चीन में साम्यवादी आन्दोलन
चीन सभ्यता की दृष्टि से
विश्व का प्राचीनतम देश माना जाता है। भारत, मिस्र, फ्रांस व रोम की
भाँति यहाँ भी सभ्यता का विकास नदियों की घाटी में ही हुआ। उस उन्नत एवं विकसित
सभ्यता को पल्लवित बनाने में हांगहो तथा यांग्टीसिक्यांग नदियों का
परम सहयोग मिला है। ये दोनों नदियाँ तिब्बत की पर्वतमाला से निकलकर हजारों मीलों
का मार्ग तय करती हुई प्रशान्त महासागर में मिलती हैं। यहाँ के व्यक्ति कट्टर हैं, वे विदेशी संस्कृति से
प्रभावित होना नहीं चाहते।
चीनी समाज का आधार लोओत्से (Lao-Tse) तथा कन्फयूशियस (Confucius) जैसे विचारकों के सुदृढ़ विचार थे। दोनों विचारकों का प्रभाव चीनी सभ्यता पर आज भी देखा जा सकता है। वर्तमान में साम्यवादी सरकार भी कन्फयूशियस को महत्त्व देने लगी है। उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही चीन पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव में आने लगा। बीसवीं सदी में तो चीन पाश्चात्य सभ्यता के रंग में प्रभावित होने लगा। इसका मूल कारण चीन में यूरोपवासियों का आगमन था।
चीनी साम्यवादी दल की
स्थापना (Chinese communist party)
चीन में
साम्यवादी सिद्धान्तों का प्रचार और प्रसार करने को श्रेय वहाँ के सुप्रसिद्ध
समाचार-पत्र "न्यू चाइना" को था। इस समाचार-पत्र के सम्पादक चेन
टू श्यू (Chen
Tu Hsiu) ने प्रथम विश्व युद्ध
के पश्चात् 1948 में अपने ओजस्वी लेखों
के माध्यम से जनता के मध्य साम्यवाद के सिद्धान्तों का प्रचार किया था। इन
सिद्धान्तों का प्रभाव चीन की जनता पर तीव्र गति से बढ़ता गया। सन् 1920 में चीन के अग्रणी नेताओं ने शंघाई में चीनी साम्यवादी
दल की स्थापना की। इस कार्य में चीनी जनता को रूस के साम्यवादियों का पूरा
समर्थन व सहयोग मिला था। शीघ्र ही इस दल की शाखाएँ चीन के दूसरे नगरों में भी
स्थापित की जाने लगीं। इस दल का प्रथम अधिवेशन जुलाई, 1921 में शंघाई में आयोजित
किया गया, जिसमें वर्तमान चीनी
गणराज्य के नेताओं माओत्से तुंग, चाऊ एन लाई, चू-तेह, लिउ-शाओची के अतिरिक्त
बड़ी संख्या में चीनी साम्यवादी नेता व कार्यकर्ता सम्मिलित हुए थे। इस अधिवेशन के
पश्चात् साम्यवादी दल ने रूस के साम्यवादियों से अपना सम्पर्क बढ़ाना प्रारम्भ
किया।
संयुक्त मोर्चा (1922-27)
1922 के सम्मेलन में चीनी साम्यवादी दल ने घोषणा की कि, उसका लक्ष्य देश में मजदूरों और किसानों के अधिनायकतन्त्र की स्थापना करना तथा धीरे-धीरे साम्यवादी सिद्धान्तों पर आधारित नवीन समाज का निर्माण करना था। चीनी साम्यवादी दल ने अपने सदस्यों से अपील की कि वे कुओमिनतांग के सदस्यों के साथ मिलकर एकसंयुक्त मोर्चा का गठन करें तथा राष्ट्रीय एकता व स्वतन्त्रता के कार्य में सहयोग करें। इस प्रकार साम्यवादियों तथा राष्ट्रवादियों का संयुक्त मोर्चा गठित हो गया। 1922 से 1927 तक की अवधि में च्यांगकाई- शेक और माओ में घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहा। उस समय माओ साम्यवादी दल की केन्द्रीय समिति के कृषक विभाग का अध्यक्ष तथा कुओ मिनतांग के राजनीतिक संगठन का सदस्य था। सन् 1929 में माओ को कुओमिनतांग के प्रचार विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। इसके अतिरिक्त वह पोलिटीकल डेली नामक समाचार-पत्र के सम्पादक का भी कार्य करता था।
