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ऐतिहासिक अनुसंधान में आलोचना-सिद्धान्त

 

वेबर के मतानुसार इतिहास के अनुसन्धान में आलोचना स्वयमेव एक उद्देश्य नहीं होना चाहिए।

हेनरी पिरेन के अनुसार आलोचना अपने आप में सम्पूर्ण इतिहास नहीं है। इसका प्रमुख उद्देश्य यथार्थ तथ्यों की गवेषणा है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के बाद आलोचना की आवश्यकता नहीं होती है तथा अनुसंधान में इसका महत्त्व गौण हो जाता है।

रेनियर का कथन है कि विषय की सीमा, तथ्यों की यथार्थता, ऐतिहासिक स्रोतों की विश्वसनीयता तथा घटनाओं की क्रमबद्धता के पश्चात् शोध में कलात्मक पुनर्रचना आवश्यक हो जाती है।

हाकेट के अनुसार " आलोचना स्वयमेव इतिहास नहीं, अपितु इतिहास की सेवक है। इतिहासकार का प्रमुख कर्त्तव्य समाज में रहने वाले मनुष्यों के कार्यों एवं उपलब्धियों की कहानी को प्रस्तुत करना है। उसकी शैली आलोचनात्मक है अथवा नहीं, महत्त्वपूर्ण नहीं है।"

1. ऐतिहासिक अनुसंधान में आलोचना की भूमिका-

नि:संदेह आलोचना एक साधन है जिसके माध्यम से अनुसंधानकर्ता ऐतिहासिक स्रोतों को यथार्थता, समकालीन इतिहासकार के कथन की सत्यता तथा घटना संबंधी तिथिक्रम का ज्ञान प्राप्त करता है। ऐतिहासिक अनुसंधान में इस स्तर पर आलोचना की प्रधान भूमिका रहती है। ऐतिहासिक स्रोतों, इतिहासकार के कथन तथा तिथिक्रम के निश्चित ज्ञान के बाद जब अनुसंधानकर्ता अपने निष्कर्ष को समाज के समक्ष प्रस्तुत करता है, तो उस समय साहित्यिक शैली की आवश्यकता प्रधान हो जाती है।

अनुसंधानकर्ता को विषय-वस्तु को इस प्रकार प्रस्तुत करना चाहिए जो समसामयिक समाज के लिए रुचिकर, ग्राह्य तथा उपयोगी हो सके। यदि अनुसंधानकर्ता आलोचना-सिद्धान्त की विधियों से अवगत नहीं है, तो वह अनावश्यक अवसरों पर इसके प्रयोग द्वारा अपने शोध-विषय को दुरूह, जटिल तथा हास्यास्पद बना सकता है। अत: आलोचना-सिद्धान्त शोध में आवश्यक है। परन्तु सबसे अधिक आवश्यकता इसके यथोचित प्रयोग में निहित है।

2. आलोचना-सिद्धान्त एक प्रकार की दीक्षा है-

प्रत्येक अनुसंधानकर्ता के लिए आलोचना-सिद्धान्त एक प्रकार की दीक्षा है। इसके अभाव में कोई भी सफल इतिहासकार नहीं हो सकता। इस दीक्षा का अभिप्राय इतिहास को अधिकाधिक यथार्थ बनाना है। आलोचना- सिद्धान्त का तात्पर्य इतिहास के प्रत्येक वाक्य को यथातथ्य बनाना है क्योंकि साहित्यकार अथवा उपन्यासकार की भांति उसका वाक्य कल्पित नहीं, अपितु साक्ष्य पर आधारित होता है।

3. कथन की यथार्थता को सिद्ध करने के लिए आलोचना-सिद्धान्त का प्रयोग-

ऐतिहासिक तथ्य ही अच्छे शोध प्रबन्ध के आधार होते हैं। इसके निश्चयात्मक स्वरूप की प्रवृत्ति आलोचना-पद्धति में निहित है। ऐतिहासिक स्रोतों में वर्णित इतिहासकार का कथन इतिहास का कच्चा माल होता है। शोधकर्ता प्रत्येक कथन में यथार्थता को सिद्ध करने के लिए आलोचना-सिद्धान्त का प्रयोग करता है। इसके लिए उसे व्याख्या तथा सामान्यीकरण के सिद्धान्तों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। इन सिद्धान्तों के समुचित क्रियान्वयन द्वारा अनुसंधानकर्ता अपने विषय को अर्थ तथा मूल्य प्रदान करता है।

4. आलोचना का सिद्धान्त ऐतिहासिक अनुसन्धान की प्रारम्भिक प्रक्रिया-

ऐतिहासिक अनुसंधान की प्रारम्भिक प्रक्रिया आलोचना का सिद्धान्त है। इस माध्यम से अनुसंधानकर्ता अपने मस्तिष्क में यथार्थ-संबंधी अनेक प्रश्नों को पूछता है। अनुसंधान की आलोचनात्मक विधि से यह यथार्थता की प्राप्ति का प्रयास करता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति तभी संभव है, जब शोधकर्ता का बौद्धिक मस्तिष्क परिपक्व हो। आलोचनात्मक विधि विज्ञान तथा ऐतिहासिक अध्ययन का आधार है। इस प्रकार ऐतिहासिक अनुसंधान इतिहासकार के लिए एक बौद्धिक व्यायामशाला है, जहाँ पर अनुसंधानकर्ता विचार-तत्त्वों से व्यायाम करता है। अनुसंधानकर्ता पहले सामाजिक विज्ञान के अन्य विषयों के प्रश्नों की सूची तैयार करता है। वह उत्तरों के आधार पर शोध प्रबन्ध तैयार करता है। वह अपना शोध संदेह से प्रारम्भ करता है।

