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वर्साय की सन्धि

बीसवीं सदी का विश्व

वर्साय व्यवस्था (वर्साय की सन्धि)

वर्साय की सन्धि का प्रारूप 7 मई को जर्मन प्रतिनिधियों को सौंपा गया था। जर्मन प्रतिनिधिमण्डल अपने विदेश मंत्री वॉन ब्रोकडोर्फ-राजाओं के नेतृत्व में 30 अप्रेल को वर्साय पहुँचा था। जर्मन प्रतिनिधियों को 'ट्रायनन पैलेस होटल' में ठहराया गया और इस होटल को काँटेदार तारों से घेर दिया गया तथा जर्मन प्रतिनिधियों को किसी भी देश के प्रतिनिधि अथवा पत्रकार से सम्पर्क स्थापित करने से मना कर दिया गया। एक प्रकार से उन्हें नजरबन्द कैदियों की भाँति रखा गया। सन्धि के प्रारूप को तैयार देखकर जर्मन प्रतिनिधियों को बड़ी निराशा हुई क्योंकि वे इस विश्वास के साथ आए थे कि सन्धि की शर्ते आमने-सामने के वार्तालाप के बाद ही तय होंगी। जर्मन प्रतिनिधियों को कहा गया कि वे तीन सप्ताह के भीतर सन्धि प्रस्तावों पर अपना लिखित वक्तव्य दे दें। सन्धि की शर्तों ने समस्त जर्मन-जनता को विचलित कर दिया। जर्मनी के राष्ट्रपति ने इन शर्तों को असह्य, घातक एवं पूर्ति के अयोग्य बताया।

इस पर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज ने धमकी भरे स्वर में कहा, "जर्मन लोग कहते हैं कि वे सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं करेंगे। जर्मनी के राजनीतिज्ञ भी यही बात करते हैं। लेकिन हम लोग कहते हैं महानुभावों! आपको इस पर हस्ताक्षर करना ही है। अगर आप वर्साय में ऐसा नहीं करते हैं तो आपको बर्लिन में करना ही होगा।" 29 मई को जर्मन प्रतिनिधिमण्डल ने अपनी आलोचना मित्रराष्ट्रों को प्रस्ताव कर दी। मित्र राष्ट्रों ने मामूली संशोधन स्वीकार कर लिए और सन्धि का प्रारूप वापस लौटा दिया और यह धमकी भी दी गई कि यदि जर्मनी ने पाँच दिन के अन्दर सन्धि पर हस्ताक्षर नहीं किए तो पुन: युद्ध छेड़ दिया जाएगा। जर्मनी की तत्कालीन शिडमान सरकार ने सन्धि को अस्वीकार करते हुए त्यागपत्र दे दिया। अन्त में गुस्टावबौर ने नई सरकार बनाई और सन्धि को स्वीकार किया। 28 जून, 1919 को नई सरकार के प्रतिनिधियों ने वर्साय के शीशमहल में सन्धि पर हस्ताक्षर किए। हस्ताक्षर करने के बाद जर्मन प्रतिनिधि ने कहा, "हमारे प्रति फैलाई गई उग्र घृणा की भावना से हम आज सुपरिचित है। मेरा देश दबाव के कारण आत्म-समर्पण कर रहा है, किन्तु वह यह कभी नहीं भूलेगा कि यह अन्यायपूर्ण सन्धि है।"

वर्साय की सन्धि में 15 भाग, 439 धाराएँ और 80,000 शब्द थे । इस सन्धि-पत्र में जर्मनी के साथ की गई व्यवस्थाओं के अतिरिक्त राष्ट्रसंघ, अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन और अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का संविधान तथा उससे सम्बन्धित व्यवस्थाएँ भी सम्मिलित थीं।

