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इण्डोनेशिया में राष्ट्रवाद

बीसवीं सदी का विश्व

इण्डोनेशिया में राष्ट्रवादी आन्दोलन

इण्डोनेशिया भारत के दक्षिणी द्वीपों का बड़ा समूह है। जावासुमात्रा इसके मुख्य टापू हैं। खनिज पदार्थ की दृष्टि से इण्डोनेशिया अमेरिका व रूस के बाद दुनिया का सबसे बड़ा धनी प्रदेश है। द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व इण्डोनेशिया पर डच लोगों का अधिकार था। युद्ध के दौरान यह क्षेत्र जापान के अधिकार में आ गया। इण्डोनेशिया में जापानी नियन्त्रण के दौरान ही स्वतन्त्रता की लहर जोर पकड़ रही थी। जापान के आत्मसमर्पण के फौरन बाद 17 अगस्त, 1945 को "स्वतन्त्र इण्डिया गणतन्त्र" की स्थापना की घोषणा कर दी गई।

जापान के इण्डोनेशिया छोड़ने के बाद, डच इस पर पुनः अपना अधिकार जमाना चाहते थे। मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ भी डचों की सहायता के लिये इण्डोनेशिया में आ गई। देश की जनता ने डटकर उसका विरोध किया। इण्डोनेशिया में मुक्ति आन्दोलन जोरों से चला। डच सेनाओं और राष्ट्रवादी सेनाओं के मध्य युद्ध प्राराम्भ हो गया। चार वर्ष तक गृह युद्ध चलता रहा। अन्त में संयुक्त राष्ट्र तथा विश्व जनमत के दबाव के कारण डच सरकार को इण्डोनेशिया को स्वतनत्र कर देना पड़ा। 27 मई, 1949 को इण्डोनेशियाई गणराज्य की स्थापना हुई।

इण्डोनेशिया में राष्ट्रीय भावना का विकास

इण्डोनेशिया के निवासियों में राष्ट्रीय जागरण विलम्ब से हुआ। इसका कारण यहाँ विभिन्न जाति व धर्मों के लोगों का होना है। अधिकांश जनसंख्या मुसलमानों की थी जो अशिक्षित थे। डच सरकार ने हिन्देशिया में शिक्षा का उचित विकास नहीं किया था। इण्डोनेशिया विभिन्न द्वीपों से मिलकर बना है। वे द्वीप परस्पर दूर-दूर स्थित हैं। उन पर शासन करने वाले सुल्तान परस्पर संघर्ष करते रहते थे। वे सुल्तान भी डच सरकार के प्रभुत्व में चले गये थे। उनकी स्थिति ठीक वैसी ही थी, जैसी भारत में विदेशी सरकार के समय देशी राजाओं की थी। अत: वे भी अपने यहाँ राष्ट्रीयता का विकास नहीं देख सकते थे। फिर भी डच सरकार अधिक समय तक राष्ट्रीयता के विकास को नहीं रोक सकी। बीसवीं सदी के आरम्भ से ही यहाँ राष्ट्रीयता का विकास आरम्भ हो गया था। प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त विश्व में एशिया के पड़ोसी देशों में ऐसी घटनाएँ घटित हुईं, जिसमें हिन्देशिया में राष्ट्रवाद को उग्र बना दिया। इस राष्ट्रवाद के प्रमुख प्रेरक तत्त्व निम्नलिखित हैं-

(1) फ्रांस की राज्य क्रान्ति-

फ्रांस की राज्य क्रान्ति ने समानता, स्वतन्त्रता व बन्धुत्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। नीदरलैण्ड में सरकार इन्हीं सिद्धान्तों पर आचरण कर रही थी, परन्तु हिन्देशिया में ये तीनों सिद्धान्त बिल्कुल लुप्त हो गये थे। इस कारण हिन्देशिया के निवासियों में भी यह भावना प्रबल हुई कि इस विदेशी सरकार को हमारे यहाँ भी इन्हीं सिद्धान्तों को लागू करना चाहिए।