5. शोधकर्ता के लिए आवश्यक गुण-

ऐतिहासिक गवेषणा की इस प्रारम्भिक प्रक्रिया को ऐतिहासिक विधि की संज्ञा दी जा सकती है। शोध में इसका यथोचित क्रियान्वयन तभी संभव है, जब शोधकर्ता में कुछ व्यक्तिगत गुण हों। बौद्धिक परिपक्वता के अभाव में शोध विषय का चयन, ग्रन्थों की सूची, तथ्यों का संकलन, उनकी व्याख्या, विश्लेषण, मूल्यांकन तथा यथोचित निष्कर्ष की प्राप्ति असंभव नहीं तो कठिन अवश्य होती है, क्योंकि अनुसंधान के सिद्धान्त ही अनुसंधानकर्ता के उपादान होते हैं।

हेरोडोटस, लिवि, टेसीटस, नेबूर, रांके मैकाले, कारलायल तथा टायनबी की प्रसिद्धि का एकमात्र कारण यह था कि उन्हें अनुसंधान के सिद्धान्तों का ज्ञान था तथा उनमें व्यक्तिगत योग्यता, भी थी। आस्कर वाइल्ड ने लिखा है कि इतिहास का निर्माण मूर्ख भी कर सकता है, परन्तु इतिहास-लेखन प्रतिभावान व्यक्ति ही कर सकता है।" हाकेट का कथन है कि "ऐतिहासिक गवेषणा की दीक्षा के साथ शोधकर्ता में उच्चकोटि की चिन्तन शक्ति आवश्यक है।"

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ऐतिहासिक अनुसंधान में आलोचना-सिद्धान्त


ऐतिहासिक अनुसंधान में आलोचना-सिद्धान्त के प्रमुख तत्त्व

ऐतिहासिक अनुसंधान में आलोचना-सिद्धान्त के दो प्रमुख तत्त्व होते हैं-

1. बाह्य आलोचना अथवा निम्न आलोचना तथा 2. आन्तरिक आलोचना अथवा उच्चस्तरीय आलोचना।

1. बाह्य आलोचना-

यह प्रारम्भिक एवं आयोजनात्मक आलोचना कहलाती है। इसे निम्नस्तरीय आलोचना भी कहते हैं। इसके माध्यम से शोधकर्ता पाण्डुलिपि, पुस्तक, अभिलेखों तथा शिलालेखों की विश्वसनीयता को प्रमाणित करता है क्योंकि ऐतिहासिक स्रोतों के मूल स्वरूप में भी परिवर्तन देखा गया है। कुछ स्वार्थी व्यक्ति अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए पाण्डुलिपियों के वास्तविक स्वरूप को बदल देते हैं। वे धन की लालसा में पाण्डुलिपियों को पुनः लिखकर उसे मूल पाण्डुलिपि कहकर बेच देते हैं।

अत: इतिहास-अध्ययन के क्षेत्र में चोरबाजारी की बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के लिए वैज्ञानिक इतिहासकारों ने मूल पुस्तक, लेखक तथा उसके समय की विश्वसनीयता को सिद्ध करने की आवश्यकता महसूस की है। इस क्षेत्र में भारतीय इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार तथा यूरोपीय इतिहासकार मामसेन ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

बाह्य आलोचना के अन्तर्गत शोधकर्ता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह ऐतिहासिक स्रोतों (पुस्तकों) की नैतिकता की जाँच करके उनके स्वरूप, लेखक, प्रकाशक, मुद्रक, पुस्तक लेखक का स्थान, समय, उद्देश्य, लेखक की जाति, धर्म, राजनीतिक दलों से सम्बन्ध, पुस्तक की विषयवस्तु आदि की जानकारी प्राप्त करे। उसे आश्वस्त होना चाहिए कि जिस प्रति का प्रयोग वह कर रहा है, वह मूल प्रति है अथवा प्रतिलिपि। यदि मूल प्रति नहीं है, तो गलतियों की संभावना हो सकती है। आधुनिक शोधकर्ता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह त्रुटियों को दूर कर विश्वसनीयता प्राप्त करे ताकि वास्तविक स्वरूप की पुनाप्ति हो सके। यदि लेखक का दृष्टिकोण द्वेषपूर्ण अथवा पक्षपातपूर्ण है, तो इससे शोधकर्ता को अवगत होना चाहिए।

बाह्य आलोचना में शोधकर्ता के कार्य- बाह्य आलोचना के अन्तर्गत शोधकर्ता के कार्य इस प्रकार हैं-

