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खानवा युद्ध के कारण, परिणाम और महत्व

खानवा का युद्ध (1527 ईस्वी)

बाबर एक पराक्रमी और महत्त्वाकांक्षी शासक था। वह काबुल का शासक था। परन्तु काबुल के छोटे राज्य से वह सन्तुष्ट नहीं था, अतः उसने भारत की जीतने तथा एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने की योजना बनाई। उसने दिल्ली सल्तनत की दुर्बलता का फायदा उठाकर भारत पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए 1526 ई. में इब्राहीम लोदी के विरुद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध में बाबर को सफलता मिली परिणामस्वरूप दिल्ली व आगरा पर बाबर का अधिकार हो गया। बाबर सम्पूर्ण भारत का स्वामी बनना चाहता था। अतः उसने राणा सांगा के विरुद्ध सैनिक अभियान का निश्चय किया। राणा सांगा व बाबर की सेना के बीच 17 मार्च, 1527 को खानवा का युद्ध प्रारम्भ हुआ।

खानवा के युद्ध के कारण

राणा सांगा और बाबर के मध्य खानवा के युद्ध के लिए निम्नलिखित परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं।

1. बाबर द्वारा राणा सांगा का वचन भंग का आरोप लगाना-

बाबर ने अपनी आत्मकथा 'बाबरनामा' में राणा सांगा पर संधि करने तथा विश्वासघात करने का आरोप लगाते हुए लिखा है कि "जब हम काबुल में थे तो राणा सांगा ने अपना एक दूत हमारे पास भेजा और उसके द्वारा हमें कहलाया गया कि यदि हम दिल्ली पर आक्रमण करेंगे तथा वह स्वयं (राणा सांगा) आगरा पर धावा बोल देगा। हमने इब्राहीम लोदी को पराजित किया और दिल्ली व आगरा पर अधिकार स्थापित किया परन्तु वह काफिर (सांगा) अभी तक नहीं आया।" दूसरी तरफ राणा सांगा ने बाबर पर आरोप लगाया कि उसने कालपी, धौलपुर, बयाना पर अधिकार कर लिया जबकि संधि के अनुसार ये प्रदेश उसे (राणा सांगा को) ही मिलने चाहिये थे। इस प्रकार दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के विरुद्ध आरोप लगाकर युद्ध की स्थिति उत्पन्न की।

2. राणा सांगा और बाबर की महत्त्वाकांक्षाएँ-

बाबर और राणा सांगा दोनों ही अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी थे। राणा सांगा ने राजस्थान में ही नहीं अपितु समस्त उत्तरी भारत में अपनी शूरवीरता और पराक्रम की धाक स्थापित कर रखी थी। दूसरी तरफ बाबर भी सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। इस प्रकार बाबर भारत में ही दृढ़तापूर्वक अपने पाँव जमाना चाहता था जबकि राणा सांगा ने बाबर को खदेड़ने का निश्चय कर लिया था। डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार, "दोनों शासक एक-दूसरे की शक्ति में परिवर्द्धन से भयभीत थे। दोनों का उत्तरी भारत में एक साथ रहना वैसा ही था जैसे एक म्यान में दो तलवारें।"

3. राणा सांगा व बाबर में धार्मिक विद्वेष की भावना-

दोनों पक्षों में संघर्ष का कारण धार्मिक विद्वेष की भावना भी था। बाबर इस्लाम धर्म का प्रचार करना चाहता था जबकि राणा सांगा हिन्दू संस्कृति का संरक्षक था। इस प्रकार एक-दूसरे के द्वारा दो विरोधी संस्कृतियों को संरक्षण देने के कारण भी युद्ध हुआ।

4. अफगानों द्वारा राणा सांगा के साथ संगठन बनाना-

यद्यपि बाबर ने पानीपत की पहली लड़ाई में अफगानों को पराजित कर दिया था परन्तु उनकी शक्ति पूर्णतया नष्ट नहीं हुई थी। अफगान नेता महमूद लोदी भी राणा सांगा के साथ मिलकर अपनी शक्ति को बढ़ा रहा था। अत: अफगानों की बढ़ती हुई शक्ति मुगलों के लिए खतरा बन सकती थी। फलस्वरूप बाबर ने अफगानों को सहायता देने वाले स्रोत को ही समाप्त करने का निश्चय किया।

