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इतिहास में पूर्वाग्रह तथा निष्पक्षता

इतिहास में पूर्वाग्रह

वर्तमान इतिहास में सर्वत्र पूर्वाग्रह दृष्टिगोचर होता है जिसका प्रमुख कारण विषय को अत्यधिक व्याख्या स्वीकार किया जाता है। किट्सन क्लार्क का मानना है कि विषय के संक्षिप्त होने पर ही उसमें निष्पक्षता विद्यमान रहती है। साधारणतया विश्लेषण की अधिकता के कारण इतिहासकार निष्पक्ष नहीं रह पाता और उसका झुकाव पूर्वाग्रह की ओर होने लगता है। जब कई इतिहासकार साक्ष्यों को महत्त्व न देकर व्याख्या और विश्लेषण की और अधिक ध्यान देने लगता है तो उसके वर्णन में पक्षपात स्पष्ट झलकने लगता है। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए विद्वान और इतिहासकारों की मान्यता है कि लेखक को अपने कार्य में अध्यम मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

बटरफील्ड का यह कथन है, "इतिहास में निष्पक्षता सम्भव नहीं है और इसका प्राप्ति का दावा करना सबसे महान् लगती है।" वास्तव में इतिहास लेखन का प्रथम चरण विषय का चुनाव करना होता है और लेखक का निष्पक्षता का दावा उसी समय खोखला प्रतीत होने लगता है जब वह अपनी रुचि के अनुसार किसी विषय का चुनाव करता है। प्रथम कार्य को पूर्णता के पश्चात् लेखन का कार्य प्रारम्भ करने के लिए वह रुचि के अनुसार साक्ष्यों का चयन करता है। दोनों स्थिति में उससे निष्पक्षता की आशा करना आधारहीन प्रतीत होने लगता है।

ई. एच. कार की मान्यता है कि जिस प्रकार व्यक्ति बाजार में जाकर अपनी रुचि के अनुसार वस्तुओं का क्रय करता है, उसी प्रकार लेखक ऐतिहासिक तथ्यों को अपनी रुचि के अनुसार संकलित करता है। तत्पश्चात् अपनी क्रय अथवा संकलित की गयी वस्तुको इच्छानुसार पकाकर वह उसे पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है जिसमें उसकी व्यक्तिगत रुचि स्पष्ट दिखायी पड़ने लगती है और यहीं से पूर्वी ग्रह का बीजारोपण होता है।

प्रसिद्ध इतिहासकार गिब्बन ने बर्बरता और उत्पीड़न के विरुद्ध नैतिकता एवं धर्म की विजय को उजागर करने की दृष्टि से अपनी प्रसिद्ध पुस्तक रोमन साम्राज्य का उत्थान तथा पतन' नामक पुस्तक की रचना की थी। इसी प्रकार कालान्तर में उदारवादी मैकाले ने अपनी भावनाओं के अनुकूल संसदीय संस्थाओं का विकास और व्यक्तिगत स्वतंत्रता' नामक विषय पर लेखन कार्य को प्राथमिकता प्रदान की थी।

इतिहास में पूर्वाग्रह के कारण, इतिहास में पूर्वाग्रह तथा निष्पक्षता
इतिहास में पूर्वाग्रह तथा निष्पक्षता

डेविड थाम्पसन ने इस विषय चयन के सन्दर्भ में यह लिखा है। कि, "उनका (मैकाले) अटल विश्वास था कि 1688 की इंग्लैण्ड की गौरवपूर्ण क्रान्ति के परिणामों को सुरक्षित रखने के कारण ही इंग्लैण्ड 1848 ई. की विनाशकारी क्रान्ति के प्रभावों से अपने को बचा सका था।" अत: विषय चयन में व्यक्तिगत रुचि के प्रयोग के द्वारा भी इतिहासकार पक्षपात और भेदभाव का श्रीगणेश करता है।