चीन में साम्यवाद |
संयुक्त मोर्चा का अन्त और गृहयुद्ध का प्रारम्भ
साम्यवादियों एवं
राष्ट्रवादियों का संयुक्त मोर्चा अधिक दिनों तक कार्य नहीं कर सका। वास्तव
में दोनों नेता सत्ता पर अधिकार करने को उत्सुक थे। उस समय साम्यवादी दल की
अपेक्षा राष्ट्रवादी दल अधिक शक्तिशाली था। राष्ट्रवादी दल के नेता च्यांग-काई शेक
को साम्यवादियों के साथ कार्य करने में कठिनाई आने लगी। फलस्वरूप राष्ट्रवादी दल
ने अपनी शक्ति का लाभ उठाकर, साम्यवादी दल के
नेताओं को कुओमिनतांग के महत्त्वपूर्ण पदों से हटाना प्रारम्भ कर दिया। फलस्वरूप
संयुक्त मोर्चा मांग हो गया तथा गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया।
राष्ट्रवादी नेता
च्यांग काई शेक ने चीन के शहरी क्षेत्रों में साम्यवादियों का दमन करना
प्रारम्भ कर दिया। दमन नीति से अपने आपको सुरक्षित करने के उद्देश्य से साम्यवादी
नेता शहरी क्षेत्रों से देहातों में चले गए। ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँच कर
उन्होंने कृषकों के संगठन बनाए और इस प्रकार अपने क्रान्तिकारी संगठन को मजबूत
बनाने का प्रयास किया। उस समय साम्यवादी दल के प्रमुख दोनों नेताओं ने (माओ और चू
तेह ने) जो नीति अपनाई, उसके मुख्य
तत्त्व थे-शहरों से दूर रहना, भूमि सम्बन्धी
सुधारों को प्रोत्साहन देना, जमींदारी प्रथा
का उन्मूलन और भूमि किसानों में वितरण, किसानों के टेक्स और ब्याज के भार में कमी करना तथा किसानों
को कुओ मिनतांग के विरुद्ध भड़काना।
उपर्युक्त नीति
का पालन करने से साम्यवादी दल की शक्ति शनैः-शनै: बढ़ने लगी। उसकी नीतियों व
सिद्धान्तों से ग्रामीण जनता अत्यन्त प्रभावित हुई। फलस्वरूप उसकी लोकप्रियता
बढ़ने लगी। अपनी लोकप्रियता का लाभ उठाकर साम्यवादियों ने अपनी नीतियों को लागू
करना प्रारम्भ कर दिया। जमींदारों से भूमि छीनकर किसानों में वितरित की गई। अधिक
ब्याज लेने वाले साहूकारों को सार्वजनिक रूप से गोली मार दी गई। कृषकों को ऋण की
सुविधा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सहकारी समितियों की स्थापना की गयी। खाद्य
पदार्थों एवं आवश्यक वस्तुओं के मूल्य में कमी की गई। साम्यवादी सेना का संगठन
किया गया। इस सेना में सम्मिलित होने का विरोध करने वालों से कुलियों का काम लिया
गया। स्त्री पुरुषों को समान अधिकार व सम्मान कार्य दिये गये।
साम्यवाद का विकास (1934-1937)
च्यांगकाई शेक साम्यवादियों की शक्ति
का पर्ण दमन करने का संकल्प ले चुका था। उसने छ: बार साम्यवादियों पर सुनियोजित
ढंग से आक्रमण किये, किन्तु
साम्यवादियों की शक्ति को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सका। सन् 1934 में राष्ट्रवादियों की
सेना ने साम्यवादी सेना की चारों ओर से घेरा बन्दी कर दी। उस समय साम्यवादी सेना
दक्षिणी चीन के क्वागंसी प्रान्त में मौजूद थी। राष्ट्रवादियों की सेना से बचने के
लिये साम्यवादियों ने यह निश्चित किया कि अपनी लाल सेना को क्वांगसी प्रान्त से
हटाकर उत्तर-पश्चिमी चीन के शेन्सी नामक प्रान्त में भेज दिया जाए। इस निर्णय से
साम्यवादी सेना को शेन्सी प्रान्त में भेजने की कार्यवाही की गई। सेना ने 3 हजार लम्बा मार्ग आठ
महीने में पूरा किया।
साम्यवादियों ने
अपनी सेना को शैन्सी भेजने का निर्णय इसीलिये लिया, क्योंकि-
1.