प्रादेशिक व्यवस्था-

सन् 1870-71 के फ्रेंको-प्रशियन युद्ध में फ्रांस को जर्मनी से पराजित होना पड़ा था और परिणामस्वरूप अल्सास और लोरेन के प्रदेशों से हाथ धोना पड़ा था। वर्साय सन्धि द्वारा जर्मनी को इन दोनों प्रान्तों से हाथ धोना पड़ा और ये प्रान्त पुन: फ्रांस को सौंप दिए गए। सार (Saar) के औद्योगिक प्रदेश पर जर्मनी की सर्वोच्च सत्ता को तो स्वीकार किया गया परन्तु उसका शासन प्रबन्ध राष्ट्रसंघ के एक आयोग को सौंपा गया। सार प्रदेश की कोयले की खानों का स्वामित्व 15 वर्ष की अवधि के लिए फ्रांस को सौंपा गया। इसके बाद सार के निवासियों को यह तय करने का अधिकार दिया गया कि वे फ्रांस के साथ रहना चाहते हैं अथवा जर्मनी के साथ चूँकि अधिकांश लोग जर्मन थे, अत: यह पक्की सम्भावना थी कि वे जर्मनी के साथ मिलेंगे और 1935 में ऐसा ही हुआ। मार्सनेट, यूपेन तथा मालमेडी नामक जर्मन क्षेत्र बेल्जियम को जर्मन आक्रमण से हुई क्षति की एवज में दिए गए।

1864 ई. में जर्मनी ने डेनमार्क से श्लेसविग प्रान्त छीनकर अपने राज्य में मिला लिया था। वर्साय की सन्धि के अनुसार इस प्रान्त में जनमत संग्रह किया गया और परिणामस्वरूप यह प्रान्त डेनमार्क को वापस लौटा दिया गया। इस प्रकार युद्ध में सम्मिलित हुए बिना ही डेनमार्क को प्रादेशिक लाभ प्राप्त हो गया।

जर्मनी के उपनिवेश मैंडेट प्रणाली के अन्तर्गत ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, दक्षिण अफ्रीकन संघ, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड और जापान को सौंप दिए गये। मैंडेट प्रणाली का अर्थ यह था कि पिछड़े हुए देशों को राष्ट्रसंघ की ओर से ये देश पवित्र धरोहर के रूप में सौंपे गए हैं। इस प्रणाली के अन्तर्गत जर्मन दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका, दक्षिण अफ्रीकन संघ को प्राप्त हुआ। जर्मन पूर्वी अफ्रीका ग्रेट ब्रिटेन को सौंपा गया। टोगोलैण्ड तथा कैमरून फ्रांस और ग्रेट ब्रिटेन को सौंप गए। प्रशान्त महासागर में भूमध्य रेखा के दक्षिण के जर्मन टापू आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड को सौंपे गए और भूमध्य रेखा के उत्तर के टापू और चीन के शाण्टुंग प्रदेश में जर्मन अधिकार जापान को प्रदान किए गए।

वर्साय की प्रादेशिक व्यवस्था के अनुसार जर्मनी को यूरोप में 25,000 वर्ग मील से भी अधिक भूमि और लगभग 70 लाख नागरिकों से वंचित होना पड़ा। लगभग 65 प्रतिशत कच्चे लोहे, 45 प्रतिशत कोयले,72 प्रतिशत जस्ते, 57 प्रतिशत राँगे के कच्चे माल से हाथ धोना पड़ा। उसे अपने सारे उपनिवेशों से भी हाथ धोना पड़ा।

