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अरबी इतिहास लेखन परम्परा

अरबी इतिहास लेखन परम्परा

अरबी इतिहास लेखन : पुराकथाएं-

अरबी भाषा में लिखी गई प्राचीनतम ऐतिहासिक कृतियों में अधिकांश अब्बासी शासनकाल से संबद्ध है। किंवदन्तियों तथा पुराण कथाओं से उपलब्ध पूर्व-इस्लाम युगों के विषय में प्राप्त विवरणों तथा पैगम्बर मुहम्मद के नाम तथा जीवन से संबद्ध धार्मिक परम्पराओं ने इतिहास लेखन को प्रारम्भिक वस्तु-सामग्री प्रदान की। पूर्व-इस्लाम युग के विवेचन के प्रसङ्ग में अल-कूफा के हिशाम अल-कलवी (819 ईसवी) का नाम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

अल फिहरिश्त में उनके द्वारा लिखी गई उन्नती पुस्तकों की सूची प्राप्त होती है, लेकिन अब उनमें से केवल तीन कृतियां ही उपलब्ध हैं, लेकिन अल-ताबरी, याकूत एवं अन्य इतिहास लेखकों की रचनाओं से भारी मात्रा में उसे उद्धरण प्राप्त होते हैं। धार्मिक परम्पराओं पर आधारित प्रथम कृति सीरत रसूल अल्ला है जिसका लेखक अल-मदीना का मुहम्मद इन-दशहाक था। (इसकी मृत्यु बगदाद में लगभग 767 ईसवी हुई) यह कृति पैगम्बर मुहम्मद की जीवन-कथा है।

इस्लामी विजयों का इतिहास-

इसके पश्चात् वे कृतियाँ आती हैं जिसमें इस्लाम के प्रारम्भिक युद्धों तथा विजयों की चर्चा हुई है। इस प्रसङ्ग में मूसा इब्न उकबा (758 ईसवी) तथा अल-वाकिदो (822 ईसवी) के नाम उल्लेखनीय हैं। इब्न सादा (जिसकी मृत्यु बगदाद में 845 ईसवी में हुई) नामक लेखक ने सर्वप्रथम वर्गीकृत जीवन-कथाओं की एक महान् कृति की रचना की जिसमें मुहम्मद, उनके सहयोगियों तथा उसके अपने समय तक के उत्तराधिकारियों के जीवन के विषय में विवरण संकलित है।

इस्लाम को विजयों के विषय में इतिहास लेखन करने वालों में दो सर्वाधिक विशिष्ट नाम मिस्र निवासी अब्दल हकम (870-71 ईसवी) तथा अरबी भाषा में लिखने वाले पर्सिया निवासी अहमद इब्न यहया (892 ईसवी) के हैं; प्रथम लेखक की कृति का नाम फुतूह मिस्रअखबारूह है जो मिस्र, उत्तरी अफ्रीका एवं स्पेन में इस्लाम की विजयों की चर्चा करने वाला प्राचीनतम प्राप्त प्रलेख है; अहमद इब्न-यहया को दो पुस्तकों के शीर्षक फुतूह अब बुल्दन एवं अन्साब अल अशराफ हैं। अन्साब अलअशराफ में पहली बार विभिन्न नगरों की विजयों तथा विविध विधिसंग्रहों को एक सुग्रंथित तथा एक समष्टि के रूप मे प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इसके पूर्व की ऐतिहासिक रचनाओं में एक प्रकार की समष्टिगत विशेषता का सर्वथा अभाव दिखाई पड़ता है।

विशुद्ध इतिहास लेखन : फारसी दृष्टिकोण

इस प्रकार धीरे-धीरे अब पुराणकथाओं, परम्पराओं, जीवनकथाओं, वंशावलियों इत्यादि पर आधारित विशुद्ध इतिहास-लेखन का समय आ गया था। इस प्रकार के इतिहास-लेखन में प्रेरणा फारसी भाषा में लिखी खुदाय-नामा (राजाओं का वृत्तान्त) जैसी पुस्तकों से ली गई; इसे इब्न-अल-मुकफ्फा (757 ईसवी) ने सिया मुलूक अल-अजम शीर्षक के अन्तर्गत अरबी भाषा में अनुदित कर दिया था।