यह स्थान सोवियत रूस के निकट था। आवश्यकता पड़ने
पर रूस की सहायता आसानी से मिल सकती थी।
2.
यह स्थान च्यांग काई शेक के अधिकृत प्रदेशों से
काफी दूर था। च्यांग काई शेक साम्यवादियों का शत्रु था और उसकी दमन नीति का
प्रभाव शैन्सी तक पहुँचना कठिन था।
3.
यह स्थान जापानियों द्वारा अधिकृत मंचूरिया के
निकट था। अत: वहाँ से जापानियों को चीन से बाहर निकालने में सहायता मिल सकती थी।
उस समय चीन पर
जापानी आक्रमण का भय बना हुआ था। साम्यवादियों ने पूरे देश में सभाओं और जुलूसों
द्वारा चीन की जनता में जापानियों के विरुद्ध युद्ध करने की प्राथमिकता पर बल दिया, परन्तु राष्ट्रवादी नेता च्यांग
काई-शेक जापानियों के विरुद्ध युद्ध करने से पूर्व साम्यवादियों का दमन करना
चाहता था। परन्तु चीन भी जनता जापानियों के सम्भावित खतरे से भयभीत होने से
सुरक्षा चाहती थी। पूरे देश में यह भावना जोर पकड़ने लगी कि बाह्य संकट के समय चीन
के दोनों दलों को संयुक्त मोर्चा गठित करना चाहिए। यह भावना सैनिक क्षेत्र में
प्रभावपूर्ण ढंग से विकसित हो चुकी थी। दिसम्बर, 1936 में च्यांग-काई-शेक
को उसके अधीनस्थ सैनिकों ने ही बन्दी बना लिया था। उनकी माँग थी कि च्यांग-काई-शेक
साम्यवादियों से मिलकर जापान पर आक्रमण करे।
चीन-जापान युद्ध
सन् 1937 में चीनी साम्यवादियों
तथा राष्ट्रवादियों का दूसरा संयुक्त मोर्चा गठित हुआ और उसके झण्डे के नीचे जापान
के विरुद्ध युद्ध की घोषण कर दी गई। चीन में साम्यवादी विचारधारा की लोकप्रियता
बढ़ गई थी। साम्यवादी दल के सदस्यों की संख्या लगभग एक लाख हो गई थी तथा चीन की
लगभग 30 हजार जनता पर साम्यवादी
सिद्धान्तों का प्रभाव कायम हो गया था। साम्यवादी नेता माओ की कार्यनीति का मुख्य
सूत्र यह था कि सर्वप्रथम कुओमिनतांग के साथ समानता का स्थान प्राप्त किया
जाए। इसके बाद कुओमिनतांग के स्थान पर साम्यवादी संगठन का वर्चस्व स्थापित
किया जाए। यद्यपि माओ कुओमिनतांग के सिद्धान्तों के विरुद्ध नहीं था, तथापि वह साम्यवादी
नीतियों व सिद्धान्तों को भी छोड़ने को तैयार नहीं था। माओ अपनी नीति को 70% साम्यवादी, 20% समझौतावादी तथा 10% जापान विरोधी मानता था।
युद्ध में चीनी साम्यवादियों ने जापान के विरुद्ध युद्ध नीति को अपनाया। इस नीति
के अनुसार साम्यवादियों ने जापानियों की दृष्टि से छिपकर भंयकर रूप से यकायक
आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। छापामार युद्ध से चीनी साम्यवादियों को यह लाभ हुआ
कि, जापानी सेना की छोटी-
छोटी टुकड़ियों को शीघ्र ही समाप्त कर देते थे जबकि अधिक संख्या में जापानी
सैनिकों के आने पर छिप जाते थे।
चीनी साम्यवाद और
द्वितीय विश्व युद्ध
जापानी आक्रमण के
विरुद्ध चीन में साम्यवादियों व राष्ट्रवादियों का जो दूसरा संयुक्त मोर्चा गठित
किया गया था, वह मोर्चा सन् 1940 तक ही सफलतापूर्वक काम
कर सका। राष्ट्रवादी नेता चुंग किंग की सरकार ने यह अनुभव किया कि चीनी साम्यवादी
