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राष्ट्रसंघ के उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ

बीसवीं सदी का विश्व

राष्ट्र संघ का अभ्युदय

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन की प्रेरणा से 10 जनवरी, 1920 को राष्ट्र-संघ का आविर्भाव हुआ। इसका प्रधान कार्यालय स्विट्जरलैण्ड की राजधानी जिनेवा में रखा गया। इसका मुख्य उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग से शान्ति और सुरक्षा को बनाये रखना तथा यूरोप में सैनिकवाद और साम्राज्यवाद की भावनाओं को कम करते हुए नि:शस्त्रीकरण पर बल देना था।

राष्ट्र संघ की सदस्यता

प्रारम्भ में 31 राष्ट्रसंघ के सदस्य बने। सन् 1931 ई. में इसकी सदस्य संख्या 55 हो गई। सन् 1926 ई. में सदस्य बने जर्मनी ने 1933 में इसकी सदस्यता त्याग दी। 1933 व 1937 में जापान व इटली राष्ट्र संघ से अलग हो गये। सन् 1939 ई. में रूस भी इसकी सदस्यता से अलग हो गया।

राष्ट्र संघ के उद्देश्य

राष्ट्र संघ का समझौता संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर से बहुत छोटा, केवल चार हजार शब्दों का था। इसमें एक भूमिका तथा एक से दस पैराग्राफों वाली 26 धाराएँ थीं। राष्ट्रसंघ के प्रतिश्रव की प्रस्तावना में राष्ट्रसंघ के उद्देश्यों की व्याख्या भी सम्मिलित है। इसके अनुसार मुख्य उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की वृद्धि तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा को प्राप्त करना था। परन्तु इसकी पूर्ति तभी सम्भव थी जबकि सभी राष्ट्र यह मान लें कि वे युद्ध को हमेशा के लिए तिरस्कृत कर देंगे। उनके मध्य स्पष्ट, उचित एवं प्रतिष्ठापूर्ण सम्बन्ध बने रहेंगे।सभी सरकारें अपने वास्तविक आचरण में अन्तर्राष्ट्रीय कानून एवं न्याय का पालन करेगी और सभी संगठित राष्ट्र एक-दूसरे के साथ अपने व्यवहार सन्धि की शर्तों का विवेकपूर्ण पालन करेंगे।

संविदा में उल्लिखित उपर्युक्त भूमिका से स्पष्ट है कि राष्ट्रसंघ के प्रमुख उद्देश्य तीन थे-

1. अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की स्थापना करना, अर्थात् न्याय और सम्मान के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना करके भावी युद्धों को टालना।

2. संसार में राष्ट्रों के बीच भौतिक तथा मानसिक सहयोग को प्रोत्साहन देना ताकि मानव-जीवन सुखी और आनन्दमय बन जाए।

3. पेरिस संधि को अमल में लाना अथवा दूसरे शब्दों में पेरिस शांति सम्मेलन द्वारा स्थापित व्यवस्था को बनाए रखना।

संविदा की प्रथम सात धाराओं में संघ की सदस्यता के नियमों और संघ की विभिन्न अंगों का वर्णन किया गया था। इसकी 8वीं और 9वीं धारा नि:शस्त्रीकरण से सम्बन्धित थी। 10वीं से 17वीं धारा तक विभिन्न झगड़ों के शान्तिपूर्ण निर्णय, आक्रमणों को रोकने और सामूहिक सुरक्षा बनाए रखने के उपायों का प्रतिपादन किया गया था। इन धाराओं के अन्तर्गत राष्ट्र-संघ को यह अधिकार दिया गया था कि वह शान्ति और सुरक्षा के लिए कोई भी उचित कदम उठाये, सदस्य देशों की जाँच करे और पारस्परिक युद्ध करने की सम्भावना का निराकरण करे किन्तु संविदा की धाराओं की अवहेलना करके युद्ध की घोषणा करने वाले सदस्य देश को अन्य सभी सदस्य देशों के विरुद्ध युद्ध के लिए अपराधी माने।