(1) लेखक संबंधी निर्णय- कुछ ऐतिहासिक स्रोतों के लेखक संदिग्ध होते हैं। बाइबिल को लिपिबद्ध करने का श्रेय इसाइया को है। वैज्ञानिक इतिहासकारों ने बाह्य आलोचना विधि से जब बाइबिल की गवेषणा की, तो इसके मूल लेखक के विषय में संदेह होने लगा। बाइबिल के प्रथम अध्याय में ईसामसीह के समकालीन जुडा के शासकों का उल्लेख मिलता है, परन्तु पैंतालीसवें अध्याय में पर्सिया के शासक सीरस का उल्लेख है। सीरस का शासनकाल दो सौ वर्ष बाद का है। अतः ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर प्रथम अध्याय तथा पैंतालीसवें अध्याय में दो सौ वर्षों का अन्तर है। इस प्रकार किसी लेखक की दो सौ वर्ष की आयु संदिग्ध है। ऐतिहासिक गवेषणा की आलोचना-पद्धति से विवेचना करने के बाद शोधकर्ताओं ने यह सिद्ध किया कि बाइबिल के तीन लेखक रहे हैं- इसाइया प्रथम, इसाइया द्वितीय तथा इसाइया तृतीय।

इसी प्रकार की संदिग्धता अबुलफजल कृत 'अकबरनामा' के विषय में भी है। अकबरनामा' में 1605 ई. तक की घटनाओं का उल्लेख है परन्तु अबुलफजल की हत्या 1602 में वीरसिंह बुन्देला द्वारा कर दी गई थी। अत: तीन वर्ष की घटनाओं का उल्लेख अबुलफजल द्वारा नहीं, अपितु किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया गया है। इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की रचना 'बालकांड' से लेकर 'उत्तरकांड' तक की है। इसमें 'लवकुश कांड' का विवरण किसी अन्य व्यक्ति की कृति है। ऐसी परिस्थिति में शोधकर्ता का यह कर्त्तव्य है कि ऐतिहासिक अनुसंधान की बाह्य आलोचनात्मक विधि से मूल लेखक का निश्चय करके पुस्तक की विश्वसनीयता पुनर्स्थापित करे।

(2) सहायक ऐतिहासिक स्रोतों का प्रयोग- वास्तविक लेखक का पता लगाने के लिए शोधकर्ता को पड़ोसी राज्य के शासनकाल की घटनाओं का भी प्रयोग करना चाहिए। जुडा के इतिहास की यथार्थता का अनुमान शोधकर्ता पड़ोसी राज्यों के इतिहास से लगा सकता है। बाइबिल के मूल लेखक इसाइया का काल 740 से 700 ई. पूर्व माना जाता है। द्वितीय इसाइया ने अपने अनुयायियों को बेबिलोन में दीक्षा 450 ई. पूर्व दी थी। तृतीय इसाइया का काल इसके बाद आता है। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि बाइबिल के तीन लेखक रहे हैं। 1846 में राविल्सन ने मिस्र, बेबिलोनिया तथा पर्सिया की घटनाओं के आधार पर लेखकों के काल का निर्णय किया है। उन्होंने अपनी गवेषणा में यह सिद्ध किया है कि पुस्तक कब और क्यों लिखी गयी है। अनुसंधानकर्ता को इन सभी बातों से अवगत होना चाहिए।

(3) ऐतिहासिक स्रोत का स्वर- प्रायः इतिहासकार का स्वर उसकी रचनाओं में स्पष्ट दिखाई देता है। अकबर के समकालीन इतिहासकार बदायूँनी ने अपनी पुस्तक 'मुन्तखब-उत-तवारीख' में अकबर की धार्मिक नीति की कटु आलोचना की है। रोमन इतिहासकार टेसीटस ने आगस्टन वंश के शासकों की आलोचना की है। चार्ल्स ओमन का कथन है कि ऐसी पुस्तकों को देखने से अनुसन्धानकर्ता स्वतः इस निर्णय पर पहुँच जाता है कि इस पुस्तक का क्या स्वर तथा तथ्य है। अत: शोधकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि उसे पुस्तक तथा लेखक के स्वर का स्पष्ट ज्ञान हो।

(4) गुमनाम लेख- ऐतिहासिक स्रोतों में कुछ ऐसे पत्र होते हैं जिनका वास्तविक लेखक अन्य व्यक्ति होता है। 1879 ई. में 'नार्थ अमेरिकन रिव्यू' में एक लेख 'द डायरी आफ ए पब्लिक मैन' प्रकाशित हुआ जिसमें गृहयुद्ध की घटनाओं का उल्लेख था। 1926 में प्रो. एलेन जानसन ने खोजबीन के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि इसका लेखक एक उच्चकोटि का राजनीतिज्ञ था। परन्तु प्रो. जानसन वास्तविक लेखक का नाम पता लगाने में असमर्थ रहे। 1948 में प्रो. फैक एम. एडर्सन ने खोजबीन के बाद यह पता लगाया कि इसका मूल लेखक सैमवार्ड था। अत: शोधकर्ता को गुमनाम लेख के लेखक के बारे में भी जानकारी होनी चाहिए।

