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मारवाड़ के राव मालदेव की उपलब्धियाँ

राव मालदेव का प्रारम्भिक जीवन

राव मालदेव राव गाँगा का ज्येष्ठ पुत्र था। अपने पिता के समय में ही मालदेव ने अनेक सैनिक अभियानों में भाग लिया था और अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया था। राव गाँगा की मृत्यु के बाद 5 जून, 1531 ई. में मालदेव मारवाड़ की गद्दी पर बैठा। डॉ. ओझा, डॉ. रघुवीर सिंह आदि के अनुसार मालदेव ने राव गाँगा को धक्का देकर गिरा दिया था जिससे राव गाँगा की मृत्यु हो गई।

मालदेव की विजय

मुगल सम्राट् बाबर 1530 ई. में चल बसा। भारत पर अपना राजनीतिक अधिकार स्थापित करने के लिए जब मुगल और पठान शक्तियाँ आपस में संघर्षरत थीं, तब मालदेव ने अनुकूल परिस्थितियों का लाभ उठाकर मारवाड़ के राज्य-विस्तार का अभियान प्रारम्भ किया।

(1) भाद्रजूण पर अधिकार-

भाद्रजूण के आक्रमण में मेवाड़ के शासक वीरमदेव ने भी उसकी सेना के साथ आकर सहयोग दिया। बहुत समय तक घमासान युद्ध होने के पश्चात् वहाँ मालदेव का अधिकार हो गया। सींघल, वीरा युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया।

(2) नागौर पर कब्जा-

सन् 1536 ई. में मालदेव ने नागौर पर चढ़ाई कर दी और उसे युद्ध में परास्त कर नागौर पर अपना अधिकार कर लिया।

(3) मेड़ता व अजमेर पर अधिकार-

मेड़ता के दूदावत वीरमदेव ने 1535 ई. में अजमेर पर स्वयं अधिकार कर लिया। जब मालदेव ने उससे अजमेर माँगा तो उसने देने से इन्कार कर दिया। मालदेव की सेना ने मेड़ता पर चढ़ाई कर दी और वीरमदेव को मेड़ता छोड़कर अजमेर में जाकर शरण लेनी पड़ी। मालदेव ने उसे वहाँ से भी निकाल दिया।

(4) सिवाना और जालौर पर विजय-

1538 ई. में राव मालदेव ने सिवाने के अधिकार हेतु राठौड़ सेनाएं भेजी। परन्तु सेना सिवाना पर अधिकार करने में सफल न हो सकी। इस पर मालदेव और सेना लेकर स्वयं वहाँ पहुँचा और सिवाना दुर्ग की घेराबन्दी कर दी और सिवाना पर भी मालदेव का कब्जा हो गया।

(5) जैसलमेर और मालदेव में वैमनस्य-

1536 ई.में मालदेव का विवाह जैसलमेर के शासक लूणकरण की पुत्री उमादे के साथ हुआ। परन्तु, मालदेव ने अपनी कामुकता से रानी उमादे को नाराज कर दिया। कहा जाता है कि विवाह की रात मालदेव ने अत्यधिक शराब पी और जब रानी उमादे को एक सुन्दर दासी भारमली रानी के आगमन की सूचना देने के लिए मालदेव के पास गई तो मालदेव भारमली पर आसक्त हो गया और उसके साथ अपनी काम-पिपासा शान्त की। इस घटना से रानी उमादे रूठ गई और फिर मालदेव के पास कभी नहीं गई। मालदेव की मृत्यु के पश्चात् रानी उमादे भी उसके साथ सती हो गई।

(6) महाराणा उदयसिंह से वैमनस्य-

प्रारम्भ में मालदेव और मेवाड़ के सम्बन्ध अच्छे थे परन्तु मालदेव ने अपनी अदूरदर्शिता से मेवाड़ को अपना शत्रु बना लिया। मेवाड़ के सामन्त झाला सज्जा का पुत्र जैतसिंह उदयपुर की जागीर को छोड़कर मालदेव के पास चला गया। मालदेव ने उसे खैरवा को जागीर प्रदान कर दी। जैतसिंह ने अपनी पुत्री स्वरूप देवी का विवाह मालदेव के साथ कर दिया। परन्तु कुछ समय पश्चात् मालदेव ने स्वरूप देवी की छोटी बहिन से भी विवाह करने का प्रस्ताव किया। परन्तु जैतसिंह ने इसे स्वीकार नहीं किया और अपनी पुत्री का विवाह महाराणा उदयसिंह से कर दिया। मालदेव ने इसे अपना अपमान समझा और इसका बदला लेने के लिए कुम्भलगढ़ पर आक्रमण कर दिया परन्तु उसे असफलता का मुंह देखना पड़ा। इस घटना से मारवाड़ और मेड़ता के बीच शत्रुता बढ़ गई।