5. राणा सांगा के अभियान-

बाबर राणा सांगा से इस कारण भी नाराज था कि उसने पानीपत के प्रथम युद्ध के पश्चात् खण्डार दुर्ग तथा उसके निकटवर्ती 200 गाँवों पर अधिकार कर लिया था। ये प्रदेश दिल्ली के सुल्तानों के अधीन थे। अत: इस कारण भी दोनों पक्षों में संघर्ष होना स्वाभाविक था।

खानवा युद्ध के कारण व परिणाम, खानवा के युद्ध में बाबर की सफलता के कारणों पर प्रकाश डालिए
खानवा युद्ध के कारण, परिणाम और महत्व

युद्ध के प्रारम्भ में मुगल सेना भयभीत हो गई क्योंकि राजपूत सेना की संख्या बहुत अधिक थी परन्तु बाबर के तोपखाने ने राजपूत सेना को धराशायी कर दिया। यद्यपि राजपूतों ने मुगल सेना पर भयंकर प्रहार किये, परन्तु तोपखाने के आगे राजपूतों की वीरता को नतमस्तक होना पड़ा। अन्त में राजपूतों का साहस टूट गया। स्वयं राणा सांगा भी युद्ध क्षेत्र में घायल हो गया। दस घण्टों के घमासान युद्ध के पश्चात् बाबर को निर्णायक विजय प्राप्त हुई।

खानवा के युद्ध के बाबर की सफलता के कारण

खानवा के युद्ध में राणा सांगा की निर्णायक पराजय हुई। इस युद्ध में बाबर की अपेक्षा राणा सांगा के पास अधिक सेना होते हुए भी सांगा परास्त हुआ। खानवा के युद्ध में बाबर की विजय के अनेक कारण थे।

1. सेना में अनुशासन एवं संगठन का अभाव-

राजपूत सेना संख्या में मुगलों से अधिक होते हुए भी एक नेता के अधीन संगठित नहीं थी, बल्कि भिन्न-भिन्न राजाओं और सामन्तों के अधीन थी, जिनकी स्वामीभक्ति राणा की अपेक्षा अपने सामन्तों एवं राजाओं के प्रति अधिक थी। ऐसी स्थिति में सेना में अनुशासन बनाये रखना सम्भव नहीं था तथा राजपूत सेना में आपसी तालमेल का भी अभाव था।

2. बाबर द्वारा तुलुगुमा पद्धति का प्रयोग-

राणा सांगा को बाबर की सैन्य व्यवस्था का रणकौशल एवं तुलुगुमा पद्धति की विशेष जानकारी नहीं थी। सांगा ने बाबर को साधारण शत्रु समझकर राजपूतों की परम्परागत युद्ध पद्धति को अपनाया, जो बाबर की नवीन युद्ध व्यवस्था के समक्ष अधिक समय तक नहीं टिक सकी। बाबर की तुलुगुमा पद्धति इतनी कारगर एवं प्रभावशाली थी कि राजपूत इस पद्धति का तथा बाबर की चाल को न समझ सके। परिणाम यह हुआ कि अचानक वे मुगल सेना से घिर गये और लड़ते हुए मारे गये।

3. मुगलों की अश्वारोगी सेना की गतिशीलता-

राणा सांगा की पराजय एवं बाबर की विजय का एक कारण मुगल श्वारोही सैनिक दस्ते की गतिशीलता तथा चातुर्यपूर्ण रण कौशल था। राणा के अधिकांश के पदाति थे और अश्वारोही सैनिक दस्ता था भी तो वह तेज गति से चलने वाले मुगल अश्वारोही सैनिक दस्ते की तुलना में अत्यन्त निम्न स्तर का सिद्ध हुआ।

