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मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन

भारत में मुसलमानों के आगमन के बाद शताब्दियों तक इस्लाम और हिन्दू धर्म के पारस्परिक सम्पर्क के महत्त्वपूर्ण परिवर्तन निकले। इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों ने हिन्दू धर्म सुधारकों को प्रभावित किया वहीं दूसरी तरफ मुस्लिम सन्त भी हिन्दुओं के आदर्शों से प्रभावित हुए फलस्वरूप उत्तर एवं दक्षिण भारत में एक प्रभावशाली धार्मिक आन्दोलन ने जन्म लिया जिसे भक्ति आन्दोलन के नाम से जाना जाता है।

भक्ति आन्दोलन का उद्भव एवं स्वरूप

भक्ति आन्दोलन के संबंध में विभिन्न प्रकार के मत प्राप्त होते हैं। वेबर तथा ग्रियर्सन की मान्यता है कि भक्ति और ईश्वर की एकता का विचार हिन्दुओं ने ईसाइयों से प्राप्त किया था। दूसरा मत यह भी व्यक्त किया जाता है कि भक्ति आन्दोलन का उद्भव इस्लाम के प्रभाव के कारण हुआ है।

माना जाता है कि शंकराचार्य का अद्वैतवादी सिद्धान्त (एकेश्वरवादी) भी इस्लाम से प्रभावित हुआ था लेकिन यह तर्कसंगत नहीं है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद भारतीय वेदान्त दर्शन पर आधारित था। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि इस्लाम के मिल्लत (भाई-चारे) के सिद्धान्त ने भक्ति आन्दोलन के प्रचारकों को अधिक प्रभावित किया था। मूर्ति-पूजा का विरोध भी इस तथ्य का परिचायक है कि इस्लाम धर्म 'के सिद्धान्तों को सहज ही स्वीकार कर लिया गया था। लेकिन यह सभी तर्क सत्य की 'कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं। केबल कुछ समानता के आधार पर यह मत प्रतिपादित करना न्याय-संगत प्रतीत नहीं होता है। बार्थ का मत है कि भक्ति आन्दोलन हिन्दू धर्म का ही एक अंग था। यदि भक्ति आन्दोलन के उद्भव में इस्लाम धर्म के योगदान को अंकित किया जाये तब इतना ही निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मूर्तिपूजा विरोधी कट्टर मुल्ला वर्ग ने अपने हिन्दू विरोधी कार्यों से इसे गति अवश्य प्रदान की।

मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन
मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन


भक्ति आंदोलन के दो स्वरूप हैं प्रथम प्रबुद्ध विचारकों द्वारा प्रचलित रूप तथा दूसरा अशिक्षितों द्वारा स्थापित रूप। बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म सामाजिक अन्याय के विरुद्ध तीखा स्वर प्रकट कर सके लेकिन सभी वर्गों के लिए धर्म अथवा भक्ति का कोई समुचित स्वरूप न दे सके। भक्ति आन्दोलन ने समस्त देश को अधिक ठोस स्थायी आधार प्रदान किया। सिद्धों का उग्र रूप क्रान्ति की अराजकता तक ही सीमित रहा। उसमें सामाजिक नियमन का स्वरूप गायब रहा। यथासिद्धों की शून्य ब्रह्म की निराकार उपासना भक्ति साधना की चरम स्थिति में तो संभव हो सकती है लेकिन आरम्भिक स्थिति में संभव नहीं है। सिद्ध साधक लम्बी साधना के बाद चरम स्थिति में पहुँच सकता है किन्तु सामान्य व्यक्ति बिना किसी प्रत्यक्ष आधार के वहाँ तक पहुँचने में असमर्थ रहता है। इस कारण भक्ति काल में सगुण उपासना पर अधिक बल दिया गया तथा अवतारवाद की स्थापना करके ब्रह्म के साकार स्वरूप की उपासना को ही अधिक व्यावहारिक माना गया है।

भक्ति आन्दोलन के उदय के कारण

भक्ति आन्दोलन के उद्भव तथा विकास में निम्नलिखित कारणों का उल्लेखनीय योगदान रहा है-

