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1917 रूसी क्रान्ति के कारण

 बीसवीं सदी का विश्व

1917 रूसी क्रान्ति  (The Russian revolution 1917)

रूस ने 1914 में मित्रराष्ट्रों की ओर से जर्मनी के विरुद्ध युद्ध घोषणा की। रूस ने युद्ध का आरम्भ वीरतापूर्वक प्रदर्शन से किया। प्रारम्भ में उसे विजय भी मिली, परन्तु 1915 से ही रूस की सेना जर्मन से निरन्तर परास्त होती रही। सेना को समय पर उचित मात्रा में न रसद पहुँची और न ही युद्ध की सामग्री।

शासन के भ्रष्ट अधिकारी युद्ध के लिये एकत्रित धन का स्वयं उपयोग करते थे। विदेशों से युद्ध सामग्री समय पर नहीं पहुँच रही थी। इससे सेना में असन्तोष फैल रहा था। भुखमरी के कारण रूस की आम जनता में आक्रोश फैल रहा था। इस प्रकार 1916-17 के शीतकाल में रूस में घोर असन्तोष व्याप्त हो गया। आम जनता, मजदूर वर्ग, कृषक वर्ग , पुलिस वर्ग व अधिकारी जार के निर्बल शासन को समाप्त करने पर उतारू हो गये और 1917 में उन्होंने क्रान्ति कर दी, जिसके परिणामस्वरूप जार को गद्दी छोड़नी पड़ी।

1917 में रूस में जो क्रान्तियाँ हुई, उसके दो चरण थे- एक मार्च, 1917 में तथा दूसरा नवम्बर, 1917 में। इतिहासकार लिप्सन का मत है कि, “क्रान्ति तो एक ही थी, परन्तु इसके अध्याय दो थे। क्रान्ति का राजनीतिक अध्याय 'मार्च की क्रान्ति कहलाया, जिसमें निरकुंश जार को शासन छोड़ना पड़ा। इस क्रान्ति का दूसरा अध्याय, 'नवम्बर की क्रान्ति' कहलाया, जिसे बोल्शेविक क्रान्ति भी कहते हैं, जिसके फलस्वरूप रूस में मजदूर जनतन्त्र का उदय हुआ। इस क्रान्ति के प्रमुख कारण अग्रलिखित है-

रूसी क्रान्ति के कारण

1. रूस का औद्योगिक विकास-

रूस में औद्योगिक विकास निकोलस प्रथमकैथेराइन के शासन काल से ही प्रारम्भ हो गया था, जबकि उन्होंने रूस का आधुनिकीकरण किया। औद्योगिक विकास के कारण रूस में मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई। इस समय उनकी संख्या 25 लाख हो गई थी। अब वे नगरों में रहने लगे थे। जब उनके मालिक उनका शोषण करने लगे तो वे अपने मालिकों से अपने अधिकारों की मांग करने लगे। मालिक उन्हें कम मजदूरी देकर उनसे अधिक से अधिक काम लेने का प्रयास करते थे।

1917 ki rusi kranti ke kya karan the, bolshevik kranti
1917 रूसी क्रान्ति


कम मजदूरी मिलने के कारण, मजदूर नगरों की गन्दी बस्तियों में निवास करने लगे। उन्हें अपने श्रमिक संघ भी बनाने का अधिकार नहीं था। अत: उन्होंने अपने उचित अधिकारों की मांग सरकार के समक्ष प्रस्तुत की। वैसे 1885 से 1897 के मध्य शासन द्वारा श्रमिक कानून अवश्य बनाए गए; परन्तु उनसे श्रमिकों की अवस्था में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। शासन मूलतः उद्योगपतियों के ही पक्ष में रहा। अधिक असंतोष के कारण श्रमिक अब क्रान्ति करने के लिये उद्यत हो रहे थे।

2. भूमि वितरण की जटिल समस्या-

रूस की अधिकांश जनता कृषि पर आधारित थी। कृषक दासों की मुक्ति से रूस की कृषि सम्बन्धी समस्या का समाधान नहीं हुआ था। यद्यपि कृषकदासों को सामन्तवादी नियन्त्रण से अवश्य मुक्त कर दिया गया था तथापि भूमि वितरण की समस्या, ज्यों की त्यों बनी हुई थी। इस प्रणाली के अन्तर्गत किसानों को भूमि कम मिली, जो उनकी जीविका उपार्जन के लिये पर्याप्त नहीं थी। इस कारण उनकी गरीबी ज्यों की त्यों बनी रही।

इसके अलावा कृषि के अविकसित साधन भी उनकी दरिद्रता को बढ़ा रहे थे। कृषक भूमि व्यवस्था में सुधार करना चाहते थे, परन्तु सरकार कृषि व्यवस्थाएँ सुधार करने के पक्ष में नहीं थी। 1906 में स्टोलीपिन (Stolypin) ने कुछ सुधार किये, परन्तु उनसे भी दरिद्र कृषकों को विशेष लाभ नहीं हुआ, केवल धनी कृषक ही लाभान्वित हुए। इस प्रकार कृषकों में असन्तोष बढ़ रहा था।

