उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.)
भारतीय इतिहास में उस काल को, जिसमें सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों एवं उपनिषद की रचना हुई, को उत्तर वैदिक काल (Later Vedic Civilization) कहा जाता है। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड इस काल की विशिष्टता थी, क्योंकि यहाँ के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों तथा थालियों का प्रयोग करते थे। वे लोहे के हथियारों का भी प्रयोग करते थे। 1000 ई.पू. में पाकिस्तान के गांधार में लोहे के उपकरण प्राप्त हुए हैं। वहाँ क़ब्र में मृतकों के साथ लोहे के उपकरण प्राप्त हुए हैं। 800 ई.पू. के आस-पास इसका उपयोग गंगा-यमुना दोआब में होने लगा था। उत्तरी दोआब में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के 700 स्थल मिले हैं जिसमें चार की खुदाई हुई है- अतरंजीखेड़ा, जखेड़ा, हस्तिनापुर, नोह।
अभी तक उत्खनन
में केवल अतरंजीखेड़ा से ही लौह उपकरण के साक्ष्य मिले हैं। उत्तर वैदिक
ग्रन्थों में लोहे के लिए लौह अयस एवं कृष्ण शब्द का प्रयोग हुआ है।
अतरंजीखेड़ा में पहली बार कृषि से सम्बन्धित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
यह युग आर्य
संस्कृति के प्रसार और विकास, अभ्युदय और
उत्कर्ष, मतभेद और ऊहापोह तथा
विभिन्नीकरण का युग था। इस काल में धर्म, दर्शन, नीति, आचार-विचार, मत-विश्वास आदि की प्रधान
रूपरेखा निश्चित और सुस्पष्ट हो गए। उत्तर वैदिक काल के अध्ययन के लिए सबसे
महत्वपूर्ण स्रोतों में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद एवं आरण्यक प्रमुख
हैं। सामान्यतः लौह प्रौद्योगिकी युग की शुरूआत को उत्तर-वैदिक
काल (Later Vedic Civilization) से जोड़ा जाता है, इसके पर्याप्त साक्ष्य भी
उपलब्ध हैं।
उत्तर वैदिक कालीन राज्य संरचना (Later Vedic State Structure)
उत्तर वैदिक काल में आर्यो का प्रसार
पूर्व में गंगा-यमुना दो आब के क्षेत्र में हो चुका था। अथर्ववेद में बहलीक
प्रदेश से लेकर मगध तक का उल्लेख हैं इसके अतिरिक्त पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्री तट
के बारे में भी उत्तर वैदिक साहित्य में वर्णन है। इस काल में क्षेत्रीय
राज्यों की स्थापना हो चुकी थी तथ कहीं-कहीं गणराज्यों का भी वर्णन मिलता है।
उत्तरवैदिक काल में राज्य और साम्राज्य अस्तित्व में आए क्योंकि इस काल में छोटे-2
कबीलें आपस में मिल गए थे। साम्राज्य का संस्थापक सम्राट कहलाता था, जिसके अधीन अन्य छोटे-2
राज्य भी थे। राजा शब्द का प्रयोग यद्यपि छोटे स्वतंत्र राज्य का द्योतक
है। परन्तु इसे अधिकतर अधीन सामंत राजा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।
इस काल में राजा
का दैवीक उत्पति का सिंद्धात भी प्रचलन में आया
क्योंकि एक स्थान पर पुरू राजा अपने आपको इन्द्र तथा वरूण के समान
बताता है और उनके द्वारा प्रदान की गई शक्तियों का जिक्र करता है। संहिताओं तथ
ब्राह्मण ग्रंथों में भी वाजपेय तथा राजसूय यज्ञ करने के उपरान्त
राजा का समीकरण प्रजापति से किया गया है। शतपथ ब्राह्मण में इसी प्रकार का
उल्लेख है। इस काल में अश्वमेघ तथ राजसूय यज्ञ सम्पन्न करा कर राजा अपने विशाल
राज्य का प्रमाण देता था। परन्तु कीथ नामक विद्वान का मत है कि यद्यपि इस
काल में ऋग्वैदिक कालीन कुछ राज्य नहीं था। अथर्ववेद मे राजा को अपने चचेरे भाइयों
से लड़ते दिखाया गया है तथा अनार्यो से युद्धों का भी उल्लेख है। परन्तु एतरेस
ब्राह्मण में पूर्व के शासकों का सम्राट, दक्षिण के शासकों को भोज, उत्तर के विराट तथा मध्य देश के शासकों को केवल राजन
कहा गया है। इसी प्रकार ऐसरात तथा सार्वभौम राजा उसे कहा गया है
जिसने चारों दिशाओं में शत्रुओं पर विजय हासिल की हो। विजय के उपलक्ष्य में बाद
में अश्वमेघ यज्ञ सम्पन्न किया जाता था। राजसूय यज्ञ के दौरान
घोषणाओं द्वारा राला की उपलब्धियों की जानकारी दी जाती थी। इन बातों से हमें इस
काल में बड़े-बड़े साम्राज्य होने की जानकारी मिलती है।
उत्तर वैदिक सभ्यता |
उत्तर वैदिक
कालीन साक्ष्यों से
पता चलता है कि राजा का पद पैतृक या वंशानुगत था। शतपथा तथा ऐतरेय
ब्राह्मण से पता चलता है कि कई राज्य दस पीढ़ीयों से स्थापित थे। इसके अतिरिक्त राजपुत्र
शब्द का अर्थ राजा के पुत्र के रूप में भी इस व्यवस्था का द्योतक है। परन्तु अथर्ववेद
के एक पथ में राजा के चयन का भी उल्लेख हैं, जिसमें प्रजा राजा का चुनाव करती है विश या क्षेत्रीय
इकाइयों की अपेक्षा। परन्तु यह चुनाव राजपुत्रों था राजपरिवार से ही अपातकाल में
होता होगा। इस काल में हमें जनता द्वारा कई अत्याचारी राजा को हटाने के भी प्रमाण
मिलते हैं।
इस काल की समस्त
रचनाओं में निरंकुश शासकों की घोर आलोचना की गई है। अथर्ववेद में अधार्मिक
राजा के राज्य में वर्षा न होने तथा उसे समिति और मित्रवर्ग का सहयोग न प्राप्त
होने का उल्लेख है। जो राजा निरंकुशतापूर्वक राष्ट्र के साधनों का दुरूपयोग करता
था उसे शतपथा ब्राह्मण मे राष्ट्री कहा गया है। इस काल में राजा
को धर्मानुकूल व्यवहार करने वाला बताया गया है। इसके अतिरिक्त राजा को राज्याभिषेक
के समय शपथ लेनी पड़ती थी, कि वह नियमों का
पालन करेगा, कोई हिंसा नहीं करेगा, प्रजा का पालन करेगा
इत्यादि। राजा इन सभी बातों का व्यवहार में पालन करता था। इस कारण भी राजा निरंकुश
नहीं हो सकता था।
रत्निन-
राजा को राज्य के एक महत्वपूर्ण
अंग रत्निनों के प्रति भी सम्मान प्रकट करना पड़ता था और उनका सहयोग तथा
अनुमोलन प्राप्त करना आवश्यक समझा जाता था। शतपथ ब्राह्मण में इनकी
संख्या 11 दी गई है तथा राजा सहित इनकी संख्या 12 है जो इस प्रकार है-
क्र. स. | रत्निन नाम | रत्निनों के कार्य |
---|---|---|
01 | राजा/सम्राट | सर्वेसर्वा, सर्वोच्च प्रशासक |
02 | पुरोहित | धार्मिक कृत्य करने वाला, मुख्य सलाहकार |
03 | सेनानी | सेनापति |
04 | सूत | राजा का सारथी |
05 | ग्रामणी | गांव का मुखिया |
06 | संग्रहिता | कोषाध्यक्ष |
07 | अक्षावाप | पासे के खेल में राजा का प्रमुख सहयोगी |
08 | गोविकर्तन | जंगल विभाग का प्रधान, गवाध्यक्ष |
09 | पालागल | विदूषक, संदेशवाहक |
10 | तक्षण | ऱथ बनाने वाला |