(1) हिन्दू धर्म का जटिल रूप- भक्ति आन्दोलन के उदय का मुख्य कारण हिन्दू धर्म का जटिल रूप था। इसमें मुख्य रूप से कर्मकाण्ड, पूजा-पाठ, उपवास आदि पर विशेष जोर दिया गया था। जनसाधारण इन सबसे तंग आ चुका था अत: वह परिवर्तन चाहता था। इसके लिये वह मार्ग भक्ति का था जिससे आध्यात्मिक शान्ति मिल सके। प्रसिद्ध इतिहासकार यूसुफ हुसैन ने भक्ति आन्दोलन के उदय के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि "ब्राह्मणवाद मूल रूप से एक बौद्धिक सिद्धान्त बनकर रह गया था। यह हृदय से अधिकारों की उपेक्षा करता था। मौलिक सिद्धान्त जिनकी यह 'वाद' शिक्षा देता था, अवैयक्तिक तथा काल्पनिक थे। ये उन लोगों की समझ में नहीं आते थे जो कि सदैव एक नैतिक और भावयुक्त सिद्धान्त एवं धर्म की खोज में थे, जिसके द्वारा हृदय की सन्तुष्टि और नैतिक शिक्षण संभव हो। इन्हीं परिस्थितियों में भक्ति-प्रेम मिश्रित ईश्वर-भजन के आन्दोलन ने एक अनुकूल वातावरण पाया।" वस्तुतः इस समय हिन्दू धर्म का स्वरूप अत्यन्त जटिल हो गया था तथा उपवास, कर्मकाण्ड एवं आडम्बर लगातार बढ़ रहे थे, अतः साधारण जनता उनका अनुसरण नहीं कर पा रही थी। परिणामस्वरूप भक्ति आन्दोलन के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ।

(2) सिद्धों का प्रभाव- भक्ति आन्दोलन के विकास में अनेक दार्शनिक विचारधाराओं का योगदान रहा है। बौद्ध धर्म के परवर्ती रूपोंवज्रयान, सहजयान तथा पाशुपत मत, योग परम्परा आदि ने भक्ति धारा को नवीनता प्रदान की। बौद्धों के वज्रयान में जब तंत्र- मंत्र का प्रभाव अधिक बढ़ा तो उसके फलस्वरूप भ्रष्टाचार का साम्राज्य बढ़ने लगा तो सिद्धों ने उन भ्रष्टाचारी सिद्धान्तों का खण्डन करके एक सहज मार्ग का नारा बुलन्द किया। ये सिद्ध जीवन की सहज प्रवृत्तियों में विश्वास रखते थे। इसी कारण इनके सिद्धान्तों को सहज मार्ग कहा गया। ये लोग चित्त शुद्धि पर विशेष बल देते थे तथा जीवन में सदाचार, निर्मल चरित्र आदि को अधिक महत्त्व देते थे। कबीर, नानक आदि सन्त कवियों पर इस सहजयान का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा।

(3) अद्वैतवाद का प्रभाव- भक्तिकालीन सन्तों पर अद्वैतवाद का काफी प्रभाव पड़ा था। उनका ज्ञान तथा उपदेश अद्वैत पर आधारित है। सन्त, कवि माया की सत्ता और जीव ब्रह्म की एकता को स्वीकार करते हैं। इस एकता में माया बाधक है। ज्ञान से माया का नाश किया जा सकता है। ब्रह्म की प्राप्ति के लिए वे विशिष्टाद्वैतिय की भक्ति भावना को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार अद्वैतवाद के प्रभाव के फलस्वरूप भक्ति-आन्दोलन के विकास में सहायता मिली।

