बीसवीं सदी का विश्व
नाटो और वारसा पैक्ट
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सैनिक गुटबन्दियाँ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रमुख प्रवृत्ति बन गई। साम्यवाद का प्रसार, महाशक्तियों में परस्पर अविश्वास, शीतयुद्ध और संयुक्त राष्ट्रसंघ की जटिल प्रक्रिया, इन सैनिक संगठनों की उत्पत्ति और उनके विकास का प्रमुख कारण थे। संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर की 52वीं धारा में प्रादेशिक सैनिक संगठन निर्माण की अनुमति दी गई है। इसके अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को स्थापित रखने के लिए ऐसे प्रादेशिक संगठनों और अभिकरणों की स्थापना की जा सकती है जो चार्टर के उद्देश्यों एवं सिद्धान्तों के अनुरूप हो।
सैनिक संगठनों की
स्थापना का सूत्रपात-
द्वितीय महायुद्ध के बाद सैनिक संगठनों की
स्थापना का सूत्रपात करने का श्रेय ब्रिटिश राजनीतिज्ञ विन्स्टन चर्चिल
को दिया जाता है। 1946 में अमेरिका के फुल्टन नगर में भाषण देते हुए
उन्होंने तथाकथित लौह आवरण और साम्यवाद का प्रसार रोकने के लिए हरसम्भव
उपायों का अवलम्बन लेने की अपील की। तद्नुरूप 11 जून, 1948 को अमेरिका की सीनेट
ने एक प्रस्ताव स्वीकार किया जिसमें कहा गया कि संयुक्त राज्य अमेरिका
निरन्तर और प्रभावपूर्ण आत्मनिर्भरता एवं पारस्परिक सहायता के आधार पर व्यक्तिगत
और सामूहिक आत्मरक्षा के लिए प्रादेशिक और सामूहिक संगठनों को क्रमिक रूप से
विकसित करने का प्रयास करें। इसके बाद तो ऐसे संगठनों और समझौतों की बाढ़ ही आ गयी
जिनमें उत्तरी एटलाण्टिक सन्धि संगठन (नाटो) और वारसा पैक्ट प्रमुख
थे।
उत्तर एटलाण्टिक
सन्धि संगठन (नाटो)
द्वितीय
विश्वयुद्धोत्तर काल के सैनिक संगठनों में उत्तर एटलाण्टिक सन्धि संगठन (North Atlantic Treaty
Organisation, NATO) सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण है। इस संगठन का प्रणेता संयुक्त राज्य अमेरिका था। सोवियत
रूस की बढ़ती हुई शक्ति तथा सम्भावित सोवियत आक्रमण के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्रसंघ
से पर्याप्त सुरक्षा न मिल पाने की आशंका के कारण 4 अप्रैल, 1949 को वाशिंगटन में
संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और पश्चिमी
यूरोप के 10 देशों—आइलैण्ड, ब्रिटेन, बेल्जियम, डेनमार्क, फ्रांस, इटली, लक्जमबर्ग, हॉलैण्ड, पुर्तगाल और नार्वे ने एक
बीस वर्षीय सन्धि पर हस्ताक्षर करके नाटो संगठन को जन्म दिया। फरवरी, 1952 में यूनान और तुर्की
तथा मई 1955 में पश्चिम जर्मनी भी इसमें सम्मिलित हो गया।
नाटो संगठन का
उद्देश्य-
इस संगठन
का प्रमुख उद्देश्य पश्चिमी यूरोप में सोवियत रूस के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकना
था। इस संगठन का मूल उद्देश्य इसकी पाँचवी धारा में निहित है जिसमें कहा गया है कि
"सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले पक्ष यह स्वीकार करते हैं कि यूरोप अथवा
उत्तरी अमेरिका में उनमें से किसी एक या एक से अधिक पर आक्रमण उन सबके विरुद्ध
आक्रमण समझा जायेगा और इसलिए वे यह स्वीकार करते है कि यदि इस प्रकार का सशस्त्र