11 | भागदुध | कर संग्रहकर्ता, राजस्व अधिकारी |
12 | क्षत्रि | राजप्रसाद का रक्षक |
अन्य रत्निन-
महिषि- राजा की सबसे प्रमुख
रानी (पटरानी)
नोट- ग्रामणी को
राजा कृत अर्थात राजा द्वारा निर्मित बताया गया है उस संदर्भ में ग्रामणी के स्थान
पर महिषी को रत्निन माना जाएगा।
बाबाता- प्रिय रानी
परिवृक्ति- उपेक्षित रानी
शतिपति- सौ ग्रामों (गाँवों) का
मुखिया
स्थपति- सीमांत क्षेत्रों का
प्रशासक व मुख्य न्यायधीश
नोट- शतपति व
स्थपति रत्निन में शामिल नहीं थे।
राजकृत- राजा ही जिसका निर्माता
है इसमें ग्रामणी सूत इत्यादि को शामिल किया जाता था।
विरास- राजा की आठ प्रमुख
समर्थक
युवराज- राजकुमार
क्षता- प्रतिहारी
ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित शासन व्यवस्था-
क्षेत्र | शासन | उपाधि |
---|---|---|
पूर्व | साम्राज्य | सम्राट |
पश्चिम | स्वराज्य | स्वराट |
उत्तर | वैराज्य | विराट |
दक्षिण | भोज्य | भोज |
मध्य देश | राज्य | राजा |
सभा और समिति-
अथर्ववेद में सभा और समिति
को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है। जो हमेशा राजा को मदद करती थी। प्राप्त
साक्ष्यों के अनुसार राजा अपनी शक्तियों की प्राप्ति इन्हीं से करता है। इस प्रकार
राजतंत्र तथा ये दैविक संस्थाए एक ही धरातल पर है। अथर्ववेद में इस बात का
वर्णन है कि राजा इनकी सहायता लेने की कोशिश करता था। यदि इनका विश्वास राजा पर ना
रहे तो राजा पर विपति आने का उल्लेख है। लेकिन इस काल में राजा की शक्तियों में
वद्धि होने के कारण इस काल में सभा और समिति का महत्व कम हो गया था।
सभा- इस काल में सभा
के कार्यो तथा कार्य शैली का स्पष्ट उल्लेख नही मिलता। अथर्ववेद के वर्णन
से पता चलता है कि सभा ग्राम संस्था थी तथा ग्राम के समस्त स्थानीय
विषयों की देखभाल करती थी। एक स्थान पर इसे नरिष्ठा कहा गया है जिसका
अभिप्राय है कि यहां वाद-विवाद के बाद निर्णय होते थे। मैत्रायणी संहिता
के अनुसार स्त्रियां सभा की बैठकों में भाग नही लेती थी। सभासद, समाचार इत्यादि शब्दों से
सभा के सदस्यों का वर्णन मिलता है। सभा का अध्यक्ष सभापति होता था इस
प्रकार हम देखते है कि सभा एक ऐसी संस्था थी जहां राजनैतिक कार्य सम्पन्न किए जाते
थे। परन्तु प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर सभा एवं समिति में भेद नही किया
जा सकता, न ही उनके कार्यो और
क्षेत्रों का स्पष्ट उल्लेख है।
डा. अल्तेकर के अनुसार उत्तर वैदिक
काल में सभा संस्था नही रह गई थी बल्कि वह राज्य संस्था हो गई थी। शतपथ
ब्राह्मण के अनुसार राजा सभा में उपस्थित रहता था। ऐतरेय ब्राह्मण
के अनुसार सभा के सदस्यों का पद अत्यन्त सम्मान का था।
समिति- समिति राज्य की केन्द्रीय
संस्था प्राप्त होती है अथर्ववेद में उल्लेख है कि ब्राह्मण सम्पति का
हरण करने वाले राजा को समिति का सहयोग नही मिलने का उल्लेख हैं एक अन्य स्थान पर
राजा के लिए इसके चिर सहयोग की शुभाकांक्षा प्रकट की गई है। प्रत्येक सदस्य समिति
के वाद-विवाद में हिस्सा ले कर ख्याति प्राप्त करने का इच्छुक रहता था। जिससे पता
चलता है कि समिति में निर्णय वाद-विवाद के पश्चात् ही लिए जाते थे।
राज्य की आय (State Income)
ऋग्वेद में हमें कर के रूप में
सिर्फ बलि शब्द का वर्णन मिलता है। परन्तु इस काल में राज्य द्वारा निश्चित
करों के प्रावधान का प्रमाण मिलता है। राजकोष के अधिकारी को संग्रहिता
कहा जाता था और कर लेने वाले अधिकारी को भागदुध कहा जाता था सामान्यतः कर वैश्यों
से लिए जाते थे। ब्राह्मण साहित्य में उसे बलिकृत कहा गया
है। राजकर उन्न तथा पशुओं के माध्यम से वसूल किया जाता था। आय का 1/6 भाग राज्य को
कर के रूप में मिलता था। प्रजा राजा को करों के अलावा विशेष अवसरों पर उपहार
इत्यादि भी भेंट करती थी तथा युद्ध में लुट का हिस्सा भी राजकोष में जाता
था।
इस प्रकार हम
देखते हैं कि उत्तर वैदिक काल में राज्य की संरचना हो चुकी थी और बड़े-बड़े
क्षेत्रीय राज्यों की स्थापना हो गई थी। इस काल में राज्य के सातों महत्वपूर्ण
अंगों का वर्णन हमें मिलता है। राजा मंत्रीमण्डल के रूप में रतमिन, क्षेत्र संसाधन (करों
द्वारा) सेना,
सहयोगी सभी का इस
काल में सजन हो चुका था।
उत्तर वैदिक कालीन
समाज (Later Vedic Society)
उत्तर वैदिक काल में कृषि
प्रणाली, उत्पादन की मात्रा बढ़ने
एवम् आर्यो के जीवन में स्थायीत्व अपने से राज्य के स्वरूप में भी परिवर्तन आया। कबीलाई
व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई और इस काल में छोटे-छोटे जन आपस में मिलकर नगर
और जनपद का रूप धारण करने लगे। जैसेः पुरू और भरत कबीला
मिलकर कुरू जनपद बना तथा तुर्वश और ऋिवी मिलकर पांचाल
जनपद कहलाए।
इस काल में गंगा-यमुना
दोआब के क्षेत्र में आर्यो ने विस्तार कर लिया था। इस काल के साहित्य के
कुरूक्षेत्र, हस्तिनापुर, काशी, अयोध्या, पुष्कलावती और तक्षशिला
जैसे नगरों का उल्लेख मिलता है। नगरों और जनपदों के उदय के कारण ऋग्वैदिक
कालीन कबीलाई संरचना नष्ट हो गई। इस काल की संस्कृति के बारे में विस्तृत जानकारी
नष्ट हो गई। इस काल की संस्कृति के बारे में विस्तृत जानकारी हमें सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद से
मिलती है।
ऋग्वेद के पश्चात् सामवेद
की रचना हुई क्योंकि बहुत सी रचनाएं जिनका उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है, वे सामवेद में पुनः
लिखी गई है। कालक्रम के अनुसार सामवेद के बाद यर्जुवेद की रचना हुई, इसमें कृष्ण यर्जुवेद
और शुक्ल यर्जुवेद की वाजसेनीय संहिता शामिल है जो अथर्ववेद से पहले
की रचना है। तैत्रीय संहिता को भी कुछ विद्वान इसी काल की रचना मानते हैं।
इनके पश्चात् ब्राह्मण ग्रंथों की रचना की गया जिनमें शतपथ ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण
महत्वपूर्ण हैं। आरण्यकों की रचना ब्राह्मण ग्रंथों के बाद की गयी तथा ये
उपनिषद काल के मध्य एक कड़ी थे। आरण्यक तथा उपनिषदों को सामान्यतः वेदान्त
कहा जाता है। इन सभी रचनाओं में वर्णित संस्कृति को उत्तर–वैदिक संस्कृति का नाम दिया जाता है।
पारिवारिक जीवन-
इस काल में पितृसत्तात्म
परिवार थे, लेकिन पहले काल की
अपेक्षा अब पिता की शक्तियों में वद्धि हुई। पिता अपने पुत्र को कठोर दण्ड दे सकता
