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पड़ोसी देशों के प्रति भारत की विदेश नीति

बीसवीं सदी का विश्व

पड़ोसी देशों के प्रति भारत की विदेश नीति

भारत अपने उपमहाद्वीप के सभी पड़ोसी देशों के साथ घनिष्ठ एवं शान्तिपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने हेतु निकट सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जहाँ उसने सार्क के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं दक्षिण-पूर्व एशिया के पड़ोसी देशों के साथ मित्रवत् सम्बन्ध बनाने के लिए 'पूर्व की ओर देखो' नीति को अपनाया है। इसके अलावा भारत ने रूस, ईरान और मध्य एशिया के अन्य राष्ट्रों के साथ भी मित्रवत् सम्बन्ध के सतत प्रयास किये हैं। भारत के पड़ोसी देशों के प्रति विदेश नीति का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है-

दक्षिण एशिया के देशों के प्रति भारत की विदेश नीति

वैश्वीकरण के युग में दक्षिण एशियाई देशों के प्रति भारत की विदेश नीति का विवेचन इस प्रकार किया गया है-

1. गुजराल सिद्धान्त-

1998 में भारत ने अपनी नई दक्षिण एशिया नीति का प्रतिपादन किया, जिसे गुजराल सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषता यह है कि भारत अपने पड़ोसियों के साथ सम्बन्धों में पारस्परिकता के तत्त्व पर जोर नहीं देगा तथा आगे बढ़कर पड़ोसियों के साथ द्विपक्षीय सम्बन्धों को आगे बढ़ायेगा अर्थात् भारत यदि अपनेपड़ोसियों के साथ सहयोग व सहायता करता है तो उसके बदले वह उन पड़ोसियों से अधिक अपेक्षा नहीं रखेगा।

दूसरे, दक्षिण एशिया के देश किसी देश की सुरक्षा के विरुद्ध अपने क्षेत्र के प्रयोग की अनुमति नहीं देंगे और ये एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे तथा एक दूसरे की सम्प्रभुता व प्रादेशिक अखण्डता का सम्मान करेंगे। सभी देश अपने आपसी विवादों का समाधान शान्तिपूर्ण तरीके से करेंगे।

2. 2005 की भारत की दक्षिण एशिया नीति-

गुजराल सिद्धान्त के क्रम में ही भारत ने 2005 में दक्षिण एशिया के प्रति अपनी नई पड़ोस नीति की घोषणा की है, जिसके मुख्य बिन्दुनिम्नलिखित हैं-

(I) भारत का अपने पड़ोसियों के साथ सम्पर्क उसके सीमावर्ती क्षेत्रों के माध्यम से ही होता है। अत: भारत उन सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास पर विशेष ध्यान देगा।

(II) व्यापार को बढ़ाने के लिए भारत अपने पड़ोसियों के साथ सम्पर्कता के साधनों जल, वायु एवं भूमि तीनों को मजबूत बनाने का प्रयास करेगा।

(III) भारत पड़ोसियों के साथ सांस्कृतिक तथा जनता से जनता के बीच सम्बन्धों को मजबूत बनाने का प्रयास करेगा।

3. दक्षिण एशिया की नीति के समक्ष चुनौतियाँ-

यद्यपि भारत दक्षिण एशिया में स्थिरता, विकास एवं शान्ति को बढ़ावा देने के लिए तत्पर है, तथापि भारत को नीति की सफलता के लिए इस क्षेत्र में मुख्य रूप से दो प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है-

(I) दक्षिण एशिया के देशों में राजनीतिक स्थिरता, आतंकवाद और अल्प विकास की समस्याएँ विद्यमान हैं। इनके कारण भारत की दक्षिण एशिया नीति विवाद के घेरे में आ जाती है।

(II) चीन का दक्षिण एशिया में बढ़ता हुआ हस्तक्षेप भारत की दक्षिण एशिया नीति के समक्ष एक बड़ी चुनौती है।

इन चुनौतियों का विश्लेषण विभिन्न पड़ोसी देशों के सम्बन्ध में निम्न प्रकार किया जा सकता है-

1. पाकिस्तान- पाकिस्तान राजनीतिक दृष्टि से अस्थिरता का सामना कर रहा है। वहाँ आतंकवाद की जड़ें गहरी हैं जिसके कारण भारत-पाक सम्बन्धों में तनाव आता रहता है। वर्तमान में भारत के विरुद्ध पाक-चीन गठजोड़ अधिक मजबूत हो रहा है। एक ओर चीन ने पाकिस्तान के ग्वादर बन्दरगाह के विकास का कार्य अपने हाथ में लिया है। दूसरी ओर वह पाकिस्तान के साथ सड़क व रेल मार्ग से सम्पर्क बढ़ा रहा है। तीसरे, चीन पाकिस्तान को परमाणु क्षेत्र में तकनीकी सहायता प्रदान कर रहा है। चीन तथा पाकिस्तान के बीच यह गठजोड़ भारत की दक्षिण एशिया नीति के लिए एक चुनौती है।