4. बाबर का तोपखाना-

बाबर की विजय का एक महत्त्वपूर्ण कारण बाबर का तोपखाना था। मुगलों की आग उगलती हुई तोपों के समक्ष राजपूतों के परम्परागत हथियार और उनका शौर्य सफल नहीं हो सका। भला आग उगलती तोपों और दनदनाती गोलियों के समक्ष तीर भाले कितने समय तक टिक पाते? फिर, बाबर के तोपखाने और अश्वारोही सैनिक दस्ते में इतना कुशल सामंजस्य था कि उनके समक्ष राणा के हाथियों और पैदल सैनिकों की कतारें व्यर्थ सिद्ध हुई। राजपूत मरना जानते थे, लड़ना नहीं, जबकि मुगल मरना नहीं लड़ना और जीतना जानते थे। क्योंकि वे जानते थे कि पराजय की स्थिति में वे भागकर हजारों मील दूर अपने देश नहीं पहुंच पायेंगे। अत: वे प्राणपण से लड़ने में विश्वास रखते थे। मुगलों में राजपूतों की अपेक्षा युद्ध करने की लगन अधिक थी।

5. साँगा को अपने आपको युद्ध में झौंक देना-

बाबर की विजय का एक प्रमुख कारण सांगा को अपने आपको युद्ध में झोंक देना था। बाबर एक निश्चित स्थान पर खड़ रहकर युद्ध का संचालन करता था। बाबर ने कभी अपने आपको शत्रु के सामने नहीं आने दिया। सांगा बिना सोचे समझे युद्ध में उतर आया तथा शत्रु के सामने आते ही शत्रु को उस पर वार करने का अवसर मिल गया। अतः शत्रु का तीर लगना, उसका मूर्छित होना उसे युद्ध क्षेत्र से बाहर ले जाने के बाद राजूपतों का जोश और साहस धीरे-धीरे कम होता गया और अन्त में वे युद्ध क्षेत्र से भाग खड़े हुए।

6. सांगा द्वारा बयाना विजय के बाद तत्काल आक्रमण न करना-

बयाना पर विजय प्राप्त करने के बाद राणा सांगा ने सीधा सीकरी की ओर न जाकर भुसावर होते हुए सीकरी का मार्ग पकड़ा फलस्वरूप उसने एक महीना व्यर्थ में ही नष्ट कर दिया। इससे मुगलों को विश्राम करने, युद्ध स्थल में उचित स्थान का चयन करने तथा पर्याप्त तैयारी करने का पर्याप्त समय मिल गया। यदि साँगा बयाना से सीधा सीकरी पहुँचकर हतोत्साहित मुगलों पर धावा बोल देता तो युद्ध का परिणाम ही दूसरा होता।

7. सलहदी तंवर और खानजादा का विश्वासघात-

इतिहासकार कर्नल टॉड, हरविलास शारदा, श्यामलदास आदि की मान्यता है कि युद्ध के अन्तिम दौर में सलहदी तँवर तथा नागौर के खानजादा द्वारा राणा से विश्वासघात करके मुगलों से मिल जाना युद्ध का निर्णय करने में सहायक रहा। निजामुद्दीन ने लिखा है कि किसी अदृश्य सेना ने मुगल पक्ष की सहायता को, इस संकेत के आधार पर अनेक विद्वानों की मान्यता है कि सलहदी के पक्ष परिवर्तन का अवश्य ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। क्योंकि उनके विचार में सलहदी के अधीन लगभग 30-35 हजार सैनिक थे और इतनी विशाल सेना का अचानक शत्रु पक्ष की ओर लड़ने से निश्चय ही राणा को पराजय पर प्रभाव डाला था।

8. साँगा की गलतफहमी-

युद्ध के प्रारम्भ होने तक साँगा को यही गलतफहमी रही कि वह शीघ्र ही अपनी विशाल सेना की सहायता से शत्रु को पराजित कर देगा। इसलिए उसने अपने बचाव की कोई सुरक्षात्माक सावधानी नहीं दिखायी। फिर विशाल सेना के कारण चित्तौड़ से बयाना और तत्पश्चात् बयाना से सीकरी जाते समय उसकी रफ्तार बहुत ही कम रही। इन गम्भीर गलतियों के कारण राणा को पराजय हुई।