संविदा द्वारा युद्ध पूर्ण रूप से वर्जित ने थे। अन्तर्राष्ट्रीय युद्ध भी वैध माना जा सकता था जबकि उन देशों का विवाद पहले राष्ट्र संघ के समक्ष मध्यस्थता के लिए प्रस्तुत कर दिया गया हो और राष्ट्र संघ उसे सर्वसम्मत ढंग से सुलझाने में असमर्थ रहा हो। संविदा की अवहेलना करके युद्ध छेड़ देने वाले राष्ट्र के लिए धारा 16 में यह स्पष्ट व्यवस्था थी कि राष्ट संध अन्य सदस्य-राष्ट्रों को आक्रान्ता देश के साथ सभी प्रकार के आर्थिक और वैयक्तिक सम्बन्ध तोड़ने के लिए बाध्य कर सकता था। ऐसी स्थिति में यह भी व्यवस्था थी कि परिषद् संघ के सदस्यों से यह सिफारिश करे कि वे संविदा की व्यवस्था बनाए रखने हेतु प्रभावकारी सैनिक, नौ सैनिक और वायु सैनिक शक्ति का प्रयोग करें।

संविदा की धारा 18 से 21 तक की धाराओं में संधियों का पंजीकरण, प्रकाशन, संशोधन और वैधता का उल्लेख था। वास्तव में संविदा युद्ध बन्द करने के निषेधात्मक प्रयत्नों के साथ-साथ युद्धोत्पादक कारकों को भी दूर करने के प्रति सजीव थी। गुप्त संधि प्रथा को अमान्य करार दे दिया गया और सदस्य देशों से एक ऐसे प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर कराए गए थे जिसके अधीन उन्होंने न केवल उन पुरानी संधियों को रद्द मान लिया था जो संविदा की मूल नीति से टकराती थी, बल्कि भविष्य में संविदा के सिद्धान्तों के अनुकूल ही नई संधियाँ करने का वचन दे दिया गया था।

संविदा में उन संधियों पर पुनर्विचार करने की व्यवस्था थी जो अव्यवहार्य हो चुकी थी और जिनके चालू रहने से संसार की शांति को खतरा था। शस्त्रों की होड़ को घटाने के लिए संविदा द्वारा सदस्य देशों को प्रेरित किया गया था कि "वे केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के निमित्त ही शस्त्राशस्त्र का निर्माण करें।" व्यक्तिगत उद्योगों द्वारा शस्त्राशस्त्रों के निर्माण का विरोध किया गया था। संविदा की धारा 21 में मुनरों सिद्धान्त की स्वीकृति और धारा 22 में संरक्षण-प्रथा या शासनादेश प्रथा का उल्लेख था। धारा 23 में संघ सदस्यों के द्वारा श्रमिक-कल्याण, बाल-कल्याण, रोगों पर नियंत्रण, नारी-व्यापार-निषेध आदि के सम्बन्ध में किए जाने वाले कार्यों पर बल दिया गया था। धारा 24 में विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सम्बन्धों का वर्णन किया गया था। धारा 25 रैडक्रास को प्रोत्साहन देती थी और अन्तिम धारा 26 में राष्ट्र संघ के समझौते में संशोधन करने की प्रक्रिया समाविष्ट थी।

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राष्ट्रसंघ के उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ


राष्ट्र-संघ की प्रमुख संस्थाएँ

राष्ट्र-संघ के कार्यों को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए निम्नलिखित अंगों की स्थापना हुई-

1. साधारण सभा- इसमें प्रत्येक सदस्य राष्ट्र के तीन प्रतिनिधि भाग लेते थे। लेकिन मताधिकार केवल एक को प्राप्त था।