(4) इस्लाम धर्म का प्रभाव- मध्यकालीन भारत में हिन्दू संस्कृति अपनी पूर्णता तथा प्राचीन परम्परा को संजोये अपने अस्तित्व की रक्षा करने का प्रयत्न कर रही थी तो दूसरी तरफ नवीन धार्मिक उन्माद से ओत-प्रोत मुस्लिम संस्कृति उस पर हावी होना चाहती थी। इसके परिणामस्वरूप हिन्दू तथा मुसलमानों में आपसी घृणा का भाव पैदा हो रहा था। अपनी रक्षा की भावना से हिन्दुओं के सामाजिक बंधनों के दृढ़ तथा संकीर्णता के आवरण में धार्मिकता गौण हो गई थी। उस युग के प्रतिभाशाली सन्तों को यह संकीर्णता ठीक प्रतीत नहीं हुई। उन्होंने आध्यात्मिकता के आधार पर इसका विरोध किया। इस प्रकार कबीर ने इस विद्रोही भावना में आत्म-विश्वास की दृढ़ता का मंत्र फूंका। उसे संकीर्णताओं से मुक्त किया और समता के आधार पर एक नवीन संस्कृति की शुरूआत की जो कि सभी के लिए समान रूप से ग्राह्य थी तथा जो हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों के लिए स्वीकार्य तथा श्रेष्ठ थी। इसमें धार्मिक मत-मतान्तरों, वादों, विचारधाराओं को अपने भीतर समेटने की क्षमता थी।

(5) मन्दिर तथा मूर्तियों को नष्ट करना- मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत आकर मनमाने तरीके से मूर्तियों को नष्ट किया तथा मन्दिरों का विनाश किया। उन्होंने हिन्दुओं के पवित्र स्थलों को अपवित्र किया। तत्कालीन समय में हिन्दू स्वेच्छापूर्वक अपने धर्म का पालन नहीं कर सकते थे, फलत: ईश्वरभक्त हिन्दुओं ने अपने इष्ट देवता की मूर्ति के अभाव में भक्ति मार्ग का अनुसरण किया, क्योंकि यही मार्ग उन्हें श्रेष्ठ तथा निरापद प्रतीत हुआ।

(6) ईसाई धर्म का प्रभाव- विदेशी इतिहासकारों ने भक्ति आन्दोलन के उदय का कारण ईसाई धर्म के प्रभाव को बतलाया है। वेबर के अनुसार, "भक्ति आध्यात्मिक चरम-मोक्ष के साधन और उसके लिए एक शर्त के रूप में विदेशी विचार था जो कि भारत में ईसाई धर्म के साथ आया और जिसने पुराणों और महाकाव्ययुगीन हिन्दू धर्म पर एक गहरा प्रभाव डाला।" इस कथन को पूर्ण रूप से सत्य नहीं माना जा सकता है। इसकी आलोचना करते डॉ. यूसुफ हुसैन, वर्थ तथा सेनार्ट आदि विद्वान् भारत में भक्ति को काफी प्राचीन मानते हैं। तत्कालीन समय में दक्षिण में कुछ संख्या में ईसाई अवश्य थे लेकिन भक्ति को उनकी देन मानना सर्वथा अनुचित है।

(7) जाति व्यवस्था की जटिलता- कट्टरपंथी हिन्दुओं ने विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों के प्रभाव से हिन्दू धर्म को बचाने के लिए उसे जटिलता का रक्षा कवच पहना दिया तथा खान-पान, विवाह और वर्ण-व्यवस्था को पहले की तुलना में कठोर रूप प्रदान किया। उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन का अधिकार किसी को भी नहीं मिला हुआ था, फलतः निम्न जातियों की स्थिति उत्तरोत्तर खराब होने लगी। वे एक तरफ उच्च वर्ग की घृणा की भावना से दुःखी थे तथा दूसरी तरफ मुस्लिम आक्रमणकारी उनका शोषण करते थे। हिन्दू धर्म में मोक्ष का मार्ग सभी वर्गों के लिए उन्मुख नहीं था लेकिन भक्ति- आन्दोलन के प्रवर्तकों ने अपनी उदारता के कारण मोक्ष का द्वार सभी के लिए खोलकर निम्न जाति के लोगों को इस तरफ आकर्षित किया।

(8) मुस्लिम आक्रमणकारियों के अत्याचार- भक्ति आन्दोलन के उदय का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि जब मुसलमान हिन्दुओं पर अत्याचार करने लगे तो हिन्दू निराश होकर ईश्वर की तरफ उन्मुख हुये। मध्यकाल में अधिकतर मुस्लिम शासकों ने किसी न किसी रूप में हिन्दुओं पर भयंकर अत्याचार किये थे। अतः पीड़ित हिन्दू ईश्वर भक्ति की तरफ उन्मुख हुये। सरदार के.एम. पन्निकर का मत है कि इस्लाम धर्म के अनुयायियों द्वारा किये गये अत्याचार भी भक्ति आन्दोलन के उद्भव के लिये उत्तरदायी थे।"

