग्रहालय या पौराणिक देवताओं का अमूल्य
कोष कह दें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।"
डॉ. कालूराम शर्मा लिखते हैं, "कीर्ति स्तम्भ के
शिल्पकारों ने प्रत्येक मूर्ति के नीचे उसका नाम भी उत्कीर्ण कर दिया है जिसकी वजह
से उसे पहचानने में किसी प्रकार की कठिनाई उपस्थित नहीं होती।" इन मूर्तियों से तत्कालीन जीवन के प्रत्येक पहलू पर प्रकाश पड़ता है।
मूर्तियों के माध्यम से भक्ति, शौर्य, प्रणय
और श्रम की भावनाओं का सजीव अंकन किया गया है। सम्पूर्ण स्तम्भों में मूर्तिकला और
स्थापत्य कला का सुन्दर सामंजस्य देखने को मिलता है।
डॉ. रामप्रसाद व्यास ने लिखा है कि
"कीर्ति स्तम्भ केवल कुम्मा का विजय-स्मारक ही नहीं, वरन् हिन्दू प्रतिमाशास्त्र की
एक अनुपम निधि है। मूर्तियों के माध्यम से भक्ति, शौर्य,
श्रम और प्रणय की भावनाओं का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।"
कीर्ति स्तम्भ में जीवन से सम्बन्ध रखने
वाले अनेक पहलुओं को दर्शाया गया है। एक ओर जहाँ राम-लक्ष्मण-सीता की मूर्तियाँ एक
साथ हैं वहाँ किरात भील और शबरी की मूर्तियाँ भी उसी प्रभाव के साथ मिलती हैं। डॉ.
जी. एन. शर्मा का कथन है कि जीवन के व्यावहारिक पक्ष को व्यक्त करने वाला यह
स्तम्भ एक लोक जीवन का रंगमंच है। प्रसिद्ध कला मर्मज्ञ फग्यूसन ने रोम के टार्जन
स्तम्भ की अपेक्षा इसको कलात्मक स्थापत्य और रुचि की अभिव्यक्ति में अधिक श्रेष्ठ
पाया है।
कर्नल टॉड ने लिखा है कि इस स्तम्भ
की केवल दिल्ली की कुतुबमीनार के साथ तुलना की जा सकती है, परन्तु कीर्ति स्तम्भ की तुलना
में वह घटिया प्रकार की कृति है। श्री हरविलास शारदा ने लिखा है कि
"स्थापत्य पक्ष के अत्यधिक अलंकरण ने इसमें कभी स्तम्भ की रूपरेखा को या
प्रभाव को गौण नहीं किया है।" विश्वविख्यात इतिहासकार टायनबी ने
चित्तौड़ यात्रा के अन्तर्गत इस स्तम्भ को देखकर डॉ. गोपीनाथ शर्मा से इसकी
मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की।
आमेर किला जयपुर: राजपूत वास्तुकला और मुगल प्रभाव का संगम
आम्बेर नरेश
मानसिंह बहुमुखी
प्रतिभाशाली शासक था। वह केवल वीर योद्धा और कुशल सेनानायक ही नहीं
अपितु साहित्य और कला का संरक्षक भी था। उसने अपनी कला- प्रियता का परिचय देते
हुए आम्बेर में अनेक भवनों, महलों एवं मन्दिरों का निर्माण करवाया। मानसिंह के शासनकाल में ही
आम्बेर के राजमहलों का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। आम्बेर को स्थापत्य कला पर
राजपूत मुगल शैली का प्रभाव-स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। मुगल सम्पर्क के कारण आम्बेर
का महत्त्व बढ़ता चला गया। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-
1. हिन्दू
भवन शैली पर आधारित-
आम्बेर दुर्ग का
ढाँचा हिन्दू राजभवन की शैली पर है। मुख्य द्वार से आने
वाला आँगन जलेबी चौक, घोड़े-हाथी, सैनिक आदि के निरीक्षण का
स्थान है। इसके पश्चात् सीढ़ियाँ सिंहपोल नामक मुख्य द्वार पर पहुंचते हैं।
इसमें प्रवेश के पश्चात् एक और चौक आता है जहाँ