2. परिषद्- इसका मुख्य कार्य उपस्थित होने वाले प्रश्नों पर शीघ्र निर्णय लेना था।

3. प्रधान सचिवालय- इसका मुख्यालय जिनेवा में था। इसका प्रधान महासचिव कहलाता

4. स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय- इसका मुख्यालय हालैण्ड के हेग नगर में था। इसमें 11 न्यायाधीश व 4 उपन्यायाधीश थे।

5. अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ- इसका प्रधान कार्यालय जेनेवा में था। इसका सदस्य कोई भी राष्ट्र बन सकता था। इसने श्रमिकों के कल्याण के लिए कई सराहनीय कार्य किये, जैसे कार्य घण्टे निश्चित करना, महिला मजदूरों के कल्याण एवं बाल श्रमिकों से सम्बन्धित नियम बनवाना, विविध राष्ट्रों से श्रम सम्बन्धित समझौतों का पालन करवाना तथा श्रमिक सम्बन्धी समस्याओं तथा कल्याण योजनाओं का प्रचार कराना।

प्रशासकीय कार्य

राष्ट्र संघ का प्रमुख कार्य जर्मनी के विभिन्न क्षेत्रों में फैले उपनिवेशों एवं तुर्की के उपनिवेशों की व्यवस्था करना था। स्वयं के बहुत कम साधन होने के कारण इन प्रदेशों को विभिन्न मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, बेल्जियम व आस्ट्रेलिया) के संरक्षण में रखा गया। इस प्रणाली को संरक्षण प्रणाली कहते हैं।

राष्ट्र संघ की उल्लेखनीय उपलब्धियाँ

1. प्रशासनिक व्यवस्था के सम्बन्ध में-

राष्ट्र संघ ने पेरिस शान्ति सम्मेलन के निर्णय के अनुसार सारधाटी तथा हेजिंग के स्वतन्त्र नगरों का प्रशासन कार्य कुशलतापूर्वक 15 वर्ष तक किया। मार्च 1935 को जनमत के आधार पर सारधाटी का प्रदेश जर्मनी को सौंप दिया, हेजिंग के बन्दरगाह की व्यवस्था हेतु 12 आयुक्तों को नियुक्त किया परन्तु वहाँ व्यवस्था सफल न हो सकी।

2. अल्पसंख्यकों की समस्या-

नवगठित राज्यों हंगरी, युगोस्लाविया, चैकोस्लोवाकिया, तुर्की एवं बल्गारिया में अल्पसंख्यक निवास कर रहे थे। राष्ट्र संघ ने अल्प-संख्यक वाले राष्ट्रों के साथ संधियाँ की जिनसे अल्पसंख्यकों के जीवन और स्वतन्त्रता की रक्षा, धार्मिक स्वतन्त्रता, नागरिक अधिकारों की प्राप्ति और अपनी भाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हुए। इसके लिए एक आयोग भी बनाया गया।

3. आर्थिक, सामाजिक और मानव कल्याण सम्बन्धी कार्य-

राष्ट्र संघ ने अनेक आर्थिक एवं वित्तीय समितियों की स्थापना की, अन्तर्राष्ट्रीय सहायता संघ का निर्माण किया गया तथा आस्ट्रिया, हंगरी, यूनान और बल्गारिया को पुनः निर्माण के लिये आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई। उसने शरणार्थियों को पुनः बसाने और उनकी सहायता के लिए सफल योजनाएँ बनाई। उसने प्रौढ़ शिक्षा, वैज्ञानिकों को सुविधाएँ उपलब्ध कराने, स्मारकों एवं प्राचीन कला कृतियों की सुरक्षा थियेटर, अजायबघर आदि को संरक्षण प्रदान किया। राष्ट्र संघ ने यातायात एवं परिवहन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये। पर्यटकों को पासपोर्ट बनाने की सुविधा उपलब्ध कराई।