इस्लाम के बहुत पहले ही यहूदी ईसाई चिन्तना में एक विश्व-इतिहास अवधारणा का उद्भव एवं विकास हो चुका था जिसमें कि सभी पूर्ववर्ती घटनाओं को इस्लाम के इतिहास की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता था। स्वरूप में ये इतिहास-लेखन भी इस्लामी परंपरा की उसी पुरानी लकीर पर ही थे; प्रत्येक घटना को प्रत्यक्षदर्शियों एवं समसामयिकों के अभिकथनों एवं विवरणों से संबद्ध किया जाता था और उससे प्रारंभ करे मध्यवर्ती विवरणकारों के एक अनुक्रम में अन्तः इसे लेखक तक लाया जाता था। इस कार्यविधि से जहाँ एक और घटनाओं के यथातथ्य निरुपण को बल प्राप्त हुआ वहीं दूसरी ओर घटनाओं को मान तथा दिन के साथ ठीक-ठीक तिथ्यांकित करने की भी प्रवृत्ति बढी। लेकिन इस प्रकार के इतिहास-लेखन में प्रदत्त तथ्य की यथार्थता एवं प्रामाणिकता इतिहासकार द्वारा स्वयं तथ्य के समीक्षात्मक परीक्षण पर न आधारित होकर विवरणकारों की इस श्रृंखला की अव्यवहत निरन्तरता पर एवं प्रत्येक विवरणकारों की निष्पक्षता में विश्वास पर निर्भर करती थी।

Arabi aur Farsi Itihas lekhan Parampara, फारसी इतिहास-लेखन परंपरा
अरबी इतिहास लेखन परम्परा

इतिहासकार अपने साक्ष्यों के चयन में तथा अपनी वस्तुसामग्री को व्यवस्थित करने में स्वतंत्र होता था और इनके कार्यों में अपने समीक्षापूर्ण विवेक का उपयोग करता था, किन्तु सामान्यरूपेण उसमें विश्लेषणशक्ति, आलोचना, तुलनात्मक अध्ययन अथवा अनुमान का सर्वथा अभाव था।

प्रांरभिक औपचारिक इतिहास-

लेखकों में प्रथम नाम इन-कुतयब (मृत्यु-889) का आता है जिसने किताब अल-मारिफ (ज्ञान की पुस्तक) नामक इतिहास पुस्तक लिखी। इसी का समसामयिक अबू हनीफ अहमद इन-दाऊद अल-दीनावरी था (895 ईसवी) जिसकी प्रमुख रचना का शीर्षक अल अखबार अल-तिवाल (लबे वृत्तान्त) है, यह फारसी दृष्टिकोण से लिखा गया एक सार्वभौमिक इतिहास प्रस्तुत करता है। लगभग इसी समय इब्न वादी अल यकूबी द्वारा एक अन्य सार्वभौमिक इतिहास-ग्रन्थ की रचना हुई जिसमें हिजरी सन् 258 (872 इसवी) तक का इतिहास दिया गया है एवं जिसमें प्राचीन एवं अविकृत शिया परंपरा सुरक्षित है।

हमजा अल-इसफानी (मृत्यु 961 ईसवी) तथा मिसकवाय (1030 ईसवी) इस वर्ग के दो अन्य उल्लेखनीय इतिहासकार हैं; मिसकवाय तजारीब अल-उमम शीर्षक के अन्तर्गत हिजरी 369 (ईसवी सन् 979-80) तक का सार्वभौमिक इतिहास लिखा है और इसके नाम की गणना प्रमुख अरबी इतिहासकारों में की जाती है।

