बीसवीं सदी का विश्व
आधुनिक विश्व शक्ति के रूप में जापान का उदय
19वीं शताब्दी से
पूर्व जापान में सामन्तीय शासन पद्धति का प्रचलन था। जिस प्रकार भारत में
पेशवाओं ने छत्रपति राजा को नाममात्र के लिये राज सिंहासन पर आरूढ़ करके शासन
सूत्र को अपने हाथों में ले लिया था, उसी प्रकार जापान में भी सामन्तों ने सम्राट की सत्ता के
अस्तित्त्व को कायम रखते हुए शासन शक्ति पर अधिकार कर लिया था।
शासन पर सामन्त राजाओं (शोगून) में योरीतोमा का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वह जापान का प्रथम शोगून था। उसने बारहवीं शताब्दी के अन्त तक देश के अन्य सभी सामन्तों को पराजित करके, शासन में अपने प्रभाव को स्थापित किया था। किन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों की अयोग्यता के कारण शोगून के पद पर अन्य वंशों का अधिकार हो गया। इस पद को प्राप्त करने के लिये जापान के विभिन्न सामन्त कुलों में समय-समय पर संघर्ष होता रहा। सन् 1603 में इस पद पर तोकुगावा कुल का अधिकार हो गया जो सन् 1867 तक बना रहा। इस प्रकार लगभग 265 वर्षों तक जापान में तोकुगावा कुल का शासन कायम रहा। इस अवधि में सत्ता प्राप्ति के लिये सामन्तों में कोई युद्ध नहीं हुआ। देश में शान्ति बनी रही, जिसके कारण देश को उन्नति करने का अवसर प्राप्त हो गया।
शोगून सरकार का पतन एवं मेइजी सम्राट की शक्ति का पुनरुद्धार
19वीं शताब्दी के
पूर्वार्द्ध में जापान ने पाश्चात्य देशों के साथ राजनीतिक एवं व्यापारिक सम्बन्ध
स्थापित कर लिए थे। शोगून सरकार ने अमेरिका, ग्रेट ब्रिटेन, चीन आदि देशों के साथ अनेक सन्धियाँ सम्पन्न की थीं। सन्
1858 में जापान व अमेरिका के मध्य एक महत्त्वपूर्ण सन्धि हुई, जिसका जापान की अधिकांश
जनता ने तीव्र विरोध किया। सन्धि का विरोध करने वालों की यह धारणा थी कि जापान को
पाश्चात्य देशों से अलग रखने की परम्परागत नीति में परिवर्तन करना देश के लिए
हानिकारक सिद्ध होगा। कुछ लोगों ने इस बात को लेकर शोगून सरकार का विरोध करना
प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने देश में इस मत का तेजी से प्रचार किया कि शोगून सरकार
को समाप्त कर सम्राट के प्रभुत्व का ही पुनरुद्धार करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त
जापान की जनता में विदेशियों पर आक्रमण करने तथा विदेशियों को देश से बाहर निकालने
की प्रवृत्ति भी जोर पकड़ने लगी। इस प्रवृत्ति से प्रभावित होकर जापानी जनता ने
अपने-अपने प्रान्तों में विदेशियों पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। बहुत-से
विदेशियों को जापान की असन्तुष्ट जनता का कोपभाजन बनना पड़ा और वे मौत के घात उतार
दिये गये।
इसी मध्य सन्
1867 में जापान के सम्राट पद पर मुत्सुहितो सत्तारूढ़ हुआ। उसने मेइजी की उपाधि
धारण की। इसलिये उसे मेइजी सम्राट भी कहते हैं। राज्यारोहण के समय उसकी आयु मात्र
चौदह वर्ष थी,
किन्तु अच्छे
वातावरण में शिक्षा प्राप्त करने के कारण उसे देश की राजनीति का भली प्रकार ज्ञान
