बाल्कन युद्ध (1912-13)
बाल्कन युद्ध पूर्वी समस्या के अंग मात्र थे। इसने यूरोप की सभी महान् शक्तियाँ अभिरुचि रखती थीं। क्रिमीया युद्ध भी इसी समस्या का एक प्रतिरूप था। क्रिमीया युद्ध के उपरान्त सोचा गया था कि सम्भवत: पूर्वी यूरोप में शान्ति स्थापित हो जायेगी; किन्तु टर्की ने सन्धि की शर्तों पर आचरण नहीं किया। उसने ईसाइयों पर अपने अत्याचार प्रारम्भ रखे। इसके फलस्वरूप बाल्कन राज्यों में सर्वस्लाववाद का आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। रूस ने इस आन्दोलन को प्रोत्साहन दिया। 1912 में बाल्कन राज्यों के राजकुमार बल्गारिया की राजधानी में एक उत्सव में भाग लेने आये। इसी अवसर पर उन्होंने बाल्कन राज्यों की राजनीति पर भी बाचचीत की।
13 मार्च, 1912 को सर्बिया व बल्गारिया के बीच आठ वर्ष के लिये एक सन्धि हुई। इस सन्धि पर दोनों देशों के राजाओं ने हस्ताक्षर कर इसे मान्यता प्रदान की। बाल्कन संघ एक सैनिक संगठन बन गया और इसकी स्थापना में रूस की कूटनीतिक विजय सन्निहित थी। इस संघ के निर्माण में एक ओर तो वह स्लाव जाति का संरक्षक बन गया तो दूसरी ओर इस संघ के गठन से उसने बाल्कन राज्य में जर्मनी व आस्ट्रिया के बढ़ते प्रभाव को रोकने का प्रयास किया। बाल्कन संघ की स्थापना को राजनीतिज्ञों ने एक 'कूटनीति का चमत्कार' बताया है।
बाल्कन युद्धों के कारण
बाल्कन युद्ध के
कारणों को निम्नलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) गैर-तुर्कों
में राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार- तुर्की साम्राज्य में तुर्कों के मुकाबले में गैर-तुर्कों
की संख्या बहुत अधिक थी। गैर-तुर्कों में राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार हो चुका
था। वे तुर्कों के चंगुल से मुक्ति पाने के लिए कटिबद्ध थे। वे अपने धर्म, भाषा तथा संस्कृति की
रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने के लिए तैयार थे। वे अपने स्वतन्त्र
राज्यों का निर्माण करना चाहते थे। अब वे तुर्की के अधीन रहने के लिए तैयार नहीं
थे।
(2) तुर्कों की
दमनकारी नीति तुर्की- साम्राज्य के अधीन बाल्कन राज्यों के गैर- तुर्कों की दशा
बड़ी शोचनीय थी। तुर्की के सुल्तान ने अपनी ईसाई प्रजा की दशा सुधारने के लिए
प्रभावशाली कदम नहीं उठाये। सुल्तान और तुर्क अधिकारी गैर-तुर्कों का शोषण करते थे
और अपने स्वार्थों की पूर्ति करते थे। प्रशासन में बेईमानी, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार
का बोलबाला था। इस कारण गैर-तुर्कों में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। 1896 में
कुस्तुन्तुनिया में रहने वाले लगभग 6 हजार आर्मीनियन लोगों को मौत के घाट उतार
दिया गया। डॉ. मथुरालाल शर्मा का कथन है कि, "टर्की के सुल्तान और तुर्क अधिकारी निर्मम अत्याचार और शोषण
के द्वारा गैर-तुर्क जातियों में इतना जबरदस्त असन्तोष पैदा कर चुके थे कि अब उनके
सामने जीवन और मरण का प्रश्न था। इस असन्तोष का विस्फोट होना ही था।"
बाल्कन युद्ध कारण एवं परिणाम |
(3) युवा तुर्क
क्रान्ति- 1908 में टर्की
में क्रान्ति हुई जिसके फलस्वरूप तुर्की के सुल्तान के निरंकुश शासन का अन्त हुआ
तथा वहाँ संसदीय शासन की स्थापना हुई। इससे गैर-तुर्कों में एक नवीन आशा का संचार
हुआ। परन्तु शीघ्र ही युवा तुर्क आन्दोलन के नेताओं ने उग्र राष्ट्रीयता की भावना
से प्रेरित होकर तुर्कीकरण की नीति अपनाई तथा गैर-तुर्कों पर तुर्की सभ्यता और
संस्कृति थोपना शुरू कर दिया। गैर-तुर्कों का क्रूरतापूर्वक दमन किया गया और
हजारों ईसाइयों को मौत के घाट उतार दिया गया। गिबन्स का कथन है कि, "मैसीडोनिया तथा एशिया
माइनर में 30 हजार ईसाइयों की हत्या कर दी गई।"
यह भी देखें- क्रिमीया युद्ध के कारण एवं परिणाम
युवा तुर्क
आन्दोलन गैर-तुर्क विरोधी सिद्ध हुआ। उग्र राष्ट्रीयता से ओतप्रोत होकर तुर्कों ने
अन्य जातियों के प्रति अत्यन्त असहिष्णुता और अनुदारता का व्यवहार किया तथा उन पर