राणा सांगा की पराजय के कारण

कर्नल टॉड आदि इतिहासकार राणा सांगा की पराजय का कारण सिलहदी तंवर का शत्रुओं से मिलना मानते हैं। लेकिन डॉ. गोपीनाथ शर्मा इसे गलत सिद्ध करते हुए कहते हैं कि सिलहदी का शत्रु से मिलना राणा सांगा के युद्ध स्थल से चले जाने के बाद की घटना है। इस समय तक राणा की पराजय हो चुकी थी। इस प्रकार खानवा के युद्ध में राणा सांगा की पराजय के लिए किसी एक कारण को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। राणा सांगा की पराजय के लिए निम्नलिखित परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं-

(1) राजपूतों की युद्ध प्रणाली का परम्परागत होना-

राजपूत अधिकांश रूप से पैदल दल के रूप में थे जबकि मुगलों की अधिकांश सेना घुड़सवारों के रूप में। इसी तरह मुगलों में बारूद के प्रयोग, तोपों और बन्दूकों की तुलना में राजपूत सेना के तीर-कमान, भाले, तलवार, बर्छियाँ आदि निम्न प्रकार के शस्त्र थे। मुगल सेना रिजर्व तथा घुमाव की पद्धति को प्रधानता देती थी। साथ ही मुगल सेना की तोपों व घुड़सवारों की आक्रमण विधि में एक सन्तुलन था। राजपूत सेना में मुगलों के इन तरीकों का उत्तर देने के लिए कोई अवसरानुकूल तकनीक नहीं थी। राजपूत सेना ने नये सैनिक अनुभवों को अपनी सैन्य व्यवस्था में स्थान नहीं दिया और अपनी परम्परागत युद्ध पद्धति से लड़ते रहे जो उनका पराजय कारण बनी।

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(2) राजपूत सेना का एक नेता के अधीन संगठित नहीं होना-

राजपूत सेना एक नेता के अधीन नहीं थी, अपितु भिन्न-भिन्न राजपूत सामन्तों एवं शासकों के अधीन थी। राजपूत सैनिक अपने सामन्त के प्रति अधिक निष्ठा एवं स्वामिभक्ति रखते थे तथा उन पर राणा सांगा का प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं था। इस प्रकार राजपूत सेना में अनुशासन का अभाव था जबकि मुगल सेना बाबर के नेतृत्व में अनुशासित ढंग से लड़ी।

(3) बाबर की तुलुगमा पद्धति-

बाबर की तुलुगमा पद्धति के आगे राणा सांगा की परम्परागत युद्ध पद्धति असफल सिद्ध हुई। बाबर के तोपखाने एवं घुड़सवार सेना के कुशल सामंजस्य के आगे राजपूत सेना अधिक देर तक नहीं टिक सकी। मुगलों की भांति राजपूतों ने रिजर्व सेना की व्यवस्था नहीं की। बाबर की तुलुगमा पद्धति इतनी प्रभावशाली सिद्ध हुई कि राजपूत इसको ठीक तरह से समझ ही न पाये और वे अचानक चारों तरफ से घिर गये।

(4) बाबर का तोपखाना-

बाबर की विजय का एक प्रमुख कारण उसका तोपखाना भी था। मुगलों की तोपों से आग बरसाने वाले गोलों का उत्तर राजपूतों के तीर तथा भाले नहीं दे सके। तोपों से गोलों की वर्षा होने पर राजपूत सेना में भगदड़ मच गई और उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा।

(5) पैदल सेना की अधिकता-

राजपूतों की सेना में पैदल सैनिक अधिक थे, जबकि मुगलों की सेना अधिकांश में घुड़सवारों की थी। अत: मुगल सेना अधिक सक्रिय थी। द्रुतगति तथा पैंतरेबाजी की चाल में पैदल सैनिक घुड़सवारों का मुकाबला नहीं कर सकते थे। अतः इस स्थिति में राजपूतों का पराजित होना स्वाभाविक था।