हो गया था। मुत्सुहितो के राज्य पर आरूढ़ होने के पश्चात् देश में सर्वत्र
यह माँग की जाने लगी कि नवीन सम्राट को राजशक्ति प्रयोग करने का अधिकार देना
चाहिए। देश की जनता की भावना का आदर करते हुए शोगून ने त्यागपत्र दे दिया
और सन् 1868 से जापान के इतिहास में सम्राट की वास्तविक सत्ता का युग प्रारम्भ हो
गया।
सम्राट मेइजी द्वारा राजशक्ति के
संचालन को अपने हाथों में लेना जापान के आधुनिक इतिहास की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
घटना है। इस घटना के फलस्वरूप जापान में एक नवीन युग का प्रारम्भ हुआ। सामन्ती
पद्धति का अन्त हुआ और एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना हुई। यद्यपि इस सरकार की
समस्त शक्तियाँ सम्राट में केन्द्रित थीं, तथापि सम्राट अपनी शक्ति का प्रयोग मन्त्रियों के सहयोग एवं
परामर्श से करता था। मन्त्रियों की नियुक्ति कुल विशेष से नहीं, वरन् देश के योग्यतम
व्यक्तियों में से की जाती । इसलिये अब जापान के इतिहास में उस युग का प्राम्भ हुआ, जिसने उसे संसार की
प्रमुख शक्ति बना दिया।
आधुनिक विश्व शक्ति के रूप में जापान का उदय |
सन् 1889 का संविधान (Constitution of 1889)-
जापान के शासन सूत्र पर, अधिकार करने के बाद मेइजी
सम्राट के सामने मुख्य समस्या देश में सुव्यवस्थित एवं शक्तिशाली शासन व्यवस्था
स्थापित करने की थी। इस समस्या को हल करने के लिये उसने कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए।
देश में सामन्तवाद का पूर्ण रूप से अन्त कर दिया गया। सन् 1868 में एक नवीन
घोषणा-पत्र प्रकाशित करके शासन के नवीन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया। सन्
1881 में सम्राट ने एक घोषणा जारी की कि 1890 में जापान में एक संसद का गठन किया
जावेगा। इसी आश्वासन के आधार पर 1889 ई. में सम्राट की ओर से नवीन संविधान की
घोषणा की गई।
नये संविधान
के अन्तर्गत सम्राट को शासन का सर्वोच्च स्वामी स्वीकार किया गया। विभिन्न
पदाधिकारियों को नियुक्त करना, उन्हें उनके पदों
से हटाना, युद्ध की घोषणा करना तथा
अध्यादेश जारी करना सम्राट के मुख्य अधिकार थे। सम्राट की सहायता के लिये एक
मन्त्रिमण्डल की व्यवस्था की गयी थी, जिसके सदस्य केवल सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी थे। संविधान
के अन्तर्गत द्विसदनात्मक संसद की स्थापना की व्यवस्था की गई थी। उच्च सदन के
सदस्य सम्राट द्वारा मनोनीत तथा देश के धनीवर्ग से सम्बन्धित होते थे जबकि निम्न
सदन (लोकसभा) के सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित होते थे। मताधिकार सम्पत्ति पर
आधारित था। किन्तु कालान्तर में जापान में मतदाताओं में निरन्तर वृद्धि होती गई।
शासन विधानसभा में जापान में सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार था।
नागरिकों को भाषण,
लेखन की
स्वतन्त्रता, सभाएँ आयोजित करने, संगठन बनाने तथा धार्मिक
स्वतन्त्रता आदि सभी सुविधाएँ प्रदान की गईं।
उपर्युक्त संविधान