तुर्की सभ्यता और संस्कृति थोपने का प्रयास किया। उनकी इस उग्न नीति ने अन्य
जातियों में भी उग्र राष्ट्रीयता को जन्म दिया। इन जातियों की राष्ट्रीयता
तुर्क-विरोधी थी। गैर-तुर्क विरोधी राष्ट्रीयता और तुर्क विरोधी राष्ट्रीयता के
पारस्परिक संघर्ष ने बाल्कन-युद्धों को जन्म दिया।
(4) सह-धार्मिकता
तथा सहजातीयता की भावना- तुर्की साम्राज्य में समान धर्म और जाति के लोगों में एक
राज्य में संगठित होने की भावना विकसित हुई। उदाहरण के लिए, सार्बिया, मोन्टीनीग्रो, बोस्निया तथा हर्जगोविना
की जनता एक ही मूल की थी। वह एक ही राज्य में संगठित होना चाहती थी। इसी प्रकार
यूनान चाहता था कि मैसीडोनिया, क्रीट तथा कुछ
अन्य टापू उसके राज्य में सम्मिलित हो जायें, क्योंकि इन प्रदेशों में अधिकांशत: यूनानी रहते थे। जब
बाल्कन प्रदेश में ये सहजातीय तथा सहधार्मिक आन्दोलन उठ खड़े हुए तो बाल्कन प्रदेश
में स्थिति विस्फोटक बन गई तथा टर्की से युद्ध अनिवार्य हो गया।
(5) यूरोपीय
राज्यों के परस्पर-विरोधी हित- तुर्की-साम्राज्य में यूरोपीय राज्यों के परस्पर विरोधी
हित थे। रूस और सर्बिया सह-धर्म तथा सह-जाति के आधार पर मित्र थे। इसी प्रकार
जर्मनी और आस्ट्रिया तुर्की की समस्याओं में एक-दूसरे के सहयोगी थे। इंग्लैण्ड
तुर्की साम्राज्य को रूसी प्रभाव से मुक्त रखना चाहता था। इटली दक्षिण में
आस्ट्रिया के विस्तार का विरोधी था। इस प्रकार बाल्कन-क्षेत्र यूरोपीय देशों के
परस्पर-विरोधी हितों के कारण विस्फोटक बना हुआ था। डॉ. एम.एल. शर्मा का कथन है कि, "इस प्रकार
टर्की-साम्राज्य विभिन्न राष्ट्रों की राजनीतिक और सैनिक पैंतरेबाजी का दंगल बना
हुआ था और छोटी-से-छोटी घटना भी, विदेशी हितों के
परस्पर टकराने से विस्फोटक बन जाती थी। बाल्कन-युद्धों के आरम्भ होने से पूर्व इसी
प्रकार की स्थिति विद्यमान थी। रूसी समर्थन से सर्बिया, बल्गारिया आदि के आक्रामक
रुख का पोषण हो रहा था और स्लाव आन्दोलन अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के निर्णायक
दौर में था।"
(6) गैर-तुर्क
जातियों में मनमुटाव- तुर्की साम्राज्य की गैर-तुर्क जातियों में भी परस्पर एकता का अभाव था। वे
भी आपस में एक-दूसरे से शत्रुता रखती थीं। बल्गारिया, सर्बिया और यूनान में
शताब्दियों से जातीय वैमनस्य चला आ रहा था। द्वितीय बाल्कन-युद्ध तो प्रमुखतया
गैर- तुर्क जातियों के पारस्परिक वैमनस्य के कारण ही हुआ था।
(7) मैसीडोनिया की समस्या- मैसीडोनिया में तुर्क, बल्गार, सर्व, अल्बानियन, यहूदी आदि अनेक जातियाँ रहती थीं तथा यूनान, सर्बिया, बल्गारिया आदि सभी राज्य मैसीडोनिया के विभिन्न भागों पर अधिकार कर लेना चाहते थे। तुर्की भी मैसीडोनिया पर अपना आधिपत्य बनाये रखना चाहता था। उसने मैसीडोनिया पर अपना आधिपत्य बनाये रखने के लिए विभिन्न जातियों की आपसी फूट को प्रोत्साहन दिया। इसके अतिरिक्त रूस और आस्ट्रिया भी मैसीडोनिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे।
तुर्की के शासन
के अन्तर्गत मैसीडोनिया के लोगों की दशा दयनीय थी। तुर्क अधिकारी मैसीडोनिया के
ईसाइयों का शोषण करते थे तथा उन्हें अनेक प्रकार से पीड़ित करते थे। यद्यपि बर्लिन
कांग्रेस में तुर्की के सुल्तान ने ईसाइयों की दशा सुधारने का वचन दिया था, परन्तु उसने अपने वचनों
का पालन नहीं किया और ईसाइयों की दशा सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। अत:
मैसीडोनिया के ईसाइयों में तुर्कों के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। 1900 से 1903 तक
मैसीडोनिया में कई स्थानों पर विद्रोह हुए; परन्तु तुर्की के सुल्तान ने अपनी सेनाएँ भेजकर विद्रोहियों
का कठोरतापूर्वक दमन कर दिया। तुर्की
सेनाओं ने सैकड़ों गाँवों में आग लगा दी जिससे हजारों कृषक बेघर-बार हो गये। इस
प्रकार तुर्कों ने मैसीडोनिया में आतंक का राज्य स्थापित कर दिया।
अन्त में 1903
में आस्ट्रिया और रूस ने मैसीडोनिया की समस्या के लिए एक योजना तैयार की जिसे 'मर्जस्तेग का कार्यक्रम' कहते हैं। यद्यपि रूस और