किन्तु अरब इतिहासकारों में दो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नाम अबू जाफर मुहम्मद इब्न-जरीर अल-तबरी तथा अबू-अल-हसन अली अल मसूदी के हैं। तबरी का जन्म फारस के पहाड़ी जिले तबरिस्तान में हुआ था (838-922 ईसवी)। उसकी प्रमुख कृति तारीखअल-रुसूल -अल मुलूक (पैगम्बरों तथा राजाओं का इतिहास) है जिसमें यथातथ्य तथा विस्तारपूर्ण इतिहास-लेखन का प्रयास किया गया है। उसने कुरान की टीका भी लिखी जिसे बाद के टीकाकारों एवं व्याख्याकारों द्वारा एक प्रतिमान तथा आधार के रूप में स्वीकार किया गया; इसी प्रकार सार्वभौमिक इतिहास से संबद्ध उसकी तारीख भी मिसकवाय, इन-अल-अतहीर तथा अबू-अल-फिदा जैसे प्रमुख इतिहासकारों द्वारा आधार ग्रंथ के रूप में मान्य हुआ।

अधिकांश अरब इतिहासकारों के समान तबरी ने भी अपनी घटनाओं को तिथिक्रम के आधार पर व्यवस्थित किया है एवं उन्हें हिजरी संवत् के अनुवर्ती वर्षों में रखता गया है। वस्तुत: उसका इतिहास सृष्टि-रचना के दिन से प्रारंभ होता है तथा हिजरी 302 (905 ईसवी) तक चलता है। उसको मूल पुस्तक का विस्तार प्राप्य संस्करण से दस गुना अधिक बड़ा माना जाता है। वृत्तान्त को प्रस्तुत करने की उसकी विधा धार्मिक परंपराओं (इस्नाद) के समान है।

अपने समय को साहित्यिक कृतियों के उपयोग के साथ ही साथ तबरी ने अपनी यात्राओं के प्रसंग में उपलब्ध उन मौखिक परंपराओं का भी अपने इतिहास-लेखन में भरपूर प्रयोग किया है जो उसे बगदाद तथा अन्य विद्या-केन्द्रों में शेखों से प्राप्त हुई थी। उसने फारस, इराक, सीरिया, मिस्र आदि देशों की यात्रा की थी एवं उसके उत्साह तथा अध्यवसाय की उपकल्पना उसके विषय में प्राप्त इस लोकप्रिय परंपरा से की जा सकती है कि वह प्रतिदिन चालीस पृष्ठ लिखा करता था।

मसूदी को 'अरबों का हेरोडोटस' कहा जाता है। यह प्रथम व्यक्ति था जिसने अरब इतिहास-लेखन में एक नई विधा का अनुप्रवेश किया। अपनी घटनाओं के विवरण वर्षों को केन्द्र बना कर देने के स्थान पर उसने शासन-वंशों, राजाओं तथा लोगों को घटना-विवरणों का केन्द्र-बिन्दु बनाया। यह एक नवीन विधा थी जिसका परवर्ती काल में इब्न-खाल्दून तथा अन्य इतिहासकारों द्वारा अनुकरण किया गया।

इतिहास-लेखन में ऐतिहासिक दृष्टान्तों का सम्यक् उपयोग भी उसी से प्रारंभ हुआ। वह भी ज्ञान-वृद्धि के उद्देश्य से यात्र पर निकला और अपने मूल स्थान बगदाद से जंजीबार तक गया। उसके जीवन के अंतिम दशक सीरिया एवं मिस्र में व्यतीत हुए जहाँ उसने तीस जिल्दों में विस्तृत अपनी प्रमुख रचना (जो अब मुरुज अल-धहाब व-मदीन अल-जवाहर-सोने के चरागाह तथा जवाहरों को खान शीर्षक के अन्तर्गत सार रूप में मिलती है) को वस्तु-सामग्री का संकलन-कार्य किया। उसकी उदारता तथा वैज्ञानिक जिज्ञासा ने उसे मुस्लिमेत्तर विषयों के अतिरिक्त भारतीय, पारसौक, रोम तथा यहूदी इतिहास की ओर भी आकृष्ट किया है।

अपनी पुस्तक के प्रारंभ में ही वह कहता है कि जहाँ आजकल सूखा है, वहाँ पहले समुद्र था और जहाँ आजकल समुद्र है वह सूखा स्थल था-और इसके लिए भौतिक शक्तियाँ उत्तरदायी थी। उसकी मृत्यु 956 ईसवी में हुई। अपनी मृत्यु के पूर्व उसके अल-तनवीह व-अल-इशराफ नामक ग्रंथ में अपने इतिहास-दर्शन तथा प्राकृतिक जगत के विषय में अपने विचारों को एक लिखित रूप प्रदान किया।

