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संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations Organisation)

बीसवीं सदी का विश्व

संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations Organisation.) U.N.O.

राष्ट्र संघ की स्थापना से विश्व के राजनीतिज्ञों को विश्व शान्ति के सन्दर्भ में बड़ी आशाएँ थीं, परन्तु उसकी स्थापना के दो दशक भी पूरे नहीं हो पाये थे कि विश्व को दूसरे विश्व युद्ध की भयंकर ज्वाला में पुनः भस्मीकृत होना पड़ा और दूसरे विश्व युद्ध का सारा दोष राष्ट्र संघ पर थोपा गया। राजनीतिज्ञ कहने लगे कि विश्व शान्ति का प्रहरी राष्ट्र संघ अपने कर्तव्यपालन में असफल रहा किन्तु इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री तथा विश्व के महान् राजनीतिज्ञ स्वः चर्चिल की उस समय धारणा थी कि राष्ट्र संघ युद्ध रोकने में अत्यधिक कुशल संस्था थी, यदि उसका उचित ढंग से संचालन किया गया होता। यही कारण था कि जब दूसरा विश्व युद्ध अपना भयंकर प्रकोप प्रदर्शित कर रहा था, उस समय ही विश्व के शक्तिशाली देशों के महान् राजनीतिज्ञों ने राष्ट्र संघ के असफल रहने पर भी वैसा ही एक अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संघ के गठन के विषय में विचार करना आरम्भ कर दिया था। पर्याप्त वाद-विवाद के पश्चात् विश्व के राजनीतिज्ञ अपने विचार को साकार रूप दे सके, जिससे 24 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O.) की स्थापना हो गयी।

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना (Establishment of U.N.O.)

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के लिये विश्व की महान् शक्तियों को कई सम्मेलन करने पड़े। जिस अन्तर्राष्ट्रीय संगठन का बीजारोपण एक प्रकार से एटलाण्टिक चार्टर (अगस्त, 1941) के साथ हो गया था, वह 24 अक्टूबर, 1945 को अन्तर्राष्ट्रीय रंग-मंच पर साकार रूप में प्रस्तुत हुआ। सेन-फ्रांसिसको सम्मेलन अन्य सम्मेलनों से अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस सम्मेलन में इसके सदस्य राष्ट्र उपस्थित हुए थे। इसी सम्मेलन में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर पर हस्ताक्षर किये थे और संघ का महत्वपूर्ण चार्टर भी इसी सम्मेलन में तैयार हुआ था। 24 अक्टूबर, 1945 को इसका चार्टर लागू किया गया। अत: 24 अक्टूबर को ही इसका स्थापना दिवस मनाया जाता है। इसकी प्रथम बैठक 10 फरवरी, 1945 को लन्दन के वैस्टमिनिस्टर हॉल में हुई। उसकी समाप्ति 15 फरवरी को हुई थी। संघ का प्रधान कार्यालय अमेरिका के न्यूयार्क नगर में है।

संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर (Charter of U.N.O.)

संयुक्त राष्ट्र संघ के विधान को चार्टर कहते हैं। इस चार्टर में कुल 111 अनुच्छेद हैं जो कि 18 अध्यायों में विभक्त हैं । राष्ट्र संघ की प्रसंविदा में केवल 26 धाराएँ ही थीं। चार्टर से संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन, कार्यप्रणाली, उद्देश्यों आदि की विशद् जानकारी मिलती है।

चार्टर की प्रस्तावना (Proposal of Charter)

‘‘हम संयुक्त राष्ट्रों के लोगों ने यह दृढ़ निश्चय किया है कि भावी पीढ़ियों को उस युद्ध की पीड़ा और कष्टों से बचाने का, जिसके कारण हमारे जीवन में दो बार मानव जाति को अपार दुःख भोगना पड़ा।’’