2. अफगानिस्तान- अफगानिस्तान में 2001 से ही अमरीका के नेतृत्व में नाटो की सेनाएँ उपस्थित हैं। इन सेनाओं ने वहाँ आतंकवाद समर्थित तालिबान शासन की समाप्ति कर लोकतान्त्रिक व्यवस्था को मजबूत बनाने का प्रयास किया है। भारत ने पिछले एक दशक में वहाँ आर्थिक विकास में सहयोग की नीति का पालन किया है। लेकिन 2014 में अफगानिस्तान से नाटो की सेनाओं की वापसी प्रस्तावित है। इस वापसी के पश्चात् अफगानिस्तान में यदि पाकिस्तान समर्थित सरकार स्थापित हो जाती है तो आतंकवाद को पुन: बढ़ावा मिल सकता है। ऐसी स्थिति भारत की सुरक्षा की दृष्टि से घातक है।

3. बांग्लादेश- बांग्लादेश भी राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। वहाँ की खालिदा जिया के नेतृत्व वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी कट्टरपंथी ताकतों से समर्थित है और उसकी नीतियाँ भारत विरोधी रही हैं। अब भी वहाँ इस दल का शासन होता है तो दोनों देशों के सम्बन्धों में तनाव आ जाता है। वर्तमान में वहाँ शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग का शासन होने से दोनों देशों में निकटता लाने तथा विवादास्पद मुद्दों को सुलझाने के प्रयत्न हो रहे हैं।

भारतीय प्रधानमंत्री की बांग्लादेशयात्रा, 2011- भारत और बांग्लादेश के बीच सहयोग जारी रखने के लिए, पारस्परिक हित के सभी क्षेत्रों में 6-7 सितम्बर, 2011 को भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने बांग्लादेश की यात्रा थी। इस यात्रा के दौरान भारत ने तीन बीघा क्षेत्र से दहाग्राम एवं अंगोर पोटा एन्क्लेवों तक बांग्लादेशी नागरिकों के लिए चौबीसों घंटों की आवाजाही की सुविधाजनक बनाने पर सहमति व्यक्त की तथा बांग्लादेश द्वारा किए गए अनुरोध के प्रत्युत्तर में 46 वस्त्र मदों के शुष्क मुक्त आयात की अनुमति दी गई, अभी हाल ही में 5-6 जून, 2015 को भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बांग्लादेश की दो दिवसीय यात्रा की। इस यात्रा में दोनों देशों के बीच (बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी) भूमि सीमा समझौते (एलबीए) पर ऐतिहासिक करार हुआ है। इस समझौते से दोनों देशों के बीच 41 वर्षों से चले आ रहे सीमा विवाद का समाधान हो गया। इसके अलावा दोनों के बीच और भी अनेक मुद्दों पर समझौते किए गए हैं।

4. नेपाल- पिछले दो दशकों से नेपाल राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। वर्तमान में वहाँ माओवादियों का प्रभाव बढ़ा है जो भारत के विरोधी हैं तथा चीन के समर्थक हैं। सम्भवतः इन माओवादी समूहों का सम्पर्क भारत के नक्सलवादी समूहों से भी है। अत: नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता तथा माओवादियों का वहाँ बढ़ता प्रभाव भारत के लिए एक गम्भीर चुनौती है क्योंकि माओवादी 1950 को भारत-नेपाल मैत्री संधि को नेपाल की सम्प्रभुता के विरुद्ध मानते हैं तथा इसके बदलाव पर जोर दे रहे हैं। भारत के नव-नियुक्त प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने (26 मई, 2014) ने अपने पड़ोसी देश नेपाल की दो दिवसीय यात्रा 3-4 अगस्त, 2014 को की। यह यात्रा किसी भारतीय प्रधानमंत्री की 17 साल के बाद पहली यात्रा थी। इस यात्रा से दोनों देशों ने काठमांडो में अनेक मुद्दों पर सहमति व्यक्त की तथा अपनी यात्रा को मोदी ने 'ड्रैगन कन्ट्रोल' का नाम दिया। हाल ही में 67 साल के लम्बे लोकतांत्रिक संघर्ष के बाद नेपाल में 20 सितम्बर, 2015 को नया संविधान लागू कर दिया तथा नेपाल अब हिन्दू राष्ट्र की बजाय 'धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र' बन गया।

5. भूटान- भारत और भूटान के बीच सदैव से सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहे हैं। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग लगातार बढ़ रहा है। 2007 की भारत-भूटान सन्धि दोनों के सम्बन्धों के विकास की आधारशिला है। 2008 में भूटान में लोकतन्त्र की स्थापना के बाद से दोनों की विदेश नीतियाँ परस्पर विश्वास, घनिष्ठता बनाने और सहयोग की रही हैं।

नरेन्द्र मोदी की भूटान यात्रा, 15-16 जून, 2014- भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी पहली दो दिवसीय विदेश यात्रा 15-16 जून, 2014 को भूटान नरेश जिग्मे खेसर नामग्पाल वांगचुक और भूटानी प्रधानमंत्री छोरिंग तोबगे तथा वहाँ की सरकार के निमंत्रण पर की। इस यात्रा के तहत दोनों देशों ने अपने हितों को समान बताते हुए निम्न समझौतों पर सहमति व्यक्त की-

