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फ्रांस की क्रांति 1789 ई.

1789 ई. की फ्रांस की क्रांति

फ्रांस यूरोप का एक शक्तिशाली देश था और सम्भवत: इंग्लैण्ड के बाद उसी की गणना की जाती थी। लुई चौदहवें के शासनकाल (1643-1715ई.) में फ्रांस यूरोप में सबसे अधिक शक्तिशाली देश हो गया था। उसने युद्धों के माध्यम से फ्रांस की सीमाओं का विस्तार किया, सामन्तों की अवशिष्ट शक्तियों का दमन किया और राज्य की सम्पूर्ण शक्तियों को अपने हाथों में केन्द्रित किया। राज्य में कोई भी शक्ति ऐसी न रह गई जो किसी तरह उसका विरोध कर सके।

परन्तु लुई चौदहवें के युद्धों ने राज्य की आर्थिक स्थिति को बिगाड़ दिया। सरकार पर भी भारी कर्ज हो गया। उसकी मृत्यु के बाद लुई पन्द्रहवें ने लगभग साठ वर्षों तक शासन किया। वह स्वयं तो अयोग्य, आलसी और विलासी था ही, उसके मंत्री भी वैसे ही अयोग्य निकले। दरबार के विलासी जीवन तथा युद्धों के कारण उसके शासनकाल में फ्रांस की आर्थिक स्थिति निरन्तर बिगड़ती गई, परन्तु उसने सुधारने का प्रयास नहीं किया। इस प्रकार फ्रांस की स्थिति बिगड़ती चली गई जिससे वहाँ की जनता असन्तुष्ट हो गई। फलस्वरूप निरंकुश शासन के विरुद्ध क्रान्ति की स्थिति उत्पन्न हो गई।

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फ्रांस की क्रांति 1789 ई.


प्रो. बी.एन. मेहता का कथन है, “किसी भी देश में होने वाली क्रांति के बीज उस देश की जनता की स्थिति और मनोदशा में निहित रहते हैं। असन्तोष को जन्म देने वाली भौतिक परिस्थितियाँ क्रांति हेतु आवश्यक पृष्ठभूमि तैयार करती हैं तथा बौद्धिक चेतना बहुजन को उन परिस्थितियों से मुक्ति पाने हेतु प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जब भी सरकार के लिए पुरानी लीक पर चलना कठिन हो जाता है और वह सफल सुधार योजना के द्वारा समयानुकूल नया पक्ष खोजने में असफल हो जाती है तो देश में क्रांति का होना अनिवार्य हो जाता है।

फ्रांसीसी क्रान्ति के कारण

सामाजिक कारण-

कुछ इतिहासकारों का निश्चित विचार है कि फ्रांस की क्रान्ति में पुरातन व्यवस्था में विद्यमान सामाजिक असमानता क्रान्ति के जन्म का महत्त्वपूर्ण कारण था। फ्रांस की क्रान्ति के सामाजिक कारणों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

1. सामाजिक असमानता-

"सन् 1789 की क्रान्ति निरकुंशता और असमानता के विरुद्ध विद्रोह था।" फ्रांस के समाज में घोर असमानता थी। समाज दो भागों में बँटा हुआ था, विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग और विशेषाधिकार रहित वर्ग। प्रथम वर्ग में पादरीसामन्त थे, विशेषाधिकार रहित वर्ग में कृषक, श्रमिक और मध्यम वर्ग के लोग थे। विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के पादरी और सामन्त सम्पूर्ण जनसंख्या का एक प्रतिशत थे। लेकिन देश की सम्पत्ति का 40 भाग इनके पास था। पादरी और सामन्तों को नौकरी, सेना, चर्च तथा राजदरबार में विशेष अधिकार प्राप्त थे। सभी पद उन्हीं के लिए थे। इनका जीवन वैभव और विलास से भ्रष्ट था फिर भी इनके उत्तरदायित्व कुछ नहीं थे। सामन्त राजा के साथ विलासिता में डूबे रहते थे। यही दशा पादरियों की थी। उच्च वर्ग और विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का भार कृषकों पर था। इनकी दशा अर्द्धदासों की ही थी। दिन भर सामन्तों के खेतों पर ये कृषक काम करते थे और उनको अपने खेतों के लिए समय ही नहीं मिलता था। श्रमिकों की स्थिति भी अत्यधिक शोचनीय थी। उन्हें भरपेट भोजन भी उपलब्ध नहीं होता था। इस प्रकार फ्रांस के समाज में व्याप्त असमानता के कारण जनसाधारण असंतुष्ट हो गया।

