राणा सांगा का
प्रारम्भिक जीवन
महाराणा सांगा रायमल का पुत्र था। इनकी माता का नाम रतन कंवर था। रायमल ने अपने उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं लिया था अत: उसके पुत्रों में उत्तराधिकार संघर्ष प्रारम्भ हो गया। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजा बनने के लिए राणा सांगा को पृथ्वीराज के विरोध का सामना करना पड़ा। पृथ्वीराज के साथ संघर्ष करते हुए राणा सांगा की एक आँख जाती रही। अन्त में सांगा ने अजमेर पहुँचकर कर्मचन्द पंवार के यहाँ शरण प्राप्त की और अज्ञातवास में रहते हुए अपनी शक्ति को संगठित किया।
राणा सांगा का
राज्याभिषेक
राणा सांगा मेवाड़ की गद्दी प्राप्त
करने के लिए उचित अवसर की तलाश में था। संयोगवश परिस्थितियाँ भी सांगा के
अनुकूल होती चली गई। जयमल की मृत्यु सोलंकियों से युद्ध करते हुए हो गई। पृथ्वीराज
की धोखे से विष की गोलियाँ खाने के कारण मृत्यु हो चुकी थी। सारंगदेव की
हत्या पृथ्वीराज द्वारा पहले ही हो चुकी थी। इस प्रकार सांगा को मेवाड़ का
उत्तराधिकारी नियुक्त किया। रायमल की मृत्यु के पश्चात् 1509 ई. में सांगा महाराणा
संग्राम सिंह के नाम से मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। इस प्रकार अपनी
कर्तव्यनिष्ठा, कूटनीति तथा दलवन्दी में
निपुणता के कारण सांगा को मेवाड़ की गद्दी पर बैठने का अवसर मिला।
राणा सांगा की
प्रारम्भिक कठिनाइयाँ
राणा सांगा को गद्दी पर बैठते समय
अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कुम्भा की मृत्यु के पश्चात् मेवाड़ के
अनेक प्रदेशों पर पड़ोसी राजपूत तथा मुस्लिम शासकों ने अधिकार कर लिया था। अत:
सांगा के सामने सबसे प्रमुख समस्या मेवाड़ के खोये हुए प्रदेशों को पुनः प्राप्त
करने की थी। जिस समय राणा सांगा मेवाड़ का शासक बना उस समय मेवाड़
राज्य की सीमाएँ चारों तरफ से असुरक्षित थी।
सांगा ने धैर्य, साहस तथा सूझ-बूझ के साथ
समस्त कठिनाइयों का मुकाबला किया और शीघ्र ही उन पर काबू पा लिया। उसने अपने
हितैषी कर्मचन्द पंवार को अजमेर, परबतसर, माण्डल, फूलिया, बनेड़ा आदि 15 लाख की
वार्षिक आय के परगने जागीर में दिये। इसके पश्चात् राणा सांगा ने मैत्री
सम्बन्धों और अपने विश्वासपात्रों को नियुक्ति के द्वारा साम्राज्य की सीमाओं को
सुरक्षित किया।
राणा सांगा की उपलब्धियाँ
अजमेर और चाकसू की
विजय-
राणा सांगा सम्पूर्ण राजस्थान
में मेवाड़ का प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने अजमेर
पर अधिकर कर लिया और इस क्षेत्र का शासन अपने मित्र कर्मचन्द पंवार को सौंप
दिया। इसके पश्चात् उसने चाकसू पर भी अधिकार कर लिया। इतिहासकार अहमद
यादगार का कथन है कि राणा सांगा ने दिल्ली सुल्तानों से चाकसू
छीन लिया और वहाँ आबाद सैयद परिवारों पर अत्याचार किये। इस प्रकार अजमेर और
चाकसू पर अधिकार करके राणा सांगा ने मेवाड़ की सीमाओं का विस्तार
किया।
राणा सांगा और
मालवा-
राणा सांगा और मालवा के
