राजस्थान के एकीकरण
के चरण
राजस्थान का एकीकरण सात चरणों में पूरा हुआ था।
यह प्रक्रिया 17 या 18 मार्च, 1948 से शुरू होकर 1 नवंबर, 1956 को खत्म हुई थी। इस दौरान 8 साल, 7 महीने, और 14 दिन लगे थे।
(1) प्रथम चरण (मत्स्य
संघ का निर्माण)-
पहले चरण में मत्स्य संघ का गठन 18 मार्च, 1948 को हुआ था, इसका मंत्रिमंडल शोभा राम के नेतृत्व में बना था। इसमें धौलपुर, अलवर, भरतपुर और करौली राज्य को संगठित किया गया। स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व ही भारत में साम्प्रदायिक दंगों से तनाव बढ़ गया था। अलवर व भरतपुर इन दंगों से अधिक प्रभावित थे। अलवर में मेव जाति के लोगों ने अशांति एवं आतंक फैला रखा था। अलवर में मेवों को खदेड़ने के लिए अनेक उपायों का सहारा लिया गया।
अलवर के तत्कालीन
मुख्यमन्त्री डॉ. एन. बी. खरे जो पहले कांग्रेसी थे, बाद में हिन्दू महासभा के
अध्यक्ष रहे, के बारे में तरह-तरह को अफवाहें
भारत सरकार को मिली। सरदार पटेल ने अक्टूबर, 1947 में अलवर व भरतपुर के नरेशों
एवं डॉ. खरे की एक सभा बुलाई। सभा में साम्प्रदायिक शान्ति कायम रखने पर
विचार किया गया। किन्तु डॉ. खरे का रुख रुखा था। उन्हें अलवर के आन्तरिक शासन में
बाहरी हस्तक्षेप पसन्द नहीं था।
भारत सरकार ने
मुख्यमन्त्री डॉ. खरे को हटाना उचित समझा। इस बीच महात्मा गाँधी की हत्या
कर दी गई। हत्या के सम्बन्ध में तरह-तरह की अफवाहें फैलने लगीं। डॉ. खरे व
अलवर नरेश को हत्याकाण्ड की जाँच पूरी होने तक दिल्ली में रखा गया। भरतपुर में भी
रेलगाड़ियों के लूटे जाने व मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार के कारण भरतपुर नरेश को
राज्य को शासन व्यवस्था भारत सरकार को सौंपने की सलाह दी जिसे राजा ने स्वीकार कर
लिया। उधर हत्याकाण्ड को जाँच का कार्य पूरा हो गया। किन्तु अभी साम्प्रदायिक तनाव
व अल्पसंख्यकों के हितों की समस्या को हल करना शेष था।
अत: अलवर, भरतपुर, धौलपुर व करौली राज्यों, जिनको भौगोलिक सीमा आपस
में जुड़ी थी,
के राजाओं को
दिल्ली बुलाकर एक बैठक की। इससे इन चारों राज्यों को मिलाकर एक संघ बनाने का प्रस्ताव
रखा। चारों राजाओं ने इस प्रस्ताव को स्वीकारा। मणिकलाल मुंशी के अनुरोध पर
इस संघ नाम मत्स्य संघ रखा। प्राचीन काल में भी इस क्षेत्र को इसी नाम से
जाता था। धौलपुर महाराजा को संघ का राज प्रमुख बनाया गया।
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राजस्थान का एकीकरण |
(2) द्वितीय चरण (राजस्थान संघ का निर्माण)-
दूसरे चरण में राजस्थान
संघ का गठन हुआ था, कोटा नरेश भीम सिंह-II को राजप्रमुख और गोकुल
लाल असावा को मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया था।
भारत सरकार और
राजस्थान के छोटे-छोटे राज्यों के नरेशों के मध्य यातचीत चल रही थी कि उनका
राजनीतिक भविष्य कैसा होगा। प्रारम्भ में कोटा, झालावाड़ और डूंगरपुर के राजाओं की तरफ से प्रस्ताव आया।
इनका मानना था कि छोटे-छोटे राज्यों का अपने-अपने साधनों से ही उन्नति करना सम्भव
नहीं होगा। समूहीकरण में सबका भविष्य उज्वल है। तीनों शासकों ने दिल्ली में भारत
सरकार से संघ बनाने का अनुरोध किया। सरकार ने उदयपुर राज्य को भी संघ में शामिल
करने का सुझाव दिया, जिसे उन्होंने