आस्ट्रिया के दबाव के कारण तुर्की ने मर्जस्तेग योजना को स्वीकार कर लिया परन्तु
यह योजना सफल नहीं हो सकी। तुर्की की सरकार ने मर्जस्तेग-योजना को लागू करने का
कोई प्रयास नहीं किया तथा मैसीडोनिया के ईसाइयों की दशा दयनीय बनी रही। मैसीडोनिया
की समस्या भी बाल्कन-युद्ध का एक प्रमुख कारण बनी।
(8) आर्मीनिया की
समस्या- आर्मीनियन लोग
मुख्यत: एशिया माइनर के उत्तर –पूर्वी प्रान्तों
में रहते थे। ये लोग थे और कृषि कार्य में लगे थे। बर्लिन की सन्धि के
अनुसार तुर्की के सुल्तान ने आर्मीनिया में सुधार करने एवं वहाँ के ईसाइयों के
अधिकारों की रक्षा करने का वचन दिया था। परन्तु तुर्की के सुल्तान ने आर्मीनिया के
ईसाइयों की दशा सुधारने के लिए कोई कदम नहीं उठाया।
दूसरी ओर
आर्मीनियावासियों में भी राष्ट्रीयता की भावना प्रबल होती जा रही थी। तुर्की के
अत्याचारों से आर्मीनिया में राष्ट्रीयता की भावना बढ़ती गई। आर्मीनिया में अनेक
समितियों की स्थापना हुई जिनका उद्देश्य आर्मीनिया को तुर्की शासन के चंगुल से
मुक्ति दिलाना था। 1890 में आर्मीनिया में आर्मीनियन क्रान्तिकारी संघ' की स्थापना हुई जिसने कुछ
क्रान्तिकारी टोलियों का गठन किया। इस पर तुर्की के सुल्तान ने आर्मीनिया के
ईसाइयों का दमन करना शुरू कर दिया। 1894 में तुर्की सैनिकों ने सासून जिले के
ईसाइयों पर धावा बोल दिया और उनके लगभग 25 ग्रामों को नष्ट कर दिया तथा उनमें रहने
वाले 10 से 20 हजार आर्मीनियनों की हत्या कर दी। 1895 के अन्त तक 50 हजार से भी
अधिक आर्मीनियन ईसाई कत्लेआम तथा लूटमार के शिकार हुए। 1896 में कुस्तुन्तुनिया
में रहने वाले लगभग 6 हजार आर्मीनियन लोगों का वध कर दिया गया।
इन हत्याकाण्डों
से सम्पूर्ण यूरोप में सनसनी फैल गई परन्तु आपसी ईर्ष्या के कारण यूरोपीय शक्तियाँ
इन हत्याकाण्डों के प्रति उदासीन बनी रहीं। इंग्लैण्ड टर्की के विरुद्ध सैनिक
कार्यवाही करना चाहता था, परन्तु
फ्रांस-रूस आदि ने उसका साथ नहीं दिया। जर्मनी और आस्ट्रिया भी आर्मीनिया के
हत्याकाण्ड के प्रति उदासीन बना रहा। इस प्रकार यूरोपीय राज्यों की उदासीनता के
कारण हजारों आर्मीनियनों को मौत के मुंह में जाना पड़ा। इससे बाल्कन क्षेत्र के
ईसाइयों में तुर्की सरकार के विरुद्ध तीव्र आक्रोश व्याप्त था।
(9) क्रीट और
यूनान में असन्तोष- यूनान टर्की साम्राज्य में रहने वाले अपने स्वजातीय भाइयों को अपने में मिला
लेना चाहता था। इन यूनानियों की संख्या 25 लाख से भी अधिक थी। यूनान के दक्षिण में
क्रीट नामक टापू के अधिकांश निवासी यूनानी थे। ये लोग यूनान में मिलना चाहते थे।
दोनों देशों में इस एकीकरण आन्दोलन ने जोर पकड़ लिया। 1897 में क्रीट के यूनानी
नेताओं ने यूनान से मिलने की घोषणा कर दी। क्रीट की प्रार्थना पर यूनानी शासक ने
क्रीट की सहायता के लिए अपनी सेना भेज दी।
8 अप्रैल, 1897 को यूनान के अनियमित
सैनिक, तुर्की की सीमा में
प्रविष्ट हो गये। 17 अप्रैल, 1897 को तुर्की
ने यूनान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। यूनानी सेनाएँ तुर्की की सेनाओं के
सामने नहीं टिक सकी और 17 मई को डोमोकस नामक स्थान पर यूनानी सेनाओं की पूर्ण रूप
से पराजय हुई। अन्त में 4 दिसम्बर, 1897 को यूनान और टर्की में एक सन्धि हुई जिसके अनुसार
यूनान ने तुर्की को 40 लाख रुपये युद्ध का हर्जाना देने का वचन दिया। इस प्रकार यह
यूनान के लिए बड़ा हानिप्रद सिद्ध हुआ। क्रीट को यूनानी साम्राज्य में सम्मिलित
करने की उसकी आकांक्षा मिट्टी में मिल गई। अत: यूनान में भी तुर्की के विरुद्ध
तीव्र असन्तोष व्याप्त था।
(10) इटली का
ट्रिपोली पर आक्रमण- अगादिर के संकट का लाभ उठाकर सितम्बर, 1911 में इटली ने
ट्रिपोली पर आक्रमण कर दिया। तुर्की की पराजय हुई और उसे अक्टूबर, 1912 में लोसान की सन्धि
करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार तुर्की ने ट्रिपोली पर इटली का आधिपत्य स्वीकार कर
लिया। इस युद्ध से तुर्की की दुर्बलता प्रकट हो गई और बाल्कन-राज्यों को उसके
