शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया हैं। व्यक्ति औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों से जीवन भर शिक्षा प्राप्त करता रहता है। वह अपने दैनिक जीवन में अपने वातावरण एवं परिवेश के साथ अन्त: क्रिया करते हुएँ अनेक अनुभव प्राप्त करता है। इन अनुभवों से जो ज्ञान उसे प्राप्त होता है वही व्यापक अर्थ में शिक्षा है। विद्यालय जीवन में प्राप्त शिक्षा भी इस व्यापक शिक्षा का एक अंग है। शिक्षा ऐसी प्रक्रिया है जो जन्म काल तथा प्रकृति प्रदत्त शक्तियों का विकास करती है। शिक्षा व्यक्ति को सभ्य एवं सुसंस्कृत नागरिक बनाती है। शिक्षा के इतने महत्वपूर्ण योगदान के कारण आज समाज में शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
शिक्षा मानव विकास का मूल साधन
हैं। इससे मानव की जन्मजात शक्तियों का विकास होता है। ज्ञान कला और कौशल में
वृद्धि होती है। इतना ही नहीं मनुष्य के व्यवहार में भी परिवर्तन आता है। शिक्षा
क्या है ? विद्या क्या है ? इस पर वेदों पुराणों
उपनिषदों में कुछ लिखा हुआ मिलता है। आदिम युग के बाद जब भी मानव ने शिक्षा के
अर्थ को समझा होगा और अपने को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया होगा तभी से शिक्षा का
अर्थ ज्ञात हुआ होगा। वेदों में शिक्षा को एक अंग के रूप में स्वीकार किया गया है।
शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा के शिक्ष् धातु से बना है जिसका अर्थ है। ज्ञानोपार्जन
अथवा सीखना है। मानव अपने अनुभव से हमेशा ही कुछ न कुछ सीखता रहा है पाषाण युग से
मशीन युग तक शिक्षा के उद्देश्य, कार्य, तत्व, क्षेंत्र परिवर्तित होते
रहें हैं।
शिक्षा विकास का
मूल साधन है। शिक्षा के जरिए मनुष्य के ज्ञान एवं कला कौशल में वृद्धि करके उसके
अनुवांशिक गुणों को निखारा जा सकता है और उसके व्यवहार को परिमार्जित किया जा सकता
है। शिक्षा व्यक्ति की बुद्धि, बल और विवेक को उत्कृष्ट बनाती है। शिक्षा के
अभाव में व्यक्ति का जीवन पशु के समान प्रतीत होता है इसी कारण भारत में शिक्षा के
लोकव्यापीकरण का लक्ष्य रखा है।
शिक्षा का अर्थ
आधुनिक संदर्भ
में शिक्षा शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द Educatum से हुई है। जिसका अंग्रेजी अनुवाद Education है। Education का अर्थ शिक्षण की कला।
इसी का समानार्थी शब्द Educare है To bring up उठाना To bring forth सामने लाना To lead out नेतृत्व देना इत्यादि सभी
अर्थ शिक्षा की क्रिया या प्रतिक्रिया का संकुचित या व्यापक आधार प्रस्तुत करते
है।
दूसरे अर्थो में Eductaion दो शब्दों से मिलकर बना
है। E+Duco E का अर्थ आन्तरिक Duco का अर्थ बाहर की आरै ले
जाना। अन्त: शक्तियों क्षमताओं का बाहर की ओर विकास करना शिक्षा जीवन भर चलती रहती
है। यह एक स्वाभाविक सामाजिक, दार्शनिक, राजनैतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक तथा
मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो निरन्तर ज्ञान कौशल में वृद्धि के साथ व्यवहार में
परिवर्तन करती रहती है।
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शिक्षा का अर्थ, परिभाषा एवं सम्प्रत्यय |
शिक्षा के व्यापक
अर्थ के अनुसार शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में