के लागू होने के परिणामस्वरूप जापान पाश्चात्य देशों की सरकारों एवं प्रशासन की
समता करने में सक्षम हो गया था। यद्यपि उस समय फ्रांस, अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन
इस क्षेत्र में बहुत अधिक प्रगति कर चुके थे, तथापि लोकतान्त्रिक (Democratic) शासन के विकास की दृष्टि
से जर्मनी, हंगरी, आस्ट्रिया तथा स्पेन आदि
उस समय भी जापान से पिछड़े हुए थे। यूरोप के विभिन्न देशों में सामन्त प्रणाली व
एकतन्त्र का अन्त होने तथा लोकतान्त्रिक ढंग की शासन प्रणाली की स्थापना होने में
सौ वर्ष से भी अधिक समय लग गया था। जबकि जापान में यह कार्य मात्र पच्चीस वर्ष की
अवधि में ही पूरा हो गया था। नवीन संविधान का निर्माण जापान के आधुनिकीकरण की ओर
उठाया गया पहला कदम था।
शिक्षा प्रसार व विकास (Development of Education)-
शोगून सरकार के
शासन काल में ही जापान के विद्यार्थियों ने उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए
विदेशों में जाना प्रारम्भ कर दिया था। शोगून सरकार के पतन तथा सम्राट की सत्ता के
आरम्भ के फलस्वरूप इस क्षेत्र में अधिक तीव्र गति से विकास हुआ। विदेशों से शिक्षा
प्राप्त करने के बाद स्वदेश लौटे जापानी विद्वानों ने शिक्षा के क्षेत्र में
क्रान्ति कर दी। इस क्षेत्र में सरकार का योगदान भी महत्त्वपूर्ण था। सन् 1972 मे
जापान में प्रत्येक बालक व बालिका के लिये कम से कम चार वर्ष तक की शिक्षा प्राप्त
करना अनिवार्य कर दिया गया था। सन् 1908 में इस अवधि को बढ़ाकर छ: वर्ष कर दिया।
इस नियम के फलस्वरूप सन् 1922 में जापान में प्रत्येक बालक व बालिका शिक्षित हो
गयी थी।
इस दृष्टि से
जापान यूरोप व अमेरिका महाद्वीपों के किसी भी प्रगतिशील देश से पीछे नहीं था।
शिक्षा के विकास पर जापान की सरकार ने अपार धन राशि व्यय की। सन् 1922 में सरकार
ने इस मद पर एक करोड़ पचास लाख येन व्यय किये थे। ये आँकड़े इस बात के
स्पष्ट प्रमाण हैं कि जापान की सरकार ने राष्ट्र की प्रगति के लिये शिक्षा के
विकास पर सर्वाधिक बल दिया था।
स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भी
बीसवीं सदी में जापान में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। उन्नीसवीं सदी तक स्त्रियों
का कार्य क्षेत्र घर की चार दिवारी तक ही सीमित था, किन्तु मेइजी सरकार की स्थापना के पश्चात् इस दिशा में
महत्त्वपूर्ण कार्य किये गए। सन् 1871 में पाँच जापानी युवतियों को उच्च शिक्षा
प्राप्त करने के लिये सरकारी व्यय पर विदेश भेजा गया। ईसाई मिशनरियों द्वारा
संचालित शिक्षा संस्थाओं द्वारा भी बालिकाओं के लिये उच शिक्षा की सुविधा प्रदान
की गई।
सन् 1901 में
स्त्रियों के उच्चतम शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से जापानी महिला
विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी। स्त्री शिक्षा के प्रसार के लिए फलस्वरूप जापान
में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान हो गयी।
आर्थिक विकास (Economic Development)-