सैनिक व्यवस्थाएँ-

विल्सन का मत था कि भविष्य में सभी देश नि:शस्त्रीकरण की दिशा में सक्रिय प्रयत्न करेंगे। इंग्लैण्ड के अधिकांश विचारक भी इससे सहमत थे। परन्तु फ्रांस की हठधर्मी के कारण इस समस्या को भविष्य के लिए छोड़ दिया गया। अभी केवल जर्मनी को निःशस्त्र करना ही पर्याप्त समझा गया। वर्साय की सैनिक व्यवस्था के अन्तर्गत जर्मनी की जल, स्थल और वायुसेना पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाए गए। जर्मनी में अनिवार्य सैनिक सेवा को समाप्त कर दिया गया और यह व्यवस्था की गई कि आगामी बारह वर्ष तक जर्मनी की स्थल सेना एक लाख से अधिक नहीं होगी। सैनिक अधिकारियों को कम-से-कम 25 वर्ष तक और साधारण सैनिकों को 12 वर्ष तक सेना में रहना होगा। जर्मनी के प्रधान सैनिक कार्यालय को उठा दिया गया और अस्त्र-शस्त्र, गोला-बारूद तथा अन्य युद्ध-सामग्री का उत्पादन सीमित कर दिया गया। सभी प्रकार के टैंकों, लोहे की सैनिक कारों तथा लड़ाकू हवाई जहाजों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। वायुसेना से सम्बन्धित समस्त सामग्री को नष्ट कर दिया गया। जर्मन नौ-सेना को काफी कम कर दिया गया।

अब जर्मनी दस हजार टन के युद्ध पोतों, 6 क्रूजरों, 12 विध्वंसक पोतों और 12 टारपीडो नौकाओं से अधिक नहीं रख सकता था। पनडुब्बियाँ रखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया और उसके पास जो पनडुब्बियाँ थीं उन्हें या तो मित्र राष्ट्रों ने अपने अधिकार में ले लिया या फिर नष्ट कर दिया गया। जर्मन नौ-सेना की संख्या 15,000 तक सीमित कर दी गई। जर्मनी के सभी नौ-सैनिक अड्डों को समाप्त कर दिया गया। फ्रांस की सुरक्षा की दृष्टि से राइन नदी के बाएँ किनारे पर जर्मन प्रदेश में तथा दाएँ तट पर 50 किलोमीटर के भीतर असैनिकीकरण कर दिया गया। इस क्षेत्र में सेना रखने अथवा किलेबंदी करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

इस प्रकार वर्साय सन्धि के द्वारा सैनिक दृष्टि से जर्मनी को एकदम पंगु बना दिया गया। ई. एच. कार ने लिखा है कि "जर्मनी का जिस कठोरतापूर्वक और सम्पूर्ण रूप से निःशस्त्रीकरण किया गया, उतना और किसी देश का कभी नहीं किया गया था। वस्तुत: जर्मनी जैसे देश के लिए यह एक घोर अपमान था।"

आर्थिक व्यवस्था-

युद्ध बन्दी के सम्बन्ध में होने वाले प्रारम्भिक वार्तालाप के समय ही मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी को स्पष्ट रूप से बता दिया था कि जल, थल और नभ की लड़ाई के परिणामस्वरूप नागरिकों को जो हानि उठानी पड़ी है, उसकी पूर्ति जर्मनी को करनी पड़ेगी। इसमें फ्रांस तथा अन्य देशों के वीरान प्रान्तों को फिर से आबाद करने का व्यय, डुबोए गए जहाजों के पुनर्निर्माण का व्यय आदि भी सम्मिलित था। वर्साय सन्धि की धारा 231 में क्षतिपूर्ति के आधार को स्पष्ट करते हुए कहा गया है- "क्योंकि यह युद्ध जर्मनी और उसके सार्थियों द्वारा प्रारम्भ किया गया, अत: जर्मनी यह स्वीकार करता है कि इससे होने वाली क्षति के लिए वह तथा उसके साथी देश उत्तरदायी हैं।" परन्तु क्षतिपूर्ति की धनराशि का निर्धारण कठिन काम था, अत: यह काम एक क्षतिपूर्ति आयोग (Depuration Commission) को सौंप दिया गया। इस आयोग को 1 मई, 1921 तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी।