स्वीकार कर लिया परन्तु उदयपुर राज्य ने भारत सरकार को सुझाव दिया कि
दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के सभी राज्या का उदयपुर राज्य में विलीनीकरण कर दिया
जावे। यह सुझाव भारत सरकार व अन्य राज्यों, दोनों को ही स्वीकार्य नहीं था।
अत: 25 मार्च, 1948 को बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, झालावाड़, बूंदी, किशनगढ़, कोटा, प्रतापगढ़, शाहपुरा और टोंक राज्य का
विलीनीकरण कर प्रथम संयुक्त राजस्थान की स्थापना की गयी। कोटा के महाराव को
संयुक्त राजस्थान का राज प्रमुख, बूंदी के महाराव
को उप राजप्रमुख तथा डूंगरपुर के राजा को कनिष्ठ उप राजप्रमुख बनाया गया।
(3) तृतीय चरण (संयुक्त राज्य राजस्थान का गठन)-
तीसरे चरण में संयुक्त
राज्य राजस्थान का गठन हुआ था, सर भोपाल सिंह उदयपुर के पूर्व महाराणा को
राजप्रमुख बनाया गया था।
प्रथम संयुक्त
राजस्थान में उदयपुर को सम्मिलित किया गया। जब संयुक्त राजस्थान के विधिवत्
उद्घाटन की तैयारियाँ चल रही थीं तब ऐन वक्त पर उदयपुर महाराणा के प्रस्तावित
संयुक्त राजस्थान में शामिल होने की सहमति प्राप्त होने की सूचना मिली, किन्तु पूर्व कार्यक्रम
में परिवर्तन करना उचित नहीं समझा गया।
28 मार्च, 1948 को उदयपुर महाराणा के दीवान
ने दिल्ली में गृहमन्त्रालय को लिखित में सूचना दी कि उदयपुर राज्य, संयुक्त राजस्थान
में कुछ शर्तों के साथ शामिल होने को तैयार है। पहली शर्त यह कि उदयपुर के महाराणा
को संयुक्त राजस्थान का राज प्रमुख बनाया जाये। दूसरी शर्त यह कि 20 लाख का वार्षिक
प्रिविपर्स दिया जावे तथा राजप्रमुख का पद वंशानुगत रखा जावे। तीसरी शर्त यह कि
उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाया जावे। उदयपुर के महाराणा की इन
माँगों के सम्बन्ध में सरदार पटेल ने कोटा के महाराव से विस्तार से चर्चा की कि
शर्तों के बारे में विचार कर लिया जावेगा, पहले उदयपुर को शामिल कर
लिया जावे लेकिन कोटा के महाराव ने स्पष्ट कह दिया कि केवल उदयपुर राज्य के लिये
उद्घाटन की तिथि आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। इस पर उदयपुर की बात को भविष्य के लिये
छोड़ दिया गया और 18 अप्रैल, 1948 को पं. नेहरू द्वारा विधिवत्
उद्घाटन किया गया।
संयुक्त राजस्थान के
विधिवत् गठन के बाद उदयपुर के महाराणा की माँग को मान लिया गया। उन्हें कोटा के
महाराव के उच्च पद महाराज प्रमुख का पद दिया गया। यह पद उन्हें वंशानुगत दिया गया
लेकिन यह साफ शब्दों में कहा गया कि इसे किसी भी स्थिति में वंशानुगत नहीं रखा
जावेगा। वार्षिक प्रिविपर्स 20 लाख वार्षिक ही माना गया लेकिन
इसे तीन भागों में विभाजित किया गया। 10 लाख का वार्षिक प्रीविपर्स, 5 लाख वार्षिक भत्ता
व 5 लाख दान, धर्म आदि कार्यों के लिये।
(4) चौथा चरण (वृहत्तर राजस्थान निर्माण)-
एकीकरण के तीन चरण
पूर्ण होने के बाद अब केवल जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि राज्य
ही संयुक्त राजस्थान में शामिल होना शेष रह गये थे। इनमें से तीन राज्यों
बीकानेर, जैसलमेर व जोधपुर की सीमायें पाकिस्तान से लगी हुयी थीं।
अत: इन राज्यों का सामाजिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व था। तीनों के पास अपनी विशाल