‘‘मूलभूत मानवीय अधिकारों, मानव प्रतिष्ठा और महत्व, स्त्री-पुरुषों तथा छोटे-बड़े राष्ट्रों के समान अधिकारों में अपनी निष्ठा की पुन: पुष्टि करने का और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने का, जिनसे सन्धियों और अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के अन्तर्गत आने वाले उत्तरदायित्वों के प्रति न्याय और सम्मान का दृष्टिकोण ग्रहण किया जा सके और अधिक विस्तृत स्वतन्त्रता के वातावरण में सामाजिक प्रगति को बढ़ावा देने तथा जीवनयापन के अधिक उत्तम मानदण्ड स्थापित करने का और इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिये सहिष्णुता बरतने, अच्छे पड़ौसी की तरह एक-दूसरे के साथ शान्तिपूर्वक रहने, और अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा की स्थापना हेतु अपनी शक्ति को एक जुट करने, और सिद्धान्तों एवं कार्यप्रणाली का निर्धारण कर इस बारे में पूर्ण आश्वस्त होने का कि व्यापक और समान हित को छोड़कर अन्य किसी परिस्थिति में सशस्त्र सेनाओं का उपयोग नहीं किया जायेगा और समस्त संसार के निवासियों को आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति के पथ पर उन्मुख रहने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रणाली का उपयोग किया जायेगा। हमारी अपनी सरकारें संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर से सहमत हो गयी हैं तथा इसके द्वारा एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन स्थापित करती हैं जो संयुक्त राष्ट्र संघ कहलायेगा।’’

संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्य (Objectives of U.N.O.)

चार्टर के प्रथम अनुच्छेद में उसके संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्य स्पष्ट किये गये हैं-

"अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा स्थापित करना, राष्ट्रों के बीच जनसमुदाय के लिये समान अधिकारों तथा आत्मनिर्णय के सिद्धान्त पर आधारित मित्रतापूर्ण सम्बन्धों का विकास करना, आर्थिक, सामाजिक अथवा मानव जाति के लिये प्रेम आदि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना तथा इन सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिये राष्ट्रों के कार्यों को समन्वित करने के उद्देश्य से एक केन्द्र का कार्य करना।"

चार्टर की धारा एक में संयुक्त राष्ट्र संघ के चार मौलिक उद्देश्य बताये गये हैं, जो निम्नलिखित हैं-

(1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा बनाये रखना। शान्ति के संकटों को प्रभावपूर्ण एवं सामूहिक प्रयत्नों से रोकना। शान्ति भंग करने वाली शक्तियों को दबाना तथा अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को सुलझाना।

(2) व्यापक शान्ति को प्रोत्साहित करते हुए समानता और स्वतन्त्रता के आधार पर राष्ट्रों के बीच मैत्री सम्बन्धों को बढ़ावा देना।

(3) विश्व की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानसिक समस्याओं को हल करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करना तथा मानव अधिकारों और मौलिक स्वतन्त्रता को बिना किसी भेद-भाव के प्रोत्साहित करना।

(4) संयुक्त राष्ट्र संघ (U.N.O.) को एक ऐसा केन्द्र बनाना जहाँ उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये राष्ट्रों के अलग-अलग कार्यों में समन्वय स्थापित किया जा सकें।

Sanyukt-rashtra-sangh, sanyukt rashtra sangh ke uddeshy, sanyukt rashtra sangh ke sidhant
संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations Organisation)


संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धान्त (Principle of U.N.O.)

प्रत्येक संगठन किन्हीं निश्चित सिद्धान्तों पर आधृत होता है। चार्टर के द्वितीय अनुच्छेद में यह घोषित किया गया है कि संयुक्त राष्ट्र संघ अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये किन सिद्धान्तों के अनुरूप कार्य करेगा। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(1) यह संघ अपने सदस्य राष्ट्रों में समानता का सिद्धान्त रखेगा।

(2) प्रत्येक सदस्य राष्ट्र संघ के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझेगा।

(3) संघ के सदस्य राष्ट्र अपने झगड़ों को शान्तिपूर्ण तरीकों से सुलझायेंगे।

(4) एक राष्ट्र दूसरे सदस्य राष्ट्र की स्वतन्त्रता एवं प्रादेशिक अखण्डता का अतिक्रमण नहीं करेगा।

(5) एक सदस्य राष्ट्र संघ के चार्टर के विरुद्ध आचरण करने वाले दूसरे सदस्य राष्ट्र को किसी भी प्रकार की सहायता नहीं करेगा।

(6) विश्व शान्ति को संकट उत्पन्न करने वाले गैर-सदस्य राज्य के कार्यों पर यह संघ निगाह रखेगा।