(7) बीकानेर पर आधिपत्य-

उस समय बीकानेर को जंगल देश के नाम से जाना जाता था। मालदेव ने सन् 1542 ई. के आसपास अपने सेनापति कूपा की अधीनता में एक विशाल सेना बीकानेर की विजय के लिए भेजी। बीकानेर के राजा राव जैतसी ने इस हमले से बचने के लिए शेरशाह से सहायता मांगी जो उसे समय पर नहीं मिल सकी। इस युद्ध में राव जैतसी वीरतापूर्वक लड़ता हुआ अपने साथियों सहित वीरगति को प्राप्त हुआ।

मालदेव की विजय नीति की समीक्षा

मालदेव एक पराक्रमी और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने अपनी निरन्तर विजयों से मारवाड़ राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। उसके राज्य की सीमाएँ उत्तर में बीकानेर व हिसार तक पूर्व में बयाना एवं धौलपुर तक दक्षिण में चित्तौड़ तथा पश्चिम में जैसलमेर तक पहुंच गई थीं। उसने मेड़ता, अजमेर, सिवाना, जालौर, नागौर, भादाजूण आदि के सुदृढ़ दुर्गों पर अधिकार करके अपनी स्थिति को अत्यन्त सुदृढ़ बना लिया था। परन्तु मालदेव का यह विशाल राज्य शक्तिशाली एवं सुसंगठित नहीं था।

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मारवाड़ के राव मालदेव की उपलब्धियाँ

मालदेव में दूरदर्शिता तथा सूझबूझ का अभाव था। उसने मेड़ता के शासक वीरमदेव तथा बीकानेर के शासक जैतसिंह के पुत्र कल्याणमल को अपनी आक्रामक नीति से अपना प्रबल शत्रु बना लिया। परिणामस्वरूप वीरमदेव तथा कल्याणमल ने शेरशाह सूरी की शरण में पहुँचकर उसे मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। इसी प्रकार उसने जैसलमेर और उदयपुर से सम्बन्ध बिगाड़ कर अपनी विवेकहीनता का परिचय दिया।

मालदेव और शेरशाह सूरी के बीच सम्बन्ध

शेरशाह सूरी एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने चौसा तथा कन्नौज की लड़ाइयों में हुमायूँ को पराजित करके दिल्ली और आगरा पर अधिकार कर लिया था। शेरशाह सूरी मारवाड़ राज्य की बढ़ती हुई शक्ति से चिन्तित था। अत: वह मालदेव की शक्ति का दमन कर देना चाहता था। दूसरी ओर मालदेव भी सम्पूर्ण उत्तरी भारत का अधिपति बनना चाहता था। अत: दोनों पक्ष एक-दूसरे के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करते रहे। परिणामस्वरूप 1544 ई. में मालदेव और शेरशाह सूरी के बीच सामेल नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ जिसमें शेरशाह की विजय हुई।

सामेल युद्ध के कारण-

(1) शेरशाह की महत्वाकांक्षा-

शेरशाह सूरी एक महत्वाकांक्षी तथा पराक्रमी शासक था। यह सम्पूर्ण भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहता था। उसने पँजाब, सिन्ध और मालवा आदि पर अधिकार कर लिया था। यह मारवाड़ के स्थान राज्य को अपने लिए चुनौती समझता था। अत: उसने मारवाड़ राज्य पर आधिपत्य करने का निश्चय कर लिया।

