बीसवीं सदी का विश्व
अमेरिका का पार्थक्यवादी जीवन
1776 ई. के अमेरिकी स्वातंत्र्य संग्राम के फलस्वरूप एक राष्ट्र के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका का जन्म हुआ। 1788 ई. के अंत तक इस नये राज्य को संसार के सभी प्रमुख राज्यों की मान्यता प्राप्त हो गयी। जन्मकालीन अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों से मजबूर होकर अमेरिका के इस नये गणराज्य ने तटस्थता की नीति का सहारा लिया। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि उस समय देश के समक्ष सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न देश के पुनर्निर्माण का था। यद्यपि संयुक्त राज्य अमेरिका प्राकृतिक साधनों से परिपूर्ण था और उसके विकास की असीम संभावनाएँ थीं, फिर भी उस समय वह एक अविकसित देश ही था। ऐसी परिस्थिति में स्वभावत: अमेरिकी लोगों की सारी चेष्टाएँ अपने देश के रचनात्मक कार्यों में केन्द्रीभूत हो गयीं। इसके अतिरिक्त, जिस समय संयुक्त राज्य अमेरिका का जन्म हुआ उस समय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य आधार युद्ध था और युद्ध के लिए पर्याप्त सैनिक शक्ति की आवश्यकता होती है। नवीन राज्य के पास इस समय स्थल और जल सेना का अभाव था। इस कारण तत्कालीन अमेरिकी जननेता अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के भँवरजाल में फँसना नहीं चाहते थे।
अतएव, शुरू-शुरू में अमेरिकी
राष्ट्रपति वाशिंगटन ने पृथकता की नीति का अनुसरण करना ही ठीक समझा और उसने
इस नीति की परम्परा कायम की, जिसका लक्ष्य यह
था कि अमेरिका यूरोपीय देशों के साथ व्यापार करे, लेकिन यूरोपीय राजनीति के फंदे में नहीं फँसे। लेकिन, 1829 ई. में 'मुनरो सिद्धान्त' के प्रतिपादन से अमेरिकी
विदेश नीति के सिद्धान्त में एक नवीन अध्याय शुरू हुआ। जब यूरोपीय राज्यों ने
अमेरिकी गोलार्द्ध में हस्तक्षेप करने का उपक्रम किया तो राष्ट्रपति मुनरो ने एक
घोषणा निकाली,
जिसके द्वारा
यूरोपीय राज्यों को यह चेतावनी दी गयी थी कि यदि उन्होंने अमेरिकी गोलार्द्ध में
किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप करने का प्रयास किया तो यह प्रयास संयुक्त
राज्य अमेरिका के प्रति शत्रुतापूर्ण कार्यवाही माना जायेगा। इसके द्वारा
यूरोपीय राज्यों को अमेरिकी गोलार्द्ध की राजनीति से दूर रहने को कहा गया था। इस
घोषणा के द्वारा 'अमेरिका
अमेरिकावासियों के लिए'
का सिद्धान्त
स्थापित हुआ। इसके कारण यूरोप के साम्राज्यवादी राज्यों के लिए अमेरिकी गोलार्द्ध
के द्वार बंद हो गये। लेकिन, इस स्थिति से
संयुक्त राज्य अमेरिका ने भरपूर लाभ उठाया। उसने लैटिन अमेरिका के कई देशों पर
अपना प्रभाव कायम किया और उन्हें शीघ्र ही अपने संरक्षित राज्य जैसा बना लिया।
अमेरिकी प्रभुत्व का उदय
संयुक्त राज्य
अमेरिका की नवीन
साम्राज्यवादी मनोवृत्ति का पहला शिकार मेक्सिको हुआ। वहाँ काफी जमीन थी और
इसके लालच में शीघ्र ही अमेरिकी नागरिकों का ताँता वहाँ लग गया। ये लोग नीग्रो
गुलाम अपने साथ लाते थे और वहाँ कपास की खेती कराना चाहते थे। मेक्सिको
गणतंत्र गुलामी प्रथा के विरुद्ध था। अत: वह गुलाम लाने या उससे काम कराने की
इजाजत नहीं देता था। इस पर नवागंतुकों ने एक नये गणतंत्र की घोषणा कर दी। उसका नाम
रखा गया टेक्सास तथा उसे संयुक्त राज्य अमेरिका में मिला लेने के लिए आन्दोलन शुरू
हुआ। मेक्सिको के विरोध के बावजूद 1845 ई. में उसे संयुक्त राज्य में मिला लिया
गया। मेक्सिको ने युद्ध की घोषणा कर दी। इसमें संयुक्त राज्य विजयी हुआ और टेक्सास
सहित कैलिफोर्निया तटवर्ती प्रदेश तक का इलाका संयुक्त राज्य अमेरिका का अंग हो गया।
संयुक्त राज्य