विरुद्ध संगठित होने की प्रेरणा मिली। प्रो. फे का कथन है कि "ट्रिपोली के
युद्ध के कारण भी बाल्कन-संघ की स्थापना हुई।"
(11) बाल्कन संघ- तुर्कों की दमनकारी एवं
अत्याचारपूर्ण नीति के कारण बाल्कन- राज्यों में तीव्र असन्तोष था। 1911 तक वे अपने
आपसी भेदभाव भुलाकर मैसीडोनिया के अपने भाइयों को सहायता करने के लिए तैयार हो
गये। 13 मार्च,
1912 को सर्बिया
और बल्गारिया के बीच सन्धि हो गई। इस सन्धि के अनुसार दोनों राज्यों ने एक-दूसरे
की प्रादेशिक अखण्डता तथा स्वतन्त्रता की गारन्टी दी। दोनों देशों ने यह भी निश्चय
किया कि यदि कोई बड़ी शक्ति बाल्कन क्षेत्र के किसी भाग पर अधिकार करने का प्रयत्न
करे, तो दोनों मिलकर उसका
विरोध करेंगे। दोनों देशों में एक गुप्त समझौता भी हुआ जिसके अनुसार दोनों राज्यों
में रूस की स्वीकृति से तुर्की के विरुद्ध सम्मिलित आक्रमण करने का निर्णय हुआ।
29 मई, 1912 को यूनान और
बल्गारिया के बीच एक रक्षात्मक सन्धि हुई। सितम्बर, 1912 में दोनों देशों के बीच सैनिक उपसन्धि हुई, जिसके अनुसार दोनों
राज्यों ने, युद्ध की स्थिति में समान
रूप से सहयोग देने का वचन दिया। मान्टीनीग्रो के साथ कोई लिखित सन्धि नहीं हुई, परन्तु उसने मौखिक रूप
बाल्कन-राज्यों के साथ सहयोग करने का वचन दिया। इस प्रकार अगस्त, 1912 तक बल्गारिया, सर्बिया, यूनान और मान्टीनीग्रो का
बाल्कन-संघ बन गया। इस संघ का उद्देश्य तुर्की साम्राज्य की दुर्बलता का
लाभ उठाकर तुर्की पर आक्रमण करना तथा उसे हराकर विजित प्रदेशों को आपस में बाँट
लेना था।
प्रथम बाल्कन-युद्ध
की घटनाएँ-
8 अक्टूबर, 1912 को मान्टीनीग्रो ने
टर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। 14 अक्टूबर को बल्गारिया, सर्बिया तथा यूनान
ने टर्की को अल्टीमेटम दे दिया। 18 अक्टूबर को टर्की ने बल्गारिया
तथा सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और उसी दिन यूनान भी टर्की के
विरुद्ध युद्ध में शामिल हो गया।
यद्यपि टर्की की
जनसंख्या चारों बाल्कन-राज्यों से दुगुनी थी और सैनिक संख्या भी बहुत अधिक थी, परन्तु उसे पराजय का मुँह
देखना पड़ा। 22 अक्टूबर, 1912 को
बल्गारिया ने थ्रेस में किर्क-किलिस के युद्ध में तुर्की की सेनाओं को बुरी तरह से
पराजित किया। बल्गारिया की सेनाएँ कुस्तुन्तुनिया और एड्रियानोपल के निकट पहुँच
गईं। 26 अक्टूबर को सर्बिया ने कुमानोवो नामक स्थान पर तुर्की की सेनाओं को पराजित
किया। 8 नवम्बर को यूनान ने सेलोनिका पर अधिकार कर लिया। कुछ ही समय में सर्बिया
ने वर्गर की घाटी और नोवीबाजार के संजक तथा अल्बानिया के उत्तरी भाग पर अधिकार कर
लिया। इस प्रकार कुछ सप्ताहों के युद्ध में तुर्की को भीषण पराजयों का मुंह देखना
पड़ा। उसके पास यूरोप में केवल चार नगर रह गये कुस्तुन्तुनिया, एड्रियानोपल, जनीना तथा स्कूटरी।
टर्की के विनाश
ने यूरोपीय शक्तियों में खलबली मचा दी। 16 दिसम्बर, 1912 को लंदन में बाल्कन-राज्यों, तुर्की एवं बड़े राज्यों
का एक सम्मेलन आयोजित किया गया। सम्मेलन में निर्णय किया गया कि तुर्की से
एड्रियानोपल ले लिया जाये परन्तु अन्य तीन नगरों पर टर्की का अधिकार बना रहे।
परन्तु 23 जनवरी,
1913 को युवक
तुर्कों के नेता अनवर बे ने तुर्कों के प्रधानमन्त्री कियामिल पाशा को त्याग-पत्र
देने के लिए बाध्य किया और उसके स्थान पर महमूद शेवकत पाशा को प्रधानमन्त्री
बनाया। युवक तुर्क नेताओं ने एड्रियानोपल छोड़ने के प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर
दिया।
29 जनवरी, 1913 को बाल्कन-राज्यों
ने तुर्की के विरुद्ध पुनः युद्ध आरम्भ कर दिया। तुर्की को पुनः पराजय का मुँह
देखना पड़ा और उसके प्रमुख दुर्गों का पतन हो गया। 6 मार्च को जनीना, 26 मार्च को एड्रियानोपल
तथा 23 अप्रेल को स्कूटरी का पतन हो गया। विवश होकर टर्की को पुनः समझौता वार्ता
करने के लिए विवश होना पड़ा।
लंदन की सन्धि– 30 मई, 1913 को तुर्की तथा