था और सम्पति के अधिकार में भी वह मनमानी करता था। ऐतरेय ब्राह्मण में
वर्णित एक कहानी से पता चलता है कि पिता का पुत्र पर पूरा नियन्त्रण होता था। इस
कहानी में पिता द्वारा अपने पुत्र शुनेहशेप को बेचने का पता चलता है, लेकिन सामान्य रूप से
पिता-पुत्र के संबंध स्नेह पर आधारित थे।
शांखायन आरण्यक के अनुसार
महत्वपूर्ण अवसरों पर पिता व्यस्क पुत्र के सिर को चूम स्नेह का प्रदर्शन करता था।
पुत्र ना होने की स्थिति में पुत्र गोद लेने के प्रमाण इस काल में मिलते हैं।
परिवार में पहले बड़े भाई या बहन की शादी की जाती थी, तथा बड़ों से पहले छोटों
की शादी को अच्छा नही माना जाता था। परिवार में हमें पौत्र तथा प्रौपोत्र होने के
भी प्रमाण मिलते हैं। अतिथियों के सत्कार संबंधी विषय में अनेक रचनाएं है। इस काल
में हमें कुल शब्द का अर्थ एक वृहत परिवार के रूप में मिलता है। कुल
का अर्थ सामान्यतः 'घर' या परिवार का घर' के रूप में होता है।
परिवार में व्यावातार पुत्र की उत्पति की कामना की जाती थी।
वर्ण-व्यवस्था-
उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था पूरी
तरह स्थापित हो चुकी थी। इस काल में वर्ण शब्द सामान्य रूप से जाति के लिए
प्रयुक्त हुआ है। ऋग्वैदिक काल के अंतिम चरण में समाज ४ वर्णो में बंट गया था, लेकिन इस काल में वर्ण
व्यवस्था जन्म के आधार पर निर्धारित हो गई। इस काल में अनेक उपजातियां तथा
दूसरे जाति विभाजन होने लगे जैसे इस काल में विभिन्न श्रेणियां अपने पेशे। व्यवसाय
में वंशानुगत होने के कारण अलग जाति में विभक्त हो गए। इसी प्रकार रथकार, लोहे, चमड़े तथा लकड़ी का काम
करने वालों की भी अलग जातियां बन गई।
इस काल में
परिवार में गोत्र का महत्व बढ़ा तथ सगोत्रीय और गोत्र से बाहर विवाह के
नियम बनने लगे। इस काल में अपनी ही जाति में विवाह करने के नियम बनने लगे। इस काल
में शूद्रों पर अनेक निरयोग्यताएं लगा दी गई जैसे- आर्य वर्ण के लोग शूद्र स्त्री
से विवाह नहीं कर सकते थे। लेकिन शूद्र या दस्यु वर्ग के लोग आर्य स्त्री से विवाह
नहीं कर सकते थे। इसी प्रकार का नियम धीरे-धीरे तीन आर्य वर्णो पर भी लागू होने
लगा। जिसमें एक ब्राह्मण, क्षत्रिय या
वैश्य लड़की से शादी कर सकता था जबकि नीच जाति का पुरूष ऊंची जाति की महिला से
शादी नही कर सकता था। इस काल में वैश्य वर्ण जो कि कृषि तथा व्यापारिक गतिविधियों
का संचालक था,
चौथे वर्ण के
अधिक सम्पर्क में आया और यह आर्यो की सांस्कृतिक शुद्रता को सहेज कर नहीं रख सका।
इस काल में
प्रत्येक जाति के काम और उनकी प्राथमिकताएं तथा सामाजिक स्तर निचित कर दिए गए। शतपथ
ब्राह्मण में तो चारों जातियों के वर्णानुसार अलग-2 आकार के शमशानों का भी
उल्लेख है। शूद्रों की स्थिति सबसे दयनीय थी, उनका कार्य दूसरों की सेवा करना था और उन्हें भू-संपति के
अधिकारों से भी वंचित रखा गया। वैश्य और शूद्र जो इस काल में वास्तविक
उत्पादनकर्ता थे,
को इन वर्गो को
कर देना और इनके सेवा कार्य पड़ते थे। इस वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों ने
उच्च स्थान प्राप्त कर लिया था, क्योंकि इस काल
में यज्ञों का महत्व बढ़ गया था। समाज में उच्चाधिकार के लिए हमें ब्राह्मणों और
क्षत्रियों के बीच परस्पर संघर्ष के प्रमाण मिलते है। इस काल में कई क्षत्रियों के
ब्राह्मण बनने के भी प्रमाण मिलते हैं। ब्राह्मण तथा क्षत्रिय सामान्यतः दूसरे
दोनों वर्णो के मुकाबले प्रभावशाली थी। इस प्रकार का प्रमाण हमें वाजसेनीय
संहिता,
शतपथ ब्राह्मण तथा पंचविश ब्राह्मण
में मिलता है। जबकि शतपथ ब्राह्मण में एक स्थान पर ऐसा भी वर्णन है कि
ब्राह्मण राजा पर आश्रित है, तथा यह उसके साथ
नीचे के आसन पर बैठता है। इसी तरह शतपथ ब्राह्मण मे कहा गया है कि
क्षत्रिय अपनी शक्ति ब्राह्मण के ही कारण पाता है। दूसरी ओर ऐसे भी संदर्भ है, जो क्षत्रिय को सर्वोपरि
मानते है जैसा कि काठक संहिता तथा इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण के एक
सन्दर्भ में ब्राह्मण को क्षत्रिय से निम्न कहा गया है, जो राजा से दान लेने वाला, और सोम रस पीने
वाला है जिसे राजा भी हटा सकता है।
इस काल में ऐसे
भी सन्दर्भ मिले हैं, जिससे पता चलता
है कि कई राजा पढ़े-लिखे थे तथा उन्होंने बहुत सी रचनाओं की रचना भी की थी तथा कई
क्षत्रिय ब्राह्मणों के भी शिक्षक रहे थे। इस काल में ब्राह्मण पुरोहित होते थे
तथा कुछ राजा के पुरोहित भी थे, जो वंशानुगत होते
थे अथर्ववेद से हमें पता चलता है कि कई बार राजा ब्राह्मणों पर अत्याचार भी
करते थे और ऐसा राजा कभी फल-फूल नही सकता था। परन्तु आमतौर ब्राह्मणों ने इस काल
में अपनी प्रतिष्ठा कायम कर ली थी। इस काल में व्यापारिक गतिविधियों का प्रसार
होने के कारण वैश्यों के अनेक वैश्यों के अनेक वर्ग बन गए जो पशुपालन, कृषि और शिल्पकार इत्यादि
गतिविधियों में शामिल थे, ये कर भी अदा
करते थे। शतपथ ब्राह्मण में वर्णन है कि यज्ञ करने वाले व्यक्ति का शूद्रों
से बात नही करनी चाहिए। ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लेख है कि उच्चवर्ग के लोगों को
शूद्रों को पीटने का अधिकार है। ब्राह्मण ग्रंथों में शूद्रों के स्पर्श से बचने
लिए जो नियम बनाए थे, बाद में उन्ही से
समाज में अस्पृश्यता की शुरूआत हुई थी।
कुल और क़बीले-
उत्तर वैदिक काल में छोटे कबीले एक दूसरे
में विलीन होकर बड़े क्षेत्रगत जनपदों को जन्म दे रहे थे। उदाहरण के लिए 'पुरु' एवं 'भरत' मिलकर कुरु और 'तुर्वष' तथा 'क्रिवि' मिलकर पांचाल कहलाए। इस
प्रकार उत्तर वैदिक काल में कुरु, पांचाल, काशी का विदेह प्रमुख
राज्य थे। इन 'कुरु' और 'पञ्चालों' का अधिपत्य दिल्ली पर एवं
दोआब के मध्य एवं ऊपरी भागों पर फैला था। उत्तर वैदिक काल में आर्यो का
विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हो गया क्योंकि अब वे लोहे के हथियार एवं अश्वचालित
रथ का उपयोग जान गए थे। उत्तर वैदिक काल में पञ्चाल
सर्वाधिक विकसित राज्य था। शतपथ ब्राह्मण में इन्हे वैदिक सभ्यता का
सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा गया है।
'अथर्ववेद' में कुरु राज्य की
समृद्धि का चित्रण है। परीक्षित और जनमेजय यहाँ के प्रमुख राजा थे। परीक्षित