3. शासकों का निरकुंश शासन-

प्राय: यह निर्विवाद कहा जाता है कि शासकों का शासन हर जगह निरकुंश ही रहा है। परन्तु रूस में बीसौं शताब्दी में भी निरकुंश शासन रहा है। जबकि विश्व में प्रजातन्त्र का प्रभाव दिनों दिन बढ़ रहा था। इसके अलावा जहाँ राजतन्त्र बचा भी था तो वहाँ भी प्रबुद्ध स्वेच्छाचारी शासन प्रारम्भ हो गया था। अतः इस प्रकार के वातावरण में रूस के लोग जार के निरकुंश शासन को सहन करने के लिये उद्यत नहीं थे।

एलेक्जेण्डर द्वितीय ने उदारवादी दृष्टिकोण अपनाकर अपने शासन काल में कुछ सुधार अवश्य किये थे। उसने कृषक दासों को मुक्त कर स्थानीय शासन सम्बन्धी कुछ अधिकार भी स्वीकृत किये थे। परन्तु इन सुधारों के परिणामस्वरूप सामन्त तथा धनवान जमींदार जार के इतने विरोधी हो गये कि उसे पुन: प्रतिक्रियावादी नीति अपनाने को बाध्य होना पड़ा। उसके उत्तराधिकारी तो निरकुंश शासन में बहुत आगे बढ़ गये थे। उनके कठोर शासन के विरुद्ध कुछ क्रान्तिकारी तथा आतंकवादी संस्थाओं की स्थापना हुई। इन संस्थाओं की सहायता से रूस की आम जनता जार के निरकुंश शासन के विरुद्ध उठ खड़ी हुई।

रूस का जार निरकुंश एवं स्वेच्छारी था। अपने दरबार के कुछ गिने-चुने व्यक्तियों की सहायता से ही जनता पर शासन करता था। उसकी दृष्टि में ड्यूमा (संसद) का कोई महत्व नहीं था। रूसी ड्यूमा केवल नाम मात्र की संसद थी। जार निकोलस द्वितीय ने तो "सम्पूर्ण रूस के एकराट" की उपधि धारण कर ली थी। जनता उसे "राष्ट्र का पिता" कहती थी।

4. ड्यूमा की घोषणा-

1905 के "खूनी रविवार" की घटना के उपरान्त निकोलस द्वितीय ने सुधारवादियों को सन्तुष्ट करने की दृष्टि से ड्यूमा की घोषणा की। ड्यूमा के लिये निर्वाचन निरन्तर होते रहे। परन्तु जार के समर्थकों का बहुमत न आने के कारण, वह उसे निरन्तर भंग करता रहा। इससे सुधारवादी असन्तुष्ट हो गये।

5. यूरोप के पश्चिमी राष्ट्रों में प्रजातान्त्रिक सरकार की स्थापना-

रूस अब यूरोप के सम्पर्क में काफी आ चुका था। पीटर के शासन काल से ही इसका आधुनिकीकरण हो चुका था। अत: यह स्वाभाविक ही था कि रूस के लोग भी अन्य राष्ट्रों में प्रजातन्त्रतात्मक सरकारों से प्रभावित हों तथा अपने यहाँ भी प्रजातान्त्रिक शासन की स्थापना का प्रयास करें। पश्चिमी राष्ट्रों की शासन व्यवस्था ने रूस को भी प्रभावित किया।

6. सामाजिक असमानता-

रूस के समाज में घोर असमानता थी। रूस में समाज मुख्यत: दो वर्गों में विभाजित था- (1) अधिकारी वर्ग (2) अधिकार हीन वर्ग।

अधिकार युक्त वर्ग में जार और उसका परिवार, सामन्त, कुलीन व धर्माधिकारी तथा उच्च अधिकारी थे। अधिकार रहित वर्ग में कृषक, श्रमिक तथा सामान्य व्यक्ति थे। अधिकार युक्त वर्ग के लोग विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। उन्हें सभी प्रकार की सुखसुविधाएँ प्राप्त थीं। देश की अधिकांश भू सम्पत्ति पर इसी वर्ग का अधिकार था। अधिकार हीन व्यक्तियों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। कठोर परिश्रम करने के बाद भी लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिलता था। सामन्त तथा कुलीन वर्ग के लोग मजदूरों तथा श्रमिकों का शोषण करते थे। अत: कृषकों तथा श्रमिकों में भी काफी असन्तोष था।

7. कृषकों की दयनीय दशा-

रूस के कृषकों की दशा अत्यन्त दयनीय थी यद्यपि कृषक दास मुक्त हो गये थे, परन्तु इससे उनकी दशा में कोई विशेष सुधार नहीं आया। अधिकांश भूमि पर जमींदारों का अधिकार था। रूस के एक तिहाई कृषक भूमिहीन थे। जिन किसानों को भूमि प्राप्त हुई थी, वहाँ पैदावार कम थी। अत: अधिकांश किसानों को गरीबी का जीवन व्यतीत करना पड़ा था। कृषकों को अनेक प्रकार के कर भी देने पड़ते थे। जिससे उनको आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गई थी।