(2) डच सरकार के अत्याचार-

डच सरकार ने हिन्देशिया में अपने प्रभुत्व को बनाये रखने हेतु कठोर दमन नीति का आश्रय लिया। डचों ने जावा, सुमात्रा तथा बाली द्वीपों पर आक्रमण किये। विजय के उपरान्त वहाँ के निवासियों को बड़ी निर्दयता से कुचल दिया। जावा (1825 ई.) में होने वाले विद्रोह को निर्दयता से दबाया गया। मोलूकास के विद्रोह को कुचलने में विभिन्न प्रकार के अत्याचार किये। इन अत्याचारों का फल यह हुआ कि हिन्देशिया वासी डचों से घृणा करने लगे। उन्हें अपने देश से निकालने का प्रयास करने लगे।

(3) हिन्देशिया का आर्थिक शोषण-

अपने उपनिवेशों का शोषण इंग्लैण्ड ने किया, फ्रांस तथा पुर्तगाल ने भी किया। परन्तु पुर्तगालवासी परमात्मा से डरते थे तथा अंग्रेजों में मानवीयता थी, परन्तु डच लोगों में तो दोनों का ही अभाव था। हिन्देशिया में शोषण करना ही उनके प्रशासन का लक्ष्य था। उन्होंने हिन्देशिया के लोगों की भलाई, उन्नति व विकास का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखा। अपने देश व देशवासियों को समृद्ध बनाने के उद्देश्य से उन्होंने हिन्देशिया के किसानों को रबड़ व मसालों के स्थान पर चावल व ईख की खेती करने को बाध्य किया। मालगुजारी भी उनसे इन्हीं पैदावारों के रूप में ली जाती थी। हिन्देशिया के किसानों को अपनी भूमि के निर्धारित भाग में चावल व ईख की खेती अवश्य करनी पड़ती थी। इससे वे दीन हो गये तथा मजदूर मात्र बन गये। मजदूरों की दशा भी अत्यन्त दयनीय थी। स्थानीय शासकों को धन देने को विवश किया गया। उनके आर्थिक शोषण के कारण ही मजदूर व किसान डच सरकार के कट्टर विरोधी हो गये।

(4) स्थाई शासकों में पारस्परिक फूट व संघर्ष करवाना-

हिन्देशिया के स्थानीय शासक भी भारत के देशी राजाओं की भाँति परस्पर में स्वतन्त्र थे, परन्तु फिर भी वे आपस में झगड़ते रहते थे। अंग्रेजों की भाँति डचों ने भी (Divide and Rule) फूट डालो और राज करो की नीति को अपनाया। उन्होंने यहाँ के शासकों को आपस में ही लड़वाया। डच सरकार उनके आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप भी करती थी। उन्होंने अपने समर्थकों को सुल्तान पद पर आसीन करना आरम्भ कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि शासकों की इच्छा ही कानून बन गई। जिसमें ताकत हो वही शासक बन जावे। जिसकी लाठी उसकी भैंस का राज्य हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि डचों ने हिन्देशिया में मत्स्य राज्य की स्थापना कर दी। इसके परिणामस्वरूप जनता डचों के विरुद्ध हुई. परन्तु शाही परिवारों के सदस्य और अपदस्थ शासक भी उनके विरुद्ध हो गये। ये सब मिलकर अपने देश को डच सरकार से मुक्त कराने का प्रयास करने लगे।

(5) इस्लाम धर्म का उत्साह-

अरब के व्यापारियों का प्रभुत्व हिन्देशिया पर अधिक समय तक नहीं रहा और उन्होंने यहाँ राजनीतिक सत्ता भी नहीं संभाली। परन्तु उन्होंने यहाँ इस्लाम धर्म का प्रचार व प्रसार अच्छा किया। हिन्देशिया में मात्र बाली द्वीप को छोड़कर सभी जगह इस्लाम का झण्डा गड़ गया। आज भी हिन्देशिया की सर्वाधिक जनसंख्या मुसलमानों की ही है। अत: इन मुसलमानों के दिमाग में खलीफाओं का प्राचीन गौरव घूम रहा था। वे इस बात को भी जानते थे कि यूरोप में स्पेन से लेकर बालकन राज्यों तक इस्लाम का प्रभुत्व स्थापित हो गया है। यह गौरव प्रति वर्ष और अधिक ताजा हो जाता था, जबकि वे हज यात्रा पर जाते थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में टर्की में तरुण तुर्की आन्दोलन प्रारम्भ हो गया था। उससे भी वे प्रेरित हो रहे थे। अत: हिन्देशिया में डचों की सरकार को समाप्त करने को मुसलमानों का भी विशेष उत्साह था।