विशिष्ट लोग ही एकत्रित हुआ करते थे। पीछे से इस चौक के एक कोने पर लाल खम्भों का
एक खुला भवन बनाया गया जो दीवाने-आम के नाम से विख्यात हुआ। भवन का वाह्य भाग मुगल
शैली का है, परन्तु पत्थर को दोहरे खम्भे, हाथियों को आकृतियाँ तथा खजों का प्रयोग
स्थानीय है। इस भवन के साथ लगा हुआ कमरा 'मजलिस विलास' कहा जाता है जहाँ स्थानीय
नरेश मुख्य परामर्शदाताओं व अधिकारियों से वार्ता करते थे
2. राजपूत और
मुगल शैली से युक्त-
गणेशपोल का प्रवेश और आसपास के भवन राजपूत
शैली के हैं। इसमें शीशमहल बना हुआ है जो आगरा किले के राजमहल की भांति
निर्मित है। डॉ. जी. एन. शर्मा का कथन है कि शीशमहल में चूने का बेलबूटों का काम
उभरे ढंग से किया गया है, इसी के साथ शीशों का मेल भी बिठाया गया है।
भवन की बाहरी और
भीतरी दीवारों पर उभरे हुए फूलों के गुलदस्ते बने हुए हैं और फूलों पर तितलियाँ बनाई गई
हैं। इस प्रकार की सजावट मुगल शैली को प्रदर्शित करती है। इसी प्रकार यहाँ दीवाने खास' भी बना हुआ है जिसकी छतों
व दीवारों पर काँच का काम है। इसमें बेल-बूटों का काम बड़ा चित्ताकर्षक है। शीशमहल
के सामने की ओर 'सुख निवास' या 'सुख मंदिर' बना हुआ है जो राजपूत शैली का है। शीशमहल के ऊपर बने हुए इस
मंदिर में भी शीशे के टुकड़े जुड़े हुए हैं जो बड़े
कलात्मक प्रतीत होते हैं।
गणेशपोल के ऊपर वाले भाग में सुहाग-मन्दिर एक दालान तथा
आसपास दो छोटे कमरे हैं। यहाँ से कुछ आगे जयगढ़ से लगे हुए भवन बने हुए हैं। किवाड़ों पर राजपूत शैलों के चित्र देखे जा
सकते हैं। सिंह द्वारा से उतरने पर हमें शिलादेवी के मन्दिर के दर्शन होते हैं
जिसे राजा मानसिंह बंगाल से लाये थे। आमेर-दुर्ग में महलों के उत्तर- पश्चिम में
जगत् शिरोमणि का मन्दिर स्थापत्य कला की दृष्टि से एक श्रेष्ठ कलाकृति है।
3. स्थानीय शिल्प पर
आधारित मुगल अलंकरणों से सुशोभित भवन-
आम्बेर के महल
भी स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं जो स्थानीय शिल्प के आधार पर बनाकर मुगल अलंकरण
से सुशोभित हैं। ऊपरी पहाड़ी पर दक्षिण से पूर्व तक फैले हुए राजमहल हैं जिनको चारों
ओर बड़ी सुदृढ़ दीवारों से सुरक्षित कर दिया गया है। मानसिंह ने पहाड़ी की चोंच
पर एक महल का निर्माण करवाया था जिसका प्रतिबिम्ब धरातल पर स्थित झील में दिखाई
देता है।
पूर्वी भाग में
सरोवर आकर्षक दृश्य उपस्थित करता है। इसके निकट दलाराम बाग है जो फव्वारों, छतरियों और भवनों से
सुसज्जित है। भवनों की मेहराबें व छज्जे बंगाली शैली के हैं। राजा मानसिंह का निजी
महल दोहरे तिबारे का बना हुआ है। उसके निकट ही राधाकृष्ण का मन्दिर है। फर्ग्युसन
ने आम्बेर के राजभवनों का चित्रण करते हुए लिखा है कि वे ऐसे दिखाई देते हैं कि सहसा
घाटी से निकल पड़े हों और फिर उनके विविध भाग नीचे अपनी परछाइयाँ फेंक रहे हों। यद्यपि
आम्बेर के राजभवन ग्वालियर दुर्ग के राजभवनों के समकक्ष तो रखे जा सकते हैं, परन्तु विशाल द्वारों, बुर्जो, दीवाने खास, दीवाने-आम, बागों और फव्वारों से वे
मुगल शैली के अधिक निकट हैं।