उन्नीसवीं सदी के
उत्तरार्द्ध में औद्योगिक, व्यापारिक एवं
आर्थिक विकास के क्षेत्र में एक नवीन युग का सूत्रपात हुआ। सरकार के प्रोत्साहन से
देश के पूंजीपतियों ने बड़े-बड़े कारखानों की स्थापना की। सरकार ने नवीन मशीनों का
विदेशों से विशाल पैमाने पर आयात करके उत्पादन वृद्धि में सहयोग प्रदान किया।
फलस्वरूप सम्पूर्ण देश में औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात हो गया। सन् 1890 तक
जापान में 250 ऐसे विशाल कारखाने स्थापित हो चुके थे, जिनमें भाप की शक्ति
द्वारा संचालित यन्त्रों का प्रयोग होता था। इसके अतिरिक्त यातायात, संचार व्यवस्था, बैंकिंग, वाणिज्य आदि सभी
क्षेत्रों में जापान उन्नीसवीं सदी के अन्त तक एक विकसित देश बन चुका था।
उन्नीसवीं सदी के
प्रारम्भिक वर्षों में जापान की गणना विश्व के सबसे उन्नत व्यवसाय प्रधान देशों
में की जाती थी। सन् 1885 में वहाँ का विदेशी व्यापार 6 करोड़ 65 लाख येन था, जो सन् 1918 में बढ़कर
400 करोड़ येन हो गया। इस प्रकार मात्र 35 वर्ष की अवधि में जापान के विदेशी
व्यापार की अवधि में 60 गुना से भी अधिक की वृद्धि हुई थी। ये आँकड़े इस बात को
सिद्ध करते हैं कि जापान अत्यन्त द्रुतगति से अपनी औद्योगिक एवं आर्थिक स्थिति को
विकसित करके संसार के आधुनिक एवं अग्रणी देशों की पंक्ति में सम्मिलित होने के
लिये प्रयत्नशील था।
औद्योगिक विकास
के साथ-साथ जापान ने कृषि के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति की थी। जनसंख्या की
वृद्धि तथा खाद्यान्न की माँग बढ़ जाने के कारण सरकार ने कृषि के विकास पर अपना
पूरा ध्यान केन्द्रित किया। बंजर तथा परती भूमि को कृषि योग्य बनाया गया। कृषि के
आधुनिक एवं वैज्ञानिक यन्त्रों एवं तकनीकों के प्रयास की जानकारी कृषकों को प्रदान
की गई। इन प्रयासों के फलस्वरूप पचास वर्षों से भी कम समय में जापान में खाद्यान्न
उत्पादन में छ: गुनी वृद्धि हो गयी।
जापान की विदेश नीति (Foreign Policy of Japan)
1. विदेश नीति का प्रथम चरण
(1919 से
1922)-
जापान और पेरिस
शान्ति समझौता- प्रथम विश्व युद्ध के समाप्त होने के पश्चात् पेरिस शान्ति सम्मेलन बुलाया
गया। इस सम्मेलन में जापान तथा चीन के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया था। चूँकि
विश्व युद्ध में जापान की सेनाओं ने, चीन तथा रूस को एक एक करके परजित किया था इसलिये उसने पेरिस
समझौते में इस बात पर विशेष जोर दिया था कि उसकी गणना महान् राष्ट्रों में की जानी
चाहिये तथा सुदूर पूर्व में उसके प्रभाव को मान्यता मिलनी चाहिये। इस सम्मेलन में
जापान ने कुछ माँगें भी प्रस्तुत की, किन्तु मित्र राष्ट्रों ने उन माँगों का विरोध किया। अन्त
में जब जापान ने सम्मेलन को छोड़ने तथा संयुक्त राष्ट्र संघ का बहिष्कार करने की
धमकी दी, तब यह निर्णय लिया गया कि
शान्तुंग पर जापान का अधिकार होगा।
पेरिस समझौते से जापान तथा
अमेरिका दोनों ही असन्तुष्ट थे। शान्तुंग का प्रदेश मिलने पर भी जापान को सन्तोष