दल के नेता और सदस्य शनै:-शनैः अपनी स्थिति सुदृढ़ बनाकर राजनीतिक स्वामित्व
अधिगृहित करने की योजना बना रहे हैं। अतएव चुंगकिंग ने शैन्सी में साम्यवादियों को
भेजी जानेवाली युद्ध सामग्री पर नियन्त्रण लगा दिया।
इसके अतिरिक्त
साम्यवादियों की आर्थिक व सैनिक घेरा बन्दी भी प्रारम्भ कर दी। साम्यवादी नेता माओ
ने चीनी क्रान्ति के सिद्धान्तों की व्याख्या और उसके विकास के चरणों को स्पष्ट
करते हुए अपनी पुस्तक "नवीन लोकतन्त्र" (New Democracy) में यह मत व्यक्त किया था
कि साम्यवादी क्रान्ति का विकास दो चरणों में सम्पन्न हुआ। प्रथम चरण में नवीन
लोकतन्त्र की स्थापना की जावेगी तथा द्वितीय चरण में नवीन ढंग से समाजवादी राज्य
की स्थापना की जावेगी। उसने यह भी स्पष्ट किया था कि द्वितीय चरण तक पहुँचने के
लिये हमें बुर्जुआ पूंजीवाद के साथ समझौता करना होगा। उस स्थिति में सभी
क्रान्तिकारी तत्त्वों की एक मिली-जुली सरकार का गठन किया जावेगा जिसका नेतृत्व
साम्यवादी दल के हाथों में होगा। अर्थव्यवस्था के सम्बन्धों में माओ ने स्थिति को
स्पष्ट करते हुए लिखा था कि, विकास के द्वितीय
चरण तक पहुँचने के लिये साम्यवादी दल सरकारी व निजी उद्योगों वाली मिश्रित अर्थव्यवस्था
को अपनायेगा।
युद्धोत्तर कालीन
विकास
द्वितीय विश्व
युद्ध की अवधि में
साम्यवाद का पूर्ण विकास न हो सका। सन् 1945 में जब युद्ध समाप्त हो गया तो अमेरिका व रूस का ध्यान चीन
की आन्तरिक समस्या की ओर आकर्षित हुआ। रूस के साम्यवादी नेता स्टालिन और
अमेरिका के जनरल मार्शल ने चीनी साम्यवादियों और राष्ट्रवादियों में समझौता
कराने का प्रयास किया। जनवरी, 1946 में दोनों
नेताओं के प्रयत्न से समझौता हो गया, परन्तु यह समझौता क्षणिक सिद्ध हुआ। मार्शल चीन छोड़कर
अमेरिका पहुँच भी न पाया था कि चीन में दोनों पक्षों में फिर गृहयुद्ध हो गया।
प्रारम्भ में कुओमिनतांग के विरुद्ध साम्यवादियों को सफलता नहीं मिल सकी, किन्तु 1947 के अन्तिम महीनों में
साम्यवादियों को मंचूरिया में जापानियों द्वारा छोड़ी गई युद्ध सामग्री प्राप्त हो
गई। सौभाग्यवश रूस की सरकार ने चीनी साम्यवादियों को सहायता देना प्रारम्भ कर दिया, जिससे उनका मनोबल बढ़
गया। इससे साम्यवादियों की शक्ति सुदृढ़ हो गयी।
साम्यवादी सेना ने विभिन्न स्थानों
पर राष्ट्रवादियों को पराजित किया। शीघ्र ही तिएन्सीन, पेकिंग, मुकदन, नानकिंग, क्रैण्टन और शंघाई जैसे
प्रमुख स्थानों को साम्यवादियों ने अपने अधिकार में ले लिया। सभी स्थानों पर
सुव्यवस्था कायम की गई। भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण लगाया गया तथा स्थानीय संस्थाओं
में बिना कोई परिवर्तन किये, उनसे सहयोग लेने
का प्रयास किया। इन कार्यों में स्थानीय जनता ने साम्यवादियों को पूरा सहयोग दिया।
साम्यवादी नेता माओत्से
तुंग ने इस परिवर्तन की घोषणा करते हुए 1 जुलाई, 1949 को कहा था, "हम साम्राज्यवाद, जमींदार- वर्ग तथा