भूमिहीन किसानों को जमींदारों की भूमि पर काम करना पड़ता था। जमींदार मनमाने ढंग से उनका शोषण करते थे। किसानों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगे हुए थे। कोई भी कृषक पुलिस की अनुमति के बिना घर या गाँव छोड़कर कहीं नहीं जा सकता था। किसानों में दद्रिरता निरन्तर बढ़ती जा रही थी। किसान गन्दी झोपड़ियों में रहते थे तथा कठिनाई से रूखे-सूखे भोजन की व्यवस्था करते थे। किसानों में शासन के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। वे अपनी दशा सुधारने के लिए किसी भी आन्दोलन को सहयोग दे सकते थे। 1902 में हारवोव तथा पोल्टावा के किसानों ने विद्रोह उत्तेजित किया। 1905 में रूस में अनेक स्थानों पर किसानों के दंगे हुए। किसानों ने जमींदारों की भूमि पर अधिकार कर लिया तथा उनके मकानों को जला दिया।

1906 तथा 1910 में कुछ भूमि सम्बन्धी सुधार किये गये परन्तु वे अपर्याप्त थे। उनसे भूमिहीन किसानों की समस्या का समाधान नहीं हुआ। ड्यूमा में किसानों के एक प्रतिनिधि ने कहा था, "सरकार हम किसानों को चूस लेती है। तीन सौ वर्षों तक रोमोनाव राजाओं ने किसानों के लिये कुछ भी नहीं किया। हम लोगों के लिये किसी से आशा करना बेकार है। परन्तु हम लोग जबरदस्ती सब छीन लेंगे।" इस प्रकार किसानों में असन्तोष बढ़ता ही जा रहा था।

8. मजदूरों में असन्तोष-

रूस के 25 लाख मजदूरों की दशा भी किसानों के समान दयनीय थी। रूस में जार अलेक्जेण्डर तृतीय के शासनकाल से औद्योगीकरण की गति तीव्र हो गई थी, अत: मजदूरों की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही थी। अतः हजारों भूमिहीन किसान रोजगार की तलाश में औद्योगिक नगरों में पहुंचने लगे। कारखानों के मालिकों ने उनकी असहाय स्थिति का लाभ उठाकर उनका शोषण करना शुरू कर दिया। वे उन्हें कम-से-कम मजदूरी देते थे तथा अधिक से अधिक काम लेते थे। उनकी मजदूरी इतनी कम थी कि उनसे उनका जीवन-निर्वाह करना भी कठिन था। उन्हें गन्दी बस्तियों की तंग कोठरियों या झोंपड़ियों में रहना पड़ता था। मजदूरों को 'श्रमिक संघ' बनाने का भी अधिकार नहीं था। सरकार सदैव पूँजीपतियों का ही पक्ष लेती थी और मजदूरों के हितों के विरुद्ध थी। अत: मजदूरों में असन्तोष निरन्तर बढ़ता जा रहा था।

क्रान्तिकारी समाजवादी दल ने मजदूरों को पूँजीपतियों के विरुद्ध संगठित होने की प्रेरणा दी। मजदूर समाजवादी दल के विचारों से प्रभावित होकर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने को तैयार हो गये। 1902-03 से ही मजदूरों की हड़तालें शुरू हो गई। 1905 की क्रान्ति का सूत्रपात भी मजदूरों के जुलूस से ही हुआ। इस समय उनकी शक्ति यहाँ तक बढ़ गई थी कि सेन्ट पीट्सबर्ग में उन्होंने 'श्रमिकों की सोवियत' की भी स्थापना कर ली थी। वास्तव में इस समय तक समाजवादी दल के प्रभाव के कारण मजदूरों के आन्दोलन का स्वरूप मूलत: राजनीतिक हो गया था। मजदूर अपनी दयनीय अवस्था के लिए पूँजीपतियों तथा जारशाही के भ्रष्ट शासन को उत्तरदायी मानते थे। अत: उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था तथा जारशाही के भ्रष्ट और निरंकुश शासन को समाप्त करके सर्वहारा वर्ग की सरकार स्थापित करने का निश्चय कर लिया।

9. गैर-रूसी जातियों में असन्तोष-

रूस में अनेक अल्पसंख्यक गैर-रूसी जातियाँ रहती थीं। जारशाही ने इन गैर-रूसी जातियों के साथ बड़ी कठोरता का व्यवहार किया और रूसीकरण की नीति अपनाई। गैर-रूसियों पर रूसी सभ्यता और संस्कृति थोपने का प्रयास किया गया। एकभाषा, एक धर्म, एक कानून' की नीति को कठोरता से लागू किया गया। 1863 में पोल लोगों ने रूसी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। परन्तु जारशाही ने इस विद्रोह को कठोरतापूर्वक कुचल दिया। विद्रोह का दमन करने के पश्चात् जार ने पोलैण्ड में रूसीकरण की नीति अपनाई जिससे पोल लोगों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ। फिनलैण्ड के लोग भी रूसीकरण की नीति के शिकार हुए। फिनलैण्ड की विधानसभा के अधिकार अत्यन्त सीमित कर दिये गये जिससे फिनलैण्डवासियों में असन्तोष उत्पन्न हुआ। यहूदियों और आर्मीनियनों पर भीषण अत्याचार किये गये। यहूदियों की धन-सम्पत्ति लूटी गई तथा उन पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये गये। जारशाही के अत्याचारों से परेशान होकर लगभग 15 लाख यहूदी रूस छोड़कर अन्य देशों में जा बसे।

