Heade ads

1936 से फिलिस्तीन (पैलेस्टाइन) का इतिहास

बीसवीं सदी का विश्व

1936 से फिलिस्तीन (पैलेस्टाइन) का इतिहास

मध्यपूर्व में पैलेस्टाइन की एक गम्भीर समस्या थी। इस समस्या ने इस क्षेत्र की राजनीति को अत्यधिक प्रभावित किया है। यहूदी लोग पैलेस्टाइन को बहुत समय से अपना धार्मिक स्थान मानते आये हैं। परन्तु काफी समय से यहाँ अरब के लोग निवास करते आये हैं। यहूदियों के पास कोई स्थान नहीं था, जहाँ वे एक साथ निवास करते। वे यूरोप के विभिन्न राज्यों में निवास करते थे। 1887 ई. में थ्योडोर हरजिल ने यहूदीवाद आन्दोलन का संगठन किया तथा यहूदियों के लिये राष्ट्रीय गृह बने और यहूदी लोग बड़ी संख्या में पैलेस्टाइन में जाकर निवास करें। अरब जाति ने उस आन्दोलन का विरोध किया। वे नहीं चाहते थे कि यहूदी पैलेस्टाइन में बहुत बड़ी संख्या में आकर रहने लगे। उनकी यह धारणा थी कि यहूदी शीघ्र ही इस प्रदेश पर अपना अधिकार करने में सफल हो जायेंगे तथा अरबों की दशा वहाँ प्रजा के समान हो जावेगी। यहूदी हरसम्भव अरबों का आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक शोषण करेंगे।

यहूदीवाद आन्दोलन को प्रथम महायुद्ध के दौरान बड़ा आश्रय प्राप्त हुआ था। ग्रेट ब्रिटेन ने टर्की राज्य के विरुद्ध अरब जाति तथा यहूदियों का सहयोग प्राप्त करना आरम्भ किया। यहूदी जाति ने अंग्रेजों को टर्की के विरुद्ध अत्यधिक सहायता प्रदान की, जिसके कारण वे युद्ध में सफलता प्राप्त कर सके। उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर नवम्बर, 1917 ई. में बैलफोर (Balfore Declaration) की गई, जिसमें यह कहा गया कि, "वह इस उद्देश्य के लिये यथासम्भव प्रयत्न भी करेगी और ऐसा कोई कार्य नहीं किया जावेगा, जिससे पैलेस्टाइन में निवास करने वाले यहूदियों को सामाजिक या धार्मिक अधिकारों से वंचित होना पड़े और यहूदियों को वे अधिकार प्राप्त अन्य राज्यों में प्राप्त हैं।"

जैसा स्वाभाविक ही था कि बैलफोर घोषणा का अरबों ने तीव्र विरोध किया, किन्तु इस समय ब्रिटेन को टी के विरुद्ध अरबों की सहायता की आवश्यकता थी, उन्होंने अरबों को अत्यन्त आश्वासन देते हुए स्पष्ट किया कि यदि राष्ट्र का निर्माण कभी हुआ भी, तो उस समय तक लागू नहीं होगा, जब तक कि समस्त अरबों की पूर्व स्वीकृति प्राप्त नहीं कर ली जावेगी। इस प्रकार बैलफोर घोषणा के ब्रिटेन की ओर से विभिन्न अर्थ लगाये गये। यहूदी इस घोषणा को यह समझते थे कि ब्रिटेन पैलेस्टाइन में उनके लिये राष्ट्रीय गृह दिलवाने में सहायक होगा। अरब यह समझते थे कि ब्रिटेन पैलेस्टाइन में उनके लिये राष्ट्रीय गृह उस समय तक नहीं बनायेगा, जब तक उनकी स्वीकृति प्राप्त न हो जावे।

अरबों का यह विश्वास था कि पैलेस्टाइन प्रथम युद्ध के उपरान्त अंग्रेजों के संरक्षण में अरब राज्य के रूप में रहेगा; किन्तु ब्रिटेन ने इस प्रदेश को अध्यादेश प्रणाली (Mandate system) के अन्तर्गत रखना ठीक समझा और प्रथम महायुद्ध के उपरान्त यह अध्यादेश प्रणाली के अन्तर्गत ब्रिटिश संरक्षण में आ गया। डॉ. वाइसमेन (Dr. Wiseman) ने पैलेस्टाइन में यहूदी राज्य के निर्माण के लिये अरब राज्य के प्रमुख शासकों से बातचीत करना प्रारम्भ किया। उसने यह भी घोषित किया कि इराक के शाह फैजल ने पैलेस्टाइन में यहूदी राज्य की स्थापना में अपनी स्वीकृति दे दी है। किन्तु अरब वालों ने इसका खण्डन किया। सन् 1932 ई. में चर्चिल ने बैलफोर का अर्थ प्रकट करते हुए निम्न विचार प्रगट किए-

The imposition of Jewish nationality up on the inhabitants or Palestine as a whole but the development of the existing Jewish community, with the assistance of Jews in other parts of the world is order that it may become the centre in which the Jewish people as a whole may take.......... an imterest and a pride.