2. सामाजिक प्रशासन में व्याप्त दोष-

यह स्पष्ट है कि फ्रांस का मध्यम वर्ग राजा के विरुद्ध नहीं था। उनके रोष का कारण प्रशासन में भ्रष्टाचार था। तत्कालीन बौद्धिक विचारकों ने भी राजतंत्र को समाप्त करके आमूल-चूल परिवर्तन की बात न कहकर केवल व्यवस्था में व्याप्त दोषों के प्रति जनता का ध्यान आकर्षित किया। शासक के रुष्ट होते हुए भी उनका राजतंत्र में विश्वास बना हुआ था। लार्ड एल्टन ने स्पष्ट कहा है कि फ्रांस की क्रान्ति विशेषाधिकार के विरुद्ध समानता के लिए एक आन्दोलन था।

3. मध्यम वर्ग का उदय-

फ्रेंच भाषा में इस वर्ग के लिए "बुर्जुआ" शब्द का प्रयोग किया गया है। इस वर्ग में वे सभी लोग सम्मिलित थे जिन्हें शारीरिक श्रम नहीं करना पड़ता था। लेखक, कलाकार, वकील, चिकित्सक, अध्यापक, साहित्यकार, व्यवसायी, व्यापारी, साहूकार, कारखानों के मालिक, निम्न-पदस्थ सरकारी कर्मचारी आदि मध्यम वर्ग में थे। इस वर्ग की आर्थिक दशा संतोषजनक थी और शासन के अधिकांश उच्च पदों पर इन्हीं लोगों का अधिकार था। मध्यम वर्ग मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में संशोधन का समर्थक था। बुद्धिमान, कर्मठ, शिक्षित और धनी होने के उपरान्त भी देश की राजनीतिक संस्थानों पर उसका कोई प्रभाव नहीं था। जबकि यह वर्ग देश की राजनीति पर अपना नियन्त्रण कायम रखने का इच्छुक था। ऐसा पुरानी व्यवस्था को बदलने से ही सम्भव था। अतः मध्यम वर्ग ने सामाजिक समानता, स्वतन्त्रता और भाईचारे की भावना का प्रसार किया जिसका निम्न वर्ग पर भी प्रभाव पड़ा परिणामस्वरूप फ्रांस की जनता में असंतोष बढ़ गया।

राजनीतिक कारण-

फ्रांस की राज्य क्रान्ति के लिए फ्रांस में प्रचलित शासन व्यवस्था भी उत्तरदायी थी। राज्य क्रान्ति के राजनीतिक कारणों का अध्ययन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

1. निरंकुश राजतंत्र-

फ्रांस के शासक निरंकुश और स्वेच्छाचारी थे। राजा दैवी अधिकारों में विश्वास करते थे। वे समझते थे कि राज्याधिकार ईश्वर द्वारा दिया गया है। राजा की आज्ञा का उल्लंघन करना प्रजा के लिए दैवी आदेश के उल्लंघन करने के समान पाप था। वह अपनी इच्छानुसार कानून बनाता था। इस प्रकार राज्य का सारा जीवन राजा की मुट्ठी में था। जनता उसके विरुद्ध किसी प्रकार की आवाज भी नहीं उठा सकती थी क्योंकि भाषण, लेखन तथा प्रकाशन पर जबरदस्त प्रतिबन्ध लगा रखे थे।