1. पर्यटन को बढ़ावा दिया जाय,

2. हिमालय विश्वविद्यालय की स्थापना की जाय,

3. भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और भूटान के बीच संयुक्त खेल उत्सवों का आयोजन किया जाय,

4. 'B' for 'B' का फार्मूला दिया अर्थात् 'B' टू 'B' यानी भारत के लिए भूटान, भूटान के लिए भारत। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिया गया यह नारा दोनों देशों के बीच पारस्परिक सम्बन्धों की महत्ता को स्पष्ट करता है-

प्रणव मुखर्जी की भूटान यात्रा 7-8 नवम्बर, 2014- भारतीय राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी दो दिवसीय भूटान यात्रा 7-8 नवम्बर, 2014 को की। इस यात्रा से दोनों देशों के बीच (भारत + भूटान) ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सम्बन्धों तथा साझे मूल्यों के हितों एवं लक्ष्यों पर आधारित संपर्क अधिक प्रगाढ़ हुए हैं।

6. श्रीलंका- श्रीलंका में तमिल समस्या को लेकर दोनों देशों के मध्य तनाव आया हुआ है। 15 जून, 2011 से श्रीलंका और भारत में 1983 बन्द नौका सेवा फिर से शुरू कर दी गई। 21 सितम्बर, 2012 को श्रीलंका के राष्ट्रपति श्री महिन्द्रा राजपक्षे ने सांची, मध्यप्रदेश में सांची बौद्ध एवं भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय के शिलान्यास हेतु भारत यात्रा की।

प्रधानमंत्री मोदी की श्रीलंका यात्रा, 2015- हाल ही में 28 साल बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने श्रीलंका की दो दिवसीय यात्रा 12-13 मार्च, 2015 को की। मोदी ने श्रीलंकाई राष्ट्रपति मैत्रीपाला मिरिसेना से मुलाकात की तथा दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व क्षेत्रीय मुद्दों पर चर्चा की तथा 13 मार्च, 2015 को निम्न चार समझौतों पर हस्ताक्षर किए- (1) दोनों देशों के बीच वीजा (2) सीमा शुल्क (3) युवा विकास तथा (4) श्रीलंका में रविन्द्रनाथ टैगोर स्मारक बनेगा।

श्रीलंकाई प्रधानमंत्री की भारत यात्रा, 2015- अभी 16 सितम्बर, 2015 को अपनी तीन दिवसीय यात्रा में श्रीलंकाई प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे तथा भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच दोनों देशों के सम्बन्धों में सामंजस्य बैठाते हुए संवेदनशील मछुआरे मुद्दे, तमिलों के लिए इंसाफ, व्यापार एवं रक्षा सहयोग को बढ़ाने के तौर-तरीकों पर सहमति व्यक्त की है।

चीन के प्रति भारत की विदेश नीति

सन् 1962 के पूर्व तक भारत तथा चीन के बीच घनिष्ठ मित्रता के सम्बन्ध रहे। इस काल में भारत ने चीन को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता का प्रबल समर्थन किया; पंचशील के सिद्धान्त पर चीन के साथ समझौता किया तथा तिब्बत पर चीन के प्रभुत्व को भी स्वीकार किया। इसके बावजूद चीन ने भारत पर 1962 में अचानक सैनिक आक्रमण कर अपनी विस्तारवादी नीति का परिचय देते हुए भारत की काफी जमीन को अपने अधिकार में ले लिया। तब से भारत तथा चीन के बीच मित्रता के सम्बन्ध समाप्त हो गये। उसके बाद भारत ने चीन के साथ यथार्थवादी नीति को अपना रखा है।

1963 से 1976 तक भारत-चीन सम्बन्धों में कटुता बनी रही। 1971 में चीनी विस्तारवादी नीति को देखते हुए भारत ने रूस के साथ 20 वर्षीय सैनिक सन्धि की। इस काल में भारत का कहना रहा कि चीन जब तक भारत की भूमि से हट नहीं जायेगा तब तक दोनों देशों में मित्रता नहीं हो सकती।

वर्तमान समय में भारत-चीन सम्बन्धों में व्यापक सुधार आया है। इस बारे में जटिल प्रकृति के बावजूद दोनों देशों के बीच उच्च स्तरीय राजनीतिक तालमेल जारी है। जून, 2009 में चीन के राष्ट्रपति हू जिन्ताओ एवं भारत के प्रधानमन्त्री की चेतातेरिबर्ग में मुलाकात हुई। इस दौरान दोनों देशों के बीच सभी मसलों पर होने वाले संस्थागत वार्ता तन्त्र में प्रगति हुई। दोनों देशों ने WTO वार्ता का दोहा दौर, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक आर्थिक संकट इत्यादि मसलों पर गम्भीर चर्चा की।