(9) हिन्दुओं की पलायनवादी प्रवृत्ति- मुस्लिम आक्रान्ताओं के लगातार उत्पीड़न के फलस्वरूप हिन्दुओं का शौर्य तथा पराक्रम कुण्ठाग्रस्त हो गया था। हिन्दू ईश्वर की भक्ति की ओर झुकने के लिए बाध्य हुए और उसके माध्यम से मुसलमानों से मुक्ति का मार्ग ढूंढ़ने का प्रयास किया। डॉ. विद्याधर महाजन के शब्दों में, "भक्ति आन्दोलन ने उस भावना का प्रतिनिधित्व किया जिसे पलायनवाद के नाम से जाना जाता है। इस समय में बहुत से हिन्दुओं ने सांसारिक जीवन में उन्नति के लिये कोई न कोई मार्ग पाया और इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि उन्होंने स्वयं भक्ति में अपना विश्वास रखकर अपने को भूल जाना चाहा।"

(10) तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियाँ- भक्ति आन्दोलन के उदय में राजनीतिक परिस्थितियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। छठी शताब्दी के बाद ही भारत पर विदेशी जातियों के आक्रमण होते रहे थे। राजनैतिक दृष्टि से राज्यों की सुरक्षा का भार क्षत्रियों के ऊपर था। इसलिए सामान्य जनता इन लगातार होने वाले आक्रमणों से तंग आ चुकी थी। राजपूत काल के आगमन तक तो यह स्थिति और भी चिन्ताजनक बन गई थी।

अतः राजनीतिक उदासीनता के कारण जनसाधारण की शासन में कोई रुचि नहीं रह गई थी। वह आन्तरिक शान्ति की खोज में थी जबकि इस्लाम धर्म के आगमन ने इसे और भी अनिवार्य बना दिया था। तत्कालीन समय में हिन्दुओं के मंदिरों को तोड़ा तथा मूर्तियों को अपवित्र किया गया। इससे हिन्दू जनता और भी अधिक भयभीत हो गई तथा वे मुसलमानों के इन धार्मिक अत्याचारों से अपने आपकों कैसे अलग रख सकते थे। इसका एकमात्र उपाय भक्ति आन्दोलन था। इसी के द्वारा हिन्दू जाति के लोग आध्यात्मिक जगत में विचरण करके मानसिक शान्ति प्राप्त कर सकते थे। परिणामस्वरूप सामाजिक तथा धार्मिक संगठन इस तरफ आगे बढ़े। इस प्रकार राजनैतिक परिस्थितियाँ भी भक्ति आंदोलन के उदय के लिए जिम्मेदार थीं।

(11) हिन्दू धर्म और जाति की सुरक्षा की भावना- विदेशों से आये मुसलमान जाति के लोग हिन्दू राज्य को मुस्लिम राज्य में परिवर्तित करना चाहते थे। अत: उनका हिन्दुओं के प्रति व्यवहार अत्यन्त कठोर तथा उग्र था। वे हिन्दुओं को अनेक प्रकार के प्रलोभन देते थे ताकि वे इस्लाम धर्म स्वीकार कर लें। इसलिए हिन्दुओं के हृदय में अपने धर्म और जाति की सुरक्षा का प्रश्न खड़ा होना अत्यन्त स्वाभाविक था। इसीलिए उन्होंने भक्ति आन्दोलन के सन्तों तथा समाज सुधारकों के माध्यम से अपने धर्म तथा जाति की सुरक्षा हेतु हर संभव प्रयास किया।

भक्ति आन्दोलन का विकास

भारतवर्ष में भक्ति की परम्परा बहुत ही प्राचीन रही है। कुछ विद्वान् इसे आर्येत्तर तत्त्व के रूप में मानते हैं। सिन्धु घाटी की खुदाई में मूर्तिपूजा के कुछ प्रतीक प्राप्त हुए हैं। वैदिक परम्परा में भी भक्ति की भावना पाई जाती है। वेदों में सूर्य-इन्द्र-वरुण आदि देवताओं की श्रद्धापूर्ण स्मृतियाँ मिलती हैं। गीता की रचना के समय तक तो भक्ति आर्य संस्कृति का अंग बन चुकी थी। ईसा के पूर्व ही भागवत धर्म का उदय हो चुका था तथा उसके साथ ही व्यक्ति का रूप स्पष्ट हो चुका था।