2. राजा का विलासी जीवन-

फ्रांस की क्रान्ति के समय वहाँ लुई सोलहवें का शासन था। उसका जीवन अत्यन्त शान-शौकत का और खर्चीला था। वह अपने परिवार तथा असंख्य रईसों, अनुचरों तथा कर्मचारियों सहित पेरिस से 12 मील दूर वर्साय नामक नगर में एक भव्य विशाल प्रासाद में रहता था। लुई सोलहवें ने अपने 15 वर्ष के शासनकाल में निर्धन प्रजा की गाढी कमाई का पैसा अपने ऐशो आराम पर पानी की तरह बहाया जिससे जनसाधारण की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गई।

3. रानी अन्तायनेत की अदूरदर्शिता-

लुई सोलहवें की रानी मेरी अन्तायनेत प्राचीन विचारों तथा राजतन्त्र की पोषक थी। यद्यपि उसमें दृढ़ इच्छा-शक्ति, शीघ निर्णय करते की योग्यता पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थीं, परन्तु उसमें बुद्धिमानी का अभाव था। उसकी निर्णय शक्ति संकुचित थी। वह न तो फ्रांसीसियों के स्वभाव से ही परिचित हो पाई थी और न अपने युग की भावनाओं एवं विचारों से। वह बड़ी फिजूलखर्ची करती थी और आर्थिक संकट के समय में भी उसने अपने खचों में कोई कमी नहीं की। लुई सोलहवें पर उसका अत्यधिक प्रभाव था तथा शासन-व्यवस्था में उसका अत्यधिक हस्तक्षेप रहता था। वह स्वार्थी और चाटुकार सामन्तों से घिरी रहती थी, जो समस्त सुधारवादी कार्यों के विरुद्ध थे। उसका अनुचित प्रभाव उसके स्वयं लिए राजा के लिए तथा फ्रांस तीनों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ।

ग्राण्ट तथा टेम्परले के अनुसार, “लुई सोलहवें की पत्नी मेरी अन्तायनेत मेरी थेरिसा की पुत्री और आस्ट्रियन राजकुमारी थी। उसका आस्ट्रियन होना स्वयं उसके और उसके पति के लिए घातक था। आस्ट्रिया के युद्ध के समय वह अत्यन्त अलोकप्रिय हो गई। क्रांति के समय उसे आस्ट्रियन स्त्री कह कर पुकारा जाता था। इसलिए वह अपने पति की भाँति न तो फ्रांस के नये विचारों को समझ सकी और न उसके साथ कोई सहानुभूति दिखा सकी। उसकी फिजूलखर्ची के कारण फ्रांसीसी उसे Madame Deficit के घृणित नाम से पुकारते थे।

फिशर के अनुसार, “आलोचकों को वह ऐसे सायरन (खतरे की सूचना देने वाला भोंपू) के समान प्रतीत होती थी, जो कि राज्य रूपी जहाजों को चट्टानों की ओर ले जा रहा हो।"

4. कुशासन-

अयोग्य शासकों का शासन भी भ्रष्ट था। कर्मचारी भी भ्रष्ट थे। शासन में एकात्मकता और समानता नहीं थी। देश का विभाजन शिक्षा, धर्म, न्याय और वित्त के दृष्टिकोण से प्रान्तों और जिलों में किया गया था, इसलिए अलग-अलग विभागों के अलग-अलग क्षेत्र थे। देश में 400 प्रकार के कानून थे जो लैटिन में होने के कारण जनता की समझ से बाहर थे। राजकोष में धन संचय हेतु उच्च पदों की बिक्री की जाती थी। इसलिए ऐसे अधिकारी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते थे। राजकोष तक राज्य धन नहीं पहुंच पाता था। हर चीज बिकाऊ थी। विरोध करने वाले कुचल दिये जाते थे। अधिकारियों के कार्यक्षेत्र की सीमा निश्चित नहीं थी।

5. दोषपूर्ण सैनिक संगठन-

18वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में फ्रांस में सेना का संगठन भी दोषपूर्ण था। केवल अभिजात वर्ग के व्यक्तियों को ही उच्च सैनिक पदों पर नियुक्त किया जाता था। इनमें से अधिकतर व्यक्ति अयोग्य होते थे। निम्न वर्ग के सैनिकों के लिए उन्नति का कोई मार्ग नहीं था। सेना में अयोग्य तथा भ्रष्ट व्यक्तियों की भरमार थी जिससे योग्य सैनिकों में असंतोष व्याप्त था।