(6) राणा सांगा द्वारा अपने आपको युद्ध में झौंक देना-

डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार राणा सांगा का स्वयं युद्ध में उतर आना भी उसकी पराजय का एक कारण था। बाबर ने अपने आपको शत्रु के सामने नहीं आने दिया तथा रिजर्व में रह कर युद्ध का संचालन किया। इसके विपरीत राणा सांगा ने अपने आपको युद्ध में झोंक दिया जिससे शत्रु पक्ष के एक तीर ने उसे बेहोश कर दिया। राणा सांगा के घायल होते ही राजपूती सेना का जोश व साहस जाता रहा और शीघ्र ही उसके पांव उखड़ गए।

(7) राणा सांगा की भूलें-

राणा सांगा ने बयाना को जीतने के बाद सीधे मार्ग से सीकरी न जाकर भुसावर होते हुए टेढ़े-मेढ़े मार्ग का अनुसरण किया। यह उसकी एक गम्भीर भूल थी। इससे बाबर को युद्ध की तैयारी करने तथा अपनी सेना का मनोबल ऊँचा करने का अवसर मिल गया। यदि बयाना को जीतने के तुरन्त बाद ही राणा सांगा बाबर पर आक्रमण कर देता तो उसकी विजय सुनिश्चित थी।

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डॉ. ओझा के अनुसार, "राणा सांगा की पराजय का मुख्य कारण उसका बयाना की विजय के पश्चात् तुरन्त ही युद्ध न करके बाबर को तैयारी करने का पूरा समय देना ही था। यदि वह बयाना की विजय के पश्चात् ही मुगलों पर आक्रमण कर देता तो उसकी विजय निश्चित थी।"

(8) सिलहदी तंवर का विश्वासघात-

कर्नल टॉड, हरविलास शारदा, श्यामलदास आदि इतिहासकारों की मान्यता है कि रायसेन के शासक सिलहदी तंवर राणा सांगा का साथ छोड़कर शत्रु पक्ष में जा मिला था। अत: सिलहदी तंवर के विश्वासघात के कारण भी राणा को पराजय का मुंह देखना पड़ा। परन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा का कथन है कि सिलहदी तंवर ने राणा सांगा का साथ तब छोड़ा था जबकि युद्ध निर्णायक स्थिति में पहुंच चुका था। फिर भी कुछ इतिहासकायें की मान्यता है कि सिलहदी तंवर द्वारा अपने 30-35 हजार सैनिकों को लेकर मुगल-पक्ष में मिल जाने से राणा सांगा को पराजय पर प्रभाव पड़ा था।

(9) व्यक्तिगत शूरवीरता पर बल देना-

राजपूत सैनिक विजय प्राप्त करने की अपेक्षा अपनी शूरवीरता का प्रदर्शन करने पर बल देते थे। वे औचित्यपूर्ण तरीकों से विजय प्राप्त करने पर बल देते थे। परन्तु मुगल नैतिक और अनैतिक, उचित और अनुचित सभी तरीकों से विजय प्राप्त करना चाहते थे। वे सामूहिक रूप से अपनी पूरी शक्ति लगा कर शत्रु को नष्ट करने में जुट जाते थे। राजपूतों में इसका अभाव था।

(10) बाबर का कुशल नेतृत्व-

बाबर एक कुशल और अनुभवी सेनापति था। उसने खानवा के मैदान में तुलुगमा पद्धति से अपनी सेना की मोर्चाबन्दी की थी। वह अपने सैनिकों में बड़ा लोकप्रिय था। बाबर में अपने सैनिकों में जोश उत्पन्न करने तथा उन्हें विजय दिलाने की पूरी क्षमता थी अतः प्रत्येक मुगल सैनिक बाबर के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने के लिए तैयार था।