बढ़ता आर्थिक सहयोग-

दोनों देशों ने व्यापार बढ़ाने के लिए शिपकी, लिपिलेख तथा नाथूला दर्रा को खोल दिया है। इससे दोनों देशों के व्यापार में तीव्र वृद्धि हुई है। पिछले 20 वर्षों के दौरान दोनों के मध्य व्यापार 3 अरब डॉलर से बढ़कर 60 अरब डॉलर तक हो गया है और 2015 तक इसे 100 अरब डॉलर तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। इसके साथ ही दोनों देशों के मध्य रेल, आवास, भू-विज्ञान, भूमि संसाधन प्रबन्ध में सहयोग के समझौते पर भी हस्ताक्षर हुए हैं। इसके बावजूद वर्तमान में दोनों देशों के बीच अनेक मुद्दों पर विवाद है, जिसके कारण समय-समय पर सम्बन्धों में तनाव उभरता रहता है। ये मुद्दे हैं—(1) चीनी सैनिकों का भारतीय सीमा में समय-समय पर अचानक घुस आना, (2) सीमा विवाद, (3) ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन द्वारा बाँध बनाना, (4) द्विपक्षीय व्यापार में भारत के विरुद्ध व्यापार असन्तुलन का मुद्दा, (5) स्टेपल वीजा सम्बन्धी विवाद तथा (6) समुद्री मार्गों की सुरक्षा सम्बन्धी विवाद आदि।

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पड़ोसी देशों के प्रति भारत की विदेश नीति


उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत की विदेश नीति अपने पड़ोसी देशों के साथ मित्रवत् और शान्तिपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की रही है लेकिन पड़ोसी देशों के मध्य अन्त:क्षेत्रीय विवादों के कारण समय-समय पर अनेक बाधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। भारत इन बाधाओं को दूर करने हेतु निरन्तर प्रयासरत है।

भारतीय विदेश नीति के मूल सिद्धान्त एवं विशेषताएँ

15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ तथा एक स्वतन्त्र विदेश नीति का संचालन किया। स्वतन्त्रता के बाद से आज तक अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति भारतीय नजरिए ने भारतीय विदेश नीति के इन सिद्धान्तों एवं विशेषताओं को विकसित किया-

1. असंलग्नता अथवा गुटनिरपेक्षता की नीति-

गुटनिरपेक्षता अथवा असंलग्नता भारतीय विदेश नीति का सबसे महत्त्वपूर्ण और विलक्षण सिद्धान्त है। सकारात्मक रूप में गुटनिरपेक्षता का अर्थ है-एक स्वतन्त्र विदेश नीति, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सक्रिय योगदान, प्रत्येक मामले को उसके गुण-दोषों के आधार पर जाँचना तथा भारत के राष्ट्रीय हितों के आधार पर निर्णय लेना । नकारात्मक रूप में इसका तात्पर्य है शीत-युद्ध सन्धियों तथा शक्ति राजनीति से दूर रहना। भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति गतिशील और सकारात्मक रही है।

भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति एक विधेयात्मक सक्रिय तथा रचनात्मक नीति है। इसका ध्येय किसी दूसरे गुट का निर्माण करना नहीं वरन् दो विरोधी गुटों के बीच सन्तुलन का निर्माण करना है। गुटनिरपेक्षता की यह नीति सैनिक गुटों से अपने को दूर रखती है परन्तु पड़ोसी व अन्य राष्ट्रों के बीच अन्य सब प्रकार के सहयोग को प्रोत्साहन देती है।

2. अफ्रेशियाई एकता की नीति-

एशिया एवं अफ्रीका के अधिकांश देश साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के शिकार रहे हैं। आर्थिक और औद्योगिक दृष्टि से ये देश अल्पविकसित, अर्द्धविकसित या पिछड़े हुए हैं और उनका जीवन-स्तर बहुत नीचा है। इस प्रकार भारत ने यह प्रयत्न किया कि इन देशों की स्वतंत्रता स्थायी रहे और ये देश पारस्परिक सहयोग द्वारा आर्थिक और सामाजिक उन्नति करें।

3. शांतिपूर्ण सहअस्तित्व-

भारत की विदेश नीति के आधार पंचशील के सिद्धान्त हैं, अर्थात् प्रत्येक राष्ट्र की प्रादेशिक अखण्डता तथा सम्प्रभुता का सम्मान करना, किसी राज्य पर आक्रमण या इसकी सीमाओं का अतिक्रमण न करना, किसी राष्ट्र के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, सभी के साथ समान व्यवहार तथा सहयोग करना और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का सिद्धान्त अपनाते हुए सभी देशों के साथ शांतिपूर्वक रहना। अत: अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के निपटारे के लिए भारत शांतिमय साधनों, द्विपक्षीय या बहुपक्षीय वार्ताओं, समझौतों, मध्यस्थता, पंच निर्णय, विवाचन आदि पर बल देता है।

4. रंगभेद, जातिभेद, उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का विरोध-