(5) छायामात्र लेखक- विभिन्न प्रकार के लेख अथवा पत्र विभिन्न व्यक्तियों द्वारा लिखे जाते हैं। सम्राट अकबर के पत्रों को अबुलफजल लिखता था। अनुसंधानकर्ता के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह ऐतिहासिक अनुसंधान के समय ऐसे पत्रों तथा लेखों के वास्तविक लेखक का पता लगाये। शोधकर्ता को विभिन्न व्यक्तियों की लेखन शैलियों से भी परिचित होना चाहिए।

(6) जीवनी तथा आत्मकथा- आत्मकथा प्राय: लेखक अपने जीवन के अन्तिम दिनों में लिखता है। ऐसी आत्मकथा में वर्णित तथ्य प्रायः यथार्थ नहीं होते हैं। वर्णित तथ्यों की पुष्टि अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से की जानी चाहिए। बाबर ने अपनी आत्मकथा 'बाबरनामा' में लिखा है कि मेवाड़ के शासक राणा सांगा ने उसे भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया था, परन्तु इस कथन की पुष्टि आज तक अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से नहीं की जा सकी है।

जीवन कथा में भी इसी प्रकार के तथ्य मिलते हैं। इनका विवरण वस्तुनिष्ठा न होकर आत्मप्रशंसा का विषय बन जाता है। सेनब्रियाँ तथा टेलीरेन्ड की जीवन कथाएँ ऐसी ही त्रुटियों से ओतप्रोत हैं। अतः शोधकर्ता को ऐसी रचनाओं में वर्णित तथ्यों की पुष्टि अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से करनी चाहिए।

(7) व्यक्तिगत पत्र- शोधकर्ता के लिए कुछ व्यक्तिगत पत्रों का भी महत्त्व होता है। आधुनिक काल पर शोध करने वालों के लिए इन पत्रों का अवलोकन करना आवश्यक है। राष्ट्रीय अभिलेखागार में व्यक्तिगत पत्रों तथा पत्राचारों का संग्रह रहता है। प्रान्तीय तथा क्षेत्रीय अभिलेखागारों में स्थानीय महत्त्व के पत्र रहते हैं। इनका अवलोकन करना शोध छात्र के लिए आवश्यक है। औरंगजेब ने अपने राजकुमारों को अनेक पत्र लिखे थे जिनमें साम्राज्य की समस्याओं पर विस्तृत चर्चा की गई है। उस समय की घटनाओं के मूल्यांकन में इन पत्रों का निरीक्षण अत्यन्त आवश्यक है। नेपोलियन बोनापार्ट के पत्रों को लेंसेस्ते ने सम्पादित तथा प्रकाशित किया। ये पत्र अतिशयोक्तियों से परिपूर्ण हैं। चार्ल्स ओमन ने लिखा है कि ऐसे पत्रों में निहित तथ्यों का उल्लेख शोधकर्ता को सोच-समझकर करना चाहिए। इनमें वर्णित तथ्यों को यथार्थ न मानकर उनकी पुष्टि अन्य स्रोतों से करनी चाहिए।

(8) समाचार पत्र- प्राय: समाचार पत्रों के तथ्य यथार्थ तथा विश्वसनीय नहीं होते हैं। आधुनिक समाचार पत्रों का झुकाव विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रति देखा गया है। जेम्सफोर्ड रोड्स के अनुसार, "किसी घटना के संबंध में उनका विवरण निष्पक्ष, यथार्थ की आशा करना एक महान भूल है।'' शोधकर्ता को समाचार पत्रों के तथ्यों की पुष्टि अन्य स्रोतों से करनी चाहिए। समाचार पत्रों के संवाददाता अनुमानित बातों को प्रकाशित कर देते हैं, जो प्रायः विश्वसनीय नहीं होती। अतः शोध प्रबन्ध में इनका उल्लेख बड़ी सावधानी से करना चाहिए।

(9) जालसाजी- कुछ स्वार्थी व्यक्ति ऐतिहासिक स्रोतों में जालसाजी करते हैं। उदाहरणार्थ, किसी ऐतिहासिक स्रोत में उल्लेख है कि मैसूर युद्ध में फ्रांसीसियों ने हैदरअली की सहायता की थी। शोधकर्ता के लिए इस प्रकार का ऐतिहासिक स्रोत जालसाजी का एक उदाहरण है, क्योंकि 1763 में पेरिस संधि के पश्चात् फ्रांसीसी शक्ति का अन्त हो गया था। अत: शोधकर्ता के लिए यह आवश्यक है कि ऐसे तत्त्वों का पता लगाये। इसके लिए हस्तलिपि का ज्ञान होना आवश्यक है।

(10) साहित्यिक चोरी- कुछ इतिहासकार मूल स्रोतों से अधिकाधिक सामग्री संकलित कर लेते हैं। मूल लेखक तथा उसके स्रोत का उद्धरण न देकर, उसे अपना बनाकर लिखते हैं। इस प्रकार की साहित्यिक चोरी का प्रचलन शोध प्रबन्धों तथा लेखों में बढ़ता जा रहा है। इसका पता लगाने के लिए शोधकर्ता को चाहिए कि ऐसे तत्त्वों की तुलना मूल स्रोत से करे। शोधकर्ता के प्रयास द्वारा इस प्रकार की साहित्यिक चोरियों को नियन्त्रित किया जा सकता है।