नौकरशाही समर्थित पूंजीपति वर्ग पर किसानों, मजदूरों, छोटे बुर्जुआ तथा
राष्ट्रीय बुर्जुआ का अधिनायकतन्त्र स्थापित कर रहे हैं।" माओत्से-तुंग
ने "जनता का लोकतन्त्रीय अधिनायकतन्त्र में' में अपनी नीति स्पष्ट करते हुए कहा था कि, साम्यवादी दल चीन में
मजदूर, किसान, छोटे बुर्जुआ और
राष्ट्रीय बुर्जुआ चार वर्गों को संगठित करके, उनका लोकतन्त्रीय अधिनायकतन्त्र स्थापित करेगा, जिसका नेतृत्व किसान व
मजदूरों के हाथों में होगा। इसीलिये चीन के नवीन लाल झण्डे के मध्य भाग में एक
बड़ा तारा अंकित किया गया था तथा उसके साथ पीले रंग के चार तारे भी अंकित किये गये
थे, जो चारों वर्गों के
अस्तित्व के प्रतीक थे।
गृहयुद्ध की समाप्ति
गृहयुद्ध अपने
अन्तिम चरण पर पहुँच चुका था। सितम्बर, 1949 के अन्त तक साम्यवादी सेना का सम्पूर्ण चीन पर अधिकार हो
गया। राष्ट्रवादी नेता च्यांग काई-शेक अपने समर्थकों सहित अपने प्राण बचाकर
भाग गया। उसने फारमोसा के टापू में जाकर अपनी प्राण रक्षा की।। अक्टूबर सन् 1949 को पेकिंग में चीनी जनता
के गणराज्य की स्थापना की घोषणा की गई।
साम्यवादी चीन का उदय
साम्यवादी चीन का उदय वर्तमान शताब्दी
में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की महत्त्वपूर्ण घटना है। इसका महत्त्व बतलाते हुए माओ
(Mao) ने कहा था कि, "मनुष्य जाति का चतुर्थांश
चीन की जनता आज से उठ खड़ी हुई हैं। चीन के लम्बे तथा घटनापूर्ण इतिहास में, पहली बार एक ऐसी सरकार की
स्थापना हुई है,
जिसके आदेश का
समूचे देश में सम्मान किया जाता है। इसलिये शक्तिशाली, एकताबद्ध तथा दृढ़ निश्चय
सम्पन्न नये चीन का उदय संसार के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। फ्रीडमेन
(Friedman) ने कहा था
"साम्यवादी नेतृत्व में एक एकीकृत राष्ट्रीय शक्ति के रूप में चीन का उदय
अर्वाचीन वर्षों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है। नेपोलियन ने अपने
जीवनकाल में ही चीन के बारे में यह भविष्यवाणी की थी "वहाँ एक दैत्य सो रहा
है। उसे सोने दो,
क्योंकि जब वह
जागेगा तो सारी दुनिया को हिला डालेगा।" विश्व राजनीति दृष्टि से यह बात
बिल्कुल सत्य प्रतीत होती है।
चीन के उदय का विश्व राजनीति पर प्रभाव
1. विश्व के लिये चुनौती-
साम्यवादी
क्रान्ति के पूर्व चीन को
पाँच महान् शक्तियों में से एक माना जाता है, जबकि वास्तव में चीन एक महान् शक्ति नहीं था। साम्यवादी
नेतृत्व में एक सुसंगठित चीन का उदय अब हो रहा है। आज के विश्व में सही अर्थों में
चीन एक महान् शक्ति बन गया है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र की घटना उससे प्रभावित
होती है। विश्व के द्वारा किसी भी रूप में उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। अमेरिका
जो चीन का कट्टर विरोधी व शत्रु था, अब चीन से मित्रता का हाथ बढ़ा रहा है। फरवरी, 1972 ई. में अमेरिका राष्ट्रपति