आर्थिक कारण-

फ्रांसीसी क्रान्ति के आर्थिक कारणों का उल्लेख निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

1. जनता पर ऋण भार का होना-

फ्रांस की आर्थिक प्रणाली बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण थी देश की सम्पत्ति के मालिक कुलीन तथा पादरी देश के कोष में कुछ भी जमा नहीं कराते थे। राजस्व का सारा भार निम्न वर्ग पर पड़ता था जिससे बड़ी कटुता उत्पन्न हो गई क्योंकि निम्न वर्ग पर आर्थिक भार बढ़ गया और राष्ट्र का ऋण भी बहुत बढ़ गया।

2. दोषपूर्ण कर व्यवस्था-

इस समय फ्रांस की आर्थिक दुरावस्था अपनी असंगत असमानता और असन्तुलित प्रकृति के कारण पतन की ओर अग्रसर थी। वित्तीय प्रशासन में चली आ रही असमानताएँ दिन-प्रतिदिन कुलीन व तीसरे वर्ग के बीच संघर्ष के बीच की खाई को चौड़ी करती जा रही थीं। कुलीनों, पादरियों को कोई कर नहीं देना पड़ता था। निम्न वर्ग से आर्थिक करों के साथ-साथ शारीरिक-श्रम भी लिया जाता था। इस प्रकार कर व्यवस्था में व्याप्त असमानता के कारण निम्न वर्ग में असंतोष बढ़ गया।

3. कर वसूलने की ठेकेदारी प्रथा-

फ्रांस में कर वसूलने की प्रथा दोषपूर्ण थी। कर वसूल करने के लिए राज्य कर्मचारी नहीं थे। कर वसूल करने के कार्य ठेकेदार करते थे। सरकार व्यापारियों से चुंगी के रूप में कर वसूल करती थी। एक ही नगर में कई स्थानों पर चुंगी ली जाती थी। करों की वसूली कठोरतापूर्वक की जाती थी, जिससे जनसाधारण असंतुष्ट हो गया था।

4. साहित्यकारों, विचारकों और दार्शनिकों का प्रभाव-

क्रान्ति से पूर्व फ्रान्स में कई लेखक, विचारक तथा दार्शनिक हुए जिन्होंने जनता में मौजूदा व्यवस्था के विरुद्ध क्रान्ति की भावना जागृत करने का अथक प्रयास किया। इन विचारकों ने लोगों को शासन, समाज एवं अन्य क्षेत्रों में व्याप्त बुराइयों से अवगत कराया और उनमें विद्रोह की भावना उत्पन्न की थी। मौन्तेस्क्यू ने फ्रांस के राजतंत्र की आलोचना की। उसने अपनी पुस्तक "कानून की आत्मा" में फ्रांस के राजाओं के दैवी-अधिकार के सिद्धान्त की कटु आलोचना की तथा वैधानिक शासन तथा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का जबरदस्त समर्थन किया। वाल्तेयर ने भी स्वतन्त्रता और समानता का प्रचार व प्रसार किया। उसने अपनी लेखनी के द्वारा उस युग के अन्याय, अत्याचार, धार्मिक पक्षपात एवं निराधार विश्वासों के विरुद्ध दीर्घकाल तक संघर्ष किया था। वाल्तेयर ने सबसे अधिक प्रहार चर्च पर किया। वह चर्च को बदनाम चीज' कहकर पुकारता था।

रूसो ने भी फ्रांस की जनता में नवीन विचारों का उदय किया। उसने क्रान्तिकारी विचारों का अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक-'सामाजिक संविदा' में विस्तार से उल्लेख किया। उसने बताया कि मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ था किन्तु वह सर्वत्र बंधनों में जकड़ा हुआ है। रूसो ने निरकुंश शासन व्यवस्था का विरोध करते हुए बताया कि प्रभुत्व समस्त जनता में निवास करता है, न कि किसी व्यक्ति अथवा वर्ग में। रूसो के विचारों ने यूरोप के निरंकुश राज्यों की जड़ें खोदने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। नेपोलियन ने तो यहाँ तक कहा कि "यदि रूसो का जन्म न होता तो फ्रांस में राज्य क्रान्ति का होना असम्भव था।" दिदरो, आर्लोबेयर एवं केने ने भी फ्रांसीसी जनता में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

