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शीत युद्ध की समाप्ति

बीसवीं सदी का विश्व

शीतयुद्ध की समाप्ति की पृष्ठभूमि

1985 के बाद परिस्थितियों में परिवर्तन आया और 1985 से 1991 तक का काल शीतयुद्ध के अन्त का काल रहा। इस काल में सोवियत रूस और अमेरिका के सम्बन्धों में पर्याप्त परिवर्तन आया। शीतयुद्ध काल में दोनों ही विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों के आविष्कार और उत्पादन में लगे रहे। किन्तु साथ ही उन्होंने यह भी अनुभव किया कि परमाणु शस्त्रों के सम्बन्ध में कोई समझौता हो जाना चाहिए ताकि दोनों देशों में हो रहे रक्षा अनुसंधान और उत्पादन के बजट में कमी की जा सके। अत: शीतयुद्ध काल में दोनों पक्षों के मध्य आंशिक परीक्षण निषेध सन्धि (1963), परमाणु अप्रसार सन्धि (1968) और 1972 में युद्धनीतिक शस्त्रास्त्र परिसीमन वार्ता (साल्ट, SALT) प्रथम और द्वितीय रूप में ऐसे प्रयास हो चुके थे।

शीतयुद्ध के अन्त के इस दौर में अमेरिकी विदेशमंत्री जार्ज शुल्ट्ज और सोवियत विदेशमंत्री आन्द्रेई ग्रोमिको के मध्य जनवरी, 1985 में हुई मुलाकात ने इस कार्य को नयी दिशा दी। उन्होंने इस सम्बन्ध में नवम्बर, 1985 में गोर्बाच्योव-रीगन शिखर बैठक की आधारभूमि तैयार कर दी। तद्नुसार 19-20 नवम्बर, 1985 को जेनेवा में रीगन-गोर्बाच्योव आपस में मिले। जहाँ दोनों नेताओं ने परमाणु युद्ध नहीं करने, सैनिक वर्चस्व के प्रयत्नों के परित्याग, हथियारों की होड़ रोकने, रासायनिक हथियारों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने, बल प्रयोग को वर्जित करने, परस्पर-अमेरिका और रूस की यात्रा करने, वाणिज्य दूतावास खोलने तथा आर्थिक, वैज्ञानिक, शैक्षिक और वैज्ञानिक क्षेत्र में सहयोग करने पर सहमति व्यक्त की। शीतयुद्ध की समाप्ति की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम था। इसके बाद एक के बाद एक शिखर सम्मेलन, समझौते और तनाव समाप्त करने की घटनाएँ होती चली गई और 1991 में शीतयुद्ध समाप्त हो गया।

शीतयुद्ध की समाप्ति के प्रयास

(1) 1985 के बाद 1986 में 11-12 अक्टूबर, रिकजाविक (आइसलैण्ड) में अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन और सोवियत नेता गोर्बाच्योव के मध्य पुनः शिखर वार्ता हुई जिसमें आगामी पाँच वर्षों में सामरिक हथियारों में पचास प्रतिशत कटौती करने, यूरोप में मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र समाप्त करने, एशिया में सोवियत रूस के मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र कम करने आदि विषयों पर लगभग सहमति हो गई थी। किन्तु रीगन द्वारा 'स्टारवार्स' योजना स्थगित नहीं किये जाने के प्रश्न पर वार्ता असफल हो गई।

(2) 1987 में अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य परस्पर सैनिक गतिविधियों की जानकारी देने तथा वाशिंगटन और मास्को में परमाणु जोखिम निस्तारण केन्द्र खोलने पर एक समझौता हो गया।