आयोग की रिपोर्ट के आने तक की अवधि के लिए यह तय किया गया कि जर्मनी अपने सोना, जहाज, जमानत, माल आदि के रूप में 5 अरब डॉलर की धनराशि मित्र राष्ट्रों को देगा। इसके अलावा जर्मनी को 5 वर्षों तक मित्र राष्ट्रों के लिए 20 लाख टन के जहाज प्रतिवर्ष बनाने होंगे। जर्मनी को 1600 अथवा उससे अधिक टनों के सभी व्यापारिक जहाज मित्र राष्ट्रों को सौंपने होंगे। जर्मनी को आगामी 10 वर्षों तक फ्रांस को 70 लाख टन, बेल्जियम को 80 लाख टन और इटली को 77 लाख टन कोयला प्रतिवर्ष देना होगा। इसके अतिरिक्त यह भी निश्चित किया गया कि मित्र राष्ट्रों के क्षतिग्रस्त क्षेत्रों के पुनिर्निर्माण के लिए जर्मनी को पर्याप्त मात्रा में मशीनें, औजार, पत्थर, ईंट, लकड़ी, स्टील, सीमेण्ट, चूना आदि सामान देना होगा। जर्मन उपनिवेशों तथा मित्र राष्ट्रों में जो भी सरकारी अथवा गैर सरकारी जर्मन पूँजी थी उसे जब्त कर लिया गया। मिस्र, मोरक्को और चीन में जर्मनी के विशेष व्यापारिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया।

श्री हेम्पडन जेक्सन ने लिखा है कि वर्साय सन्धि का प्रमुख अभिप्राय जर्मनी का आर्थिक ध्वंस करना था। वस्तुत: यह कथन काफी सही है, क्योंकि एक तरफ तो उसके औद्योगिक तथा औपनिवेशिक क्षेत्र छीन लिए गए, दूसरी तरफ उसके बड़े-बड़े कारखाने नष्ट कर दिए गए और तीसरी तरफ हर्जाने की रकम लाद दी गई। ऐसी परिस्थिति में उसका आर्थिक पतन नहीं होता तो और क्या होता?

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वर्साय की सन्धि


अन्य व्यवस्थाएँ-

अन्य व्यवस्थाओं में सर्वप्रथम धारा 231 है जिसमें अकेले जर्मनी को यह मानना पड़ा कि वह सारी तबाही और बरबादी के लिए दोषी थी। इस युद्ध की दोष-सम्बन्धी युद्ध-अपराध (War-guilt) धारा ने जिम्मेदारी-सम्बन्धी विवाद को और बढ़ा दिया। वस्तुतः जर्मन जनता ने कभी इस बात को स्वीकार नहीं किया कि युद्ध का वास्तविक उत्तरदायित्व जर्मन नेताओं पर था। वर्साय सन्धि में राष्ट्रसंघ की स्थापना सम्बन्धी प्रावधान रखे गए। रूस और जर्मनी के मध्य सम्पन्न ब्रेस्टलिटोवस्क की सन्धि को अमान्य ठहराया गया। इस सन्धि के द्वारा बेल्जियम, पोलैण्ड, यूगोस्लाविया और चेकोस्लोवाकिया की स्वतन्त्रता को मान्य ठहराया गया।

वर्साय सन्धि की आलोचना

वर्साय की सन्धि का अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग अर्थ है। एक ओर मित्र राष्ट्रों के पक्षपाती इसमें लोकतंत्र, राष्ट्रीय आत्म-निर्णय, न्याय, कानून का शासन और सैनिकवाद के विरुद्ध सुरक्षा की विजय समझते थे, दूसरी ओर कुछ लोग इसे प्रतिशोध की प्रवृत्ति, आर्थिक अवास्तविकता और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों पर जुल्म का प्रतीक समझते थे। वस्तुत: यह शान्ति सन्धि, आदर्शवादिता और नैतिकता दोनों का सम्मिश्रण थी और इसके साथ इसमें शक्ति-प्रतिद्वन्द्विता (Power-Politics) का भी पुट था। इस सन्धि से जिन लोगों को लाभ हुआ उन्होंने इसमें राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के स्वप्न को साकार होते देखा और जिन्हें नुकसान हुआ, उन्होंने इसे दुःखपूर्ण एवं लादी गयी सन्धि कहा।