अरबी इतिहास लेखन का उत्कर्ष-

तबरी तथा मसूदी की रचनाओं में अरबी इतिहास लेखन ने अपनी उत्कृटता के चरमबिन्दु को प्राप्त किया तथा मिस्कवाय (1030 ई.) के पश्चात इसका शीघ्रता के साथ पतन प्रारंभ हुआ। अल अतहीर (1160-1234ई.) ने अपनी पुस्तक अल-कामिल फि अल-तारीख (इतिवृत्तों की पूर्ण पुस्तक) में अल-तबरी की कृति का संक्षेप किया तथा वृत्तान्त को 1231 ईसवी तक आगे बढ़ाया; इसमें क्रसेड के युग का इतिहास उसका मौलिक योगदान; उसकी दूसरी प्रमुख पुस्तक उस्द अल गाबा (झाड़ी के शेर) है जिसमें सहयोगियों की 7500 जीवन-कथाओं का संकलन है। सिब्त इब्न-अल-जावजी (1186-1257 ईसवी) ने सृष्टि रचना के दिन से 1256 ईसवी तक का सार्वभौमिक इतिहास-ग्रंथ लिखा जिसका शीर्षक मीन अल जमां कि तारीख अल अय्याम है।

इस प्रसङ्ग में इब्न खाल्दून की चर्चा आवश्यक है। इब्न खाल्दून का जन्म 1322 ईसवी में ट्यूनिस में हुआ था। उसके जीवन-काल में पंद्रहवी शताब्दी के प्रथम दशक का अधिकांश भाग सन्निविष्ट था। उसने पश्चिमी उत्तरी अफ्रीका का तथा कुछ अंशों तक मुस्लिम अधिकृत स्पेन एवं मिस्र को तत्कालीन राजनीतिक कार्यविधियों में जम कर भाग लिया। वह इन प्रदेशों के समसामयिक इतिहास से भलीभाँति परिचित था तथा उसे इस्लाम के प्रभुत्व के अन्तर्गत स्थित अन्य देशों की राजनीति का भी ज्ञान था। इन घटनाओं का उसके विचारों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा।

पूर्ववर्ती चार शताब्दियों की तुलना में इन घटनाओं के परिणामस्वरूप इस्लामी समाज का स्वरूप तेजी से बदल रहा था और इब्न खाल्दून ने परिवर्तन-प्रक्रिया इन घटनाओं के स्वरूप तथा महत्त्व को समझा। भावी इतिहासकारों के लाभ के लिए इन परिस्थितियों का लेखन अपेक्षित था ताकि वे इनसे प्रकाशित होने वाले इतिहास के स्वरूप को ठीक से समझ सकें एवं बुद्धिमत्तापूर्ण व्यावहारिक कर्म में इनकी सहायता ली जा सके।

इब्न खाल्दून ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा के अन्तर्गत कुरान तथा इस्लामी परंपराओं के साथ-साथ धार्मिक विधि-संग्रह एवं रहस्यवाद के विशिष्ट तत्त्वों का भी अध्ययन किया था। अपनी उच्च शिक्षा के अन्तर्गत उसने तर्कशास्त्र, गणित प्राकृतिक दर्शन एवं आध्यात्मशास्त्र का अध्ययन किया; इन विज्ञानों के अध्ययन के लिए सहायक उपादान के रूप में उसने प्रासंगिक भाषाशास्त्रीय, जीवनकथा-विषय तथा ऐतिहासिक विज्ञानों का भी ज्ञान प्राप्त किया और अन्त में, प्रशासन के व्यावहारिक कार्यव्यापारों में रुचि रखने के कारण, उसने राजकीय सेवा के अन्तर्गत प्रशिक्षण प्राप्त किया। प्रारंभ से इस्लामी धार्मिक चिन्तना का केन्द्र-बिन्दु समाज तथा उसकी सम्यक व्यवस्था का प्रश्न था। कुरान तथा हदीथ के रहते हुए, समस्या यह थी कि उनमें निहित सिद्धान्तों तथा शिक्षाओं को कैसे इस्लाम के प्रसार तथा विकास से उत्पन्न नई तथा परिवर्तित ऐतिहासिक परिस्थितियों में व्यवहार में लाया जाय।