स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात् से ही भारत ने अन्य परतंत्र देशों की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्ल किए। श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया, हिन्द-चीन तथा अफ्रीका के अनेक देशों ने अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति में भारत से प्रेरणा ही नहीं, खुला समर्थन भी प्राप्त किया। दक्षिणी अफ्रीका और रोडेशिया की अल्पमत गोरी सरकारों तथा उनकी रंगभेद-भाव की नीति के विरुद्ध भारत ने निरन्तर प्रचार किया है। भारत की गुट निरपेक्षता की नीति भी छोटे देशों के बड़े राष्ट्रों के साम्राज्यवादी चंगुल से बचने का एक साधन है। अमेरिका के काले लोगों के विरुद्ध रंग भेद-भाव की नीति का भारत ने विरोध किया है। बांग्लादेश को पाकिस्तानी साम्राज्यवाद से मुक्त कराने में भारत का प्रमुख हाथ था।

5. सभी राष्ट्रों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध-

भारत ने अपने पड़ोसी देशों से ही नहीं, बल्कि विश्व के प्रत्येक देश से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का सदैव प्रयास किया है। भारत ने अनेक देशों से मैत्रीपूर्ण सन्धियाँ की हैं; जैसेनेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, मिस्र, सोवियत संघ, इराक, म्यांमार, इण्डोनेशिया, सीरिया, जापान आदि। भारत ने अपनी पहल पर ही, चीन और पाकिस्तान से सामान्य सम्बन्ध स्थापित किये।

6. संयुक्त राष्ट्र संघ में विश्वास-

भारत की विदेश नीति के लक्ष्य संयुक्त राष्ट्र संघ के लक्ष्यों के समान ही हैं। भारत की सदैव अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों और कानून के प्रति निष्ठा रही है। कश्मीर के सम्बन्ध में भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ ने निराश किया, फिर भी उसने उसके युद्ध- विराम और जनमत संग्रह के प्रस्ताव को (अपनी व्याख्यानुसार) स्वीकार कर लिया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ तथा इसके विभिन्न अंगों को सक्रिय सहयोग दिया है। नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों और प्रयत्नों का भारत ने सदैव समर्थन किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ की माँग पर भारत ने शान्ति रखने के लिए कोरिया, मिस और कांगो में अपनी सेनायें भेजी तथा हिन्द-चीन के तटस्थता आयोग का भारत अध्यक्ष था।

7. विभाजित देशों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण नीति-

भारत ने विश्व के विभाजित देशों के प्रति सदैव सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया है क्योंकि भारत स्वयं विभाजन के दुष्परिणाम भुगत चुका है। मुख्यतः यही कारण था कि भारत ने फिलीस्तीन के विभाजन का विरोध किया था और अरबों एवं यहूदियों के एक संघ का समर्थन किया था। इसी तरह भारत ने कोरिया तथा वियतनाम के विभाजन का भी विरोध किया तथा पूर्व एवं पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण का समर्थन किया।

8. वार्ताओं तथा समझौते की नीति-

भारत ने अपनी समस्याओं को वार्ताओं एवं समझौतों से सुलझाने का प्रयास किया है। इसे दो बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है-

(i) पड़ोसी देशों के साथ विवादों का शांतिपूर्ण ढंग से निपटारा- भारत ने अपने पड़ोसी राष्ट्र पाकिस्तान के साथ सिन्धु जल सन्धि, कच्छ ट्रिब्यूनल, ताशकन्द समझौता, शिमला समझौता आदि के द्वारा परस्पर विवादों को सुलझाने का प्रयास किया। इसी तरह नेपाल के साथ भारत-नेपाल सन्धि, बांग्लादेश के साथ फरक्का समझौता, श्रीलंका के साथ प्रवासियों की समस्या को लेकर समझौता एवं चीन के साथ शांतिपूर्ण वार्ताओं द्वारा सीमा-विवाद सुलझाने का प्रयत्न किया गया।

(ii) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने हेतुशांतिपूर्ण साधनों पर जोर- भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के लिए सदैव शांतिपूर्ण साधनों पर जोर दिया है। कोरिया, स्वेज संकट, हिन्द-चीन, कांगो संकट आदि समस्याओं को सुलझाने के लिए भारत ने सक्रिय सहयोग दिया। यद्यपि भारत परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है फिर भी उसने स्पष्ट घोषणा की है कि वह अणु शक्ति का प्रयोग शांतिपूर्ण कार्यों तथा अपनी आत्म-रक्षा के लिए करेगा।

9. सेतुबंध का कार्य-

बड़े राष्ट्रों से भी भारत ने मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रखे हैं। भारत ने किसी देश की मित्रता को देशों की मित्रता में बाधक नहीं समझा, इसलिए सोवियत संघ से विशेष सम्बन्ध होने और कश्मीर के प्रश्न पर उसका समर्थन मिलने के बावजूद भारत ने अमेरिका से भी मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रखे हैं। जब भारत ने चीन से अपने सामान्य सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया तो रूस के असन्तोष और अप्रसन्नता की भारत ने चिन्ता नहीं की। वास्तव में भारत की विदेश नीति का यह भी उद्देश्य है कि वह विरोधी गुटों और राष्ट्रों के मध्य सेतुबन्ध का कार्य करे।