लॉयड जार्ज ने ब्रिटिश संसद में कहा था कि "प्रस्तावित सन्धि को जर्मनी के साथ किसी प्रकार का अन्याय नहीं कहा जा सकता। इस सन्धि पर केवल वही अन्याय का आरोप लगा सकता है जो जर्मनी के युद्ध कार्यों को भी न्यायसंगत ही समझता हो।"

गैथोर्न हार्डी ने तो यहाँ तक कहा है कि "ऐसे आदर्श स्वरूप की शान्ति-सन्धि आज तक कभी नहीं की गई।" इसके विपरीत अनेक विद्वान् वर्साय सन्धि की कटु आलोचना करते हैं।

पण्डित जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, "मित्रराष्ट्र घृणा और प्रतिशोध की भावना से भरे हुए थे और पौण्ड भर मांस (Pound of Flesh) ही नहीं चाहते थे अपितु जर्मनी के अधमरे शरीर से खून की आखिरी बूंद तक ले लेना चाहते थे।"

इसी प्रकार, फिलिप स्नोडेन ने कहा है कि "यह एक शान्ति-सन्धि नहीं वरन् दूसरे युद्ध की घोषणा है। यह जनतंत्र तथा युद्ध में वीरगति पाने वालों के साथ विश्वासघात है।" वस्तुत: वर्साय की सन्धि में अनेक दोष थे।

1. एकपक्षीय समझौता-

वर्साय की सन्धि का एक प्रमुख दोष यह था कि इसकी शर्ते एकपक्षीय थीं। सन्धि की शर्ते मित्रराष्ट्रों के द्वारा तैयार की गई थीं और जर्मन प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श नहीं किया गया। उन्हें केवल हस्ताक्षर करने अथवा युद्ध को पुनः छेड़ने की धमकी भरा आदेश दिया गया था। जर्मनी पर जो शर्ते लादी गईं उन शर्तों से मित्रराष्ट्रों को मुक्त रखा गया। उदाहरणार्थ, नि:शस्त्रीकरण केवल जर्मनी के लिए था, मित्रराष्ट्रों के लिए नहीं। इसी प्रकार, युद्धकाल में दोनों पक्षों के द्वारा क्रूर कृत्य किए गए परन्तु केवल जर्मन लोगों पर ही अभियोग चलाए गए। जर्मनी के समस्त उपनिवेश छीन लिए गए परन्तु मित्रराष्ट्रों के पास उपनिवेश बने रहे। इस प्रकार की एकपक्षीय शर्तों के कारण जर्मन जनता में यह भावना व्याप्त हो गई कि वर्साय की सन्धि में उसके साथ अन्याय किया गया है और इस अन्याय का प्रतिकार भावी युद्ध में सफलता प्राप्त करके ही किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में एडम्स गिबन्स ने लिखा है कि "पारस्परिकता के अभाव में वह एक शक्ति की शान्ति थी।"

