क्षेत्रवाद का अर्थ
क्षेत्रवाद का अर्थ, एक राष्ट्र में अथवा राष्ट्र
के किसी एक भाग में उस छोटे से क्षेत्र से है जो सामाजिक, भौगोलिक, आर्थिक, भाषायी, सांस्कृतिक
आदि कारणों से अपने पृथक् अस्तित्व के लिए जागरूक है।
दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि क्षेत्रवाद का आशय किसी राष्ट्र के उस क्षेत्र के लोगों की उस प्रवृत्ति या भावना या प्रयासों से है जिसके माध्यम से वे अपने क्षेत्र विशेष के आर्थिक, सामाजिक ढाँचे में सुधार लाना चाहते हैं, यही भावना या प्रयास आगे चलकर पृथकत्व की भावना को जन्म देती है।
भारतीय सन्दर्भ में क्षेत्रवाद का तात्पर्य है, राष्ट्र
की अपेक्षा किसी क्षेत्र अथवा राज्य विशेष के प्रति अधिक लगाव तथा निष्ठा दिखाना।
यह क्षेत्र विशेष के प्रति विशेष निष्ठा ही कभी-कभी भारत की एकता के लिए खतरा बनती
रहती है, क्योंकि इसका ध्येय संकुचित क्षेत्रीय स्वार्थों की पूर्ति होता है।
भारत में क्षेत्रवाद
क्षेत्रवाद आज भारत के राजनीतिक एवं
सामाजिक जीवन में अत्यन्त व्यापक घटना है और निकट भविष्य में भारतीय राजनीति
में इस प्रवृत्ति से मुक्ति के कोई चिह्न नहीं दिखाई दे रहे हैं। डॉ. श्रीराम
माहेश्वरी के शब्दों में, "क्षेत्र एक प्रकार से
समाजशास्त्रीय अवधारणा है, जिसे विविध साम्प्रदायिक हितों की अभिव्यक्ति की धुरी कहा जा सकता
है।"
कई बार क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति अत्यन्त गम्भीर रूप
धारण कर लेती है और इसका प्रयोग पृथकतावादी अथवा देश के अहित में किया जाने
लगता है। नागालैण्ड और मिजोरम दोनों क्षेत्रों में अलग होने के आन्दोलन, गोरखालैण्ड
की माँग का आन्दोलन,
असम में बोड़ो आन्दोलन, पंजाब में खालिस्तान की माँग
और आतंकवाद की भयानकता,
जम्मू-कश्मीर में समय-समय पर लगने वाले स्वतंत्रता के नारे आदि
क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति का विकृत रूप हैं, जो अहितकर हैं, लेकिन
सामान्य रूप से क्षेत्रवाद की भावना एवं प्रक्रिया पृथकतावाद से अलग है। इसका
वास्तविक सम्बन्ध क्षेत्र-विशेष (समुदाय विशेष) के लिए आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त
करने के लिए दबाव डालने से है।
भारत में क्षेत्रवाद के कारण
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद के
प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
(1) भौगोलिक कारण-
भौगोलिक दृष्टि से भारत में
कई राज्य आज भी बहुत बड़े हैं। इन बड़े राज्यों में, जैसे- उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, राजस्थान
में कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं जो भौगोलिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण
इकाई बन सकते हैं। राजस्थान में मारवाड़ और मेवाड़ का क्षेत्र, आन्ध्रप्रदेश
में तेलंगाना का क्षेत्र आदि को पृथक् राज्य का दर्जा दिया जा सकता है। इसलिए इन
क्षेत्रों में पृथक् राज्य बनाने की माँग उठती रहती है।
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद |
(2) ऐतिहासिक कारण-
राज्य पुनर्गठन के बाद कई पुरानी रियासतों को राज्यों में
मिला दिया गया था। आज भी इन रियासतों के लोग यह महसूस करते हैं कि यदि उनकी रियासत
का ही पृथक् राज्य होता तो वे अधिक लाभ की स्थिति में होते। केवल ऐतिहासिक
सम्बन्धों के आधार पर ही पुराने क्षेत्रों की चर्चा की जाती है।
(3) सांस्कृतिक कारक-
कुछ राज्यों में कई भाषाभाषी एवं संस्कृति के
