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प्रथम विश्व युद्ध के बाद शान्ति समझौता

बीसवीं सदी का विश्व

प्रथम विश्व युद्ध के बाद शान्ति समझौता (पेरिस शान्ति समझौता)

1918 में महायुद्ध तो समाप्त हो गया किन्तु यह अनेक प्रकार की जटिल राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ छोड़ गया, जैसी संसार के सामने कभी उपस्थित नहीं हुई थीं। यूरोप के अनेक परम्परागत शासनों जैसे जर्मनी, आस्ट्रिया, रूस और तुर्की के साम्राज्य को अन्त हो चुका था। यूरोप का आर्थिक जीवन अस्त-व्यस्त हो चुका था, असंख्य लोग अपर्याप्त भोजन के कारण बीमार थे या भूख से मर गये थे। शान्ति स्थापना करने का कार्य युद्ध से अधिक कठिन प्रतीत हो रहा था। जर्मनी को युद्ध के अन्तिम दौर में अनेक स्थानों पर हार का सामना करना पड़ा।

युद्ध बन्द करने के लिये जब बेडन के प्रिन्स मैक्स ने अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन से मध्यस्थता करने के लिये कहा, इस प्रस्ताव के 11 दिन बाद ही जर्मन नौसेना ने एक क्रूर कृत्य का परिचय देते हुए बची-खुची सहानुभूति को खो दिया। जर्मन नौसेना ने आयरिश यात्री जहाज लीन्सटर (Linster) को डुबो दिया। इस जहाज पर 450 आदमी, औरतें और बच्चे थे। ऐसी परिस्थिति में विजित राष्ट्रों के प्रतिनिधि पेरिस ऐसी व्यवस्था स्थापित करने के लिये एकत्रित हुए थे जिसके द्वारा पराजित राष्ट्रों के साथ प्रतिशोधात्मक न्याय हो सके।

पेरिस शान्ति समझौता

शान्ति सम्मेलन के लिये स्थान- शान्ति सम्मेलन के लिये पेरिस को ही चुना गया। राष्ट्रपति विल्सन ने पेरिस को ही सम्मेलन का केन्द्र चुनना उचित समझा, क्योंकि वहाँ अमेरिका की सेना पर्याप्त संख्या में मौजूद थी। उदारवादी प्रजातन्त्रीय विचारधारा का भी पेरिस केन्द्र था। फ्रांस के लिये यह स्थान गौरव का विषय था।

प्रमुख प्रतिनिधि- पेरिस में सभी विजेता राष्ट्रों के प्रतिनिधि एकत्रित हुए। रूस और पराजित राष्ट्रों को सम्मेलन में आमन्त्रित नहीं किया गया। अमेरिका से स्वयं राष्ट्रपति विल्सन, इंग्लैण्ड से प्रधानमंत्री लायड जार्ज, इटली से प्रधानमंत्री आरलैण्डो तथा जापान के प्रधानमन्त्री सेओजी सम्मेलन में शामिल हुए।

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प्रथम विश्व युद्ध के बाद शान्ति समझौता


शान्ति सम्मेलन का गठन-

सम्मेलन की समस्याएँ- सम्मेलन में प्रमुख राष्ट्रों के दो-दो प्रतिनिधि थे। ये प्रमुख राष्ट्र थे-अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, जापान और इटली। सम्मेलन की मुख्य समस्याएँ निम्नलिखित थीं-

1. संधि का ऐसा प्रारूप तैयार करना जो न केवल बड़ी शक्तियों को अपितु अन्य सभी राज्यों को स्वीकृत हो। युद्ध के परिणामस्वरूप उत्पन्न आर्थिक संकट तथा मध्य और पूर्वी यूरोप के निवासियों की खाद्य समस्या को सुलझाना, विजयी सेनाओं, उत्तेजित जनमत तथा समाचारपत्रों पर नियन्त्रण रखना, जर्मनी की पराजय के उपरान्त छोटे-छोटे देशों में आपसी झगड़ों का हल ढूँढ़ना आदि।

2. विभिन्न विषयों के निर्णयों पर किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाया जाये-गुप्त अथवा खुला।

3. विल्सन ने अपने चौदह सिद्धान्तों को आधार मानकर ही की गयी गुप्त सन्धियों को भंग करने की बात कही थी। युद्ध के दौरान अनेक गुप्त सन्धियों पर हस्ताक्षर किये गये थे और इन सन्धियों के विषय में राष्ट्रपति विल्सन को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा।