डॉ. गोपीनाथ
शर्मा का कथन है कि “आम्बेर के राजभवनों में
आधारभूत भारतीय शैली के तत्व छिपे हुए हैं जिनमें चौक, बरामदों के साथ दो कमरों
का होना, छोटे द्वार, चित्रित किवाड़, मयूर, हाथी आदि की आकृतियाँ, रंगीन शीशों पर पौराणिक
दिखावा आदि प्रमुख हैं। दुर्ग का सम्पूर्ण ढाँचा मण्डल के राजवल्लभ' में वर्णित ढाँचे के अधिक
निकट है। यदि इनमें मुगलियापन है तो वह बाहरी दिखावे तक ही सीमित है।
4. मन्दिर तथा
स्मारक-
आम्बेर के
प्राचीन मन्दिर और अन्य स्मारक भी दर्शनीय हैं। यहाँ के विशाल मन्दिरों में जगत
शिरोमणि का मन्दिर है जो 17वीं शताब्दी की स्थापत्य कला का. श्रेष्ठ नमूना है।
यह मन्दिर मानसिंह के समय में जगतसिंह की स्मृति में मानसिंह की पटरानी कणकवती
ने बनवाया था। इस मन्दिर का तोरण द्वार, विष्णु, गिरधर-गोपाल तथा राधा की मूर्तियाँ
मूर्तिकला और तक्षण कला का सुन्दर उदाहरण हैं।
रणथंभौर किला:
राजस्थान का मध्यकालीन युद्धाभ्यास केंद्र और वन्यजीव अभयारण्य
रणथम्भौर का
दुर्ग सवाईमाधोपुर रेलवे जंक्शन से लगभग 6 मील दूर स्थित है। यह राजस्थान के
प्राचीनतम ऐतिहासिक दुर्गों में एक प्रसिद्ध दुर्ग है। रणथम्भौर दुर्ग का स्थापत्य
निम्न प्रकार है-
1. पहाड़ी पर स्थित
व सुरक्षित-
यह दुर्ग अरावली
पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ एक पहाड़ी पर स्थित है। यद्यपि यह दुर्ग ऊँची
पहाड़ी के पठार पर निर्मित किया गया है, लेकिन प्रकृति ने इसे
अपनी गोद में इस तरह भर लिया है कि दुर्ग के दर्शन मुख्य द्वार पर पहुँचने पर ही
हो सकते हैं। लेकिन दुर्ग की ऊँची प्राचीरों से आक्रान्ताओं पर मीलों दूर दृष्टि
रखी जा सकती है। यह दुर्ग चारों ओर वनों से आच्छादित हैं।
2. विभिन्न दरवाजे-
रणथम्भौर का प्रवेश द्वार 'नौलखा दरवाजा' कहलाता है, अत्यन्त ही सुदृढ़ दिखाई
देता है। इस द्वार के दरवाजों पर एक लेख खुदा हुआ है। इस लेखक के अनुसार इस दरवाजे
की जीर्णोद्धार जयपुर के महाराजा जगतसिंह ने करवाया था। इस प्रवेश द्वार से सात
मील की परिधि में बना हुआ किले का भू-भाग दिखाई देता है जिसमें कई मन्दिर, महल, जलाशय, छतरियाँ, मस्जिदें, दरगाह तथा हवेलियों बनी
हुई हैं। नौलखा दरवाजे से प्रवेस कर आगे चलने पर एक त्रिकोणी (तीन
दरवाजों) का समूह है, जिसे चौहानवंशी शासकों के काल
में 'तोरण द्वार', मुस्लिम शासकों के काल
में 'अन्धेरी दरवाजा' भवन बने हुए हैं, जो सैनिकों और सुरक्षा
कर्मियों के निवास हेतु प्रयोग में लाये जाते थे। इसी स्थान सले सभी चौकियों और
घाटियों की निगरानी रखी जाती थी।
3. विशाल
छतरी-
इस स्थान से
थोड़ी दूर आगे चलने पर 32 विशाल खम्भों वाली तथा 50 फुट ऊँची छतरी है। यह
छतरी चौहान राजा हम्मीर ने अपने पिता की मृत्यु के बाद उसकी समाधि पर बनवाई
थी। इस छतरी के गुम्बद पर सुन्दर नक्काशी की गई है। इस गुम्बद पर
कुछ आकृतियाँ भी उत्कीर्ण दिखाई देती हैं । छतरी के गर्भगृह में काले-भूरे रंग के
पत्थर से निर्मित एक शिवलिंग है । इस छतरी के पास ही लाल पत्थर की अधूरी छतरी के
अवशेष दिखाई देते हैं। इस बारे में स्थानीय लोगों
