राजपूत राज्यों और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के मध्य 1818 की संधियाँ
चार्ल्स मेटकॉफ ने जब से दिल्ली के रेजीडेण्ट का पदभार ग्रहण किया था, उसी समय से वह राजपूत राज्यों के प्रति ब्रिटिश नीति में परिवर्तन करने पर जोर देने लगा। 1811 ई. में मेटकॉफ ने गर्वनर जनरल लार्ड मिण्टो को सुझाव दिया था कि विद्रोही शक्तियों को लूट-मार के स्रोतों से वंचित रखने में ब्रिटिश संरक्षण में राजपूत राज्यों का एक संघ बना लिया जाये, परन्तु ब्रिटिश सरकार अपनी नीति परिवर्तन करने को तैयार नहीं थी। इसका कारण यह था कि राजपूत राज्य मराठों के संरक्षण में स्वीकार किये जा चुके थे। अतः इन्हें इस समय ब्रिटिश संरक्षण में लेना सम्भव नहीं था।
1813 ई. के बाद कम्पनी सरकार की नीति में परिवर्तन आया क्योंकि इस समय पिण्डारियों
को शक्ति में काफी वृद्धि हो चुकी थी। इसके अलावा तत्कालीन गवर्नर लार्ड हेस्टिंग्ज
भारत में कम्पनी की सर्वोच्च सत्ता की स्थापना के लिए उत्सुक था। इसके लिए राजपूत
राज्यों को कम्पनी के संरक्षण में लाना जरूरी था। लार्ड हैस्टिंग्ज
का मानना था कि राजपूत राज्यों को संरक्षण में लेने से कम्पनी के वित्तीय साधनों
में वृद्धि होगी जिससे कम्पनी की सुरक्षा को बल मिलेगा परन्तु वह राजपूतों के संघ
का निर्माण करने के पक्ष में नहीं था। इसलिए वह प्रत्येक राजपूत राज्य से अलग-अलग
सन्धि करके उससे सीधा सम्पर्क स्थापित करना चाहता था।
इसलिए हैस्टिंग्ज ने चार्ल्स मेटकॉफ
को राजपूत शासकों के साथ समझौते सम्पन्न करने का आदेश दिया। गवर्नर जनरल का आदेश
मिलते ही मेटकॉफ ने समस्त राजपूत शासकों के नाम पत्र भेजकर उन्हें अपना
प्रतिनिधि भेजकर सन्धि की बातचीत करने के बारे में लिखा। राजपूत शासक इसके लिए
पहले से ही तैयार थे,
क्योंकि इस समय तक वे पूर्णतया बर्बाद हो गए थे।
राजपूतों द्वारा
ब्रिटिश सम्बन्धों को स्वीकार करने के कारण
राजपूतों द्वारा ब्रिटिश सन्धियों को स्वीकारने के कारणों
का विवेचन निम्नलिखित प्रमुख बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है।
(1) मराठों व पिण्डारियों का आतंक-
राजपूत राजाओं के राज्य में
पिण्डारियों व मराठों का अत्यधिक आतंक छाया हुआ था। यह अपनी लूट नीति के
कारण राजपूत नरेशों को लूटने में लगे हुए थे अत: मराठों व पिण्डारियों के आतंक से
बचने के लिए देशी राजाओं ने सन्धि स्वीकार की थी। जॉन मालकम, मिल और विल्सन तथा कर्नल टॉड आदि अंग्रेज
विद्वानों ने यह स्वीकार किया है कि राजपूत राजाओं ने मराठों व पिण्डारियों
के आक्रमण तथा लूटमार से अपने राज्यों को बचाने के लिए ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार
किया था। ओझा,
श्यामलदास, डॉ. एम. एस. मेहता और डॉ. देवीलाल पालीवाल भी उनकी कथन की पुष्टि करते हैं।
(2) राजस्थान में मराठों का प्रवेश-
सामन्ती के आन्तरिक दबाव से मुक्त
होने, गृह-कलह तथा आपसी झगड़ी में अपने प्रतिद्वन्द्वी पर विजय प्राप्त करने
तथा निरंकुश अधिकारों को बनाये रखने के लिए राजपूत नरेश मराठों का सैनिक
सहयोग प्राप्त करने लगे फलस्वरूप मराठों का राजस्थान में प्रभाव बढ़ता चला
गया। उन्होंने राजपूत शासकों के उत्तराधिकार संघर्ष में हस्तक्षेप
करना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार मराठे राजस्थान में जिसको चाहे उसे ही