बाल्टिक प्रान्तों में भी रूसीकरण की नीति के कारण तीव्र असन्तोष उत्पन्न हुआ। 1905 में जार्जिया, पोलैण्ड तथा बाल्टिक प्रान्तों में भयानक विद्रोह हुए। एलेक्जेण्डर तृतीय तथा निकोलस द्वितीय ने अरूसी जातियों पर जिस प्रकार के भीषण अत्याचार किये तथा उनकी धार्मिक भावनाओं को कुचला, उससे उनका विद्रोही बनना स्वाभाविक ही था। जारशाही की रूसीकरण की नीति ने गैर-रूसी जातियों को भी शासन-विरोधी बना दिया और वे भी जारशाही के शासन से मुक्ति पाने के लिए प्रयत्नशील हो गये।

10. निहिलिस्ट आन्दोलन-

जारशाही की निरंकुश एवं दमनकारी नीति से रूस के सभी वर्गों में असन्तोष था। इनमें निहिलिस्ट लोग भी शामिल थे। निहिलिस्ट जारशाही के भ्रष्ट शासन के प्रबल विरोधी थे। वे प्राचीन सामाजिक एवं धार्मिक रूढ़ियों को नष्ट करके एक नवीन और प्रगतिशील समाज की स्थापना करना चाहते थे। वे अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए हिंसात्मक साधन भी अपनाने के पक्ष में थे। वे जारशाही के जर्जरित राजनीतिक ढाँचे को ध्वस्त करने के लिए आन्दोलन चलाने लगे। 1881 में जार एलेक्जेण्डर द्वितीय की आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गई। जारशाही ने एलेक्जेण्डर द्वितीय की हत्या के लिए निहिलिस्टों को दोषी ठहराया और उनका कठोरतापूर्वक दमन करना शुरू कर दिया। जारशाही की दमनकारी नीति के बावजूद निहिलिस्टों ने गुप्त रूप से अपनी गतिविधियाँ जारी रखीं।

11. 1905 की क्रान्ति-

जारशाही के निरंकुश और दमनकारी नीति के विरुद्ध रूसियों में असन्तोष व्याप्त था। किसानों और मजदूरों की दशा अत्यन्त शोचनीय हो रही थी। 22 जनवरी, 1905 को लगभग दो लाख मजदूरों ने फादर गेपन के नेतृत्व में जार निकोलस द्वितीय के राजप्रासाद के सामने प्रदर्शन किया और शासन में सुधारों की मांग की। परन्तु जार ने प्रदर्शनकारियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई और सैनिकों को प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलाने का आदेश दिया। सैनिकों की गोली वर्षा के कारण अनेक प्रदर्शनकारी मारे गये। गोपन भी घायल हो गया। निहत्थे मजदूरों की निर्ममतापूर्वक हत्या किये जाने से जारशाही में जनता की रही-सही आस्था भी समाप्त हो गई। 22 जनवरी का वह रविवार जार की बर्बरता का प्रतीक बन गया। रूस के इतिहास में 22 जनवरी का रविवार 'खूनी रविवार' के नाम से प्रसिद्ध है।

इस घटना ने रूसियों को क्रुद्ध कर दिया और उन्होंने अनेक स्थानों पर विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। अनेक सामन्तों और जमींदारों की हत्या कर दी गई तथा उनके मकान जला दिये गये। यद्यपि सैन्य शक्ति के बल पर जारशाही ने 1905 की क्रान्ति का दमन कर दिया परन्तु क्रान्ति की ज्वाला रूसियों के दिलों में जलती रही। क्रान्तिकारियों को सन्तुष्ट करने के लिए जारशाही को संवैधानिक सुधारों की घोषणा करनी पड़ी। यह क्रान्तिकारियों की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। वास्तव में 1905 की क्रान्ति ने 1917 की क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

12. इयूमा के प्रभाव को नष्ट करने का प्रयास-

1905 की क्रान्ति में रूसियों का उग्र असन्तोष फूट पड़ा तथा क्रान्तिकारियों को सन्तुष्ट करने के लिए जारशाही ने 30 अक्टूबर, 1905 को अनेक शासन -सुधारों की घोषणा की। घोषणा के अन्तर्गत कहा गया कि ड्यूमा की स्थापना की जायेगी जिसके सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित होंगे तथा ड्यूमा की स्वीकृति से ही कानून बनाये जायेंगे। परन्तु जारशाही की ड्यूमा तथा लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में तनिक भी आस्था नहीं थी। अत: उसने ड्यूमा को असफल तथा निष्क्रिय बनाने का भरसक प्रयास किया। प्रथम ड्यूमा को 1906 में तथा द्वितीय ड्यूमा को 1907 में भंग कर दिया गया तथा एक नये नियम के अनुसार मताधिकार को अत्यन्त सीमित कर दिया गया।