इब्न खाल्दून की इतिहास दृष्टि-

इब्न खाल्दून की प्रमुख कृति किताब अल-इबर अथवा इतिहास है। यहाँ यह दृष्टव्य है कि वह अपनी पुस्तक के शीर्षक के लिए इतिहास के लिए सामान्यतया प्रयुक्त शब्द 'तारीख' के स्थान पर 'इबर' का चयन करता है। 'इबर' शब्द अधिक व्यापक है तथा इसके विविध आयाम हैं। अपनी पुस्तक में वह सार्वभौमिक इतिहास के संपूर्ण परिधि को सन्निविट करना चाहता था, किन्तु विशेषरूपेण वह इस इतिहास का विवरण प्रदान करता चाहता था जिसका उसने स्वयं अनुभव किया था अर्थात् सामान्यतया इस्लामी विश्व का एवं विशेष रूपेण इस्लामी प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्र का पतन।

किन्तु यदि उसका प्रयोजन मात्र इतिहास लिखना होता तो उसकी कृति के लिए तारीख' शब्द अधिक उपयुक्त होता। किन्तु, उसका प्रमुख प्रयोजन केवल इतिहास लिखना नहीं था अपितु इसके परे भी जाना था। वह इतिहास से सीखना चाहता था और इस कारण ऐतिहासिक घटनाओं के स्वरूप तथा कारणों का सम्यक् विश्लेषण, तुलना द्वारा उनमें निहित रहस्यों का समझना उसका प्रमुख प्रयोजन था। वे केवल वह वस्तु सामग्री प्रदान करती थीं जिनसे उनके पीछे स्थित नियमों को व्युत्पन्न करना था। ये नियम उन घटनाओं के स्वरूप तथा कारणों को प्रदर्शित करते उनकी व्याख्या प्रदान करते हैं। इस प्रकार इब्न खाल्दून द्वारा 'इबर' शब्द का प्रयोग विवेक ('नजर') तथा बोध ('फा') के पर्याय के रूप में हुआ है।

इस प्रकार इब्न खाल्दून ने इतिहास का अध्ययन एक दार्शनिक प्रयोजन के लिए किया है। इस दृष्टिकोण से इतिहास का अध्ययन एवं लेखन किसी अन्य मुस्लिम इतिहासकार ने नहीं किया। उसने पहली बार संस्कृति के विज्ञान की आवश्यकता को समझा तथा इसके लिए प्रयास किया। उसके अनुसार इतिहास वस्तुतः मानव-समाज के विषय में सूचना है जो कि (अपने विविध पक्षों में') विश्व की संस्कृति है। आगे वह कहता है कि ऐतिहासिक विवरणों में भूलें अपरिहार्यरूपेण अन्तर्भूत होती हैं और इसके लिए उसने कई कारण गिनाए हैं। उसने हदीथ तथा इतिहास में विभेद करते हुए कहा है कि हदीथ का सम्बन्ध विध्यात्मक आदेशों से है जबकि इतिहास का संबंध वास्तविक घटनाओं से होता है।

ऐतिहासिक विवरण आदेश नहीं होते अपितु घटनाओं के सकारात्मक अथवा नकारात्मक वक्तव्य होते हैं। ये वक्तव्य स्वयं में सत्य अथवा मिथ्या होते हैं-यही उनकी व्याकरणीय तथा तार्किक परिभाषा है। इन वक्तव्यों की आलोचना इस प्रश्न से प्रारंभ होनी चाहिए कि क्या इस प्रकार की घटना घट सकती थी; यह प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि एक बार स्वयं घटना की असंभाविता प्रतिष्ठित हो जाने पर उस प्रमाण की परीक्षा ही आवश्यक नहीं रह जाती जिससे इसका विवरण प्राप्त होता है। इतिहास दो सहायक शास्त्रों की अपेक्षा रखता है: संस्कृति का शास्त्र अथवा विज्ञान जो ऐतिहासिक घटनाओं की स्वरूप-चर्चा से संबद्ध होता है तथा प्रमाण समीक्षा जो इस प्रकार की घटनाओं की सूचना देने वाले प्रमाणों की क्षमता, ज्ञान तथा प्रयोजनों से संबद्ध होता है। संस्कृति का शास्त्र अथवा विज्ञान इतिहास का एक प्रमुख उपादान है, किन्तु अन्तत: वह इतिहास का एक उपादान ही होता है। इतिहास के विषय में यह उसका निष्कर्ष है।