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इण्डोनेशिया में राष्ट्रवाद


(6) अफ्रीका व एशिया के देशों में राष्ट्रीय आन्दोलन-

हिन्देशिया पर प्राचीन काल से सर्वाधिक प्रभाव भारत का ही पड़ा था। बीसवीं सदी के आरम्भ से ही भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन जोर पकड़ रहा था। अत: उसका प्रभाव हिन्देशिया पर पड़ना भी स्वाभाविक था। जापान एशिया का उन्नतशील देश बन गया था। उसके भी हिन्देशिया के साथ अच्छे सम्बन्ध थे। 1917 ई.में रूस में बोल्शेविक क्रान्ति हो गई थी। रूस की साम्यवादी सरकार ने पश्चिमी साम्राज्यवाद से मुक्ति पाने के लिए एशिया के प्रत्येक देश को सहायता देने की इच्छा व्यक्त की थी। जावा में 1926 ई. में आन्दोलन हुआ था। उसमें भी रूस का हाथ माना जाता है। इसके अलावा अफ्रीका के मुस्लिम देशों में भी पाश्चात्य साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। मध्य एशिया के मुस्लिम देशों में भी राष्ट्रीय जागरण जोर पकड़ रहा था। ऐसी परिस्थितियों में हिन्देशिया कैसे पीछे रह सकता था। अत: यहाँ भी राष्ट्रीय आन्दोलन जोर पकड़ने लगा।

(7) डच सरकार द्वारा विकास के कार्य न करना-

यूरोप के अन्य देशों ने समय आने पर अपने उपनिवेशों के विकास की ओर ध्यान दिया तथा उनका आधुनिकीकरण भी किया। परन्तु डच सरकार ने हिन्देशिया के विकास पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। जब "कल्चर सिस्टम" से डच सरकार सब जगह बदनाम हो गई तो उसने नैतिक नीति अपनाई। केवल इस नीति के माध्यम से डच सरकार हिन्देशिया का कुछ आर्थिक विकास करना चाहती थी। परन्तु अन्य पाश्चात्य साम्राज्यवादी देशों की भाँति डचों ने हिन्देशिया में बड़े कारखानों की स्थापना नहीं की। नैतिक नीति के माध्यम से केवल स्थानीय व्यवसायों को ही उन्नत करने का प्रयास किया गया था तथा कुछ चीनी के कारखाने खोले गये थे। शिक्षा के क्षेत्र में भी डच सरकार ने समुचित ध्यान नहीं दिया। वह नहीं चाहती था कि हिन्देशिया के युवक पश्चिमी देशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने जावें तथा वहाँ से प्रजातन्त्रीय विचार लाकर यहाँ फैलावें। उनका एक मात्र उद्देश्य हिन्देशिया की सम्पदा को खींचकर हॉलैण्ड ले जाना था। हॉलैण्ड की राष्ट्रीय आय में 1.6 भाग हिन्देशिया के धन का ही भाग होता था।

(8) महायुद्धों का प्रभाव-

प्रथमद्वितीय विश्व युद्धों में मित्र राष्ट्रों ने यह घोषणा की थी कि हम विश्व देशों की स्वतन्त्रता के लिये युद्ध कर रहे हैं। युद्ध में हमारी विजय का अर्थ प्रजातन्त्र की विजय होगा। हॉलैण्ड दोनों महायुद्धों में मित्रराष्ट्रों के साथ था। अत: हिन्देशिया निवासियों में यह भावना जागृत हुई कि हमारी सरकार विश्व के सामने तो प्रजातन्त्र का समर्थन करती है तथा अपने उपनिवेशों में निरकुंश शासन चलाती है। अत: वे भी अपने देश में लोकतान्त्रिक सरकार बनाने के लिए प्रयास करते रहे । द्वितीय विश्व युद्ध में तो हॉलैण्ड सरकार की निर्बलता हिन्देशिया वालों को पता लग गई और जापान ने 12 मार्च, 1942 को वहाँ प्रभुत्व स्थापित कर लिया। 1945 ई. में जब जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया तो, डच सरकार ने पुन: उन पर अधिकार करने का प्रयास किया, परन्तु हिन्देशिया वालों ने उनका डटकर सामना किया तथा अन्त में उनको अपने उद्देश्य में सफल नहीं होने दिया।