इसके पश्चात् 1907 में तीसरी ड्यूमा के लिए निर्वाचन हुए जिसमें अधिकांश प्रतिक्रियावादी जींदार ही चुने गये। इस प्रकार यह ड्यूमा जार निकोलस द्वितीय की हाँ में हाँ मिलाने वाली तथा उसके निरंकुश शासन की समर्थक बनकर रह गई थी इससे जनता में तीव्र आक्रोश था। 1905 की क्रान्ति के फलस्वरूप रूसी लोगों ने जो अधिकार प्राप्त किये थे, वे सब छिन गये। जार की इस कार्यवाही से रूसी जनता में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ। वह पुनः क्रान्ति के पथ की ओर अग्रसर होने लगी।

13. क्रान्तिकारी साहित्य-

रूसी लेखकों एवं साहित्यकारों ने भी 1917 की क्रान्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। यद्यपि जारशाही ने पाश्चात्य विचारों के प्रसार पर रोक लगाने का भरसक प्रयास किया, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली तथा रूस में पाश्चात्य यूरोप के उदारवादी विचारों का प्रवेश होने लगा। रूस में ऐसे अनेक लेखक हुए जिनकी रचनाओं ने रूसियों के विचारों में उथल-पुथल मचा दी। टालस्टाय, तुर्गनेव, डोस्टोइवस्की, गोर्की, बाकुनिन आदि रूसी लेखकों की रचनाओं से शिक्षित रूसी बड़े प्रभावित हुए।

टालस्टाय के विचारों से रूस में क्रान्तिकारी भावना के विकास में बहुत सहायता मिली। बाकुनिन ने अराजकतावादी विचारधारा का प्रचार किया। इस लेखकों की रचनाओं ने रूसी जनता के विचारों को बड़ा प्रभावित किया, विशेषकर युवा वर्ग पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप रूसी जनता भी सुधारों की माँग करने लगी। जब जारशाही ने सुधारों की माँग को ठुकरा दिया, तो जनता में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ।

14. भ्रष्ट नौकरशाही-

रूस की नौकरशाही के उच्च पदाधिकारी निरंकुश शासन के समर्थक थे। ये अयोग्य तथा भ्रष्ट थे। ये लोग मनमाने ढंग से शासन करते थे तथा जनता का शोषण करते थे। ये केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति में लगे रहते थे तथा जनता की नैतिक एवं भौतिक उन्नति में उनकी कोई रुचि नहीं थी। अनेक जर्मन पदाधिकारी भी उच्च पदों पर आसीन थे जिन्हें जनता के प्रति कोई भी सहानुभूति नहीं थी। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इस नौकरशाही की अयोग्यता तथा उदासीनता के कारण रूसी सेना को भारी क्षति उठानी पड़ी। इसने सेना की आवश्यकताओं को पूरा भी नहीं किया। फलत: रसद तथा युद्ध-सामग्री के अभाव में हजारों रूसी सैनिकों को व्यर्थ में ही मौत के मुँह में जाना पड़ा। अत: रूस की अयोग्य नौकरशाही के कारण भी जनता में तीव्र आक्रोश व्याप्त था।

15 मध्यम वर्ग और व्यावसायिक क्रान्ति-

रूस में आधुनिक शिक्षा के प्रसार से मध्यम वर्ग के लोगों के विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। पाश्चात्य साहित्य से रूस के मध्यम वर्ग के लोग बड़े प्रभावित हुए। अब उन्हें अपनी हीन दशा तथा शासन की बुराइयों का स्पष्ट ज्ञान हुआ और वे प्रजातन्त्रीय शासन की माँग करने लगे। इस मध्यम वर्ग ने मजदूरों में जागृति उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

रूस के औद्योगिक विकास तथा व्यावसायिक क्रानित ने भी क्रान्ति के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया। औद्योगिक क्रान्ति के कारण रूस में अनेक कल-कारखाने स्थापित हुए तथा लाखों ग्रामीण नगरों में आकर बस गये। नगरों में रहते हुए तथा कारखानों में काम करते हुए उन्हें अनेक कष्ट उठाने पड़े। अत: आर्थिक कठिनाइयों एवं उत्पीड़न से परेशान होने के बाद उन्होंने अपने संगठन बनाये तथा अधिकारों की मांग करने लगे। परन्तु जब जारशाही ने उनकी माँगों की उपेक्षा की, तो उनमें घोर असन्तोष उत्पन्न हुआ।

16. जार निकोलस द्वितीय की अयोग्यता-

रूस का जार निकोलस द्वितीय निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी था। उसमें योग्यता तथा राजनीतिक सूझ-बूझ का अभाव था। वह अपनी रानी एलेक्जेण्डर के अत्यधिक प्रभाव में था। जार निकोलस द्वितीय में दृढ़ता का अभाव था तथा वह चारित्रिक दुर्बलताओं का शिकार बना हुआ था। जार की पत्नी एलेक्जेण्डरा पर एक अन्धविश्वासी साधु रासपुटिन का अत्यधिक प्रभाव था। रासपुटिन एक भ्रष्ट तथा चरित्रहीन व्यक्ति था। राज्य की छोटी-बड़ी सभी नियुक्त्यिों में रासपुटिन की सलाह ली जाती थी। अयोग्य तथा भ्रष्ट व्यक्ति उच्च पदों पर नियुक्त थे जिन्हें रासपुटिन का संरक्षण प्रास था।