राजा बनाने लगे और उनके आतंक से मुक्ति पाने के लिए अंग्रेजों का संरक्षण
प्राप्त करने का निश्चय कर लिया।
(3) सामन्तों की शक्ति को नियन्त्रित करना-
राजपूतों द्वारा ब्रिटिश
संरक्षण स्वीकार करने का मुख्य कारण यह भी था कि वे अपने सामन्तों की शक्ति को
नियन्त्रित करने में असमर्थ थे और इसके लिए किसी सर्वोच्च सत्ता का सहयोग प्राप्त
करना अनिवार्य समझते थे। इसलिए उन्होंने पहले मराठों से सहायता लेने की
कोशिश की, परन्तु वे सफल नहीं हो पाये। मराठों की सहायता के बाद सामन्तों की शक्ति में
भी वृद्धि हुई क्योंकि पैसे देकर वे भी मराठों से सहायता ले सकते थे। इस
प्रकार सामन्तों की शक्ति बढ़ने के कारण राज्य में अव्यवस्था फैल गई। उदाहरण के
लिए खेतड़ी के ठाकुर अभयसिंह और सीकर के लक्ष्मण सिंह में
राज्य के प्रशासन को अपने नियन्त्रण में लेने के लिए गहरी स्पर्धा चली। जब लक्ष्मणसिंह
का गुट मिसक गणेश नारायण को दीवान पद से हटाने में सफल हो गया तो गणेश नारायण
ने अभयसिंह से मिलकर सीकर के इलाकों को लूटना आरम्भ कर दिया।
राजस्थान की रियासतें एवं ब्रिटिश संधियां |
इस प्रकार सामन्तों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी और राजपूत शासक
इनको नियन्त्रण करने में असफल थे। अतः आतंक से बचने के लिए
राजपूत राजाओं ने ब्रिटिश संरक्षण को स्वीकार किया।
(4) राजपूत नरेशों
में गृह-कलह का होना-
मुगल साम्राज्य के पतनावस्था में
होने पर मुगल दरबार में दलबन्दी का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। जिसका
प्रभाव राजस्थान के राजपूतो पर भी दृष्टिगोचर हुआ। मुगल साम्राज्य के पतनावस्था
में पहुँचने से राजपूत राजाओं को वहाँ मनसब का पद मिलना बन्द हो गया और कुछ
राजाओं को नियुक्ति मिलती तो वे मुगल दरबार की गुटबन्दियों में
शामिल हो जाते जिससे उनकी वैमनस्यता में वृद्धि होती थी। अत: गृह कलह से
बचने के लिए राजपूत राजाओं ने ब्रिटिश संरक्षण को स्वीकार किया।
(5) आर्थिक दुर्दशा-
राजस्थान में मराठों का प्रभाव
निरन्तर बढ़ रहा था। राजपूत-नरेश मराठों से पिण्ड छुड़ाने के लिए चौथ, वार्षिक
कर आदि के रूप में भारी धन-राशि उन्हें देते रहते थे। उनकी धन सम्बन्धी माँग
निरन्तर बढ़ती रहती थी और वे वांछित धन-राशि वसूल करने के लिए राजस्थान पर
धावा बोलते रहते थे। परिणामस्वरूप मराठों के निरन्तर आक्रमणों तथा उनकी लूटमार के
कारण राजपूत राज्यों की आर्थिक दशा शोचनीय होती चली गई। अत: इस स्थिति में
उन्होंने अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त करने का निश्चय कर लिया।
(6) कम्पनी की सैन्य शक्ति को सुदृढ़ करना-
लार्ड हैंस्टिंग्ज
अंग्रेजी कम्पनी को भारत में सर्वोच्च शक्ति बना देना चाहता था। वह अंग्रेजी
कम्पनी की सैन्य शक्ति में भी वृद्धि करना चाहता था। वह राजपूत राज्यों में
एक अंग्रेज भक्त सेना की व्यवस्था करना चाहता था जिसका खर्चा तो राज्यों के नरेश
वहन करे परन्तु उस पर नियन्त्रण अंग्रेजी कम्पनी का बना रहे । अत: वह
राजपूत नरेशों के साथ सन्धियाँ करके उन्हें निर्धारित सैनिक रखने को बाध्य
करना चाहता था।
(7) लार्ड हैस्टिंग्ज की साम्राज्यवादी नीति-
लार्ड हैस्टिंग्ज भी लार्ड