2. आरोपित सन्धि-

वर्साय की सन्धि को एक आरोपित सन्धि कहा जाता है। यह सन्धि मित्रराष्ट्रों द्वारा जर्मनी पर थोपी गई थी। यह एक प्रकार का आदेश था जिस पर हस्ताक्षर करने के अतिरिक्त जर्मनी के पास और कोई विकल्प नहीं था। सन्धि पर विचार-विमर्श करना तो दूर रहा, हस्ताक्षर करवाने के लिए भी जर्मनी के प्रतिनिधियों और अपराधियों की भांति पहरे में लाया ले जाया गया। इस सार्वजनिक अपमान से पीड़ित जर्मन जनता वर्साय की सन्धि को प्रारम्भ से ही आरोपित सन्धि मानती रही और नैतिक दृष्टि से इसका पालन करने के लिए अपने आपको बाध्य अनुभव नहीं किया। इस सन्दर्भ में ई. एच. कार ने लिखा है, "इन अनावश्यक अपमानों के, जिनका औचित्य केवल यही हो सकता है कि युद्ध की तीव्र कटुता अब भी अवशिष्ट थी, जर्मनी में व अन्यत्र व्यापक मनोवैज्ञानिक परिणाम हुए।" लॉर्ड ब्राइस ने भी ब्रिटिश-संसद में कहा था कि "शान्ति केवल सन्तोष से ही हो सकती है किन्तु इन सन्धियों के परिणाम राष्ट्रों को असन्तुष्ट बनाना है। फलस्वरूप इनके स्वाभाविक परिणाम क्रान्तियाँ और युद्ध होंगे।"

3. अपमानजनक एवं कठोर शर्ते-

वर्साय की सन्धि की शर्ते अत्यधिक कठोर एवं अपमानजनक थीं और उनकी पूर्ति होना असम्भव था। सन्धि-निर्माताओं का मूल उद्देश्य जर्मनी को सदैव के लिए पंगु बनाकर उसे एक सबक सिखाना था। लॉयड जार्ज ने स्पष्ट कहा था कि "इस सन्धि की धाराएँ युद्ध में मृत शहीदों के खून से लिखी गई हैं। जिन लोगों ने इस युद्ध को शुरू किया था उन्हें दुबारा ऐसा न करने की शिक्षा अवश्य देनी है।" इससे साफ जाहिर है कि सन्धि की शर्ते प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर बनाई गई थीं। जर्मनी पर हर्जाने की विशाल धनराशि थोपी गई जिसे वह अदा नहीं कर सकता था। जर्मनी को अपमानजनक रूप में निशस्त्र किया गया जबकि मित्र राष्ट्र सशस्त्र बने रहे। उसके समस्त उपनिवेश छीन लिए गए। यूरोप में भी उसका बहुत बड़ा भू-भाग छीन लिया गया। 15 वर्ष के लिए उसका सार का प्रदेश भी ले लिया गया और राइनलैण्ड में मित्रराष्ट्रों की सेनाएँ रख दी गई।

वर्साय की सन्धि में प्रथम विश्व युद्ध का सारा दोष जर्मनी के मत्थे थोपकर उसका प्रबल राष्ट्रीय अपमान किया गया। ऐसी अपमानजनक एवं कठोर शर्ते दुनिया का कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र अधिक समय तक सहन नहीं कर सकता था और इससे मुक्त होने का एक ही रास्ता था युद्ध में सफलता प्राप्त करना। इस प्रकार, वर्साय की सन्धि में द्वितीय महायुद्ध के बीज बो दिए गए थे।

4. राजनीतिज्ञों की शान्ति-

वर्साय की सन्धि द्वारा स्थापित शान्ति की चर्चा करते हुए जनरल स्मट्स ने कहा था कि यह सन्धि राजनीतिज्ञों की शान्ति थी, जनसाधारण की नहीं। इस सन्धि में नवीन जीवन का आश्वासन, महान् मानवीय आदर्शों, नवीन अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था तथा न्यायसंगत एवं श्रेष्ठ विश्व के निमित्त जन-आकांक्षाओं की पूर्ति का उल्लेख नहीं था। इसमें ऐसी प्रादेशिक व्यवस्थाएँ थीं जिनमें संशोधन की सख्त आवश्यकता थी। इसमें ऐसी क्षतिपूर्तियों का समावेश किया गया जिन्हें यूरोप के औद्योगिक पुनरुत्थान को गम्भीर हानि पहुँचाए बिना पूरा करना सम्भव नहीं था। इससे जनसाधारण को वास्तविक शान्ति उपलब्ध नहीं हो पाई। सन्धि के द्वारा स्थापित आर्थिक व्यवस्था को चर्चिल ने 'मूर्खतापूर्ण' कहा। मार्शल फौच ने तो भविष्यवाणी कर दी थी कि "वर्साय की सन्धि शान्ति-सन्धि नहीं बल्कि बीस वर्षों के लिए एक युद्ध-विराम सन्धि है।"