(9) हिन्देशिया में विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थापना-

बीसवीं सदी के आरम्भ होते ही, हिन्देशिया में राष्ट्रीय भावना प्रबल रूप धारण करने लग गई थी। इस पर अन्य देशों की घटनाओं का भी प्रभाव पड़ रहा था। जब टर्की में 1908 में तरुण तुर्क आन्दोलन आरम्भ हुआ तो उससे प्रभावित हो हिन्देशिया वालों ने अपने यहाँ 1908 में ही "बोदी उतोमो" (Boedi Octmo) पार्टी की स्थापना की। इस पार्टी का उद्देश्य देश का आर्थिक तथा शैक्षणिक विकास करना था। इसके उपरान्त जब भारत में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई तो हिन्देशिया में "सरेकत इस्लाम" (Serekat Islam) की स्थापना हुई। इस पार्टी के सदस्य केवल हिन्देशिया के ही मुसलमान थे। इस पार्टी का मुख्य उद्देश्य हिन्देशिया में मुस्लिम राज्य की स्थापना करना था। इस दल की ख्याति शीघ्र ही फैल गई। ग्रामीण क्षेत्र में किसान इसके सदस्य बने, शहरी क्षेत्र में मध्यमवर्गीय शिक्षित व्यक्ति इसके सदस्य बने। इस पार्टी की शाखायें जगह-जगह स्थापित की गईं।

जब प्रथम विश्व युद्ध चल रहा था, तो अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन द्वारा अपने चौदह सूत्रीय कार्यक्रम व राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की घोषणा की गई। इस पार्टी का उद्देश्य हिन्देशिया में धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना करना था। इसी पार्टी के कारण जावा-सुमात्रा में विद्रोह हुए, इसके उपरान्त डॉ. सुकर्णो के नेतृत्व में 1927 ई. में "हिन्देशिया राष्ट्रवादी दल" (Indonesian Nationalist party) का गठन हुआ। इस दल में अधिकांश सदस्य पश्चिमी देशों में शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे। डॉ. सुकर्णो भी पश्चिम से इंजीनियरिंग पढ़कर आये थे। इस दल को सबल बनाने में डॉ. सुकर्णो को अपने साथी मोहम्मद हट्टा से काफी सहयोग मिला। यह दल भी हिन्देशिया में शीघ्र ही ख्याति प्राप्त हो गया तथा इसकी शाखाएँ जगह-जगह स्थापित हो गई। इस दल की नीति उदार थी तथा यह हिन्देशिया में लोकतान्त्रिक शासन की स्थापना करना चाहता था। इस दल की स्थापना से डच सरकार विचलित हुई। उसने इस दल को अवैध घोषित कर दिया। इस दल को दबाने का प्रयास किया। डच सरकार के दमन 1929 ई. में डॉ. सुकर्णो को अपने साथी हट्टा के साथ जापान जाना पड़ा। इस प्रकार डच सरकार द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ तक राष्ट्रवादियों का दमनकारी रही। परन्तु इस पार्टी ने हिन्देशिया में राष्ट्रवाद को जीवित रखा।

हिन्देशिया वासियों का स्वतन्त्रता संघर्ष

हिन्देशिया में राष्ट्रीयता की भावना बीसवीं सदी में ही जोर पकड़ने लग गई थी। समय-समय पर विश्व में घटने वाली घटनाएँ उसे प्रबल बनाती रहीं, परन्तु डच सरकार राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलती रही। हिन्देशिया राष्ट्रवादी दल की स्थापना से उसे थोड़ी चिन्ता अवश्य हुई। अत: सन् 1927-31 ई. में उसने हिन्देशिया वासियों के समक्ष संवैधानिक सुधारों की योजना प्रस्तुत की। उधर शिक्षित वर्ग को सिविल सर्विस में लगाना प्रारम्भ कर दिया। इन सुधारों से राष्ट्रीय आन्दोलन थोड़ा कमजोर पड़ गया। परन्तु जब मार्च, 1945 ई. में जापान ने हिन्देशिया पर अधिकार कर लिया, तो इसके राष्ट्रीय आन्दोलन ने नया मोड़ ले लिया।