बाल्कन-राज्यों के बीच एक सन्धि हुई जिसे लन्दन की सन्धि कहते हैं । इस सन्धि की प्रमुख
शर्ते निम्नलिखित थीं—
(1) तुर्की ने
काले सागर पर स्थित मीडिया से लेकर एजियन सागर पर स्थित एनास के पश्चिम का
सम्पूर्ण क्षेत्र और क्रीट का द्वीप बाल्कन राज्यों को दे दिया।
(2) दक्षिणी
मैसीडोनिया तथा क्रीट का द्वीप यूनान को दिया गया।
(3) अल्बानिया का
स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया गया, किन्तु उसकी सीमाएँ निर्धारित करने का कार्य भविष्य के लिए
छोड़ दिया गया।
(4) सर्बिया को
उत्तरी तथा मध्य मैसीडोनिया का क्षेत्र दिया गया तथा बल्गारिया को थ्रेस एवं एजियन
सागर का तटवर्ती भाग प्राप्त हुआ।
द्वितीय बाल्कन
युद्ध-
लंदन की सन्धि के
बाद बाल्कन-क्षेत्र में अधिक समय तक शान्ति स्थापित नहीं रह सकी। विजयी
बाल्कन-राज्य सन्धि द्वारा किये गये बँटवारे से असन्तुष्ट थे, अत: शीघ्र ही उनके बीच
मनमुटाव उत्पन्न हो गया। विजेता राष्ट्रों में मतभेद के प्रमुख मुद्दे निम्नलिखित
थे-
(1) बल्गारिया
सेलोनिका तथा मैसीडोनिया के कुछ अन्य भागों पर अधिकार करना चाहता था। दूसरी ओर
यूनान भी सेलोनिका पर अधिकार बनाये रखना चाहता था, क्योंकि उससे उसे एजियन सागर तक पहुँचने का सीधा मार्ग मिल
सकता था।
(2) सर्बिया ने
बल्गारिया के साथ की गई 1912 की सन्धि में संशोधन करने तथा मैसीडोनिया में
अतिरिक्त भाग प्राप्त करने की माँग की। सर्बिया का कहना था कि उसे अल्बानिया के
क्षेत्र में कुछ भी न मिलने के कारण जो क्षति हुई है, उसके बदले में उसे
मैसीडोनिया का अतिरिक्त भाग मिलना चाहिए। परन्तु बल्गारिया ने सर्बिया की माँग ठुकरा
दी।
(3) बल्गारिया और
यूनान ने मैसीडोनिया में अपनी सीमाएँ निश्चित करने के लिए 7 अप्रैल, 1913 को जो आयोग नियुक्त
किया था, वह अपने उद्देश्य में सफल
नहीं हो सका।
(4) रूमानिया
बाल्कन-युद्ध के समय अपनी तटस्थता के बदले बल्गारिया से सिलिस्ट्रिया का क्षेत्र
प्राप्त करने की माँग कर रहा था। कुछ दिनों तक दोनों में तनातनी चलती रही। अन्त
में आस्ट्रिया और रूस के प्रयलों से दोनों में समझौता हो गया और बल्गारिया ने
सिलिस्ट्रिया का भाग रूमानिया को दे दिया।
(5) सर्बिया और
यूनान ने अपने हितों की रक्षा के लिए पारस्परिक सहयोग की सन्धि कर ली और दोनों ने
मिलकर बल्गारिया से मैसीडोनिया का एक बड़ा भाग देने को कहा। परन्तु बल्गारिया ने
उनकी माँग को अस्वीकार कर दिया । फलस्वरूप यूनान और सर्बिया बड़े क्रुद्ध हुए और
संघर्ष का खतरा बढ़ गया। यद्यपि जून, 1913 में रूस ने बल्गारिया, सर्बिया तथा यूनान के बीच समझौता कराने का प्रयत्ल किया, परन्तु समझौते का प्रयत्न
विफल हो गया।
29 जून, 1913 को बल्गारिया ने
सर्विया पर आक्रमण कर दिया तथा एक दूसरी सेना सेलोनिका में यूनान के विरुद्ध
आक्रमण करने के लिए भेज दी। बल्गारिया के इस आक्रमण से द्वितीय बाल्कन-युद्ध शुरू
हो गया। यूनान और सर्बिया की सम्मिलित सेनाओं ने बल्गारिया की सेनाओं को कई
स्थानों पर पराजित किया। 9 जुलाई को रूमानिया भी बल्गारिया के विरुद्ध युद्ध में
शामिल हो गया। 12 जुलाई को तुर्की ने भी बल्गारिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर
दी। 20 जुलाई को तुर्की ने एड्रियानोपल पर अधिकार कर लिया। सर्बिया और यूनान की
सेनाओं ने भी बल्गारिया की सेनाओं को बुरी तरह से पराजित किया। अन्त में भीषण
पराजयों से विवश होकर बल्गारिया युद्ध विराम के लिए सहमत हो गया। 31 जुलाई, 1973 को युद्ध-विराम की
घोषणा कर दी गई। अन्त में 10 अगस्त, 1913 को बल्गारिया ने विजयी राष्ट्रों द्वारा प्रस्तावित
बुखारेस्ट की सन्धि स्वीकार कर ली।
बुखारेस्ट की
सन्धि (10 अगस्त, 1913)-
बुखारेस्ट की
सन्धि की प्रमुख शर्ते निम्नलिखित थीं-
(1) बल्गारिया ने
रूमानिया को दोब्रुजा का बहुत बड़ा भाग, जिसमें सिलिस्ट्रिया का दुर्ग भी था, दे दिया।
(2) मध्य
मैसीडोनिया सर्बिया को प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त नोवी बाजार के संजक का पूर्वी
भाग भी सर्बिया को दिया गया।