4. प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने से पूर्व यूरोप में बहुतसी ऐसी समस्यायें थीं, जिनके कारण विविध राज्यों मे परस्पर असन्तोष व विरोध बना रहता था।

प्रमुख राष्ट्र उनके प्रतिनिधि- युद्ध के दौरान पाँच प्रमुख राष्ट्रों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। अमेरिका, ब्रिटिश साम्राज्य, फ्रांस, इटली और जापान । इन पाँच प्रमुख राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के व्यक्तित्व का इस सम्मेलन पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ा। इन राष्ट्रों के अलावा अनेक ऐसे विश्व विख्यात नेता भी आये थे, जिन्होंने किसी न किसी रूप में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। हर प्रतिनिधि मण्डल अपने साथ तकनीकी सलाहकारों का दल लेकर आया था। अमेरिका और ब्रिटिन लगभग 200 ऐसे सलाहकारों को लेकर आये थे।

शान्ति सम्मेलन के प्रमुख आधार- शान्ति सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों के पास कोई ठोस कार्यक्रम या पूर्व निर्धारित ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं था जो कि सर्वमान्य हो। रूस की क्रान्ति से और अमेरिका के युद्ध में भाग लेने से मित्र राष्ट्रों के उद्देश्यों में परिवर्तन आना स्वाभाविक था। विल्सन और जर्मनी के राजनयिकों ने इस बात पर बल दिया कि उन्होंने विल्सन के सिद्धान्तों के आधार पर युद्ध बन्द किया है।

विल्सन के चौदह सूत्र- जर्मनी ने अन्तिम रूप से समर्पण राष्ट्रपति विल्सन के 5 नवम्बर, 1918 के नोट के आधार पर किया था। इस नोट में यह कहा गया था कि मित्र राष्ट्र इस बात पर सहमत हैं कि जर्मनी के साथ सन्धि के आधार पर राष्ट्रपति विल्सन के 8 जनवरी, 1918 के व्याख्यान होंगे, जिनमें 14 सूत्रों की घोषण गयी थी-

1. भविष्य में शान्ति सन्धियाँ प्रकटरूप से की जायें और गुप्त कूटनीति का सहारा नहीं लिया जाये।

2. शान्ति तथा युद्ध दोनों स्थितियों में, समुद्रों सबके लिये स्वतन्त्र रहें और वे सब देशों के लिये खुले रहें।

3. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के मार्ग से आर्थिक बाधायें हटा दी जायें।

4. शस्त्रों में कटौती हो।

5. अधिक लोगों का ध्यान रखकर उनके हितों की रक्षा करते हुए औपनिवेशिक दावों का निष्पक्ष निर्णय हो।

6. रूस को विकास के लिये पूर्ण अवसर प्रदान किया जाये।

7. जर्मनी द्वारा बेल्जियम की भूमि को खाली कर दिया जाये और यथापूर्व स्थिति को स्थापित किया जाये।

8. इसी प्रकार फ्रांस की भूमि को भी खाली कर दिया जाये।

9. राष्ट्रीयता के सिद्धान्तों के आधार पर इटली की सीमाओं का समाधान हो।

10. आस्ट्रिया-हंगरी के लोगों को स्वायत्त शासन का अधिकार प्राप्त हो।

11. सर्बिया, मोण्टीनीग्रो तथा रूमानिया को केन्द्रीय राष्ट्रों के अधिकार से खाली करवाकर पूर्व की स्थिति पर पहुंचा दिया जाये। सर्बिया के समुद्र तट पर निकास-स्थल प्राप्त हो।

12. तुर्की के साम्राज्य के विशुद्ध तुर्की प्रदेश की संप्रभुता सुरक्षित रहे और शेष भागों को स्वायत्त शासन प्राप्त हो।

13. स्वतन्त्र पौलेण्ड का निर्माण हो और उसे समुद्र तक पहुँचाने की सुविधा दी जाये।

14. छोटे-बड़े सभी राज्यों को समान रूप से राजनीतिक व्यवस्था, स्वतन्त्रता और प्रादेशिक अखण्डता का आश्वासन देने के लिये एक राष्ट्र संघ की स्थापना की जाये।

