बीसवीं सदी का विश्व
रंगभेद नीति 1948 (Apartheid)
रंगभेद Apartheid शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘Apart’ एवं Hood शब्दों से मिलकर बना है इसका व्यावहारिक रूप से सरल अर्थ ‘रंगभेद’ माना जा सकता है। इसे ‘वर्ण पृथक्करण’ की नीति भी कहा जा सकता है। दक्षिण अफ्रीका के उपनिवेशकाल में प्रजाति पृथक्करण की नीति प्रारंभ हुई और 20वीं सदी के मध्य तक यह कायम रही। सन् 1948 में आम चुनाव के पश्चात् दक्षिण अफ्रीका की नेशनल पार्टी की सरकार ने वहां पर रहने वाले निवासियों को राजनैतिक, भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं नस्लीय आधार पर श्वेत, अश्वेत, मिश्रित वर्ण और इंडियन्स आदि वर्गों में विभाजित करते हुये एक नवीन नीति का आरंभ किया जिसे रंगभेद नीति या आपार्थेट (Apartheid) कहा जाता है। अफ्रीका की भाषा में 'अपार्थीड' का शाब्दिक अर्थ है- अलगाव या पृथकता। इसके विरुद्ध नेल्सन मान्डेला ने बहुत संघर्ष किया जिसके लिए उन्हें लम्बे समय तक जेल में रखा गया। यह प्रणाली दक्षिण अफ्रीका में सन् 1948 से लेकर 1994 तक अस्तित्व में रही, सन् 1994 में समाप्त कर दी गई। इसे नीतिगत आधार पर बाद में Grand Apartheid एवं Petty Apartheid के रूप में विभाजित किया गया है।
रंगभेद नीति का आरंभ-
दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले डच मूल के
श्वेत नागरिकों की भाषा अफ्रीकांस में एपार्थाइड' का शाब्दिक अर्थ है, पार्थक्य या अलहदापन। यही अभिव्यक्ति कुख्यात
रंगभेदी अर्थों में 1948 के बाद उस समय इस्तेमाल की जाने लगी जब दक्षिण अफ्रीका
में हुए चुनावों में वहाँ की नेशनल पार्टी ने जीत हासिल की। उसने एक अन्य
राजनैतिक पार्टी के साथ गठबंधन करके सरकार का गठन किया। नेशनल पार्टी ने सत्ता में
आते ही रंगभेद की नीति को प्रस्तुत किया और अमलीजामा पहनाना प्रारंभ कर
दिया। वर्नर ऐसेलीन नामक व्यक्ति को इस प्रणाली का ढ़ांचा तैयार करने के
लिए नियुक्त किया गया। जिसने पूर्व में श्वेत-श्रेष्ठता के निमित्त दक्षिण अफ्रीका
के राजनैतिक विभाजन का सुझाव दिया था। इस तरह यह नीति अपने प्रारंभिक काल में ही
विवादास्पद हो गई थी। रंगभेद नीति के विकास में सर्वाधिक योगदान हैन्ड्रिक
फ्रैंच वरवोएर्ड का माना जाता है जो कि उस समय सर्वोच्च प्रभावशाली नेता था।
रंगभेद नीति के क्रियान्वयन के तारतम्य में सर्वप्रथम डेनियल फ्रेंकोईस मालन
जो कि रंगभेद नीति का समर्थक था और प्रथम प्रधानमंत्री बना था ने, 1950 में समूह क्षेत्र
अधिनियम (Group
Areas Act)
नामक कानून पारित
किया जो कि आगे चलकर रंगभेद प्रणाली का का केन्द्र बिन्दु बन गया। इस कानून
ने दक्षिण अफ्रीका में प्रत्येक व्यक्ति को नस्लीय रूप से परिभाषित किया। इस कानून
के द्वारा अफ्रीका के निवासियों को भौगोलिक तौर पर विभाजित कर दिया गया। रंगभेद
नीति के तहत 1953
में पृथक-शिष्टाचार
अधिनियम् पारित किया गया जिसके द्वारा अलग-अलग वर्णों के लोगों के लिए अलग-अलग
व्यवहार क्षेत्र आरक्षित कर दिये गये। इस कानून ने खेल के मैदानों, बसों, अस्पतालों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों यहां तक