वर्तमान देश में भारतीय विदेश नीति के नये आयाम

बदलते अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य एवं विश्व व्यवस्था में भारतीय विदेश नीति में भी व्यापक परिवर्तन आया है और नवीन आयाम जुड़े हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में भारतीय विदेश नीति का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है-

1. अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के संगठित विरोध की नीति-

भारत ने विश्व में कहीं पर भी घटित होने वाली आतंककारी घटनाओं की कटु आलोचना की है और इस समस्या का निवारण करने हेतु सम्पूर्ण विश्व समुदाय को एकजुट होने की अपील की है। भारत ने विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर विभिन्न आतंकवादी संगठनों व उनकी गतिविधियों के विरुद्ध संगठित होकर कार्यवाही करने पर बल दिया है।

(i) हालाँकि विश्व के सभी देश अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की खिलाफत तो करते हैं, परन्तु उससे निपटने की दिशा में विशेष रुचि प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं। भारत इस दिशा में पहल करने की नीति का अनुसरण कर रहा है।

(ii) अप्रैल, 2000 में जी-77 देशों के शिखर सम्मेलन में भारत ने इस दिशा में सभी देशों को प्रेरित किया। परिणामतः अपने पारित प्रस्ताव में जी-77 शिखर सम्मेलन ने आतंकवाद पर अंकुश लगाने के लिए संगठित प्रयास की आवश्यकता बतायी।

(iii) जून, 2000 में सम्पन्न जी-15 के काहिरा शिखर सम्मेलन और 30-31 मई, 2001 के जकार्ता शिखर सम्मेलन में भारत की पहल पर अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद की कड़ी भर्त्सना की गई और इस बारे में संयुक्त राष्ट्र के तहत समझौते की जरूरतों पर जोर दिया गया।

(iv) जनवरी, 2001 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी ने इण्डोनेशिया की यात्रा की। इस यात्रा के दौरान कश्मीर मुद्दे पर इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति श्री वाहिद ने भारतीय दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए आतंकवाद का पुरजोर विरोध किया। 30-31 मई, 2001 को जी-15 राष्ट्रों के 11वें शिखर सम्मेलन में भी आतंकवाद की भर्त्सना की गई। रूस और ईरान ने भी भारत के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद का मिलकर विरोध करने पर बल दिया।

(v) सितम्बर, 2006 में आयोजित गुट-निरपेक्ष देशों के 14वें सम्मेलन में भारत ने दक्षिण- एशिया क्षेत्र में हो रही आतंकवादी गतिविधियों को नियंत्रित करने का संकल्प किया।

(vi) दक्षेस कोलंबो शिखर सम्मेलन 2008 में आयोजित सार्क के 15वें शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री ने आतंकवाद के प्रति सभी सदस्य देशों से अपनी प्रतिबद्धताओं को ईमानदारी से लागू करने की अपील की।

(vii) अप्रैल, 2010 में आयोजित 16वें सार्क शिखर सम्मेलन में दक्षेस देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने आतंकवाद, चरमपंथ तथा उग्रवाद से सामूहिक रूप से लड़ने की प्रतिज्ञा की। इसके अलावा भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मई-2011 में अफगानिस्तान की यात्रा के दौरान अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई के साथ दक्षिण एशिया क्षेत्र में फैले आतंकवाद की समस्या पर विस्तृत चर्चा की।

(viii) संयुक्त राष्ट्र महासभा के 70वें अधिवेशन के दौरान 28 सितम्बर, 2015 को भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ न्यूयार्क में एक संयुक्त वार्ता के दौरान आतंकवाद की कड़ी निन्दा की और कहा कि पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को किसी भी दशा में स्वीकार नहीं किया जाएगा, उसका डटकर मुकाबला किया जाएगा तथा मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ से आतंकवाद को परिभाषित करने की मांग की है।

2. नई परमाणु नीति-

मई, 1998 के भारत के परमाणु परीक्षण के बाद से भारत की परमाणु नीति में एक परिवर्तन आया है। इसका विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं में किया गया है- (अ) परमाणु परीक्षण (ब) नवीन परमाणु नीति ।

(अ) भारत का परमाणु परीक्षण (मई, 1998) और भारतीय विदेश नीति- मई, 1998 के परमाणु विस्फोट के बाद विश्व मीडिया ने काफी जोर-शोर से यह रेखांकित किया कि भारत की विदेश नीति में बदलाव आ गया है। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय परिवर्तित परिस्थितियों के अन्तर्गत भारत का यह नीतिगत परिवर्तन ठीक उसी प्रकार का है, जैसा कि 1971 में रूस से की गई 20 वर्षीय संधि से असंलग्नता की नीति में आया परिवर्तन था। पाकिस्तान-चीन-अमरीका की घेरेबन्दी को तोड़ने की दृष्टि से भी इसे परिवर्तित विदेश नीति कहा जा सकता है।