(3) 8 से 10 दिसम्बर, 1987 को रीगन और गोर्बाच्योव के मध्य तीसरी शिखर वार्ता हुई। 9 दिसम्बर को दोनों नेताओं ने आइ.एन.एफ. नामक महत्त्वपूर्ण सन्धि पर हस्ताक्षर किये जिसके अनुसार सोवियत रूस ने एस.एस-4, एस.एस.-12, एस.एस.-20, एस.एस.-23 प्रक्षेपास्त्रों को और अमेरिका ने पर्शिग-1ए और पशिंग-2ए प्रक्षेपास्त्रों को समाप्त करने का निश्चय किया। यह सन्धि शीतयुद्ध की समाप्ति, नि:शस्त्रीकरण और विश्व शान्ति की स्थापना की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम था। यह प्रथम सन्धि थी जिसमें प्रतिद्वंद्वी महाशक्तियों ने स्वयं द्वारा निर्मित शस्त्रों को नष्ट करने का वचन दिया। इस सन्धि के अतिरिक्त इस शिखर वार्ता में मई, 1988 से अमेरिका और रूस के बीच सीधी वायु सेवा आरम्भ करने तथा दोनों देशों ने अपने यहाँ की परमाणु क्षमता की जाँच के लिए एक-दूसरे को निरीक्षण की सुविधा देने के समझौते पर भी हस्ताक्षर किये।

(4) 1 जून, 1988 को मास्को में रीगन और गोर्बाच्योव के मध्य वार्ताओं के चार दौर हुए जिनमें हुई सहमति के आधार पर दोनों देशों के मध्य परमाणु विस्फोटों की साँझा जाँच, अन्तर महाद्वीपीय बेलेस्टिक मिसाइलों के प्रक्षेपण की परस्पर सूचना देने के समझौतों पर हस्ताक्षर हुए।

(5) अमेरिकी गुट के पश्चिम जर्मनी के राष्ट्रपति हेलमुट कोल ने 24-27 अक्टूबर, 1988 को मास्को की यात्रा की। शीतयुद्ध के आरम्भ होने के बाद पश्चिम जर्मनी के किसी राष्ट्रपति की सोवियत रूस की यह प्रथम यात्रा थी। इस यात्रा से यह स्पष्ट हो गया कि अब पश्चिमी यूरोप के देशों का रूस से अलगाव समाप्त हो रहा है।

(6) 8 दिसम्बर, 1988 के गोर्बाच्योव ने संयुक्त राष्ट्रसंघ में पूर्वी यूरोप के देशों से 5 लाख सैनिक हटाने और परम्परागत हथियारों में 30 प्रतिशत कटौती करने की घोषणा की।

(7) दिसम्बर, 1989 में सोवियत विदेशमंत्री शेवर्स नात्से ने नाटो के ब्रुसेल्स मुख्यालय में यूरोपीय आर्थिक समुदाय के साथ एक 10 वर्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किये जिसमें सोवियत संघ और इन देशों के मध्य विभिन्न वस्तुओं का व्यापार बढ़ाने पर सहमति हुई।

(8) 9 नवम्बर, 1989 को बर्लिन को दो भागों में विभाजित करने वाली और शीतयुद्ध की पराकाष्ठा प्रतीक दीवार ध्वस्त कर दी गई। इस कार्यवाही का सोवियत रूस ने कोई विरोध नहीं किया।

(9) 1 जुलाई, 1990 को जर्मनी का आर्थिक एकीकरण और 3 अक्टूबर, 1990 को राजनीतिक एकीकरण भी हो गया। इसके साथ यूरोप में शीतयुद्ध के बादल छंटने लगे।

(10) 5-6 जुलाई, 1990 को नाटो देशों के लन्दन शिखर सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने नाटो और वारसा पैक्ट के मध्य शीतयुद्ध समाप्ति की और जर्मनी में सैनिकों की संख्या कम करने की घोषणा करते हुए कहा कि पूर्वी यूरोप में सोवियत सेना की संख्या कम होने पर नाटो पश्चिमी जर्मनी से प्रक्षेपास्त्र हटा लेगा साथ ही नाटो देशों ने वारसा पैक्ट के देशों के समक्ष अनाक्रमण सन्धि की घोषणा करने और परमाणु शस्त्रों को समाप्त करने का प्रस्ताव रखा।