स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में भी राष्ट्र संघ ने महत्त्वपूर्ण कार्य किये। उसने मलेरिया, चेचक, हैजा आदि रोगों के कारणों का पता लगाकर उनकी रोकथाम का प्रयास किया। विश्व युद्ध के दौरान बन्दी बनाये गये युद्ध बन्दियों में से लगभग 5 लाख बन्दियों को छुड़वाकर उन्हें अपने घर पहुँचाने की व्यवस्था की।

4. सामाजिक कुरीतियाँ दूर करना-

राष्ट्र संघ ने दास प्रथा, स्त्रियों के अनैतिक व्यापार, वेश्यावृत्ति, अश्लील प्रकाशनों को रोकने, मादक द्रव्यों पर नियन्त्रण इत्यादि पर नियम बनाये और उनकी रोकथाम का भरपूर प्रयास किया।

5. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा-

राष्ट्र संघ की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य, शान्ति व सहयोग को बढ़ाना तथा भविष्य में युद्धों को रोकना था। अपने 20 वर्षों के अल्पकालीन जीवन में उसे लगभग 40 विवादों को सुलझाने का श्रेय जाता है। वह 20 विवादों को सुलझाने में असफल रहा। फिर भी उसने अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना का प्रचार किया, राष्ट्र संघ ने अल्बानिया का सीमा विवाद, आलैण्ड विवाद, हंगरी-रूमानिया विवाद (1923-30), बल्गारिया यूनान विवाद (1925-26),लौटेशिया विवाद (1932-33) और मोसूल-विवाद (1924-25) को सुलझाने में पूर्ण सफलता प्राप्त की।

परन्तु वह बड़े राष्ट्रों के झगड़ों को सुलझाने में असफल रहा जिनमें प्रमुख रूप से कोफू विवाद (1923) जर्मनी के विरुद्ध असफलता, मंचूरिया संकट (1931-32) प्रमुख हैं। जापान के विरुद्ध राष्ट्र संघ की असफलता के कारण इथियोपिया का अन्त 1934-37 में हुआ, स्पेन का गृह युद्ध (1935-39) तथा रूस फिनिश युद्ध (1939-40) हुआ।

राष्ट्र संघ की असफलता के कारण

जिन आशाओं के साथ राष्ट्र संघ की स्थापना हुई थी, वह लोगों की दृष्टि में सफल नहीं रहा और न ही द्वितीय विश्वयुद्ध से विश्व को बचा सका। उसकी असफलता के लिए निम्नलिखित कारण जिम्मेवार हैं-

1. वर्साय संधि से उत्पत्ति-

राष्ट्र संघ का जन्म वर्साय संधि से हुआ। संधि की प्रथम 26 धाराओं में संघ के संविधान का उल्लेख किया गया था। यही बात उसके लिए एक अभिशाप बन गई। पराजित राष्ट्र उसे विजेताओं का संघ मानते थे तथा इसे उनकी स्वार्थ सिद्धि का तन्त्रा नोर्मनवेन्टविच ने भी इसलिए इसे "कुख्यात माता की कुप्रतिष्ठित पुत्री''की संज्ञा दी।

2. दुर्बल संविधान-

राष्ट्रसंघ के संविधान में भी कई दोष विद्यमान थे, जिसका लाभ बड़े राज्यों ने उठाया और यह अपने उद्देश्यों की पूर्ति में असफल रहा। इसमें कुछ प्रमुख दोष थे-

(1) सदस्य राष्ट्र संघ की सलाह व निर्णय को मानने को बाध्य नहीं थे।

(2) किसी भी राष्ट्र को अपराधी घोषित करने के लिए निर्णय सर्वसम्मिति से होना आवश्यक था जो व्यावहारिक नहीं था।

(3) किसी भी मामले में तुरन्त निर्णय लेना सम्भव नहीं होता था, क्योंकि उस पर लम्बी बहसें चलती थीं।