की मान्यता है कि सांगा की हाड़ी रानी कर्मवती ने इसे बनवाना आरम्भ किया था, किन्तु उसके अचानक किले
से चले जाने के कारण यह छतरी अधूरी रह गई थी।
4. दुर्ग के
भीतर राजमहल-
दुर्ग के मध्य
में राजमहल के भग्नावशेष दिखाई देते हैं। यह राजमहल सात खण्डों में
निर्मित है, जिनमें तीन खण्ड ऊपर तथा चार खण्ड नीचे हुए हुए हैं। यद्यपि यह राजमहल
जीर्ण-शीर्ण हो चुका है, फिर भी इसके विशाल खम्भे, सुरंगनुमा गलियारे, भैरव मन्दिर, रसद-कक्ष,शस्त्रागार आदि उस युग की
स्थापत्य कला के श्रेष्ठ नमूने हैं। इस महल के पिछवाड़े में एक
उद्यान हैं जिसमें एक सरोवर भी हैं। इस उद्यान में एक मस्जिद के खण्डहर दिखाई देते हैं, जो अलाउद्दीन खिलजी
ने दुर्ग पर अधिकार करने के बाद बनवाई थी।
5. विख्यात
मन्दिर-
राजमहलों के अजो
चौहानवंशीय शासकों द्वारा निर्मित गणेश मन्दिर है। इस गणेश मन्दिर की
आज भी बड़ी प्रतिष्ठा है। इस मन्दिर के पूर्व की ओर एक अज्ञात जल-स्रोत का भण्डार है। इस
कुण्ड में वर्षपर्यन्त स्वच्छ शीतल जल रहता है। इस जल स्रोत से थोड़ी दूर विशाल कमरों वाली
इमारतें हैं। ये इमारतें खाद्य सामग्री के गोदाम थे। गणेश मन्दिर के पिछे शिव
मन्दिर है।
6. हवेलियाँ,
महल व इमारतें-
शिव मन्दिर के पास सामन्तों की
हवेलियाँ तथा बादल महल हैं। बादल महल जाली-झरोखों से अलंकृत है। बादल महल
नृत्य, एवं आमोद-प्रमोद के लिए उपयोग में आता था।
बादल महल से लगभग एक किलोमीटर दूर एक विशाल इमारत है जिसे हम्मीर कचहरी
कहते हैं। चौहान शासक इस कचहरी में बैठकर प्रजा को न्याय प्रदान करते थे। बड़े-बड़े
खम्भों, बरामदों और कक्षों से बनी कचहरी की विशाल इमारत अत्यन्त
आकर्षक प्रतीत होती है।
कुम्भलगढ़ किला: मेवाड़ की सुरक्षा और स्थापत्य की मिसाल
यह किला न केवल
मेवाड़ के अपितु समूचे राजस्थान के सबसे दुर्भेद्य दुर्गों की कोटि में रखा जाता एक
सुदृढ़ और विकट दुर्ग के रूप में कुम्भलगढ़ की अपनी निराली शान और पहचान है। मेवाड़
के यशस्वी शासक एवं अपने समय के महान् निर्माता महाराणा कुम्भा द्वारा
दुर्ग स्थापत्य के प्राचीन भारतीय आदर्शों के अनुरूप निर्मित कुम्भलगढ़ गिरि
दुर्ग का उत्कृष्ट उदाहरण है। उदयपुर से लगभग 60 मील तथा नाथद्वारा से अनुमानत: 25 मील उत्तर में अरावली पर्वतमाला के एक उत्तुङ्ग शिकर पर कुम्भलगढ़ का यह
प्रसिद्ध दुर्ग अवस्थित है।
इतिहास ग्रन्थ वीर
विनोद के अनुसार इसकी चोटी समुद्रतल से 3568 फीट और नीचे की नाल से 700 फीट ऊँची है। मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा पर सादड़ी गाँव के समीप स्थित
कुम्भलगढ़ का सतत् युद्ध और संघर्ष के काल में विशेष सामरिक महत्व था। ऐसा माना
जाता है कि अनेक दुर्गों के निर्माता महाराणा कुम्भा ने गोड़वाड़ क्षेत्र की
सुरक्षा के लिए इस विकट दुर्ग का निर्माण करवाया था। अरावली पर्वतमाला की विशाल
पहाड़ियों और दुर्गम घाटियों से परिवेष्टित तथा सघन और बीहड़ वन से सुदृढ़ प्राचीर
ने निकटवर्ती पर्वतमालाओं को अपने में इस तरह समाहित कर लिया है कि दोनों एकाकार