सुल्तान महमूद द्वितीय के मध्य संघर्ष के निम्नांकित कारण थे-
(1) राणा सांगा तथा महमूद द्वितीय की
महत्त्वाकांक्षाएँ- राणा सांगा तथा मालवा के सुल्तान महमूद द्वितीय दोनों ही महत्त्वाकांक्षी
शासक थे। दोनों ही अपने-अपने राज्यों की सीमाओं का विस्तार करने और उत्तरी भारत
में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए कटिबद्ध थे। राणा सांगा मेवाड़ की सीमाओं
का विस्तार कर एक विशाल हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करना चाहता था। दूसरी ओर
महमूद द्वितीय भी उत्तरी भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। अत: इस
स्थिति में दोनों के मध्य संघर्ष होना स्वाभाविक था।
(2) मालवा के सुल्तानों की धार्मिक
कट्टरता- मालवा के
सुल्तान धर्मान्ध थे। वे अपने राज्य की हिन्दू प्रजा पर अत्याचार करते थे। उनकी धन, सम्पत्ति को लूट लेते थे
तथा मन्दिरों और मूर्तियों को ध्वस्त कर देते थे। दूसरी तरफ राणा सांगा अपने आपको
हिन्दू धर्म का संरक्षक समझता था अतः उसने मालवा पर आक्रमण किया।
(3) मेदिनीराय के मामले में मनमुटाव- मालवा के सुल्तान महमूद
द्वितीय पर मेदिनीराय नामक एक राजपूत सरदार का अत्यधिक प्रभाव था। मेदिनीराय
के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण मालवा के मुस्लिम सरदार बड़े चिन्तित थे। अत:
उन्होंने मेदिनीराय की शक्ति समाप्त करने के लिए षड्यन्त्र रचने का कार्य किया। मेदिनीराय
ने राणा सांगा से सहायता की याचना की परन्तु सांगा ने सहायता प्रास होने से
पहले ही मेदिनीराय के परिवार के सदस्यों को मुस्लिम सेना द्वारा मौत के घाट
उतार दिया गया जिससे राणा सांगा नाराज हो गये और उन्होंने-मालवा के शासक महमूद
द्वितीय को दण्डित करने का निश्चय किया।
राणा सांगा का इतिहास |
महमूद द्वितीय की पराजय- राणा सांगा ने एक विशाल
सेना के साथ मालवा के विरुद्ध सैनिक अभियान किया और गागरोन पर अपना
अधिकार कर लिया। महमूद द्वितीय बुरी तरह पराजित हो गया और उसे बन्दी बना
लिया गया। लगभग 6 महीने तक चित्तौड़ में बन्दी रखने के पश्चात् महमूद द्वितीय
को मुक्त कर दिया गया और उसे मालवा लौट जाने की अनुमति दी गई। राणा
सांगा द्वारा महमूद द्वितीय को छोड़ देने की नीति पर इतिहासकारों ने
मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की परन्तु निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि राणा
का ऐसा करना बुद्धिमानी का द्योतक था।
राणा सांगा और
गुजरात-
कुम्भा के समय से
ही मेवाड़ और गुजरात के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। राणा सांगा के समय में मेवाड़-
गुजरात के आपसी सम्बन्ध और भी बिगड़ गये तथा कई प्रश्नों को लेकर इन दोनों राज्यों
का आपस में संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया। मेवाड़ और गुजरात के बीच संघर्ष के
कारण-मेवाड़ और गुजरात के बीच संघर्ष के निम्नलिखित कारण थे-
(1) नागौर पर अधिकार करना- कुम्भा ने नागौर के