व्यक्ति जीवन से लेकर मत्यु तक के बीच की जीवन यात्रा में जो कुछ सीखता है तथा
अनुभव करता है। वह सब व्यापक अर्थ में शिक्षा हैं। जे. एस. मेकेन्जी ने
शिक्षा का व्यापक अर्थ बताते हुए कहा है कि ‘‘व्यापक अर्थ में शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो जीवन भर
चलती रहती है तथा जीवन के प्रत्येक अनुभव से उसके भंडार मे वृद्धि होती है। शिक्षा
को जीवन का साध्य भी कहा जा सकता है।
शिक्षा के लिये
प्रयुक्त अँग्रेजी शब्द एजुकेशन (Education) पर विचार करें तो भी उसका यही अर्थ निकलता है। ‘‘एजूकेशन’’ शब्द की उत्पत्ति लेटिन
भाषा के तीन शब्दों से मानी गयी है।
एजुकेटम- इसका अर्थ है- शिक्षण की
क्रिया
एजुकेयर- शिक्षा देना- ऊपर उठाना, उठाना
एजुसियर- आगे बढ़ना।
सरल शब्दों में
कहा जा सकता है कि शिक्षा का अर्थ है- प्रशिक्षण, संवर्द्धन और पथ-प्रदर्शन
करने का कार्य। इस प्रकार एजुकेशन का सर्वमान्य अर्थ हुआ बालक की जन्मजात शक्तियों या गुणों
को विकसित करके उसका सर्वांगीण विकास करना। इस शिक्षा प्रक्रिया के स्वरूप की
व्याख्या करने में मूल भूमिका दार्शनिक, समाजशास्त्रियों, राजनीतिशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों और वैज्ञानिकों ने अदा की है। सभी ने
शिक्षा को अपने-अपने दृष्टिकोणों से देखा-परखा और परिभाषित किया है।
शिक्षा की परिभाषा
जैन दर्शन के
अनुसार:- ‘‘शिक्षा वह है जो मोक्ष की
प्राप्ति कराए।’’
बौद्ध दर्शन के
अनुसार:- ‘‘शिक्षा वह है जो निर्वाण
दिलाए।”
स्वामी
विवेकानन्द के अनुसार:- ’’मनुष्य की आत्मा
में ज्ञान का अक्षय भंडार है। उसका उदघाटन करना ही शिक्षा है।’’
टेगोर के
अनुसार:- ‘‘उच्चतम शिक्षा वह है, जो हमे केवल सूचना ही
नहीं देती वरन् हमारे जीवन के समस्त पहलुओं को सम तथा सुडोल बनाती है।’’
महात्मा गॉधी के
अनुसार:- ’’शिक्षा से मेरा अभिप्राय
बालक एवं मनुष्य के शरीर मस्तिष्क एवं आत्मा के सर्वोतम अंश की अभिव्यक्ति है।’’
रूसों के
अनुसार:- ‘‘जीवन ही शिक्षा है।’’
फ्राबेल के
अनुसार:- ’’शिक्षा एक प्रक्रिया है, जो की बालक की अन्त:
शक्तियों को बाहर प्रकट करती है।’’
महात्मॉ गाँधी के
अनुसार:- ’’शिक्षा का अभिप्राय बालक
एवं मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा में
निहित सर्वोतम शक्तियों के सर्वागीण प्रकटीकरण से है।’’
टी. पी. नन के
अनुसार:- ‘‘शिक्षा बालक के
व्यक्तित्व का पूर्ण विकास है जिसके द्वारा वह यथा शक्ति मानव जीवन को मौलिक
योगदान कर सकें।’’
पेस्तालॉजी के
अनुसार:- ‘‘शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक
शक्तियों का स्वभाविक सर्वागपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।’’
ब्राउन के
अनुसार:- ‘‘शिक्षा चैतन्य रूप में एक
अनियन्त्रित प्रक्रिया है, जिसके द्वारा
व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाये जाते है।’’
प्रो. हार्नी के
अनुसार:- ’’शिक्षा शारीरिक एवं
मानसिक रूप से विकसित सचेतन मानव का अपने बौद्धिक, उद्वेगात्मक तथा इच्छात्मक वातावरण से सर्वोतम अनुकूलन हैं।’’
अरस्तू के
अनुसार:- ‘‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ
मस्तिष्क का निमार्ण करना ही शिक्षा है।’’