सीमायें थी। तीनों ही राज्य एक स्वतन्त्र इकाई के रूप में ही रहने के लिये
प्रयत्नशील थे। लेकिन इन राज्यों की आय इतना नहीं थी कि वे अपनी विशाल सीमाओं की
सुरक्षा या अपनी जनता को आर्थिक, भौतिक उन्नति कर सकें।
चूँकि इनसे भी बड़े राज्यों का विलीनीकरण हो चुका था। अतः इन्हें स्वतन्त्र
नहीं रखा जा सकता था। जनता की भावनायें भी सम्पूर्ण राजस्थान को एक प्रान्त के रूप
में देखने को उत्सुक थीं।
अन्ततः केन्द्र
सरकार ने इन चारों राज्यों को संयुक्त राजस्थान के साथ मिलाने का निश्चय किया
लेकिन इस निर्णय को कार्यरूप में परिणित करना इतना सरल कार्य नहीं था। सबसे पहले जयपुर
राज्य की स्वीकृति ली गई और फिर इसी स्वीकृति के आधार पर अन्य तीनों राज्यों को भी
संघ में शामिल होने तथा अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता त्याग करने के लिये मना लिया
गया। जयपुर व जोधपुर के महाराजा को राज प्रमुख का पद दिया गया। जयपुर व जोधपुर के
राज्यों को 18 लाख रु. वार्षिक प्रिविपर्स व बीकानेर व जैसलमेर
राज्यों को 17.5 लाख प्रत्येक को निश्चित किये गये। जयपुर के
महाराजा को 5 लाख रु. वार्षिक भत्ता अलग से दिया गया।
अब सबसे बड़ी समस्या
राजधानी की थी। जयपुर व जोधपुर राज्य इसके सबसे प्रबल दावेदार थे। दोनों ही
बड़े से बड़ा बलिदान करने को तैयार थे। लेकिन भौगोलिक स्थिति व पेयजल की पर्याप्त
सुविधा को देखते हुये जयपुर का पलड़ा भारी रहा। जयपुर को राजधानी घोषित कर
दिया गया। 30 मार्च, 1949 को सरदार पटेल
ने इसका विधिवत् उद्घाटन किया व पं. हीरालाल शास्त्री के नेतृत्व में नये मन्त्रिमण्डल
ने 7 अप्रैल, 1949 को शासन भार सम्भाला।
(5) पंचम चरण (मत्स्य संघ का विलय)-
मत्स्य संघ की
स्थापना के समय ही इस संघ के राजाओं को, भारत सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि राजस्थान के राज्यों का
संघ बनने के साथ ही 'मत्स्य संघ' का उसमें विलय कर दिया
जावेगा। इस सम्बन्ध में 13 फरवरी, 1949 को दिल्ली में भारत व
संघ के राजाओं के मध्य लम्बी बातचीत हुई। अलवर व करौली के राजा तो राजस्थान के साथ
विलय को तैयार थे किन्तु भरतपुर व धौलपुर राजा भाषाई आधार पर यू. पी. में
मिलना चाहते थे। बाद में भरतपुर राजा ने राजस्थान में विलीनीकरण की
स्वीकृति दे दी। धौलपुर नरेश का कहना था कि यदि जनता का बहुमत यू. पी. के साथ
मिलना चाहता है तो धौलपुर का विलय यू. पी. में कर दिया जाये। इस पर शंकरराव देव की
अध्यक्षता में कमेटी नियुक्त की गई।
कमेटी ने भरतपुर
एवं धौलपुर राज्यों का दौरा कर जन-भावना तथा स्थानीय नेताओं के विचार जाने व भारत
सरकार को रिपोर्ट प्रस्तुत की। रिपोर्ट के अनुसार दोनों राज्यों के लोगों
का बहुमत राजस्थान में विलय के पक्ष में था। इस प्रकार 1 मई, 1949 को मत्स्य संघ के
राजस्थान में विलीनीकरण को प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई तथा 10 मई को मत्स्य संघ
के राजाओं तथा राजस्थान के मुख्यमन्त्री को बातचीत के लिए दिल्ली बुलाया गया तथा
अन्तिम निर्णय लिया गया। 15 मई, 1949 को मत्स्य संघ का शासन
दायित्व राजस्थान को हस्तान्तरित कर दिया गया। इस प्रकार यह राजस्थान का अंग
बन गया।
(6) छठा चरण (सिरोही
का विलय)-
अब केवल एक राज्य
सिरोही का प्रश्न बाकी था। नवम्बर, 1947 के अन्त में सरदार पटेल को यह सुझाव दिया गया कि