निक्सन की चीन यात्रा तथा चीनी नेताओं से विचार-विमर्श इस दिशा में पहला कदम
है। आज विश्व में चीन ने उथल-पुथल मचा दी है। अमेरिका तथा रूस दोनों के लिये चीन
एक गम्भीर चुनौती के रूप में है। साम्यवादी गुट में भी चीन रूस का प्रतिद्वन्द्वी
रहा है।
2. एक नया शक्ति
सन्तुलन-
साम्यवादी चीन की स्थापना के बाद
साम्यवादियों तथा पाश्चात्य शक्तियों के मध्य एक नया शक्ति सन्तुलन स्थापित हो गया
है। द्वितीय महायुद्ध के पूर्व रूस ही एक महान् शक्तिशाली देश था। युद्ध के
बाद पूर्वी यूरोप के अन्य देशों में साम्यवादी शासन की स्थापना हुई, फिर भी पश्चिमी गुट
साम्यवादी गुट से बहुत शक्तिशाली था। परन्तु साम्यवादी चीन जैसे महान् राष्ट्र के
उदय से, शक्ति सम्बन्धों में बड़ा
परिवर्तन हो गया है। अब साम्यवादी गुट, पश्चिमी गुट के बराबरी के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में
विद्यमान है। चीन को महान् शक्ति स्वीकार करके तथा रूस के साथ उसके मतभेद के कारण
अमेरिका चीन के साथ समझौता करना चाहता है। फरवरी, 1972 अमेरीकी राष्ट्रपति
निक्सन चीन की यात्रा पर गए तथा चीनी नेताओं से विचार-विमर्श किया। अमेरिका का यह
प्रयल है कि चीन के साथ उसके कुछ सम्बन्ध मृदुल हो जायें।
3. अमेरिका द्वारा साम्यवाद के
प्रसार को रोकना-
चीन से साम्यवाद
की विजय पश्चिमी देशों में विशेषकर अमेरिका की कूटनीति की महान् असफलता रही है।
जापान की पराजय के पश्चात् अमेरिका ने चीन की राष्ट्रवादी सरकार को पर्याप्त
सहायता दी, जिससे एशिया में उसका
पक्ष प्रबल रहे,
फिर भी
राष्ट्रवादियों की पराजय हुई। इससे अमेरिका की प्रतिष्ठा को बहुत आघात पहुँचा। चीन
की राष्ट्रवादी सरकार ने भागकर फारमोसा द्वीप में शरण ली जिसे अमेरिका की
संरक्षणता प्राप्त है। इतने महान् राष्ट्र चीन के उदय से पाश्चात्य देशों की
स्थिति तथा नीति में महान् परिवर्तन हुआ। अमेरिका के सामने एक गम्भीर दायित्व आ
गया कि साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव को कैसे रोके। इस सम्बन्ध में अमेरिका को
निम्नलिखित कदम उठाने पड़े-
(1) अमेरिका ने फारमोसा में
च्यांग की राष्ट्रवादी सरकार की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले लिया।
(2) अमेरिका ने यूरोप के
अतिरिक्त एशिया में भी साम्यवाद को रोकने के लिये प्रभावशाली कदम उठाये। उसने गैर
साम्यवादी राष्ट्रों को अधिक से अधिक आर्थिक व सैनिक सहायता देना प्रारम्भ किया।
(3) साम्यवाद विरोधी
प्रादेशिक संगठनों की स्थायता की गई। दक्षिणी पूर्वी एशिया में सीटो (Seato) तथा पश्चिम में (Cento) की स्थापना हुई।
(4) अमेरिका ने अपने सैनिक
साधनों से प्रत्यक्ष रूप से भी साम्यवादी प्रसार का विरोध किया। कोरिया तथा
वियतनाम में अमेरिका के प्रत्यक्ष सैनिक हस्तक्षेप के द्वारा इस नीति का अनुसरण
हुआ। साम्यवाद के भय के आधार पर ही एशिया के अनेक राष्ट्र अमेरिकी सैनिक सहायता