कि पार्क की बैंचों और समुद्र तटों का भी वर्गीकरण कर दिया।
दक्षिण अफ्रीका के संदर्भ में नस्ली
भेदभाव की शुरुआत डच उपनिवेशवादियों द्वारा कैपटाउन को अपने रिफ्रेशमेंट स्टेशन के
रूप में स्थापित करने से मानी जाती है। एशिया में उपनिवेश कायम करने के लिए डच
उपनिवेशवादी इसी रास्ते से आते जाते थे। इसी दौरान इस क्षेत्र की अफ्रीकी
आबादी के बीच रहने वाले यूरोपियनों ने खुद को काले अफ्रीकियों के हुक्मरानों की
तरह देखना शुरू किया। शासकों और शासितों के बीच श्रेष्ठता और निम्नता का भेद करने
के लिए कालों को यूरोपियनों के हाथ भर दूर रखने का आग्रह पनपना जरूरी था।
परिस्थिति का विरोधाभास यह था कि गोरे यूरोपियन मालिकों के जीवन में कालों की
अंतरंग उपस्थिति भी थी। इसी अंतरंगता के परिणामस्वरूप एक मिली-जुली नस्ल की रचना
हुई जो अश्वेत'
कहलाए। हालाँकि
रंगभेदी कानून 1948 में बना, पर दक्षिण
अफ्रीका की गोरी सरकारें कालों के खिलाफ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाना जारी रखे हुए
थीं। कुल आबादी के तीन-चौथाई काले थे और अर्थव्यवस्था उन्हीं के श्रम पर आधारित
थी। लेकिन सारी सुविधाएँ मुट्ठी भर गोरे श्रमिकों को मिलती थीं। सत्तर फीसदी जमीन
भी गोरों के कब्जे के लिए सुरक्षित थी। इस भेदभाव ने उन्नीसवीं सदी में एक नया रूप
ग्रहण कर लिया जब दक्षिण अफ्रीका में सोने और हीरों के भण्डार होने की जानकारी
मिली। ब्रिटिश और डच उपनिवेशवादियों के सामने स्पष्ट हो गया कि
दक्षिण अफ्रीका की खानों पर कब्जा करना कितना जरूरी है। सामाजिक और आर्थिक संघर्ष
की व्याख्या आर्थिक पहलुओं की रोशनी में की जाने लगी।
रंगभेद नीति 1948 (Apartheid) |
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की
दक्षिण अफ्रीकी राजनीति का मुख्य संदर्भ यही था। उसी दौर में ब्रिटेन ने अफ्रीका
महाद्वीप के दक्षिणी हिस्से में डच मूल के बोअर गणराज्यों के साथ महासंघ बनाने की
विफल कोशिश की। इसके बाद दक्षिण अफ्रीकी गणराज्य के मुकाबले अंग्रेजों को अपने
पहले युद्ध में पराजय नसीब हुई। विटवाटसरेंड में जर्मन और ब्रिटिश पूँजी
द्वारा संयुक्त रूप से किये जाने वाले सोने के खनन ने स्थिति को और गम्भीर कर
दिया। ये पूँजीपति गणराज्य के राष्ट्रपति पॉल क्रूगर की नीतियों के दायरे में काम
करने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें खनन में इस्तेमाल किये जाने वाले डायनामाइट पर
टैक्स देना पड़ता था। क्रूगर का यह भी मानना था कि इन विदेशी खान मालिकों
और उनके खनिज कैम्पों के प्रदूषण से बोअर समाज को बचाया जाना चाहिए।
उधर खनन में
निवेश करने वाले और कैप कॉलोनी के प्रधानमंत्री रह चुके सेसिल रोड्स और
उनके सहयोगियों का मकसद ब्रिटिश प्रभाव का विस्तार करना था। इस प्रतियोगिता के
गर्भ से जो युद्ध निकला उसे बोअर वार के नाम से जाना जाता है। 1899 से 1902
तक जारी रहे इस युद्ध के दोनों पक्ष रंगभेद समर्थक यूरोपियन थे, लेकिन दोनों पक्षों की
तोपों में चारे की तरह काले सिपाहियों को भरा जा रहा था। कालों और उनके राजनीतिक