वेलेजली की भाँति साम्राज्यवादी था। डॉ. मेहता के अनुसार, "यदि वेलेजली ने भारत में अंग्रेजों की श्रेष्ठता स्थापित की तो लार्ड
हैस्टिंग्ज उनको सार्वभौमिकता स्थापित करना चाहता था। भारत में कम्पनी को सर्वोच्च
शक्ति बनाने के लिए वह कम्पनी के प्रभाव में वृद्धि करना चाहता था।"
लार्ड हैस्टिंग्ज के भारत
आने के समय मराठा व पिण्डारी अत्यधिक शक्तिशाली हो गये थे। अत: लार्ड हैस्टिंग्ज
ने सर्वप्रथम मराठा शक्ति को तोड़ने के लिए पिण्डारियों का दमन किया। इसके बाद
मराठों के विभिन्न कर्णधारों को विभिन्न युद्धों में परास्त करके उनको शक्ति का
दमन कर दिया। इस प्रकार जब लार्ड हैस्टिंग्ज ने पिण्डारियों व
मराठों का दमन कर दिया तो राजपूत राजाओं ने इसे अपनी रक्षा का एक पर्याप्त साधन
समझा और जब लार्ड हैस्टिंग्ज ने राजपूत राजाओं के सामने सन्धि
प्रस्ताव रखा तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
(8) कम्पनी की हड़प नीति-
ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी
अपने प्रभाव को बढ़ाना चाहती थी अतः ऐसी स्थिति में देशी राजाओं को इस बात का भय
था कि अगर वे अंग्रेजों का संरक्षण स्वीकार नहीं करते हैं तो उनका साम्राज्य हड़प
लिया जायेगा अतः अपने साम्राज्य को बनाये रखने के लिए भी राजपूतों ने अंग्रेजों का
संरक्षण स्वीकार किया।
उपर्युक्त सभी कारणों से देशी राजाओं ने
अंग्रेजों की संरक्षात्मक सन्धियों को स्वीकार किया।
अंग्रेजों की कोटा के साथ सन्धि : (26 दिसम्बर, 1817 ई.)
1817 ई. तक पेशवा,
सिन्धिया और होल्कर को पराजित करने के पश्चात् अंग्रेजी ईस्ट
इण्डिया कम्पनी अत्यन्त शक्तिशाली हो गई थी। कोटा का दीवान जालिम
सिंह काला कम्पनी सरकार के साथ सन्धि समझौते करने के लिए तत्पर था।
अतएव महाराजा शिवदान सिंह,
सेठ जीवनराम व लाल हुक्मचन्द को महाराव कोटा
के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली भेजा। उन्होंने वहाँ गवर्नर जनरल के
प्रतिनिधि सर चार्ल्स मेटकॉफसे वार्ता की तथा उसके पश्चात्
निम्नलिखित दस शर्ते वाली सन्धि सम्पन्न हुई-
(1)
अंग्रेजी सरकार तथा महाराव उम्मेद सिंह प्रथम, उसके
वंशज तथा उत्तराधिकारियों बीच मैत्री सम्बन्ध बना रहेगा।
(2) कोटा राज्य कम्पनी की संरक्षकता में रहेगा।
(3) सन्धि करने वाले दोनों पक्षों के शत्रु और मित्र एवं एक-दूसरे के
शत्रु व मित्र होंगे।
(4) कम्पनी सरकार की पूर्व स्वीकृति के बगैर महाराव कोटा किसी और राज्य के
साथ किसी प्रकार को सन्धि-समझौता नहीं करेगा।
(5) महाराव व उसके उत्तराधिकारी अंग्रेजों के आधिपत्य को स्वीकार करेंगे तथा
भविष्य में किसी और राजा तथा राज्यों के साथ सम्बन्ध नहीं रखेंगे।
(6)
महाराव उसके उत्तराधिकारी किसी अन्य राज्य पर आक्रमण नहीं
करेंगे। यदि महाराव का किसी के साथ विवाद हो जाता है तो मध्यस्थता व अन्तिम निर्णय
अंग्रेजी सरकार करेगी।
(7) कोटा राज्य किसी अन्य शक्ति को कर नहीं देगा। यदि कोई शक्ति कर
माँगती है तो उसका स्तर कम्पनी सरकार देगी।
(8) कोटा अब तक मराठों को जो कर देता रहा है वह भविष्य में ब्रिटिश
ईस्ट इण्डिया कम्पनी को देगा।
(9)
आवश्यकतानुसार कोटा अंग्रेजों को सैनिक सहायता देगा।
(10)
महाराव, उसके वंशज एवं उत्तराधिकारी पूर्ण रूप से
अपने पैतृक राज्य के शासक रहेंगे और अंग्रेज आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं
करेंगे।
मेवाड़ के साथ अंग्रेजों की सन्धि : (13 जनवरी, 1818)
मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह के प्रतिनिधि ठाकुर
अजीतसिंह ने ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रतिनिधि सर चार्ल्स
मेटकॉफ के जिस सन्धि पत्र पर दिल्ली में 13 जनवरी, 1818 को हस्ताक्षर किए थे,
उसकी 10 शर्तें इस प्रकार थी-
(1)
दोनों पक्षों के बीच मैत्री, सहकारिता तथा स्वार्थ
की एकता सदा पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहेगी तथा दोनों के मित्र तथा शत्रु एक-दूसरे के
मित्र एवं शत्रु होंगे।
(2)
अंग्रेजी सरकार उदयपुर राज्य की रक्षा का वायदा करती
है।
(3) उदयपुर राज्य की समृद्धि एवं उन्नति में कम्पनी सरकार पूरा
ध्यान रखेगी।
(4) आवश्यकता पड़ने पर उदयपुर को अपनी सेना अंग्रेजी सेना को सहायतार्थ भेजनी
होगी।
(5) उदयपुर के महाराणा सदैव अंग्रेजों के अधीन रहते हुए उनका साथ
देंगे तथा अन्य राज्यों अथवा उसके शासकों के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं
रखेंगे।
(6) उदयपुर महाराणा अंग्रेजों की जानकारी के बगैर किसी अन्य राजा के
साथ न तो किसी प्रकार की सन्धि करेगा और न ही पत्र-व्यवहार। परन्तु अपने
मित्रों तथा सम्बन्धियों के साथ मैत्रीपूर्ण पत्र-व्यवहार करता रहेगा।
(7) महाराणा किसी पर अत्याचार नहीं करेगा। यदि किसी से विवाद हो जाए तो
उसे मध्यस्थता के लिए कम्पनी सरकार के सम्मुख पेश करेगा।
(8) आगामी पाँच वर्ष तक उदयपुर को वार्षिक आय का 1/4 भाग
कम्पनी सरकार की खिराज में देंगे और इस अवधि के पश्चात् आय का रुपये में छः
आने खिराज में देंगे। खिरा अदायगी के सम्बन्ध में उदयपुर महाराणा
किसी और शक्ति अथवा राज्य के साथ सम्बन्ध नहीं रखेगा। यदि कोई और पक्ष खिराज
की मांग करता है तो अंग्रेजी सरकार उसके दावे का जवाब देगी।
(9) ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी उदयपुर राज्य के आन्तरिक
प्रशासन एवं सम्प्रभुता में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी।
(10) दसवीं शर्त के अनुसार अहदनामा एक माह के पश्चात् लागू हो जाएगा।
इस सन्धि के पश्चात् महाराणा उदयपुर मराठों की
आतंककारी गतिविधियों से सुरक्षित हो गया तथा मेवाड़ के जो सामन्त महाराणा
के विरुद्ध वाह्य शक्तियों के साथ गठजोड़ करके आन्तरिक प्रशासन में अव्यवस्था
उत्पन्न करते थे वह ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को सर्वोच्च शक्ति के साथ
रक्षात्मक एवं आक्रामक सन्धि हो जाने के पश्चात् शनैः-शनैः कम हो गया।
अंग्रेजों की मारवाड़ के साथ सन्धि : (6 जनवरी, 1818)
जोधपुर की अंग्रेजों के साथ पहली
सन्धि 22 दिसम्बर,
1803 में हुई थी। लेकिन उसे ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी
ने मई, 1804 ई. में समाप्त घोषित कर दिया था। मारवाड़ के महाराजा मानसिंह
ने 1805 व 1806 में सन्धि का प्रस्ताव अंग्रेजों के पास भिजवाया था, जिसे
कम्पनी सरकार ने स्वीकृत नहीं किया। 1807 से 1812 के
बीच कम्पनी के गवर्नर जनरल देशो राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण
करते रहे। लेकिन 1803 के बाद राजपूत राजाओं के वकील दिल्ली स्थित अंग्रेज रेजीडेन्ट से
मिलते रहे तथा मैत्री सन्धियाँ करने की याचना भी करते रहे।