आक्रमण होता है,
तो उनमें से
प्रत्येक संयुक्त राष्ट्रसंघ के चार्टर की धारा 51 द्वारा प्रदत्त व्यक्तिगत अथवा
सामूहिक आत्मरक्षा के अधिकार के अनुसार कार्य करता हुआ शीघ्र ही व्यक्तिगत रूप से
या अन्य पक्षों के साथ, इस प्रकार के
आक्रान्त दल अथवा दलों की सहायता करने के लिए ऐसी कार्यवाही करेगा, जैसा वह आवश्यक समझेगा, जिसमें उत्तरी एटलांटिक
क्षेत्रों में सुरक्षा की पुन: स्थापना के लिए सशस्त्र शक्ति प्रयोग भी सम्मिलित
है।"
नाटो संगठन की
कार्यवाही-
नाटो संगठन का प्रधान कार्यालय पेरिस
(फ्रांस) में रखा गया। इस संगठन की सर्वोच्च संस्था उत्तर एटलाण्टिक परिषद्
है जिसकी प्रतिवर्ष दो या तीन बैठकें होती हैं और जिसमें संगठन के सदस्य देशों के
विदेशमंत्री या रक्षामंत्री भाग ले सकते हैं। परिषद् के सभापति प्रतिवर्ष
बारी-बारी से विभिन्न देशों के मंत्री होते हैं। नाटो के नियमित कार्य
संचालन के लिए संगठन का सचिवालय है जिसके मुख्य सचिव की नियुक्ति परिषद द्वारा की
जाती है। इसके अतिरिक्त सैनिक मामलों में परामर्श देने के लिए नाटो की एक
सैनिक समिति भी है। सदस्य देशों के सेना प्रमुख इस समिति के सदस्य होते हैं। 1950
में उत्तर एटलाण्टिक परिषद् ने पश्चिमी यूरोप की रक्षा के लिए सदस्य देशों की
संयुक्त सेना का निर्माण किया और 1953 में जनरल आइजनहावर इसके प्रथम सर्वोच्च सेनापति
बनाये गये। मुख्य कमान के अतिरिक्त नाटो की दो और सैन्य कमाने हैं- प्रथम, एटलाण्टिक सागर कमान और
द्वितीय चैनल कमान।
नाटो संगठन की
स्थापना का लक्ष्य एवं प्रभाव-
नाटो की स्थापना का प्रमुख
लक्ष्य सोवियत रूस को यह चेतावनी देना था कि यदि उसने इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने
वाले किसी देश पर आक्रमण किया तो सभी देश मिलकर उसका प्रतिरोध करेंगे नाटो की
स्थापना से अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण विषाक्त हो गया। शीतयुद्ध को व्यापकता
प्रदान करने तथा अन्तर्राष्ट्रीय तनाव को बढ़ाने में इसका काफी हाथ रहा है। सोवियत
रूस इसे रक्षात्मक नहीं वरन् आक्रामक सैन्य संगठन मानकर इसका प्रबल विरोध करता
रहा।
चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड और हंगरी के नाटो
में शामिल हो जाने से इस संगठन की सीमा जब रूस को छूने लगी तो रूस ने इसे अपनी
पश्चिमी सीमा पर घेराबंदी समझा। पूर्व सोवियत राष्ट्रपति गोर्वाच्योव के अनुसार, "नाटो के पूर्व की ओर
फैलाव के बड़े गम्भीर परिणाम निकल सकते हैं और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद
पश्चिमी देशों की यह पहली बड़ी भूल है।" पश्चिमी समीक्षकों ने भी नाटो के
विस्तार का तात्पर्य सैनिक संतुलन का रूस के प्रतिकूल हो जाना स्वीकार किया।
नाटो का आधुनिक
प्रभाव-
24 से 26 अप्रैल, 1999 को वाशिंगटन में नाटो
की 50वीं वर्षगाँठ मनाने के लिए 19 औपचारिक सदस्यों के साथ-साथ 23 देशों ने भाग
लिया। इस सम्मेलन का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव था—नवीन युद्धनीति अवधारणा। नवीन युद्धनीति अवधारणा के आधार पर
अब नाटो विश्व में कहीं पर भी युद्ध की घोषणा कर सकता है। आज विश्व में नाटो