राष्ट्रपति का दूसरा महत्वपूर्ण व्याख्यान कांग्रेस के समक्ष 11 फरवरी, 1978 को दिया गया जिसमें उन्होंने सन्धियों के न्यायपूर्ण होने तथा युद्ध से सम्बन्धित प्रदेशों की व्यवस्था करते समय आत्म-निर्णय के सिद्धान्त का पालन करने को कहा था।

पेरिस की सन्धियाँ

पेरिस में मुख्यतः जिन सन्धियों पर सहमति हुई, वे पाँच थीं जो इस प्रकार हैं-

1. जर्मनी के साथ वर्साय सन्धि (28 जून, 1919)

2. आस्ट्रिया के साथ सेण्ट जर्मन की सन्धि (10 सितम्बर, 1919)

3. बुल्गारिया के साथ नुइली की सन्धि (27 नवम्बर, 1919)

4. हंगरी के साथ त्रिआनो की सन्धि (4 जून, 1920)

5. तुर्की के साथ सेव्रे की सन्धि (10 अगस्त, 1920)

1. वर्साय की सन्धि-

वर्साय की सन्धि की पृष्ठभूमि में मित्रराष्ट्रों के निम्नलिखित प्रयोजन थे-

1. संसार के सभी राजनीतिज्ञ इस निर्णय पर पहुंच चुके थे कि विश्व शान्ति बनाये रखने के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता है। एक ऐसा राष्ट्र संघ जो विभिन्न प्रकार की उपजी समस्याओं का समाधान ढूँढ़ सकने में सक्षम हो तथा एक ऐसे वातावरण को बनाने में सहयोग प्रदान करे जिससे युद्ध की स्थिति उत्पन्न न हो सके।

2. फ्रांस सबसे ज्यादा यह चाहता था कि जर्मनी की शक्ति पर रोक लगायी जा सके, क्योंकि 1870 और फिर 1914 में दो बार फ्रांस पर जर्मनी के आक्रमण किया था और फ्रांस के महत्वपूर्ण प्रदेशों को छीनने में जर्मनी को सफलता मिली थी।

3. राष्ट्रीयता एवं आत्म निर्णय के सिद्धान्त के आधार पर यूरोप के अनेक राष्ट्रों के पुनर्निर्माण की आवश्यकता थी। यूरोपीय राष्ट्र अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के उत्सुक थे।

4. सभी बड़े यूरोपीय राष्ट्रों के औपनिवेशिक साम्राज्य थे, जर्मनी भी इसमें सम्मिलित था। युद्ध के बाद यह समस्या उत्पन्न हुई कि जर्मनी के उपनिवेशों की क्या स्थिति हो? जर्मनी के उपनिवेशों पर यूरोपीय राज्यों ने कब्जा कर लिया था।

5. विजयी मित्र राष्ट्र इस बात से सहमत थे कि जर्मनी तथा सहयोगी राष्ट्र ही युद्ध के लिये उत्तरदायी थे। इस युद्ध से विजयी राष्ट्रों को असीमित हानि हुई थी। मित्र राष्ट्रों का यह मानना था कि पराजित राष्ट्रों की क्षतिपूर्ति करनी चाहिये। उनके लिये आर्थिक दृष्टि से उबरना आवश्यक था।

6. जर्मनी की सैनिक शक्ति को भी ये मित्र राष्ट्र कम करना चाहते थे। ये जर्मनी की नाविक तथा थल सेना में कटौती करना चाहते थे और ऐसे कारखानों पर नियन्त्रण चाहते थे, जिसके परिणामस्वरूप अस्त्र-शस्त्रों पर भी प्रतिबन्ध हो सके।

2. आस्ट्रिया के साथ सेण्ट जर्मन की सन्धि (Treaty of St. Germaine)

यह सन्धि मित्र राष्ट्रों और आस्ट्रिया-हंगरी के बीच हुई। इस सन्धि की शर्ते निम्नलिखित थी-

1. आस्ट्रिया ने हंगरी, चेकोस्लोविया, पौलेण्ड तथा यूगोस्लाविया की स्वतन्त्रता को मान्यता दी।

2. उसने आस्ट्रिया-हंगरी में पहले से सम्मिलित प्रदेशों को छोड़ दिया।

3. परिणामतः आस्ट्रिया क्षेत्र व जनसंख्या में पुर्तगाल से भी छोटा गणतन्त्र हो गया।