(2) मालदेव की महत्वाकांक्षा-

मालदेव भी एक महत्वाकांक्षी शासक था। उस अपनी विजयों के द्वारा मारवाह राज्य का काफी विस्तार कर लिया था। उसने अपनी विस्तारवादी नीति के अन्तर्गत अपने सभी प्रपल प्रतिद्वन्द्रियों का दमन कर दिया था। उसकी वीरता की धार सम्पूर्ण उत्तरी भारत में स्थापित थी। वह उत्तरी भारत में शेरशाह की बढ़ती हुई शक्ति से चिन्तित था और उस पर अंकुश लगाना चाहता था। अत: दोनों में संघर्ष होना स्वाभाविक था।

(3) मारवाड़ का बढ़ता हुआ प्रभाव-

शेरशाह सूरी भी मारवाड़ की बढ़ती हुई शक्ति से बड़ा चिन्तित था। मालदेव के राज्य की सीमाएँ हिण्डौन, बयाना तथा फतेहपुर सीकरी को स्पर्श कर रही थीं। इस प्रकार मारवाड़ राज्य की सीमाएँ शेरशाह सूरी के साम्राज्य की सीमाओं से मिल चुकी थीं। इस स्थिति में स्वतन्त्र मारवाड़ शेरशाह सूरी की सत्ता को कभी भी चुनौती दे सकता था। अत: शेरशाह ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए मारवाड़ राज्य पर आधिपत्य करने का निश्चय कर लिया।

(4) हुमायूँ को बन्दी न बनाना-

हुमायूँ शेरशाह का प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था। जब हुमायूँ मालदेव के निमन्त्रण पर 1542 ई. में मारवाड़ की ओर गया तो शेरशाह बड़ा चिन्तित हुआ। उसने अपने राजदूत द्वारा मालदेव को कहलवाया कि हुमायूँ को बन्दी बनाकर उसके (शेरशाह सूरी के) हवाले कर दिया जाए। परन्तु मालदेव ने शेरशाह सूरी के आदेश का पालन नहीं किया और हुमायूँ को बन्दी बनाकर शेरशाह की सेवा में नहीं भेजा। इसके विपरीत उसने हुमायूँ को अपने यहां शरण देने का प्रयास किया तथा उसकी आर्थिक सहायता की। इससे शेरशाह मालदेव से नाराज हो गया और उसने मालदेव को दण्डित करने का निश्चय कर लिया।

(5) मालदेव के विरोधी राठौड़ों के द्वारा शेरशाह को आक्रमण करने के लिए प्रेरित करना-

मालदेव ने मेड़ता तथा बीकानेर पर अधिकार करके यहाँ के शासकों को अपना शत्रु बना लिया था। मेड़ता के शासक वीरमदेव तथा बीकानेर के शासक कल्याणमल ने शेरशाह सूरी के दरबार में पहुँच कर शरण प्राप्त की और उससे मारवाड़ राज्य पर आक्रमण करने का अनुरोध किया। शेरशाह पहले से ही मालदेव की शक्ति का दमन करने का निश्चय कर चुका था और जब मालदेव के विरोधी राठौड़ सरदारों ने उससे सहायता की मांग की तो शेरशाह मे परिस्थिति का लाभ उठाने का निश्चय कर लिया।

(6) मारवाड़ की तत्कालीन राजनीतिक अवस्था-

मारवाड़ की राजनीतिक अवस्था उस समय अच्छी नहीं थी। मालदेव ने अपनी अदूरदर्शिता से अपने चारों ओर शत्रु कर लिए थे। मेवाड़ के महाराणा उसके शत्रु हो गये थे और उधर अपनी विस्तारवादी नीति से ही बीकानेर मरेश भी नाराज हो गया था। उस राजनीति अवस्था का लाभ उठाने की दृष्टि से भी शेरशाह जोधपुर पर आक्रमण करने को तैयार हो गया।

उपर्युक्त कारणों से प्रेरित होकर शेरशाह सूरी ने मालदेव पर आक्रमण करने का निश्चय किया। 1513 ई. में 80 हजार सैनिकों को लेकर शेरशाह सूरी ने आगरा से प्रस्थान किया। शेरशाह की सेनाएँ फतेहपुर शेखावाटी पहुंची। उसके अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए सामेल में अपने डेरे डाले जहाँ चारों ओर खाइयाँ बनाने तथा पानी मिलने की सुविधा थी। मालदेव ने गिरी नामक गाँव में अपनी सेना के डेरा डाले। दोनों पक्षों की सेनाएँ लगभग एक मास तक एक-दूसरे के सामने पड़ी रही। ऐसी स्थिति में शेरशाह सूरी ने मालदेव के विरुद्ध कूटनीतिक चाल चली और उसने मालदेव के मन में अपने दो सेनानायक जैता तथा कँपा के प्रति अविश्वास की भावना उत्पन्न कर दी।