(4) विधान में रक्षात्मक युद्ध को वैध माना गया था, अत: आक्रामक एवं रक्षात्मक में भेद करना कठिन कार्य था।

3. संघ के प्रति विभिन्न राज्यों के विभिन्न दृष्टिकोण-

संघ का प्रत्येक सदस्य अपने हितों की पूर्ति के लिए हर मामले को अपनी-अपनी दृष्टि से देखते व सोचते थे। जैसे फ्रांस इससे जर्मनी से अपनी सुरक्षा का तन्त्र तथा सोवियत रूस के साम्यवादी विचारधारा के प्रचार को रोकने का साधन। इसी उद्देश्य से उसने जापान द्वारा मंचूरिया पर आक्रमण का खुलकर विरोध नहीं किया। इटली व जर्मनी की सहानुभूति भी राष्ट्रसंघ के साथ नहीं रही। वे इसे विजेताओं का संघ मात्र मानते थे और सदैव वर्साय संधि को तोड़ने में व्यस्त रहे। हिटलर इसे अपने महत्त्वाकांक्षा में बाधक मानता था। सोवियत रूस के नेता भी उसे "जन क्रान्ति को पढ़ाने के लिए बुर्जुआ वर्ग का अपवित्र संघ मानते थे।" उनकी दृष्टि में राष्ट्रसंघ "पिछली शताब्दी की सबसे निर्लज्ज वर्साय की संधि की उपज है।" सोवियत रूस सन् 1934 ई. में संघ का सदस्य हिटलर से भयभीत होकर बना लेकिन उस समय भी पश्चिमी शक्तियों ने उस पर विश्वास नहीं किया।

4. संयुक्त राज्य अमेरिका का सदस्य न होना-

राष्ट्र संघ के विचार का जन्मदाता अमेरिकी राष्ट्रपति विल्सन अपने देश की सीनेट के विरोध के कारण अमेरिका को इसका सदस्य नहीं बना सका जिससे उसकी नींव प्रारम्भ से ही कमजोर पड़ गयी। गेथोर्न हार्डी के शब्दों में "एक बालक यूरोप के दरवाजे पर अनाथों की भाँति छोड़ दिया गया था, जिसके चेहरे-मोहरे पर उसकी अमेरिकी पैतृकता स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही थी।" वस्तुत: आरम्भ से ही अमेरिका की अनुपस्थिति से उसे धक्का लगा।

5. अन्तर्राष्ट्रीय सेना का अभाव-

राष्ट्रसंघ के पास अपनी कोई भी स्वयं की सेना नहीं थी जो आक्रामक राज्यों के विरुद्ध कोई कार्यवाही करने के लिए भेजी जा सके। सदस्य राष्ट्रों को वह सेना भेजने के लिए बाध्य भी नहीं कर सकता था। इस प्रकार यह उसकी सबसे बड़ी निर्बलता सिद्ध हुई।

6. अधिनायकवाद का उदय-

राष्ट्रसंघ को सबसे बड़ा धक्का इटली के फासीवाद, जर्मनी के नाजीवाद व जापानी सैनिकवाद से लगा। हिटलर व मुसोलिनी लौह व रक्त की नीति" में विश्वास करते हुए अपने उद्देश्यों व महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर रहे थे। राष्ट्र संघ उनकी भावनाओं पर अंकुश लगाने में पूर्णरूपेण असफल रहा।

7. उग्र राष्ट्रीयता की भावना-

प्रथम विश्वयुद्ध का प्रथम कारण उग्र राष्ट्रीयता की भावना थी और इसकी समाप्ति के बाद भी कई राष्ट्रों में यह उग्र राष्ट्रीयता बनी रही, कोई इसका परित्याग नहीं कर सका। राष्ट्रीयता की यह उग्र भावना राष्ट्रसंघ के आधारभूत अन्तर्राष्ट्रीयता के सिद्धान्त के विरुद्ध थी।