अन्तर्राष्ट्रीय कारण-

1789 ई. की फ्रांसीसी क्रान्ति के प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय कारण निम्नलिखित हैं-

1. अमेरिका का प्रभाव-

फ्रांस की राज्य क्रान्ति के लिए अमेरिका का स्वतन्त्रता संग्राम वरदान साबित हुआ। अमेरिका ने इंग्लैण्ड के विरुद्ध विद्रोह करके स्वतन्त्रता प्राप्त की। अमेरिका की स्वतन्त्रता के युग का असर फ्रांसवासियों पर पड़े बिना न रहा और उनमें भी निरंकुश शासन का अन्त करके एक नवीन स्वतन्त्र राष्ट्र के निर्माण के लिए उत्साह उत्पन्न हुआ परिणामस्वरूप क्रान्ति की स्थिति उत्पन्न हो गई।

2. इंग्लैण्ड का प्रभाव-

सन् 1688 की गौरवपूर्ण क्रान्ति के पश्चात् इंग्लैण्ड में वैधानिक शासन की स्थापना हो गई थी और फ्रांस का दार्शनिक मौन्तेस्क्यू इंग्लैण्ड के वैधानिक शासक से बहुत प्रभावित था। उसने लॉक के शक्ति पार्थक्य के सिद्धान्त को भी स्वीकार किया। फ्रांस के अर्थशास्त्री इंग्लैण्ड के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री स्मिथ से बहुत प्रभावित थे। इस प्रकार फ्रांस की राज्य क्रान्ति पर इंग्लैण्ड के वैधानिक शासन का भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।

क्रान्ति के प्रभाव या परिणाम

1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति को एक युगान्तकारी घटना कहा जा सकता है। यह क्रान्ति सामन्तवाद की जीर्ण-शीर्ण सामाजिक व्यवस्था, वर्ग विशेषाधिकारी, निरंकुश शासन एवं नौकरशाही के विरोध का तथा मानव जाति की समानता के दावे और अधिकारों के नवीन सिद्धान्तों के आधार पर मानव समाज के नव निर्माण के प्रयासों का साकार रूप थी। इस क्रान्ति ने यूरोप को ही नहीं वरन् समस्त विश्व को प्रभावित किया। इसने शताब्दियों से चली आ रही व्यवस्था का अन्त करके एक ऐसी शक्ति को उत्पन्न किया, जिसके फलस्वरूप एक नवीन सभ्यता का उदय हुआ। फ्रांस की क्रान्ति ने सम्पूर्ण संसार के इतिहास को ही एक नवीन दिशा की ओर मोड़ दिया।

इतिहासकार हेजन के अनुसार "फ्रांस की क्रान्ति ने राज्य के सम्बन्ध में एक नई धारणा को जन्म दिया, राजनीति तथा समाज के विषय में नये सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये, जीवन का एक नया दृष्टिकोण सामने रखा गया और एक नई आशा और विश्वास उत्पन्न किया। इन चीजों से बहुसंख्यक जनता की कल्पना और विचार प्रज्ज्वलित हुए, उनमें एक अद्वितीय उत्साह का संचार हुआ तथा असीम आशाओं ने उन्हें अनुप्राणित किया।"

फ्रांस की राज्य की क्रान्ति के प्रमुख परिणामों का उल्लेख निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

1. सामन्ती व्यवस्था का अन्त-

मध्यकालीन सामन्ती व्यवस्था का अन्त करना फ्रांसीसी क्रान्ति की सबसे महत्त्वपूर्ण देन है। सदियों तक करोड़ों व्यक्ति इस व्यवस्था के अन्तर्गत पिसते रहे। आर्थिक शोषण तो इस व्यवस्था की चारित्रिक विशेषता थी ही, लेकिन इसकी सबसे बड़ी बुराई यह थी कि इसके अन्तर्गत सामान्य व्यक्ति का कुछ भी महत्त्व नहीं था। फ्रांस की क्रान्ति ने इस अपमानजनक व्यवस्था का अन्त कर दिया। उसने समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके सामान्य व्यक्तियों को उनके उपयुक्त स्थान पर प्रतिष्ठित किया। फ्रांस की क्रान्ति का आगे चलकर दूसरे देशों के लोगों पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि यूरोप के अन्य देशों में भी धीरे-धीरे सामन्ती व्यवस्था का अन्त हो गया।