हो गये हैं। किसी भी आक्रान्ता शत्रु के लिए कुम्भलगढ़ की मजबूत सुरक्षा व्यवस्था
का भेदना लोहे के चने चबाना था।
कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में दुर्ग की समीपवर्ती
पर्वत श्रृंखलाओं के बहुत सुन्दर और साहित्यिक नाम मिलते हैं यथा श्वेत, नील, हेमकूट,
निषाद, हिमवत, गन्धमादन इत्यादि
। इस प्रकार प्रकृति देवी ने कुम्भलगढ़ को जो नैसर्गिक सुरक्षा कवच प्रदान किया है
वह अन्यत्र दुर्लभ है। अपने स्थापत्य की इसी अनूठी विशेषता के कारण समुद्रतल से
साढ़े तीन हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित होते हुए भी यह किला हरी-भरी वादियों के
कारण दूर से नजर नहीं आता। इस किले की ऊँचाई के बारे में अबुल फजल ने लिखा
है कि यह इतनी बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी
गिर जाती है।
मेवाड़ के इतिहास वीर
विनोद के अनुसार महाराणा कुंभा ने वि. संवत 1505 (1448 ई.) में कुम्भलगढ़ या
कुम्भल मेरूदुर्ग की नींव रखी। उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार दुर्ग निर्माण के लिए
जिस स्थान को चुना गया, वहाँ मौर्य शासक सम्प्रति
(अशोक का द्वितीय पुत्र) द्वारा निर्मित एक प्राचीन दुर्ग भग्न रूप में पहले से
विद्यमान था। सम्प्रति ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। इस कारण
वहाँ कुछ प्राचीन जैन मन्दिरों का भी निर्माण किया गया था। महाराणा कुम्भा
ने इस प्राचीन दुर्ग के ध्वंसावशेषों पर नये दुर्ग की आधारशिला रखी। इस किले के
निर्माण में लगभग दस वर्ष लगे तथा विक्रम संवत 1515 (1458
ई.) में इसका निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ। यह निर्माण कुम्भा के प्रमुख शिल्पी और वास्तुशास्त्र
के प्रसिद्ध विद्वान मंडन की योजना और देखरेख में किया गया। इतिहासकार गौरीशंकर
हीराचन्द ओझा के अनुसार दुर्ग का निर्माण पूरा होने के उपलक्ष्य में कुम्भा ने
इस अवसर की स्मृति में विशेष सिक्के ढलवाये जिन पर कुम्भलगढ़ दुर्ग का नाम अंकित
किया गया।
स्थापत्य की दृष्टि
से अनूठा-
मेवाड़ और मारवाड़
की सीमा पर अवस्थित कुम्भलगढ़ अपने सामरिक महत्व और अभेद्य स्वरूप के कारण
गिरिदुर्ग का उत्कृष्ट उदाहरण है। जैसा कि प्रसिद्ध इतिहासकार हरबिलास शारदा
ने लिखा है-
“The highest monument of Kumbha's military and constructive genius,however
is the wonderful fortress of Kumbhalgarh or Kumbhalmer, second to none in
strategical importance or historical renown. It was to this impregnable became
unsafe and Chittor untenable. It is to Kumbhalmer that Maharanas fortress that
the Maharanas from Udai Singh to Raj Singh, sent the royal households, when the
entire might of Mewar always turned their eyes, when Udaipur of the Mughal Empire
was used for the destruction of their country”
This strong hold,
the ever memorable Kumbhalgarh, provided shelter 10 those who were dear to the
noble defenders of their fatherland.