को मृत्यु लोक का देवता कहा गया है। अथर्ववेद के 'छान्दोग्योपनिषद' में कहा गया है कि कुरु
जनपद में कभी-कभी भी ओले नहीं पड़े और न ही टिड्डियों के उपद्रव के कारण अकाल
पड़ा। कुरु कुल का इतिहास महाभारत यु़द्ध के नाम से विख्यात है। उत्तर
वैदिक काल में त्रिककुद, कैञ्ज तथा मैनाम
(हिमालय क्षेत्र में स्थित) पर्वतों का उल्लेख भी मिलता है।
विवाह-
इस काल में जाति-प्रथा
के उद्भव के साथ ही कई सामाजिक मानदंड प्रकट हो गई। एक ही गौत्र के सदस्यों
के विवाह पर रोक लगा दी गई और यह बात विशेष तौर पर ब्राह्मण वर्ग पर लागू हुई, जो अब एक असगौत्रीय विवाह
का सर्मथन करने वाले दलों में विभाजित हो चुका था। इस काल में सामान्यतः व्यस्क
होने पर विवाह किया जाता था और विवाह गौत्र से बाहर किया जाता था। विधवा
विवाह की अनुमति तथा बहुपत्नी विवाह भी प्रचलन में था।
मैत्रायणी संहिता में मनु
की दस पत्नियों का वर्णन है तथा एक राजा की भी चार पत्नियों का उल्लेख है। अथर्ववेद
में ऐसी कन्याओं का उल्लेख है जो अविवाहित थी और अपने माता-पिता के घर रहती थी।
परन्तु सामान्यतः अविवाहित रहने की प्रथा नही थी। अविवाहित पुरूष को यज्ञ
करने की अनुमति नहीं थी, बिना स्त्री के
उसे स्वर्ग प्राप्ति नही थी। क्योंकि पुरूष को पत्नी के बिना पूर्ण नही माना गया।
इन सबसे पता चलता है कि एक पुरूष को एक से ज्यादा पत्नी रखने का भी अधिकार था, लेकिन एक स्त्री के एक से
ज्यादा पति नही हो सकते थे। ऐतरेय ब्राह्मण में तो राजा हरीशचन्द्र
की सौ पत्नियों का उल्लेख है। लेकिन बहु-पत्नी विवाह के सन्दर्भ ज्यादातर राजाओं
तथा अन्य धार्मिक वर्ग तक ही सीमित थे। साधारणतः एक-पत्नी विवाह ही प्रचलन
में था।
मनुस्मृति में विवाह के आठ
प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जिसमें प्रथम चार
विवाह प्रशंसनीय तथा शेष चार निंदनीय माने जाते हैं-
प्रशंसनीय विवाह-
1. ब्रह्म विवाह- कन्या के वयस्क होने पर
उसके माता-पिता द्वारा योग्य वर खोजकर, उससे अपनी कन्या का विवाह करना।
2. दैव विवाह- यज्ञ करनेवाले पुरोहित
के साथ कन्या का विवाह।
3. आर्ष विवाह- कन्या के पिता द्वारा
यज्ञ कार्य हेतु एक अथवा दो गाय के बदले में अपनी कन्या का विवाह करना।
4. प्रजापत्य
विवाह- वर स्वयं कन्या
के पिता से कन्या मांगकर विवाह करता था।
निंदनीय विवाह-
5. आसुर विवाह- कन्या के पिता द्वारा धन
के बदले में कन्या का विक्रय।
6. गंधर्व विवाह- कन्या तथा पुरूष प्रेम
अथवा कामुकता के वशीभुत होकर करते थे।
7. पैशाच विवाह- सोई हुई अथवा विक्षिप्त
कन्या के साथ सहवास कर विवाह करना।
8. राक्षस विवाह- बलपूर्वक कन्या को छीनकर
उससे विवाह करना।
विवाह उत्सव दो चरणों में पूरा होता था-
पाणिग्रहण संस्कार-
जब वर-वधू एक
दूसरे के दाहिने हाथ को थाम कर यह प्रण लेते थे कि जीवन उनमें आपसी सहमति व
सामंजस्य रहेगा।
सप्तपदी संस्कार-
जब वर-वधू एक
दूसरे के साथ साथ कदम चलकर जीवन प्रयन्त साथ रहने का प्रण लेते थे।
महिलाओं का स्थिति-
इस काल में पिता
द्वारा पुत्री बेचने के भी प्रमाण है, जिन्हें अच्छा नही माना जाता था। विवाह के समय दहेज देने की
प्रथा थी। ऋग्वैदिक काल की भांति इस काल में भी वधु परिवार से मधुर संबंध
रखती थी। पत्नी शब्द का प्रयोग ब्राह्मण साहित्य में हुआ है, जो उसके अपने पति के साथ
सामाजिक एवम् धार्मिक कार्यो में समान अधिकारों का द्योतक है। शतपथ ब्राह्मण
में उसे पति की अर्धागनि भी कहा गया है। इस काल में पहले के काल की अपेक्षा स्त्री
की स्थिति में गिरावट आई। मैत्रायणी संहिता में तो स्त्री को जुआ और
शराब के साथ तीसरी बुराई के रूप में गिना गया है। इसी तरह के संदर्भ तैतिरीय
तथा काठक संहिताओं में भी मिलते हैं।
इस काल में
स्त्रियों को राजनीतिक कार्यो में भाग लेने की आज्ञा नही थी। सभाओं और
वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में वे हिस्सा नही ले सकती थी। स्त्रियों पर ऋग्वैदिक
काल की अपेक्षा ज्यादा अकुंश लगा दिए गए। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार
अच्छी स्त्री वह है जो पलट कर जवाब ना दे। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार
स्त्री को अपने पति के बाद ही भोजन करना चाहिए। इस में लड़की के जन्म पर दुःख
अभिव्यक्त किया जाने लगा तथा पुत्र कामना के लिए अनेक प्रार्थनाएं की गई। अथर्ववेद
में भी कन्या के जन्म को बुरा माना गया। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की
स्थिती बेहद खराब हुई कन्या के जन्म को कष्ट का सूचक माना जाने लगा।
इस काल के समाज
में पर्दा-प्रथा नहीं थी, अथर्ववेद असंकृता नारी के सभा में
जाने का उल्लेख करता है। इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्र वधु
का अपने श्वसुर को समक्ष ना आने का उल्लेख है जिसे हम पर्दा प्रथा नही मान
सकते। स्त्रियों के अधिकारों और उनकी स्थिति में पहले की अपेक्षा गिरावट आई। इस
काल में गार्गी और मैत्रेयी जैसी मंत्र दृष्टा स्त्रियों का वर्णन
यह दर्शाता है कि प्रारंभिक वैदिक काल में सभी संतो और ऋषियों की जो परम्परा चली
वह कुछ हद तक इस काल में भी विद्यमान थी।
सोलह संस्कार-
उत्तर वैदिक काल में जन्म से लेकर मृत्यु
तक सोलह संस्कार बनाए गए-
क्र. स. | संस्कार | विवरण |
---|---|---|
01 | गर्भाधान | सन्तान प्राप्ति के लिए गर्भाधारण |
02 | पुंसवन | गर्भ में जीव के संरक्षण व विकास के लिए |
03 | सीमान्तोन्नयन | गर्भस्थ शिशु और माता की रक्षा हेतु |
04 | जातकर्म | बालक को स्तनपान व शहद चटाना |
05 | नामकरण | शुभ नक्षत्र में बालक का नामकरण |
06 | निष्क्रमण | शुद्ध वातावरण में शिशु के भ्रमण की योजना |
07 | अन्नप्राशन | जीवन में पहले पहल बालक को अन्न खिलाना |
08 | चूड़ाकर्म | शिशु के प्रथम केशों का छेदन |
09 | कर्ण बेध | तीसरे या पांचवे वर्ष में बालक के कान का बींधना |
10 | विद्यारंभ | विद्या आरम्भ करना |
11 | उपनयन | यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण |
12 | वेदारंभ | वेदाध्ययन प्रारम्भ करना |
13 | केशांत या गोदान | बालक को शिक्षा के क्षेत्र से सामाजिक क्षेत्र में जोड़ना |
14 | समावर्तन | विद्याध्ययन समाप्त करके घर लौटना |