जोधपुर के वकील आसोपा विशन राम ने जोधपुर
राजा की ओर से कम्पनी सरकार के साथ सन्धि की बात चलाई, जिसे
गवर्नर जनरल लार्ड हैस्टिंग्ज ने स्वीकार कर लिया।
इस सन्धि की निम्नलिखित 10 शर्तें थी-
(1) अंग्रेजी सरकार जोधपुर राज्य और मुल्क की रक्षा करने का जिम्मा लेती
है।
(2) ईस्ट इण्डिया कम्पनी और महाराजा मानसिंह तथा उसके
वंशजों के बीच मैत्री, सहकारिता तथा स्वार्थ की एकता सदा पुश्त-दर-पुश्त कायम रहेगी और एक के मित्र
तथा शत्रु दोनों के मित्र एवं शत्रु होंगे।
(3)
महाराजा मानसिंह तथा उसके उत्तराधिकारी अंग्रेज
सरकार का बड़प्पन स्वीकार करते हुए उसके अधीन रहकर उसका साथ देंगे और दूसरे राजाओं
अथवा रियासतों से किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखेंगे।
(4)
अंग्रेजी सरकार को बताए बिना और उसको
स्वीकृति प्राप्त किए बिना महाराजा और उसके उत्तराधिकारी किसी अन्य राजा अधवा
रियासत से कोई अहमदनामा नहीं करेंगे। परन्तु अपने मित्रों एवं सम्बन्धियों के साथ
उनका मित्रतापूर्ण पत्र-व्यवहार पूर्ववत् जारी रहेगा।
(5)
महाराजा और उसके उत्तराधिकारी किसी पर ज्यादती नहीं
करेंगे। यदि दैवयोग से किसी से कोई झगड़ा खड़ा हो जाएगा तो वह मध्यस्थता तथा
निर्णय के लिए अंग्रेज सरकार के सम्मुख पेश किया जाएगा।
(6) अंग्रेजी सरकार इकरार करती है कि सिन्धिया अथवा अन्य कोई खिराज
का दावा करेगा तो अंग्रेज सरकार उसके दावे का जवाब देगी।
(7) जोधपुर राज्य की तरफ से अब तक सिन्धिया को दिया जाने वाला खिराज
अब सदा अंग्रेज सरकार को दिया जाएगा और खिराज सम्बन्धी जोधपुर राज्य का सिन्धिया
के साथ का इकरारनामा खत्म हो जाएगा।
(8)
माँगे जाने पर जोधपुर राज्य को अंग्रेजी सरकार की सहायता के
लिए 1500 सवार देने पड़ेंगे और जब भी आवश्यकता पड़ेगी, राज्य के भीतरी
इन्तजाम के लिए सेना के कुछ भाग के अतिरिक्त शेष सब सेना महाराजा को अंग्रेजी सेना
का साथ देने के लिए भेजनी होगी।
(9)
महाराजा और उसके उत्तराधिकारी अपने राज्य के खुदमुख्तार रईस
रहेंगे और उनके राज्य में अंग्रेजी हुकूमत का दखल न होगा।
(10)
यह शर्ते व सन्धि दिल्ली में लिखी गई और इस पर
चार्ल्स मेटकॉफ व व्यास विशनराम और व्यास अभयराम ने हस्ताक्षर किए। युवराज महाराज कुमार
छत्रसिंह व महाराजा मानसिंह तथा गवर्नर जनरल की स्वीकृति के
पश्चात् 6 माह के भीतर सन्धि लागू हो जाएगी।
राजस्थान पर ब्रिटिश
आधिपत्य के परिणाम
(1) राजपूत शासकों की बाह्य स्वतन्त्रता की समाप्ति-
अंग्रेजी कम्पनी का संरक्षण
प्राप्त करने के कारण राजस्थान के राजपूत-नरेशों की बाहा स्वतन्त्रता समाप्त हो
गई। अब राज्य के विदेशी सम्बन्धों का नियन्त्रण ब्रिटिश सरकार के हाथ में चला गया।
अब ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त करने के बाद इन राजपूत राज्यों की स्थिति अत्यन्त
शोचनीय हो गई।
अंग्रेजी कम्पनी से सुरक्षा का
आश्वासन मिल जाने पर राजपूत-नरेश अपनी सैन्य-शक्ति के प्रति उदासीन हो गए।
उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति को सुदृढ़ करने का कोई प्रयास नहीं किया। अब वे
अंग्रेजों की सैनिक सहायता का आश्वासन प्राप्त करके बिल्कुल अकर्मण्य, आलसी
तथा विलासप्रिय बन गए परिणामस्वरूप उनका सैनिक संगठन और भी दुर्बल हो गया और वे