(7) संघ किसी भी देश के आन्तरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा।

संयुक्त राष्ट्र संघ के अंग एवं उनके कार्य (Organs of the U.N.O. and their works)

संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्य संख्या प्रारम्भ में 51 थी, अब इसकी संख्या 180 से अधिक है। इतने अधिक सदस्य आजतक किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय संघ के नहीं रहे हैं। संघ का कार्य क्षेत्र भी विश्व व्यापक है और विश्व शान्ति बनाये रखना कोई आसान नहीं है। राजनीतिक कार्यों के अतिरिक्त संघ सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यों की ओर भी पर्याप्त ध्यान देता है। अत: अपने व्यापक कार्यों को सुचारू रूप से सम्पादित करने की दृष्टि से संघ ने अपने कार्यों को संस्थाओं के माध्यम से विभक्त कर दिया है। ये संस्थाएँ छ: हैं-

1. महासभा (General Assembly)-

यह संयुक्त राष्ट्र संघ का महत्वपूर्ण अंग है, इसको व्यवस्थापिका सभा कहा जा सकता है। संघ के सभी सदस्य इसके भी सदस्य होते हैं। प्रतिवर्ष महासभा का एक नियमित अधिवेशन सितम्बर के तीसरे मंगलवार को शुरू होता है। प्रत्येक अधिवेशन के प्रारम्भ में महासभा अधिवेशन के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्षों का चुनाव करती है। आठवें अधिवेशन के अध्यक्ष पद पर भारत की श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित चुनी गयी थीं। महासभा का विशेष अधिवेशन बुलाने का भी प्रावधान है। सुरक्षा परिषद् अथवा संघ के सदस्यों के बहुमत द्वारा अनुरोध करने पर महासचिव द्वारा विशेष अधिवेशन बुलाया जा सकता है। 24 घण्टे के भीतर आपातकालीन अधिवेशन भी बुलाया जा सकता है।

महासभा के कार्य एवं शक्तियाँ-

महासभा की शक्तियों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

(1) स्वतन्त्र रूप से प्राप्त शक्तियाँ (Freehold powers)- महासभा को प्राप्त इन शक्तियों के अनुसार वह स्वयं स्वतन्त्र रूप से विचार कर अन्तिम निर्णय ले सकती है। इन अधिकारों के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र संघ का बजट स्वीकार करने का अधिकार, न्यास परिषद् को आदेश देने व उसके कार्यों की देख-रेख करने का अधिकार, आर्थिक व सामाजिक सहयोग देने का अधिकार आदि सम्मिलित हैं।

(2) सुरक्षा परिषद् के साथ प्रयोग की जाने वाली शक्तियाँ (Powers used with security council)- इसके अन्तर्गत संघ में नवीन सदस्य का प्रवेश, किसी वर्तमान सदस्य का निष्कासन, अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति, महासचिव की नियुक्ति तथा संघ के विधान में परिवर्तन सम्बन्धी कार्य आते हैं।

(3) शक्ति तथा सुरक्षा से सम्बन्धित शक्तियाँ (Powers for peace and security)- विधान के अनुसार शान्ति व सुरक्षा का सीधा उत्तरदायित्व सुरक्षा परिषद् का है। फिर भी अप्रत्यक्ष रूप से महासभा भी शान्ति एवं सुरक्षा के हित में सीमित कार्यवाही कर सकती है। शान्ति भंग करने वाले झगड़ों के विषय में महासभा वाद-विवाद कर सकती है तथा सुरक्षा परिषद् एवं सम्बन्धित राज्यों से उसके शान्तिपूर्ण निपटारे के लिये अनुरोध भी कर सकती है। मूल विधान में शान्ति एवं सुरक्षा के सम्बन्ध में महासभा के अधिकार अत्यन्त सीमित थे; किन्तु इस क्षेत्र में 3 नवम्बर, 1950 ई. को महासभा द्वारा स्वीकृत "शान्ति के लिए एकता प्रस्ताव" (Uniting for Peace Resolution) द्वारा महासभा की शक्तियों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है।

महासभा के कार्यों का निम्नानुसार वर्गीकरण किया जा सकता है-

(1) विश्व शान्ति बनाये रखने का प्रयत्न करना।

(2) संयुक्त राष्ट्र संघ के विविध अंगों के पदाधिकारियों व सदस्यों का निर्वाचन करना।