(11) सितम्बर, 1990 में हेलसिंकी वार्ता के समय राष्ट्रपति बुश और गोर्बाच्योव ने कुवैत पर ईराको आक्रमण की निन्दा की और सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा की।

(12) 19 नवम्बर, 1990 को पेरिस में नाटो और वारसा संधि देशों के उपशासनाध्यक्षों ने एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें दोनों गुटों के लिए सैनिकों, टैंकों, लड़ाकू विमानों, हेलीकॉप्टरों आदि की संख्या निश्चित कर दी गई, शीतयुद्ध की समाप्ति के माहौल में 1 जुलाई, 1991 को वारसा पैक्ट समाप्त घोषित कर दिया गया।

(13) 31 जुलाई, 1991 को मास्को में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश और सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव के शिखर सम्मेलन में सामरिक हथियारों की कटौती की 'स्टार्ट संधि' पर हस्ताक्षर हुए जिसके अनुसार दोनों महाशक्तियों ने परमाणु शस्त्रों में 30 प्रतिशत कटौती करने का निर्णय लिया। 12 दिसम्बर, 1991 को शीतयुद्ध का अखाड़ा बने उत्तरी और दक्षिणी कोरिया के मध्य संधि हो गई। इसी दिन रूस और अमेरिका के मध्य 1 जनवरी, 1992 से अफगानिस्तान में प्रतिद्वन्द्वी गुटों को सैन्य सामग्री की आपूर्ति बंद किए जाने समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इन प्रयत्नों के परिणामस्वरूप 1991 के अंत के साथ ही शीतयुद्ध भी समाप्त हो गया।

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शीत युद्ध की समाप्ति


शीत युद्ध के समापन के कारण

महायुद्ध के उपरान्त प्रथम शीत हुआ। उसके बाद दूसरा शीतयुद्ध चरम पर था और फिर एकदम 7 वर्षों (1985-91) में शीतयुद्ध का चरम होकर नीचे समापन पर आ गया। शीत युद्ध के समापन के निम्नलिखित कारण रहे-

1. मिखाइल गोर्बाच्योव का व्यक्तित्व एवं नीतियाँ-

मार्च, 1985 में सोवियत संघ की सत्ता मिखाइल गोर्बाच्योव के हाथों में आयी। जिस प्रकार रूसी नेता स्टालिन को शीतयुद्ध के जनक के रूप में याद किया जाता है, उसी प्रकार दुनिया गोर्बाच्योव को शीतयुद्ध का अन्त करने वाले के रूप में याद करेगी। उनकी "ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका" नीतियों ने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय नई व्यवस्था का सूत्रपात किया। सोवियत संघ ने गोर्बाच्योव के नेतृत्व में जिस उदार सौम्य और समझौतावादी राजनीति का आश्रय लिया, उसने विश्व राजनीति में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया। पूर्वी यूरोप के देशों की स्वतन्त्रता एवं लोकतन्त्र का समर्थन कर संयुक्त जर्मनी को नाटो की सदस्यता जारी रखने, वारसा पेक्ट को भंग करने का निर्णय लेकर गोर्बाच्योव ने यूरोपीय लोगों का दिल जीत लिया। इन रियासतों से जर्मन लोग तो अभिभूत हो गये। गोर्बाच्योव इन्हीं राजनीतिक उपलब्धियों के कारण, उन्हें नोबल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया।

2. सोवियत संघ की आर्थिक मजबूरियाँ-

1980 के बाद सोवियत संघ आर्थिक संकट से गुजर रहा था। अन्तरिक्ष अनुसंधान की प्रतिस्पर्धा और शस्त्र निर्माण पर बेतहाशा खर्च करने के बाद उसकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी। अब उसने सामर्थ्य नहीं था कि वह पश्चिमी देशों से शीतयुद्ध की प्रतिस्पर्धा कर सके। मिखाइल गोर्बाच्योव ने दो टूक शब्दों में सोवियत अर्थव्यवस्था की दुर्दशा का वर्णन किया है। उनके अनुसार, "स्थिति का विश्लेषण करने पर हमें पता चला कि आर्थिक प्रगति मन्द होती जा रही है। पिछले पन्द्रह वर्षों में राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर आधे से भी अधिक घट गई और 1980 के दशक के प्रारम्भ तक वह घटकर आर्थिक गतिरोध के निकटवर्ती स्तर पर पहुँच गई। जो देश कभी विश्व के उन्नत देशों की बराबरी के निकट पहुँच गया था, वह निरन्तर एक के बाद दूसरा स्तर गँवाने लगा।"