भक्ति परम्परा का प्रारम्भिक विकास दक्षिण भारत में हुआ। छठी शताब्दी ईसा पूर्व से नवीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य दक्षिण भारत में आलवार सन्तों ने भक्ति मार्ग का प्रचार किया। भागवत में भक्ति के मुख से कहलवाया गया है कि "मैं द्रविड़ देश में जन्मी, कर्नाटक में विकसित हुई, कुछ समय महाराष्ट्र में रही और गुजरात में पहुँचकर जीर्ण हो गई।" इस प्रकार दक्षिण भारत में विकसित हुई यह भक्ति परम्परा मध्य काल में आई तथा सन्त रामानन्द आदि धर्म प्रचारकों के द्वारा यहाँ उसका प्रचार किया गया। मध्य युग में मुस्लिम आक्रान्ताओं के अत्याचारों के कारण हिन्दुओं में निराशा एवं पलायनवादी भावना जागृत हो गई थी। उस समय साधु-सन्तों ने निराश हिन्दुओं के हृदय में भगवान के प्रति प्रेम व आस्था पुन: उत्पन्न करने के लिए भक्ति मार्ग जैसा सरल सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इससे भक्ति आन्दोलन की धारा तीव्र गति से बहने लगी।

भक्ति आन्दोलन की प्रमुख विशेषताएँ

 (1) ईश्वर की एकता पर जोर देना- भक्ति आन्दोलन के अधिकतर सन्तों ने ईश्वर की एकता पर बल दिया। एकेश्वरवाद इन सन्तों की शिक्षाओं का मूल मंत्र था। इस काल के सभी सन्त इस बात पर सहमत थे कि ईश्वर एक है जिसे लोग राम, कृष्ण, विष्णु तथा अल्लाह आदि विभिन्न नामों से जानते हैं। यह एक उल्लेखनीय बात थी कि ईश्वर के सगुण तथा निर्गुण रूपों के उपासक होने पर भी इन सन्तों में एक-दूसरे के प्रति धार्मिक सहिष्णुता की भावना विद्यमान थी।

 (2) मूर्तिपूजा का खण्डन करना- भक्ति काल के सन्तों ने मुख्य रूप से भारतीय धर्म में चली आ रही मूर्तिपूजा जैसी बुराइयों का खण्डन किया। कबीर ने इस संबंध में कहा 'पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार' अर्थात् पत्थर की पूजा करने पर यदि भगवान मिलते हैं तो वह पहाड़ पूजने के लिए तैयार है। अर्थात् मूर्तिपूजा व्यर्थ है। कुछ सन्तों की यह मान्यता थी कि यदि पत्थरों की पूजा में ही शक्ति होती तो वे स्वयं गिर जाने पर टूट क्यों जाते हैं। इस प्रकार भक्तिकाल में मूर्तिपूजा का घोर विरोध किया गया तथा शुद्ध भक्ति एवं चिन्तन पर बल दिया गया।

(3) पाखण्डों तथा आडम्बरों का खण्डन करना- भक्ति आन्दोलन के प्रायः सभी सन्तों ने पाखण्डों तथा आडम्बरों का खण्डन किया तथा शुद्ध आचरण तथा विचारों की पवित्रता पर विशेष बल दिया। इस काल के सभी सन्तों ने पाखण्डों तथा आडम्बरों को निरर्थक बतलाया तथा चरित्र एवं भावना की शुद्धता पर एक स्वर से बल दिया।