हरबर्ट स्पेन्सर
के अनुसार:- ‘‘अच्छे नैतिक चरित्र का
विकास ही शिक्षा है।’’
जेम्स के
अनुसार:- ‘‘शिक्षा कार्य सम्बधी
अर्जित आदतों का सगंठन है, जो व्यक्ति को
उसके भौतिक और सामाजिक वातावरण में उचित स्थान देती है।’’
ट्रो के अनुसार:- ‘‘शिक्षा नियन्त्रित
वातावरण में मानव विकास की प्रक्रिया है।’’
सुकरात के
अनुसार:- ’’शिक्षा का अर्थ है-
प्रत्यके मनुष्य के मस्तिष्क में अदृश्य रूप में विद्यमान संसार के सर्वमान्य
विचारों को प्रकाण में लाना।’’
एडीसन के
अनुसार:- ’’अब शिक्षा मानव मस्तिष्क
को प्रभावित करती है तब वह उसके प्रत्येक गुण को पूर्णता को लाकर व्यक्त करती है।’’
युनीवर्सल
डिक्शनरी ऑफ इंग्लिश लैग्वेज:- ‘‘पालना, प्रशिक्षण देना विषय
विकास मस्तिष्क का प्रशिक्षण चरित्र तथा शक्तिया ही शिक्षा है। विशेष अथोर्ं में
छोटे बच्चों को प्रचलित निर्देश देना ही शिक्षा है। किसी राज्य में प्रचलित
निर्देश प्रणाली शिक्षा कहलाती है।’’
शिक्षा का व्यापक एवं संकुचित अर्थ
किसी समाज में
किसी बच्चे की शिक्षा उसके परिवार, छोटे बड़े विभिन्न सामाजिक समूहों, सामुदायिक केन्द्रों और
विभिन्न प्रकार के विद्यालयों में चलने वाली शिक्षा को ही शिक्षा कहते हैं। इस
प्रकार शिक्षा शब्द का प्रयोग दो रूपो में होता है- एक व्यापक रूप में और दूसरा
संकुचित रूप में।
शिक्षा व्यापक अर्थ में-
शिक्षा अपने व्यापक अर्थ में
आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति अपने जन्म से मश्त्यु तक
जो कुछ सीखता और अनुभव करता है वह सब शिक्षा के व्यापक अर्थ के अन्तर्गत माना जाता
है। शिक्षाशास्त्री जब शिक्षा की बात करते हैं तो वे शिक्षा के इसी रूप को अपनी
विचार सीमा में रखते हैं। इस सम्बंध में हम विद्वानों के विचारों को नीचे अंकित कर
रहे हैं। यथा- लाज- ‘‘बच्चा अपने
माता-पिता को और छात्र अपने शिक्षको को शिक्षिता करता है। प्रत्येक बात, हम जो कहते, सोचते या करते हैं हमें
किसी प्रकार भी दूसरे व्यक्तियों के द्वारा कहीं, सोची या की गयी बात से कम शिक्षित नहीं करती है। इस व्यापक
अर्थ में जीवन शिक्षा है और शिक्षा जीवन है।’’
टी0 रेमेमण्ट- ‘‘शिक्षा विकास का वह क्रम
है, जिससे व्यक्ति अपने को
धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार से अपने भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है। जीवन
ही वास्तव में शिक्षित करता है। व्यक्ति अपने व्यवसाय, पारिवारिक जीवन, मित्रता, विवाह, पितृत्व, मनोरंजन, यात्रा आदि के द्वारा
शिक्षित किया जाता है।’’
शिक्षा संकुचित अर्थ में-
शिक्षा के सीमित अर्थ के अनुसार
बालक को स्कलू में दी जाने वाली शिक्षा से है। दूसरे शब्दों में बालक को एक
निश्चित योजना के अनुसार, एक निश्चित समय
और निश्चित विधियों से निश्चित प्रकार का ज्ञान दिया जाता है। यह शिक्षा कुछ विशेष
प्रभावों और विशेष विषयों तक ही सीमित रहती है। बालक इस शिक्षा को कुछ ही वर्षों
तक प्राप्त कर सकता है इसको प्राप्त करने का मुख्य स्थान विद्यालय होता है। शिक्षा
देने वाला शिक्षक कहलाता है।
टी0 रेमण्ट- ‘‘संकुचित अर्थ में शिक्षा
का प्रयोग बोलचाल की भाषा और कानून में किया जाता है। इस अर्थ में शिक्षा व्यक्ति, आत्म-विकास और वातावरण के