4. आस्ट्रिया से उसके बन्दरगाह छीन लिये गये।

5. उसकी सेना घटाकर 30,000 सैनिक कर दी गयी।

6. अन्तर्राष्ट्रीय क्षतिपूर्ति आयोग द्वारा आस्ट्रिया द्वारा दी जाने वाली राशि तय होना शेष रही।

7. आस्ट्रिया की नौसेना को समाप्त कर दिया गया।

3. बल्गारिया के साथ न्यूइली की सन्धि (Treaty of Neuilly with Bulgaria)

इस सन्धि के अनुसार-

1. बुल्गारिया ने प्रथम विश्व युद्ध में तथा 1912-13 में बाल्कन युद्ध में जीते हुए सारे प्रदेश लौटा दिये।

2. उसने यूगोस्लाविया को मेसीडोनिया का कुछ भाग भी दिया और रूमानिया को डोब्रूजा वापस करना पड़ा।

3. उसने थ्रेस का समुद्री तट मित्र राष्ट्रों को दिया, जिन्होंने उसे यूनान को रौंप दिया।

4. बुल्गारिया को 5,00,000 डालर युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में देने पड़े।

5. बुल्गारिया की सेना को घटाकर 33,000 सैनिक कर दिया गया।

4. त्रिआनो की सन्धि (Treaty of Triano)

यह सन्धि हंगरी और मित्र राष्ट्रों के बीच हुई। इसके अनुसार-

1. हंगरी ने गैर मग्यार जनसंख्या को छोड़ दिया।

2. स्लोवाक प्रदेश, चेकोस्लोवाकिया को ट्रांसिल्वेनिया, रूमानिया को और क्रोशिया, यूगोस्वालिया को दे दिये।

3. नये हंगरी राज्य की जनसंख्या 8,00,000 और क्षेत्रफल 35,000 वर्ग मील था।

4. हंगरी की सेना को घटाकर 35 हजार कर दिया गया।

5. उसकी नौसेना को भंग कर दिया गया।

5. तुर्की के साथ सेव्रे की सन्धि (Treaty of Severes with Turkey)

इस सन्धि पर तुर्की और मित्र राष्ट्रों के मध्य हस्ताक्षर 10 अगस्त, 1920 ई. को हुआ। इस सन्धि के अनुसार-

1. इसके अनुसार हेजाज के अरब राज्य को औपचारिक रूप से स्वतन्त्र करके ब्रिटेन के नियन्त्रण में कर दिया गया।

2. आर्मीनिया को एक ईसाई राज्य बनाकर अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण में रखा गया।

3. मैसोपोटामिया ट्रांस जोर्डन, सीरिया और फिलिस्तान को तुर्की से ले लिया गया।

4. सीरिया को राष्ट्रसंघ के संरक्षण में फ्रांस को दे दिया गया।

5. संरक्षण प्रणाली के अन्तर्गत फिलीस्तीन मैसोपोटामिया और ट्रांस जोर्डन ब्रिटेन को दे दिये।

6. गैलिशिया को फ्रांस का प्रभाव क्षेत्र माना गया।

7. अनातोलिया, गैल्लीपोली, एम-बोस और टिनीडोस के द्वीप, स्मर्ना और एशिया माइनर के तट का प्रदेश, यूनान को दे दिये गये।

8. दारदनेलिज और बोस्फोरस जलडमरू मध्यों को अन्तर्राष्ट्रीय नियन्त्रण में रखा गया।

9. तुर्की को एक भारी राशि क्षतिपूर्ति के रूप में देनी पड़ी।

1920 में तुर्की ने सेने की सन्धि स्वीकार कर ली थी। किन्तु युवा तुर्क कमाल अता तुर्क के नेतृत्व में तुर्क राष्ट्र भक्तों ने सेने की कठोर शर्तों को स्वीकार नहीं किया तथा यूनानियों को 1922 में परास्त कर एशिया माइनर में अपना स्थान सुरक्षित किया।

अल्पसंख्यकों की स्थिति और सन्धियाँ (Minorities Treaties)

प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व पूर्वी यूरोप में विद्यमान विभिन्न जातियाँ स्वतन्त्र हो जाना चाहती थीं। मित्र राष्ट्रों के सामने यह बड़ी प्रबल समस्या थी कि एक जाति एक राज्य और आत्म निर्णय के सिद्धान्त को कैसे लागू किया जाये।