(ब) नवीन परमाणु नीति- 18 अगस्त, 1999 को भारत सरकार ने अपनी नवीन परमाणु नीति के बारे में एक दस्तावेज प्रकाशित किया। पोकरण में किए गए परमाणु बम विस्फोट के बाद इसके उपयोग को लेकर जो भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई थी, उसे इस घोषित नवीन परमाणु नीति से एक स्पष्ट दिशा दे दी गई। परमाणु नीति पर भारत सरकार ने राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श का आमंत्रण दिया। इस प्रकार की कार्यवाही फ्रांस को छोड़कर अन्य किसी भी परमाणु शक्ति सम्पन्न देश ने नहीं की। अमरीका ने भारत की नीति को पाकिस्तान के परिप्रेक्ष्य में देखते हुए आलोचना की जबकि भारत ने अपना परमाणु विकास पाकिस्तान को देखकर नहीं किया। उसने यह विकास अपनी प्रतिरक्षा तथा अगली सदी में बनने वाले संभावित शक्ति समीकरणों के संदर्भ में किया तथा यह किसी भी तरीके से परमाणु होड़ को जन्म नहीं देगा। इस मसौदे की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

(i) शस्त्र नियन्त्रण के सिद्धान्त को अपनाया गया है।

(ii) भारत किसी भी देश पर पहले हमला नहीं करेगा।

(iii) भारत ने एन.पी.टी. की भेदभावपूर्ण नीति का विरोध किया है।

(iv) परमाणु निहित देश पर परमाणु हथियारों से प्रहार नहीं किया जायेगा।

(v) भारत केवल आत्म-रक्षा के लिए परमाणु शक्ति का विकास करेगा।

3. भारत की पूर्व की ओर देखो नीति-

भारत इस नीति के तहत दक्षिण-पूर्वी देशों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने पर बल दे रहा है। भारत के इस नीति के दायरे में इन्डोनेशिया, सिंगापुर, ब्रुनेई, म्यांमार, मलेशिया, वियतनाम, थाईलैण्ड, कम्बोडिया, फिलीपींस, कोरिया, जापान आते हैं।

1991 से लेकर वर्तमान तक भारत की इस नीति में निरन्तर गंभीरता तथा मजबूती आती रही है। 'मेकांग-गंगा परियोजना' में पाँच दक्षिण एश्यिाई देशों का सहयोग और पूर्वी देशों के साथ निरन्तर मजबूत होते आर्थिक सम्बन्ध इस बात के द्योतक हैं कि भारत को अपनी पूर्वोन्मुखी नीति से अच्छी सफलता प्राप्त हुई है। भारत की पूर्व की ओर देखो नीति के उद्देश्य भारत की पूर्व की ओर देखो नीति के तीन मुख्य उद्देश्य हैं-

(i) आसियान सदस्य राष्ट्रों के साथ चले आ रहे राजनीतिक व कूटनीतिक सम्बन्धों को सुधारना।

(ii) इन देशों के साथ अधिक मजबूत आर्थिक सम्बन्ध विकसित करना एवं व्यापार, निवेश, विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं पर्यटन के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाना।

(iii) पूर्वी एशिया के तमाम राष्ट्रों के साथ महत्त्वपूर्ण रक्षा समझौते स्थापित करना, जिसमें आपसी राजनीतिक समझ भी मजबूत हो तथा हिन्द महासागर क्षेत्र में शांति भी बनी रहे।

4. अमरीकीपरस्त विदेश नीति-

सोवियत संघ के पतन के पश्चात् भारत के शासक वर्ग को लगा कि उसका हित विश्व की एकमात्र महाशक्ति संयुक्त राज्य अमरीका को खुश करने में निहित है। इस सोच ने भारत की विदेश नीति को नया मोड़ दिया है तथा स्वतंत्र विदेश नीति का स्थान अमरीकापरस्त विदेश नीति ने ले लिया है। वाजपेयी सरकार ने इस परिवर्तित विदेशनीति का शुभारंभ किया तथा डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने उसे आगे बढ़ाया है। डॉ. मनमोहन सिंह की जुलाई, 2005 में अमरीकी यात्रा के दौरान किया गया परमाणु समझौता इसी तथ्य को स्पष्ट करता है। सितम्बर, 2008 में अमेरिकी सीनेट ने इस समझौते को अन्तिम मंजूरी प्रदान कर दी है। वर्तमान में चीन के तेवरों को शांतिपूर्ण बनाए रखने के लिए भारत, जापान एवं आस्ट्रेलिया के बीच गठबंधन के विचार की वार्ता चल रही है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की 2015 की अमेरीका यात्रा से इसमें तेजी आयी है।

यद्यपि अमेरिका की इच्छा के अनुरूप भारत द्वारा किसी औपचारिक भागीदारी में शामिल होने की संभावना नहीं है, किन्तु अब भारत-अमरीको सम्बन्ध काफी प्रगाढ़ हुए हैं।