(3) सम्बद्ध सभी अभिकरणों, अन्य अंगों के कार्यों पर निगरानी रखना।

(4) अन्य कार्य- बजट, शिक्षा, स्वास्थ्य, मौलिक स्वतन्त्रता, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक क्षेत्रों के सन्दर्भ में।

इस प्रकार महासभा का अधिकार क्षेत्र काफी विस्तृत है। इसकी एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसकी बैठक में विश्व के छोटे व बड़े राष्ट्र बिना किसी भेद-भाव के अपने विचार स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त कर सकते हैं । यह विश्व की राजनीति का केवल एक सभा भवन है।

2.  सुरक्षा परिषद् (Security council)-

यह संघ की सबसे महत्वपूर्ण संस्था है। इसकी सदस्य संख्या पहले ग्यारह थी, जिसमें 5 स्थायी तथा 6 अस्थायी सदस्य। लेकिन अब सदस्य संख्या 15 हो गयी है, जिसमें 5 स्थायी तथा 10 अस्थायी सदस्य हैं। अस्थायी सदस्यों का चुनाव महासभा के सदस्यों में से दो वर्ष के लिये महासभा के सदस्यों द्वारा ही किया जाता है। ये अस्थायी सदस्य विभिन्न देशों से निर्वाचित होते हैं। एशिया व अफ्रीका महाद्वीपों में से 5 सदस्य निर्वाचित होते हैं; लेकिन अमेरिका से 2 तथा पश्चिमी यूरोप व अन्य देशों से 3 सदस्य निर्वाचित होते हैं।

मतदान प्रणाली तथा निषेधाधिकार (Veto power)-

महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय हेतु भी 9 अस्थायी सदस्यों के स्वीकारात्मक मत अवश्य सम्मिलित होने चाहिए। 5 स्थायी सदस्यों के स्वीकारात्मक मत अवश्य सम्मिलित होने चाहिये। 5 स्थायी सदस्यों में से कोई एक भी किसी महत्वपूर्ण विषय पर विपक्ष में मत दे देता है तो वह विषय अस्वीकृत समझा जायेगा, इसे ही निषेधाधिकार का प्रयोग (Use of Veto) कहते हैं। अत: कार्यप्रणाली सम्बन्धी गौण विषयों को छोड़कर शेष सभी विषयों पर पाँच स्थायी सदस्यों में मतैक्य आवश्यक है। यदि स्थायी सदस्यों में से कोई बैठक में अनुपस्थित हो या मतदान न करे तो इसे निषेधाधिकार का प्रयोग नहीं माना जाता है।

सुरक्षा परिषद् के कार्य एवं शक्तियाँ-

सुरक्षा परिषद् के निम्नलिखित कार्य हैं-

(1) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति का प्रयत्न- सुरक्षा परिषद् का मुख्य कार्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को स्थापित रखना है। इसे अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष और विवाद उत्पन्न करने वाली किसी भी परिस्थिति या झगड़े की जाँच का पूरा अधिकार दिया गया है। चार्टर की धारा 24 में ही यह उल्लेख किया गया है कि सदस्य राज्य परिषद् के निर्णयों को मानने हेतु प्रतिज्ञाबद्ध हैं। चार्टर की अवहेलना होने पर परिषद् समुचित कदम उठा सकती है। सर्वप्रथम यह समझौते का प्रयत्न करती है। इसमें असफल होने पर वह सशस्त्र सेनाओं का भी प्रयोग करती है।

(2) शान्ति भंग होने के खतरे को टालना- शान्ति भंग होने के खतरे को टालना परिषद् का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य है। शान्ति भंग होने की आशंका होने पर परिषद् दोनों पक्षों में पारस्परिक बातचीत, मध्यस्थता, निरीक्षण आदि तरीकों से इसका समाधान करने का प्रयत्न करती है। आवश्यक सुझाव देकर विवाद के समाधान का प्रयत्न करती है।