5. कमजोर राजनीतिक व्यवस्था-

वर्साय की सन्धि के परिणामस्वरूप यूरोप में जो एक नवीन राजनीतिक व्यवस्था अस्तित्व में आई वह काफी कमजोर सिद्ध हुई। आत्मनिर्णय के आधार पर अनेक छोटे-छोटे नवीन राष्ट्रों का निर्माण किया गया। परन्तु इन राष्ट्रों के पास अपनी स्वतन्त्रता को बनाए रखने अथवा अपनी आन्तरिक समस्याओं को हल करने योग्य साधन तथा सामर्थ्य नहीं थी। आस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया, एस्थोनिया, लेटाविया, लिथुआनिया आदि राष्ट्र शुरू से ही अनेक प्रकार की समस्याओं से उलझे रहे। हंगरी, बल्गेरिया, रूमानिया आदि देश काफी निर्बल हो चुके थे। इन छोटे राष्ट्रों के दोनों तरफ दो बड़े असन्तुष्ट देश जर्मनी और रूस थे। चूँकि छोटे राष्ट्रों के पास इन बड़े राष्ट्रों का मुकाबला करने की शक्ति नहीं थी। अत: अवसर मिलते ही इन बड़े राष्ट्रों ने उन्हें हड़पने तथा उन पर हावी होने का प्रयत्न शुरू करके वर्साय की व्यवस्था को मृतप्रायः बना दिया।

6. विश्वासघाती सन्धि-

जर्मनी का कहना था कि उसने विल्सन के चौदह बिन्दुओं को आधार मानकर आत्मसर्पण किया था परन्तु वर्साय की सन्धि में इनका उल्लंघन करके जर्मनी के साथ जबरदस्त विश्वासघात किया गया। विल्सन ने इस चौदह सूत्री योजना के आधार पर शत्रु राष्ट्रों से सन्धि करने की अपील की थी। परन्तु जब तक जर्मनी को अपनी पराजय का पूर्ण विश्वास नहीं हो गया तब तक उसने विल्सन की अपील पर ध्यान ही नहीं दिया। चौदह बिन्दुओं के प्रति जर्मनी का रुख प्रारम्भ से ही नकारात्मक रहा और प्रत्यक्ष प्रमाण रूस के साथ ही गई। ब्रेस्ट-लिटोवस्क की सन्धि और रूमानिया के साथ की गई सन्धि है। इस प्रकार जर्मनी ने विल्सन और मित्रराष्ट्रों की उदारता और सहानुभूति को ठोकर मारकर उन्हें क्रोधित कर दिया था और उन्होंने यह तय कर लिया था कि उनके हितों के लाभ की दृष्टि से चौदह सूत्रों में आवश्यक संशोधन किए जा सकेंगे। अतः जब जर्मनी ने चौदह बिन्दुओं को स्वीकार किया तब तक चौदह बिन्दुओं का कायाकल्प हो चुका था।