ऐतिहासिक अनुसंधान के बाह्य आलोचना-सिद्धान्त की उपादेयता-

कुछ आलोचकों ने ऐतिहासिक अनुसंधान के बाह्य आलोचना-सिद्धान्त की उपादेयता में संदेह व्यक्त किया है। उनका कहना है कि यदि शोधकर्ता अपना समस्त ध्यान और समय बाह्य आलोचना में ही लगा देगा, तो शोधकार्य कब करेगा। परन्तु यह अनावश्यक तर्क है। आलोचना स्वयमेव एक साधन है, अन्तिम उद्देश्य नहीं। यदि इमारत के निर्माण में निम्न कोटि की सामग्री का उपयोग किया जायेगा, तो इमारत शीघ्र ध्वस्त हो जायेगी। इसी प्रकार इतिहास-लेखन में अच्छी से अच्छी ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग करना चाहिए। प्रो.शेक अली का कथन है कि "श्रम विभाजन के सिद्धान्त द्वारा कुछ विद्वानों को ऐतिहासिक स्रोतों का आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहिए। उनके द्वारा एकत्र सामग्री के आधार पर शोधकर्ताओं को विश्लेषण, व्याख्या तथा मूल्यांकन के आधार पर इतिहास-लेखन करना चाहिए।"

2. आन्तरिक अथवा उच्चस्तरीय आलोचना-

आन्तरिक अथवा उच्चस्तरीय आलोचना का प्रयोग लेखक के कथन की विश्वसनीयता को सिद्ध करने के लिए किया जाता है। शेक अली का कथन है कि "विश्लेषण तथा व्याख्या की प्रक्रिया का स्वरूप पूर्णरूप से मानसिक होता है। इसके माध्यम से इतिहासकार का अभिप्राय मूल लेखक के प्रत्येक कथन की आलोचना करके उसकी विश्वसनीयता को सिद्ध करना है।" मूल लेखक के कथन ही शोधकर्ता की ऐतिहासिक सामग्री होते हैं। यदि इसका स्वरूप उच्च कोटि का नहीं है, तो इतिहासकार का रचनात्मक कार्य निम्नकोटि का होगा। यदि इसका स्वरूप उच्चकोटि का होगा, तभी आलोचना भी उच्चकोटि की होगी। शोधकर्ता का उद्देश्य श्रेष्ठ कृति का निर्माण होना चाहिए।

आन्तरिक आलोचना की विधियाँ पूर्ण रूप से वैज्ञानिक होती हैं-

आन्तरिक आलोचना की विधियाँ पूर्ण रूप से वैज्ञानिक होती हैं, क्योंकि अनेक ऐतिहासिक स्रोतों में वर्णित तथ्य द्वेष तथा पक्षपातपूर्ण होते हैं। प्रायः दरबारी इतिहासकारों की रचनाएँ निष्पक्ष न होकर पक्षपातपूर्ण होती हैं। बाणभट्ट तथा अबुलफजल की रचनाओं में इसी प्रकार के पक्षपातपूर्ण अनेक तथ्य वर्णित हैं । अतः आधुनिक शोधकर्ता को कथन की यथार्थता सिद्ध करने के लिए इतिहास-लेखन में व्यक्तिगत तत्त्वों के प्रभाव की विधिवत गवेषणा करनी चाहिए। ब्रिटिश प्रशासकों तथा सैनिक अधिकारियों की ऐतिहासिक कृतियों का मुख्य अभिप्राय ब्रिटिश शासन की उपादेयता को सिद्ध करना था। ऐसी परिस्थिति में आधुनिक शोधकर्ता को उन तथ्यों को यथावत स्वीकार न करके प्रत्येक वाक्य की यथार्थता को सिद्ध करना चाहिए। उच्चस्तरीय अथवा आन्तरिक आलोचना का यही उद्देश्य है।

इस प्रकार की आलोचना में दस्तावेज के मूल पाठ का ज्ञान होना चाहिए। शोधकर्ता को कभी भी अपना विचार नहीं रखना चाहिए। यदि दस्तावेज के विचार उसके अनुकूल विचार के न हों, तो भी उसे कभी पूर्वाग्रही होकर नहीं लिखना चाहिए। उसे कभी भी अपने विचार या सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं करना चाहिए, अपितु सत्य का पता लगाकर जो सत्य (यथार्थ) हो, वही लिखना चाहिए, भले ही सत्य उसके विचारानुकूल या सिद्धान्तानुकूल न हो।

आन्तरिक आलोचना के प्रमुख तत्त्व-

आन्तरिक आलोचना के दो प्रमुख तत्त्व हैं-

1. सकारात्मक आलोचना-

सकारात्मक आलोचना के लिए ज्ञान आवश्यक है। प्रायः ऐतिहासिक स्रोत का मूल लेखक अपने विचारों की अभिव्यक्ति ऐसे वाक्यों के माध्यम से करता है जिनका शाब्दिक अर्थ वास्तविक अर्थ से भिन्न होता है। शोधकर्ता को वास्तविक अर्थ को गवेषणा करनी चाहिए। जब शेक्सपियर कृत नाटक 'जूलियस सीजर' में मार्क एंटोनी ने ब्रूटश के लिए 'माननीय' शब्द का प्रयोग किया, तो उसका अभिप्राय व्यंग्यात्मक था। शाब्दिक अर्थ वास्तविक अर्थ से बिल्कुल भिन्न था। एंटोनी का अभिप्राय आदरसूचक नहीं, निंदासूचक था।