1. पूर्वी यूरोप और बाल्कन प्रायद्वीप के विभिन्न प्रदेशों में अनेक जातियों का निवास था। आस्ट्रिया हंगरी के राज्य में जर्मन जाति के बहुत से लोग बस गये थे जो उनके प्रदेश नहीं थे। विभिन्न जातियों का मिश्रण हो जाने से नये राज्यों की सीमाओं को निर्धारित करना सुगम कार्य नहीं था।

2. जर्मनी और उसके सहयोगी राज्यों के विपरीत, इन जातियों ने मित्र राष्ट्रों के युद्ध में सहयोग प्रदान किया था। अत: उन्हें आशा थी युद्ध के बाद पृथक् स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने की उनकी आकांक्षा फलीभूत होगी। फ्रांस उनकी भावना और इच्छा को पूरी होते देखना चाहता था, क्योंकि फ्रांस, जर्मनी और आस्ट्रिया को कमजोर रखना चाहता था।

पेरिस की शान्ति परिषद् ने विभिन्न सन्धियों के माध्यम से इन अल्पसंख्यकों की रक्षा करने का प्रावधान रखा था, जिससे की उनकी भाषा, धर्म तथा संस्कृति की रक्षा हो सके। ब्रिटेन और अमेरिका अल्पसंख्यकों को पूर्ण रूप से आत्म निर्णय का अधिकार देने के सिद्धान्त को पक्ष में था। इसलिये राष्ट्रसंघ को यह कार्य सौंपा गया और राष्ट्र संघ के द्वारा यूरोप के विभिन्न राज्यों के साथ इस सम्बन्ध में पृथक् रूप से इकरार भी किये गये। प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्र संघ की स्थापना एक महत्वपूर्ण कार्य था। पेरिस शान्ति सम्मेलन के माध्यम से जर्मनी के उपनिवेश तथा तुर्की के अनेक क्षेत्र राष्ट्र संघ के नियन्त्रण में रख दिये गये थे। इस व्यवस्था को अधिदेश प्रणाली कहा गया। राष्ट्र संघ ने अपने अधिदेश द्वारा इन प्रदेशों के प्रशासन का कार्य राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में मित्र राष्ट्र को सौंप दिया।

सन्धियों का मूल्यांकन

समूचे विश्व ने इतने प्रलयकारी और लम्बे युद्ध की कल्पना नहीं की। विजेता और विजित दोनों ही पर युद्ध का प्रभाव भयंकर था। पुराने विश्व का शक्ति सन्तुलन लड़खड़ा गया था। पेरिस शान्ति सम्मेलन, यूरोप का पुननिर्माण और शान्ति स्थापित करने के लिए बुलाया गया था। यह सम्मेलन भी विएना सम्मेलन का स्मरण कराता है। जहाँ पर रूस के जार अलेक्जेण्डर का आदर्शवाद असफल सिद्ध हुआ। पेरिस सम्मेलन के दौरान भी विल्सन का न्यायप्रिय और प्रजातन्त्रीय होना और सम्मेलन के समय पारदर्शिता रखना, ये आदर्श परास्त होते दिखायी दिये।

शान्ति सम्मेलन के समय युद्ध समाप्त ही हुआ था। अधिकांश यूरोपीय राष्ट्रों में उत्तेजना, क्रोध और बदले की भावना प्रबल थी। इस सम्मेलन में आये विभिन्न प्रतिनिधि अपने-अपने राष्ट्रों के जनमत से प्रभावित थे। इस सम्मेलन में आये प्रतिनिधि और सलाहकार लम्बी अवधि तक अपने राज्यों से, घरों से दूर रहने केकारण, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से तनाव की स्थिति में थे और वे अनावश्यक रूप से विस्तार से विचार किये गये उन महत्वपूर्ण विषयों पर शीघ्रता से निर्णय लेना चाहते थे, जिनका प्रभाव दूरगामी और स्थायी हो सकता है । सहयोगी राष्ट्रों से चर्चा किये बगैर ही प्रमुख तीन राष्ट्र निर्णय ले लेते थे। शान्ति के लिये जिन विषयों पर पहले विचार करना आवश्यक था उन विषयों पर गम्भीरता से चर्चा नहीं की गयी। सम्मेलन में नि:शस्त्रीकरण, आर्थिक पुनर्निर्माण, राष्ट्र संघ जैसे विषयों पर निरर्थक और अनुपयोगी बहस चलती रही। सन्धि ऐसे समय में की गयी थी जबकि शत्रु द्वारा किये हुए भयंकर विनाश तथा अपार कष्ट्रों की स्मृति विजेता राष्ट्रों मे ताजा थी और विजित राष्ट्रों के प्रति भावनायें बड़ी तीव्र थी। पेरिस सम्मेलन की सन्धियों के बारे में इतिहासकारों ने निम्नलिखित मत व्यक्त किये-