डेविड थाम्पसन जैसे विद्वानों की मान्यता है कि इतिहासकार के लिए पूर्वाग्रह की भावना अपरिहार्य और अवश्म्भावी है परन्तु इतिहासकार को इससे बचाव के लिए अपनी सुरक्षा की इस प्रकार व्यवस्था करनी चाहिए जैसे कि कोई निरंकुश शासक अपनी सुरक्षा हेतु अपने विरोधी लोगों का प्रतिरोध करता है।

डॉ. जे. चौबे ने उल्लेख किया है, "यथार्थता के संग्रह में पूर्वाग्रह इतिहासकार के लिए प्रेरक शक्ति होता है। उनके अनुसार आधुनिक युग में पूर्वाग्रह का आधार राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रीयता की भावना है।"

वास्तव में निष्पक्षता के पर्दे के पीछे तथ्यों को महत्त्वहीन और भावहीन बना कर प्रस्तुत करना इतिहासकार का कर्तव्य नहीं होना चाहिए। पूर्वाग्रह इतिहासकार के लिए शक्तिदायक होने के साथ-साथ उसके लेखन में सहायक भी होते हैं और बौद्धिक प्रयास हेतु विषयनिष्ठता का इतिहास में पाया जाना आवश्यक है।

बटरफील्ड का मत है कि, राष्ट्रीयता की भावना के कारण ही अंग्रेजी इतिहासकारों द्वारा किया गया अमेंडा का वर्णन समीचीन है जबकि स्पेन के इतिहासकारों ने सर फ्रांसिस ड्रेक के नाम कोई वर्णन नहीं किया। इसी प्रकार जर्मन इतिहास लेखकों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के वृहद वर्णन में ब्रिटेन के सन्दर्भ में कोई संकेत तक नहीं किया है। ठीक इसी प्रकार इंग्लैण्ड और अमरीका के इतिहासविदों ने अमरीका के स्वतंत्रता संग्राम से सम्बन्धित विवरण को प्रस्तुत करने में अपनी-अपनी रुचि और दृष्टिकोण को अधिक महत्त्व प्रदान किया है। यही कारण है कि इस सन्दर्भ में उनके निष्कर्ष एक-दूसरे भिन्न है। इसी प्रकार अंग्रेज और भारतीय इतिहासकारों का दृष्टिकोण भी 1857 की घटना के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी है।

इतिहास में पूर्वाग्रह के कारण-

इतिहास में पूर्वाग्रह स्वाभाविक है परन्तु यह भावना स्वतः अथवा अचानक इतिहासकार में दृष्टिगोचर नहीं होती है। वास्तव में इस भावना के उदय में निम्नलिखित कारणों और परिस्थितियों की भूमिका भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है-

1. इतिहासकार का सामाजिक प्राणी होना-

इतिहास समाज का दर्पण है और इतिहासकार एक सामाजिक प्राणी। ऐसी स्थिति में वह अपने सामाजिक वातावरण के अनुरूप ही अपने विचार लिपिबद्ध करता है। इसीलिये जी.पी. गूच ने लिखा है, "हाड़-मांस वाले लेखक का व्यक्तित्व उसके द्वारा लिखित पृष्ठों में अभिव्यक्त होता है।" सामाजिक वातावरण में रहने के कारण निष्पक्षता के अनेकानेक प्रयासों के बाद भी उसके वर्णन में पूर्वाग्रह और पक्षपात स्पष्ट रूप से झलकता है। इतिहासकार का मुख्य विषय समाज होने और उसी समाज के लिए रचना करने का कारण, इतिहासकार इच्छा होते हुए निष्पक्ष नहीं हो पाता है।

रेनियर ने भी इस सन्दर्भ में लिखा है कि, "उसकी कृतियों में समय और समाज की अभिव्यक्ति स्वयं होती है।"निरन्तर बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के कारण प्रत्येक युग में इतिहासकार के चिन्तन में परिवर्तन अनिवार्य है।