अंग्रेजों पर निर्भर होते चले गए।
(2) राजपूत राज्यों की आर्थिक व्यवस्था का शोचनीय होना-
अंग्रेजों ने शुरू में ही राजपूत राज्यों से अधिक से अधिक धन वसूल करने की नीति अपनाई। अंग्रेजों को नियमित
रूप से कर देने से राजपूत राज्यों की आर्थिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। खिराज
के अतिरिक्त भी
कम्पनी शान्ति व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर राजाओं से
धन वसूल करती थी। युद्ध की परिस्थितियों में भी राजाओं
को धन देने के लिए बाध्य किया जाता था। इस धन-राशि के अतिरिक्त
राजपूत नरेशों को अपने खर्चे पर कम्पनी के लिए सेना रखनी पड़ती थी। यदि
राजा उस
सैनिक खर्च को वहन करने में असमर्थता दिखाता तो उसके राज्य
के कुछ भाग पर कम्पनी अपना अधिकार कर लेती थी।
इसके अतिरिक्त शान्ति सुरक्षा के नाम पर यदि कम्पनी अपने सैनिक भेजती तो वह इस सहायता के बदले में राजपूत नरेशों से उसका खर्च वसूल कर
लेती थी।
जब जयपुर नरेश ने शेखावाटी में राजमाता के
समर्थक सामन्तों को कुचलने के लिए अंग्रेजी कम्पनी से सैनिक
सहायता प्राप्त की तो कम्पनी ने उसका खर्चा माँगा और जब जयपुर नरेश
ने खर्चा देने में असमर्थता प्रकट की तो कम्पनी ने साम्भर झील को
अपने अधीन कर लिया। अंग्रेजों की इस नीति के कारण राजस्थान
के राजपूत राज्यों की आर्थिक दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ती चली
गई और वे अपने सैनिकों तथा कर्मचारियों को नियमित रूप से वेतन देने में भी असमर्थ
हो गए। इस कारण सैनिकों और कर्मचारियों को विद्रोह का झण्डा ऊँचा करना पड़ता था।
(3) राजपूत राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप-
इन सन्धियों के फलस्वरूप अंग्रेजी कम्पनी का
राजस्थान के राजपूत राज्यों के आन्तरिक मामलों में भी हस्तक्षेप बढ़ने लगा। 1818 ई.
को सन्धियों के अनुसार राजस्थानी नरेशों ने अपने राज्यों में अंग्रेजी कम्पनी के पोलिटिकल
एजेण्ट नामक अधिकारी रखना स्वीकार कर लिया। ये पोलिटिकल एजेण्ट
चाहते थे कि राजपूत नरेश उनके परामर्श के अनुसार शासन का संचालन करे। ये प्रशासन
में सुधार करने के बहाने राजाओं के शासन में हस्तक्षेप करते तथा इस बहाने अपने
मनचाहे अधिकारी राज्यों में नियुक्त करते थे। फलस्वरूप राज्य के आन्तरिक शासन में
राजाओं का महत्त्व घट गया और उनके स्थान पर अंग्रेज अधिकारियों का महत्त्व
बढ़ गया।
(4) सामन्तों तथा राजाओं के बीच वैमनस्य उत्पन्न करना-
अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति के
अनुसार सामन्तों तथा राजपूत नरेशों के बीच वैमनस्य उत्पन्न कराने का भरसक
प्रयत्न किया। अंग्रेजों का प्रोत्साहन पाकर सामन्तों ने खालसा भूमि
को लूटना शुरू कर दिया। इससे राज्यों में अव्यवस्था फैल गई और इस व्यवस्था का दमन
करने के बहाने अंग्रेजों को राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अवसर
मिल गया। दूसरी ओर सामन्तों के उपद्रवों का दमन करने के लिए राजपूत नरेशों को
अंग्रेजों का मुंह ताकना पड़ा था और उनके सैनिक मा प्राप्त करने के लिए उन्हें
काफी धन देना पड़ता था।
अंग्रेज एक ओर तो सामन्तों को
शक्ति हीन बनाकर अपने समर्थक अधिकारियों की नियुक्ति करना चाहते थे दूसरी तरफ सामन्तों