(3) मान्टीनीग्रो
को नोवीबाजार का पश्चिमी भाग दिया गया।
(4) यूनान को
एपिरस, दक्षिणी मैसीडोनिया, सेलोनिका तथा पूर्व में
मेस्टा नदी तक का समुद्र तट प्राप्त हुआ।
(5) तुर्की को
एड्रियानोपल, डेमोटिका तथा किर्क-किलसा
पुनः प्राप्त हो गये।
(6) बल्गारिया को
डेडीगाच बन्दरगाह के निकट एक सँकरी पट्टी दे दी गई ताकि वह एजियन सागर तक पहुँच
सके।
बाल्कन-युद्धों के परिणाम
बाल्कन युद्धों
के निम्नलिखित परिणाम हुए-
(1) धन-जन की
हानि- दोनों बाल्कन-युद्धों में
धन-जन की भारी हानि हुई। इतिहासकार मेरियट के अनुसार दोनों बाल्कन-युद्धों में
लगभग 25 करोड़ पौण्ड खर्च हुए और 3,48,000 व्यक्ति मारे गये अथवा घायल हुए।
बल्गारिया को सबसे अधिक हानि हुई, क्योंकि उसके
1,40,000 सैनिक मारे गये तथा 80 लाख पौण्ड खर्च हुए। यूनान और सर्बिया प्रत्येक के
70 हजार व्यक्ति हताहत हुए। मान्टीनीग्रो के हताहतों की संख्या 10 हजार थी।
युद्धों के पश्चात् बीमारियों, अन्नाभाव आदि से
भी हजारों व्यक्ति मौत के मुँह में चले गये।
(2) यूरोप में
तुर्की-साम्राज्य का अन्त- बाल्कन-युद्धों के फलस्वरूप यूरोप में तुर्को का साम्राज्य
समाप्त हो गया। इन युद्धों के बाद तुर्की के पास केवल कुस्तुन्तुनिया, एड्रियानोपल तथा आसपास का
क्षेत्र ही बचा रहा। इस प्रकार उसके साम्राज्य का 5/6 भाग उससे छिन गया। डॉ.
वी.सी. पाण्डेय का कथन है कि, "प्रथम
बाल्कन-युद्ध के परिणामस्वरूप यूरोपीय तुर्की समाप्त प्राय: हो गया था। परन्तु
द्वितीय बाल्कन युद्ध के परिणामस्वरूप तुर्की को पुन: कुछ प्रदेश प्राप्त हो गये।
प्राप्त प्रदेशों में सबसे अधिक उल्लेखनीय एड्रियानोपल है।"
(3)
बाल्कन-राज्यों की सीमाओं का विस्तार- बाल्कन युद्धों के फलस्वरूप यूनान, सर्बिया, रूमानिया, मान्टीनीग्रो तथा
बल्गारिया के राज्यों का बहुत अधिक विस्तार दो गया। यूनान को सबसे अधिक भाग मिला।
उसे सेलोनिका,
एपिरस, क्रीट तथा अनेक टापू
मिले। उसके राज्य का क्षेत्रफल 25014 वर्ग मी । से बढ़कर 41933 वर्ग मील हो गया।
सर्बिया के राज्य का क्षेत्रफल लगभग दुगुना हो गया। रूमानिया को बल्गारिया से 2700
वर्ग मील का क्षेत्र प्राप्त हुआ। मान्टीनीग्रो को भी लगभग 1100 वर्ग मील का
क्षेत्र मिला। यद्यपि बुखारेस्ट की सन्धि से बल्गारिया को भारी क्षति उठानी पड़ी, फिर भी इस सन्धि के
पश्चात् भी बल्गारिया के पास लगभग 9650 वर्ग मील का अतिरिक्त भू-भाग बना रहा।
(4) तुर्की के
अत्याचारों से बाल्कन-जातियों को मुक्ति मिलना- बाल्कन जातियों को
दीर्घकाल तक तुर्कों के भीषण अत्याचार सहन करने पड़े थे। परन्तु बाल्कन-युद्धों के
परिणामस्वरूप इन बाल्कन-जातियों को तुर्कों के अत्याचारों से मुक्ति मिली; प्रो. देवेन्द्रसिंह
चौहान लिखते हैं कि, "तुर्की की पराजय
से बाल्कन-क्षेत्र के ईसाइयों को, जो पाँच सदियों
से तुर्की के अत्याचारपूर्ण एवं शोषणकारी शासन के अन्तर्गत दयनीय जीवन व्यतीत कर
रहे थे, मुक्ति मिली। यह
महत्त्वपूर्ण कार्य बाल्कन राज्यों ने संगठित होकर बड़े राज्यों की सहायता के बिना
ही सम्पन्न कर लिया। इस प्रकार मैसीडोनिया तथा अन्य ईसाई क्षेत्रों की जटिल समस्या
बाल्कन राज्यों ने स्वयं हल कर ली।"
(5) बल्गारिया
में असन्तोष- द्वितीय बाल्कन- युद्ध में बल्गारिया की बुरी तरह से पराजय हुई और उसे
बुखारेस्ट की सन्धि स्वीकार करनी पड़ी। उसकी 'वृहत् बल्गारिया' के निर्माण की महत्त्वाकांक्षा मिट्टी में मिल गई।
बुखारेस्ट की सन्धि से उसके हाथ से प्रायः सभी प्रदेश जाते रहे। उसे ईजियन सागर के
ऊपर एकमात्र संकरा समुद्र-तट प्राप्त हुआ। उसके हाथ से सम्पूर्ण मैसीडोनिया निकल
गया। बल्गारिया कवाला का बन्दरगाह चाहता था, परन्तु वह भी उसे न मिल सका। वह यूनान को दे दिया गया। इसी
प्रकार रूमानिया तथा तुर्की ने भी उससे अनेक महत्त्वपूर्ण प्रदेश ले लिये।
मैसीडोनिया के साथ-साथ उसके हाथ से थ्रेस भी निकल गया।
(6)
बाल्कन-राज्यों का असन्तुष्ट होना- यद्यपि बाल्कन-राज्यों को काफी भू-भाग प्राप्त हुआ था, परन्तु वे असन्तुष्ट थे।