2. धर्म निरपेक्ष राज्य का उदय-

धर्म के क्षेत्र में उदारता और बाद में सहिष्णुता लाना इस क्रान्ति की एक अन्य महत्त्वपूर्ण देन है। क्रान्ति के फलस्वरूप यूरोपीय देशों में धार्मिक सहिष्णुता का प्रादुर्भाव हुआ और लोगों को धार्मिक उपासना की स्वतन्त्रता मिली। मध्यकालीन शासकों का हमेशा यही प्रयास रहता था कि उनके राज्य के सभी निवासी केवल उसी धर्म को माने जिसमें स्वयं राजा विश्वास करता हो। अन्य धर्मावलम्बियों को कठोर से कठोर दण्ड दिये जाते थे। क्रान्ति ने धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करके मानवता की बहुत बड़ी सेवा की।

3. राष्ट्रीयता का विकास-

फ्रांस की क्रान्ति ने एक ऐसी प्रगतिशील राष्ट्रीयता को जन्म दिया जिससे आधुनिक संसार आज भी अत्यधिक प्रभावित है। नागरिकों के हृदय में अपने देश की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीयता को यह भावना केवल फ्रांस तक ही सीमित नहीं रही। जैसे-जैसे क्रान्ति का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे यूरोप के अन्य देश भी इस भावना से प्रभावित और प्रेरित होने लगे। संसार के सभी परतंत्र और पददलित लोगों में इस भावना का प्रसार हुआ और प्रत्येक देश में अपने राष्ट्र को स्वतन्त्र तथा उन्नत बनाने के लिए आन्दोलन उठ खड़े हुए।

4. राजनीतिक देन-

फ्रांस की क्रान्ति ने राजाओं के दैवी सिद्धान्त का अन्त कर लोकप्रिय सम्प्रभुता के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। शासन की बागडोर केवल एक व्यक्ति के हाथ में न रहकर तथा सम्प्रभुता केवल राजा में ही केन्द्रित न होकर, राज्य की जनता के हाथ में हो, यह इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप हुआ। अब सर्वसाधारण प्रत्यक्ष रूप से देश की राजनीति में हिस्सा बँटाने लगा। इससे जनता में आत्मविश्वास को एक नयी भावना का संचार हुआ। राजनीतिक दलों का बड़े पैमाने पर उदय एवं विकास हुआ।

5. व्यक्ति की महत्ता-

मानव अधिकारों की घोषणा और स्वतन्त्रता एवं समानता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके फ्रांस की क्रान्ति ने व्यक्ति की महत्ता एवं गरिमा को स्वीकार किया। क्रान्ति के पूर्व साधारण व्यक्ति का कुछ भी महत्त्व नहीं था। समाज में केवल विशेषाधिकार सम्पन्न लोगों का ही प्रभाव था। अब सर्वोच्च सत्ता जनता में निवास करने लगी। जनता के विचारों की अभिव्यक्ति ही शासन के स्वरूप का आधार बन गई। इस प्रकार व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का सिद्धान्त क्रान्ति की अमूल्य देन बन गया।

6. समाजवाद का प्रारम्भ-

फ्रांस की क्रान्ति ने समाजवादी व्यवस्था का मार्ग भी प्रशस्त किया। इसने अमीरों और निर्धनों को न्याय के सम्मुख समानता प्रदान की। सभी के लिए समान कानूनों की व्यवस्था की। यद्यपि क्रान्ति के कारण पूँजीपति वर्ग का समूल अन्त नहीं हुआ परन्तु सामन्त प्रथा का अन्त, विशेषाधिकारों की समाप्ति तथा चर्च की शक्ति को समाप्त करके उसने समाजवादी व्यवस्था की पृष्ठभूमि अवश्य तैयार कर दी।