(4) सामाजिक समानता तथा भ्रातृत्व पर जोर देना- भक्ति काल के सभी सन्त सामाजिक समानता के समर्थक थे। उन्होंने जाति-प्रथा तथा ऊँच-नीच के भेदभावों का खण्डन करके सामाजिक समानता पर बल दिया। इन सन्तों ने निम्न वर्ग के लोगों को अपने सम्प्रदाय में दीक्षित किया तथा उन्हें भक्ति मार्ग का अधिकारी बतलाया। उन्होंने समस्त प्रकार के भेदभावों को भुलाकर प्राणीमात्र की एकता पर जोर दिया। उन्होंने यह सिद्ध किया था कि भगवान के दरबार में पहुँचने के लिए उच्च जाति का होना आवश्यक नहीं है अपितु भक्तिमय हृदय वाला कोई भी निम्न जाति का व्यक्ति भगवान से साक्षात्कार कर सकता है। उन्होंने विश्व बन्धुत्व का पाठ पढ़ाया तथा समस्त मानव जाति के उत्थान पर बल दिया। जात-पांत पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।" यह भक्ति आन्दोलन का सर्वविदित लोकप्रिय नारा था।

(5) साम्प्रदायिकता का अभाव- भक्ति आन्दोलन के अधिकतर सन्त साम्प्रदायिकता की भावना से रहित थे। वे किसी भी सम्प्रदाय अथवा धर्म के कट्टर अनुयायी न थे। सभी सन्तों ने कट्टरता तथा अन्धविश्वासों के स्थान पर उदार दृष्टिकोण पर बल दिया। कबीर, नानक आदि सन्तों ने हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों में आपसी सामंजस्य पर जोर दिया।

(6) नाम, महिमा, स्तुति तथा सत्संग का सहारा लेना- भक्ति भावना के विकास के लिए भगवान के नाम का स्मरण करना अत्यंत उपयोगी होता है। भगवान के नाम का स्मरण करने से मन में पवित्र भावों का जन्म होता है तथा पापों का विनाश होता है। भगवान के भक्तों को शुद्ध चित्त व मन से भगवान की स्तुति करनी चाहिए। यह स्तुति दास अथवा सखा भाव से की जा सकती है। भजन, कीर्तन आदि को भी स्तुति के अन्तर्गत शामिल किया जाता है। इसके अलावा आत्मा की शान्ति के लिए भक्ति भावना की उत्पत्ति तथा विकास के लिए सत्संग के महत्त्व पर जोर दिया गया है।

(7) शुभ कर्मों एवं सद्गुणों के विकास पर बल देना- भक्ति आन्दोलन के सन्तों की यह मान्यता थी कि निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है। वह व्यक्ति जो कि सांसारिक लोभ, मोह, काम, क्रोध, अहंकार आदि का परित्याग करके पूर्ण तल्लीनता से अपने आराध्य देव का ध्यान करता है, वही भक्ति भावना का विकास करने में सफल होता है। अत: ईश्वर की प्राप्ति तथा मानव जीवन को सफल एवं सुखी बनाने के लिए कर्म, वचन तथा मन की पवित्रता अति आवश्यक है।

(8) मोक्ष का साधन भक्ति मानना- भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने ईश्वर भक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया। ये सन्त ईश्वर भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन मानते थे। उन्होंने स्वार्थरहित भक्ति तथा अनन्य श्रद्धा रखने पर बल दिया था।

(9) गुरु की महत्ता पर जोर देना- भक्ति काल के सभी सन्तों ने गुरु की महत्ता पर बल दिया। उनका मानना था कि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति के लिए गुरु की सहायता परम आवश्यक है। गुरु की सहायता के अभाव में साधक के मन की बुराइयों का दूर होना तथा भगवान की प्राप्ति असंभव है। गुरु ही मनुष्य की सुप्त आत्मा को जगाता है तथा सेवा, प्रेम एवं भक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। कबीर ने तो गुरु का स्थान ईश्वर से भी अधिक पूज्यनीय माना है।

(10) हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल देना- भक्ति आन्दोलन के अनेक सन्तों ने हिन्दू तथा मुसलमानों की एकता पर बल दिया। कबीर, नानक आदि सन्तों ने हिन्दू तथा मुसलमानों के बीच की खाई को पाटने का प्रयत्न किया था। उन्होंने राम और रहीम तथा ईश्वर और अल्लाह में कोई अन्तर नहीं माना। उनके प्रयासों के फलस्वरूप हिन्दू तथा मुसलमानों के मध्य कटुता में कमी आई तथा इन दोनों संस्कृतियों में समन्वय स्थापित किये जाने के लिये अनुकूल वातावरण पैदा हुआ।