अमेरिका के एक महाशक्ति
के रूप में उदित होने से पश्चिमी गोलार्द्ध में यूरोपीय राष्ट्रों की प्रसारवादी
महत्वाकांक्षा पर प्रभावी रोक लगी रही। फलत: लैटिन अमेरिका साम्राज्यवाद के
चरणों के नीचे नहीं रौंदा गया, हालांकि संयुक्त
राज्य अमेरिका स्वयं एक साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में उदित हुआ। वैज्ञानिक विकास
के कारण अमेरिकी उद्योग-धंधों तथा यातायात के साधनों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और
कच्चे माल के निर्यात के लिए विदेशी बाजारों पर अधिकार करना आवश्यक हो गया। मुनरो
सिद्धान्त'
ने अमेरिका के
लिए महाद्वीपों को विदेशियों से मुक्त कर दिया था, जिससे अमेरिका ने पूरा लाभ उठाने का यल किया। 1895 ई. में 'मुनरो सिद्धान्त' की पुनर्घोषणा करते हुए
राष्ट्रपति क्लीवलैण्ड ने वेनेजुएला को ब्रिटिश गुइयाना से सीमा
विवाद के संदर्भ में सीधी बातचीत करने से रोक दिया। ब्रिटेन की सरकार को बाध्य
होकर मामले को अन्तर्राष्ट्रीय पंच फैसले के लिए सुपुर्द करने को तैयार होना पड़ा।
कोलम्बिया के पनामा जलडमरूमध्य में विद्रोह होने पर संयुक्त राज्य अमेरिका की
सरकार ने बिना किसी से परामर्श किये पनामा गणतंत्र को मान्यता दे दी।
इस समय तक दक्षिण
अमेरिका में केवल क्यूबा और प्यूर्टोरिको के दो उपनिवेश
बच रहे थे। इन उपनिवेशों में स्वतन्त्रता की माँग की जा रही थी और संयुक्त राज्य
अमेरिका ने विद्रोहियों का समर्थन किया। क्यूबा में अमेरिका की भारी पूँजी लगी हुई
थी। क्यूबा में बड़े पैमाने पर चीनी का उत्पादन होता था और अमेरिका उसका मुख्य
खरीददार था। राजनीतिक गड़बड़ी के कारण चीनी के उत्पादन में गड़बड़ी पैदा होती रहती
थी। इन सब बातों को लेकर 1899 ई. में स्पेन-अमेरिकी युद्ध छिड़ गया।
प्यूर्टोरिको संयुक्त राज्य अमेरिका का उपनिवेश बना लिया गया। क्यूबा को
स्वतंत्र गणराज्य की मान्यता मिली, किन्तु उस पर अमेरिका द्वारा कई प्रकार के शिकंजे लगा दिये
गये। अब क्यूबा की स्थिति एक संरक्षित राज्य जैसी हो गयी। कुल मिलाकर क्यूबा
संयुक्त राज्य अमेरिका का एक उपनिवेश बन गया।
विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका |
प्रशान्त महासागर के फिलिपीन्स द्वीप
समूहों पर अमेरिकी आधिपत्य इसी स्पेन-अमेरिकी युद्ध का परिणाम था।
फिलिपीन्स में स्पेनी शासन के खिलाफ लगातार विद्रोह होते रहते थे और स्पेनी शासन
इन्हें बड़ी निर्ममता से दबाता था। 1897 ई. में अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर
रूजवेल्ट ने फिलिपीन्स के मामले में हस्तक्षेप करने का निर्णय किया। उसने
अमेरिका के एशियाई नौसेना के सेनापति कमोडोर जार्ज ड्यूई को आदेश दिया कि
वह फिलिपीन्स में स्पेन की शक्ति को नष्ट कर दे। 27 अप्रेल को ड्यूई स्पेनी नौ
सेना को परास्त करते हुए मनीला तक पहुँच गया। उसकी इस नौ सैनिक विजय ने एक पूरे
द्वीप समूह और लगभग सत्तर लाख व्यक्तियों की संरक्षता अमेरिका को सौंप दी। अमेरिकी
विस्तारवादियों ने अब सम्पूर्ण फिलिपीन्स पर अधिकार की माँग शुरू की। अतः स्पेन और
संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच 1899 ई. में 'पेरिस की संधि' हुई, जिसके अनुसार
फिलिपीन्स और ग्वाम पर अमेरिकी प्रभुसत्ता की स्थापना हो गयी।
हवाई द्वीप समूह की कहानी भी अमेरिकी साम्राज्यवाद
के इतिहास का एक मुख्य अध्याय है। मध्य प्रशान्त महासागर में स्थित इसका पुराना
नाम सैण्डविच द्वीप समूह था। 1840 ई. के बाद बहुत बड़ी
संख्या में अमेरिकी लोग यहाँ पहुँचने लगे। इनकी गतिविधियों से घबड़ाकर वहाँ के
शासन ने 1875 ई. में अमेरिकी संरक्षण स्वीकार करके अपने देश को वस्तुत: संरक्षित