मालदेव लगभग आधी सेना के साथ युद्ध-क्षेत्र से पलायन कर गया, बची हुई सेना ने शेरशाह सूरी का वीरतूपार्वक सामना किया। परन्तु अन्त में उसकी पराजय हुई और जैता, कुम्पा तथा हजारों राजपूत योद्धा लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। राजपूतों की अद्भुत वीरता से प्रभावित होकर शेरशाह के मुख से ये शब्द निकल पड़े। एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिन्दुस्तान खो देता।" इस विजय के पश्चात् शेरशाह सूरी ने अजमेर, जोधपुर आदि पर अपना आधिपत्य कर लिया।

सामेल युद्ध के परिणाम-

(1) शेरशाह की स्थिति सुदृढ़ होना-

सामेल युद्ध के पश्चात् भारत में शेरशाह सूरी की स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ हो गई। अब सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर शेरशाह का आधिपत्य स्थापित हो गया। अब उसे राजस्थान में चुनौती देने वाला कोई शक्तिशाली शासक नहीं रहा। अतः स्पष्ट है कि इस युद्ध के उपरान्त दिल्ली के नवोदित पठान सत्ता को दृढ़ता प्राप्त हो गई।

(2) मारवाड़ की प्रतिष्ठा को आघात-

शेरशाह सूरी ने राजपूतों को पराजित करके मारवाड़ की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचाया। इसके पश्चात् मारवाड़ राज्य का वैभव एवं गौरव लुप्त होता चला गया। शीघ्र ही अफगानों ने मारवाड़ राज्य के बहुत बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया।

(3) राजपूतों की अपार क्षति-

इस युद्ध के परिणामस्वरूप राजपूतों को धन-जन की भीषण क्षति उठानी पड़ी। विद्वानों के अनुसार इस युद्ध में जैता एवं कूम्पा सहित 5 हजार राजपूत मारे गये। मालदेव अनेक अनुभवी एवं योग्यतम योद्धाओं से वंचित हो गया। इस प्रकार मारवाड़ को सैनिक शक्ति भी नष्ट हो गई।

(4) मालदेव की विस्तारवादी नीति पर पानी फिरना-

इस युद्ध ने मालदेव की शक्ति प्रतिष्ठा को भारी आघात पहुँचाया। उसके हाथ से मारवाड़ राज्य का अधिकांश भाग निकल गया। उसको समस्त उत्तरी भारत के अधिपति बनने की महत्त्वाकांक्षा पर पानी फिर गया।

(5) शेरशाह की कीर्ति पर कलंक-

सामेल युद्ध को शेरशाह सूरी ने छल-कपट के बल पर जीता था जिससे उसकी कीर्ति पर कलंक का टीका लग गया। इस निर्णायक युद्ध के आधार पर इसे महान् विजेता को संज्ञा नहीं दी जा सकती। इससे साम्राज्य निर्माता के रूप में शेरशाह का महत्त्व घट गया।

 (6) विरोधी राठौड़ों को पुरस्कृत करना-

मेड़ता के शासक वीरमदेव तथा बीकानेर के शासक कल्याणमल ने सामेल के युद्ध में शेरशाह सूरी की सहायता की थी। अतः सामेल युद्ध के परचात् शेरशाह ने मेड़ता वीरमदेव को और बीकानेर कल्याणमल को दे दिया। इससे राजपूतों की एकता को प्रबल आघात पहुंचा।

 (7) कूटनीति का महत्त्व-

इस युद्ध ने यह सिद्ध कर दिया कि युद्ध जीतने के लिये केवल शूरवीरता एवं पराक्रम ही काफी नहीं है वरन् युद्ध में शूरवीरता की अपेक्षा कूटनीतिक चालों का अधिक महत्त्व है। इसके विपरीत मालदेव को अपनी अदूरदर्शिता का पता चला गया। उसे ज्ञात हो गया कि मैंने जैता और कूम्पा पर अविश्वास करके भारी भल की। परन्तु इस युद्ध के बाद भी राजपूतों ने इस घटना से कोई शिक्षा नहीं ली। ना तो इन्होंने जातीय एकता की शिक्षा ग्रहण की और न ही सामाजिक कूटनीति को ही सीखा।