(11) धर्म-परिवर्तन पर रोक लगाना- भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप इस्लाम के आगमन पर जो धर्म-परिवर्तन की कार्यवाही चल रही थी। उस पर तत्काल प्रभाव से प्रभावशाली रोक लग गई थी। इस विचारधारा ने मुसलमान धर्म ग्रहण कर रहे निराश हिन्दुओं को अपने धर्म में ही रहने की सलाह दी। निम्न जाति के लोगों ने इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म में ही रहकर अपने उद्देश्य की पूर्ति की थी।

(12) राज्याश्रय रहित आन्दोलन होना- भक्ति आन्दोलन की यह प्रमुख विशेषता थी कि यह राज्याश्रय रहित आन्दोलन था। इसके अधिकतर सन्त और प्रचारक समाज के निम्न वर्ग से सम्बन्धित थे। उन्हें राज दरबार से कोई लेना-देना नहीं था। उनकी ईश्वर भक्ति में असीम आस्था थी तथा वे भक्ति मार्ग के सन्देश को साधारण लोगों तक पहुँचाने के लिए दृढ़ संकल्प थे।

(13) जन-भाषाओं का प्रयोग करना- जैन तथा बौद्ध मतावलम्बियों के अनुसार ही भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने भी अपनी शिक्षाओं का प्रचार व प्रसार जन भाषाओं में ही किया जिससे जन-साधारण उन्हें आसानीपूर्वक हृदयंगम कर सके। कबीर, नानक, मीरा, नामदेव आदि सन्तों ने स्थानीय भाषाओं को प्रोत्साहित किया था।

(14) प्रपत्ति- भक्ति आन्दोलन के सन्तों की यह मान्यता थी कि ईश्वर के सम्मुख पूर्ण रूप से आत्म-समर्पण किये बिना ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति असंभव है। इसके लिए सभी सन्तों ने यह उपदेश दिया कि भगवान की शरण को ही एकमात्र आश्रय माना जाना चाहिए तथा भगवान की प्रत्येक इच्छा को नत-मस्तक होकर स्वीकार कर लेना चाहिये।

भक्ति आन्दोलन का महत्त्व तथा प्रभाव

मध्यकालीन भारत के इतिहास में भक्ति आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह तत्कालीन समय एक लोकप्रिय जन आन्दोलन था जिसने सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों को काफी प्रभावित किया। भक्ति आन्दोलन के महत्त्व एवं प्रभाव का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है-

(1) हिन्दू-मुस्लिम एकता को प्रोत्साहन देना- भक्ति आन्दोलन के प्रचारकों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया। इस आन्दोलन के फलस्वरूप हिन्दू तथा मुसलमानों में धार्मिक सहिष्णुता का उदय हुआ। अपनी धार्मिक कट्टरता का परित्याग करके हिन्दू व मुसलमान दोनों एक-दूसरे के निकट आकर प्रेमपूर्ण व्यवहार करने लगे थे। इसके परिणामस्वरूप हिन्दू तथा मुस्लिम संस्कृतियों में सामंजस्य एवं समन्वय के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा हो गईं।

(2) हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करना- भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने हिन्दू धर्म में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया तथा उसे इस प्रकार शुद्ध और पवित्र धर्म बनाया कि धार्मिक सन्तों के प्रचार के परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म में ऊँच-नीच के भेदभाव कम होने लगे और सभी लोग मिलकर रहने लगे। बाह्य आडम्बर तथा व्यर्थ के रीति-रिवाज ढीले पड़ने लगे तथा जनसाधारण ने शुद्ध कर्मों की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया। इस प्रकार भक्ति आन्दोलन के प्रचारकों ने हिन्दू धर्म को सुधारने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