गोर्बाच्योव के अनुसार 1970-85 की अवधि में वृद्धि दर 10 प्रतिशत घट गयी। यन्त्रों तथा साज-सज्जा के निर्यात का अंश निरन्तर घटता गया। 1970 में 22 प्रतिशत से घटता हुआ वह 5 से 14 प्रतिशत से भी कम हो गया। कृषि उत्पादन भी चौदह हो गया। नवीनतम वैज्ञानिक कार्य पद्धतियों को अपनाने वाले सोवियत संघ का खेत प्रति हैक्टेयर केवल 15 क्विन्टल गेहूँ या दो-तीन मीट्रिक टन अंगूर का उत्पादन कर रहा है, जो कि भारतीय उत्पादन का एक-तिहाई भी नहीं था। उपभोक्ता क्षेत्र में प्रौद्योगिक प्रगति मन्द होने के कारण सोवियत संघ के जीवन का स्तर बहुत घट गया था। कोयला खान के श्रमिकों की हड़ताल से स्थिति और भी जटिल हो गई थी। मार्च, 1991 में की हड़ताल से 580 कोयला खानों में से 280 प्रभावित हुई। सोवियत अर्थव्यवस्था को खाड़ी युद्ध से भी धक्का लगा, क्योंकि वह सोवियत शस्त्र भण्डार की बिक्री के लिये घातक सिद्ध हुआ।

संक्षेप में, सोवियत संघ जैसी महान् शक्ति आर्थिक संकट के कगार पर थी। सन 1988 में आर्थिक वृद्धि दर 44 प्रतिशत थी। निर्यात 2 प्रतिशत घट गया और आयात 6.5 प्रतिशत बढ़ गया। जिस देश में उत्पादन दक्षता और लोगों के जीवन निर्वाह स्तर में वृद्धि रुक गयी हो, उपभोक्ता वस्तुओं के लिये लम्बी-लम्बी क्यू लगती हो, वह शीतयुद्ध की समाप्ति में ही अपना राष्ट्रीय समझेगा। सोवियत संघ की कम्यूनिस्ट पार्टी के 28वें सम्मेलन में तत्कालीन सोवियत विदेश मन्त्री शेवर मादजे ने रहस्योद्घाटन किया कि पश्चिम के साथ वैचारिक संघर्ष में 7 खरब तो सैनिक उपायों पर ही खर्च करने पड़े, जबकि राजनीतिक समतुल्यता बनाये रखने के लिए आवश्यकता इससे भी अधिक की थी। दूसरी ओर चीन के साथ लगे झमेले में 2 खरब रूबल का व्यय और हुआ। अफगानिस्तान में उलझने की लागत आयी, प्राण हानियों के अतिरिक्त 60 अरब रूबल।