शासकों को वार्षिक कर देने के लिए बाध्य किया था। तब से नागौर के मुस्लिम शासक
मेवाड़ को वार्षिक कर देते आ रहे थे। परन्तु सांगा के समय गुजरात के शासक ने नागौर
को पूर्ण स्वतन्त्र करवाने के प्रयास किये जिसके कारण दोनों शक्तियों के बीच युद्ध
की स्थिति उत्पन्न हो गई।
(2) गुजरात के शासक द्वारा मालवा की
सहायता करना- गुजरात के शासक
ने महाराणा सांगा के विरुद्ध मालवा की सैनिक सहायता की। गुजरात के शासक मुजफ्फरशाह
ने माण्डू पर आक्रमण करके मेदिनीराय के पुत्र नत्थू को मार डाला। ऐसी स्थिति में
राणा सांगा ने गुजरात के शासक की शक्ति समाप्त करने का निश्चय किया।
(3) राणा सांगा की महत्त्वाकांक्षा- राणा सांगा एक
महत्त्वाकांक्षी शासक था। उसने अपनी शक्ति में वृद्धि करने के लिए सिरोही, मारवाड़, बांगड़ आदि के शासकों से
मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने प्रारम्भ किये। राणा सांगा की इस कार्यवाही से
गुजरात का शासक नाराज हो गया और उसने राणा सांगा की बढ़ती शक्ति पर अंकुश लगाने का
निश्चय किया।
(4) ईडर की समस्या- मेवाड़ तथा गुजरात के
बीच संघर्ष का प्रमुख कारण ईडर का प्रश्न था। गुजरात व मेवाड़ की सीमा के मध्य
होने के कारण इंडर बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान था। गुजरात के शासक ईडर पर अपना
प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे ताकि मेवाड़ पर सरलता से आक्रमण कर सकें। राणा
सांगा ने ईडर पर आक्रमण करके भारमल को मार भगाया जो गुजरात के सुल्तान का समर्थक
था ऐसी स्थिति में गुजरात व मेवाड़ के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई।
राणा सांगा व गुजरात शासक के मध्य
संघर्ष- गुजरात के शासक
ने अहमदनगर के जागीरदार निजाम-उल-मुल्क को मेवाड़ की सेना के विरुद्ध भेजा।
प्रारम्भिक सफलता के पश्चात् मुस्लिम सेना को अनेक स्थानों पर पराजित होना पड़ा।
गुजरात की सेना की पराजय से सुल्तान मुजफ्फरशाह बड़ा नाराज हुआ और उसने
मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए सोरठ के हाकिम मलिक अयाज को भेजा। मुस्लिम सेना, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, सागवाड़ा आदि स्थानों को
नष्ट करती हुई मन्दसौर तक पहुँच गई। मालवा का सुल्तान भी इस सेना के साथ आ मिला।
राणा सांगा ने भी अपनी सेना के साथ मन्दसौर की तरफ प्रस्थान किया।
डॉ. ओझा के अनुसार मलिक अयाज
ने युद्ध में पराजित होने की आशंका से राणा सांगा से संधि कर ली और
गुजरात लौट गया। इसके पश्चात् गुजरात के शासक ने राणा सांगा का
प्रतिरोध करने का कभी साहस नहीं किया। इस सम्पूर्ण अभियान में गुजरात की सेना को
किसी प्रकार की सफलता नहीं मिली और राणा सांगा अपना कूटनीति तथा
पराक्रम के बल पर मेवाड़ राज्य की रक्षा करने में सफल रहा।
राणा सांगा व दिल्ली
के सुल्तान-
राणा सांगा को दिल्ली
सल्तनत के शासक इब्राहिम लोदी के साथ संघर्ष करना पड़ा जिसका मुख्य