इस कथन के कारण बैलफोर घोषणा का महत्त्व कम हो गया। पैलेस्टाइन में ब्रिटेन का अध्यादेश शासन असफल रहा। वह अपनी नीतियों के कारण न तो अरबों को और न ही यहूदियों को सन्तुष्ट कर सका। उसने इस समस्या के समाधान करने के लिये कई आयोगों का निर्माण किया, किन्तु उसे सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। सन् 1936 के मील आयोग ने यह सुझाव दिया कि पैलेस्टाइन को तीन भागों में विभाजित कर दिया जावे-

(1) एक भाग पर अरबों का नियन्त्रण हो।

(2) समुद्र तट पर छोटासा भाग यहूदियों को दिया जाए।

(3) तीसरा भाग जेरूसलम का बने, जिस पर ब्रिटेन का नियन्त्रण रहे।

अरब और यहूदी दोनों ने मील आयोग की सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया। इस कारण समस्या का समाधान नहीं हो पाया।

यहूदी पर्याप्त संख्या में पैलेस्टाइन में आकर निवास करने लगे। उन्होंने समस्त साधनों का प्रयोग किया, जिससे वे अपने राज्य का निर्माण कर सकें। अन्य देशों में निवास करने वाले यहूदियों ने पैलेस्टाइन में निवास करने वाले यहूदियों की हर सम्भव सहायता करने की कोशिश की। यहूदियों के आने के कारण पैलेस्टाइन सभ्यता का केन्द्र बन गया और उसने उन्नति करना आरम्भ किया।

Palestine-ka-itihas, Palestine-aur-Israel-sangharsh, 1936-se-Palestine-ka-itihas
1936 से फिलिस्तीन (पैलेस्टाइन) का इतिहास


द्वितीय महायुद्ध में यहूदियों ने मित्र राष्ट्रों की अत्यधिक सहायता की। इसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन ने यह इच्छा व्यक्त की कि वह पैलेस्टाइन से अपना मैन्डेट समास करना चाहता है तथा इसे संयुक्त राष्ट्र संघ के संरक्षण में देना चाहता है। इस समय अमेरिकन यहूदियों ने अपनी सरकार से यह प्रार्थना की कि यहूदी राज्य के निर्माण में वह सक्रिय भाग ले। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रमेन ने उनको आश्वासन दिया कि वह यहूदी राज्य के निर्माण के लिये हर सम्भव प्रयत्न करेगा और इस ओर प्रयल भी किया।

संयुक्त राष्ट्र संघ व पैलेस्टाइन समस्या

संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में ब्रिटेन की ओर से पैलेस्टाइन की समस्या प्रस्तुत की गई। इस की महासभा ने निर्णय किया कि दोनों पक्षों को अपना-अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का अवसर दिया जावे। महासभा में दोनों पक्षों ने अपने-अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत किये। महासभा की ओर से इस समस्या का समाधान करने के उद्देश्य से एक समिति का निर्माण किया गया, जो वास्तविक स्थिति का अध्ययन कर उसे रिपोर्ट देगी। इस समिति ने पैलेस्टाइन को तीन भागों में विभाजित करने की सिफारिश की।

(1) यहूदी राज्य। (2) अरब राज्य। (3) अन्तर्राष्ट्रीय संरक्षण में जरूसलम का स्वतन्त्र राज्य।

ये तीन राज्य एक इकाई के रूप में होंगे। साधारण सभा द्वारा आयोग की सिफारिशें स्वीकार कर ली गई। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि भारत ने इस विभाजन का विरोध करते हुए कहा था कि पैलेस्टाइन में संघीय राज्य की स्थापना होनी चाहिए, परन्तु यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया। 11 दिसम्बर, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने घोषित किया कि वह 15 मई, 1948 को अपना अध्यादेश समाप्त कर देगी। इस तिथि के आने से पूर्व ही पेलेस्टाइन में विद्रोह की अग्नि प्रज्वलित हो गई। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करना आरम्भ किया।

यहूदी राज्य की समस्या-14 मई, 1948 को मध्यरात्रि को ब्रिटेन ने पैलेस्टाइन से अपने अध्यादेश की समाप्ति कर दी और अमेरिकन ने तेज अबीब में इजरायल राज्य की स्थापना की घोषणा की और अमेरिकन सरकार ने उसे तुरन्त मान्यता दे दी। अरब राज्यों ने इस नव स्थापित राज्य पर चारों ओर से आक्रमण किये, किन्तु नव-स्थापित इजरायल राज्य, अमेरिका तथा अन्य देशों की सहायता से अपनी रक्षा करने में सफल हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ के मध्यस्थ राज्य वूचे के सहयोग से सन् 1949 में युद्ध बन्द हो गया। अरब राष्ट्रों की ओर से इजरायल का आर्थिक दृष्टि से बहिष्कार किया गया, किन्तु उसने विदेशी सहायता के आधार पर इसका भी डटकर मुकाबला किया। उसने यूरोप के देशों के साथ व्यापारिक सम्बन्धों की स्थापना की। उसे धन की सहायता अमेरिकी यहूदियों से प्राप्त होती रही।