2. धार्मिक दृष्टिकोण-

इतिहासकार का धर्म सम्बन्धी दृष्टिकोण भी उसको निष्पक्षता में बाधा उत्पन्न करता है। धार्मिक मतान्तर के कारण ही हिन्दू-मुस्लिम तथा अरब-यहूदी इतिहासकारों के वर्णन में कभी एकता नहीं पायी गयो। विभिन्न धर्मों को मानने वाले सभी इतिहासकार लोक-अप्रिय घटनाओं के लिए एक-दूसरे को उत्तरदायी मानते हैं क्योंकि उनमें परस्पर द्वेष का भाव होता है। अतः उनके वर्णन में पक्षपात और पूर्वाग्रह का होना स्वाभाविक है।

3. विषय चयन की प्रक्रिया-

ऑकशाट का मत है, 'इतिहास-लेखन, इतिहासकार के पूर्वाग्रह पूर्ण विचारों का फल होता है। चूँकि ऐतिहासिक तथ्यों का स्वरूप चयनात्मक है। इतिहासकार अपनी रुचि के अनुसार विषय एवं साक्ष्यों का चयन करता है, फिर भी पूर्वाग्रहों के परिणामस्वरूप एक ही घटना को विभिन्न इतिहासकार अपने- अपने ढंग से वर्णित करते हैं। औरंगजेब की धार्मिक नीति के सम्बन्ध में सर यदुनाथ सरकार और फारुखो का वर्णन परस्पर विरोधी है। इसी प्रकार यूरोप में रोमन कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेण्ट इतिहासकारों ने तत्कालीन ऐतिहासिक घटनाओं का पृथक्-पृथक् वर्णन प्रस्तुत किया है और उनकी व्याख्या की है।

4. निष्पक्षता का अभाव-

पक्षपात की उपादेयता और पूर्वाग्रह इतिहासकार को उसकी सीमा का ज्ञान देते हैं। अकबर महान् के सन्दर्भ में की गई बँदायुनी की आलोचना में पूर्वाग्रह स्पष्ट रूप में दिखाई देता है। जी.एम. ट्रेवेलियन इतिहासकार का पूर्वाग्रही और द्वेषपूर्ण होना आवश्यक स्वीकार करते हैं क्योंकि वह जब महापुरुषों का वर्णन अपने ग्रन्थ में करता है तो उसके प्रति उसके दृष्टिकोण की विनम्रता एवं सहानुभूति स्वाभाविक होती है।

रेनियर का विश्वास है कि भावहीन निष्पक्षता इतिहास का गुण न होकर दोष है। अत: यह सिद्ध है कि इतिहास से पूर्वाग्रह को अलग करना सम्भव नहीं है। बटरफील्ड ने भी सामान्य इतिहास एवं शोध इतिहास में अन्तर को स्पष्ट करते हुए संकेत किया है कि प्रथम में निष्पक्षता की सम्भावना है कितु द्वितीय में नहीं, क्योंकि शोध इतिहास के निर्णयों में शोधार्थी के व्यक्तिगत दृष्टिकोण की महत्त्वपूर्ण भूमिका पायी जाती है।

5. विभिन राजनीतिक विचारधाराएँ-

मानव समाज में निवास करता है, जहाँ विभिन्न राजनीतिक दलों की विचारधारा के लोग निवास करते हैं। इनमें साम्यवादी, प्रजातन्त्रवादी, राजतन्त्रवादी, मार्क्सवादी, पूँजीवादी आदि प्रमुख हैं। इतिहासकार घटनाओं की व्याख्या विभिन्न राजनीतिक दलों की विचारधारा के अनुकूल करता है और तथ्यों का अपने दृष्टिकोण से चुनाव करता है।

इतिहासकार गिब्बन ने रोमन साम्राज्य के पतन में नैतिक कारणों को अत्यधिक महत्त्व दिया है। इसी प्रकार कार्ल मार्क्स ने आर्थिक कारणों को रोमन साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी ठहराया है। परस्पर विरोधी दृष्टिकोण के कारण ही इतिहास में पूर्वाग्रह का होना आवश्यक है तथा निष्पक्षता का होना सम्भव नहीं है। रांके ने भी अपने ग्रन्थ में इसका समर्थन किया है।