7. स्वतन्त्रता, समानता व बन्धुत्व की भावना का प्रसार-

फ्रांस की क्रान्ति ने मानव जाति को स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व का नारा दिया। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक दृष्टि से प्रत्येक नागरिक को पूर्ण स्वतन्त्रता का अधिकार दिया गया। इसी प्रकार भाषण, लेखन, प्रेस तथा जान-माल की सुरक्षा आदि के अधिकार दिये गये। जीवन के सभी दृष्टिकोणों से मानव को समानता के समान अधिकार दिये गये। परस्पर प्रेम, सहयोग एवं सहानुभूति ही बन्धुत्व है और इसी का विकास क्रान्ति का मुख्य ध्येय रहा था। इन्हीं के आधार पर आने वाले संसार में लोकतन्त्र की नींव मजबूत हो पायी।

8. सामाजिक परिवर्तन-

फ्रांस की क्रान्ति सामाजिक क्रान्ति थी। क्रान्ति के पूर्व फ्रांस का सामाजिक संगठन विशेषाधिकार पर आधारित था। कूलीन और पादरी समाज के उच्च वर्ग थे। तृतीय वर्ग को समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं था। क्रान्ति ने सामन्तवाद तथा विशेषाधिकारों का अन्त कर दिया तथा सामाजिक समानता की स्थापना कर दी। क्रान्ति के परिणामस्वरूप मध्यम वर्ग का विकास हुआ।वाणिज्य और व्यापार से भी मध्यम वर्ग का महत्त्व बढ़ा। उन्नीसवीं शताब्दी के समस्त आन्दोलनों के पीछे मध्य वर्ग ही दिखलाई पड़ता है। मध्य वर्ग के विकास के साथ-साथ स्त्रियों ने पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने के लिए आन्दोलन किया। इस प्रकार फ्रांस को राज्य क्रान्ति ने सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया।

9. शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन-

क्रान्ति से पहले शिक्षा देने का कार्य साधारणत: चर्च के अधीन था, परन्तु क्रान्ति के समय से ही शिक्षा प्रसार का कार्य राज्य ने ले लिया। नेपोलियन ने विश्वविद्यालय तथा माध्यमिक शिक्षण पद्धति में परिवर्तन किया, जिसका प्रभाव यूरोप की शिक्षण पद्धति पर पड़ा। पेरिस के विश्वविद्यालय को आदर्श रूप मानकर यूरोप में अनेक विश्वविद्यालयों का संगठन हुआ। वैज्ञानिक कार्यों के अनुसंधान कार्यों में विशेष प्रगति हुई। शिक्षण प्रणाली में परिवर्तन के कारण नवजीवन का संचार हुआ।

10. लोक निर्माण कार्य-

क्रान्तिकाल में प्रशासन ने अनेक लोक निर्माण कार्य किये। कृषि उत्पादन के साधनों का आधुनिकीकरण किया गया। पुलों, बांधों, सड़कों तथा नहरों का निर्माण किया गया। दलदली भूमि को सुखाकर उत्पादन के योग्य बनाया गया। यातायात के साधनों का विकास किया गया।

इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि क्रान्ति ने केवल फ्रांस को ही नहीं, अपितु समस्त विश्व को प्रभावित किया। राजनीतिक स्वतन्त्रता और सामाजिक समानता के फ्रांसीसी विचारों ने 19वीं शताब्दी के यूरोप के क्रान्तिकारी आन्दोलन को काफी प्रभावित किया। गूच के अनुसार "फ्रांसीसी क्रान्ति की तुलना ईसाई धर्म के प्रादुर्भाव तथा धर्म-सुधार आन्दोलन से की जा सकती है, क्योंकि इसने उन समस्त मान्यताओं को नष्ट कर दिया, जिनके अन्तर्गत सदियों से मनुष्य रहते आ रहे थे। इसने एक ऐसी शक्ति उत्पन्न की जिसके फलस्वरूप एक नवीन सभ्यता का जन्म हुआ।"

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