(3) अन्य कार्य तथा शक्तियाँ- सुरक्षा परिषद् को अपने निर्णय स्वयं ही क्रियान्वित करने होते हैं। शान्ति भंग होने की आशंका पर वह विवाद को जाँच करती है तथा इस विषय में महासचिव से सहयोग ले सकती है। जाँच की रिपोर्ट महासभा को दी जा सकती है। परिषद् स्वयं ही योजनाएँ बनाती है तथा स्वयं ही उनकी क्रियान्विति करती है। महासभा को वार्षिक एवं विशेष प्रतिवेदन भेजना, महासभा को महासचिव की नियुक्ति के विषय में सिफारिश करना, महासभा के साथ मिलकर अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों को चुनना, महासभा के नवीन सदस्य के प्रवेश की अनुशंसा करना, वर्तमान सदस्य के निलम्बन व निष्कासन की महासभा को अनुशंसा करना आदि अनेक कार्य सुरक्षा परिषद् सम्पादित करती है।

3. आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (Economic and social council)-

इस परिषद् की स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग व राष्ट्रों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने हेतु की गयी है। इसका प्रमुख उद्देश्य पिछड़े देशों की आर्थिक व सामाजिक अवस्था को उन्नत करना है। इसकी सदस्य संख्या 18 थी, पर 1965 में यह संख्या 27 कर दी गई। परिषद् के सदस्यों का निर्वाचन तीन वर्ष के लिये होता है। प्रतिवर्ष 9 सदस्य अवधि निवृत होते हैं और प्रतिवर्ष महासभा इतने ही सदस्यों का चुनाव करती है। अवधि निवृत होने वाला सदस्य पुनः चुनाव लड़ने का पात्र है।

उद्देश्य एवं कार्य (Objectives and functions)-

इस संस्था को संघ के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य सम्बन्धी तथा अन्य विभिन्न प्रकार के कार्यों को सम्पादित करने का उत्तरदायित्व सौंपा है। दीनानाथ वर्मा के अनुसार, "यदि सुरक्षा परिषद् का कार्य विश्व को युद्ध के आतंक से बचाना है, तो आर्थिक और सामाजिक परिषद् मानव की गरीबी, बीमारी आदि से रक्षा करती है और इस प्रकार के युद्ध मानसिक कारणों के उन्मूलन का प्रयल करती है।" इसके कार्य निम्नलिखित हैं।

(i) सुरक्षा परिषद् के अनुरोध पर किसी आक्रमणकारी राज्य पर आर्थिक दण्ड लगाने में उसकी सहायता करना।

(ii) संघ के अन्तर्गत कार्य करने वाली संस्थाओं के बीच सम्बन्ध बनाये रखना तथा संघ के विभिन्न अभिकरणों से रिपोर्ट प्राप्त कर अपनी टिपणी सहित महासभा को भेजना।

(iii) सौंपे गये कार्य को सम्पन्न कराने के लिए सम्बन्धित विषयों का अध्ययन कर रिपोर्ट एवं सिफारिश प्रस्तुत करना।

(iv) संघ के सदस्य राज्यों को आर्थिक सहायता एवं तकनीकी परामर्श देना।

(v) अपने कार्य क्षेत्र के भीतर, किसी विषय पर विमर्श के लिये अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाना।

(vi) महासभा, सुरक्ष परिषद् तथा न्याय परिषद् की प्रार्थना पर उनकी सहायता करना एवं आवश्यक सूचना देना।

(vii) स्वतन्त्रता एवं मानव अधिकारों के विकास के लिये सघन कार्य करना।

(viii) अपनी कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में नियम बनाना तथा लागू करना।

सहायक संस्थाएँ (Subsidiary institutions)-

परिषद् का कार्य अनेक समितियों, आयोगों और कई दूसरी सहायक संस्थाओं द्वारा सम्पन्न होता है। परिषद् के मुख्य आयोग हैं-