नहीं था जबकि अमेरिका की जनता का विचार था कि शान्तुंग का प्रदेश चीन को वापस
मिलना चाहिये। इसीलिये अमेरिका की सीनेट ने पेरिस समझौते को मान्यता नहीं
दी। वर्साय की सन्धि पर पुनर्विचार करने तथा सुदूरपूर्व में जापान के विस्तार को
रोकने के उद्देश्य से अमेरिका ने 1921 में वाशिंगटन सम्मेलन बुलाया था।
वाशिंगटन
सम्मेलन- वाशिंगटन
सम्मेलन अपने आप में एक महान् उपलब्धि थी, तथापि इस सम्मेलन में इस प्रश्न पर कोई निर्णय नहीं हो सका
कि सुदूरपूर्व में सर्वोच्च शक्ति के रूप में किस देश को मान्यता प्रदान करनी
चाहिये। जापान ने वाशिंगटन सम्मेलन को अमेरिका कूटनीति की संज्ञा प्रदान की थी।
2. विदेश नीति का द्वितीय चरण (1922 से 1927)-
इस अवधि में
जापान ने वैदेशिक क्षेत्र में सहयोग और सामंजस्य की नीति अपनाया था। वाशिंगटन
सम्मेलन के पश्चात् कुछ समय तक अमेरिका और जापान के सम्बन्ध सौहार्द्रपूर्ण
बने रहे। सन् 1922 में आर्थिक संकट के समय अमेरिका ने जापान की सहायता की थी, किन्तु 1924 में अमेरिका
की कांग्रेस ने कुछ पक्षपातपूर्ण कानून बनाए, जिसके फलस्वरूप दोनों देशों में फिर तनाव हो गया। फिर भी
जापान ने अमेरिका के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं किया। इस अवधि में जापान ने
वियना सम्मेलन में लिये गये निर्णयों का पालन करने का पूरा प्रयास किया था।
चीन और जापान के मध्य
हुए समझौते की शर्त के अनुसार जापान ने सन् 1923 में शान्तुंग प्रदेश चीन
को लौटा दिया। 1925 में जापान ने चीन के उन परिवारों को क्षतिपूर्ति देने का
आश्वासन दिया,
जिनके सदस्यों को
शांगाई में पुलिस ने मार दिया था। किन्तु नानकिंग पर बम बारी करने
के प्रश्न पर जापान ने ग्रेट ब्रिटेन तथा अमेरिका को सहयोग देने से इन्कार कर
दिया। वस्तुतः 1922 के पश्चात् जापान की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य चीन के साथ
मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना था। जापान ने इस अवधि में, रूस के साथ भी सम्बन्धों
को सुधारने का प्रयास किया था। उसने 1922 में साइबेरिया से अपनी सेनाओं को हटा
लिया और 20 जनवरी,
1925 को रूस के
साथ एक सन्धि सम्पन्न की।
जापान ने जेनेवा के
नौसैनिक सम्मेलन में भी भाग लिया और 1930 में लन्दन की नौसैनिक सन्धि पर हस्ताक्षर
किये। इसके अतिरिक्त जापान ने राष्ट्र संघ तथा अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के साथ भी
सहयोग किया था। उसने कैलॉग-ब्रिआ समझौते पर भी हस्ताक्षर किये।
3. विदेश नीति का तृतीय चरण (1927 से 1931)-
इस अवधि में
जापान की विदेश नीति में परिवर्तन हुआ। इससे पूर्व की अवधि में जापान का उद्देश्य
मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के माध्यम से देश के निर्यात को बढ़ाना तथा विदेशी बाजारों
का विस्तार करना था जबकि 1927 के पश्चात् जापान ने व्यापार तथा उद्योगों के विकास
हेतु सुदृढ़ आधार वाली विदेश नीति का पालन किया था।
1927 में जापान