3. सोवियत संघ का अवसान-

1990-91 के वर्ष सोवियत संघ के लिये उथल-पुथल के रहे हैं। 9 अगस्त, 1991 को तख्ता पलट घटना से गोर्बाच्योव की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। विश्व शक्ति के रूप में अब सोवियत संघ की प्रतिष्ठा गुजरे जमाने की बात रह गई। सोवियत संघ की स्थिति में आई यह गिरावट खाड़ी संकट के दौरान उसके द्वारा अमेरिका को दिये गये निष्क्रिय समर्थन से ही स्पष्ट हो गई थी। लेकिन इसकी चरम परिणति तब हुई, जब गोर्बाच्योव ग्रुप-7 की लन्दन में बैठक में जाकर पश्चिमी आर्थिक मदद जुटाने में विफल रहे और उनके अपने देश में अनेक गणराज्यों ने जोर-शोर से अपनी स्वतन्त्रता की माँगें रखना शुरू कर दी। किसी समय विश्व शान्ति कहलाने वाले सोवियत संघ का यह राजनीतिक बिखराव, वर्तमान समय की कुरूप वास्तविकता है। कल तक श्रमिकों के हितों की रक्षक समझी जाने वाली संस्था आज बालू की भीत सी ध्वस्त हो चुकी है। इसी प्रकार सोवियत सरकार का केन्द्रीकरण ढाँचा भी नागरिक, सैनिक और अफसरशाही के क्षेत्रों में हो रहे नित नवीन परिवर्तनों के कारण चरमरा उठा। इसी घटना क्रम का परिणाम है कि एक-एक बात कल तक अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सिंहनाद की हैसियत रखती थी।

4. कम्यूनिस्ट देशों में लोकतन्त्र व बाजार अर्थव्यवस्था-

शीतयुद्ध एक वैचारिक संघर्ष था। सोवियत संघ एवं पूर्वी यूरोप के देशों ने विकास का कम्यूनिस्ट मॉडल" अपनाया था, जिसकी विशेषता थी कि एक सर्वाधिकारवादी दल तथा केन्द्रीकृत आदेशित अर्थव्यवस्था। किन्तु 1989-90 के वर्षों में पूर्वी यूरोप के देशों में स्वतन्त्र निर्वाचन बहुदलीय लोकतन्त्रीय राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ बाजार अर्थव्यवस्था अपना ली गई। 1990 में सोवियत संघ में भी साम्यवादी पार्टी पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया तथा मुक्त बाजार व्यवस्था स्वीकार कर ली गई। अब पश्चिमी देशों व पूर्वी देशों में कोई अन्तर नहीं रह गया। अब तो सोवियत संघ को (जी ग्रुप-7) देशों से आर्थिक सहायता मिलने लगी। ऐसे परिवर्तन के दौर में शीतयुद्ध का अन्त एक स्वाभाविक घटना थी। नवम्बर, 1990-91 में अमेरिका ने खाद्य राहत के रूप में सोवियत संघ को 1.5 अरब डालर की राशि स्वीकृत की गई, जिसे मिलाकर वर्ष 1991 में दी गई अमरीकी मदद की राशि 4 अरब डालर तक पहुँच गई। इन्हीं दिनों अकेले जर्मनी ने ही सोवियत संघ को 40 अरब डालर की मदद दी थी।

शीतयुद्ध समाप्ति का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव

शीतयुद्ध की समाप्ति के वर्षों (1985-91) में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के तनाव केन्द्रों में कमी आयी और कतिपय संकटपूर्ण समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने का प्रयास किया जाने लगा। इरान, इराक युद्ध की समाप्ति (1980) अफगान समस्या के समाधान (1988), नामीबिया की स्वतन्त्रता, 1988, कुवेत को मुक्त कराने (1991) में संयुक्त राज्य अमेरिकासोवियत संघ ने मिलजुल कर कार्य किया। इस कार्य में संयुक्त राष्ट्र प्रभावी भूमिका अदा कर सका। खाड़ी संकट के दिनों में राष्ट्रपति बुश तथा गोर्बाच्योव में गजब की सहमति देखी गयी। पश्चिमी एशिया शान्ति वार्ता का माहोल तैयार करने में सोवियत संघ ने अमेरिका का पूर्ण सहयोग किया। शान्ति वार्ता में भाग लेने के लिये सीरिया को राजी करने में सोवियत संघ की पहल काफी सहायक सिद्ध हुई, क्योंकि कई वर्षों से सीरिया को हथियार सप्लाई करता रहा है। सोवियत संघ को आर्थिक संकट से उबारने के लिये, पश्चिमी देशों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। सोवियत राष्ट्रपति गोर्बाच्योव ने ग्रुप-7 देशों के लन्दन सम्मेलन जुलाई, 1991 में भाग लिया। सोवियत संघ की मदद के लिये उसे विश्व कोष और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का सदस्य बना लिया गया। इसके अलावा ग्रुप-7 ने सोवियत संघ में यातायात, कानूनी बैंकिंग प्रणाली स्थापित करने तथा ऊर्जा एवं खाद्य उत्पादन बढ़ाने में भी पूरी तकनीकी सहायता देने का वचन दिया।