खानवा के युद्ध के परिणाम एवं महत्त्व

खानवा के युद्ध के परिणाम का विश्लेषण निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है-

(1) जन-धन की अपार हानि-

डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव का कथन है कि"भारतवर्ष के इतिहास में खानवा का युद्ध अत्यन्त स्मरणीय युद्धों में से एक था। सैनिक दृष्टिकोण से यह निर्णायक सिद्ध हुआ। राणा के पक्ष की भारी हानि हुई। राणा सांगा स्वयं घायल हुआ, हसन खाँ मेवाती तथा अन्य प्रमुख सरदार वीरगति को प्राप्त हुए। पराजित सेना को वुरी तरह मार-काट डाला गया। राजपूतों की सैन्य शक्ति कुचल तो दी गई, परन्तु पूर्णत: नष्ट नहीं हुई।"

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प्रो. श्रीराम शर्मा का कथन है, "पिछले दस वर्षों से मुसलमानों के सामने राजपूतों की शक्ति का जो खतरा मंडरा रहा था वह सदैव के लिए समाप्त हो गया। ऐसी कोई राजपूत जाति नहीं थी जिसके अच्छे से अच्छे योद्धा नहीं मारे गये हों। वीर राजपूतों के सिरों का एक भयानक मीनार बनाया गया और बाबर ने गाजी (धर्म युद्ध का विजेता) की उपाधि धारण की।"

(2) मुगल साम्राज्य का दृढ़तापूर्वक स्थापित होना-

मुगल साम्राज्य भारत में दृढ़तापूर्वक स्थापित हो गया। अब भारत में बाबर की सत्ता को चुनौती देने वाली कोई शक्ति नहीं रही। इस युद्ध ने देश के नेतृत्व की बागडोर राजपूतों के हाथ से छीनकर मुगलों को दे दी, जिन्होंने लगभग 200 वर्षों तक राजसत्ता का उपभोग किया। डॉ. गोपीनाथ शर्मा का कथन है कि "इससे राजसत्ता राजपूतों के हाथों से निकलकर मुगलों के हाथों में आ गई जो लगभग 200 वर्ष से अधिक समय तक उनके पास रही।"

(3) राजपूतों पर प्रहार-

इतिहासकार लेनपूल का कथन है कि "एक वर्ष के अन्दर बाबर ने दो निश्चयकारी प्रहार किये जिससे दो सुसंगठित शक्तियां छिन्न-भिन्न हो गईं। पानीपत को विजय से भारत में अफगानों की शक्ति बिलकुल नष्ट हो गई और खानवा की लड़ाई से राजपूतों का संघ चकनाचूर हो गया।"

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डॉ. ओझा के अनुसार, "इस युद्ध के पश्चात् राजपूतों का वह प्रताप जिसकी ख्याति कुम्भा तथा बाद में सांगा के समय में दूर-दूर तक फैल गई थी, एकदम कम हो गया। इस प्रकार खानवा के युद्ध ने राजपूत शक्ति को पतन की ओर धकेल दिया।"

(4) मेवाड़ की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचना-

इस युद्ध ने मेवाड़ राज्य की शक्ति और प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाया। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है "सदियों से अर्जित प्रतिष्ठा को इस युद्ध से बड़ा आघात पहुंचा जिसको समय की गति भी न भुला सकी।"

(5) हिन्दू संस्कृति पर आघात-

डॉ. रघुवीर सिंह ने लिखा है कि, "राजस्थान की सदियों से पुरानी स्वतंत्रता तथा उसकी प्राचीन हिन्दू संस्कृति को सफलतापूर्वक अक्षुण्ण बनाये रख सकने वाला अब वहां कोई भी नहीं रह गया। मुगल-साम्राज्य ने राजस्थान की स्वतन्त्रता का अन्त कर दिया और राजनीतिक शक्ति के पतन के बाद राजस्थान की संस्कृति, वहाँ की विद्या और कला का भी ह्रास होने लगा।"