के सैनिक साधन समाप्त कर राजाओं को अपने अधिक से अधिक आश्रित बनाता चाहते थे। इस प्रकार की नीति का अनुसरण करके अंग्रेज राज्यों के आन्तरिक
मामलों में
अधिकाधिक हस्तक्षेप कर वहाँ अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते
थे।
(5) पोलिटिकल एजेण्ट द्वारा हस्तक्षेप-
डॉ. गुप्ता एवं डॉ. ओझा ने
अपनी पुस्तक
'राजस्थान का इतिहास एक सर्वेक्षण' में उल्लेख किया है कि
"राजस्थानी शासकों ने अपने राज्यों में पोलिटिकल एजेण्ट
को स्वीकार कर अपने पैरों पर अपने हाथ से कुल्हाड़ी मार ली। पोलिटिकल एजेण्ट ने यहाँ के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर
दिया तब राज्य के अधिकारियों ने भी अपने शासक की अपेक्षा पोलिटिकल एजेण्ट के प्रति वफादारी प्रदर्शित करना शुरू किया।" अत: इन दुष्परिणामों के कारण राजपूत शासकों की प्रशासनिक कार्यों के प्रति
दिन-प्रतिदिन
दिलचस्पी कम होती चली गयी।
(6) शासन व्यवस्था पर प्रभाव-
बाह्य आक्रमण के विरुद्ध अंग्रेजों का संरक्षण
प्राप्त
करके तथा आन्तरिक शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखने में
सहायता का आश्वासन प्राप्त करके राजपूत नरेश निष्क्रिय हो गए, शासन
सम्बन्धी कार्यों के प्रति उदासीन हो गए और सुरा एवं सुन्दरी के सेवन में डूब गए। परिणामस्वरूप प्रशासन शिथिल तथा अस्त-व्यस्त हो
गया और
जनता की दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई।
(7) अंग्रेजों द्वारा सन्धियों का उल्लंघन-
ब्रिटिश संरक्षण के
बदले में राजपूत शासकों को न केवल अपनी बाह्य सत्ता अंग्रेजों को
सौंपनी पड़ी,
बल्कि अपनी आन्तरिक स्वाधीनता का भी
बलिदान करना पड़ा। अपनी आन्तरिक कमजोरियों से विवश होकर राजपूत शासकों को साथ समानता के दावे छोड़ते हुए ब्रिटिश सत्ता के प्रति अधीनस्थता की नीति अपनानी पड़ी। राजपूत शासकों ने इससे पूर्व इतने प्रभावकारी और
निश्चित रूप से अपनी अधीनता किसी अन्य शक्ति यहाँ तक कि मुगल सत्ता को भी समर्पित
नहीं की थी जैसाकि उन्हें
1818 ई.में कम्पनी सरकार को करना पड़ा।
यद्यपि इन सन्धियों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख था कि राजपूत शासकों के आन्तरिक प्रशासन में कम्पनी सरकार किसी
प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगी तथा राजपूत शासक अपने
राज्यों के खुदमुख्तार बने रहेंगे परन्तु सन्धियों में ऐसी धाराओं का समावेश था जो
राज्यों के आन्तरिक शासन में ब्रिटिश हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त करने वाली थी।
फलस्वरूप ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार करने के बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने इन राजपूत राज्यों में धीरे धीरे अपना हस्तक्षेप आरम्भ किया और 19वीं शताब्दी के अन्त तक तो उन्होंने सभी राजपूत राज्यों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। सम्भवतः इसका मुख्य कारण यह था कि भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाली किसी शक्ति का अस्तित्व न रहा और सम्पूर्ण भारत के एक स्वामी बन गये। संरक्षात्मक सन्धियाँ अंग्रेजी साम्राज्य के लिए वरदान एवं देशी राज्यों के लिए अभिशाप सिद्ध हुई।
आशा है कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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