लोग रहते हैं। वे अपनी भाषा और संस्कृति के आधार पर कुछ क्षेत्र पर अपनी
विशेष स्थिति की माँग करते रहते हैं।
(4) आर्थिक कारण-
भारत के कुछ राज्यों के कुछ क्षेत्रों में अधिक आर्थिक
विकास हुआ है और कुछ क्षेत्र पिछड़ गये हैं। इससे इन पिछड़े क्षेत्रों में
असन्तोष व्याप्त है। इस असन्तोष से क्षेत्रवाद की भावना का विकास
हुआ है। तेलंगाना तथा विदर्भ क्षेत्रों के लिए पृथक् राज्य की माँग के पीछे यही
प्रमुख कारण है।
(5) भाषा-
उत्तर तथा दक्षिण की भाषा एक-दूसरे से भिन्न रही है। भाषा
को राजनीतिक हथियार बनाकर क्षेत्रीयतावाद को बढ़ावा दिया गया। भाषा के
प्रश्न को लेकर अनेक राज्यों का निर्माण हुआ तथा उत्तर व दक्षिण के राज्यों में हिंसात्मक
आन्दोलन हुए।
(6) जाति-
जाति के आधार पर भी क्षेत्रीयता
की प्रवृत्ति बढ़ी है। जिन क्षेत्रों में किसी एक जाति की प्रधानता रही, वहाँ
क्षेत्रवाद की उग्र प्रवृत्ति दिखाई देती है। हरियाणा और महाराष्ट्र में
क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति में जाति एक प्रभावी कारक है।
रजनी कोठारी के अनुसार, "जाति व्यवस्था क्षेत्रवाद के लिए अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण तत्त्व न होते
हुए भी जहाँ यह आर्थिक हितों (जैसे महाराष्ट्र में मराठा जाति), भाषायी
समुदायों जैसे (तमिलनाडु में तमिल भाषी एवं गैर ब्राह्मण जातियाँ) और धर्म (पंजाब
में सिक्ख एवं जाट) के साथ जुड़ी हो वहाँ क्षेत्रवाद को प्रबल बनाने में सहायक
सिद्ध होती है।"
(7) विवधिता या
अनेकता-
भारत में अनेक जातियों, उपजातियों, थर्मों
इत्यादि के लोग निवास करते हैं। भारत न केवल धार्मिक एवं जातीय आधार पर विभिन्नता
लिए हुए है बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक
आदि आधार पर विविधता युक्त है। यही विविधता क्षेत्रवाद की भावना को विकसित
करती है। भारत के विभिन्न राज्यों पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट रूप से दिखाई देता है
कि यहाँ विविधताओं ने क्षेत्रवाद की भावना को विकसित किया है।
(8) राजनीतिक कारण-
राजनीतिज्ञ यह सोचते हैं कि यदि पृथक
राज्य बन जायेंगे तो उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति आसानी से हो
सकेगी। आज की परिस्थितियों में क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने में यह प्रमुख
कारण बना हुआ है।
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद का प्रभाव
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद
के प्रभाव को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-
(1) पूर्ण या पृथक्
राज्यत्व की माँग-
भारत में क्षेत्रीयता की प्रवृत्ति की एक पृथक्
भूमिका पृथक् राज्यत्व की माँग की जा रही है जिसके कारण आन्दोलनों के द्वारा
महाराष्ट्र, गुजरात तथा पंजाबी सूबे के पृथक् राज्यों का निर्माण हुआ। असम की गारो, खासी, जेन्तिया
जातियों के पृथक् राजत्व की माँग पर जनवरी, 1972 में मेघालय राज्य
की स्थापना हुई। इसी प्रकार 1970 में हिमाचल प्रदेश और 1972 में त्रिपुरा और
मणिपुर तथा मिजोरम प्रदेश और अरुणाचल प्रदेशों की पूर्ण राज्यत्व की माँग के
आन्दोलन चले और जिन्हें स्वीकार कर लिया गया।
अतः स्पष्ट है कि भारत में विभिन्न जातियाँ राजनीतिक सत्ता
में हिस्सेदारी प्राप्त करने तथा क्षेत्रीय आर्थिक विकास को मद्देनजर रखकर
क्षेत्रीयता का आन्दोलन करती रही हैं और उद्देश्य की पूर्ति के साथ राष्ट्रीय