6. इतिहासकार का व्यक्तिगत दृष्टिकोण-

जी.आर.एल्टन का मत है कि इतिहास केवल एक घटना नहीं अपितु इतिहासकार द्वारा वर्णित समस्त तथ्य होते हैं किन्तु केवल तथ्यों का संकलन मात्र इतिहास को विश्वकोष का रूप प्रदान कर देगा।स्काट ने भी लिखा है कि, इतिहास तथ्य प्रधान न होकर व्याख्या प्रधान होता है। मैडेलबाम ने तत्कालीन सामाजिक परिपेक्ष में इतिहास की व्याख्या किया जाना स्वीकार किया है।

ई.एच. कार यह मानता है कि तथ्य स्वयं नहीं बोलते अपितु इतिहासकार उन्हें बुलवाता है का तात्पर्य इतिहासकार को इच्छा को प्रधानता सिद्ध करती है। सच तो यह है कि इतिहासकार का पूर्वाग्रह पूर्ण व्यवहार इससे भी सिद्ध होता है कि वह अपनी व्यक्तिगत धारणा को अधिक महत्त्व प्रदान करता है। अत: व्याख्या के द्वेषपूर्ण व पक्षपातपूर्ण होने में कोई सन्देह नहीं है।

7. ऐतिहासिक घटनाओं की भूमिका-

कुछ ऐतिहासिक घटनाओं के कारण इतिहासकार का दृष्टिकोण पूर्वाग्रहमय हो जाता है। अधिकतर फ्रांसीसी इतिहासकारों की मान्यता है कि आधुनिक युग का प्रारम्भ 1789 ई. की फ्रांसीसी क्रान्ति के फलस्वरूप हुआ था। इतिहास के अन्तर्गत हम एक नहीं अनेक घटनाओं का वर्णन पाते हैं जिनमें इतिहासकारों ने अपने परस्पर विरोधी दृष्टिकोण को प्रदर्शित किया है। फ्रांसीसी क्रान्ति के साथ-साथ रोमन साम्राज्य का पतन, धर्मसुधार आन्दोलन और औद्योगिक क्रान्ति के सन्दर्भ में भी इतिहासकारों का दृष्टिकोण परस्पर विरोधी है। एक प्रसिद्ध विद्वान ने लिखा है कि, 'उपरोक्त ऐतिहासिक घटनाओं के कारण इतिहासकारों के मध्य मतैक्य की कमी दिखायी देती है जो इतिहासकार में पूर्वाग्रह की भावना को बढ़ाने में सहायक होते हैं।

अन्त में इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि उपरोक्त परिस्थितियों में निष्पक्षता का बीजारोपण अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है। बटरफील्ड का मानना पूर्ण रूप से उचित है कि 'इतिहास में निष्पक्षता असम्भव है और इसकी प्राप्ति का दावा पूरी तरह खोखला और भ्रान्तिमूलक है।'

जी.आर. एल्टन ने भी लिखा है कि व्याख्या रूपी माचिस की तीली द्वारा प्रज्ज्वलित किये जाने पर तथ्य स्वयं प्रकाशवान हो जाते हैं। वाल्श ने भी यह धारणा व्यक्त की है कि, 'अतीत को व्याख्या एक विशेष दृष्टिकोण से की जानी चाहिए।' अत: इतिहास लेखन को द्वेष रहित एवं निष्पक्ष होने की बात कहना एक महान् भूल है। इतिहास में इतिहासकार का व्यक्तित्व स्वयं प्रदर्शित हो जाता है।"