कारण मालवा पर अधिकार बनाये रखना था। राणा सांगा व इब्राहिम
लोदी दोनों ही मालवा पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। राणा
सांगा की साम्राज्य विस्तार की भावना भी इस युद्ध के लिए उत्तरदायी थी। 1517
ई. में दोनों पक्षों के बीच बूंदी के निकट खातोली नामक स्थान पर
घमासान युद्ध हुआ। जिसमें इब्राहिम लोदी पराजित होकर भाग निकला, परन्तु उसका एक राजकुमार
बन्दी बना लिया गया। इस युद्ध में राणा सांगा भी बुरी तरह घायल हुआ। उसका
एक हाथ कट गया और टांग में तीर लगने से लंगड़ा हो गया।
खातोली की पराजय का बदला लेने
के लिए इब्राहिम लोदी ने मिया माखन नेतृत्व में एक
विशाल सेना राणा सांगा के विरुद्ध भेजी, परन्तु इस युद्ध में भी राजपूत सना की। जिसमें राजपूतों की
ही विजय हुई थी। इब्राहिम की पराजय से राणा सांगा की प्रतिष्ठा में
वृद्धि हुई।
राणा सांगा और बाबर-
बाबर एक पराक्रमी और
महत्त्वाकांक्षी शासक था। वह काबुल का शासक था। परन्तु काबुल के
छोटे राज्य से वह सन्तुष्ट नहीं था, अतः उसने भारत की जीतने तथा एक विशाल साम्राज्य स्थापित
करने की योजना बनाई। उसने दिल्ली सल्तनत की दुर्बलता का फायदा उठाकर
भारत पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए 1526 ई. में इब्राहिम लोदी के
विरुद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध में बाबर को सफलता मिली परिणामस्वरूप
दिल्ली व आगरा पर बाबर का अधिकार हो गया। बाबर सम्पूर्ण भारत का
स्वामी बनना चाहता था। अतः उसने राणा सांगा के विरुद्ध सैनिक अभियान का
निश्चय किया।
खानवा का युद्ध- राणा सांगा व बाबर
की सेना के बीच 17 मार्च, 1527 को खानवा
का युद्ध प्रारम्भ हुआ। प्रारम्भ में मुगल सेना भयभीत हो गई क्योंकि
राजपूत सेना की संख्या बहुत अधिक थी परन्तु बाबर के तोपखाने ने राजपूत सेना
को धराशायी कर दिया। यद्यपि राजपूतों ने मुगल सेना पर भयंकर प्रहार किये, परन्तु तोपखाने के आगे
राजपूतों की वीरता को नतमस्तक होना पड़ा। अन्त में राजपूतों का साहस टूट गया।
स्वयं राणा सांगा भी युद्ध क्षेत्र में घायल हो गया। दस घण्टों के घमासान
युद्ध के पश्चात् बाबर को निर्णायक विजय प्राप्त हुई।
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खानवा के युद्ध में बाबर
की सफलता के कारणों में प्रमुख बाबर द्वारा तुलुगुमा पद्धति
का प्रयोग करना था। बाबर की तुलुगुमा पद्धति इतनी कारगर एवं
प्रभावशाली थी कि राजपूत इस पद्धति का तथा बाबर की चाल को समझ ना सके।
परिणाम यह हुआ कि अचानक वे मुगल सेना से घिर गये और लड़ते हुए मारे गये।
बाबर की विजय का एक प्रमुख
कारण सांगा को अपने आपको युद्ध में झोंक देना था। बाबर एक निश्चित
स्थान पर खड़ रहकर युद्ध का संचालन करता था। बाबर ने कभी अपने आपको शत्रु
के सामने नहीं आने दिया। सांगा बिना सोचे समझे युद्ध में उतर आया तथा शत्रु
के सामने आते ही शत्रु को उस पर वार करने का अवसर मिल गया।
राणा सांगा का मूल्यांकन
राणा सांगा का
मूल्यांकन करते हुए डॉ.
गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि, "इतिहास में
महाराणा सांगा का नाम भारतीय अन्तिम हिन्दू सम्राट के रूप में अमर है जिसने अपने
नेतृत्व में सब राजपूत जातियों को, विदेशी आक्रमणों को रोकने और उनसे वीरता से मुकाबला करने के
लिए संगठित किया।
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महाराणा सांगा के
सेनापतित्व में 108 से ऊपर राजा-महाराजा लड़ते थे। सांगा का समय शान्ति का
न था। वह समय लड़ाई, निरन्तर युद्ध और
पराक्रम से देशरक्षा का था। अवसर को पहचान कर महाराणा ने जातीय जीवन को स्थिर रखने
के लिए और देश के सम्मान को बढ़ाने के लिए भरसक प्रयल किया। ऊंचे आदर्शों और
देशाभिमान से प्रेरित होकर उस समय की जनता ने महाराणा का पूरा साथ दिया। यही कारण
था कि महाराणा सांगा ने कई बार दिल्ली, माण्डू और गुजरात के शासकों को न केवल हराया, बल्कि उन्हें बन्दी
बनाकर छोड़ दिया।"
(1) वीर योद्धा तथा
महान् विजेता-
वास्तव में राणा
सांगा का अधिकांश जीवन युद्धों में व्यतीत हुआ। निरन्तर युद्धों में भाग लेने
के कारण राणा को एक आंख, एक हाथ, एक यंग नष्ट हो गयी थी और
उसके शरीर पर लगभग 80 घाव थे। जब तक सांगा जीवित रहा उसने गुजरात, मालया और दिल्ली के
सुल्तानों को अपने साहस और बल के आतंक से अपनी सीमा की ओर बढ़ने न दिया।
राणा सांगा ने अपने चरित्र बल से उस
जमाने में इस बात की पुष्टि कर दी थी कि उच्च पद और चतुराई की अपेक्षा स्वदेश
रक्षा और मानव धर्म का पालन करने का अधिक महत्त्व है। उसने हिम्मत, मर्दानगी और वीरता के
आचरण को अपनाकर अपने-आपको अमर बताया। आज भी उसके जीवन के उद्देश्य और आचरण भारतीय
जनता के आदर्श स्वरूप है।
राणा सांगा ने राजस्थान में मेवाड़
की सर्वोच्चता स्थापित की। उसने मालवा, गुजरात तथा दिल्ली के सुल्तानों को पराजित करके सम्पूर्ण
उत्तरी भारत में अपने पराक्रम तथा सैन्य-शक्ति की धाक स्थापित कर दी।
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स्वयं बाबर
ने राणा सांगा की वीरता तथा पराक्रम की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, "राणा सांगा अपनी शूरवीरता सथा तलवार
के बल पर बहुत शक्तिशाली हो चुका था। मालवा, गुजरात और दिल्ली का कोई सुल्तान अपने ही बलबूते पर उसे
पराजित करने की स्थिति में नहीं था। उसका मुल्क 10 करोड़ की आमदनी का था। उसकी
सेना में एक लाख सवार थे। उसके साथ 7 राजा, 9 राव तथा 104 छोटे सरदार रहा करते थे। उसके तीन
उत्तराधिकारी भी यदि वैसे ही वीर और योग्य होते तो मुगलों का राज्य भारत में जमने
नहीं पाता।"
(2) कुशल प्रशासक-
राणा सांगा एक कुशल
प्रशासक भी था। उसने 1509 ई.से 1528 ई. तक शासन किया और इस अवधि में अपनी प्रजा के
जीवन को सुखी तथा सम्पन्न बना दिया। वह अपनी प्रजा को अपनी सन्तान के समान समझता
था तथा उसकी नैतिक एवं भौतिक उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता था। उसके समय
में मेवाड़ अपनी शक्ति तथा वैभव की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। उसने प्रशासन
के संचालन के लिए अनेक योग्य मन्त्री और उच्च पदाधिकारी नियुक्त किये। उसका
शासन-तन्त्र पर पूर्ण नियन्त्रण था। उसके अधीन सामन्त तथा उच्च पदाधिकारी उसके