सामान्य प्रभावों को अपने में कोई स्थान नहीं है। इसके विपरीत यह केवल उन विशेष
प्रभावों को अपने में स्थान देती है, समाज के अधिक आयु के व्यक्ति जानबूझकर और नियोजित रूप में
अपने से छोटों पर डालते हैं भले ही ये प्रभाव परिवार, धर्म या राज्य द्वारा
डाले जाये।’’
शिक्षा का
सम्प्रत्यय
शिक्षा का दार्शनिक सम्प्रत्यय
दर्शन का विचार केन्द्र मनुष्य
होता है। मानव जीवन के अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति का साधन मार्ग निश्चित करने
में दार्शनिकों की रूचि होती है। मानव जीवन के अन्तिम उद्देश्य के सम्बंध में
दार्शनिकों के भिन्न मत हैं, अत: इसका प्रभाव
उनके द्वारा दी गयी परिभाषाओं में स्पष्ट झलकता है।
जगतगुरू
शंकराचार्य की दृष्टि में- स: विद्या या विमुक्तये।
भारतीय मनीणी
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार- शिक्षा के द्वारा मनुष्य को अपने पूर्णता को भी अनुभूति
होनी चाहिए। उनके शब्दों में- ‘‘ मनुष्य की
अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।’’
युगपुरूष महात्मा
गॉधी के शब्दों में- ‘‘ शिक्षा से मेरा
अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के
सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।’’
यूनानी दार्शनिक
प्लेटो- शिक्षा के
द्वारा शरीर और आत्मा दोनों क विकाश के महत्व को स्वीकार करते है। उनके अनुसार - ‘‘ शिक्षा का कार्य मनुष्य
के शरीर और आत्मा को वह पूर्णता प्रदान करना है, जिसके कि वे योग्य हैं।’’
अरस्तू के अनुसार- ‘‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ
मन का निर्माण ही शिक्षा है।’’
भौतिकवादी
चार्वाकों की दृष्टि में- ’’शिक्षा वह है जो
मनुष्य को सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के योग्य बनाती है।’’
हरबर्ट स्पेन्सर
के अनुसार- ’’शिक्षा का अर्थ अन्त:
शक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है।’’
शिक्षा का समाजशास्त्रीय सम्प्रत्यय
समाज शास्त्रियों
का विचार केन्द्र समाज होता है और वे शिक्षा को व्यक्ति एवं समाज के विकास का साधन
मानते हैं। उन्होनें शिक्षा प्रक्रिया की प्रकृति के विषय में तथ्य उजागर किये-
1. शिक्षा एक समाजिक प्रक्रिया है- समाजशास्त्रियों के अनुसार जब दो या दो से अधिक
व्यक्तियों के बीच सामाजिक अन्त: क्रिया होती है तो वे एक दूसरे की भाषा, विचार, आचरण से प्रभावित होते
हैं, यही सीखना है और जब कुछ
कार्य निश्चित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है तो वह शिक्षा कहलाती है।
समाजशास्त्रियों ने स्पष्ट किया कि शिक्षा समाज के उद्देश्यों एंव लक्ष्यों को
प्राप्ति का साधन है जैसा समाज होता है वैसी उसकी शिक्षा होती है।
2. शिक्षा एक अनवरत प्रक्रिया है- समाजशास्त्रियों का दसू रा तथ्य यह है कि शिक्षा समाज में
सदैव चलती है। जन्म से प्रारम्भ होकर अन्त तक चलती रहती है। शिक्षा पीढ़ी दर पीढ़ी
चलती है। निरन्तरता उसका दूसरा लक्षण है। जे0एस0 मेकजी के अनुसार- ‘‘शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया
है, जो आजीवन चलती रहती है, और जीवन के प्राय:
प्रत्येक अनुभव से उसके भण्डार में वृद्धि होती है।’’ प्रो0 डमविल के अनुसार- ‘‘शिक्षा के व्यापक अर्थ