1. अन्यायपूर्ण सन्धि- सम्मेलन का प्रमुख उद्देश्य शान्ति स्थापित करना था, किन्तु सम्मेलन के सदस्य इसके प्रति गम्भीर नहीं थे। जर्मनी, बुल्गारिया और तुर्की को इस सम्मेलन में आमन्त्रित न करना अनुचित था। सभी महत्वपूर्ण निर्णय प्रमुख तीन राष्ट्रों-इंग्लैण्ड, फ्रांस और अमेरिका द्वारा ही लिये जाते थे। छोटे राष्ट्रों और अन्य सहयोगी राष्ट्रों से विचार नहीं किया जाना न्यायासंगत नहीं था। वर्साय की सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिये जब जर्मन प्रतिनिधि मण्डल पेरिस आया तो मित्र राष्ट्रों का व्यवहार क्रोध से भरा था।

2. अपमानजनक सन्धि- संधि का प्रारूप तैयार हो जाने पर जर्मन सदस्यों से हस्ताक्षर करवाने के लिए जिस तरह का व्यवहार किया गया वह अपमानजनक था। इसलिए जर्मनी के चांसलर शीडमैन ने त्याग-पत्र दे दिया था। इंग्लैण्ड के समाचारपत्रों तथा फ्रांस के समाचारपत्रों ने भी जमकर जर्मनी को अपमानित किया। घटिया शब्दावली और प्रतिरोधात्मक भाषा का इस्तेमाल अपरिपक्व पत्रकारिता का द्योतक था।

3. आरोपित सन्धि- सम्मेलन में जर्मनी को न बुलाना ही पर्याप्त था। युद्ध के लिये जर्मनी को उत्तरदायी ठहराना सर्वथा अनुचित था। जर्मनी को यह स्वीकारना पड़ा और उन दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने पड़े, जिनका वह दोषी नहीं था। आर्थिक, औपनिवेशिक हर दृष्टि से जर्मनी को पंगु बनाने की कोशिश की गयी। अलग-अलग कमीशनों ने अपने निर्णय दिये और यह विचार नहीं किया गया कि इसका जर्मनी पर सम्मिलित प्रभाव क्या होगा। हिटलर ने बाद में इस सन्धि का अपने भाषणों में बहुत उपहास किया और जर्मनी जनता को यह बताया कि किस तरह जबरन इस सन्धि को उन पर लादा गया है।

4. कठोर सन्धि- इस सन्धि की तमाम शर्ते कठोर थीं। जर्मनी और यूरोप का विशेष रूप से अंग-भंग कर दिया गया था। तुर्की के अनेको राज्य जबरन ले लिये गये थे। इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री लायर्ड जार्ज ने स्वयं स्वीकारा है कि-

"संधि की शर्ते बड़ी भयानक किन्तु न्यायपूर्ण थीं।"

इसका परिणाम यह हुआ जर्मनी में द्वेष की भावना प्रज्जवलित हुई और जल्दी ही एक-एक करके उन सभी शर्तों का उल्लघंन आने वाले समय में हिटलर ने कर दिया।

5. छद्म आडम्बरपूर्ण सिद्धान्तों पर आधारित सन्धि- फ्रांस पूर्णतः भयाक्रान्त और सुरक्षा के प्रति अत्यधिक चिन्तित राष्ट्र था। फ्रांस पर जर्मनी द्वारा दो बार आक्रमण हो चुके थे। इसलिये फ्रांस की चिन्ता न्यायोचित थी। किन्तु इस अवसर पर फ्रांस के प्रतिनिधि बदले की भावना से प्रेरित हो; जर्मनी को पूरी तरह से तोड़ देना चाहते थे। जर्मनी ने युद्ध समाप्ति की घोषणा इस आधार पर की थी कि उसके साथ पूर्ण न्याय होगा और सन्धि वार्ता का आधार विल्सन के 14 सूत्र होंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फ्रांस के सैन्य जनरल मार्शल फोश ने स्थिति का ठीक आकलन कर यह कहा था कि- "यह महज 20 वर्ष का युद्ध विराम था।" इस कथन की सत्यता द्वितीय विश्व के रूप में सामने आयी।