के वाणिज्य एवं वित्त विशेषज्ञों ने इस सम्बन्ध में एक योजना बनाई तथा उसे जापान
के सम्राट के सम्मुख प्रस्तुत किया। इस योजना में यह बात स्पष्ट रूप से कही गयी थी
कि जापान के राष्ट्रीय अस्तित्व की सुरक्षा के लिये न केवल मंचूरिया, मंगोलिया तथा चीन पर विजय
प्राप्त करना आवश्यक है, बल्कि सम्पूर्ण
एशिया तथा दक्षिणी समुद्री राज्यों को जीतना भी आवश्यक है। इस योजना में यह भी
स्वीकार किया गया था कि साम्राज्य विस्तार की इस योजना को पूरा करने के लिये
अमेरिका को भी पराजित करना पड़ेगा। उपर्युक्त योजना को जापान का "मुनरो
सिद्धान्त" भी कहा जाता है। क्योंकि इसका मुख्य आधार एशिया, एशियावासियों के लिये है।
इस योजना का मुख्य उद्देश्य यूरोपीय देशों की साम्राज्यवादी योजनाओं से एशिया
महाद्वीप की सुरक्षा करना था। किन्तु अन्त में यह योजना स्वयं साम्राज्यवाद का
साधन सिद्ध हुई।
अमेरिका व जापान
के साम्राज्यवाद में मुख्य अन्तर यह था कि अमेरिका का साम्राज्यवाद जापान के
साम्राज्यवाद की तुलना में अधिक प्रत्यक्ष तथा उदार था। दूसरा अन्तर यह था कि मुनरो
सिद्धान्त के द्वारा यूरोपीय देशों को, अमेरिका की राजनीति से अलग रखने में सफलता मिल गई, जबकि जापान की योजना
एशिया को यूरोपीय राजनीति से अलग रखने में सफल न हो सकी। यद्यपि जापान का
मन्त्रिमण्डल उपर्युक्त योजना के अनुसार कार्य करने को तत्पर नहीं था तथापि जापान
के सैनिक कमाण्डरों ने अपनी प्रभावशाली भूमिका के बल पर उस योजना को स्वीकार करा
लिया।
4. विदेश नीति का चतुर्थ चरण (1931 से 1941)-
पिछले दस वर्षों
तक शान्तिपूर्ण नीति अपनाने के पश्चात् निम्न परिस्थितियों में साम्राज्यवादी
विदेश नीति का पालन किया गया था-
1. चीन में राष्ट्रीय
एकता की भावना का तीव्रगति से विकास हो रहा था। जापान ने चीन की इस भावना तथा उसकी
साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं से अपने लिये खतरा महसूस किया।
2. चीन में
साम्राज्यवादी रूस का प्रभाव बढ़ना प्रारम्भ हो गया था । जापान के शान्तिप्रिय
राजनीतिज्ञों और सैनिकवादियों को यह कार्य पसंद नहीं था।
3. सन् 1930 के
गम्भीर आर्थिक संकट के फलस्वरूप जापान अपने माल की बिक्री हेतु नवीन बाजारों और
बढ़ती हुई जनसंख्या को बसाने हेतु नवीन प्रदेशों की खोज करने को विवश हो गया।
जापान का मंचूरिया
पर आक्रमण-
कोरिया पर अधिकार
करने के पश्चात् जापान ने अपना ध्यान मंचूरिया की ओर आकर्षित किया। इसके तीन मुख्य
कारण थे-
1. जापान कच्चे
माल की पूर्ति के लिये मंचूरिया को सर्वाधिक उपयोगी क्षेत्र मानता था।
2. मंचूरिया
जापान की बनी हुई वस्तुओं की बिक्री के लिए एक अच्छा बाजार सिद्ध हो सकता था। इसके
अतिरिक्त मंचूरिया पर जापान का अधिकार हो जाने से जापान व कोरिया की जनसंख्या को
बसाने की समस्या का भी समाधान किया जा सकता था।
3. सैनिक दृष्टि
से भी जापान के लिये मंचूरिया का बहुत महत्त्व था। जापानी नेताओं का यह विचार था
कि यदि मंचूरिया पर जापान का अधिकार हो जाता है तो रूस के आक्रमण के विरुद्ध
मंचूरिया से जापान को बहुत सहयोग मिलेगा।