इतिहासकार कर्नल टॉड ने कुम्भलगढ़ के दुर्भेद्य
स्वरूप की प्रशंसा करते हुए उसे चित्तौड़ के बाद दूसरे स्थान पर रखा है-
“Inferior only to Chittor is that stupendous work called after him (Kumbha) Koombhomer
the hill of Khoombho, from its natural position, and the works he raised,
impregnable to a native army.”
वीर विनोद में भी कहा गया है कि
चित्तौड़ के बाद दूसरे नम्बर पर कुम्भलगढ़ आता है। नि:संदेह वीरता और
बलिदान की रोमांचक गौरव गाथाओं के कारण चित्तौड़ का स्थान इतिहास में सर्वोपरि है
लेकिन अपने अनूठे स्थापत्य और नैसर्गिक सुरक्षा कवच की दृष्टि से कुम्भलगद बेजोड़
है तथा अपना कोई सानी नहीं रखता। एक समतल मैदान में विशाल पहाड़ी पर स्थित चित्तौड़
का किला शत्रु सेना द्वारा आसानी से घेरा जा सकता था लेकिन अनियमित आकार की पर्वत
श्रृंखलाओं से एकरूप कुम्भलगढ़ दुर्ग की प्राचीर को भेद पाना या उसकी थाह लेना
अत्यन्त कठिन था। जैसाकि हरबिलास शारदा ने लिखा है-
“Kumbhalgarh is defended by a series of walls with battlements and bas-tions
built on the slopes of a hill..... The formidable bastions in the battlemented wall of Kumbhalgarh are peculiar in shape and are so built that
the enemy may not be able to scale them by means of
ladders.”
कई मील लम्बी उन्नत
और विशाल प्राचीर जिस पर तीन चार घुड़सवार एक साथ चल सकें, प्राचीर के मध्य आनुपातिक दूरी
पर बनी विशाल बुनें, ऊँचे और अवरोधक प्रवेश द्वारा कुम्भलगढ़
के किले को दुर्भेद्य स्वरूप प्रदान करते हैं। अपनी इस विशेषता के कारण कुम्भलगढ़ का
दोहरा महत्व था। जहाँ एक ओर यह दुर्ग सैनिक अभियानों के संचालन की दृष्टि से
उपयोगी था वहीं विपत्ति के समय शरणस्थल के रूप में भी उपयुक्त था। कुम्भलगढ़ के
स्थापत्य में उसकी यह विशेषता किले के भीतर बने लघु दुर्ग या आन्तरिक दुर्ग कटारगढ़
के रूप में प्रकट हुई है।
कुम्भलगढ़ दुर्ग के पर्वतांचल
से अनेक विकट पहाड़ी मार्ग या दर्रे मारवाड़, मेवाड़ तथा अन्य स्थानों की ओर गये हैं
जिनका निरन्तर युद्ध और संघर्ष के काल में विशेष सामरिक महत्व था। इनमें किले के
उत्तर की तरफ पैदल रास्ता टूटया का होड़ा, पूर्व की तरफ
हाथिया गुढ़ा की नाल में उतरने का रास्ता दाणीवटा कहलाता है। यह नाल
केलवाड़ा के उत्तर से मारवाड़ की ओर गयी है। किले के पश्चिम की तरफ का रास्ता
टीडाबारी कहलाता है जिसमें थोड़ी दूर पर किले की तलहटी में महाराणा रायमल
के कुँवर पृथ्वीराज की छतरी बनी है। इसके अलावा केलवाड़ा से लगभग दस मील
दूर चार भुजा से मारवाड़ की ओर जाने के लिए देसूरी की नाल एक अपेक्षाकृत चौड़ा
मार्ग है।
कुम्भलगढ़ दुर्ग में
जाने के लिए केलवाड़ा कस्बे से (जहाँ बाणमाता का प्रसिद्ध मन्दिर है) पश्चिम में
लगभग 700
फीट ऊँची नाल चढ़ने पर किले का पहला दरवाजा 'आरेठपोल'
आता है। यहाँ से लगभग एक मील की दूरी तय करने पर 'हल्लापोल' नामक दरवाजा है। उक्त प्रवेश द्वार से