विकास की धारा में समाहित होती रही हैं। उत्तराखण्ड, झारखण्ड और छत्तीसगढ़
राज्यों का निर्माण- 1996 से उत्तराखण्ड, बोडोलैण्ड, गोरखालैंड, बुन्देलखण्ड, छत्तीसगढ़, विदर्भ
राज्य, झारखण्ड तथा तेलंगाना राज्यों के निर्माण की माँग की जा रही है। नवम्बर, 2000
में झारखण्ड,
छत्तीसगढ़ तथा उत्तराखण्ड एवं
जून 2014 में तेलंगाना नामक चार नये राज्यों का निर्माण किया जा चुका है।
(2) अन्तर्राज्यीय
विवाद-
दबाव की प्रक्रिया की भूमिका में क्षेत्रीयता का एक
अन्य रूप अन्तर्राज्यीय विवादों के रूप में सामने आया है। महाराष्ट्र और मैसूर
के बीच बेलगाँव और आस-पास के क्षेत्रों के बारे में विवाद है जिसके कारण अनेक बार
हिंसक आन्दोलन हो चुके हैं। चण्डीगढ़ का मामला पंजाब और हरियाणा के मध्य
उक्त मतभेद के कारण बना हुआ है। नदियों के पानी और विद्युत के सम्बन्ध में भी
राज्यों में मतभेद हैं। मध्यप्रदेश, गुजरात तथा राजस्थान के बीच
नहरी पानी के बंटवारे को लेकर विवाद, तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच
कावेरी जल वितरण का विवाद,
आन्ध्र और कर्नाटक के बीच कृष्णा विवाद प्रमुख हैं।
इन विवादों के कारण क्षेत्रीयता की संकुचित प्रवृत्ति उग्र
रूप धारण कर लेती है। कावेरी जल विवाद ने 1993-97 के वर्षों में गंभीर रूप
ले लिया था परन्तु 1998 में केन्द्र सरकार ने सभी पक्षों के साथ बातचीत कर आम
सहमति के आधार पर इस विवाद को हल कर लिया लेकिन समझौते की क्रियान्विति को लेकर
समय-समय पर मतभेदों की स्थितियाँ जन्म ले लेती हैं।
(3) क्षेत्रीयतावाद
के सन्दर्भ में भाषावाद–
संविधान ने हिन्दी को राजभाषा घोषित किया। भाषा
के आधार पर राज्यों का निर्माण एवं पुनर्गठन हुआ। दक्षिण के लोग हिन्दी भाषा का
विरोध करने लगे। भाषा के प्रश्न को लेकर उत्तर एवं दक्षिण के राज्यों में
हिंसात्मक आन्दोलन हुए और राष्ट्रीय एकता संकट में पड़ गयी।
मोरिस जोन्स के शब्दों में, "दक्षिण भारत ने हिन्दी का जोरदार विरोध किया, बंगाल
ने उससे कुछ कम विरोध किया और देश के अन्य भागों के शिक्षित वर्ग के लोगों ने
सीमित रूप से इसका विरोध किया।"
असम में भी भाषा की राजनीति असम आन्दोलन की प्रेरणा
स्रोत रही है। 1951-71 के बीच राज्य में 62 प्रतिशत लोग ही असमिया भाषा बोलते थे।
राज्य के हिन्दू जो लगभग 72 प्रतिशत है, ऐसा सोचते हैं कि असमिया
भाषा बोलते थे। राज्य के हिन्दू जो लगभग 72 प्रतिशत हैं, ऐसा
सोचते हैं कि असमिया भाषा बोलने वाले 62 प्रतिशत लोगों में 25 प्रतिशत लोग
बांग्लादेश के मुसलमान हैं। ये विदेशी पहचान बचाने के लिए असमिया भाषा बोलते हैं।
असम के मूल लोगों की माँग है कि
सामान्य स्थिति होने पर ये मुसलमान अपनी मूल बंगाली भाषा बोलने लगेंगे तथा ऐसी
स्थिति में असमिया भाषा-भाषियों की संख्या 36-37 प्रतिशत ही रह जायेगी और यहाँ
बंग्ला भाषा-भाषियों का प्रतिशत बढ़कर 45 हो जायेगा। इससे मूल असमी लोग भयभीत हो
जाते हैं।
(4) क्षेत्रवाद के
सन्दर्भ में उत्तर-दक्षिण की प्रवृत्ति-
भारत में उत्तर और दक्षिण के सन्दर्भ में सोचने की प्रवृत्ति
भी कुछ अंशों में पायी जाती है। दक्षिण के चार राज्यों तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश, केरल
और कर्नाटक में द्रविड़ भाषाएँ बोली जाती हैं। यहाँ के लोगों का सोच है कि
उत्तरी भारत के लोगों ने सदैव हर मामले में उनकी उपेक्षा की है। केन्द्रीय
मन्त्रिमण्डल,