प्रायः मूल लेखक अपने युग की भाषा, रीति-रिवाज के अनुसार विचारों की अभिव्यक्ति करता है। विशेष शब्दों द्वारा वह अपने वास्तविक अभिप्राय को व्यक्त करता है। मूल लेखकों की कृतियों में शाब्दिक अर्थ से भिन्न वास्तविक अर्थ होता है। उदाहरणार्थ "गली में बुद्धि का रोना"। इसका वास्तविक अर्थ यह है कि निरंकुश तानाशाह शासकों द्वारा अनुभवी, बुद्धिमान सलाहकारों की सलाह की उपेक्षा करना। अतः शोधकर्ता को तत्कालीन कानून, रीति-रिवाजों एवं संस्थाओं का ज्ञान रखना चाहिए। उसे मूल पाठ का पूरा अध्ययन करना चाहिए और लेखक के मूल चिन्तन को समझना चाहिए। उसे द्वयार्थक शब्दों का भी ज्ञान होना चाहिए।

गियासुद्दीन तुगलक की आकस्मिक मृत्यु के संबंध में समकालीन इतिहासकार बरनी ने मात्र इतना ही उल्लेख किया है कि "आकाश से उल्कापात तथा ईश्वर ही सत्य जानता है।" इसका शाब्दिक अर्थ हो सकता है कि आकाश से उल्कापात के कारण गियासुद्दीन तुगलक की मृत्यु हो गई, परन्तु इसका वास्तविक अर्थ यह है कि बरनी गियासुद्दीन तुगलक को आकस्मिक मृत्यु-संबंधी सुनियोजित षड्यंत्र में उलुगखाँ (मुहम्मद तुगलक) को भूमिका को छिपाना चाहता था। अत: बरनी घटना पर विशेष प्रकाश न डालकर मात्र आकाश से उल्कापात कहकर सन्तुष्ट हो जाता है। अन्त में वाक्यांश की एक पंक्ति "ईश्वर सत्य जानता है", घटना का रहस्योद्घाटन करने के लिए शोधकर्ता को सोचने के लिए बाध्य करती है।

रूसो ने अपनी पुस्तक 'सोशल कांट्रेक्ट' में कहा है कि "मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ, परन्तु वह सर्वत्र बन्धनयुक्त है।" उसके कथन का प्रमुख अभिप्राय मनुष्य को पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक बन्धनों से युक्त सिद्ध करना था। जब शेख अब्दुल्ला को 'शेरे कश्मीर' कहा गया, तो इसका अभिप्राय उनकी बहादुरी का उल्लेख करना था। अत: शोधकर्ता को इस प्रकार के कथनों के वास्तविक अर्थों का ज्ञान होना चाहिए और उसकी यथार्थ व्याख्या करनी चाहिए।

अतः सकारात्मक आलोचना का उद्देश्य वाक्यों के वास्तविक अर्थ की गवेषणा करना होता है, क्योंकि वास्तविक भावना का सम्प्रेषण ही मूल लेखक का उद्देश्य होता है। प्रायः मूल लेखक परिस्थितियों की विवशता के कारण अपनी वास्तविक भावना की अभिव्यक्ति नहीं कर पाता। इसके लिए पाण्डुलिपि का गहन अध्ययन तथा उसकी भाषा का ज्ञान शोधकर्ता के लिए आवश्यक हो जाता है। सकारात्मक आलोचना का स्वरूप विश्लेषणात्मक होता है। इसलिए शोधकर्ता का निष्कर्ष निश्चयात्मक होना चाहिए। इस आलोचना के सिद्धान्तों की दीक्षा नहीं दी जा सकती है। यह एक प्रकार की कला है, जिसके लिए शोधकर्ता में व्यक्तिगत प्रतिभा का होना आवश्यक है। फिर भी सकारात्मक आलोचना विधायुक्त है। इसकी प्रमुख विशेषता प्रत्येक वाक्य को संदेहपूर्ण दृष्टि से देखना है।

2. नकारात्मक आलोचना-

वैज्ञानिक इतिहासकारों ने इतिहास को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने के लिए संदेह तथा प्रश्नों को ऐतिहासिक अनुसंधान के लिए अनिवार्य बताया है। ऐतिहासिक स्रोतों की विश्वसनीयता, मूल लेखक के अभिप्राय की जानकारी के पश्चात् शोधकर्ता ऐतिहासिक स्रोत के प्रत्येक वाक्य को सन्देहपूर्ण दृष्टि से देखता है, तर्क-वितर्क तथा प्रश्नों द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों की यथार्थता को सिद्ध करता है। ऐतिहासिक अनुसंधान की सर्वोत्तम विधि प्रश्नों के माध्यम से उत्तर प्राप्त करना है। संदेह इतिहासकार को प्रश्न के लिए बाध्य, विवश तथा प्रेरित करता है। धर्म, जाति के कारण भी इतिहासकार का कथन संदेहपूर्ण दृष्टि से देखा जाता है।