15 | विवाह | युवक युवती का गृहस्थ धर्म प्रवेश |
16 | अन्त्येष्टि | मृतक शरीर का दाह संस्कार |
शिक्षा-
इस काल में रचित
साहित्य यज्ञो,
बालियों इत्यादि
के मंत्रों से संबंधित है, जो श्रुति
के रूप में था। शिष्य अपने गुरू से मौखिक रूप से शिक्षा ग्रहण करते थे। अथर्ववेद
में ब्रह्मचारिन शब्द वैदिक विद्यार्थी का द्योतक है, जिसे अग्निपूजा के
लिए लड़कियां तथा गुरू के लिए भीख मांग कर भोजन लाने वाला कहा गया है। इस काल में उपनयन
संस्कार पद्धति के बाद शिक्षा शुरू की जाती थी। ब्राह्मणों के अतिरिक्त क्षत्रियों
की भी शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था।
राजा जनक न केवल वेदों
के ज्ञाता थे बल्कि उस काल ब्राह्मणों के अतिरिक्त क्षत्रियों की भी शिक्षा ग्रहण
करने का अधिकार था। राजा जनक न केवल वेदों के ज्ञाता थे बल्कि उस
काल के प्रसिद्ध दार्शनिक भी थे। तीनों उच्च वर्णो को उपनयन संस्कार
प्रणाली का अधिकार था, लेकिन शूद्र इस
अधिकार से वंचित थे। शतपथ ब्राह्मण से हमें उपनयन संस्कार
का वर्णन मिलता है। अन्य साहित्य में गुरू सेवा को धर्म माना गया है। तैतीरीय
आरण्यन में विद्यार्थियों के अन्य कार्य भी बताए गए है जैसे बारिश में ना
भागना तथा बिना वस्त्रों के स्नान ना करना आदि।
स्त्री शिक्षा-
इस काल में समाज
के बौधिक में स्त्रियां भाग लेती थी, यजुर्वेद में शिक्षित स्त्री-पुरूष के विवाह को उपयुक्त माना गया
है। अथर्ववेद में उल्लेख है कि ब्राह्मचर्य द्वारा कन्या पति
प्राप्ति करती है। इस विवरण से पता चलता है कि लड़कों की भांति कन्याएं भी ब्रह्माचर्याश्रम
में रहकर शिक्षा प्राप्त करती थी। संहिताओं और ब्राह्मण ग्रंथों में
स्त्रियों द्वारा संगीत और नत्य की शिक्षा प्राप्ति के प्रमाण मिलते है।
तांडप ब्राह्मण के अनुसार गणित, व्याकरण और काव्य इत्यादि
की शिक्षा दी जाती थी और भाषा के ज्ञान पर भी जोर दिया जाता था। शतपथ ब्राह्मण
में सामगान को स्त्रियों का विशेष कार्य बताया गया है। स्त्रियां गान-विद्या के
अतिरिक्त मंत्रों को भी समझती थी। अथर्ववेद के अनुसार वे पति के साथ यज्ञ
में सम्मिलित होती थी। इस काल के ग्रंथों से पता चलता है कि अनेक विदुषी स्त्रियां
भी थी जो वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती थी।
जनक की सभा में गार्गी
और याज्ञवल्या के वाद-विवाद का उल्लेख है। याज्ञवल्या की पत्नी मैत्रेयी
स्वयं एक विदुषी थी। इनके अतिरिक्त स्त्रियां गृहशिक्षा के प्रति भी जागरूक थी। गृहस्थ
जीवन में भोजन पकाना नारियों का विशेष कार्य था। शतपथ ब्राह्मण के एक सन्दर्भ
से प्रकट होता है कि ऊन और सूत की कताई-बुनाई का कार्य मुख्यतः स्त्रियां करती थी।
इस काल में राज्य द्वारा शिक्षा व्यवस्था की सुविधा नहीं करती थी। ब्राह्मण
ही ऊपरी तीन वर्णो के विद्यार्थियों को अपने घरों या गुरूकुलों में पढ़ाया करते
थे। इसके बदले विद्यार्थी गुरू की सेवा करते तथा फीस के रूप में गुरूदक्षिणा देते
थे। इस प्रकार की व्यवस्था में न केवल साहित्यक ज्ञान दिया जाता था बल्कि अस्त्र
शस्त्र और शारीरिक शिक्षा व नैतिक ज्ञान भी दिया जाता था।
मनोरंजन के साधन-
इस काल में वाद्य
तथा गायन दोनों तरह का संगीत प्रचलित था। सामवेद में गायन संगीत
विज्ञान का एक ग्रन्थ माना जाता था। इस बहुत से पेशेवर गायक थे जिनमें
बांसुरी वादक,
शंखवादक तथा
ढोलकिए इत्यादि शामिल हो अथर्ववेद में अघाटी नामक यंत्र का उल्लेख
है जिसे अन्य यन्त्रों के साथ नृत्य में प्रयोग किया जाता था। स्टेज और ड्रामें
का भी इस काल में प्रचलन था। सैलूश एक एक्टर तथा नृतक का रूप था। संगीत के
अतिरिक्त रथदौड़ तथा घुड़दौड इस काल के मनोरंजन के साधन थे। यज्ञ के दौरान इस
प्रकार की रथों तथा घुड़दौड़ों का आयोजन किया जाता था। जुआ खेलना भी इनके मनोरंजन
में शामिल था। यजुर्वेद में नटों का भी उल्लेख मिलता है।
खान-पान-
इस काल में शाकाहारी
तथा मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन का उल्लेख है। अपूप चावल या जौं
की घी मिश्रित रोटी थी। ओदन काल में थे। राजसूय खिचड़ी या दलिया था, जिस दूध के साथ सेवन किया
जाता था। यवागु जौं से बना भोजन था, करम्य एक प्रकार का अनाज का दलिया था। सेतु खाने की
जानकारी भी इस काल के लोगों को थी। दूध से निर्मित वस्तुओं में पनीर, दही, ताजा मक्खन तथा एक प्रकार
के पेय जो फटे दूध में ताजा दूध मिलाकर बनाया जाता था जिसे पयस्थ कहा जाता
था।
इस काल में
मांसाहारी भोजन काफी लोकप्रिय था। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि
अतिथि को बैल या बकरी का मीट खिलाना चाहिए। सूरा एक प्रकार
का नशीला पेय था जिसे समारोह के दौरान पीया जाता था। अथर्ववेद में इसे
झगड़ों की जड़ तथा अच्छे लोगों को जुआ खेलने की आरे ले जाने के अर्थो में प्रयुक्त
किया गया है। विशेष अवसरों के लिए एक विशेष प्रकार की सुरा सौत्रामणी
का वर्णन है, जो अनाज और पौधों के
मिश्रण से बनाई जाती थी। यजुर्वेद में मासर नामक एक पेय का उल्लेख
है जो चावल और भुने जौ से बनता था। इस काल में शहद का भी सेवन किया जाता था, लेकिन कुछ अवसरों पर इसका
सेवन विद्यार्थियों और स्त्रियों के लिए वर्जित था।
उत्तरवैदिक अर्थव्यवस्था (Later Vedic Economy)
उतर वैदिक काल में उत्पादन की ओर झुकाव
की स्थिति स्पष्ट सामने आई, जिसमें खेती
आजीविका का मुख्य साधन हो गई और धीरे-धीरे भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व की भावना
मजबूत हो गयी।
कृषि-
अथर्ववेद, वाजसेनिय, मैत्रयवी, तैतिरीय तथा काष्ठ संहिता
और शतपद ब्राह्मण में खेती के विभिन्न कार्यों से संबंधित अनुष्ठानों और हल द्वारा
जुताई का विस्तत विवरण दिया गया है। 6,8,12 और 24 बैलों द्वारा जुताई से पता चलता
है कि हलों से गहरी जुताई की जाती थी। यद्यपि यह सन्दर्भ इसी रूप में हम न लें तो
भी यह स्पष्ट है कि कृषि विस्तत और गहन दोनों तरह से की जाती थी। बैलों पर जूलों
की सहायता से हल जोता जाता था। हल संभवतः लकड़ी के थे। जिनके नाम उदम्बर या खदीरा
थे। हलों में लोहे के फाल का प्रयोग पहले की अपेक्षा अधिक प्रभावकारी था। खेती के
बढ़ते महत्व के कारण उतरी मैदानों को लोहे की कुल्हाड़ी एवम् अग्नि की सहायता से
साफ किया गया और गंगा-यमुना दोआब का क्षेत्र कृषि के लिए अत्याधिक उपर्युक्त था।