राजपूताना एजेन्सी के कुछ राज्यों को वेस्टर्न इण्डिया और गुजरात स्टेट्स एजेन्सी
को सौंप दिया जाये क्योंकि उन राज्यों की अधिकांश जनता गुजराती भाषा-भाषी है। इस
प्रकार राज्य थे-सिरोही, पालनपुर, दाता, इंडर, विजयनगर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और झांयुआ।
परन्तु भारत सरकार ने केवल पालनपुर, दांता, ईडर और विजयनगर
के राज्यों को ही वेस्टर्न इण्डिया गुजरात स्टेट्स एजेन्सी को सौंपने का निर्णय लिया।
झाबुआ, बांसवाड़ा और डूंगरपुर-ये
तीनों राज्य पहले मेवाड़ राज्य के ही अंग थे। अतः इन्हें राजपूताना स्टेट्स
एजेन्सी के अन्तर्गत ही रखा गया।
19 मार्च, 1948 को गुजरात के राजा ने
अपने राज्यों को बम्बई प्रान्त में मिलाने का फैसला किया। उस समय भारत सरकार को
सिरोही राज्य को बम्बई प्रान्त से पृथक रखना पड़ा। परन्तु जब वेस्टर्न इण्डिया
एण्ड गुजरात स्टेट्स एजेन्सी के सभी राज्यों को बम्बई प्रान्त में मिलाना तय
हो गया तो सिरोही को अलग रखना उचित प्रतीत नहीं हुआ। अत: भारत सरकार ने सिरोही की
अभिभाविका रानी के सलाहकार तथा राजस्थान प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष
गोकुल भाई भट्ट को बातचीत के लिए दिल्ली बुलाया। गोकुल भाई का कहना था कि इस समय
सिरोही के भविष्य का फैसला करना उचित नहीं होगा। अच्छा यही रहेगा कि कुछ समय के
लिए भारत सरकार सिरोही की शासन व्यवस्था स्वयं सम्भाले। अत: 8 नवम्बर, 1948 को अभिभाविका रानी के
साथ एक समझौता सम्पन्न कर भारत सरकार ने सिरोही की शासन व्यवस्था का
दायित्व सम्भाल लिया और दो महीने बाद उसने बम्बई प्रान्त को अपनी तरफ से सिरोही का
शासन संचालन सौंप दिया।
सिरोही के भविष्य को लेकर जनता
में परस्पर विरोध की भावनाएँ पनपने लग गयीं। गुजराती लोगों ने मांग की थी कि
सम्पूर्ण सिरोही राज्य का बम्बई प्रान्त में विलय कर दिया जाये। दूसरी तरफ
राजस्थान के लोगों की मांग थी कि इस राज्य को राजस्थान के साथ मिलाया जाये। समाचार-पत्रों
ने इस विवाद को उछाला और संसद में भी इस प्रश्न की तरफ केन्द्रीय नेताओं का ध्यान
आकर्षित किया गया। अन्त में जनवरी, 1950 में यह तय किया गया कि सिरोही की देलवाड़ा तहसील और माउण्ट
आबू का क्षेत्र बम्बई के साथ और सिरोही का शेष भाग राजस्थान के साथ मिला दिया
जाये। परन्तु इस निर्णय से राजस्थान की जनता को सन्तोष नहीं हुआ और उसे लम्बे समय
तक विरोध करना पड़ा। अन्ततः इस समस्य के समाधान के लिए इस प्रकरण को राज्य
पुनगठन आयोग को सौंप दिया गया।
(7) सातवां चरण (राजस्थान
पुनर्गठन)-
राजस्थान के
एकीकरण का सातवां चरण 1 नवंबर 1956 को पूरा हुआ। इस चरण में
अजमेर की देसी रियासत, आबू रोड तालुका, सिरोही रियासत का एक
पूर्व भाग, और मध्य प्रदेश के मंदसौर
जिले का सुनेल-टप्पा क्षेत्र राजस्थान में मिला दिए गए। यह 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम
के कारण हुआ।
संक्षेप में
राजस्थान के वर्तमान राजनीतिक ढाँचे के निर्णय में एक ओर स्थानीय शासकों व नेताओं
तथा दूसरी ओर भारत सरकार के गृहमन्त्री सरदार पटेल व गृह-सचिव मेनन
का महत्त्वपूर्ण व सक्रिय योगदान रहा। परिणामतः वर्तमान राजस्थान अस्तित्व में
आया।
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