5. रूस के साथ बढ़ती मित्रता-

प्रधानमंत्री वाजपेयी के काल में पुन: भारत-रूस के सम्बन्धों में मित्रता बढ़ी। दोनों ने आतंकवाद के विरोध में समान दृष्टिकोण अपनाते हुए घोषणाएँ की हैं। रूस ने भारत से सामरिक सहयोग के अनेक समझौते किये हैं तथा सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता के संदर्भ में भारत की दावेदारी का समर्थन किया है। इसके अतिरिक्त सोवियत रूस राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने दिसम्बर, 2010 में भारत की यात्रा की जिसमें ऊर्जा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, तेल, गैस, फार्मा आदि क्षेत्रों में परस्पर सहयोग के 30 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। दिसम्बर, 2012 में 13वीं शिखर वार्ता में रूस ने परमाणु पनडुब्बी 'आई एन एस-चक्र' को भारत को 10 साल के लिए लीज पर देने तथा अत्याधुनिक विमानों के साझे निर्माण के समझौते किये हैं। सैटेलाइट तकनीक तथा बैंकिंग क्षेत्र में निवेश के द्विपक्षीय करार भी इस वार्ता की उपलब्धि रहे हैं। 10-11 दिसम्बर, 2014 को भारत-रूस की 15वीं वार्षिक बैठक में दोनों देशों (पुतिन + मोदी) ने 20 समझौतों पर हस्ताक्षर करके अपने सम्बन्धों को प्रगाढ़ किया है।

6. यूरोपीय संघ के साथ सम्बन्धों को और सुदृढ़ करने की नीति-

भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने यूरोपीय संघ के देशों के साथ व्यापार बढ़ाने तथा सम्बन्धों में निकटता लाने की दृष्टि से 2007 में ब्रिटेन, हेलसिंकी व फिनलैंड की यात्रा की। प्रधानमंत्री की ब्रिटेन यात्रा के दौरान दोनों देशों के नेताओं ने आतंकवाद का मिल-जुलकर मुकाबला करने पर बल दिया।

7वें भारत-यूरोपीय संघ व्यापार एवं राजनीतिक शिखर सम्मेलन में आतंकवाद, संयुक्त राष्ट्र, आई एम.एफ. (IMF) और डब्ल्यू.टी.ओ. (WTO) सरीखी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में सुधार की आवश्यकता पर बल दिया। फरवरी, 2012 के 12वें शिखर सम्मेलन में दोनों ने आतंकवाद के प्रत्येक रूप की कड़ी आलोचना की। दोनों ने समुद्री डकैती एवं साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में आपसी विचार- विमर्श तथा सहयोग बढ़ाने का संकल्प लिया तथा ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर बल दिया। यूरोपीय संघ के साथ भारत की बढ़ती यह निकटता भविष्य में अमरीकी विकल्प और चीन के बढ़ते प्रभाव और उससे उत्पन्न चुनौतियों का मुकाबला करने में भी सक्षम होगी।

नई भारतीय विदेश नीति के बदलते नये आयाम-

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की विदेश नीति को नया मोड़ देना तथा एक महाशक्ति के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय पहल पर प्रस्तुत करना, भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निम्न यात्राओं से विदित होता है- मार्च, 2015 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सेशल्स, मॉरीशस और श्रीलंका की यात्राएँ की। इन यात्राओं का महत्व इस बात से स्पष्ट होता है कि किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने 34 वर्ष बाद सेशल्स, 10 वर्षों के बाद मॉरीशस और 28 वर्षों के बाद श्रीलंका की यात्रा की। सेशल्स में भारत के सहयोग से स्थापित किये गये कोस्टल सरवेलेंस रेडार सिस्टम का उद्घाटन किया। मॉरीशस सरकार को विभिन्न योजनाओं के लिए सस्ती दर पर 500 मिलियन डॉलर ऋण देने की भारत ने पेशकश की। श्रीलंका में रेलवे क्षेत्र के लिए 31.8 करोड़ डॉलर की ऋण सुविधाएँ भारत की ओर से दी जायेगी।

प्रधानमंत्री मोदी 9 से 18 अप्रैल, 2015 तक फ्रांस, जर्मनी और कनाडा की यात्रा पर रहे।

14-16 मई, 2015 को प्रधानमंत्री मोदी ने चीन की यात्रा की और 10 अरब डॉलर के 24 समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

6-7 जून, 2015 को मोदी के पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ बांग्लादेश की यात्रा की और दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक भूमि सीमा समझौता पर करार हुआ।

23-28 सितम्बर, 2015 को छ: देशों की यात्राएँ करके प्रधानमंत्री मोदी ने भारत की विदेश नीति को एक नया आयाम दिया है तथा आगे नवम्बर, दिसम्बर, 2015 की प्रस्तावित पाँच-छह देशों की यात्राएँ भी इसी बात का द्योतक हैं कि मोदी भारत की छवि को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किस स्तर तक ले जाना चाहते हैं, स्पष्ट होता है।

इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारतीय विदेश नीति अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ रही है। सम्भावित परिणामों के आशानुकूल होने की प्रबल सम्भावना है। अत: बदलते विश्व परिदृश्य में भारतीय विदेश नीति में भी व्यापक परिवर्तन आया है।

(नोट- यह लेख 2018 तक अपडेट किया गया है, शीघ्र ही अपडेट कर दिया जाएगा।)

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