इस काल की
साहित्यिक संहिता (शतपथ ब्राह्मण) में कृषि कर्म पर एक पूरा
अध्याय लिखा गया है जिसमें इस बात का वर्णन है कि बीजों की बुवाई कितनी गहरी और
किस प्रकार करनी चाहिए। कृषि की उपज बढ़ाने के लिए पशुओं से प्राप्त खाद का उल्लेख
अथर्ववेद में है। शकृत् (गोबर), करीश (उपले) इत्यादि का उल्लेख साहित्य में यदा-कदा मिलता है।
हल चलाने वाले के लिए कीनाश शब्द का उल्लेख हुआ हैं। शतपथ ब्राह्मण
में कृषि संबंधी कई कार्यों का उल्लेख है जैसे हल जोतना, बीज बोना, फसल काटना, दाने अलग करना इत्यादि
पकी हुई फसल को दराती से काटा जाता था। तैंतरीय संहिता में वर्णन है कि जौ
सर्दियों में बोए जाते थे और गर्मियों में पकाई के बाद उनकी कटाई की जाती थी। चावल
बरसात के दिनों में खेतों में बोए जाते थे तथा बीन और तथा तेल वाले पौधे गर्मियों
में बोए जाते थे जो सर्दियों में पकते थे।
अथर्ववेद में सिंचाई के लिए नई
नालियाँ और नहरें खेदने का वर्णन है, तथा फसलों की विभिन्न बीमारियों से छुटकारा पाने के लिए
बनेक मंत्र दिए गए है। देवताओं से कृषि में समद्धि, अच्छी फसल और धन की वद्धि के लिए अनेक प्रार्थनाए की गई है।
यव(जौ) के अतिरिक्त गेहूँ इस काल की मुख्य फसल थी। व्रीही (चावल) का
उल्लेख पहली बार हुआ है। दो प्रकार के धान व्राक्रि तथा तण्डुत का
वर्णन है। यजुर्वेद में उडद (माष), मूंग और मसूर की दालों का उल्लेख है इनके अतिरिक्त तिल और
सरसों की भी खेती के प्रमाण मिलते है। कृषि कार्यों में वद्धि होने से पूर्ववर्ती पशुपालन
युग की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी, क्योकिं वह बढ़ती हुई जनसंख्या के भोजन को पूरा करने
में असमर्थ थी।
पशुपालन-
पशुपालन भी कृषि-कर्म के
साथ-साथ होता था। अथर्ववेद में गाय के प्रति आदर भाव का उल्लेख है
तथा बलि वेदी के बाहर गाय को मारने पर मृत्युदण्ड दिया जाता था, इस तरह इस काल में गाय
की पवित्रता शुरु हुई और गाय को अदिति या धरती माँ के
समान माना जाने लगा। शतपथ ब्राह्मण में एक स्थान पर स्पष्अ
उल्लेख है कि गाय और बैल पृथ्वी का धारण करते है अतः उनका मांस न खाया जाए। अथर्ववेद
में एक स्थान पर गाय, बैल और घेड़ों की
प्राप्ति के लिए राजा इन्द्र को प्रार्थना करते हुए दिखाया गया है। इन पशुओं के
अतिरिक्त भैंस,
भेड़, बकरी, सूअर इत्यादि का उल्लेख
है। अथर्ववेद में हाथी का भी उल्लेख है। गाड़ी खींचने के लिए
कभी-कभी गधों को भी प्रयोग किया जाता था जैसा कि ऐतरेय ब्राह्मण
में अश्विन की गाड़ी को गधे को द्वारा खींचना दर्शाता है। ऊँट गाड़ी के प्रमाण
मिलते है। मछली एवम् मुर्गा पालन व्यवसाय भी था, इन्हें भोजन के रूप में
भी प्रयुक्त किया जाता था।
उद्योग-धन्धे (Business)
कृषि क्षेत्र में विस्तार, जीवन में स्थायीत्व और
क्षेत्रीय राज्यों के उदय ने कला-कौशल के क्षेत्र को प्रभावित किया और अनेक
शिल्पों को जन्म दिया। संभवतः इस का सबसे महत्वपूर्ण लाहे का उपयोग है। अथर्ववेद
में लोहे के लिए श्याम अयस शब्द का उल्लेख हुआ है तथा फसल काटने की
दरांती, लोहे के औजार जैसे तीर और
भलों की नोकें,
चाकू, कुल्हाड़ी, कांटे तथा एक फाल वाले हल
इत्यादि विस्तृत पैमाने पर मिलते थे। लोहे के अतिरिक्त टीन, सीसा तथा तांबे का भी
व्यापक पैमाने पर प्रयोग होता था। अर्थात इस काल में उन्हें अनेक धातुओं का ज्ञान
था और उन्हें पिघलाने की कला से परिचित थे। धातुशिल्प के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर
हस्तशिल्पियों के बारे में जानकारी मिलती है। धातुकर्मियों (सोना, चोदी, तांबा और लोहे का काम
करने वाले) के अतिरिक्त बढ़ई, लौहार, मणिकार, रथकार, ज्योतिष, कुम्हार, सुराकार, नाई, धोबी, चर्मकार, कसाई, रंगारेज, मछुआरा तथा वास्तुकार आदि
अनेक शिल्प/व्यवसायों की जानकारी मिलती है। इस प्रकार पहले के चरण की अपेक्षा
उतरवैदिक काल में शिल्पों की विशेषज्ञता पर विशेष जोर दिया गया।
इस काल में जाति
प्रथा के आधार पर अलग-अलग वर्गों के अलग-अलग कार्य बंटे हुए थे, जैसे कृषि एवम् पशुपालन
का कार्य वैश्यों के हाथों में था, पठन–पाठन, यज्ञ आदि ब्राह्मण, युद्ध एवम् राजम्य
संबंधी कार्य क्षत्रिय और सेवा दास का कार्य चौथे वर्ग शुद्र के
हाथों में था। परन्तु यह विभाजन इस काल में वंशानुपात अभी भी नही हुआ था, कभी-कभी एक वर्ग/जाति के
लोग दूसरा कार्य भी अपना लेते थे। वाजसेनिय तथा तैत्रिरीय संहिता
में पुरूषमेघ के उपलक्ष में विस्तत वर्णन है। जिससे हमें विशेष प्रकार के
द्वारपालों, रथकारों, अनुचरों, ढोल बजाने वालों, बूचड़, ज्योतिष इत्यादि का
उल्लेख है। बढ़ई (तक्षण), चटाई बनाने वाले, पक्षी उड़ाने वाले, पशु चराने वाले, टोकरी बनाने एवम् कढ़ाई
करने वाली स्त्रियाँ, सुरा बनाने वाले, हाथी पालक और स्वर्णकार
इत्यादि का वर्णन है। अन्य व्यवसायों में नाविक, सूद पर पैसा देने वाले, धोबी (मलाग), कुम्हार, खाना बनाने वाला, दूत, रथों के साथ दौड़ने वालों
का भी वर्णन है।
उतर वैदिक काल में सोने
का उल्लेख काफी मिलता है। आर्य हिरण्य को पवित्र मानते थे। अथर्ववेद
तथा संहिताओं में सोने के गहनों का विस्तत वर्णन है। वस्त्र-निर्माण का कार्य भी
बड़े पैमाने पर होता था। कपास का स्पष्ट उल्लेख नही मिलता लेकिन ऊन
(ऊर्णा) तथा शण (सन्) का प्रयोग वस्त्र और बोरियां बनाने के लिए किया जाता
था। ब्राह्मचारी एवम् तपस्वी खाल और धर्म के वस्त्र धारण करते थे। शतपथ ब्राह्मण
में उल्लेख है कि सूत कातने का कार्य स्त्रियाँ करती थी। करघे के लिए वेमन' शब्द का उल्लेख हुआ है।
वस्त्र बुनने वाली स्त्री को वयत्री कहा जाता था, वस्त्रों पर कढ़ाई का
कार्य पेशस्कारी स्त्रियाँ करती थी।
अनेक शिल्पों के
प्रसार से व्यापार और वाणिज्य का विकास हुआ और पहले की विनिमय और पूनर्वितरण की
पद्धति में भी परिवर्तन हुआ और व्यापार में विकास हुआ। इस काल के ब्राह्मण साहित्य
और संहिताओं में 'वाणिज' शब्द का उल्लेख हुआ है
जिसका अर्थ व्यापारी था। अथर्ववेद के अनुसार देश के व्यापारी
साम्रगी लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे। साहित्य में (श्रेष्ठिन) अमीर
वैश्यों का वर्णन है, जिन्होंने
व्यापार और कृषि कर्म द्वारा संपति एकत्रित की थी। व्यापार सामान्यतः विनिमय