चीन भी मंचूरिया पर
अपना अधिकार करने को उत्सुक था। क्योंकि चीन के राष्ट्रवादी अपनी राष्ट्रीय एकता
और सुरक्षा के लिए मंचूरिया को चीन में मिलाना आवश्यक समझते थे। इस प्रकार जापान व
चीन के मध्य मंचूरिया एक विवाद का विषय बन गया। चूँकि मंचूरिया में कोरिया के
निवासियों की संख्या अधिक थी इसलिये वहाँ पर जापान का प्रभाव बढ़ने लगा। किन्तु
चीन ने कोरियावासियों को मंचूरिया खाली करने का दबाव डाला। इसके फलस्वरूप जापान व
चीन के मध्य सम्बन्धों में तनाव उत्पन्न हो गया। दक्षिणी मंचूरिया रेललाइन प्रकरण
से इस तनाव में अधिक वृद्धि हो गयी। अन्तत: जापान ने मंचूरिया पर आक्रमण किया और
मंचूरिया पर जनवरी, 1932 में अधिकार
कर लिया।
मंचूरिया प्रकरण से
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में तीन प्रतिक्रिया हुई। शान्तिप्रिय नीति का पालन करने
वाले देशों को इस घटना से गहरा आघात लगा। जापान ने मंचूरिया के प्रति जो नीति
अपनाई थी, सम्पूर्ण विश्व में उस
नीति की तथा जापानी साम्राज्यवादी नीति की बड़ी आलोचना की थी। उस समय राष्ट्र संघ
जैसा, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी
मौजूद था, किन्तु वह भी जापान की
साम्राज्यवादी नीति को रोकने में असफल रहा। यद्यपि चीन के अनुरोध पर राष्ट्र संघ
ने जापान पर कुछ प्रतिबंध लगाये; किन्तु जापान ने
उन प्रतिबन्धों का पालन नहीं किया। इसके अतिरिक्त जापान ने राष्ट्र संघ के संविधान, नौ देशों की सन्धि तथा
केलांग समझौते का भी उल्लंघन किया। चूँकि राष्ट्र संघ ने जापान के कार्यों की
निन्दा की थी,
इसलिए जापान ने
अपनी निन्दा की प्रतिक्रिया स्वरूप 27 मार्च, 1933 को राष्ट्रसंघ की सदस्यता से त्याग-पत्र दे दिया।
वस्तुतः ग्रेट- ब्रिटेन की तुष्टिकरण की नीति के कारण राष्ट्र संघ जापान के
विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं कर सका।
मंचूरिया विजय के उपरान्त जापान का चीन पर आक्रमण-
मंचूरिया को जीतने के उपरान्त
जापान चुप नहीं बैठा, बल्कि उसने चीन
पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। उसने चीन की दीवार पार करके वहाँ के कुछ प्रमुख
नगरों पर अधिकार करने का प्रयास किया। अन्त में सन् 1933 में चीन व जापान के मध्य
एक समझौता हुआ,
जिसके अनुसार चीन
की दीवार से पाँच हजार वर्ग मील क्षेत्र तक चीन की सेनाओं को प्रतिबन्धित कर दिया।
सन् 1934 में
जापान की विदेश नीति ने एक नया मोड़ लिया, जब उसने एशिया का नया आदेश (New order for Asia) के नाम से नवीन व्यवस्था
की घोषणा कर दी। इस व्यवस्था को जापान का मुनरो सिद्धान्त भी कहा जाता है। यह आदेश
वास्तव में पाश्चात्य देशों के प्रति चेतावनी सूचक था, क्योंकि इस आदेश में
स्पष्ट घोषणा की गयी थी कि पाश्चात्य देशों को "चीन छोड़ दो" की खुली घोषण
थी। इसके फलस्वरूप ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका और
फ्रांस ने जापान के प्रति भावी विदेश नीति को निर्धारित किया और शान्ति बनाये रखने