में वे सभी प्रभाव आते हैं जो व्यक्ति को जन्म से लेकर मश्त्यु तक प्रभावित करते
हैं।’’
3. शिक्षा एक द्वि-ध्रुवीय प्रक्रिया है- समाजशास्त्रियों ने
स्पष्ट किया है कि शिक्षा की प्रक्रिया में एक पक्ष प्रभावित करता है और दूसरा
पक्ष प्रभावित होता है। शिक्षा के दो ध्रुव होते हैं- एक वह जो प्रभावित करता है
(शिक्षक) और दूसरा वह जो प्रभावित होता है (शिक्षार्थी)। जान डी0वी0 ने शिक्षा के दो धु्रव
माने है- एक मनोवैज्ञानिक और दूसरा सामाजिक। मनोवैज्ञानिक अंग से उनका तात्पर्य
सीखने वाले की रूचि, रूझान और शक्ति
से है और सामाजिक अंग से उनका तात्पर्य उनके सामाजिक पर्यावरण से है।
4. शिक्षा विकास की प्रक्रिया है- मनुष्य की शिक्षा उसे केवल परिस्थितियों के साथ सामन्जस्य
करना ही नही सिखाती है वरन् उसे सामाजिक परिवर्तन करने और परिवर्तनों को स्वीकारने
के लिये तैयार करती है। इस प्रकार शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यचर्चा और शिक्षण
विधियों आदि में आवश्यकतानुसार परिवर्तन होता रहता है। डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने स्पष्ट कहा है कि- ‘‘शिक्षा को मनुष्य और समाज
देानेां का निर्माण करना चाहिये।’’
5. शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है- शिक्षा वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी सभ्यता एवं
संस्कृति में निरन्तर विकास करता है। इस विकास के लिये उसकी एक पीढ़ी अपने ज्ञान, कला, कौशल को दूसरी पीढ़ी को
हस्तान्तरित करती है। इस हस्तान्तरण को प्रत्येक समाज विद्यालयी शिक्षा में समाहित
करता है। अगर शिक्षा गतिशील न होती तो हम विकास न कर पाते। पाश्चात्य जगत के
प्रसिद्ध समाजशास्त्री ओटवे महोदय ने शिक्षा के स्वरूप एवं कार्य दोनों को
समाहित करते हुये स्पष्ट कहा है कि- ‘‘शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया व्यष्टियों एवं सामाजिक
समूहों के बीच की अन्त:क्रिया है जो व्यष्टियों के विकास के लिये कुछ निश्चित
उद्देश्यों से की जाती है।’’
टी0 रेमण्ट महोदय ने शिक्षा को इस रूप में
परिभाषित किया है- ‘‘शिक्षा विकास की
प्रक्रिया है जिसमें मनुष्य शैशवकाल से प्रौढ़काल तक विकास करता है और जिसके
द्वारा वह धीरे-धीरे अपने को अनेक प्रकार से अपने प्राकश्तिक सामाजिक और
आध्यात्मिक पर्यावरण के अनुकूल बनाता है।’’
शिक्षा का आर्थिक सम्प्रत्यय
अर्थशास्त्रियों
के विचार समाज कें आर्थिक श्रोत और आर्थिक तन्त्र होते है। शिक्षा को वे एक
उत्पादक क्रिया के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा उपभोग की
वस्तुओं के साथ उत्पादन की भी कारक होती है। शोध ये परिणाम देते हैं कि शिक्षित
मनुष्य की उत्पादन शक्ति और संगठन क्षमता अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होती
है। अर्थशास्त्री शिक्षा को एक निवेश के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि
से- शिक्षा वह आर्थिक निवेश है जिसके द्वारा व्यक्ति में उत्पादन एंव संगठन के
कौशलों का विकास किया जाता है और इस प्रकार व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उत्पादन क्षमता बढ़ाई जाती है और उनका
आर्थिक विकास होता है।
शिक्षा का मनोवैज्ञानिक सम्प्रत्यय
भारतीय योग
मनोविज्ञान का विचार केन्द्र मनुष्य का बाह्य स्वरूप और उसका अन्त: करण दोनो होते