अत: जार की उदासीनता, भ्रष्ट नौकरशाही, रासपुटिन के अनुचित हस्तक्षेप आदि के कारण प्रशासन में बेईमानी, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का बोलबाला था। जनता जारशाही तथा नौकरशाही के अत्याचारों तथा उनकी शोषणकारी नीति से पीड़ित थी तथा उसमें तीन आक्रोश था। अन्त में 1916 में रासपुटिन की हत्या कर दी गई। इस प्रकार जार निकोलस द्वितीय रूस में उठते हुए असन्तोष को समझने में असफल रहा और यह असन्तोष 1917 में क्रान्ति के रूप में अभिव्यक्त हुआ।

17. समाजवाद का विकास-

रूस में किसानों और मजदूरों की जो दयनीय दशा थी तथा रूस की सामान्य जनता अभावों और कष्टों के मध्य जिस तरह जीवनयापन कर रही थी, उन परिस्थितियों में समाजवाद का प्रभाव बढ़ना स्वाभाविक था। 1860 के पश्चात् कुछ बुद्धिजीवियों ने समाजवादी विचारधारा को आधार बनाकर एक आन्दोलन प्रारम्भ किया। इस आन्दोलन के समर्थकों को 'नारोदनिकी' अथवा 'पापुलिस्ट' कहा जाता था। ये लोग चाहते थे कि किसानों को भूमि का स्वामी माना जाये और ग्राम सभाओं के माध्यम से भूमि का वितरण किया जाये। कुछ 'नारोदनिक' लोगों ने आतंकवादी उपायों से अपने उद्देश्य की प्राप्ति का प्रयत्न किया।

1883 से रूस में मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव बढ़ने लगा। कुछ समय बाद रूस के समाजवादी दो दलों में विभाजित हो गए (1) क्रान्तिकारी समाजवादी दल तथा (2) सोशल डेमोक्रेटिक दल। क्रान्तिकारी समाजवादी दल का नेतृत्व बुद्धिजीवियों के हाथ में था। यह दल किसानों को संगठित करके देश में क्रान्ति लाना चाहता था। इस दल के लोग अपना उद्देश्य प्राप्त करने के लिए आतंकवादी साधनों के उपयोग में भी विश्वास करते थे।

सोशल डेमोक्रेटिक दल रूस में जारशाही को समाप्त करके सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित करना चाहता था। 1903 में सोशल डेमोक्रेटिक दल दो भागों में विभाजित हो गया—(1) बोल्शेविक तथा (2) मेनशेविक। बोल्शेविक दल का नेता लेनिन था। यह दल सर्वहारा वर्ग का अधिनायकतन्त्र स्थापित करना चाहता था। मेन्शेविक दल श्रमिक वर्ग के साथ-साथ अन्य वर्गों के सहयोग से जनतन्त्र की स्थापना करना चाहता था।

जानशाही ने समाजवादी विचारों के प्रसार को रोकने के लिए भरसक प्रयास किया और अनेक समाजवादी नेताओं को बन्दी बनाया परन्तु इसके बावजूद रूस में समाजवादी विचारों का तीव्र गति से प्रसार हुआ। समाजवादी विचारधारा ने क्रान्ति को अवश्यम्भावी बना दिया।

18. तात्कालिक कारण-

प्रथम विश्व युद्ध- 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया तथा अगस्त, 1914 में रूस भी विश्व युद्ध में कूद पड़ा। प्रारम्भ में रूस की सेनाओं को कुछ सफलता मिली, परन्तु कुछ ही समय बाद जर्मनी के विरुद्ध रूस की सेनाओं को पराजय का मुँह देखना पड़ा। युद्ध-सामग्री, रसद तथा यातायात के साधनों के अभाव में मोर्चों पर रूसी सैनिक मौत के मुँह में जाने लगे। सेना के उच पदाधिकारियों को अयोग्यता, प्रशासन में फैले हुए भ्रष्टाचार, जारीना, मन्त्रियों एवं प्रमुख सामन्तों के युद्ध कार्य में अनावश्यक हस्तक्षेप आदि के कारण रूस की सेनाओं को लगातार पराजित होना पड़ा। इन पराजयों की सूचना से जनता का मनोबल गिरने लगा तथा असन्तोष बढ़ने लगा।

रूस की सरकार ने युद्ध के प्रथम तीन वर्षों में लगभग 150 लाख सैनिक युद्ध क्षेत्र में भेज दिये थे, जिससे खेतों में काम करने वालों की कमी हो गई और कृषि उत्पादन कम हो गया। अतः सेना तथा नागरिकों के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद्य-सामग्री की व्यवस्था करना कठिन हो गया। अन्य आवश्यक वस्तुओं की भी कमी हो गई।