तथा सैनिक संगठनों से सम्बद्ध हैं।
(5) अमेरिका ने एशिया के गैर
साम्यवादी, अल्पविकसित तथा पिछड़े
राष्ट्रों को आर्थिक उत्पादन के द्वारा ही साम्यवाद के प्रसार को रोका जा सकता है।
अत: आर्थिक प्रगति द्वारा ही लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत हो सकती हैं।
(6) साम्यवादी चीन के प्रश्न
पर अमेरिका से उसके पश्चिमी सहयोगियों के साथ भी मतभेद उत्पन्न हो गये हैं।
अमेरिका के सहयोगी ब्रिटेन तथा फ्रांस ने व्यापारिक लाभों के कारण चीन से सम्बन्ध
स्थापित कर लिये।
(7) साम्यवादी गुट अधिक
शक्तिशाली हो गया तथा विश्व में शक्ति सन्तुलन (Balance of power) स्थापित कर सका।
4. साम्यवादी जगत के
लिये एक समस्या-
प्रारम्भिक काल
में चीन रूस के नेतृत्व में कार्य करता रहा तथा धीरे-धीरे अपनी शक्ति अर्जित करता
रहा। पहले रूस ही साम्यवादी जगत का एक मात्र नेता था। अब चीन शक्तिशाली हो गया, उसने रूस के नेतृत्व को
चुनौती दे दी। अब रूस तथा चीन के बीच का संघर्ष साम्यवादी जगत के लिये एक गम्भीर
समस्या बन गई।
5. एशिया पर क्रान्तिकारी
प्रभाव-
चीन के उदय का
सम्पूर्ण एशिया पर क्रान्तिकारी प्रभाव पड़ा। एशिया तथा अफ्रीका में राष्ट्रवादी
शक्तियों को विशेष रूप से प्रोत्साहन मिला है। साथ ही साथ आर्थिक तथा औद्योगिक
दृष्टि से पिछड़े राष्ट्रों को अपने विकास के लिये, साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा एक निश्चित मार्ग दिखाई
देने लगा है।
6. पूर्वी तथा
दक्षिणी-पूर्वी एशिया की राजनीति पर प्रभाव-
चीन का पूर्वी
तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया की राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इस क्षेत्र में जो
भी समस्याएँ हैं,
चीन इनसे
सम्बन्धित है। यह क्षेत्र विश्व राजनीति का अखाड़ा बना हुआ है। पश्चिमी राष्ट्र
विशेषकर अमेरिका तथा चीन दोनों ही अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने में तल्लीन हैं।
7. चीन द्वारा अनेक
गम्भीर समस्याओं का उदय-
चीन के द्वारा
प्रसारवादी नीति अपनाये जाने के कारण एशिया में अनेक गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हो
गई हैं। चीन के सभी सीमावर्ती राष्ट्रों से सीमा विवाद उत्पन्न हो गये हैं। वास्तव
में चीन एशिया में अपने प्रभाव को बढ़ाना चाहता है। इसमें उसे काफी सफलता भी मिली
है। एशिया के गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों को चीन अपनी ओर करना चाहता है। पामर
तथा पार्किन्स (Palmer and Parkins) का विचार है कि, "भावी अन्तर्राष्ट्रीय
सम्बन्धों में चीन एक महत्त्वपूर्ण तथा प्रभावशाली भूमिका अदा करेगा और यदि उसकी
वर्तमान नीतियाँ जारी रहती हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर वह गड़बड़ी पैदा करने
वाला तत्त्व सिद्ध होगा।"
आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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