हैं। बाह्य स्वरूप में वह उसकी कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का अध्ययन करता
है और अन्त:करण में मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और आत्मा का अध्ययन
करता है। उसकी दृष्टि से- शिक्षा का अर्थ है मनुष्य की बाह्य इन्द्रियों और
अन्त:करण का प्रशिक्षण। शिक्षा के द्वारा सर्वप्रथम शरीर मस्तिष्क और चित्त एवं
आत्मा का विकास होना चाहिए। इस विषय में जर्मन शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी
का मत है कि यह विकास स्वाभाविक, सम और प्रगतिशील
होना चाहिये। उनके शब्दों में- ‘‘शिक्षा मनुष्य की
जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक समरस और प्रगतिशील विकास है। पेस्टालॉजी के
शिष्य फ्रोबेल ने शिक्षा को इस रूप में परिभाषित किया है- ‘‘शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक अपनी
आन्तरिक शक्तियों को बाहर की ओर प्रकट करता है।’’
शिक्षा का वैज्ञानिक सम्प्रत्यय
वैज्ञानिको का विषय क्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एवं समस्त
क्रियायें है। वे किसी भी वस्तु अथवा क्रिया को वस्तुनिष्ठ ढंग से देखते हैं।
शिक्षा को वे मनुष्य की शक्तियोंके बाह्य जीवनानुकूल विकास के साधन रूप में
स्वीकार करते है। हरबर्ट स्पेन्सर के शब्दो में- ‘‘शिक्षा का अर्थ
अन्त:शक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है।’’
शिक्षा की प्रक्रिया
एडम द्वारा परिभाषित शिक्षा
की प्रक्रिया को इस रूप में प्रदिश्र्णत किया जा सकता है शिक्षक शिक्षण प्रक्रिया
शिक्षार्थी एडम के अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया दो ध्रुवों के बीच चलती है जिसमें
शिक्षक का परिपक्व अनुभव, व्यक्तित्व, शिक्षार्थी के अपरिपक्व
व्यक्तित्व में वांछित परिवर्तन लाने का कार्य करता है। शिक्षार्थी के विकास की यह
प्रक्रिया न केवल संचेतन होती है, अपितु सविमर्श
होती है अर्थात् शिक्षक के सम्मुख शिक्षार्थी के विकास की दिशायें स्पष्ट एवं
पूर्व निर्धारित होती है। यह परिवर्तन दो माध् यमों से होता है। प्रथम तो अध्यापक
के व्यक्तित्व के प्रत्यक्ष प्रभाव एवं द्वितीय ज्ञान के विविध रूपों द्वारा।
कठोपनिणद् में शिक्षण की प्रक्रिया जो इस रूप में व्याख्या की गयी है।
सहनाववतु
सहनौभुनक्तु सहवीर्यं करवावहै।
तेजस्विना
वधीतमस्तु मां विद्विषावहै।।
सहनाववतु- साथ-साथ हम एक दूसरे की
रक्षा करे अर्थात् शिक्षक शिक्षार्थी दोनो ही एक दूसरे के नैतिक विकास में सहायक
होते हैं, तथा सम्भावित पतन से एक दूसरे
की रक्षा की जाती है।
सहनौभुनक्तु- साथ-साथ उपभोग करें
अथार्त् ज्ञानाजर्न से उपलब्ध सिद्धियों का उपभोग शिक्षक व छात्र मिल-जुलकर करें।
अर्थात् ज्ञान की वृद्धि भी साथ-साथ होती है।
सहवीर्यं करवावहै- एक दूसरे के शौर्य की
रक्षा करे।
तेजस्विना वधीतमस्तु- अध्ययन के फलस्वरूप तजे
स्वी बनें।
मां विद्विषावहै- एक दूसरे की उन्नति से
ईष्या न करें।
उक्त व्याख्या यह
स्पष्ट करती है कि शिक्षा की प्रक्रिया दो तरफा है शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों एक
दूसरे से प्रभावित होते हैं।
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