यूनान अल्बानिया का दक्षिणी प्रदेश चाहता था, परन्तु उसकी यह माँग पूरी नहीं हुई। उसने इम्बोज तथा
टेनीडोज द्वीपों की माँग की। परन्तु डार्डेनलीज के जलमार्ग की सुरक्षा के लिए ये
द्वीप टर्की को दे दिये गये। थ्रेस, पूर्वी मैसीडोनिया तथा टर्की के प्रदेशों में लाखों यूनानी
रहते थे और यूनान उन्हें जातीय आधार पर अपने राज्य में मिला लेना चाहता था, परन्तु उसकी इन माँगों को
पूरा नहीं किया गया। सर्बिया भी असन्तुष्ट था। वह समुद्र- तट प्राप्त करना चाहता
था, परन्तु आस्ट्रिया और
जर्मनी के विरोध के कारण उसकी इच्छा पूरी नहीं हो सकी। अल्बानिया का कोई न कोई भाग
आस्ट्रिया, सर्बिया, इटली और यूनान हड़पना
चाहते थे, परन्तु बुखारेस्ट की
सन्धि में अल्बानिया को एक स्वायत्तपूर्ण राज्य बना दिया गया। मान्टीनीग्रो
स्कूटरी चाहता था,
परन्तु उसकी यह
अभिलाषा पूरी नहीं हुई। रूमानिया भी असन्तुष्ट था। वह ट्रांसिलवेनिया, बेसराबिया और बुकोविना
चाहता था। परन्तु ये प्रदेश उसे नहीं मिल सके। सबसे अधिक असन्तोष बल्गारिया को था, क्योंकि सर्बिया, यूनान और रूमानिया ने
उससे बहुत-सा भाग छीन लिया था।
(7) सर्बिया में
असन्तोष- सर्बिया भी
बुखारेस्ट की सन्धि से असन्तुष्ट था, क्योंकि समुद्र-तट प्राप्त करने की उसकी अभिलाषा पूरी नहीं
हुई। वह एजियन सागर तट तक पहुँचना चाहता था, जिससे उसके आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त हो जाये। परन्तु
उसकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई। उसने बल्गारिया से अतिरिक्त भू-भाग प्राप्त करने की
माँग की, परन्तु बुखारेस्ट की
सन्धि के बाद भी उसकी आकांक्षा पूरी नहीं हो सकी।
(8) आस्ट्रिया की
रूमानिया तथा यूनान से शत्रुता- रूमानिया 'वृहत्तर रूमानिया' का निर्माण करना चाहता था। उसकी जाति के बहुसंख्यक लोग
आस्ट्रिया-साम्राज्य में रहते थे। अत: रूमानिया के जातीय प्रचार ने आस्ट्रिया के
साम्राज्य के लिए एक खतरा पैदा कर दिया तथा दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ने लगा।
आस्ट्रिया
सेलोनिका की ओर बढ़ना चाहता था। परन्तु सेलोनिका पर यूनान का अधिकार था। अत:
आस्ट्रिया और यूनान में भी कटुता हो गई।
(9) सैन्य शक्ति
में वृद्धि- बुखारेस्ट की
सन्धि से सर्बिया,
यूनान, रूमानिया, बल्गारिया, तुर्की आदि अनेक देश असन्तुष्ट
थे। जर्मनी तथा आस्ट्रिया सर्बिया की बढ़ती हुई शक्ति से चिन्तित थे। बल्गारिया, जर्मनी तथा आस्ट्रिया की
सहायता से बुखारेस्ट की सन्धि को निरस्त करवा कर अपने खोये हुये प्रदेशों को पुनः
प्राप्त कर लेना चाहता था। आस्ट्रिया तथा सर्बिया के बीच शत्रुता चरम सीमा पर जा
पहुंची थी। रूस को विश्वास हो गया था कि सर्बिया तथा आस्ट्रिया के बीच युद्ध को
टाला नहीं जा सकता। अतः रूस, आस्ट्रिया, जर्मनी, टर्की, सर्बिया, फ्रांस आदि अनेक देश अपनी
सैन्य- शक्ति में वृद्धि करने लगे। प्रमुख राष्ट्र विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों के
निर्माण में जुट गये। उससे अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तनाव बढ़ गया।
यह भी देखें- प्रथम विश्व युद्ध के कारण एवं परिणाम
(10) प्रथम
महायुद्ध के लिए उत्तरदायी- अनेक इतिहासकार बाल्कन-युद्धों को प्रथम विश्व युद्ध के
लिए उत्तरदायी मानते हैं। बाल्कन-युद्धों के बाद भी यूनान, सर्बिया, बल्गारिया, टर्की, आस्ट्रिया, रूमानिया आदि राज्य
असन्तुष्ट थे। सभी राष्ट्र भावी युद्ध की आशंका से सैनिक तैयारियों में जुट गये और
विनाशकारी हथियारों की प्रतिस्पर्धा में कूद पड़े। प्रो. फे का कथन है कि,"बाल्कन युद्धों का एक
परिणाम यह हुआ है कि उसकी समाप्ति के बाद यूरोप के सभी राज्यों के शस्त्रास्त्रों
में वृद्धि करना आरम्भ कर दिया, जिनका यूरोप की
शान्ति पर अत्यन्त गम्भीर प्रभाव पड़ा और जिससे 'ट्रिपल एलाएंस' तथा 'ट्रिपल आतांत' अत्यधिक शक्तिशाली और
संगठित हो गये।
बाल्कन-युद्धों के कारण आस्ट्रिया तथा
सर्बिया की शत्रुता चरम सीमा पर जा पहुँची और दोनों के बीच युद्ध की सम्भावना