मुगल साम्राज्य की स्थापना के पश्चात् उत्तरी भारत में उत्पन्न होने वाली नई सम्मिलित हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव कुछ समय पश्चात् राजस्थान के लोगों के रहन-सहन, वेश-भूषा, आचार-विचार पर दिखाई देने लगा।

(6) सैनिक परिणाम-

डॉ. कालूराम शर्मा लिखते हैं कि "खानवा के युद्ध के सैनिक परिणाम भी महत्त्वपूर्ण थे। इस युद्ध में राजपूतों को मुगलों के लड़ने के ढंग को देखने व समझने का अवसर मिला। उन्हें तोपखाने तथा घुड़सवारों की तेज गति का विनाशकारी प्रभाव देखने को मिला। परन्तु दुर्भाग्यवश राजपूतों ने इस युद्ध से कोई सबक नहीं सीखा। वे अपनी परम्परागत पद्धति से ही चिपके रहे जबकि पड़ोस के मुस्लिम राज्यों ने तत्काल तोपखाने का महत्त्व समझते हुए इसे अपनी सेना का अंग बना लिया। राजपूतों ने इस तरफ बहुत विलम्ब के बाद ध्यान दिया जिसकी वजह से वे इस क्षेत्र में अधिक दक्षता प्राप्त नहीं कर सके। फिर भी उनकी परम्परागत शैली में एक नये सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त हो चुका था।"

(7) राजपूतों का हिन्दू साम्राज्य स्थापित करने के स्वप्न की समाप्ति-

इस युद्ध के पश्चात् राजपूतों की शक्ति काफी कमजोर हो गई। राजपूतों द्वारा भारत में हिन्दू-साम्राज्य स्थापित करने के प्रयासों को प्रवल आघात पहुंचा। खानवा के युद्ध की पराजय के बाद आने वाले 200 वर्षों तक राजपूत शासक राजपूत संघ का निर्माण न कर सके।

(8) बाबर की कठिनाइयों का अन्त-

खानवा के युद्ध ने बाबर की कठिनाइयों का अन्त कर दिया। अब उसे किसी प्रकार की चिन्ता न रही तथा उसके लिए भारत में आगे विजय करना सरल हो गया। अब उसका घुमक्कड़ जीवन समाप्त हो गया और वह भारत में स्थायी राज्य को स्थापना करने में सफल हुआ।

(9) अफगानों के दमन में सरलता-

खानवा के युद्ध में राजपूतों की शक्ति का विनाश हो जाने से बाबर को अफगानों की बची हुई शक्ति को नष्ट करने में तथा विद्रोहों के दमन में बड़ी सहायता मिली।

(10) भारत का बाबर की गतिविधियों का केन्द्र बनना-

खानवा युद्ध के परिणामस्वरूप भारत ही पूरी तरह से बाबर की गतिविधियों का केन्द्र बन गया। यहीं उसने अपना शेष जीवन व्यतीत किया और यहीं रहकर वह मुगल-साम्राज्य का विस्तार करता रहा। प्रो. रशब्रुक विलियम्स के अनुसार "खानवा के युद्ध के बाद भारत उसके शेष जीवन की गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र बन गया।"

खानवा के युद्ध का महत्त्व-

इस युद्ध से राजसत्ता राजपूतों के हाथ से निकल कर मुगलों के हाथों में केन्द्रित हो गई। मुगल साम्राज्य भारत में दृढ़तापूर्वक स्थापित हो गया। इस युद्ध से धन-जन की अपार क्षति हुई।

डॉ. आशीर्वादीलाल का कथन है कि "भारतवर्ष के इतिहास में खानवा युद्ध अत्यन्त स्मरणीय युद्धों में से एक था। सैनिक दृष्टिकोण से यह युद्ध निर्णायक सिद्ध हुआ। राणा सांगा के पक्ष को भारी हानि हुई। राणा सांगा स्वयं घायल हुआ, हसन खाँ मेवाती तथा अन्य प्रमुख सरदार वीरगति को प्राप्त हुए। राजपूतों को सैन्य शक्ति कुचल तो दी गई परन्तु पूर्णत: नष्ट नहीं हुई।"

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