राज्य बना दिया। बाद में अमेरिका द्वारा अपने विशाल नौ सैनिक अड्डा पर्ल हारबर का
निर्माण यहाँ किया गया। भारी मात्रा में अमेरिकी पूँजी-निवेश यहाँ होता रहा। यह भी
प्रयास हुआ कि यहाँ के मूल निवासियों को पूरी तरह अमेरिकी सभ्यता के रंग
में रंग दिया जाये। कालान्तर में हवाई द्वीप समूह जुए, मद्यपान तथा रंगरेलियों
की दुनिया के सबसे कुख्यात अड्डों में शुमार होने लगा। वहाँ की शासिका ने अपने
देशवासियों की इस अमेरिकीकरण की प्रवृत्ति को रोकने का प्रयास किया, किन्तु अमेरिकी हितों के
लिए खतरा उत्पन्न होते देखकर रानी को गद्दी से उतार दिया गया। 1898 ई. में हवाई
द्वीप समूह को औपचारिक रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में मिला लिया गया।
सुदूर पूर्व में
अमेरिका-
उन्नीसवीं सदी के चौथे दशक से संयुक्त
राज्य अमेरिका ने सुदूर पूर्व के दो देशों चीन और जापान में भी रुचि लेना आरम्भ
किया। यह इस बात का प्रमाण था कि अमेरिका एक विश्वशक्ति बनना चाहता था।
यूरोप के राज्य चीन की राजनीतिक कमजोरी से लाभ उठाकर उसे अपने साम्राज्यवादी
शिकंजे में जकड़ लेना चाहते थे। इसी के परिणामस्वरूप 1839 ई. में प्रथम अफीम
युद्ध हुआ,
जिसमें ब्रिटेन
ने चीन को पराजित करके उस पर 1842 ई. में नानकिंग की संधि
थोप दी और विदेशियों के लिए चीन का दरवाजा खोल दिया। ब्रिटेन के साथ नानकिंग की
संधि होने के बाद अन्य यूरोपीय राज्य भी चीन के साथ संधि करने के लिए उत्सुक हो
उठे। इस दिशा में पहल करने का प्रयास सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका ने
किया।
अमेरिका के
राष्ट्रपति टाइलर ने केलेब कशिंग को अपने प्रतिनिधि के रूप में चीन
भेजा। मकाओ पहुँचकर कशिंग ने चीन सरकार के समक्ष अमेरिकी नीति को स्पष्ट करने की
चेष्टा की। वह चीन से साथ एक संधि करके ब्रिटेन की तरह अमेरिका के लिए भी चीन में
सुविधाएँ प्राप्त करना चाहता था। केलेब कशिंग चीन के सम्राट के साथ तो भेंट
नहीं कर सका, पर उसने चीन के
उच्चाधिकारियों के साथ एक संधि कर ली। इस संधि के द्वारा चीन में अमेरिका को वे
सारी सुविधाएँ मिल गयीं, जो नानकिंग की
संधि से ब्रिटेन को मिली थीं। लेकिन, एक माने में यह संधि नानकिंग की संधि से भिन्न थी। इस संधि
के अनुसार चीनी नागरिक के विरुद्ध यदि किसी अमेरिकी नागरिक द्वारा अभियोग लगाया
जाय तो उसके मुकदमे का निर्णय चीनी अदालत में हो सकता था, परन्तु अमेरिकी नागरिकों
पर लगाये गये अभियोगों का निर्णय केवल अमेरिकी अदालत में ही संभव था। इस संधि ने
चीन की सम्प्रभुता को सीमित कर दिया। इस तरह ‘राज्य' क्षेत्रातीत का
सिद्धान्त विकसित हुआ और चीन में विदेशियों को मनमानी करने की पूरी छूट मिल गयी।
इसके बाद चीन पर
विदेशियों के अतिक्रमण का सिलसिला जारी रहा और चीन में अधिक-से-अधिक सुविधाएँ
प्राप्त करने के लिए यूरोपीय राज्यों में होड़ मच गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि चीन
विविध यूरोपीय राज्यों के प्रभाव-क्षेत्रों में बँट गया। चीन में यूरोपीय
राष्ट्रों की इस बंदरबाँट को देखते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका का चिन्तित
होना स्वाभाविक था। फिलिपीन्स और ग्वाम पर अधिकार करने के बाद संयुक्त राज्य
अमेरिका ने चीन की ओर ध्यान दिया। यूरोपीय राज्य चीन में अपना प्रभाव क्षेत्र
कायम कर चुके थे और वे अपने अधिकार और सुविधा का प्रयोग कर चीन में अमेरिका के
आर्थिक हितों को खतरे में डाल सकते थे। अमेरिका चीन में प्रभाव क्षेत्र कायम करने
के लिए अनुचित ढंग से कोई दबाव डालना नहीं चाहता था। अतः अपने व्यापार की सुरक्षा
और नये क्षेत्रों में बाजार की सुविधा पाने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका ने 'उन्मुक्त द्वार' (Open door) की नीति का प्रतिपादन