दिखाई देने लगी। इन्हीं परिस्थितियों में 28 जून, 1914 को सेरोजेवो में आस्ट्रिया के राजकुमार फर्डीनेण्ड और
उसकी धर्मपत्नी की हत्या कर दी गई। आस्ट्रिया ने इस हत्याकाण्ड के लिए सर्बिया को
दोषी ठहराया। दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता चला गया और अन्त में 28 जुलाई, 1914 को आस्ट्रिया ने
सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। रूस ने सर्बिया का तथा जर्मनी ने
आस्ट्रिया का साथ दिया। इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध का सूत्रपात हुआ।
इतिहासकार हेजन का कथन है कि, "दोनों बाल्कन-युद्धों से
जन-धन की अपार क्षति हुई। तुर्की और बल्गारिया में से प्रत्येक के 15000 से अधिक
व्यक्ति मारे गये और घायल हुए। सर्बिया और यूनान दोनों के पृथक्-पृथक् 70,000 से
अधिक और छोटे से देश मान्टीनीग्रो के 10,000 से अधिक व्यक्ति हताहत हुए। असैनिकों
की संख्या भी,
जो भुखमरी अथवा
हत्याकाण्ड से मरे, अत्यधिक थी, क्योंकि द्वितीय बाल्कन
युद्ध निर्विवाद रूप से क्रूरता का युद्ध था। इसके विपरीत मान्टीनीग्रो, यूनान तथा सर्बिया का
आकार प्राय: दुगुना हो गया। बल्गारिया और रूमानिया में भी वृद्धि हुई। यूरोप में
तुर्की साम्राज्य अपेक्षाकृत छोटे से भू-भाग तक सीमित हो गया—उसका क्षेत्रफल बहुत कम
हो गया। 1912-13 के बाल्कन-युद्ध 1914 के यूरोपीय युद्ध के उपक्रम अथवा प्रस्तावना
ये।"
डॉ. स्नेह महाजन का कथन है कि, "बाल्कन युद्धों के अनुभवों
का यूरोप के छोटे तथा बड़े देशों के दृष्टिकोण पर काफी प्रभाव पड़ा। इस युद्ध में
सर्बिया की शक्ति तथा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया, जबकि बल्गारिया को काफी हानि उठानी पड़ी। सर्बिया में अब
खुले रूप से आस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध करने की बातें की जाने लगी, क्योंकि आस्ट्रिया ने
बल्गारिया का साथ दिया था तथा आस्ट्रिया में सर्व लोगों की बड़ी संख्या थी। रूस
सर्विया का समर्थक था तथा जर्मनी आस्ट्रिया का। ऐसी स्थिति में आस्ट्रिया तथा
सर्बिया के मध्य निकट भविष्य में युद्ध छिड़ जाने तथा रूस व जर्मनी के इस युद्ध
में शामिल हो जाने की आशंका बढ़ने लगी। रूस व आस्ट्रिया में भी वैमनस्य काफी बढ़
गया था
डॉ. विमलचन्द्र पाण्डेय का कथन है कि, "बाल्कन के युद्ध प्रथम महायुद्ध के कारण बने। इन युद्धों ने जिस पारस्परिक कटुता को जन्म दिया वह बराबर बढ़ती गई और उसी के कारण 1914 में भयंकर महायुद्ध हुआ।" हेजन के अनुसार, "1912-13 के बाल्कन युद्ध 1914 के यूरोपीय युद्ध के उपक्रम अथवा प्रस्तावना थे। जुलाई, 1908 की तुर्की की क्रान्ति से जुलाई, 1914 में सर्बिया के विरुद्ध आस्ट्रिया की युद्ध की घोषणा का घटनाक्रम प्रत्यक्ष, अचूक एवं दुर्भाग्यपूर्ण है। प्रत्येक वर्ष ने लौह शृंखला की लम्बाई बढ़ाने के लिए एक कड़ी जोड़ी।"
यह भी देखें- द्वितीय विश्व युद्ध के कारण एवं परिणाम
डॉ. एम.एल. शर्मा का कथन है कि, "निःसन्देह बाल्कन-युद्धों के फलस्वरूप न केवल बाल्कन-प्रायद्वीप का नक्शा बदल गया, बल्कि प्रथम महायुद्ध के लिए विस्फोटक परिस्थितियाँ भी बन गईं। युवा तुर्कों की क्रान्ति (जुलाई, 1908) से लेकर बुखारेस्ट की सन्धि (अगस्त, 1913) की हलचलें यह प्रमाणित करने को पर्याप्त हैं कि बाल्कन-युद्ध उस यूरोपीय महायुद्ध की पृष्ठभूमि बने जो 1914 में आरम्भ हुआ। बाल्कन-युद्धों के बाद यूरोप के सभी राज्यों ने शस्त्रास्त्रों में वृद्धि करना आरम्भ कर दिया जिसका यूरोप की शान्ति पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। शस्त्रीकरण की होड़ में 'ट्रिपल एलाएंस' तथा ट्रिपल आतांत बड़े सशक्त और संगठित हो गये तथा उनमें टक्कर अनिवार्य हो गई।"
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यह भी देखें- इतिहास का अर्थ एवं परिभाषा
यह भी देखें- इतिहास का क्षेत्र एवं इतिहास-क्षेत्र का वर्गीकरण
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