शीतयुद्ध के अन्त के साथ ही सोवियत संघ का अस्तित्व भी समाप्त हो गया। 26 दिसम्बर, 1991 को सोवियत संघ की सुप्रीम सोवियत ने अपने अन्तिम अधिवेशन में सोवियत संघ को समाप्त किये जाने का प्रस्ताव पारित कर दिया और स्वयं के भंग होने की घोषणा कर दी। इसके साथ ही 70 वर्ष पुराने सोवियत संघ का अन्त हो गया। गोर्बाच्योव ने तथाकथित 'परमाणु बटन' का ब्रीफ केस' रूसी नेता येल्तसिन को सौंप दिये। विश्व के अनेक नेताओं ने गोर्बाच्योव की ऐतिहासिक दृष्टि और अपने देश में उदारवादी और लोकतान्त्रिक नीतियाँ अपनाने के वास्ते काफी सराहना की, विशेष कर ऐसे देश में, जहाँ अतीत में सत्ता हस्तान्तरण राजनीतिक दावपेंचों या सशस्त्र सेनाओं के माध्यम से हुआ हो। वर्तमान और भावी इतिहासकार यह लिखेंगे कि मिखाइल गोर्बाच्योव ने एक जटिल व्यवस्था में न केवल लोकतान्त्रिक सुधार किये, बल्कि उसने अपने देश में लोकतन्त्र के लिये राजनीतिक शहीद भी हो गये। अन्तर्राष्ट्रीय रूप में श्री गोर्बाच्योव को पूर्वी यूरोप में स्वतन्त्रता का मसीहा, जर्मनी के एकीकरण का नायक स्वीकार किया जावेगा। उन्हें शीतयुद्ध की समाप्ति और परमाणु अस्त्रों को समाप्त करने के उपाय शुरू करने का श्रेय दिया जावेगा।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के कतिपय विश्लेषकों का मत है कि सोवियत संघ के पतन के बाद एक ध्रुवी विश्व के रहते विश्वव्यापी समस्याओं के समाधान के उपाय सीमित हो जावेंगे। इसी तरह गुटनिरपेक्षता देशों और विकासशील देशों की जरूरतों व हितों की भी उपेक्षा होगी।

शीत युद्ध के अन्त का परिणाम है कि पश्चिम एशिया में अरब इजरायल विवाद के लिये शान्ति वार्ताएँ चल रही हैं और शीघ्र ही किसी सर्वसम्मति समझौते की आशा है। 29 अक्टूबर, 1991 को पेरिस में कम्बोडिया में शान्ति स्थापित हो सकेगी। अमेरिका ने कम्बोडिया के विरुद्ध 16 वर्ष से लागू व्यापार प्रतिबन्ध भी हटाने का निश्चय किया है। अफगानिस्तान में सोवियत समर्थक राष्ट्रपति डॉ. नजीब के अपदस्थ होने से वहाँ स्थायी शान्ति के अवसर बढ़े हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्व राजनीति में सोवियत संघ का पतन एक महत्त्वपूर्ण घटना रही। इससे विश्व के अनेक देशों में लोकतान्त्रिक सरकारें बनने लगीं। विश्व की महान् शक्तियों के मध्य शीतयुद्ध चल रहा था जो कि वास्तविक युद्ध से भी अधिक कष्टदायक था। सोवियत संघ के पतन के साथ शीत युद्ध समाप्त हो गया और अब विश्व में अमेरिका ही महाशक्ति के रूप में बन गया है।

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