(i) सांख्यिकी आयोग,

(ii) जनगणना आयोग,

(iii) मानव अधिकार आयोग,

(iv) सामाजिक विकास आयोग,

(v) महिलाओं का स्तर विषयक आयोग,

(vi) मादक द्रव्यों सम्बन्धी आयोग।

4. न्यास परिषद् (Trusteeship council)-

यह परिषद् राष्ट्र संघ के मेन्डेट कमीशन के स्थान पर स्थापित हुई है। यह परिषद् उन प्रदेशों के शासन प्रबन्ध के लिये उत्तरदायी है, जो 1. राष्ट्र संघ के शासनाधीन रहे हों। 2. केन्द्रीय शक्तियों द्वारा अपहत किये गये हों और सुरक्षा परिषद् की अधीनता में स्वेच्छा से आये हों। सभ्य व विकसित देशों के संरक्षण में कुछ पिछड़े देश दे दिये जाते हैं। उन सभ्य देशों का यह पुनीत कर्त्तव्य होता है कि उन पिछड़े देशों के विकास में वे यथासम्भव सहायता दें और उस समय तक उनके ट्रस्टी बने रहें जब तक कि वे अपना शासन सम्भालने के योग्य न हो जावें।

न्यास परिषद् के उद्देश्य-

न्यास परिषद् के मूल उद्देश्य निम्नांकित हैं-

(i) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा को बढ़ाना।

(ii) न्यास प्रदेशों के निवासियों का स्वशासन की दिशा में विकास करना।

(iii) मानव अधिकारों और मूल स्वतन्त्रताओं के प्रति सम्मान की भावना को प्रोत्साहन देना तथा यह भाव पैदा करना कि संसार के सभी लोग अन्योन्याश्रित हैं।

(iv) सामाजिक, आर्थिक और वाणिज्यिक मामलों में संयुक्त राष्ट्र संघ के सब सदस्यों और उनके नागरिकों के प्रति समानता के व्यवहार का विश्वास दिलाना।

न्यास परिषद् के कार्य एवं शक्तियाँ-

(i) न्यास परिषद् महासभा से निर्देश ग्रहण करती है एवं न्यास प्रदेशों को देख रेख करती है। प्रशासकीय अधिकारी प्रतिवर्ष अपने प्रतिवेदन परिषद् को देते हैं, परिषद् उन पर विचार- विमर्श के पश्चात् महासभा एवं सुरक्षा परिषद् को विभिन्न अनुशंसाएँ करती है।

(ii) न्यास प्रदेश के निवासियों के आवेदन-पत्रों पर विचार करती है।

(iii) न्यास प्रदेशों में समय-समय पर निरीक्षण मण्डल भेजती है।

न्यास परिषद् की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि अधिकांश न्यास प्रदेश 15-20 वर्षों की अल्पावधि में ही स्वतन्त्र हो गये।

5. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय (International court)-

अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र संघ के न्याय क्षेत्र में प्रमुख अंग है। इसमें 15 न्यायाधीश होते हैं। एक राज्य के दो न्यायाधीश एक साथ नहीं हो सकते हैं। एक न्यायाधीश का कार्यकाल 9 वर्ष का होता है। किन्तु वे पुनः निर्वाचित हो सकते हैं। न्यायालय की कार्यवाही के लिये 9 न्यायाधीशों की उपस्थिति आवश्यक है।

क्षेत्राधिकार (Jurisdiction)-

अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का क्षेत्राधिकार निम्नांकित शीर्षकों में बाँटा जा सकता है-

(1) परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार- न्यायालय महासभा, सुरक्षा परिषद् तथा अन्य संस्थाओं द्वारा सौंपे गये प्रश्नों पर अपना परामर्श देता है किन्तु यह परामर्श बाध्यकारी नहीं होता।

(2) विभिन्न विवादों की सुनवाई का अधिकार- अपने सामने प्रस्तुत विवादों की यह न्यायालय सुनवाई करता है। इस न्यायालय के सम्मुख केवल राज्य ही वादी और प्रतिवादी बनकर आ सकते हैं। इसके कार्य क्षेत्र में केवल वे विवाद आते हैं जो राज्यों द्वारा उसके सम्मुख प्रस्तुत किये जायें। चार्टर में दिये गये विषय, सन्धियों और समझौतों को भी न्यायालय के सुपुर्द किया जा सकता है। चार प्रकार के विवाद न्यायालय के सामने लाये जा सकते हैं-

(i) किसी सन्धि की व्याख्या करना।

(ii) अन्तर्राष्ट्रीय विधि का प्रश्न।

(ii) किसी ऐसी बात का उठना जिसके पुष्ट होने पर अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व भंग होने की आशंकाएँ प्रस्तुत होती हैं।