6. सन्धि की आन्तरिक विवशताएँ- सन्धियाँ कठोर अवश्य थीं लेकिन युद्धजनित भावना उस समय तीव्र थी, भविष्य का भय विद्यमान था और बदले की भावना स्पष्ट थी। इसलिये सन्धि का अध्ययन सहानुभूतिपूर्ण करना आवश्यक है। एक तरफ विल्सन के आदर्शवादी 14 सूत्र और दूसरी तरफ मित्र राष्ट्रों का यथार्थवादी दृष्टिकोण। मित्र राष्ट्र प्रादेशिक लाभ सहयोगी राष्ट्र को देना चाहते थे, उन गुप्त सन्धियों की अनुपालना में जिन पर हस्ताक्षर युद्ध के दौरान हुए थे। वे ये भूल कर बैठे कि इस प्रकार का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण कि केवल पराजित राष्ट्र ही सभी तकलीफों को भोगें, आत्मघाती सिद्ध होगा। इस प्रकार के प्रयासों से स्थायी शान्ति की अपेक्षा करना एक मरीचिका मात्र ही था। पराजित राष्ट्र के साथ उदारता पूर्ण दृष्टिकोण अपनाना शान्ति के लिये आवश्यक होता है।

विजेता राष्ट्रों के स्वार्थ भी एक-दूसरे से टकराते थे। फ्रांस जर्मनी के प्रति घोर शत्रुता रखता था और उसका सर्वनाश चाहता था। इंग्लैण्ड जर्मनी के साथ नरम रवैया अपनाने के पक्ष में था।

निष्कर्ष (Conclusion)-

इस तथ्य को दृष्टिगत रखना आवश्यक है कि इतने बड़े सम्मेलन में कोई भी पक्ष असन्तुष्ट न हो, यह एक अपूरणीय अपेक्षा थी। शान्ति सन्धि में दोष यह था कि नवीन प्रादेशिक व्यवस्था के कारण जो आर्थिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं, उनके निराकरण की कोई सार्थक व्यवस्था नहीं की गयी। एक महायुद्ध द्वारा नष्ट-भ्रष्ट महाद्वीप में नये राज्यों के निर्माण थे फलस्वरूप 12 हजार मील लम्बी नयी सीमाएँ बन गयीं जिनके फलस्वरूप व्यापार में चुंगी सम्बन्धी रुकावटें उत्पन्न हो गयीं। तीव्र आर्थिक राष्ट्रीयता ने नव निर्माण की स्वाभाविक शक्तियों को समाप्त कर दिया। आने वाले वर्षों में यूरोप और विश्व की कठिनाइयों तथा राजनीतिक अस्थिरता का कारण यही था।

युद्ध के उपरान्त राष्ट्रीय राज्य की आधारशिला मजबूत हुई। युद्ध में जहाँ राजवंशीय राज्यों की पराजय हुई थी, वहीं जनतन्त्रीय राष्ट्र जैसे ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस युद्ध की विषमता को झेलकर विकास की दिशा की ओर बढ़े। आर्थिक मन्दी के परिणामस्वरूप उदारवादी और पूंजीवादी व्यवस्था में लोगों की आस्था समाप्त हो गयी। सारे यूरोप में क्रूर और अमानुषिक विचारधाराओं और विध्वंसकारी शक्तियों का उदय होने लगा। इस नैतिक संकट की जड़ में विश्वव्यापी लाचारी की भावना, दिशाहीनता और कुछ समूहवादी अंधी शक्तियाँ थीं। ये परिस्थितियाँ भावी संकट की सूचक थीं। इस आपात राजनीति के दो परिणाम सामने आये- 1. साम्यवाद, 2. अधिनायकवाद।

अन्तत: इन्हीं का परिणाम द्वितीय विश्व युद्ध था।

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