प्रति पूर्ण निष्ठा रखते थे तथा उसके आदेशों का पालन करते थे। उसके कुशल प्रशासन
के कारण मेवाड़ राज्य में शान्ति एवं व्यवस्था बनी हुई थी तथा मेवाड़ राज्य समृद्ध
बना हुआ था।
(3) कुशल
राजनीतिज्ञ-
राणा सांगा एक कुशल राजनीतिज्ञ भी
था। उसने अपने कूटनीतिक चातुर्य से मालवा तथा गुजरात के सुल्तानों से मेवाड़-राज्य
को सुरक्षित रखा। उसने बाबर के विरुद्ध भी अनेक अफगान सरदारों का समर्थन
प्राप्त किया और उनकी सहायता से मुगलों को भारत से खदेड़ने का प्रयास किया।
(4) हिन्दू धर्म तथा
संस्कृति का रक्षक-
राणा सांगा हिन्दू धर्म का प्रबल
पोषक था। वह हिन्दू धर्म तथा संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व
न्यौछावर कर देने के लिए तैयार था। हिन्दू धर्म का प्रबल पोषक होते हुए भी
वह एक धर्म सहिष्णु व्यक्ति था तथा सभी धर्मों का सम्मान करता था। उसने मुस्लिम
प्रजा पर कभी अत्याचार नहीं किया। यह उसकी धार्मिक सहिष्णुता का ही परिणाम था कि
हसन खाँ मेवाती,
महमूद लोदी आदि
अनेक अफगान सरदारों ने खानवा के युद्ध में राणा सांगा
के नेतृत्व में बाबर का मुकाबला किया था।
(5) चारित्रिक
दुर्बलताएँ-
फिर भी हम कह
सकते हैं कि राणा सांगा के चरित्र में कुछ त्रुटियां थीं। साहस एवं शौर्य
की कमी न होते हुए भी शत्रु को चाल के अनुरूप अपनी युद्ध-शैली मोड़ने की सूझबूझ की
उसमें कमी थी। उसने बयाना पर अधिकार करके लगभग एक महीने का समय व्यर्थ में
बरबाद कर दिया। यदि वह उस समय ही हतोत्साहित मुगल सैनिकों पर आक्रमण करता तो शायद
भारतवर्ष का इतिहास दूसरा ही होता। वहु-विवाह के दोष से न बचना भी उसके
जीवन की सबसे बड़ी भूल थी, जिससे कालान्तर
में मेवाड़ राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। कुछ त्रुटियों के होते हुए भी राणा सांगा
एक महान् शासक था।
डॉ. ओझा के अनुसार, "महाराणा सांगा वीर, उदार, कृतज्ञ, बुद्धिमान और न्यायपरायण
शासक था। अपने शत्रु को बन्दी बनाकर छोड़ देना और उसे राज्य दे देना सांगा
जैसे वीर पुरुष का कार्य था। प्रारम्भ से ही विपत्तियों में पलने के कारण वह निडर, साहसी, वीर और एक अच्छा योद्धा
बन गया था, जिससे वह मेवाड़ को एक
साम्राज्य बना सका। वह अन्तिम हिन्दू राजा था जिसके सेनापतित्व में सब राजपूत
जातियां विदेशियों को भारत से निकालने के लिए सम्मिलित हुई। गुजरात, मालवा और दिल्ली के
सुल्तानों को पराजित करके उसने महाराणा कुम्भा के आरम्भ किये हुए
कार्य को आगे बढ़ाया।
डॉ. गोपीनाथ
शर्मा लिखते हैं कि
"इतिहास में महाराणा सांगा का नाम अन्तिम भारतीय हिन्दू
सम्राट् के रूप में अमर है, जिसने अपने
नेतृत्व में सब राजपूत जातियों को विदेशी आक्रमण को रोकने और उनसे वीरता से
मुकाबला करने के लिए संगठित किया।"
कर्नल टॉड का कथन है कि "सांगा
अत्यन्त साहसी और धैर्यवान था। वह न केवल शूरवीर तथा दूरदर्शी था, बल्कि वह एक सुयोग्य शासक
भी था। राणा कुंभा के बाद मेवाड़-राज्य ने जो कुछ खोया था, राणा सांगा
अधिकार पाते ही राज्य ने उसे फिर पा लिया।"
आशा है कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
यह भी जानें- खानवा युद्ध के कारण, परिणाम और महत्व
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