रूस की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ती जा रही थी। युद्ध व्यय को पूरा करने के लिए सरकार ने मुद्रास्फीति का सहारा लिया। इसके परिणामस्वरूप कीमतें बढ़ने लगीं और 1917 ई. तक निर्वाह व्यय 1914 की तुलना में लगभग 700 गुना बढ़ गया। दैनिक जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के भावों में इतनी अधिक वृद्धि हो गई कि लोगों का निर्वाह होना भी कठिन हो गया। इससे किसानों और मजदूरों में उत्तेजना बढ़ने लगी। अगस्त, 1915 में रूस के हाथ से गेलेशिया तथा पोलैण्ड के प्रदेश निकल चुके थे तथा लगभग 20 लाख सैनिक मारे जा चुके थे। इस कारण सैनिकों में भी तीव्र आक्रोश था। सितम्बर, 1915 में जार ने रूसी सेनाओं की सर्वोच्च कमान अपने हाथ में ले ली, परन्तु इससे स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इस अवसर पर ड्यूमा के कुछ उदारवादी सदस्यों ने जार को सलाह दी कि वह उदार नीति अपनाये तथा उत्तरदायी सरकार की स्थापना करे, परन्तु जार ने इस सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया। 1916 के अत्यन्त संकटमय समय में रूस का प्रधानमन्त्री बोरिस स्टुर्मर सेना के कार्यों में इतनी अड़चनें डाल रहा था कि ड्यूमा में उदारवादियों ने उस पर राजद्रोह का अभियोग लगाया।

1916-17 के शीतकाल में सारे देश में घोर असन्तोष व्याप्त था। एक ओर तो सेनाओं की निरन्तर पराजय से जनता क्रुद्ध थी, दूसरी ओर अनाज, ईंधन, कपड़े आदि की कमी होने लगी जिससे इन वस्तुओं के भाव अत्यधिक बढ़ गये। जनता ने सरकार की अयोग्यता तथा भ्रष्टाचार को ही इस स्थिति के लिए उत्तरदायी ठहराया। ऐसी स्थिति में अचानक क्रान्ति हो गई जिसकी प्रारम्भ में किसी ने कल्पना नहीं की थी और जिसके लिए क्रान्तिकारी दल भी तैयार नहीं थे।

क्रान्ति का सूत्रपात (मार्च, 1917 की क्रान्ति)

क्रान्ति का तात्कालिक कारण रोटी की कमी थी। 8 मार्च, 1917 को मजदूरों ने भूख से व्याकुल होकर पेट्रोग्राड में हड़ताल कर दी। मजदूरों की भीड़ सड़कों पर रोटी के नारे लगाते हुए लूटमार करने लगी। सरकार ने सैनिकों को क्रान्तिकारियों पर गोलियाँ चलाने का आदेश दिया, परन्तु सैनिकों ने इस आदेश का पालन करने से इन्कार कर दिया। दूसरे दिन भी उग्र प्रदर्शन होते रहे। वे नगर की सड़कों पर रोटी दो, युद्ध बन्द करो तथा अत्याचारी शासन का नाश हो" आदि के नारे लगा रहे थे। 10 मार्च को पेट्रोग्राड के समस्त कारखानों में हड़ताल हो गई और नगर के बाहरी भागों में मजदूरों ने पुलिस के हथियार छीन लिए। 11 मार्च, 1917 को जार ने ड्यूमा को भंग कर दिया। ड्यूमा के सदस्यों ने घटनाओं पर ध्यान देने के लिए एक समिति नियुक्त कर दी। 12 मार्च को सैनिक टुकड़ियाँ अधिकारियों के आदेश का उल्लंघन करके विद्रोहियों के साथ जा मिलीं। क्रान्तिकारी मजदूरों तथा सैनिकों ने मिलकर सैनिकों एवं मजदूरों के प्रतिनिधियों की क्रान्तिकारी सोवियत' की स्थापना की। 14 मार्च, 1917 को क्रान्तिकारी सोवियत (परिषद्) और ड्यूमा के सदस्यों की एक समिति ने मिलकर एक 'अस्थायी सरकार' का गठन किया जिसके नेता प्रिंस ल्वाव थे। 15 मार्च, 1917 को जार निकोलस द्वितीय ने सिंहासन का परित्याग कर दिया। इस प्रकार रूस में रोमोनाव वंश के शासन का अन्त हो गया तथा उसके स्थान पर नयी क्रान्तिकारी सरकार स्थापित हो गई।

जून,1917 में पेट्रोग्राड सोवियत ने 'अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस' का सम्मेलन आयोजित किया जिसमें क्रान्तिकारी, समाजवादी, बोल्शेविक तथा मेन्शेविक दल के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। इस समय लेनिन के बोल्शेविक दल ने क्रान्तिकारी समाजवादियों तथा मेन्शेविक दल को सलाह दी कि वे ल्वाव की मिली-जुली सरकार को समाप्त करके स्वयं अपना मन्त्रिमण्डल गठित करें। 1 जुलाई, 1917 को मजदूरों ने प्रदर्शन किया तथा "युद्ध को समाप्त करो", "पूँजीवादी मन्त्रियों को हटाओ" तथा "सभी अधिकार सोवियत को दो" के नारे लगाये। 3 जुलाई, 1917 को सरकार के विरुद्ध एक बड़ा विद्रोह हुआ परन्तु सरकार ने सेना की सहायग से इस विद्रोह को दबा दिया। सरकार ने महसूस किया कि इस विद्रोह को भड़काने में बोल्शेविक दल का हाथ था, इसी कारण सरकार ने बोल्शेविक नेताओं को बन्दी बनाने की आज्ञा दे दी। अत: लेनिन को रूस छोड़कर भागना पड़ा।