जापान ने हिन्देशिया के प्राकृतिक साधनों को प्रयुक्त करने व एशिया में अपने साम्राज्य को विस्तृत करने के उद्देश्य से अधिकार किया था, परन्तु जापान का मुख्य उद्देश्य हिन्देशियावासियों के मन में डच लोगों के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न करना था। उसने यहाँ के राष्ट्रवादी नेताओं को उच्च पदों पर आसीन किया। इसके अलावा जापान की सरकार ने उनके राष्ट्रवाद के विकास में भी कोई विघ्न उत्पन्न नहीं किया। अतः द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति तक हिन्देशिया वासियों को अपने राष्ट्रीय विकास में कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं हुई। परन्तु जब अगस्त, 1945 ई. में जापान परास्त हो गया तो उसी के साथ हिन्देशिया के राष्ट्रवाद पर मुसीबत आ पड़ी।

जापान के परास्त होते ही डच सरकार ने पुन: हिन्देशिया पर अधिकार जमाने का प्रयत्न किया। इसमें हॉलैण्ड को इंग्लैण्ड का सहयोग मिला। परन्तु हिन्देशिया वासियों ने साम्राज्यवादी डचों का जमकर सामना किया और अगस्त, 1945 ई. में ही इसके नेताओं ने अपने देश में स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। डॉ. सुकर्णो को उपराष्ट्रपति बनाया गया। उसकी सहायता के लिये 135 सदस्यों की एक राष्ट्रीय समिति गठित की गई। इससे हिन्देशिया में राष्ट्रवाद और उग्र हो गया। इन्होंने हॉलैण्ड और इंग्लैण्ड वालों को अपने देश में पाँव नहीं रखने दिया। अन्त में विवश होकर 15 नवम्बर, 1945 को डच सरकार को हिन्देशिया के साथ लिंगायती समझौता (Linggayati Agreement) करना पड़ा। इस समझौते के अन्तर्गत हिन्देशिया के समस्त द्वीपों की एक संघीय सरकार बनाने की योजना बनाई गई, परन्तु इस समझौते पर अधिक दिनों तक आचरण नहीं किया गया।

हॉलैण्ड की सरकार व हिन्देशिया की तत्कालीन गठित सरकार में मतभेद उत्पन्न हो गये और डच सरकार ने अपनी सैनिक कार्यवाही तेज कर दी। इस पर हमारे भारत व आस्ट्रेलिया के संयुक्त प्रयासों से यह मामला 1 अगस्त, 1947 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् के सामने लाया गया। सुरक्षा परिषद् ने युद्ध बन्द करने के आदेश दिये। अमेरिका, आस्ट्रेलिया व बेल्जियम के प्रयासों से 18 जनवरी,1948 को दोनों सरकारों के मध्य पुनः समझौता हो गया। इसमें हिन्देशिया को एक प्रभुत्व सार्वभौमिक गणराज्य स्वीकार कर लिया गया। परन्तु इसके साथ अन्य मसले तय नहीं हुए। अत: दोनों देशों के बीच पुनः संघर्ष छिड़ गया। डच सेना ने जकार्ता तथा बिटेविया पर अधिकार कर लिया। डॉ. सुकर्णोहट्टा को बन्दी बना लिया गया। इस पर भारत के प्रयासों से दिल्ली में 19 राष्ट्रों का एशियाई सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें हिन्देशिया की स्वतन्त्रता का जोरदार समर्थन किया गया। इस बात के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ को और अधिक प्रभावित करने की दृष्टि से एक सम्मेलन हेग में और बुलाने का निर्णय लिया गया।