नेतृत्व को उम्मीद थी कि बोअर युद्ध का परिणाम उनके लिए राजनीतिक रियायतों में
निकलेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। अंग्रेजों और डचों ने बाद में आपस में संधि कर ली और
मिल-जुलकर रंगभेदी शासन को कायम रखा। मिश्रित वर्ण के लोगो को मताधिकार से वंचित करने के लिए
1951 में संसद में एक अधिनियम प्रस्तुत किया गया। किन्तु कतिपय लोगो के द्वारा इसे
न्यायालय में चुनौती देने एवं न्यायालय द्वारा इसे अवैध घोषित करने के उपरांत
आनन-फानन में नेशनलिस्ट सरकार के द्वारा न्यायपालिका एवं विधायिका की सदस्य
संख्याओं में फेर बदल कर दिया गया। इस तरह उच्चतम न्यायालय और संसद में नेशनलिस्टो
का बहुमत होते ही 1956 में पृथक मतदाता प्रतिनिधित्व अधिनियम (Separate Representation of
Voters Act)’
पारित किया गया
जिसमें मिश्रित वर्ण के लोगो को सामान्य मताधिकार से वंचित कर दिया।
1911 तक ब्रिटिश
उपनिवेशवाद दक्षिण अफ्रीका में पूरी तरह पराजित हो गया, लेकिन कालों को कोई इंसाफ
नहीं मिला। 1912 में साउथ अफ्रीकन यूनियन के गठन की प्रतिक्रिया में अफ्रीकी नैशनल
कांग्रेस (एएनसी) की स्थापना हुई जिसका मकसद उदारतावाद, बहुसांस्कृतिकता और
अहिंसा के उसूलों के आधार पर कालों की मुक्ति का संघर्ष चलाना था। मध्यवर्गीय
पढ़े- लिखे कालों के हाथ में इस संगठन की बागडोर थी। इसे शुरू में कोई खास
लोकप्रियता नहीं मिली, पर चालीस के दशक
में इसका आधार विस्तृत होना शुरू हुआ। एएनसी ने 1943 में अपनी युवा शाखा बनायी
जिसका नेतृत्व नेलसन मंडेला और ओलिवल टाम्बो को मिला। यूथ लीग ने रैडिकल
जन-कार्रवाई का कार्यक्रम लेते हुए वामपंथी रुझान अख्तियार किया।
1948 में बने रंगभेदी
कानून के पीछे समाजशास्त्र के प्रोफेसर, सम्पादक और बोअर राष्ट्रवादी बुद्धिजीवी हेनरिक
वरवोर्ड का दिमाग काम कर रहा था। वरवोर्ड अपना चुनाव हार चुके थे, पर उनकी बौद्धिक क्षमताओं
का लाभ उठाने के लिए मलन ने उनके कंधों पर एक के बाद एक कई सरकारी जिम्मेदारियाँ
डालीं। वरवोर्ड ने ही वह कानूनी ढाँचा तैयार किया जिसके आधार पर रंगभेदी राज्य
का शीराजा खड़ा हुआ। इनमें सबसे ज्यादा कुख्यात कानून अफ्रीकी जनता के आवागमन पर
पाबंदियाँ लगाने वाले थे। 1948 में रंगभेद के साथ प्रतिबद्ध नैशनल पार्टी के
सत्तारूढ़ होने के साथ ही एएनसी ने इण्डियन कांग्रेस, कलर्ड पीपुल्स कांग्रेस
और व्हाइट कांग्रेस ऑफ डैमोक्रेट्स के साथ गठजोड़ कर लिया। श्वेतों के इस समूह पर
दक्षिण अफ्रीकी कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव था जिसे सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा
था। 1955 में एएनसी ने फ्रीडम चार्टर पारित किया जिसमें सर्वसमावेशी राष्ट्रवाद के
प्रति प्रतिबद्धता जारी की गयी। वरवोर्ड द्वारा तैयार किया गया एक और प्रावधान था
1953 का बानटू एजुकेशन एक्ट जिसके तहत अफ्रीकी जनता की शिक्षा पूरी तरह से वरवोर्ड
के हाथों में चली गयी। इसी के बाद से अफ्रीकी शिक्षा प्रणाली रंगभेदी शासन के
खिलाफ प्रतिरोध का केन्द्र बनती चली गयी।
रंगभेद नीति का अंत-
साठ के दशक में रंगभेदी सरकार ने