थोड़ा आगे चलने पर हनुमानपोल दरवाजा है। वीर विनोद के अनुसार इस दरवाजे पर प्रतिष्ठापित
हनुमान प्रतिमा महाराणा कुम्भा नागौर से विजय कर लाये थे। तत्पश्चात् किले का विजयपोल
दरवाजा आता है जहाँ अनेक प्राचीन भवनों और देवमन्दिरों के भग्नावशेष काल के क्रूर
प्रवाह के मूक साक्षी हैं। यहाँ पर नीलकंठ महादेव का मन्दिर तथा यज्ञ की एक
प्राचीन वेदी बनी है जिसके विषय में अनुश्रुति है कि दुर्ग की स्थापना के समय यहाँ
यज्ञ किया गया था। इसी स्थान से किले के भीतर पर्वत शिखर पर बने लघु दुर्ग 'कटारगढ़' की चढ़ाई प्रारम्भ होती है। भैरवपोल,
नीबूपोल, चौगानपोल, पागड़ापोल
और गणेशपोल कटारगढ़ के मुख्य प्रवेश द्वार हैं। इस लघु दुर्ग या गढ़ी के प्रमुख
भवनों में महाराणा के महल, देवी का प्राचीन मन्दिर, बादल महल, झाली रानी का मालिया (महल) प्रमुख हैं।
कर्नल टॉड ने कुम्भलगढ़ दुर्ग से
सम्बन्धित एक रोचक प्रणय कथा का उल्लेख किया है। इसके अनुसार महाराणा कुम्भा
झालावाड़ की राजकुमारी को जो मंडोर की मंगेतर थी शक्ति के बल पर जबरन विवाह लाये
थे। यथा- “Koombho mixed gallantry with his warlike pursuits. He carried off the
daugh-ter of the chief of Jhalawar, who had been betrothed to the prince of
Mundore; this renewed the old feud, and the Rathore made
many attempts to redeem his affianced bride. His
humiliation was insupoortable, when through the purified atmosphere
of the periodical rains the towers of Khoombhomer became visible from
the castle of Mundore, and the light radiated from the chamber of the fair through the gloom of a night in Bhadoon to the hall where he
brooded over his sorrows.......Night lamp was an
understood signal of the Jhalani....... Though he cut his
way through the Jhal, he could not reach the Jhalani.”
इस प्रसंग से
सम्बन्धित यह दोहा कुम्भलगढ़ दुर्ग के दुर्भेद्य रूप को प्रगट करता है-
"झाल कटायाँ झाली मिले, न रंक कटायां राव।
कुम्भलगढ़ रै कांगरे, माछर हो तो आव।।"
कटारगढ़ के उत्तर
में नीचे वाली भूमि में झालीबाव (बावड़ी) तथा मामादेव का कुण्ड है। यह
कुण्ड महाराणा कुम्भा की उनके ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार ऊदा द्वारा जघनत्य
हत्या की लोमहर्षक घटना का साक्षी है। इस कुण्ड से थोड़ी दूरी पर कुम्भा द्वारा
निर्मित कुम्भास्वामी नामक विष्णु मन्दिर है। उक्त मन्दिर के गवाक्ष में
अत्यन्त कलात्मक और सजीव प्रतिमायें प्रतिष्ठापित हैं। इस मन्दिर के प्रांगण से
बाहर महाराणा कुम्भा द्वारा पाषाण शिलाओं पर अपनी प्रशस्ति उत्कीर्ण करवायी गई।
सम्प्रति ये शिलाएँ उदयपुर संग्रहालय में रखी हैं। सारतः कह सकते हैं कि कुम्भलगढ़
दुर्ग अतीत की एक बहुमूल्य ऐतिहासिक धरोहर संजाये हुए है।
आशा हैं कि हमारे
द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो
इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
0 Comments