योजना आयोग और केन्द्रीय सचिवालय में दक्षिण की अपेक्षा
उत्तर के लोग ही छाये हुए हैं। औद्योगिक विकास में भी उनकी उपेक्षा की गयी है।
दक्षिण के राज्यों ने केन्द्रीय
सरकार की भाषा नीति का डटकर विरोध किया है। वे चाहते हैं कि प्रशासन की
भाषा के रूप में हिन्दी के बजाय अंग्रेजी को चलाया जाना चाहिए। हिन्दी
को वे उत्तरी भारत की साम्राज्यवादी मनोवृत्ति का परिचायक मानते हैं ।
परन्तु 1996 से 2012 की अवधि में गठित हुई संघीय गठबन्धन सरकारों में दक्षिण के
राज्यों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने से उत्तर-दक्षिण की क्षेत्रवादी भावनाओं की
उग्रता कम हुई है।
(5) पृथक्तावादी एवं
आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहन-
यदि सत्ताधारी अपने दलीय या राजनीतिक हित की दृष्टि
से दबाव की प्रक्रिया के रूप में चल रहे क्षेत्रवादी आन्दोलन की उपेक्षा
करते हैं, उसे हिंसा या अन्य सत्ता के माध्यमों से रोकते हैं तो यह धीरे-धीरे खतरनाक चरण
की ओर मुड़कर सुलगने लगता है, जो कभी चिंगारी पाकर भड़क उठता है।
यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है, जिसे अभिशाप कहा जा सकता है।
पंजाब का खालिस्तान आन्दोलन एक ऐसी ही खतरनाक प्रवृत्ति को प्राप्त कर चुका था।
बंगाल का गोरखालैंड आन्दोलन, असम का उल्फा और बोडो आन्दोलन तथा
जम्मू-कश्मीर में बढ़ती हुई आतंकवादी प्रवृत्तियाँ इसी प्रकार के क्षेत्रवाद के
उदाहरण हैं।
(6) केन्द्र एवं
राज्यों के मध्य विवाद-
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद की
अभिव्यक्ति केन्द्र व राज्यों के बीच हुए विवादों में भी हुई है। राज्यों ने कई
बार केन्द्र के सुझावों और निर्देशों को मानने से इन्कार कर दिया और अपने स्वतन्त्र
अस्तित्व का परिचय दिया है। केन्द्र से अधिकतम वित्तीय स्रोतों को प्राप्त करने के
लिए भी राज्यों ने केन्द्र के निर्णयों को मानने से इनकार कर दिया।
(7) क्षेत्रीय
आर्थिक तनाव-
क्षेत्रीयतावाद की अभिव्यक्ति
क्षेत्रीय आर्थिक तनावों के रूप में भी हुई है। स्वतन्त्रता के बाद राजनीतिक
सत्ता के दुरुपयोग के कारण देश के समग्र विकास के ध्येय को अर्जित नहीं किया जा
सका है। उद्योग की स्थापना,
शिक्षा, रोजगार एवं संसाधनों के आवंटन की दृष्टि
से असन्तुलन के कारण देश के विविध भागों में असन्तोष उत्पन्न हुआ है। आन्ध्र
प्रदेश के तेलंगाना में आन्दोलन, देश के विविध भागों में नक्सली हिंसा, उत्तर-पूर्व
के राज्यों में पृथकतावादी आन्दोलन आदि के मूल में आर्थिक असन्तुलन के प्रश्न
निहित हैं।
अतः आर्थिक विकास की अवहेलना क्षेत्रीयता की दृष्टि से
महत्त्वपूर्ण कारक रहा है। आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार
तथा अन्य संसाधनों के लाभप्रद आवंटन के लिए वहाँ की जनता ने क्षेत्रीयता के
आधार पर आन्दोलनों का संचालन किया।
(8) भूमि पुत्र की
धारणा के रूप में क्षेत्रवाद–
भारत में क्षेत्रवाद की
एक अन्य प्रवृत्ति 'भूमि पुत्र'
की धारणा के रूप में देखी गयी है। इसका आशय यह है कि किसी
राज्य या क्षेत्र के निवासियों द्वारा उस राज्य में बसने और रोजगार प्राप्त करने
आदि के सम्बन्ध में विशेष संरक्षण की माँग की जाये। इस माँग के साथ यह बात
जुड़ी हुई है कि जब तक उस राज्य या क्षेत्र के मूल निवासियों को रोजगार प्राप्त न
हो जाये तब तक उस राज्य या क्षेत्र में बाहरी व्यक्तियों को रोजगार की सुविधा न दी
जाये। छठे दशक में महाराष्ट्र में शिवसेना ने इसे अपनाया। वर्तमान समय में