8. निःशस्त्रीकरण में असफलता-

राष्ट्रसंघ के संविधान में प्रावधान होने के बावजूद भी वह निःशस्वीकरण नहीं करा सका। प्रत्येक राष्ट्र अपनी सुरक्षा की चिन्ता में ग्रस्त सैन्य व आधुनिकतम नये-नये शस्त्रों के निर्माण में व्यस्त रहे । राष्ट्रसंघ उस पर किसी प्रकार का अंकुश व प्रतिबन्ध लगाने में असफल रहा।

9. आर्थिक संकट-

सन् 1930 ई. में विश्व में आये भारी आर्थिक संकट ने राष्ट्रसंघ को भारी क्षति पहुँचाई। इस संकट ने सभी राष्ट्रों की आर्थिक स्थिति को शोचनीय बना दिया। इस वातावरण में आर्थिक राष्ट्रवाद प्रबल हुआ और इसी कारण जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फासीवाद तथा जापान में सैनिकवाद के जन्म व विकास की परिस्थितियाँ बनी और यूरोप का पुनः निशस्त्रीकरण होना प्रारम्भ हो गया। इसने राष्ट्रसंघ की नींव को कमजोर बनाया।

राष्ट्र संघ का मूल्यांकन

राष्ट्र संघ की सफलता का मूल्यांकन करते हुए कई विद्वान् उस पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। लेकिन यदि राष्ट्र संघ की विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धियों का विश्लेषण किया जावे तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कम से कम लगभग 20 वर्ष तक तो यूरोप की महायुद्ध से रक्षा करने में सफल रहा था। यदि वह असफल रहा था तो इसका दोष उसके सदस्यों की निष्ठाहीनता को दिया जा सकता है, जो हर अन्तर्राष्ट्रीय समस्या को अपने हितों व स्वार्थों से देखते हुए उसका हल निकालने का प्रयास करते थे। इस कारण आपसी टकराव रहा और उचित निर्णय नहीं लिये गये। किन्तु फिर भी उसमें कोई सन्देह नहीं कि गैर राजनीतिक कार्यों में संघ को सफलता मिली, अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों ने जो कुछ किया यदि उससे तुलना की जावे तो संघ का कार्य, यहाँ तक कि सुरक्षा के सम्बन्ध में भी उच्च स्तर का तथा अन्य सभी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में उच्च था।

श्लीचर ने भी राष्ट्रसंघ का मूल्यांकन करते हुए अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है "राष्ट्र संघ की सफलता या विफलता उस कसौटी पर निर्भर है जिस पर इसे कसा जाता है। यदि यह कसौटी उन आदर्शवादियों की हो जो इस संस्था द्वारा युद्धों का पूर्ण विरोध करना चाहते थे, तो राष्ट्र संघ अवश्य ही असफल हुआ। यदि यह कसौटी संघ के वास्तविक कार्यों, उसकी मर्यादाओं और मानव जाति पर उसके प्रभाव पर हो तो यह मानना पड़ेगा कि राजनीतिक क्षेत्र में विफल होने पर भी वह आर्थिक, सामाजिक और मानवीय क्षेत्रों में बहुत सफल हुआ।"

विश्वयुद्धों के पश्चात् राष्ट्रसंघ के महत्त्व को समझते हुए उसके अनुभवों का लाभ उठाते हुए ही विश्व की महाशक्तियों ने संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना का निर्णय लिया था। इस सम्बन्ध में वाल्टर ने ठीक ही लिखा है, "संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों, सिद्धान्तों, संस्थाओं और पद्धतियों पर तथा इसकी प्रत्येक बात पर राष्ट्र संघ की स्पष्ट छाप है। दरअसल 18 अप्रैल, 1946 को राष्ट्रसंघ का अत्येष्टि संस्कार नहीं हुआ बल्कि उसने संयुक्त राष्ट्र के रूप में पुनर्जन्म प्राप्त किया।"

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