पद्धति पर आधारित था तथा गाय भी विनिमय का साधन थी। लेकिन निष्क, शतनाम, कृष्णता पाद नामक सिक्कों
के प्रचलन की जानकारी मिलती है। विद्वान इन्हे मुद्रा के रूप में लेते है, परन्तु यह सभी व्यापार
में माध्यम के रूप में प्रयुक्त होते थे। ब्याज देना भी इस काल का एक व्यवसाय था। शतपथ
ब्राह्मण में कुसीदिन का उल्लेख ब्याज देने वाले तथा तैंतरीय संहिता में कुसीद
ब्याज लेने वालों के लिए प्रयुक्त हुआ है। लेकिन ब्याज दर का उल्लेख नही मिलता।
व्यापारियों का
व्यवसाय वंशानुगत था जो कि हमें वणिज शब्द (जिसका अर्थ वाणिज का
पुत्र था) के प्रयोग से मिलता है। व्यापारियों में चीजों के भाव पर वाद-विवाद आम
बात थी। इस काल में समुन्द्री व्यापार का स्पष्ट वर्णन मिलता है। वस्तुएँ एक स्थान
से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए बैलों एवम् घोड़ों की गाड़ियों का प्रयोग किया
जाता था। विपथ'
शक का प्रयोग
बुरे रास्तों के लिए प्रयुक्त हुआ है जिससे हम सड़कों या रास्तों का अन्दाजा लगा
सकते है। किश्ती तथा जहाज नदी और समुंद्र पार सामान ले जाने के लिए प्रयुक्त किए
जाते थे। छठी शताब्दी ई०पू० में मध्य भारत में कौंशाबी, अहिधात्र, विदेह, काशी, वाराणसी और हस्तिनापुर से
पुरातत्व के अभिलेखों से प्रमाणित होता है कि नगरीय व्यवस्था की शुरुआत हो चुकी थी, जो शिल्प-निर्माण का
केन्द्र हाने के साथ-साथ राजनीतिक केन्द्र भी रहे होगें, जो निश्चय ही बढ़ती हुई
सामाजिक आर्थिक असामानताओं को दर्शातें है।
ऋण-
इनकी संख्या तीन
थीं- (1) पितृ ऋण, (2) ऋषि ऋण तथा (3) देव ऋण।
1. पितृ ऋण- संतान उत्पन्न कर
व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
2. ऋषि ऋण- अपने पुत्र को शिक्षित
कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
3. देव ऋण- धार्मिक अनुष्ठान एवं
यज्ञ आदि कर व्यक्ति इस ऋण से मुक्त होता था।
प्रत्येक व्यक्ति
को तीन ऋणों से छुटकारा पाना होता था। इन ऋणों से छुटकारा पाने पर ही व्यक्ति का
जीवन सफल माना जाता था।
उतर वैदिक कालीन धर्म (Religions Condition of Later Vedic Period)
इस काल में हुए
सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के कारण उत्तर वैदिक काल में
भी परिवर्तन हुए। इस काल में एक तो ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित एवम् पोषित यज्ञ
अनुष्ठान एवम् कर्मकांडीय व्यवस्था थी, तो दूसरी तरफ इसके खिलाफ उठाई गई उपनिषदों की आवाज।
इस काल में यज्ञों का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ और इस काल के प्रमुख देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश थे
क्योकिं ये लोगों की उत्पति और उनके पालन-पोषण के लिए जिम्मेदार थे। हांलाकि
ब्राह्मण का इस काल में उतपादन व्यवस्था में कोई भूमिका नही थी, इसलिए समाज में अपनी
प्रतिष्ठा बढाने के लिए पुरोहित और क्षत्रिय वर्ग ने बड़े-बड़े यज्ञ
करने शुरु कर दिए जैसे- राजसूय, वाजपेय और
अश्वमेघ आदि। जिस प्रकार के कर्मकाण्ड इस काल में उभरें, उनमें ब्राह्मणों का
स्वार्थ निहित था। यज्ञों का जन कल्याणकारी अर्थात कृषि उत्पादन बढ़ाने वाले तथा
मोक्ष को प्राप्त करने का साधन माना जाने लगा। लेकिन यज्ञों के अवसर पर बलि
प्रथा में आई तेजी के कारण लोगों में असंतोष के स्पष्ट प्रमाण उभरने लगे
थे। इस फैले असंतोष को कम करने का कार्य उपनिषदों ने किया, जिन्होंने धर्म को सरल
शैली से जोड़ कर्मकाण्डों का खण्डन किया।
उत्तर वैदिक कालीन यज्ञ-
उत्तर वैदिक काल
में यज्ञ मात्र उद्देश्य पूर्ति का साधन नही थे बल्कि यज्ञों के
जरिए ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग के लोग समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने और
अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को मजबूत करने लगे। इस काल में यज्ञों को बढ़ावा
देने में शासकों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन कर राजा जनता पर अपनी सत्ता
की वैधता स्थापित करने का प्रयास करता था। ब्राह्मण इन यज्ञों के माध्यम से राजा
में दैवीय गुणों का आरोपन करता था। जिसके बदले में राजा पुरोहितों को राजसम्मान और
धन-सम्पदा देता था। ऐसे धार्मिक अनुष्ठान राजा के लिए भी महत्वपूर्ण थे। वस्तुतः
ये सारी बातें राजा के पद को वैधता प्रदान करने के लिए ही थी। इस काल की प्रसिद्ध
रचना यजुर्वेद, से हमें यज्ञों
की विधि और नियमों की विस्तृत जानकारी मिलती है। इस काल में सम्पन्न हुए धार्मिक
अनुष्ठान पहले के काल की अपेक्षा अधिक पेचिदा और खर्चीले हो गए थे। इस काल के तीन
प्रमुख यज्ञ थे- राजसूय, वाजपेय, तथा अश्वमेघ आदि।
1. राजसूय यज्ञ- उत्तर वैदिक
काल में होने वाले राजसूय यज्ञ का सम्बन्ध राजा के राज्यारोहण से
था। जो कि प्रतिवर्ष चलता रहता था। इस यज्ञ के अवसर पर ही राजा की घोषणा की जाती
थी और इसमें कई आनुषंगिक कर्मकांड हुआ करते थे। इस तरह ये बहुत खर्चीले होते थे
क्योंकि प्रत्येक क्रिया की दक्षिणा देनी पड़ती थी। इस यज्ञ में पूरे वर्ष चलने
वाले अनुष्ठानों का अंत ऐसे यज्ञ से होता था, जिसकी अध्यक्षता 'इन्द्रशुनासीर' अर्थात् हलयुक्त इन्द्र करता था और जिसका उद्देश्य पस्त
प्रजनन शक्ति का पुनः जागत करना होता था।
2. वाजपेय यज्ञ- दूसरा
महत्वपूर्ण यज्ञ वाजपेय था, जो सत्रह दिन से एक वर्ष की अवधि तक चलता था। राजा इस यज्ञ
का आयोजन राजसूय यज्ञ के बाद करता था इस यज्ञ का लक्ष्य था, राज्य और शासक की समद्धि
। इस यज्ञ में रथों की दौड़ होती थी, जो एक प्रथा थी। इसका उपयोग शारीरिक शक्ति के आधार पर शासक
का चुनाव करने के लिए किया जाता था। इस यज्ञ के दौरान जिन लगभग एक दर्जन रत्निनों
के घर राजा जाता था, उनमें से चार
स्त्रियां होती थी। यह इस बात की संकेत करता है कि अनार्य जातियों के
मातकुलीय रिवाजों को नजरअंदाज नही किया गया था। इस प्रकार कर्मकांडो ने बहतर समुदाय
के संगठन में सहयोग दिया।
3. अश्वमेघ यज्ञ-
अश्वमेघ यज्ञ
के लिए एक वर्ष पूर्व तैयारियां शुरू की जाती थी राजा के चक्रवर्ती
होने के लिए किया जाने वाला यज्ञ यह एक वर्ष तक चलता था राजा के साथ उसकी पत्नी का
बैठना अनिवार्य था। इस यज्ञ में एक घोड़ा छोड़ा जाता था यह घोड़ा जिन जिन क्षेत्रों से होकर गुजरता था वह सारे