इतिहास के सम्यक् अवबोध के लिए संस्कृति का विज्ञान आवश्यक है। उसने प्रतिनिधि दृष्टान्तों की परीक्षा के उपरान्त यह दिखाया है कि उसके पूर्व किसी भी इतिहासकार ने इनका प्रयोग नहीं किया। उसके अनुसार, संस्कृति कोई स्वतंत्र तत्त्व नहीं है अपितु एक अन्य तत्त्व (जो कि मनुष्य है) का धर्म है। अतएव संस्कृति का सहज स्वरूप मनुष्य के स्वभाव (अर्थात् वह तत्त्वविशेष जो उसे शेष प्राणियों से पृथक् करता है) से संबंद्ध होगा। बुद्धि के कारण वह अन्य प्राणियों से विशिष्ट है, बुद्धि के कार्यव्यापार के दो आयाम हैं सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक, बुद्धि का व्यावहारिक पक्ष पहले उद्भूत होता है तथा मनुष्य के सभी कार्य-व्यापारों (जिनसे कि संस्कृति बनती है) का स्रोत होता है। आगे वह संस्कृति के विविध प्रकारों, स्वरूपों तथा पक्षों पर विस्तार से विचार करता है।

इतिहास वास्तविक अस्तित्व के स्वरूप तथा कारणों से संबद्ध होता है; कारणों के सामान्य स्वरूप में उसकी रुचि नहीं होती है। संस्कृति का विज्ञान-जैसा कि इसकी परिभाषा से स्पष्ट होगा एक विज्ञान के रूप में वास्तविक ऐतिहासिक अस्तित्व से संबद्ध न होकर यथार्थ तथा संभावित अस्तित्व से संबद्ध होता है तथा इसका लक्ष्य विशिष्ट घटनाओं काज्ञान न होकर उनमें तथा उनके सदृश घटनाओं में निहित सिद्धान्तों का ज्ञान होता है। ये ऐतिहासिक घटनाओं के एक वर्ग का अध्ययन करता है जिसका प्रयोजन होता है उनके विषय में सार्वभौमिक नियम ढूँढना तथा बनाना और चूँकि आकस्मिक तथा यादृच्छिक घटनाओं के विषय में इस प्रकार के सार्वभौमिक नियम नहीं बनाए जा सकते अत: संस्कृति का विज्ञान ऐसी घटनाओं में रुचि नहीं रखता।

संस्कृति के विज्ञान की वस्तुसामग्री इतिहास से निर्गमित होती है। ज्ञान के क्रम में यह इतिहास के बाद आता है तथा इसका प्रमुख कार्य ऐतिहासिक विवरणों के शोधन में सहायता करना है। इतिहास की कला का अन्तिम लक्ष्य व्यावहारिक कार्य व्यापार अथवा करणीय वस्तुओं का परिष्कार है और इस प्रकार संस्कृति के विज्ञान का भी अन्तिम लक्ष्य व्यावहारिक कार्य व्यापार भी है। यह स्पष्ट है कि यदि संस्कृति के विज्ञान को इतिहास की कला के एक उपयुक्त उपादान के रूप में कार्य करना है तो इसे ऐतिहासिक घटनाओं के स्वरुप कार्य-व्यापारों-जिनसे कि संस्कृति बनती है- विशुद्धरूपेण समझने के लिए यह आवश्यक है कि मानव स्वभाव को एक स्वतंत्र सैद्धान्तिक गवेषणा का विषय बनाया जाय। उनका विचार है कि मनुष्य तथा उसके कर्मों के नश्वर होने पर भी इस संबद्ध विज्ञान का एक विशेष रूप में लाभ हो सकता है।