के उद्देश्य से उन्होंने चीन को सहयोग करना बन्द नहीं किया।
एण्टीकामिण्टर्न समझौता (Anti comintern pact)-
अपनी स्थिति को
सुरक्षित और मजबूत करने के लिये तथा एशिया के नवीन आदेश को स्थापित करने के लिए
जापान ने 25 नवम्बर, 1936 को एण्टीकामिण्टर्न
समझौते पर हस्ताक्षर किये। इसके फलस्वरूप जापान की विदेश नीति में
महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आ गया।
सन् 1937 में रूस
और चीन के विरुद्ध एक नया अभियान प्रारम्भ किया। सन् 1937 तक जापान ने मार्कोपोलो
ब्रिज, पैकिंग आदि स्थानों पर
अधिकार कर लिया था। च्यांग काई शेक ने स्थिति को दृढ़ करने का यथासम्भव प्रयास
किया था। इस दृष्टि से साम्यवादियों तथा राष्ट्रवादियों के संगठन की घोषणा कर दी
गयी थी, किन्तु जापान के बढ़ते
हुए कदमों को रोकने में सफलता नहीं मिली। दिसम्बर, 1937 में चीन की राजधानी नानकिंग पर जापानियों का अधिकार हो
गया।
जापान और द्वितीय विश्व युद्ध
जापान की साम्राज्यवादी व
सैनिकवादी नीति के कारण अनेक देश उसके शत्रु बन गए थे। 1939 में जब द्वितीय विश्व
युद्ध प्रारम्भ हुआ तो जापान ने पश्चिमी देशों के विरुद्ध अपनी स्थिति को मजबूत
बनाने का प्रयास किया। युद्ध के प्रारम्भ में विजय का पलड़ा हिटलर की ओर झुका रहा।
जापान ने भी जर्मनी के साथ युद्ध में सम्मिलित होने का निर्णय लिया था। उस समय
सैनिक दृष्टि से जापान एक अत्यन्त शक्तिशाली देश था। हिटलर ने जापान को रूस पर
आक्रमण करने का परामर्श दिया, किन्तु जापान ने
इसे अस्वीकार करते हुए ग्रेट ब्रिटेन व अमेरिका के विरुद्ध युद्ध करने का निश्चय
किया। जापान का यह निर्णय जोखिमपूर्ण था। किन्तु अमेरिका द्वारा चीन को जो समर्थन
मिल रहा था, उसे रोकने के लिये यह
जोखिम उठाना आवश्यक था। जापान ने पर्लहाबर पर बम बारी करके अमेरिका को युद्ध में
शामिल होने को विवश कर दिया।
युद्ध के
प्रारम्भ में जापान को मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त हुई, किन्तु 1943 के बाद उसकी
स्थिति गिरती गई। 11 अगस्त, 1945 को जापानी
सेनाओं ने मित्र राष्ट्रों की सेनाओं के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। इसके साथ ही
द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया। इस प्रकार बीसवीं सदी के चतुर्थ दशक तक जापान
प्रत्येक दृष्टि से विश्व का आधुनिक महान् देश बन चुका था। उस समय फार्मूसा, कोरिया, पेस्कादोरस द्वीप समूह, लियाओ तुंग प्रायद्वीप पर
उसका अधिकार था। पूर्वी एशिया एवं प्रशान्त महासागर में उसकी स्थिति सुदृढ़ हो गयी
थी। सामुद्रिक शक्ति की दृष्टि से भी जापान की गणना विश्व की तीसरी शक्ति के रूप
में की जाती थी। व्यवसाय व व्यापार के क्षेत्र में उन्नतशील देशों के समकक्ष था।
75 वर्षों से कम समय में ही जापान विश्व की एक महान् शक्ति बन गया।
आशा हैं कि हमारे
द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो
इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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