क्षेत्र राजा के अधीन हो जाते थे। यज्ञ समाप्ति पर राजा को राजा धीराज की
उपाधि दी जाती थी। इसमें विशिष्ट लोगों की उपस्थिति के अलावा सामान्य जन भी हिस्सा लेते थे। अश्वमेघ
के अवसर पर पौराणिक गाथाओं का पाट होता था। अश्वमेघ यज्ञ का
एक उद्देश्सय शासक के प्रभुत्व को कायम रखना भी था। उपयुक्त यज्ञों की
महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इनमें कृषि उत्पादन में वद्धि के लिए भी अनुष्ठान
होता था। जैसे वाजपेय यज्ञ तो खाद्य और पान से जुड़ा था और राजसूय यज्ञ के अंत में
ऐसी ध्वन क्रिया थी जिसका उद्देश्य भूमि की कम हुई उर्वरा शक्ति का पुन
बढ़ाना था।
विशाल यज्ञों के
अतिरिक्त अथर्ववेद में अन्य यज्ञों का भी उल्लेख है जिन्हें लोग अपने घरों
में ही विधिपूर्वक करते थे। इन यज्ञों का मुख्य उद्देश्य धन में वद्धि तथा स्वर्ग
की प्राप्ति था। यज्ञ सम्पन्न होने पर पुरोहित को दक्षिणा स्वरूप गाय, बैल, बछड़े सोना तथा अनाज आदि
दान दिया जाता था। अथर्ववेद से पता चलता है कि यज्ञ विधि पहले के काल की
अपेक्षा अधिक पेचीदा और जटिल हो गई थी और इनमें रहस्यवाद का भी समावेश हो गया था। ब्राह्मण
इस काल में मनुष्यों और देवताओं के बीच मध्यस्थ बन गया, जो उनकी प्रार्थनाएं
देवताओं तक पहुंचाने का कार्य करता था। इसलिए समाज में ब्राह्मण वर्ग का वर्चस्व
कायम हो गया, क्योंकि कोई भी यज्ञ उनके
बिना सम्पन्न नहीं हो सकता था। हांलाकि ब्राह्मणों के बढ़ते प्रभुत्व के खिलाफ
प्रतिक्रिया उपनिषदों में शुरू हो गई थी।
अन्य महत्त्वपूर्ण यज्ञ-
अग्निष्ठोम यज्ञ- इस यज्ञ में सोमरस पीसा
जाता था तथा अग्नि को पशु बलि दी जाती थी इस यज्ञ से पूर्व व बाद में यह यज्ञिक व
उसकी पत्नी को एक वर्ष तक का सात्विक जीवन व्यतीत करना होता था।
(सोमरस का उल्लेख ऋग्वेद के नौ मंडलों में मिलता है यह विशेष प्रकार की जड़ी बूटियों
से निर्मित होता था यह देवताओं का सबसे प्रिय पेय पदार्थ था।)
पुरुष मेध यज्ञ- इससे यज्ञ में पुरुष की
बलि दी जाती थी तथा 25 यूपो (यज्ञिक
स्तंभ) का प्रयोग किया जाता था।
पुत्रेष्ठि यज्ञ- पुत्र की प्राप्ति हेतु
किया जाने वाला यज्ञ।
किरिरिष्ठ यज्ञ- अकाल के समय में वर्ष
हेतु किया जाने वाला यज्ञ।
गृहस्थ आर्यों
द्वारा किए जाने वाले यज्ञ
ब्रह्मयज्ञ (ऋषि
यज्ञ)- अध्ययन अध्यापन
द्वारा ब्रह्मा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने हेतु।
देवयज्ञ- हवन द्वारा देवताओं की
पूजा अर्चना।
पितृयज्ञ- पितरों को जल एवं भोजन
के द्वारा तर्पण देना।
मनुष्य यज्ञ- अतिथि संस्कार के द्वारा
किया जाने वाला यज्ञ
भूत यज्ञ- समस्त जीवों के प्रति
कृतज्ञता प्रकट करना।
उत्तर वैदिक
कालीन धर्म की दूसरी
धारा उपनिषदीय अद्वैत सिंद्धात में स्पष्ट होती है। उस काल में यह
ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड पर एक गहरा आघात था। उपनिषदीय विचारकों में नए रूप
से सिंद्धातों का प्रतिपादन किया। जिनमें कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष मुख्य थे। पुरोहितों की कर्मकाण्ड पर
आधारित व्यवस्था के विरोध का मुख्य कारण विस्तृत पैमाने पर होने वाली कृषि थी, क्योंकि यज्ञों में
पशुबलि से कृषि को काफी नुकसान पहुंचता था। यज्ञ प्रक्रिया चूंकि काफी खर्चीली हो
गई थी जो आम आदमी की पहुंच से बाहर थी इसलिए इस धार्मिक प्रक्रिया के खिलाफ आवाज
उठनी शुरू हुई और यज्ञापि कर्मकाण्डों के खिलाफ पांचाल, विदेह और पूर्वी भारत में
जबरदस्त प्रतिक्रिया भी हुई थी।
अथर्ववेद से स्पष्ट प्रमाण है कि
धर्म में स्थानीय लोक परम्पराओं और विश्वासों का समावेश किया गया। जैसे विभिन्न
बिमारियों में वद्धि और उन्हें दूर करने के लिए अथर्ववेद में मंत्र है, अपने शत्रु का नाश करने
तथा स्वयं लाभ की प्राप्ति के लिए अलग-2 मंत्र थे। इस काल में प्रचलित विश्वासों
और अंधविश्वासों को भी धर्म में शामिल किया गया। देवताओं का इस काल में लौकिकरण
किया गया और सामान्य जनता के साथ इस काल के देवताओं को जोड़ा गया। जैसे सूर्य
देवता इस काल में भूत-प्रेत भगाता था और पूषण जो ऋग्वैदिक काल मे कृषि का देवता था, इस काल में सौहाद्य की स्थापना
और बच्चों के सुरक्षित जन्म के लिए पूजा जाने लगा।
मृत्यु की चर्चा सर्वप्रथम ‘शतपथ ब्राह्मण’ तथा मोक्ष की चर्चा
सर्वप्रथम उपनिषद में मिलती है। परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा
गया। पुनर्जन्म की अवधारणा बृहदाण्यक उपनिषद में मिलती है। शतपथ ब्राह्मण
में ही सर्वप्रथम स्त्रियों को अर्द्धांगिनी कहा गया है। उपनिषदों में
स्पष्टतः यज्ञों तथा कर्मकाण्डों की निंदा की गई है तथा ब्रह्म की एक मात्र सत्ता
स्वीकार की गई है। छांदोग्य उपनिषद में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख मिलता
है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ। परन्तु बाद में जाबालोपनिषद
में सर्वप्रथम चारों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास)
का उल्लेख मिलता है।
इस काल में मूर्ति पूजा के आरंभ होने का आभास मिलता है। इस काल में प्रत्येक वेद के अपने पुरोहित हो गए-
वेद | पुरोहित |
---|---|
ऋग्वेद | होतृ |
सामवेद | उद्गाता |
यजुर्वेद | अध्वर्यु |
अथर्ववेद | ब्रह्म |
उत्तर वैदिक काल में ही बहुदेववाद, वासुदेव संप्रदाय एवं षड्दर्शनों
(सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत) का बीजारोपण हुआ। मीमांसा को ‘पूर्व मीमांसा’ एवं वेदांत को ‘उत्तर मीमांसा’ के नाम से जाना जाता है।
प्रमुख दर्शन एवं
उनके प्रवर्तक-
दर्शन | प्रवर्तक |
---|---|
चार्वाक | चार्वाक /बृहस्पति |
योग | पतंजति (योगसूत्र) |
सांख्य | कपिल |
न्याय | गौतम |
पूर्व मीमांसा | जैमिनी |
उत्तर मीमांसा | बादरायण |
वैशेषिक | कणाद या उलूक |
स्पष्ट है कि उत्तर
वैदिक काल मे अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे। यह कृषि विस्तार, सामाजिक विभेदीकरण, राजतंत्र के उद्भव तथा
धार्मिक विश्वासों और कृत्यों में परिवर्तन से प्रमाणित होता है। यह वह काल था जब
उत्तरी भारत में इतिहास में आगे और भी विकास की नींव डाली गयी थी, जो ईसा पूर्व छठी शताब्दी
से स्पष्ट होती है।
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