1950 ई.से मिस्त्र जहाजों को स्वेज नहर से नहीं जाने देता था, जो इजरायल सामान ले जाते थे। इस समस्या ने ओर भी भीषण रूप धारण कर लिया, जबकि 1953 ई. से मिस्त्र ने स्वेजनहर का राष्ट्रीयकरण किया। इजरायल ने ब्रिटेन और फ्रांस के साथ मित्र पर आक्रमण किया। संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप करने पर भी उसने अपनी सेनाएँ, स्वेज नहर के पास वाली गाजा पट्टी में तथा आकाबा की खाड़ी में 1 मार्च, 1959 ई. को बड़े विलम्ब से शर्त के साथ हटाई कि आकाबी खाड़ी तथा तीरान के जलडमरूमध्य में इजरायल सहित सब देशों के लिये नौचालन की पूरी स्वतन्त्रता होगी। संयुक्त राष्ट्र संघ उस समय तक गाजा पट्टी पर अपना प्रशासन रखेगा, जब तक कि भविष्य में इस सम्बन्ध में कोई समझौता नहीं हो। यह समस्या आसानी से नहीं सुलझाई जा सकती। सन् 1968 में इजरायल और अरब राज्यों के बीच बड़ा भारी संघर्ष हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को दोषी ठहराया और विजय इजरायल की ही रही। इस विजय ने अरब राज्यों को आतंकित कर दिया और कर्नल नासिर के मान और प्रतिष्ठा को बड़ा आघात पहुँचा। इसके उपरान्त इजरायल ने वैरूत के अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों पर अरब के कुछ जहाजों को नष्ट कर दिया। समस्त देशों ने उसके इस कार्य की बड़ी आलोचना की। मध्य पूर्व में यह समस्या बहुत ही भीषण रूप धारण कर रही है। संयुक्त राज्य अमेरिका इजरायल को कर प्रकार की अस्त्र-शस्त्रों को सहायता प्रदान करता है, परन्तु इस कार्य की उसने आलोचना भी की है।

1972 ई. में जो ओलम्पिक खेल म्युनिख में हुए, इसमें अरबों के छापामारों ने यहूदियों के कुछ खिलाड़ियों की नृशंससतापूर्वक हत्या कर दी। इजरायल ने इसका बदला अरब राष्ट्रों पर हवाई हमला करके लिया। यह समस्या पर्याप्त उलझी हुई है। भविष्य ही बतायेगा कि इस समस्या का क्या समाधान निकलेगा। इस क्षेत्र में संयुक्त राज्य अमेरिका इजरायल की सहायता कर रहा है तथा रूस अरबों को। जून, 1973 में अमेरिका राष्ट्रपति निक्सन और सोवियत संघ के साम्यवादी दल के सचिव ब्रेझनेव के बीच एक उच्च शिखर सम्मेलन में इस सम्बन्ध में घोषित किया गया कि मध्यपूर्व की समस्या का समाधान समस्त राज्यों के हितों को ध्यान में रखकर किया जावेगा और पैलेस्टाइन के लोगों के हितों का ध्यान रखा जावेगा। मिस्र के राष्ट्रपति सादात 1977 में इजरायल गये और दोनों ओर से समस्या के समाधान करने का प्रयत्न किया, किन्तु यह सम्भव नहीं हो पाया। सितम्बर, 1985 में इजरायलियों ने बम वर्षा द्वारा P.L.O.के हेडक्वार्टर, जो ट्यूनेशिया में है, पर बड़ा भारी आक्रमण किया। इसमें बहुत से लोगों की मृत्यु हुई, परन्तु उनका नेता यासर अराफात बच गया। इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया हुई। किन्तु अमेरिका और अन्य पश्चिमी राष्ट्रों से सहायता व समर्थन प्राप्त इजरायल ने दृढ़ता का परिचय देते हुए अपनी आक्रामकता को वैध ठहराया।

अमेरिका की मध्यस्थता और इजरायल एवं फिलिस्तीन मुक्ति संगठन के प्रमुख यासार अराफात के परस्पर समझौतापरक दृष्टिकोण के कारण सितम्बर, 1993 में वाशिंगटन में एक समझौता हुआ, जिसमें दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के अस्तित्व को मान्यता दी। इजरायल ने गाजा पट्टी और जेरिको को छोड़ने के लिये सिद्धान्ततः स्वीकृति दे दी, जिससे कि वहाँ फिलिस्तीनी राज्य बनाया जा सके। 13 सितम्बर, 1993 को इस बारे में वाशिंगटन में फिर बैठक हुई। 4 जुलाई, 1994 को फिलिस्तीनी स्वशासन की औपचारिकता शुरू हुई। सरकार के प्रमुख के रूप में यासर अराफात ने शपथ ग्रहण की। आशा है, इस समस्या का शान्तिपूर्ण और स्थायी समाधान निकल आयेगा और पश्चिमी एशिया का यह विवाद समाप्त हो जावेगा।

आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।

Post a Comment

0 Comments