निष्कर्ष

इस्लामी चिन्तन में इतिहास के स्वरूप, उद्देश्य तथा कार्यविधि के विचार का प्रारम्भ कुरान से माना जा सकता है। ये विचार स्वयं कुरान में प्रगट हुए हैं। इस्लामी चिन्तन का प्रमुख विषय ईश्वर का मानव इतिहास से सम्बन्ध है। मुस्लिम समाज से यह आग्रह किया गया है कि पार्थिव जगत की घटनाओं को ईश्वरीय निर्णय के प्रकाश में देखने की चेष्टा को कुरान तथा हदीथ में इतिहास सम्बन्धी इस दृष्टिकोण के कारण इस्लाम की प्रारम्भिक पीढ़ियों में अतीत के अध्ययन के प्रति अधिक अनुराग दिखाई देता है। इस्लाम में इतिहास लेखन का प्रारम्भ विशिष्ट घटनाओं के विषय में प्रामाणिक विवरणों की खोज, उनके संग्रह तथा सम्प्रेषण के रूप में दिखाई देता है। विवरण की वस्तु सामग्री के प्रति किसी प्रकार की समीक्षात्मक दृष्टि के प्रयोग की अपेक्षा नहीं की जाती थी।

इस्लामी इतिहास को प्राचीनतम कृतियाँ अरबी भाषा में अब्बासी शासनकाल में लिखी गई जो तीन प्रकार की हैं। इस सन्दर्भ में पहले हिशाम-अनिल-कलबी, इन इशहाक, मूसा इन उकबा तथा अल-वाकिदी की कृतियों का उल्लेख किया जा सकता है। जो मूलतः पौराणिक किंवदन्तियों पर आधारित रचनाएं हैं। अरबी इतिहास लेखन में दूसरे प्रकार की वे रचनाएं हैं जिनमें इस्लाम को विजय का इतिहास प्रत्यक्ष होता है। ऐसी रचनाओं के लेखकों में हब्दल हकम तथा अहमद इब्न यहया का नाम सर्वोपरि है। तीसरे प्रकार की रचनाएँ फारसी में लिखी गई तथा उनका सम्बन्ध विशुद्ध इतिहास लेखन से है। इस प्रक्रिया का प्रारम्भ इन अल-मुकफ्फा की रचनाओं से होता है, जिसमें प्रत्येक घटना को प्रत्यक्षदर्शियों तथा समसामयिक अभिकथनों एवं अन्य अनेक प्रकार के विवरणों से सम्बद्ध किया जाता था।

इसके बाद फारसी दृष्टि से सार्वभौमिक इतिहास लेखन का प्रारम्भ अबु हनीफ अहमद ने किया तथा तथ्यपरक विस्तार से इतिहास लेखन का प्रयास करने वालों में अबू-जाफर मुहम्मद इन जरीर-अलतबरी तथा अबू-अल-हसन अली अल-मसूदी के प्रयासों की प्रशंसा की गई है। अल-मसूदी को अरबों का हेरोडोटस कहा जाता है। उसने अपने इतिहास लेखन में वर्षों के स्थान पर शासन वंशों, राजाओं तथा लोगों को घटना विवरण का केन्द्र बिन्दु बनाया। तबरी तथा मसूरी की रचनाओं में अरबी इतिहास लेखन अपनी उत्कृष्टता के चरम बिन्दु पर पहुंचा।

14वीं शती के चौथे दशक में इब्न खाल्दून ने इतिहास लेखन को एक नई दृष्टि प्रदान की। उसने इतिहास का अध्ययन दार्शनिक प्रयोजन के लिए किया। उसने इतिहास जगत में पहली बार संस्कृति के विज्ञान की आवश्यकता को समझा तथा उसके लिये तदनुरूप प्रयास किया। उसके अनुसार 'इतिहास वस्तुत' मानव समाज के विषय में सूचना है जो विश्व-संस्कृति पर आधारित है। इसलिए अपने इतिहास में वह संस्कृति के विविध प्रकारों, स्वरूपों तथा पक्षों पर विस्तार से विचार करता है।

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