अमेरिका के हाथों में खेलने वाला एक खतरनाक सैनिक संगठन बन गया है कि जो कि न तो
राष्ट्रीय सम्प्रभुता की परवाह करता है और नही अन्तर्राष्ट्रीय कानून और संयुक्त
राष्ट्र संघ का सम्मान ही कर रहा है। इसका वर्तमान में उदाहरण है अमेरिका के
नेतृत्व में नाटो सैनिक संगठन द्वारा अफगानिस्तान में तालिबान शासन पर 7 अक्टूबर, 2001 को किया गया आक्रमण
जो कि आतंकवाद के उन्मूलन के नाम पर किया गया।
नाटो और वारसा पैक्ट |
पूर्वी यूरोपीय संधि
संगठन (वारसा पैक्ट)-
9 मई, 1955 को जब पश्चिमी
जर्मनी भी नाटो का सदस्य बन गया और पश्चिमी राष्ट्रों ने जर्मनी का पुनः
शस्त्रीकरण कर दिया तो स्वाभाविक था कि सोवियत संघ भी सैनिक गठबंधनों का उत्तर
सैनिक गठबंधन से ही देता। इसीलिए साम्यवादी राष्ट्रों का एक सम्मेलन 11 से 14 मई, 1955 को वारसा में
बुलाया गया जिसमें 14 मई, 1955 को ही
सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के सात राष्ट्रों अल्बानिया, बल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, पोलैण्ड तथा रोमानिया ने
मिलकर सुरक्षा,
शांति, मित्रता एवं पारस्परिक
सहयोग की एक 20 वर्षीय सन्धि पर हस्ताक्षर किए जिसे "पूर्वी यूरोपीय सन्धि
संगठन'' या वारसा सन्धि
कहा गया। इस संगठन की भूमिका में सामूहिक सुरक्षा पद्धति स्थापित करने पर बल देते
हुए कहा गया कि पश्चिमी यूरोप के संघ और पश्चिमी जर्मनी के पुनः शस्त्रीकरण से यह
आवश्यक हो गया है कि अपनी सुरक्षा सुदृढ़ करें और यूरोप में शान्ति बनाये रखें।
वारसा संगठन की
व्यवस्था-
इस संगठन
की मुख्य व्यवस्था, तीसरी धारा में
कहा गया है कि यदि सन्धि में सम्मिलित किसी सदस्य पर सशस्त्र आक्रमण होता है तो
अन्य सभी देश उसको सैनिक सहायता देंगे। इसके लिए संगठन की पांचवी धारा के अन्तर्गत
एक संयुक्त सैन्य कमान की स्थापना की गई। इस सेना का एक सर्वोच्च सेनापति होता था
जो संगठन के महासचिव से परामर्श करके संयुक्त सेना का गठन और उसकी विभिन्न देशों
में नियुक्ति करता था। सैन्य प्रावधानों के अतिरिक्त इस संगठन में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक
विषयों के संदर्भ में सदस्य राष्ट्रों में घनिष्ठ सहयोग की व्यवस्था भी की गई और
कहा गया कि इसके सदस्य एक-दूसरे के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे तथा अपने
अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का निपटारा शान्तिपूर्ण उपायों से करेंगे।
वारसा पैक्ट का मुख्य कार्यालय मास्को में था। सामान्य प्रश्नों पर विचार करने के लिए इस संगठन के सदस्य देशों की एक परामर्शदात्री समिति बनाई गई जिसकी वर्ष में दो बैठकें होती थीं। दूसरे कार्यों में सहायता के लिए सचिवालय था, जिसका सर्वोच्च पदाधिकारी महासचिव होता था। 1989-90 में पूर्वी यूरोप में स्वतन्त्रता और लोकतंत्र की बहुतायत से बहार आई तथा पूर्वी यूरोप में होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल एवं शीत युद्ध के अंत की प्रक्रिया के साथ ही 1 जुलाई, 1991 को वारसा पैक्ट समाप्त कर दिया गया।
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