(3) सामाजिक समानता और भ्रातृत्व का प्रचार करना- भक्ति आन्दोलन ने भारतीय समाज को भी पर्याप्त रूप से प्रभावित किया। इस आन्दोलन ने जाति-प्रथा, ऊँच-नीच, छुआछूत आदि कुरीतियों का विरोध किया। धार्मिक सन्तों ने निम्न वर्ग के लोगों के लिए भी मोक्ष के द्वार खोल दिये थे। इस आन्दोलन के द्वारा शूद्रों तथा निम्न जातियों के लोगों में आत्मसम्मान तथा विश्वास की भावनाएँ जागृत हुईं तथा उनको भी समाज का सम्माननीय अंग माना गया। परिणामस्वरूप दलित तथा पिछड़ी जातियों के लोगों को भी ऊपर उठ्ने का अवसर प्राप्त हुआ।

(4) निराश हिन्दू जनता में नवीन शक्ति का संचार करना- भक्ति आन्दोलन ने हिन्दू जनता में एक नवीन शक्ति का संचार किया। पीड़ित, शोषित तथा दुःखी हिन्दू समाज के लिये भक्ति आन्दोलन बड़ा ही उपयोगी सिद्ध हुआ। इस आन्दोलन के फलस्वरूप उन लोगों में अद्भुत सहनशक्ति पैदा हो गई थी। इन्हीं सन्तों के अथक प्रयासों के परिणामस्वरूप ही हिन्दू धर्म अपनी रक्षा करने में समर्थ हुआ।

(5) राजनीतिक क्षेत्र में प्रभाव- भक्ति आन्दोलन ने राजनीतिक क्षेत्र में हिन्दू जाति में आई उदासीनता को जागृत कर यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय अपनी संस्कृति और धर्म के माध्यम से अपनी रक्षा करने में समर्थ हैं। उसमें भी राजनीतिक शक्ति है। पंजाब में सिक्ख राज्य तथा दक्षिण में मराठा राज्य की स्थापना भक्ति आन्दोलन के प्रमुख प्रचार का ही प्रभाव था। इन दोनों राज्यों में मुगलकाल तथा ब्रिटिश काल में भी हिन्दुत्व की रक्षा की तथा हिन्दू संस्कृति को पुनर्जीवित किया। इस प्रकार भक्ति आन्दोलन के फलस्वरूप ऐसे अनेक देशभक्तों का जन्म हुआ जो मुगल तथा अंग्रेजों से डटकर लोहा लेते रहे तथा भारतीय इतिहास में अपना अस्तित्व कायम रख सके।

(6) नवीन सम्प्रदायों का उदय- भक्ति आन्दोलन ने तत्कालीन समय में देश के लोगों के धार्मिक जीवन पर भी व्यापक प्रभाव डाला। भक्ति आन्दोलन के सन्तों द्वारा उनके नामों पर अनेक धार्मिक सम्प्रदायों की स्थापना हुई जो कि वर्तमान समय तक जीवित है। इन सम्प्रदायों के अन्तर्गत कबीरपंथ, दादूपंथ तथा सिक्ख सम्प्रदाय आदि उल्लेखनीय हैं!

(7) प्रान्तीय भाषाओं का विकास होना- मध्य काल में भारत की प्रान्तीय भाषाओं के विकास का श्रेय भक्ति आन्दोलन को ही दिया जाता है। इस आन्दोलन के प्रमुख सन्तों ने अपनी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य तथा अन्य प्रान्तीय भाषाओं को विकासोन्मुख किया।

रामानन्द, कबीर, सूरदास, जायसी, दादू, वल्लभाचार्य आदि सन्तों ने हिन्दी में अपनी रचनाएँ लिखीं। सूरदास ने ब्रज भाषा तथा तुलसीदास ने अवधी भाषा को पल्लवित किया। गुरुनानक के प्रयासों के फलस्वरूप गुरुमुखी तथा पंजाबी भाषा का विकास हुआ। नामदेव, ज्ञानेश्वर तथा सन्त तुकाराम ने मराठी भाषा का विकास किया। चैतन्य महाप्रभु तथा चण्डीदास ने बंगला भाषा के विकास में अतुलनीय योगदान दिया। नरसी मेहता की कविताओं ने गुजराती साहित्य को उन्नत किया। राजस्थानी भाषा को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से मीराबाई का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इस काल में सबसे अधिक हिन्दी भाषा का विकास हुआ जो आगे चलकर समस्त भारत की राजभाषा के रूप में परिणित हुई। इस प्रकार साहित्य के विकास के क्षेत्र में भक्ति आन्दोलन ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

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