डॉ. कानूनगो के अनुसार, "सामेल का युद्ध मारवाड़ के भाग्य के लिए एक" निर्णायक युद्ध था। मालदेव के लिए यह लड़ाई महंगी पड़ी क्योंकि जैता व कूम्पा जैसे साहसी वीरों को खोकर उसको शक्ति कम हो गई। सामेल के युद्ध के पश्चात् राजपूतों के वैभव और स्वतन्त्रता का अध्याय समाप्त हो जाता है जिसके पात्र पृथ्वीराज चौहान, हम्मीर, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा और मालदेव थे। यहां से एक आश्रितों के इतिहास का आरम्भ होता है जिसके पात्र वीरम, कल्याणमल, मानसिंह, मिर्जाराजा जयसिंह, अजीतसिंह आदि थे।" परन्तु यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि यह युद्ध शेरशाह को महंगा पड़ा। जोधपुर विजय से उसके राजस्व में तो वृद्धि हुई नहीं और खर्च काफी हो गया।

इस प्रकार सामेल के युद्ध का राजस्थान के इतिहास में ही नहीं, अपितु भारतीय इतिहास में भी अत्यधिक महत्त्व है।

मालदेव का मूल्यांकन

(1) वीर योद्धा और महान् विजेता-

मालदेव एक वीर योद्धा, कुशल सेनापति तथा महान् विजेता था। मारवाड़ की गद्दी पर बैठते समय उसके पास केवल जोधपुर और सोजत के प्रदेश ही थे, परन्तु उसने अपने साहस और पराक्रम के बल पर एक विशाल राज्य की स्थापना की जिसमें 48 परगने सम्मिलित थे। उसने भाद्राजूण, नागौर, अजमेर, मेड़ता, सिवाना, जालौर, बीकानेर आदि पर विजय प्राप्त की और अपने युद्ध-कौशल का परिचय दिया।

(2) चतुर कूटनीतिज्ञ-

मालदेव एक चतुर कूटनीतिज्ञ भी था। उसमें अपने समय को राजनीतिक घटनाओं को समझने की पर्याप्त बुद्धि थी। जब हुमायूँ शेरशाह सूरी से कन्नौज को लड़ाई में निर्णायक रूप से पराजित हो गया तो उसने इस अवसर पर हुमायूँ को मारवाड़ आने का निमन्त्रण देकर अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया था।

(3) निर्माणकर्ता-

मालदेव एक महान् निर्माता था। उसने अनेक दुर्गों, जलाशयों आदि का निर्माण करवाया। उसने रीयां, दूनाड़े, पीपाड़ आदि कस्बों के चारों ओर कोट बनवाकर उन्हें सुदृढ़ करवाया। उसने सिवाण, अजमेर, बीकानेर आदि दुर्गों का जीर्णोद्धार करवाया।

(4) प्रशासक के रूप में-

प्रशासन में उसने अपने पिता का ही अनुसरण किया। उसने समस्त सत्ता को अपने हाथों में ही केन्द्रित रखा और अपने आपको 'महाराजा', 'महाराजाधिराज' 'महाराय' को उपाधियों से अलंकृत किया। उसके प्रशस्ति-लेखों से यह भी ज्ञात होता है कि उसने 'राव' शब्द का भी प्रयोग किया है। बलबन की भाँति वह भी अपने दरबार का गौरव रखता था।

(5) साहित्य का संरक्षक-

मालदेव विद्वानों एवं साहित्यकारों का संरक्षक था। वह उन्हें उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता दिया करता था। उसके समय में डिंगल साहित्य की पर्याप्त उन्नति हुई। मालदेव के समकालीन कवियों में बारहठ ईसरदास, आशानन्द, करणीदान आदि के नाम उल्लेखनीय हैं जिन्होंने डिंगल भाषा में अपनी रचनाएँ लिखीं।

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