कुछ इतिहासकारों का कथन परिस्थितिजन्य माना जाता है। उनका कथन पूर्णतया विश्वसनीय नहीं है। कुछ इतिहासकारों ने विशेष दृष्टिकोण से अतीत की घटनाओं का वर्णन किया है। अतः उनका कथन भी सन्देहास्पद प्रतीत होता है। आधुनिक शोधकर्ता को इतिहासकार के कथन के व्याख्यात्मक विश्लेषण में उपर्युक्त सभी तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए। नकारात्मक आलोचना का यही अभिप्राय है।

डॉ. परमानन्द सिंह लिखते हैं कि "नकारात्मक आलोचना का अभिप्राय यह है कि आलोचक यथार्थता की प्राप्ति के लिए सभी तथ्यों को संदेह की दृष्टि से देखे, अनेक प्रकार के प्रश्न उपस्थित करे, ऐतिहासिक स्रोतों की विश्वसनीयता की जाँच करे, मूल लेखक के अभिप्राय को समझे, तर्क-वितर्क से तथ्यों को यथार्थता को सिद्ध करे, धर्म, जाति के कारण तथा विशेष दृष्टिकोण को ध्यान में रखे इत्यादि।"

नकारात्मक आलोचना के अन्तर्गत शोधकर्ता के कार्य- नकारात्मक आलोचना के अन्तर्गत शोधकर्ता को निम्नलिखित कार्य करने चाहिए-

(1) दक्षता का परीक्षण- शोधकर्ता का उद्देश्य उन परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त करना है, जिनमें मूल लेखक को घटना का वर्णन करना पड़ा है। विशेष परिस्थितियों के कारण लेखक का कथन अविश्वसनीय हो सकता है। विज्ञान की भाँति इतिहास में भी विश्वसनीय निरीक्षण आवश्यक है।

आधुनिक युग में प्रायोगिक मनोविज्ञान ने इतिहासकारों को अनुसन्धान के नवीनतम उपादान प्रस्तुत किये हैं। जानसन के अनुसार यदि कोई प्रत्यक्षदर्शी किसी न्यायालय में बयान दे कि उसने अंधेरे में एक व्यक्ति की लाल टोपी देखी, परन्तु नीले कोट को नहीं देखा तो उसका बयान गलत सिद्ध हो जायेगा, क्योंकि प्रायोगिक मनोविज्ञान की विधि से यह सिद्ध किया गया है कि अन्धेरे में लाल रंग की अपेक्षा नीला रंग स्पष्ट दिखाई देता है। इस प्रकार शोधकर्ता के लिए मानसिक प्रक्रिया का ज्ञान आवश्यक है।

मुगल-सम्राट अकबर की मुगल सेना ने खानदेश में असीरगढ़ के दुर्ग पर विजय प्राप्त की। अबुलफजल घटना का प्रत्यक्षदर्शी था। विजय के कारण का उल्लेख करते हुए उसने लिखा है कि महामारी के कारण अकबर की विजय का कार्य सरल हो गया, परन्तु पुर्तगाली प्रत्यक्षदर्शी जैवियर के अनुसार मुगल सेनापति ने किले के रक्षकों को घूस देकर विजय प्राप्त की थी। इस प्रकार अबुलफजल ने अकबर के चरित्र को कलंक से बचाने के लिए यथार्थता को छिपाया है। इसी प्रकार बदायूँनी ने कट्टर सुन्नी मुसलमान होने के नाते अकबर की धार्मिक-नीति की आलोचना की है जो न्यायसंगत नहीं है। इस प्रकार इस प्रत्यक्षदर्शी इतिहासकार का कथन भी विश्वसनीय नहीं है।

नकारात्मक आलोचना द्वारा अनुसंधानकर्ता को यह पता लगाना चाहिए कि किन परिस्थितियों के कारण प्रत्यक्षदर्शी इतिहासकार ने घटना के संबंध में यथार्थ का विवरण नहीं दिया। प्रायः प्रत्यक्षदर्शी की भावनाएँ तथा व्यक्तिगत विचार उसके निष्पक्ष विवरण में बाधक होते हैं। ऐसी परिस्थिति में प्रत्यक्षदर्शी इतिहासकार के कथन का आलोचनात्मक तथा तुलनात्मक अध्ययन करना चाहिए। तथ्यों की पुष्टि अन्य स्रोतों से की जानी चाहिए। प्रायः प्रत्यक्षदर्शी भी घटना को अपनी आँखों से देखकर भी यथार्थ का चित्रण नहीं करता है। जानसन ने लिखा है कि "अनेक इतिहासकार प्रत्यक्षदर्शी की भावुक तथा बौद्धिक क्षमता का परीक्षण किये बिना उनकी बातों को स्वीकार कर लेते हैं।" अतः शोधकर्ता को यथार्थ का वर्णन करना चाहिए। हाकेट के अनुसार, "प्रत्यक्षदर्शी का कथन यद्यपि संदेहास्पद होता है, फिर भी इसे नकारात्मक गवेषणा का केन्द्र-बिन्दु स्वीकार करना चाहिए।"