किया। तत्कालीन अमेरिकी विदेश सचिव जॉन हे ने घोषणा की कि अमेरिका यूरोपीय
राज्यों की तरह चीन में समान अवसर प्राप्त करना चाहता है। प्रभाव क्षेत्र प्राप्त
कर कोई राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के हित का बाधक नहीं बने, बल्कि सभी राष्ट्र मिलकर
समान रूप से व्यापार आदि के अवसर से लाभ उठाएँ- उन्मुक्त द्वार नीति का यही
मूलाधार था। 6 सितम्बर, 1899 को जॉन हे
ने एक गश्तीपत्र द्वारा यह मांग की कि चीन में सभी देशों को व्यापार करने की समान
सुविधाएँ दी जाये। लेकिन, 'समान अवसर' के नाम पर चीन में
अमेरिकी प्रभाव कायम करने का यह कूटनीतिक प्रयास था, जिसके द्वारा अमेरिका ने सबको यह जता दिया कि चीन में उसके
हित भी हैं और उन्हें बचाने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका काफी सक्रिय हो गया है।
जापान के मामले
में भी संयुक्त राज्य अमेरिका ने कारगर ढंग से हस्तक्षेप किया। प्रशान्त
महासागर में उसके हित बढ़ते जा रहे थे और इनकी रक्षा के लिए जापान को अमेरिकी
प्रभाव में लाना जरूरी समझा गया। जापान के तटों पर अमेरिकी जहाजों को कोयला-पानी
लेने की सुविधा प्राप्त करने उद्देश्य से 1853 ई. में अमेरिकी राष्ट्रपति ने
कमोडोर पेरी को जापान भेजा और पेरी ने जापानी शासकों को धमकी देकर उन्हें एक संधि
करने के लिए बाध्य किया। 1854 ई. की इस संधि के अनुसार अमेरिका को नागासाकी, शिमोदा और हैकोपेर के
बंदरगाहों में कोयला-पानी और रसद लेने तथा जहाजों के मरम्मत की सुविधा दी गयी। इस
प्रकार, जापान का दरवाजा खोलने का
श्रेय संयुक्त राज्य अमेरिका को प्राप्त हुआ। 1858 ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका
और जापान में एक दूसरी संधि हुई। यह एक असमान संधि थी, जिसके द्वारा अमेरिका ने
जापान में राज्य क्षेत्रातीत अधिकार' प्राप्त किये। इसके अतिरिक्त और भी कई विशेषाधिकार अमेरिका
को प्राप्त हुए।
विश्व शक्ति के रूप में अमेरिका का उदय
प्रशान्त महासागर में अमेरिकी विस्तार तथा
चीन और जापान की राजनीति में उसकी दिलचस्पी ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि संयुक्त
राज्य अमेरिका एक विश्व शक्ति के रूप में स्थान पाने के लिए आतुर है।
अब उसने पार्थक्यवाद का चोंगा धीरे-धीरे हटाना शुरू किया और विश्व राजनीति
में हस्तक्षेप करना शुरू किया। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में दो घटनाओं ने यह सिद्ध
कर दिया कि अमेरिका अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहता
था।
1905 ई. के
रूस-जापान युद्ध का अंत करने के लिए राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने सफलतापूर्वक
हस्तक्षेप किया जिसके फलस्वरूप उस युद्ध का अंत हुआ। इस युद्ध में अमेरिका
ने इसलिए हस्तक्षेप किया, कि वह पूर्वी
एशिया में जापान के प्रसार को रोकना चाहता था, क्योंकि इस समय तक स्पष्ट होने लगा था कि प्रशान्त
महासागर पर प्रभुत्व स्थापना की होड़ में जापान संयुक्त राज्य अमेरिका
का घोर प्रतिद्वन्द्वी बनने वाला है। 1906 ई. में मोरक्को को लेकर फ्रांस और
जर्मनी में एक भयंकर संकट पैदा हो गया और ऐसा प्रतीत हुआ कि दोनों पक्षों के बीच
युद्ध छिड़ जायेगा। संयुक्त राज्य अमेरिका ने इस मामले में भी मध्यस्थता की और
फ्रांस तथा जर्मनी का बीच-बचाव कराकर यूरोपीय शान्ति को भंग होने से बचाया। इसके
अतिरिक्त, रूजवेल्ट ने नवस्थापित
हेग पंचायती न्यायालय का समर्थन किया। इन सारी बातों के बावजूद अमेरिका ने अपने को
यूरोपीय राजनीति से अलग ही रखा और तटस्थता की नीति का अवलंबन करता रहा।
इसी बीच 1914 ई.
में यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ा। यद्यपि शुरू में इस युद्ध में
सम्मिलित होने का अमेरिका का कोई इरादा नहीं था। लेकिन 1917 ई.आते-आते
परिस्थितियाँ कुछ इस तरह बदलीं कि संयुक्त राज्य अमेरिका को बाध्य होकर
जर्मनी के खिलाफ इस युद्ध में सम्मिलित होना पड़ा। बाद में अमेरिका के साथ-साथ
दक्षिण अमेरिका के भी कई देश युद्ध में शामिल हो गये। अमेरिका अपने अपार धन, जन, युद्ध सामग्री, आयुधों इत्यादि से मित्र
राष्ट्रों की मदद करने लगा। सम्पूर्ण अमेरिकी शक्ति युद्ध को सफल बनाने में लग
गयी। यूरोपीय युद्ध स्थल पर अमेरिकी सेना भेजी गयी। इस प्रकार, युद्ध जीतने के लिए बहुत
बड़े पैमाने पर व्यावहारिक कार्यवाहियाँ शुरू की गयीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि
संयुक्त राज्य अमेरिका के इस कारगर हस्तक्षेप के कारण ही मित्रराष्ट्र जर्मनी को
पराजित करने में सफल हुए।
इस समय संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति उडरो विल्सन था। एक ओर जहाँ वह युद्ध जीतने का सैनिक प्रयास कर रहा था, वहाँ दूसरी ओर युद्धोपरान्त स्थायी शान्ति की नींव रखने की समस्या पर भी विचार कर रहा था। इस उद्देश्य से प्रेरित होकर युद्धकाल में ही उसने अपने प्रसिद्ध 'चौदह सूत्रों' का प्रतिपादन किया। इन सूत्रों में युद्धोत्तर विश्व के पुनर्निर्माण के लिए कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये थे। जर्मनी ने इन्हीं सूत्रों को आधार मानकर युद्ध में पराजित होकर आत्मसमर्पण किया था। युद्ध के बाद सारे संसार में सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति राष्ट्रपति विल्सन ही था। विजित और विजेता सभी एकटक उसकी ओर देखते थे। पेरिस के शान्ति सम्मेलन में भाग लेने के लिए वह स्वयं यूरोप आया। मानवता के त्राता के रूप में वह जहाँ भी गया, उसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। लंदन और रोम होते हुए जब वह पेरिस पहुँचा तो उसे देखकर पेरिस को जनता आनंदाश्रुओं से गद्गद् हो गयी। प्राचीन रोमन साम्राज्यवाद के पतन के बाद यूरोप में विल्सन जैसा शानदार स्वागत अभी तक किसी दूसरे राजनेता का नहीं हुआ था। विल्सन ने शान्ति सम्मेलन में प्रमुखतः भाग लिया। शान्ति संधियों के प्रारूपों को तैयार करने में उसकी सबसे बड़ी देन थी। इन्हीं शान्ति संधियों के आधार पर युद्धोत्तर विश्व का निर्माण हुआ। उसी के विशेष प्रयास से राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा विश्व राजनीति को इस निर्णायक ढंग से प्रभावित करने के प्रयास ने संसार को यह बता दिया कि एक विश्व शक्ति के रूप में अब संयुक्त राज्य अमेरिका का उदय हो चुका है। आगे आने वाले वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका की यह भूमिका अधिकाधिक स्पष्ट होने वाली थी।
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