इतिहास में निष्पक्षता

प्रत्येक इतिहासकार ने अपने-अपने दृष्टिकोण से सामाजिक आवश्यकता के आधार पर अतीत की व्याख्या की है जिसे विद्वानों ने 'इतिहास का हानिकारक तत्त्व' कहकर सम्बोधित किया है। चार्ल्स ओमन और नेमियर इतिहास में पूर्वाग्रह के सिद्धान्त के प्रबल आलोचक हैं। उनके अनुसार 18वीं शताब्दी के उदारवादी इतिहासकारों ने मनमाने ढंग से तथ्यों को उलट-पलट कर निष्कर्ष प्रस्तुत करने के यत्न किये हैं जो नहीं किया जाना चाहिए।

एल्टन इतिहास में विद्वता के प्रबल समर्थक हैं। उन्होंने अतीत का अध्ययन इसी सन्दर्भ में किया और अपने लेखन को व्यक्तित्व से प्रभावित नहीं होने दिया। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि यद्यपि व्यक्तित्व और व्यक्तिगत दृष्टिकोण का अत्यन्त निकट सम्बन्ध है और दोनों को इतिहास लेखन में अलग करना असम्भव है परन्तु इतिहासकार अपनी विद्वता के आधार पर इन्हें अलग करने में सफल हो जाता है। किटसन क्लार्क की भी मान्यता है कि, विद्वानों द्वारा विकसित विधाओं के माध्यम से व्यक्तिगत दृष्टिकोणपूर्वाग्रह का अन्त किया जा सकता है।'

इतिहासकार से यह आशा की जाती है वह अतीत की घटनाओं के सम्बन्ध में सही वर्णन प्रस्तुत करे। यदि उसके लेखन में पक्षपात अथवा पूर्वाग्रह पाया जाता है, तब उसको आलोचना की जानी चाहिए। इतिहासकार को अपने सम्बन्ध में स्थिति को गलत धारणा के कारण उसमें द्वेष की भावना आती है जिसका सीधा प्रभाव उसके लेखन पर पड़ता है।

राजनीतिशास्त्र के अनुसार, 'शक्ति व्यक्ति को भ्रष्ट कर देती है और असीमित शक्ति व्यक्ति को असीमित रूप से भ्रष्ट  कर देती हैं।' यह कथन इतिहासकार की स्थिति पर भी लागू होता है। जब वह भ्रम के कारण अपनी स्थिति को सर्वोत्तम मानकर मनमाने ढंग से निर्णय देने लगता है और अपनी स्थिति की तुलना सर्वशक्ति सम्पन्न पोप अथवा किसी निरंकुश शासक के समक्ष कर अतीत की घटनाओं के सम्बन्ध में निर्णय देने लगता है, जो कदाचित एक इतिहासकार का कार्य न होकर न्यायाधीश का कार्य है। इतिहासकार की स्थिति के सम्बन्ध में बटरफील्ड ने लिखा है कि, "इतिहासकार न्यायाधीश नहीं अपितु ईश्वर के सेवकों का सेवक है।" इसी सन्दर्भ में लार्ड एक्टन ने भी संकेत किया है कि, 'मूल्यांकन में पूर्वाग्रह को स्थान नहीं दिया जाना चाहिए। इतिहासकार को वास्तविक तथ्यों का संकलन करना चाहिए जिसके अर्थ स्वत: स्पष्ट होते हैं।

स्काट मे तथ्यों के महत्व को नकारते हुए उसकी व्याख्या को महत्वपूर्ण बताया है परन्तु स्काट के आलोचक ने उसके मत से असहमति व्यक्त करते हुए लिखा है कि इतिहास की व्याख्या को महत्व प्रदान करने का तात्पर्य तथ्यों को स्वयं बोलने का अवसर न देना और उन तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना है और इतिहासकार द्वारा उनकी मनमाने ढंग से व्याख्या नहीं की जानी चाहिए। एल्टन के इस मत से विद्वान असहमति व्यक्त करते हैं कि तथ्य स्वयं प्रकाशविहीन होते है, जिस समय तक इतिहासकार अपनी व्याख्या की तीली से प्रकाशवान नहीं करता है। वस्तुतः सच है कि स्वयं बोलते हैं उन्हें बाहा प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती है।