(2) अफवाहों पर ध्यान नहीं देना- ऐतिहासिक स्रोतों में कुछ अफवाह संबंधी तथ्य होते हैं। आधुनिक शोधकर्ता को ऐसे तथ्यों को इतिहास-लेखन में स्थान नहीं देना चाहिए। हेनरी वार्ड बीचर ने सीनेटर परमराय को लिखा कि उसने राष्ट्रपति के व्हाइट हाउस में एक स्त्री को भी रखा था। इतिहासकार को अपने अनुसंधान में इसे साक्ष्य के रूप में नहीं स्वीकार करना चाहिए। विलियम एच. हनर्डन ने अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन तथा उनकी पत्नी के संबंध में अनेक ऐसे तथ्यों का उल्लेख किया जो यथार्थ तथ्य न होकर अफवाहपूर्ण प्रतीत होते हैं। इसी प्रकार जान मथाई ने पं. जवाहरलाल नेहरू के विषय में अनेक ऐसे तथ्यों का उल्लेख किया है जो अविश्वसनीय तथा तथ्य से परे हैं। इस प्रकार के तथ्य ऐतिहासिक अनुसंधान की समस्याएँ हैं जिनका समाधान नकारात्मक आलोचना द्वारा ही संभव है।

(3) किंवदंतियों को ऐतिहासिक अनुसंधान में स्थान नहीं देना चाहिए- विश्वसनीय ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में प्रायः शोधकर्ता अपनी कहानी को सरल, सुबोध तथा रुचिकर बनाने के लिए किंवदंतियों को तथ्य मान लेते हैं। परन्तु ऐतिहासिक अनुसंधान में ऐसे तथ्यों को स्थान नहीं देना चाहिए। सम्राट हुमायूँ का गौड़ के किले में एक अफगान स्त्री के प्रति आकर्षण संबंधी तथ्य ऐतिहासिक तथ्य नहीं, अपितु एक किंवदंती है। सम्राट अकबर तथा बीरबल संबंधी अनेक किंवदंतियाँ ऐतिहासिक तथ्य नहीं। राणा प्रताप द्वारा उदयसागर की पाल पर आमेर के मानसिंह का अपमान करना ऐतिहासिक तथ्य नहीं, केवल एक किंवदंती है। अतः शोधकर्ता को नकारात्मक आलोचना की विधियों से ऐसी किंवदंतियों का पर्दाफाश करना चाहिए।

(4) विश्वसनीयता का परीक्षण- कुछ विशेष प्रभावों के कारण प्रत्यक्षदर्शी भी यथार्थ तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। बाणभट्ट, बदायूँनी तथा अबुलफजल की रचनाओं में ऐसे तथ्यों का उल्लेख मिलता है। ऐसे इतिहासकारों के कथनों की पुष्टि अन्य ऐतिहासिक स्रोतों से करनी चाहिए। अनुसंधान-विधि के द्वारा इतिहासकार की भावना तथा उसके कथन की विश्वसनीयता सिद्ध करनी चाहिए।

जाति प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, कन्या-वध आदि सामाजिक कुरीतियाँ थीं, परन्तु सामाजिक आक्रोश के भय से अनेक इतिहासकारों ने इन कुरीतियों की आलोचना नहीं की। व्यक्तिगत रुचि के कारण इतिहासकारों ने घटना तथा व्यक्ति की निन्दा तथा प्रशंसा की है। बर्क ने फ्रांस की राज्य क्रान्ति की निन्दा की है, जबकि गिबन के इस घटना की प्रशंसा की है। ब्रिटिश इतिहासकारों ने राबर्ट क्लाइव को भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का निर्माता बताया है, तो भारतीय इतिहासकारों की दृष्टि में वह एक लुटेरा था। शोधकर्ता को कथनों की विश्वसनीयता की भली-भाँति जाँच-पड़ताल करनी चाहिए। भारत में ब्रिटिश शासन ब्रिटिश इतिहासकारों की दृष्टि में वरदानस्वरूप था, परन्तु भारतीय इतिहासकारों की दृष्टि में यह एक अभिशाप था। साहित्यिक भाषा में यथातथ्य का उल्लेख कठिन हो जाता है। हेरोडोटस, टेसीटस तथा पुनर्जागरण काल के इतिहासकारों ने अपनी साहित्यिक शैली के माध्यम से घटनाओं को अतिरंजित किया है। हाकेट के अनुसार यदि इतिहास यथातथ्य नहीं है, तो इसका अध्ययन नहीं होगा। काम्टे, कार्ल मार्क्स, स्पेंगलर, टायन्बी आदि ने अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से इतिहास की व्याख्या की है।

अत: शोधकर्ता को तथ्यों की विश्वसनीयता का परीक्षण करना चाहिए। इतिहास को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने के लिए प्रत्येक कथन को संदेहपूर्ण दृष्टि से देखना चाहिए। नकारात्मक आलोचना के माध्यम से प्रत्येक कथन की विश्वसनीयता तथा यथार्थता की सिद्धि शोधकर्ता का उद्देश्य होना चाहिए।

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