अपना विरोध करने वाली राजनीतिक शक्तियों को प्रतिबंधित कर दिया, उनके नेता या तो गिरफ्तार
कर लिये गए या उन्हें जलावतन कर दिया गया। सत्तर के दशक में श्वेतों के बीच काम कर
रहे उदारवादियों ने भी रंगभेद के खिलाफ मोर्चा संभाला और युवा अफ्रीकियों ने काली
चेतना को बुलंद करने वाली विचारधारा के पक्ष में रुझान प्रदर्शित करने शुरू
कर दिये। 1976 के सोवेतो विद्रोह से इन प्रवृत्तियों को और बल मिला। इसी दशक में
अफ्रीका के दक्षिणी हिस्सों में गोरी हुकूमतों का पतन शुरू हुआ। धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर भी दक्षिण अफ्रीका की गोरी हुकूमत के साथ हमदर्दी रखने वालों को समझ में
आने लगा कि रंगभेद को बहुत दिनों तक टिकाये रखना मुमकिन नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय
प्रतिबंधों का सिलसिला शुरू हुआ जिससे गोरी सरकार अलग-थलग पड़ती चली गयी। 1979 तक
मजबूर होकर उसे ब्लैक ट्रेड यूनियन को मान्यता देनी पड़ी और कालों के साथ किये
जाने वाले छोटे-मोटे भेदभाव भी खत्म कर दिये गये। इससे एक साल पहले ही वरवोर्ड
के राजनीतिक उत्तराधिकारी प्रधानमंत्री पी.डब्ल्यू. बोथा ने एक अभिव्यक्ति
के रूप में एपार्थाइड'
से पल्ला झाड़
लिया था।
1984 में हुए
संवैधानिक सुधारों में जब बहुसंख्यक कालों को कोई जगह नहीं मिली तो बड़े पैमाने पर
असंतोष फैला। दोनों पक्षों की तरफ से जबरदस्त हिंसा हुई। सरकार को आपातकाल लगाना
पड़ा। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने उस पर और प्रतिबंध लगाए। शीत युद्ध के खात्मे और नामीबिया
की आजादी के बाद रंगभेदी सरकार पर पड़ने वाला दबाव असहनीय हो गया। गोरे मतदाता भी
अब पूरी तरह से उसके साथ नहीं थे। डच मूल वाला कट्टर राष्ट्रवादी बोअर
अफ्रीकानेर समुदाय भी वर्गीय विभाजनों के कारण अपनी पहले जैसी एकता खो चुका था।
नैशनल पार्टी के भीतर दक्षिणपंथियों को अपेक्षाकृत उदार एफ.डब्ल्यू. डि क्लार्क के
लिए जगह छोड़नी पड़ी।
11 फरवरी, 1990 को 27 वर्ष के दीर्घकालिक कारावास के बाद नेल्सन मंडेला को रिहा कर दिया गया। यह घटना सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में एक मील का पत्थर मानी जा सकती है। इसके पश्चात् संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्देशों के अनुसार दक्षिण अफ्रीका ने नामिबिया, जो कि लंबे समय से उसके कब्जे में था, को स्वतंत्र कर दिया और इस तरह नामिबिया अधिकृत रूप से 21 मार्च, 1990 में आजाद हो गया। एएनसी अपना रैडिकल संघर्ष (जिसमें हथियारबंद लड़ाई भी शामिल थी) खत्म करने पर राजी हो गयी। अंतत: दीर्घकालीन समझौता वार्ताओं कई चरणों की संवाद श्रृंखलाओं के बाद 1994 में व्यापक आमचुनाव हुये बहुसंख्यक कालों को मताधिकार मिला, जिसमें जबरदस्त जीत हासिल करके एएनसी ने सत्ता संभाली और नेलसन मंडेला रंगभेद विहीन दक्षिण अफ्रीका के पहले राष्ट्रपति बने। ओर विश्व इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में याद रखे जाने वाली रंगभेद नीति (Apartheid) का अंत हो गया।
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