हेग सम्मेलन के माध्यम से हॉलैण्ड की सरकार व हिन्देशिया की पार्टी के बीच पुनः समझौता हो गया। 2 नवम्बर, 1949 को हिन्देशिया को 16 राज्यों का एक लोकतन्त्रीय संघीय राज्य मान लिया गया। इस सम्मेलन के माध्यम से अन्य मसले भी तय हो गये तथा 27 दिसम्बर, 1949 को हॉलैण्ड की सरकार ने हिन्देशिया को सत्ता सौंप दी। परन्तु हिन्देशिया अधिक समय तक संघीय राज्य नहीं रह सका। 15 अगस्त, 1950 को ही एकात्मक राज्य बन गया। अब इसमें जावा भी सम्मिलित कर लिया गया। केवल पश्चिमी नयूगिनी अलग रहा। परन्तु 1 मई, 1963 ई. को वह भी हिन्देशिया का एक भाग बन गया। इस प्रकार सन् 1963 तक हिन्देशिया के समस्त क्षेत्र से डच प्रभुता की समाप्ति हो गई।

इण्डोनेशिया की विदेश नीति

अपनी विदेश नीति के रूप में इण्डोनेशिया ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई है। इण्डोनेशिया ने अमेरिका तथा चीन दोनों के साथ सन्तुलित सम्बन्ध बनाये रखने की चेष्टा की। इसने सैनिक गठबन्धनों को अस्वीकार कर दिया। इसलिए वह सैन्टो (CENTO) का सदस्य नहीं बना। 1955 में इण्डोनेशिया ने बांडुग में "प्रथम एफ्रो एशियाई सम्मेलन" का आयोजन किया। इस सम्मेलन ने इण्डोनेशिया की प्रतिष्ठा को बहुत बढ़ा दिया और इससे एफ्रो-एशियाई गुट ने प्रवक्ता के रूप में स्वीकार किया जाने लगा। इसके पश्चात् इण्डोनेशिया की नीति में परिवर्तन आने लगा। चीन के निकट आने लगा, जिससे उसकी गुटनिरपेक्षता की नीति समाप्त होने लगी।

1965 में उसने पाकिस्तान व भारत युद्ध के समय पाकिस्तान का समर्थन किया। चीन और भारत के सम्बन्ध कटु होने पर भी, उसने चीन की ही नीति का समर्थन किया। इन्हीं कारणों से डॉ. सुकर्णो जनता की निगाह से गिरने लगे। 1966 को हिन्देशिया में सैनिक कान्ति हुई। डॉ. सुकर्णो को पदच्युत कर दिया। सेना के प्रधान जनरल सुहार्तो ने सत्ता अपने हाथ में ले ली। वे राष्ट्रपति बन गये। उसके बाद विदेश नीति में फिर परिवर्तन आ गया। वह संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य भी बना, परन्तु उसने पहले ही सदस्यता त्याग दी। 1965 में उसने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता भी त्याग दी। जो मलेशिया के सुरक्षा परिषद के सदस्य बनाये जाने की पक्ष में था। 1965 में डॉ. सुकर्णो के हाथ से सत्ता छिन जाने के पश्चात् इण्डोनेशिया की राजनीति में परिवर्तन आया तथा जनरल सुहार्ता ने खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया। 1966 में इण्डोनेशिया ने फिर एक बार अपनी गुटनिरपेक्षता, अहस्तक्षेप तथा उपनिवेश विरोधी नीति को अपनाया।

कोरिया गणराज्य (Korean Republic or crisis)

द्वितीय महायुद्ध के पूर्व कोरिया पर जापान का आधिपत्य था। परन्तु इस युद्ध के बाद कोरिया के उत्तरी भाग पर सोवियत सेनाओं ने तथा दक्षिणी भाग पर अमेरिकन सेनाओं ने अधिकार कर लिया। 38वीं समानान्तर रेखा द्वारा भागों का विभाजन किया गया। यह एक अस्थायी सैनिक व्यवस्था थी। संयुक्त राष्ट्र संघ ने कोरिया का एकीकरण करने के लिए कई बार चेष्टा की, किन्तु उसको सफलता प्राप्त नहीं हुई। संयुक्त राष्ट्र संघ ने कोरिया के प्रश्न का समाधान करने तथा एक राष्ट्रीय सभा का निर्वाचन करने के लिए एक अस्थायी आयोग का निर्माण किया। इसने दक्षिणी कोरिया में निर्वाचन करवाये, परन्तु उत्तरी कोरिया में वह नहीं जा सका। इसके परिणामस्वरूप कोरिया गणराज्य की स्थापना हुई। इसको 31 राज्यों ने मान्यता प्रदान की। दोनों प्रदेशों की सेनाओं में 38वीं समानान्तर रेखाओं के पास आपस में टक्करें होने लगीं।