(iv) किसी अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व के भंग होने की स्थिति में क्षतिपूर्ति के रूप में और मात्रा का निर्धारण। इसे कुछ हद तक अनिवार्य क्षेत्राधिकार कहा जा सकता है।

(3) ऐच्छिक क्षेत्राधिकार- अधिकांशत: इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार ऐच्छिक होता है। न्यायालय तभी कोई विवाद की सुनवाई करता है जब सम्बन्धित दोनों पक्ष अपनी सहमति दे चुके हों। एक पक्ष का इच्छा पर न्यायालय कोई विवाद नहीं सुनता।

6. सचिवालय (Secretariat)-

संघ के कार्यों के सतत् सम्पादन, नियोजन, नियन्त्रण आदि के लिये सचिवालय की स्थापना की गयी है। सचिवालय में वे अधिकारी और कर्मचारी सम्मिलित होते हैं , जिनकी संघ के कार्यों के सम्पादनार्थ नियमानुसार नियुक्ति की जाती है। सचिवालय का सर्वोच्च पदाधिकारी महासचिव होता है। महामंत्री का चुनाव परिषद् की सिफारिश पर महासभा करती है। महामंत्री का कार्य महासभा और अन्य तीन परिषदों की व्यवस्था करना है। सचिवालय का कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिए इसमें बहुत से कर्मचारी होते हैं। कर्मचारी लगभग संघ के सभी सदस्य राज्यों से लिये जाते हैं।

सचिवालय आठ भागों में विभक है-

(i) सुरक्षा परिषद् से सम्बद्ध विषयों का विभाग।

(ii) प्रशासकीय तथा वित्तीय सेवायें।

(ii) सम्मेलन तथा सामान्य सेवायें।

(iv) आर्थिक विषयों से सम्बद्ध विभाग।

(v) सामाजिक विषयों का विभाग।

(vi) कानूनी विभाग।

(vii) सार्वजनिक सूचना विभाग।

(viii) न्यासी तथा गैर-स्वशासन प्राप्त क्षेत्रों की सूचना का विभाग।

सचिवालय के कार्य एवं शक्तियाँ-

महासचिव सचिवालय का प्रधान ही नहीं बल्कि विश्व संस्था के कार्यों का समन्वय सूत्र भी है। महासचिव की राजनीतिक भूमिका का इतना अधिक विकास हुआ है कि मॉरगेन्थाउ ने तो महासचिव को संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रधानमंत्री उपमा से विभूषित कर दिया।

सचिवालय के कार्य निम्नलिखित कार्य हैं-

(i) अनुच्छेद 99 के अनुसार सुरक्षा परिषद का ध्यान किसी मामले की ओर आकर्षित करना, जिससे अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के लिए खतरा पैदा होने की आशंका हो।

(ii) अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को छोड़कर संघ के सभी अंगों की बैठकों में प्रमुख अधिशासी अधिकारी के रूप में भाग लेना और इन अंगों द्वारा सुपुर्द कार्य को पूरा करना।

(iii) संघ के कार्यों के विषय में महासभा को वार्षिक प्रतिवेदन देना।

(iv) महासभा द्वारा निर्मित विनिमयों के अनुसार अधिकारियों/कर्मचारियों की नियुक्ति करना।

सचिवालय की शक्तियाँ-

(i) किसी भी विवाद को सुरक्षा परिषद् की अस्थायी सूची में रखना।

(ii) राजनीतिक निर्णय लेना।

(iii) जिन आर्थिक व सामाजिक घटनाओं का राजनीतिक परिणाम निकलने की सम्भावना हो, उन्हें सुरक्षा परिषद् के सामने रखना।

(iv) अपनी शक्तियों के प्रयोग से पूर्व आवश्यक पूछताछ एवं खोजबीन करना।

(v) यह निश्चय करना कि कोई समस्या सुरक्षा परिषद् के समक्ष रखने से पहले औपचारिक वार्तालाप भी किया जाये।

(vi) अपने कर्तव्यों के निष्पादनार्थ आवश्यक घोषणा करना या सुझाव रखना अथवा सुरक्षा परिषद के विचारार्थ प्रारूप प्रस्ताव रखना।

(vii) सुरक्षा परिषद के मंच से विश्व जनमत को सम्बोधित करते हुए शान्ति के लिये अपील करना।

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