सामान्य समीक्षा-

वर्साय की सन्धि प्रमुख प्रजातांत्रिक देशों के चुने हुए प्रतिनिधियों का काम था और उन्होंने जहाँ तक सम्भव हो सका अपने उत्तरदायित्व को निभाने का प्रयत्न किया। उसके कार्यों की आलोचना करने के पूर्व हमें उन परिस्थितियों को विस्मृत नहीं करना चाहिए जिनके अन्तर्गत उन्हें कार्य करना पड़ा था। यहीं पर हमारे सामने एक प्रश्न भी उठ खड़ा होता है कि क्या 1919 में निर्धारित की जाने वाली, किसी भी स्वरूप और चरित्र वाली सन्धि के द्वारा एक स्थायी शान्ति की व्यवस्था की आशा की जा सकती थी? किसी भी प्रसंग में यह अवश्य याद रखना चाहिए कि 1919 का संसार अन्तर्राष्ट्रीय घृणा से ग्रस्त था- ऐसी घृणा जिससे संसार अभी तक अनभिज्ञ था। क्योंकि इससे पूर्व विश्वव्यापी पैमाने पर इतना भारी विनाशकारी महायुद्ध नहीं लड़ा गया था। इस विनाश ने मानव समाज की सपूर्ण बौद्धिक प्रतिभा को अपने जाल में उलझा लिया था और वह युद्ध का आहूत करने वालों के सर्वनाश के लिए तैयार हो चुकी थी। इस नाते हम शान्ति सन्धियों को दोषी नहीं ठहरा सकते। परन्तु दूसरे पक्ष के लोग वर्साय की सन्धि का दूसरा ही चित्र प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है कि शान्ति समझौते अस्थायी आश्वासनों से परिपूर्ण थे। वे यत्र-तत्र बिखरे आदर्शवाद और प्रभावकारी भौतिकवाद के मिश्रित रूप से प्रतीक थे। लैन्सिग के शब्दों में, "शर्ते बहुत अधिक कड़ी और अपमानजनक थीं और उनमें से अधिकांश शर्ते ऐसी थीं जिन्हें कार्यान्वित किया जाना, मेरी दृष्टि में असम्भव था।"

इसी प्रकार, कीन्स ने क्षतिपूर्ति की कठोर शर्तों के कारण ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल ने अपना त्यागपत्र देते हुए इसे 'नृशंसतापूर्ण प्रतिशोधात्मक शान्ति' की संज्ञा दी। सन्धियों पर हस्ताक्षर करने के बाद जनरल स्मट्स ने कहा था कि "मैंने सन्धि पर इस कारण हस्ताक्षर नहीं किए कि मैं उसे समस्याओं का एक सन्तोषजनक समाधान मानता हूँ, पर इस कारण कि युद्ध को किसी-न-किसी प्रकार समाप्त कर देना आवस्यक हो गया था। हमने अब तक उस वास्तविक शान्ति को प्राप्त नहीं किया है जिसकी ओर हमारे नागरिक टकटकी लगाए देख रहे हैं।"

शान्ति सन्धियों पर कई दोषों का आरोप लगाया गया है। एक तो यह कि शान्ति व्यवस्था में उन कई आश्वासनों और सिद्धान्तों, जिनको ठीक ढंग से व्यवहार में नहीं लाया जा सकता था, को सम्मिलित करके बुद्धिमानी का काम नहीं किया गया है। उदाहरणार्थ, सैद्धान्तिक दृष्टि से जनता से आत्म-निर्णय के अधिकार की प्रशंसा की जा सकती है परन्तु व्यावहारिक क्षेत्र में सिद्धान्त ने जितनी समस्याओं का समाधान किया उससे कहीं अधिक नूतन समस्याओं को जन्म भी दिया और ये समस्याएँ प्रतिशोध लेने वाली राष्ट्रों के नारे बन गईं। इसी प्रकार, शान्ति व्यवस्था में मित्रराष्ट्रों ने अपने ऊपर जो प्रतिबन्ध लगाए थे और जिनको निभाना कठिन था, उन्हें सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिए था जैसेकि निःशस्त्रीकरण। इन सबसे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि केवल धमकी के द्वारा किसी देश पर कोई भी सन्धि अधिक समय के लिए सफलतापूर्वक नहीं लादी जा सकती।

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