करेन्स्की-सरकार की स्थापना-

ल्वाव की सरकार के विरुद्ध रूसियों में असन्तोष बढ़ता रहा। गेलेशिया में रूसी आक्रमण की विफलता के कारण ल्वाव की सरकार की कटु आलोचना की गई। अत: ल्वाव को प्रधानमन्त्री के पद से त्याग पत्र देना पड़ा। इसके बाद करेन्स्की के नेतृत्व में नई सरकार का गठन किया गया। बोल्शेविक करेन्स्की की सरकार का निरन्तर विरोध करते रहे तथा शान्ति', 'भूमि' और 'रोटी' के नारे लगाते रहे । समाजवादियों में आपसी मतभेद बढ़ने के कारण भी बोल्शेविक दल का प्रभाव बढ़ने लगा। दूसरी ओर सेनापति कार्नीलाव ने सत्ता हथियाने का प्रयत्न किया। कार्नीलाव ने 7 सितम्बर को रूसी कोसाक सैनिक टुकड़ी को पेट्रोग्राड पर अधिकार करने के आदेश दिये परन्तु करेन्स्की की सरकार ने बोल्शेविकों को सहायता से कार्नीलाव के विद्रोह को कुचल दिया। इससे बोल्शेविकों को अपना प्रभाव बढ़ाने का अच्छा अवसर मिल गया।

नवम्बर, 1917 की क्रान्ति (बोल्शेविक क्रान्ति)

करेन्स्की की सरकार के गठन के बाद भी देश की आन्तरिक स्थिति में किसी प्रकार का सुधार नहीं हो सका। अत: करेन्स्की की सरकार के विरुद्ध असन्तोष बढता गया। 12-13 सितम्बर को लेनिन ने फिनलैण्ड से बोल्शेविक दल की कार्यकारिणी को गुप्त पत्र लिखा जिसमें यह कहा गया था कि अब सशस्त्र क्रान्ति द्वारा सत्ता प्राप्त करने का समय आ गया है। 23 अक्टूबर को बोल्शेविक दल की कार्यकारिणी ने लेनिन के आदेशानुसार सशस्त्र क्रान्ति द्वारा सत्ता प्राप्त करने का निर्णय लिया। 6-7 नवम्बर की रात्रि को लालरक्षकों तथा नियमित सैनिकों की टुकड़ियों ने टेलीफोन केन्द्र, डाकघर, बिजली घर, रेलवे स्टेशन, नेशनल बैंक आदि प्रमुख स्थानों पर अधिकार कर लिया। 7 नवम्बर को प्रात:काल करेन्स्की राजधानी छोड़कर भाग निकला पर उसकी सरकार के सभी मन्त्री बन्दी बना लिये गये। इस प्रकार कुछ घण्टों में बिना रक्तपात के रूस की राजधानी पर बोल्शेविकों का अधिकार हो गया। राजधानी के प्रमुख स्थानों पर कुछ इश्तिहार चिपकाये गये जिनमें यह घोषित किया गया था कि,"अस्थायी सरकार समाप्त कर दी गई है और उसके स्थान पर सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी समिति तथा पेट्रोग्राड के गेरीसन ने सत्ता ग्रहण कर ली है।" 8 नवम्बर, 1917 को नई सरकार के मन्त्रिमण्डल का गठन किया गया तथा लेनिन को मन्त्रिपरिषद् का अध्यक्ष बनाया गया।

रूसी क्रान्ति का अन्त

बिना रक्त पात किये रूस बोल्शेविक सत्ता प्राप्त करने में सफल हुए। रूस की क्रान्ति की तुलना इंग्लैण्ड की 1688 की क्रान्ति से कर सकते हैं। बोल्शेविक क्रान्ति का नेतृत्व ट्रोटस्की ने किया था। युद्ध की समाप्ति ब्रेस्ट लिटोवस्क की सन्धि से हुई। इस सन्धि की शर्ते निम्नलिखित थीं-

1. पौलेण्ड व लिथुनिया को रूस के प्रभुत्व से मुक्त कर दिया जाने तथा उनका भावी प्रशासन वहाँ की जनता पर छोड़ दिया जावे।

2. यूक्रेन से भी रूसी सेनाएँ हटा ली गईं और वहाँ "यूक्रेनियन पीपुल्स रिपब्लिक" की स्थापना की गई।

3. बातम व रूस के कोर्स के प्रदेशों पर से रूस की सत्ता कर दी गई।

4. एस्थोनिया, लिवोनिया, फिनलैण्ड और आयरलैण्ड दीप को स्वतन राज्यों में परिणित कर दिया गया।

5. इसके अलावा रूस को जर्मनी व उसके साथी राज्यों में अपना आन्दोलन समाप्त करता पड़ा।

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