इतिहास लेखन में लेखक के व्यक्तित्व का प्रदर्शन उचित नहीं है परन्तु गूच लिखता है कि इतिहास की पुस्तकों में 'इतिहासकार के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति पायी जाती है जो नहीं होना चाहिए। इतिहास एक कपोल कल्पित कथा न होकर लक्ष्य और स्रोतों पर आधारित अतीत की वास्तविक घटना होती है इसलिए इतिहासकार को अपने व्यक्तित्व को उससे अलग रखना चाहिए।

गूच ने लिखा है कि, इतिहासकार को अतीत के मानव के जीवन के सम्बन्ध में निष्पक्ष भाव अपनाना चाहिए और अतीत की घटनाओं का तथ्य अनुसार ही लिखा जाना चाहिए। निःसन्देह व्यक्ति स्वतंत्र रूप से पैदा हुआ है परन्तु वह अपने माता-पिता और संस्कारों के प्रभाव से युक्त नहीं होता परन्तु फिर भी उसे शिक्षा सम्बन्धी नियमों का पालन करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। उसे सदैव अतीत को दृष्टि में रखकर अपने विचारों को व्यक्त करना चाहिए। वर्तमान के सन्दर्भ में घटना को अनावश्यक रूप में व्याख्या पूर्णतया भ्रान्तिमूलक है। एक इतिहासकार ने लिखा है, "यदि इतिहासकार वस्तुनिष्ठता का सम्मान करे तो जातिगत, व्यक्तिगत रुचि, मूल्य सम्युक्त दृष्टिकोण से अप्रभावित तथ्य एक-दूसरे का नेतृत्व निर्बाध रूप से करते रहेंगे।"

वर्तमान समय में इतिहासकारों से पक्षपातहीन और भेदभाव रहित लेखन की आशा नहीं की जाती है। केवल विद्वान लेखकों को हो, बिना यह विचार किये कि इतिहास मनोविनोद का साधन है अपने कर्तव्य का समुचित निर्वाह करना चाहिए। द्वेषपूर्ण एवं पक्षपात पूर्ण इतिहास लेखकों की खुलकर आलोचना की जानी चाहिए। लेखन को स्वतंत्रता के नाम पर नियमों की अवहेलना करने वालों को वर्तमान समाज को सहन नहीं करना चाहिए। मानव समाज का कल्याण निष्पक्षता में ही निहित है अतः पूर्वाग्रहों को महत्त्व देने वाले लेखक समाज के मित्र न होकर, उसके शत्रु हैं।

एक इतिहासकार को अपनी रचना में कल्पना और अन्वेषण को त्यागकर तथ्य को महत्त्व देना चाहिए। रेंके की कृतियों में कल्पना को कोई स्थान नहीं दिया गया है। उसने उन्हें तथ्य प्रधान बनाने का पूर्ण प्रयास किया है। अतः उनकी रचनाएँ केवल मनोविनोद का साधन नहीं अपितु विषय का गम्भीर अध्ययन है। वह इतिहास के सम्मान की पुनर्स्थापना का समर्थक है, जो ऐतिहासिक उपन्यासों द्वारा छीन लिया गया था। सभी विद्वान लेखकों ने निष्पक्षता को युग को पुकार मानते हुए पूर्वाग्रहों व द्वेष से मुक्त इतिहास लेखन पर बल दिया है।

संक्षेप में, हम यह कह सकते हैं कि इतिहासकार का यह पुनीत दायित्व है कि यह इतिहास के विषतत्त्व को स्पर्श किए बिना मधुतत्त्व को ग्रहण करे अर्थात् पूर्वाग्रहों से मुक्त, पक्षपात रहित इतिहास लेखन की ओर अपना ध्यान आकर्षित करे और समसामयिक आवश्यकताओं के अनुसार समाज का द्वेषरहित एवं पक्षपात रहित चित्र प्रस्तुत करे ताकि प्रत्येक युग के समाज कल्याण में उसकी रचना सहायक सिद्ध हो सके।

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