25 जून, 1950 को उत्तरी कोरिया की सेनाओं ने दक्षिणी कोरिया पर आक्रमण किया। जब सुरक्षा परिषद् का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया तो उसने दोनों पक्षों को युद्ध करने का आदेश दिया तथा उत्तरी कोरिया के शासकों से अपनी सेनाओं को 38वीं समानान्तर रेखा तक लौटने को कहा। उत्तरी कोरिया ने इस ओर ध्यान नहीं दिया तो, सुरक्षा परिषद् ने अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना के उद्देश्य से सैनिक कार्यवाही करने का निश्चय किया। इसके अतिरिक्त सुरक्षा परिषद् ने दो प्रस्ताव और पास किये। ये प्रस्ताव सरलता से पास हो गये। रूस ने इस समय चीन के प्रश्न पर बहिष्कार कर दिया और इस कारण वह वीटो का प्रयोग नहीं कर सका। इस प्रस्ताव में उत्तरी कोरिया की सेनाओं के कार्यों को शान्ति भंग करने वाला घोषित करते हुए, युद्ध बन्द कर देने की, उत्तरी कोरिया की सेनाओं को 38 अक्षांश रेखा के उत्तर में लौट जाने को, तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों को इस प्रस्ताव के कार्यान्वित करवाने में सहयोग देने को कहा गया। दूसरे प्रस्ताव में यह कहा गया था कि "सोवियत संघ के सदस्य कोरिया के गणराज्य को ऐसी आवश्यक सहायता प्रदान करें, जो सशस्त्र आक्रमण का प्रतिशोध कर सकें।" तीसरे प्रस्ताव द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् ने अमेरिका के नेतृत्व में एक एकीकृत सेना की व्यवस्था की, जिसका सेनापति अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा निश्चित किया जावेगा।

अत: एक सेना का निर्माण किया गया, जिसका नेतृत्व जनरल डगलस मैक मार्थर को सौंपा गया। अक्टूबर, 1950 के अन्त तक संयुक्त राष्ट्रीय सेनाएँ उत्तरी कोरिया के अन्दर तक पहुँच गईं। परन्तु इसी समय साम्यवादी चीन के स्वयंसेवक उत्तरी कोरिया की सेना को सहायता प्रदान करने के लिये युद्ध मोर्चे पर आ डटे। इसने समस्या को बड़ा गम्भीर रूप प्रधान किया। अन्त में एक वर्ष के युद्ध के उपरान्त विराम सन्धि की बातचीत आरम्भ हुई। जब युद्ध बन्दियों की रिहाई तथा उनके विनिमय का प्रश्न आया तो वार्ता समाप्त हो गई। अन्त में 8 जुलाई को यह निश्चय किया गया कि तटस्थ देशों का एक आयोग बनाया जावे। 27 जून, 1863 को युद्ध विराम सन्धि पर हस्ताक्षर के बाद युद्ध की समाप्ति हो गई। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की गई प्रथम सैनिक कार्यवाही का अन्त किया गया।

ए.ई. स्टोवेन्सन के अनुसार, "कोरिया युद्ध की निरर्थकता का विचार उस समय फैला, जब एक विराम सन्धि के विषय में बातचीत हुई और वास्तव में जब हमने आक्रमण को रोकने तथा आक्रमणकारियों को वहीं भगाने, जहाँ से वे आये थे, के प्रारम्भिकउद्देश्यों की सिद्धि कर ली थी। सोवियत संघ की प्रथम सामूहिक सैनिक चेष्टा ने यह सिद्ध कर दिया कि संगठन शक्ति से काम लेने तथा शान्ति से काम लेने के दोनों ही रूपों को ग्रहण करना आवश्यक है।" इस कथन में विशेष सत्य नहीं, क्योंकि इस युद्ध में प्रथम भाग अमेरिका का था। उसे अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी। इससे संयुक्त राष्ट्र संगठन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसे कुछ आवश्यक संशोधन भी करने पड़े। उसने शान्ति के लिये जो प्रस्ताव किया, वह भी महत्त्वपूर्ण है।

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