पूरा उत्तर-पूर्वी भारत इस उग्र क्षेत्रवाद की भावना से पीड़ित है। मिजोरम, अरुणाचल
प्रदेश, नागालैण्ड,
मेघालय राज्यों में प्रवेश के लिए अनुमति की आवश्यकता की
स्थिति है। यह प्रवृत्ति राष्ट्रीय एकता के लिए घातक हो सकती है। साथ ही यह
विभिन्न क्षेत्रों के आर्थिक विकास में भी बाधक है।
क्षेत्रवाद के दुष्परिणाम
क्षेत्रीयतावाद के दुष्परिणाम निम्नलिखित हैं-
(1) सद्भाव का अभाव
होना-
संघीय व्यवस्था में यदि संघ तथा राज्य परस्पर मिल-जुलकर सद्भावना
से रहते हैं,
तो मानव, प्राकृतिक तथा भौतिक साधनों का सदुपयोग
किया जा सकता है। यदि यह सद्भाव नहीं रहता तो सारी क्षमता तथा ऊर्जा संघर्ष
में ही निकल जाती है। ऐसे में विकास के रथ की गति मन्द पड़ जाती है।
(2) विभिन्न
क्षेत्रों के बीच संघर्ष और तनाव होना-
क्षेत्रवाद के कारण विभिन्न क्षेत्रों
के बीच आर्थिक,
राजनीतिक यहाँ तक कि मनोवैज्ञानिक संघर्ष और तनाव
दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक क्षेत्र अपने
स्वार्थों या हितों को सर्वोच्च स्थान दे बैठता है और उसे यह चिन्ता नहीं होती कि
उससे दूसरे क्षेत्रों को कितना नुकसान होगा।
(3) स्वार्थी
नेतृत्व व संगठन का विकास-
क्षेत्रीयतावाद के कारण अनेक ऐसे
नेतृत्व व संगठनों का विकास हो जाता है जो कि जनता की भावनाओं को उभारकर अपने संकीर्ण
स्वार्थों की पूर्ति करना चाहते हैं। इस प्रकार के नेताओं व संगठनों की न तो
क्षेत्रीय हितों और नही राष्ट्रीय हितों का तनिक भी ख्याल रहता है, उनका
समस्त ध्यान तो अपनी लोकप्रियता को बढ़ाकर अपने ही स्वार्थों को सिद्ध करने पर
केन्द्रित हो जाता है।
(4) देश की एकता एवं
अखण्डता पर चोट-
क्षेत्रवाद राष्ट्रीय एकता की समस्त भावनाओं को
क्षतिग्रस्त कर रही है। नये राज्यों के गठन की माँग आगे चलकर भारत संघ से अलग होने
की माँग में बदल सकती है जो क्षेत्रवाद के दुष्परिणाम के रूप में
सामने आयेगी।
(5) संघ-राज्य
सम्बन्धों में तनाव-
क्षेत्रीयता के कारण केन्द्र तथा
राज्य सरकारों के बीच का सम्बन्ध कभी-कभी अत्यन्त कटु रूप धारण कर लेता है।
प्रत्येक क्षेत्र के हित समूह, क्षेत्रीय नेतागण, बड़े-बड़े
उद्योगपति या राजनीतिज्ञ अपने-अपने क्षेत्र के स्वार्थों को प्राथमिकता देते हैं
और केन्द्रीय सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं जिससे
सम्बन्धों में तनाव पैदा हो जाता है।
(6) असहिष्णुता की
भावना का विकास होना-
क्षेत्रवाद के कारण देश के किसी एक भाग
के लोग अपनी सभ्यता,
भाषा, जाति, धर्म,रीति-रिवाज, रहन-सहन
को अन्य क्षेत्रों की सभ्यता, संस्कृति, भाषा, जाति
धर्म, रीति-रिवाज़ एवं रहन-सहन से श्रेष्ठ मानने लग जाते हैं, परिणामस्वरूप
देश में वैमनस्यता का वातावरण बन जाता है तथा असहिष्णुता पनपती है।
(7) आतंकवादी
गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलना-
क्षेत्रीयता की माँग के दबाव के
रूप में जो हिंसक,
तोड़-फोड़ तथा आतंकवादी गतिविधियाँ सिर उठाने लगती हैं तथा
उनसे जो समाज व राष्ट्र का नुकसान होता है उसका अनुमान लगाना कठिन होता है, खालिस्तान
की माँग तथा पंजाब राज्य में क्षेत्रवाद की भावना ने ही आतंकवाद को पनपाया
है।
उपर्युक्त दुष्परिणामों से स्पष्ट होता है कि क्षेत्रीयतावाद की भावना पर रोक लगाना आवश्यक है।
आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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